गाँव के स्तर पर संस्कृतिकर्मियों का एक नेटवर्क बनना चाहिये / गिरीश तिवारी गिर्दा

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संस्कृतिकर्मियों का नेटवर्क बनना चाहिये
साक्षातकारकर्ता: कपिलेश भोज,खीमराज

कपिलेश:- आपने अपने गीत में कहा है-

भोट माङणी च्वाख-चुपाड़ा जतुक छन
रात-स्यात सबनै की जेडि़या भै नाल।
उनरै सुकरम त पिड़ै रैईं आज
आजि जाँणि अघिलि काँ जाँलें पेड़ाल !!… मौजूदा दौर में आपको किनसे उम्मीद है ?

गिर्दा:- मित्र, रास्ता तो जनसंघर्षों का ही है। अन्ततः तो आपकी आस्था जनसंघर्षों पर आकर टिकती है। पर सिर्फ हमारी इच्छा से तो पूरे समाज, पूरे देश में परिवर्तन नहीं होगा। समाज में विभिन्न परतों में विभिन्न विचारधारायें विद्यमान हैं। चुनावी राजनीति के बाद समाज टुकड़ों में बँट गया है। इन परिस्थितियों में मुझे कोई उत्तर नहीं दिखाई देता है। जो परिवर्तनकामी, वैज्ञानिक चिन्तनधारा काम कर भी रही है, वह पॉकेट्स में सिमटकर चले गये हैं। यानी वहाँ भी कुछ न कुछ गड़बड़ है। समाज के साथ उनका भी रिश्ता उस रूप में कायम नहीं हो पा रहा है, जबकि आज तक कुर्बानियों के हिसाब से हिमालय से समुद्र तक वह विचारधारा फैल जानी चाहिये थी। आज पूरी दुनिया के संदर्भ में भी इस पर चिन्तन करना पड़ेगा। संसदीय मार्ग का इतना बड़ा आभामंडल खींच दिया गया है कि कभी-कभी हमें तक किसी के पक्ष में खड़े होने की नौबत आ जाती है। एम.एल.ए. के लिये एक डाकबंगला बुक करना सरल है, हमारे-तुम्हारे लिये कठिन है। तब हम भी यह सोचने के लिये मजबूर हो जाते हैं कि कम से कम इनके पक्ष में खड़े होकर हम एक बड़े उद्देश्य के लिये डाकबंगला तो ले सकते हैं। बचकानी हरकत से हमें बचना होगा। संघर्ष में झौंक देने से जनता के हिस्से में गलत मैसेज भी जाएगा, क्योंकि कुचलने वाले दाँत बहुत तीखे हैं और हमारी तैयारी बहुत कम है। इस रूप में जनता बहुत दिनों तक पीछे चली जाएगी। हमारी-तुम्हारी चेतना भर से परिवर्तन नहीं होगा। हम तो समझते हैं। सवाल है जनचेतना का… जनता कैसे यहाँ तक पहुँचे ? जनता के वैचारिक स्तर को ऊपर उठाना पड़ेगा। हमारी तो उत्तराखण्ड राज्य की जो परिकल्पना थी, उस पर सोचते थे कि आज सूचनातंत्र इतना विकसित हो चुका है कि गैरसैण के एक प्राइमरी स्कूल की बिल्डिग से वीडि़यों कॉन्फ्रेन्सिंग के माध्यम से हम समूचे राज्य को संचालित करते। मैं हिमांचल को मिसाल नहीं मानता, लेकिन वहाँ पर परमार साहब ने एक नींव डाली थी।। वे जनता के बीच में शिमला की मालरोड पर गुजरते थे। परिवर्तन के लिए जनचेतना का विकास व परस्पर नजदीकी जरूरी है। लोगों की भाषा का तापमान बताएगा, हमारे-तुम्हारे कहने भर से नहीं होगा। बिपिन त्रिपाठी जी ने तो अल्मोड़ा की सभा में घोषित कर दिया था कि साब हम तो वहाँ (विधान सभा में) कुछ कर नहीं पा रहे हैं। लेकिन प्लस प्वाइंट ये है कि यू.पी. वाली दादागिरी भी राजनेता की यहाँ नहीं है। प्रदीप जो भी करे, पर है तो हमारे-तुम्हारे बीच का ही। विधानसभा हल देगी, मैं नहीं कहता पर नये परिवर्तनों को तो हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा। मैं आपसे निवेदन करूँगा कि देश में इस धारा के बारे में पुनर्विचार होना चाहिये। पश्चिम बंगाल में देखिये, दक्षिण में देखिये, असफलताओं के नाम पर पूरा पन्ना भरा है। सफलता कुछ भी नहीं है।

