गांधी और टैगोर: जीवन और विचार की दृढ़ता के ध्रुव / सूरज पालीवाल

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महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर अपने समय की दो महान आत्माएँ थीं। एक ही समय में इस प्रकार के व्यक्तित्व अपनी-अपनी तरह से अलग क्षेत्रों में काम करते हुए एक दूसरे से इस प्रकार जुड़े होंगे, यह कल्पनातीत विश्वास उनके पत्रों को पढ़कर दृढ़ होता है। साहित्य और कला क्षेत्रों के साथ राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले दो व्यक्तित्व प्रायः इस प्रकार की चिंताएँ नहीं करते बल्कि एक दूसरे के प्रति राग-द्वेष से लबरेज ही रहते हैं। दक्षिण अफ्रीका में रहते गांधीजी यह जानते थे कि रवींद्रनाथ टैगोर शांतिनिकेतन के माध्यम से बड़ा काम कर रहे हैं और टैगोर इस तथ्य से भलीभाँति परिचित थे कि दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के खिलाफ गांधीजी जिस प्रकार का आंदोलन चला रहे हैं वह दुनिया में अपनी तरह का एक अलग आंदोलन है, जिसकी ताप भारत में भी महसूस की जाने लगी थी। जनवरी, 1915 में भारत आते समय गांधीजी ने फीनिक्स आश्रम में रहकर पढ़ने वाले छात्रों को शांतिनिकेतन भेजना ही उचित समझा था। गांधीजी का चयन बताता है कि टैगोर के प्रति उनके मन में कितनी श्रद्धा थी और उनके काम के प्रति कितना विश्वास था। इसीलिए टैगोर ने उन्हें पत्र लिखकर धन्यवाद दिया कि 'अपने छात्रों को साथ ही साथ हमारे छात्र बनाने की अनुमति के लिए।' यह संक्षिप्त-सा पत्र एक दूसरे की भावनाओं को प्रगट करता है। गांधीजी लगभग 22 वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रहे, उन्होंने वहाँ दो आश्रमों की स्थापना की-फीनिक्स और टालस्टाय आश्रम। इधर अपने पिता की साधना स्थली को देश के सर्वथा अलग प्रकार के विश्वविद्यालय के रूप में परिवर्तित करने का बीड़ा रवींद्रनाथ टैगोर ने उठाया। एक दार्शनिक और प्रकृति प्रेमी कवि तथा दूसरा शांति और अहिंसा का पुजारी लेकिन चिंताएँ समान। उन चिंताओं को दूर करने के साधन और मार्ग अलग-अलग थे लेकिन दोनों को यह विश्वास था कि एक जगह जाकर दोनों मिल जाएँगे। गांधी अपनी तरह से आजादी की लड़ाई लड़ने दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे। वहाँ रहकर उन्होंने जो प्रयोग किए थे, उन प्रयोगों को वे भारतीय राजनीति में इस्तेमाल करना चाहते थे। इतिहास में यह पहला अवसर था जब अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से शासक वर्ग को परास्त करना था। गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की नीतियों से हममें से बहुतों की सहमति नहीं है, हम यह भी नहीं मानते कि केवल गांधी के कारण देश को स्वाधीनता मिली थी लेकिन यह तो मानते ही हैं कि उन्होंने बिना किसी डर, प्रलोभन और निजी महत्वाकांक्षा के स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी। विरोधी आरोप लगाते रहे लेकिन वे अकेले पड़कर भी अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे। उनके इस अनोखे सिद्धांत ने उस समय भी कई लोगों का मन मोहा था और आज भी वह अविश्वसनीय लगता है। रवींद्रनाथ टैगोर भी उनमें से एक थे, जो गांधीजी की कई नीतियों से असहमत होते हुए भी उन्हें महात्मा मानते थे और विश्वास भी करते थे। गांधी और टैगोर के पत्र और हंगरी लेखिका रोजा हजनोशी गेरमानूस की संस्मरणात्मक पुस्तक 'अग्निपर्व शांतिनिकेतन' से यह बात स्पष्ट होती है। रोजा 1929 से 1931 तक अपने पति इस्लामी इतिहास के प्राध्यापक ज्यूला गेरमानूस के साथ शांतिनिकेतन में रहीं थीं। तीस के दशक के बनते हुए शांतिनिकेतन को रोजा की आँखों से देखना एक अकल्पनीय लेकिन अद्भुत ज्ञान के तीर्थ से परिचय कराता है। रवींद्रनाथ टैगोर के भव्य व्यक्तित्व के कारण देश-विदेश से आने वाले विद्वानों का जमावड़ा शांतिनिकेतन में रहता था। यह पुस्तक केवल निजी अनुभव ही नहीं हैं बल्कि शांतिनिकेतन की पूरी रीति-नीति तथा कविगुरु की आभा का जीता जागता प्रमाण चाक्षुष करती है। कविगुरु ने इसे अपने सपनों के विश्वविद्यालय के रूप में बनाने की ठानी थी। इसीलिए पूरा शांतिनिकेतन कवि के सपनों, उनकी महत्वाकांक्षाओं और उनकी कल्पनाओं पर संचालित होता था। रोजा ने बहुत ही कौशल के साथ शब्द-चित्र बनाए हैं। गांधीजी ने भारत आते समय फीनिक्स के छात्रों को इसीलिए शांतिनिकेतन भेजा था और इसीलिए आर्थिक संकट के दौर में टैगोर अकेले गांधीजी पर ही भरोसा करते थे। शांतिनिकेतन के विकास के साथ आर्थिक संकट भी उसी तेजी से बढ़ रहा था जिसका कोई समाधान टैगोर के पास नहीं था। देश-विदेश के भ्रमण इत्यादि से उन्हें जो भी आय होती थी वह सब शांतिनिकेतन के लिए पर्याप्त नहीं थी। दुखी मन गुरुदेव ने गांधीजी को पत्र लिखकर अपनी चिंता से अवगत कराया 'अपने जीवन के इस प्रयोजन के लिए तीस वर्षों से वास्तव में मैंने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है और जब तक मैं अपेक्षाकृत जवान और सक्रिय था मैं बिना किसी की सहायता के अपनी सारी मुसीबतें झेलता रहा और मेरे संघर्षों के दौरान यह संस्था अनेक रूपों में कई गुना संबर्धित हुई। और अब, चाहे जैसे भी हो, जब मैं 75 साल का हो चला हूँ तो इस जिम्मेदारी का भार मेरे लिए काफी बोझ बन गया है, मेरी किसी कमी के कारण मेरे लोगों के हृदयों पर मेरी अपील की समुचित प्रतिक्रिया नहीं हो पाती हालाँकि जिस उद्देश्य को पूरा करने की मैंने भरसक कोशिश की है वह निश्चय ही महत्वपूर्ण है। लगातार धन एकत्र करने के लिए भ्रमण करना जिसका परिणाम निरर्थक रूप से अत्यंत अल्प होने से मेरी रोजाना की परेशानियों से तनाव बढ़ने लगा है और मेरे शरीर को थकान की अंतिम परिणति तक ले आया है। अब मैं आपके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता जिसकी वाणी मेरे देशवासियों को यह अहसास दिला सके कि इस संस्था को इसके कार्यकलापों की समग्रता में बनाए रखना उनके हित में है और मेरे जीवन और स्वास्थ्य के दुर्बल होते अंतिम समय में मुझे निरंतर होने वाली चिंता से छुटकारा दिलाएँ।'