कपिलेश:- गिर्दा, आपकी बातों से लगता है कि आप वर्तमान दौर में बहुत आशान्वित नहीं हैं। जनता का संघर्ष तो शोषण-दमन के बीच ही चलता है, लेकिन विकल्प देना बहुत जरूरी होता है क्योंकि विकल्प के अभाव में खाली जनसंघर्ष से भी कुछ नहीं होता।

गिर्दा:- विकल्प तो आपको पहले ही सामने रखना पड़ेगा, जब आप वर्तमान व्यवस्था को दमनकारी घोषित करते हो। हमारा लक्ष्य तो जनपक्षीय व्यवस्था है। हमारे चिन्तन की परिणति अराजकता नहीं होगी। हमारी कल्पना ही ऐसी है कि सम्पत्ति का नाश हो, लूटा-लूट न हो। विकल्प है तो उसकी स्पष्ट तसवीर भी आपको खींचनी होगी। आखिर कैसा समाज ? मनुष्य और सामाजिकता का महत्व। पुनर्विचार का भी समय बार-बार आता रहता है साब। उत्तराखंड के स्तर पर, देश के स्तर पर विचार करना चाहिये। लोगों को बैठना चाहिये। पहले तीस एम.एल.ए. थे, अब सत्तर हैं। इस वस्तुस्थिति का विश्लेषण हमें करना पड़ेगा। जनांदोलन कैसे ? अपने विकल्प के स्वरूप से आप जनांदोलन तय करेंगे। ‘बोल पहाड़ी हल्ला बोल’ क्या उत्तराखंडी नारा था ? लेकिन उस समय प्रेरित करने वाला यही शायद प्रभावी नारा था। तोगडि़या जब हमारे समाज में आयेंगे तो, मैंने शमशेर वगैरह मित्रों से कहा कि तब, हमारा रोल क्या होगा ? हालांकि मैं आपको बताऊँ…उत्तराखंड की जनता बहुत सहिष्णु है, वो त्रिशूलवाद के चक्कर में नहीं आयेगी। धार्मिक है पर बहुत उदारवादी है। हमारे पर्वतीय समाज का मनुष्य अपेक्षाकृत खुले दिमाग वाला है और जगह की तरह का जैसा उसमें पागलपन नहीं है। इस बात के लिये मैं आश्वस्त हूँ। लेकिन जब ये चुनौती हमारे सामने आयेगी तो हमारी तैयारी कैसी होगी। ‘बोल पहाड़ी हल्ला बोल’ का नारा भी फासिस्ट था। उसकी परिणति अन्ततः इसी तरह के फासिज्म में थी। जनसंघर्षों का मूल्यांकन करना जरूरी है। खाली जनसंघर्षों की गुहार लगाकर आप जनचेतना को आगे नहीं ले जा सकते, पर ये बात भी सच है कि जनता का व्यापक हिस्सा आंदोलनों से ही जाग्रत होता है। जब जनता सड़कों पर उतरती है और देखती है कि उनके जैसे लाखों दुःखी लोग वहाँ हैं। ‘जो दरिया झूम के उठे हैं, तिनकों से न टाले जायेंगे’ फैज की यह जो लाइन है वो इसीलिये तो हैं। जब मनुष्य अपने घर की देहरी से बाहर आता है, तब उसका व्यक्ति समष्टि में परिवर्तित हो जाता है। जनांदोलन समाज को आगे बढ़ाने के लिये जरूरी हैं, लेकिन हर जनांदोलन को आप जनपक्षीय आंदोलन तो नहीं कह सकते। भई आज तो ठेकेदार भी आंदोलन की काॅल दे रहे हैं और बाजार बंद हो भी रहे हैं। इन परिस्थितियों में तो बिना थर्मामीटर लगाये आप मूल्यांकन कर ही नहीं सकते। इसको सोचे बिना हर किसी के पीछे झोला लटका के चल दें ये तो कोई वैचारिक बात नहीं होगी।

कपिलेश:- वातावरण निर्माण में संस्कृतिकर्मियों की क्या भूमिका होनी चाहिये ?

गिर्दा:- संस्कृतिकर्मी को कभी ये मुगालता नहीं होना चाहिये कि मैं पहले दर्जे का क्रान्तिकारी हूँ। सच्चाई ये है कि संस्कृतिकर्मी वातावरण-निर्माण करता है। संस्कृतिकर्मी जोड़ने का बहुत काम करता है, थोड़े बहुत मत मतान्तर वाले विचारों के बीच अलग-अलग प्रगतिशील खेमों के बीच। उनके बीच जनता के सामने बाहरी आवरण निर्मित करने में योगदान करता है। सांस्कृतिक मंच मतभेद वाले लोगों के बीच जोड़ने का काम करता है। इसी उत्तराखंड मंे आज भी ऐसे संस्कृतिकर्मी मौजूद हैं जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से जोड़ने का काम कर रहे हैं। किसी तरह पत्र-पत्रिकाएँ निकालकर वो काम कर रहे हैं, जो हर मूल्य पर खरी उतरी हैं। बहुत सी सच्चाइयाँ वो सामने ला रही हैं। आप कह सकते हैं गिर्दा आप अति कल्पनावादी हो जाते हो पर राहुल सांकृत्यायन की धारा में आगे को काम हुआ है।