यह मार्मिक पत्र है। ऐसे पत्र केवल अपनों को ही लिखे जा सकते हैं। टैगोर गांधीजी पर अपार विश्वास करते थे, यह पत्र उसी विश्वास का जीवंत रूप है। वे जानते थे कि गांधीजी के अलावा आत्मा की पीड़ा को समझने वाला और कोई नहीं है। कहना न होगा कि टैगोर केवल बंगाल के ही नहीं अपितु विश्व के महानतम कवि थे। 75 वर्ष की आयु में एक बड़े और कल्पनातीत संस्थान को चलाने के लिए वे लगातार भ्रमण करते, नाटक आदि का आयोजन करते लेकिन जो मिलता वह बहुत कम होता। रोजा ने अपनी पुस्तक में कई बार इस तथ्य का उल्लेख किया है कि कवि जब विदेश से लौटते तो लोगों को लगता कि अब शांतिनिकेतन में रुके हुए कई काम फिर से आरंभ हो जाएँगे। गांधीजी इस तथ्य से अनजान नहीं थे इसलिए उन्होंने तुरंत टैगोर के पत्र के उत्तर में लिखा 'यह अविचारणीय है कि आप अपनी इस आयु में धन एकत्र करने के एक और अभियान का भार उठाएँ। शांतिनिकेतन से बिना बाहर निकले आपके पास आवश्यक धनराशि पहुँचनी ही चाहिए।' और 27 मार्च, 1936 के पत्र द्वारा सूचित किया कि 'मेरे अकिंचन प्रयास को ईश्वर का आशीर्वाद मिला है। और यह रहा धन। अब आप अपने शेष कार्यक्रम को रद्द करने की घोषणा से लोगों के मन को शांत करें। ईश्वर आपको आगामी बहुत वर्षों तक जीवित रखे।' इसी दिन 60,000 रुपये का ड्राफ्ट भेजते हुए लिखा कि 'कृपया, इस पत्र के साथ 60,000 रुपये के ड्राफ्ट को प्राप्त करें जिसे हम मानते हैं कि शांतिनिकेतन के खर्चों के घाटे के लिए है जिसको पूरा करने के लिए आप जगह-जगह अपनी कला का प्रदर्शन करते आ रहे हैं। जब हमने यह सुना तो हमें बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। हमारा विश्वास है कि अपनी ढलती हुई आयु और नाजुक सेहत के होते हुए आपको इतने श्रमसाध्य दौरों का भार नहीं उठाना चाहिए। इस युग के कवि के रूप में आपकी जो ख्याति है उससे हम अनभिज्ञ नहीं है। आप न केवल भारत के महानतम कवि हैं बल्कि आप संपूर्ण मानव जाति के कवि हैं। आपकी कविताएँ प्राचीन ऋषियों के स्तोत्रों की याद दिलाती हैं। आपने अपनी अनुपम प्रतिभा से देश का मान बढ़ाया है। और हम महसूस करते हैं कि ईश्वर ने जिन लोगों को साधन संपन्न किया है उन लोगों को इस संस्था को चलाने के लिए धन जुटाने की जिम्मेदारी के भार से आपको मुक्त रखना चाहिए। हम आशा करते हैं कि अब आप उन सभी कार्यक्रमों को निरस्त कर देंगे जो आपने ऊपर लिखी धनराशि एकत्र करने के लिए तय किए थे।' इस पत्र पर गांधीजी के हस्ताक्षर नहीं हैं लेकिन यह पत्र और यह धनराशि किसके इशारे पर दी गई थी, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। कहना न होगा कि यह पत्र तब का है जब पूरे विश्व में महामंदी का दौर था और द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल मँडरा रहे थे। उस समय 60,000 रुपये की कीमत कितनी थी, यह तो कोई अर्थशास्त्री ही बता सकता है लेकिन उन रुपयों को देने और लेने के बीच में दो पवित्र आत्माएँ थीं जिनके लिए धन लालच और व्यक्तिगत संग्रह की वस्तु न होकर सामाजिक कार्यों की पूर्ति का साधन मात्र था। गांधीजी की चिंता यह थी कि शांतिनिकेतन के लिए टैगोर को कोई ऐसा काम न करना पड़े, जिससे उनका स्वास्थ्य और रचनात्मकता प्रभावित हो। टैगोर न केवल कविताओं के कारण अपितु अपने चिंतन के कारण जिस ऊँचाई पर पहुँच चुके थे, उससे उनकी ख्याति देश विदेश में समान रूप से फैल गई थी। गांधीजी चाहते थे कि शांतिनिकेतन के आर्थिक झमेले टैगोर की चिंता का कारण न बनें। वे यह भी नहीं चाहते थे कि कविगुरु के सपनों का शांतिनिकेतन आर्थिक संकट के कारण अपनी आभा खोने लगे तथा यह भी कि इस उम्र में कवि का इस प्रकार नाचना तथा अपनी कला के प्रदर्शन से शांतिनिकेतन के लिए धनोपार्जन करना गांधीजी को अच्छा नहीं लगता था। गांधीजी अपने पत्र दि. 13.10.1935 तथा 27 मार्च,1936 के द्वारा यह अनुरोध कर ही चुके थे। लेकिन कविगुरु जानते थे कि आर्थिक संकट लगातार बढ़ रहा है, जिसके लिए उन्हें अपने तय कार्यक्रमों में जाना ही पड़ेगा। गांधीजी ने यह सुना तो उन्हें ठेस लगी और फिर 19.2.1937 को वर्धा से पत्र लिखा 'मुझे पता चला है कि दिल्ली में मेरे साथ आपने जो वादा किया था उसके बावजूद आप अहमदाबाद को भिक्षा अभियान पर जाने वाले हैं। मुझे दुख हुआ और मैं घुटने टेक कर आपसे अनुरोध करता हूँ कि यदि आपने सचमुच ऐसा कार्यक्रम बनाया है तो कृपया उसे रद्द कर दीजिए।' कविगुरु को 'भिक्षा अभियान' शब्द बुरा लगा तो गांधीजी ने 2 मार्च, 1937 को वर्धा से फिर पत्र लिखा 'जहाँ तक वादाखिलाफी की बात है मैं अपने आपको आपके इतना निकट मानता हूँ कि मजाक में आप पर वादाखिलाफी के इरादे का आरोप लगा सका। मेरा अभिप्राय एकदम सीधा-सादा था। मैं किसी न किसी तरह आपको किसी और भिक्षा अभियान पर जाने से रोकना चाहता था - इस वाक्यांश का प्रयोग मैं और आप दिल्ली में अक्सर बहुत बार किया करते थे। निस्संदेह में आपके धर्म से परिचित हूँ और सारा भारत इस पर गर्व करता है। जितना आप दे सके उतने से हमें लाभान्वित होना चाहिए लेकिन जनता के सामने आपके प्रदर्शन का उद्देश्य विश्वभारती के लिए धन इकट्ठा करने का भार आपके सिर पर कभी नहीं होना चाहिए।'

गांधी और टैगोर का पत्र व्यवहार दो साफ दिलों की अभिव्यक्ति का अद्भुत नमूना है। दोनों के पत्रों से एक दूसरे के काम की महत्ता और स्वास्थ्य के प्रति चिंता झलकती है। दोनों मानते हैं कि अपनी-अपनी तरह से वे बड़ा और नायाब काम कर रहे हैं। आज ऐसे पत्र किस रचनाकार के पास हैं, जिनमें राजनीति से जुड़ा कोई बड़ा व्यक्ति अपना विश्वास और उदात्त भावनाएँ प्रगट कर रहा हो। वह यह मानता हो कि रचनाकार के रूप में वह अपना सर्वोत्तम संसार को दे रहा है। अब तो राजनेताओं ने पढ़ना एकदम छोड़ दिया है, अब वे पूरी तरह से राजनीति और उठापटक की राजनीति में निमग्न हो गए हैं। कोई उच्च आदर्श उनके