कपिलेश:- निश्चित रूप से यह हुआ तो है लेकिन यह महत्वपूर्ण काम गाँवों तक, साधारण जनता तक नहीं पहुँच पा रहा है।

गिर्दा:- हमारे पास हमारी भौगोलिक स्थिति के अनुकूल संसाधन नहीं हैं। पर मैं कहूँगा कि संस्कृतिकर्मियों को सिर्फ किताबें छाप देने भर तक सिमट कर नहीं रह जाना चाहिये। सक्रियता उन्हें दिखानी होगी। प्रेस के लिये भी आपको दिल्ली भागना पड़ता है। चार-चार सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय होते हुए भी संस्कृतिकर्मियों व जनता के बीच मजबूत पुल हम विकसित नहीं कर पाये हैं। हमारी कमियाँ तो हैं ही।

कपिलेश:- संस्कृतिकर्मियों और व्यापक जनता के बीच संवाद का मजबूत पुल बन सके, इस संबंध में आप क्या सोचते हैं ?

गिर्दा:- गाँव के स्तर पर ऐसा नेटवर्क बने, इस पर जरूर विचार होना चाहिये पर जितनी आसानी से हम कर देते हैं, चीजें उतनी सरल भी नहीं हैं। ये तो हमारा अन्तिम लक्ष्य है ही कि गाँव के स्तर पर देश के स्तर पर, दुनिया के स्तर पर ऐसा नेटवर्क स्थापित हो। संसाधनों की जहाँ तक बात है, आज प्रतिगामी शक्तियों के पास गाँव-गाँव तक पहुँचने तक इतने संसाधन हो गये हैं कि हमारा काम कठिन हो गया है। उनके पास संसाधन ज्यादा हैं, आपके पास कम हैं। समाज हितैषी शक्तियाँ पीछे छूट जा रही हैं। आज आपको स्लाइड शो चाहिये। माध्यम भिन्न-भिन्न हैं। पत्रिका, कविता, गायक ये सब माध्यम हैं। दिल्ली से दानपुर तक माध्यम बनाने की चिन्ता हमें करनी है। हमें ये भी परखना पड़ेगा कि कौन बुद्धिजीवी बुद्धिविलासी है और कौन जनपक्षीय है।

खीमराज:- एन.जीओ संस्कृतिकर्मियों को अपने हित में इस्तेमाल कर ले रहे हैं। उनके द्वारा प्रगतिशील मुहावरों को परिवर्तित करके विपरीत संदर्भ में प्रस्तुत किया जा रहा है।

गिर्दा:- यार मित्र ! इस संबंध में जब भी हम बात करते हैं तो पाते हैं कि एनजीओ विश्व के समर्थवान देशों का गोरखधंधा है। उनका उद्देश्य सामाजिक आक्रोश को बिखराने का है। तीसरी दुनिया में इनका जाल ज्यादा फैल रहा है क्योंकि यहाँ बेरोजगार ज्यादा हैं। कई स्वयंसेवी संस्थायें तो खुद ही ये नहीं समझ पा रही हैं कि वो किस जाल में फँस रही हैं। यह आज के समय की बड़ी महत्वपूर्ण सच्चाई है कि सम्पूर्ण विश्व में संभवतः सरकारों का भी उतना बड़ा नेटवर्क नहीं है, जितना बड़ा नेटवर्क एन.जी.ओ. के बीच है। ‘सहयोग’ संस्था के संबंध में जब एक बार अल्मोड़ा में हंगामा हुआ तो सीधे स्थानीय प्रशासन को तार आये कि भई ये तुम्हारे यहाँ क्या हो रहा है।

भास्कर:- कभी-कभी हमारे ही कुछ साथी तर्क करते हैं कि जब आप किसी कम्पनी में नौकरी कर सकते हैं तो एन.जी.ओ. में भी कर सकते हैं।