सामने शेष नहीं है। गांधी और नेहरू जैसे लोगों के चित्र भर उनके कमरे में टँगे हैं लेकिन उनकी जीवनशैली से उनका दूर-दूर का रिश्ता नहीं रह गया है। और हमारे साहित्यकार अकादमियों में पद, विदेश जाने के जुगाड़, बड़े पुरस्कार, राजनीतिक लाभ और लालच में इस प्रकार राजनेताओं के चक्कर लगा रहे हैं कि जैसे उनके पास और कोई काम बचा ही नहीं है। प्रदेशों की साहित्य अकादमियाँ तो राजनेताओं की झूठी पत्तल हो गई है, जो उसे चाटेगा वही वहाँ रह सकता है। केंद्रीय साहित्य अकादमी भी इस छूत से एकदम नहीं बची है। यह पराभव का दौर है, यह परस्पर चाटुकारिता का दौर है, साहित्य और राजनीति के साथ जीवन में आदर्शविहीनता का दौर है, यह जोर-शोर से गाने-बजाने का दौर है इसलिए इस समय अपनी धुन में बड़ा काम करने वाले का कोई महत्व नहीं है। दुनिया की चलती हवा में सब अपना सूप फटक रहे हैं जिसको जो मिल रहा है वह उसमें असंतुष्ट होकर सब कुछ पा लेने की जुगाड़ में दौड़ रहा है। कमरे में बैठकर चुपचाप काम करने का धैर्य अब बचा नहीं है। इसलिए गांधीजी याद आते हैं जो दायाँ हाथ काम न करने की स्थिति में कविगुरु को बाएँ हाथ से पत्र लिखते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि टैगोर किस चिंता के साथ उनके पत्र की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। 'मेरे दाएँ हाथ को आराम की जरूरत है। मैं किसी से लिखवाना नहीं चाहता था। बायाँ हाथ जरा धीरे चलता है। यह केवल आपको यह दिखाने के लिए नहीं कि हम कुछ लोग आपसे कितना स्नेह करते हैं। मैं वास्तव में विश्वास करता हूँ कि आपके प्रशंसकों के हृदयों की मौन प्रार्थनाएँ सुनी गई हैं और अब तक आप हमारे साथ हैं। आप विश्व के मात्र एक गायक ही नहीं हैं। आपके जीवंत शब्द हजारों लोगों के लिए पथ-प्रदर्शक और प्रेरणाप्रद हैं।' गांधी और टैगोर के आत्मीय रिश्तों को बार-बार देखना और अनुभव करना चाहिए। मानवीय रिश्तों की यह डोर लगातार और मजबूत होती गई। जैसे-जैसे दोनों की कीर्ति पताका ऊँची होती गई, वैसे-वैसे दोनों और निकट आते गए। गांधीजी ने कविगुरु की अंतिम बीमारी के समय टैगोर को अपने अंतिम पत्र दि. 1 अक्टूबर, 1940 में लिखा 'प्रिय गुरुदेव, अभी आपको कुछ समय और ठहरना चाहिए। मानवीयता को आपकी आवश्यकता है। मुझे यह जानकर अपार खुशी हुई थी कि आपकी हालत बेहतर है।' और टैगोर ने अपने अंतिम पत्र में गांधीजी को लिखा 'सेवा में, महात्मा गांधी, वर्धा। आपकी निरंतर शुभकामनाएँ मुझे अंधकारमय जगत से प्रकाश और प्राणमय जगत में ले आई हैं और मैं अपने धन्यवाद का प्रथम समर्पण आपको भेजता हूँ।' ध्यान रहे ये दोनों के एक दूसरे को अंतिम पत्र हैं। यह एक दूसरे के प्रति सम्मान और प्यार की ऊँचाइयाँ हैं, जिन्हें पाने के लिए वैसा ही हृदय और मानस चाहिए। इन स्थितियों तक पहुँचना तो दूर इन पर सोचना भी सामान्य मनुष्य के बस की बात नहीं है। कहा जाता है कि असामान्य स्थितियाँ मनुष्य के स्वभाव का निर्धारण करती