गिर्दा:- कई लोग ये तर्क करते हैं कि जब आप बुद्धि बेचकर एक कॉलेज में नौकरी कर सकते हैं तो एनजीओ में क्यों नहीं कर सकते। लोग तो यहाँ तक कहते हैं चलो एनजीओ में नहीं जाते तो आप देंगे हमें नौकरी। लोगों को तो तत्कालीन शरण चाहिये। किसी को भैंस की जरूरत है। एक संस्था उसको भैंस का ऋण दिला दे तो उसके लिये तो वो सर्वोत्तम है। शासकों का ये भ्रमजाल नया भी नहीं हैं। ‘गरीबी हटाओ’ का नारा भी प्रगतिशील नारे का छद्म था। जब तक आपका राजनीतिक संगठन नहीं बनेगा, तब तक संस्कृतिकर्मी का इस्तेमाल, उसके बोलों का इस्तेमाल कोई भी करेगा। ‘हम लड़ते रयाँ भुलू, हम लड़ते रूँलो’ गीत को कोई भी गा सकता है। खादी वाला, एनजीओ वाला, भाजपाई कोई भी गा सकता है। जब तक सांगठनिक मजबूती नहीं होगी, तब तक कोई सांस्कृतिक परचम हम नहीं लहरा सकते। ये बात मैं पहले भी कर चुका हूँ। वातावरण निर्माण भर का कार्य हम कर सकते हैं, संस्कृतिकर्मी कर सकते है, बुद्धिजीवी कर सकते हैं, लड़ाई तो राजनीतिक संगठन से ही आगे बढ़ेगी। जब-जब राजनीतिक संगठन कमजोर होगा, तब-तब जनता के दुश्मन जनता के मुहावरे को भुनाते जायेंगे। ये एक कड़वी सच्चाई है। ‘सरफरोशी की तमन्ना’ जैसा ऐतिहासिक गीत फिल्मी गीत बनाया गया है। कितनों को इसका रचयिता मालूम है ? उसके दुश्मन ही इसका सर्वाधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। निश्चित रूप से एनजीओ प्रगतिशील धारा में कमी ला रहा है लेकिन एनजीओ में काम करने वाले सभी लोग बेईमान हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता है।

खीमराज:- ‘नशा नहीं रोजगार दो’ जैसे आंदोलनों के अग्रिम पांत के जननेता भी गाँव-गाँव तक व्यापक रूप से उसे फैला नहीं सके। वर्तमान में तो वे भी अपने खोलों में सिमट कर रह गये हैं।

गिर्दा:- देशकाल परिस्थिति के हिसाब से लोगों की कार्यक्षमता घटती है, बढ़ती है। आज निराशा का, हताशा का दौर व्याप्त है। इसमें मुझे कोई दुविधा नहीं है। जिन आंदोलनों की आप बात कर रहे हैं, उन आंदोलनों के लोग आज शिथिल पड़ गये हैं। जो कमियाँ आप गिना रहे हैं कि वे खोलों में सिमट कर रह गये हैं। यह एक सच्चाई है, वरना आज कोई न कोई धारा तो आपके सामने होती। किसी भी धारा के विकसित न हो पाने के पीछे ये एक मुख्य कारण तो है ही है। सच्चाई तो ये भी है कि मैं भी उस रूप में सक्रिय नहीं हूँ। वो चाहे मेरी पारिवारिक कमजोरियाँ हों या शारीरिक कमजोरियाँ हों, पर व्यक्तियों पर केन्द्रित चीजों का हश्र आखिर यही होता है। इसका उत्तर क्या है ? इसका उत्तर ये नहीं है कि मैं गाँव में जाऊँ। इसका उत्तर ये है कि हमको शुरू से वैचारिक रूप में परिपक्व होना चाहिये और अपने पर केन्द्रित चीजों को कम से कम महत्व देना चाहिये। हमारा काम, आपका काम सिर्फ अपने को पैदा करना नहीं है। आप लोगों का काम पूरे समूह का निर्माण करना है। जब तक ये चेतना हमारे अंदर नहीं जागेगी, तब तक काम आगे नहीं बढ़ेगा। ये जो पीढ़ी तैयार करने का काम था अपने पीछे एक पूरी फौज तैयार करने का काम था, वो नहीं हो पाया ये तो पूरा देश मान रहा है। मेरा होना न होना, मेरा बोलना न बोलना कोई मायने नहीं रखता। मूल मुद्दा तो धारा के आगे बढ़ने का है। हम वो संवेदनशील दिल दिमाग नहीं तैयार कर पाये जो उस धारा को आगे बढ़ाते। देश काल परिस्थिति बदल रही है। इस बात पर भी हमें गौर करना होगा कि चीजें बदल रही हैं अतः क्या हमें अपने मुहावरे भी नहीं बदलने चाहिये। इन चीजों को निरन्तर परिक्षण के अन्तर्गत लेना चाहिये। एक व्यक्ति ही सब कुछ करेगा, ये आकांक्षा कतई नहीं की जानी चाहिये। ये जो आक्रोश है पुराने आंदोलनकारियों के बारे में, इस रूप में होना चाहिये कि तुमने अपने पीछे फौज क्यों तैयार नहीं की न कि तुम्हें गाँवों में जाना चाहिये।


नैतीताल समाचार से साभार