हैं तो क्या इन्हीं असामान्य स्थितियों में ऐसे रिश्ते भी बलवती होते हैं। महात्मा गांधी और कविगुरु के ये रिश्ते सामान्य तो कदापि नहीं कहें जा सकते। इन रिश्तों में अब भी मानवीय हृदय की धड़कन सुनी जा सकती हैं। हृदय की आवाज को साकार करने वाले ये रिश्ते परस्पर असहमति की स्थिति में भी मजबूत और सुघड़ बने रहे, इसलिए प्रेरणास्पद हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी के इन सहज आत्मीय संबंधों से एक बात विशेष तौर पर उभरकर आती है कि दस और देश का काम करने वाले छोटी-छोटी बातों पर मन और मनःस्थिति खराब नहीं करते। जब लक्ष्य निर्धारित हो तो आँख और मन स्वतः ही नहीं भटकता। भटकने की स्थिति या तो अतिमहत्वाकांक्षा पालने पर होती है या फिर सब कुछ हमें ही मिले की मानसिकता में होती है। राजनेता अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी पर आक्रमण करता है, उसकी कमियों को दिखाता है और अच्छे को भी बुरे में परिवर्तित कर अपनी पीठ थपथपाता है लेकिन हमारे साहित्यकार तो बिना किसी कारण के ही तरल-गरल में एक दूसरे की ऐसी-तैसी करते रहते हैं। साहित्यिक जगत में जो कटुता है, उसी का परिणाम है कि अब कोई बड़ी रचना नहीं लिखी जा रही है। साहित्यकार के रूप में हमारे सामने टैगोर हैं, जो रचना के स्तर पर बहुआयामी संसार की रचना करते है। संस्कृति का ऐसा कौन-सा पक्ष है जिसका विस्तार टैगोर ने न किया हो। और कर्मक्षेत्र की बात आती है तो वे शांतिनिकेतन जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था का निर्माण करते हैं और कहते हैं 'मैंने शांतिनिकेतन की स्थापना शिक्षा और शांति के लिए की थी। प्रेम और सौहार्द्र के मंदिर के रूप में। इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य वही था। यहाँ हम सत्य की खोज करते हैं जो सारे विश्व में चमके-सूरज की तरह। इस आश्रम से शांति की धारा प्रवाहित हो, जो उन लोगों तक पहुँचे, जिन्हें हृदय से इसकी तलाश हो।' (रोजा हजनोशी गेरमानूस-अग्निपर्व शांतिनिकेतन,पृ.464) यह विविधलक्षी जीवन का घोषणा पत्र है, जिसकी भाषा स्वतः बोल रही है। दूसरी ओर महात्मा गांधी हैं, जो जीते-जी मिथ बन गए, जिनकी दृढ़ता और त्याग के स्मरण मात्र से आज भी रोंगटे खड़े होते हैं। दुनिया में ऐसा राजनेता और महात्मा ढूँढ़े न मिलेगा, जो अपनी रोजाना की कमाई से अपना पेट भरता हो। हम सब कहते जरूर हैं कि रोज कुआँ खोदो और फिर पानी पीओ। हम सबके लिए यह केवल मुहावरा-भर रह गया है। सबको संग्रह की चिंता है, अनंत चिंता और अनंत संग्रह, केवल महात्मा गांधी हैं जिनके पास संग्रह करने को कुछ था ही नहीं। कवि अपने जीवन की सारी कमाई को शिक्षा के विस्तार के लिए लगा रहे हैं और महात्मा सब कुछ त्यागकर स्वाधीनता की अमर-ज्योति को घर-घर पहुँचा रहे हैं। ऐसे विरले लोगों की दुनिया विचार की असहमति होते हुए भी आत्मीय है। उसमें किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं है। राग-द्वेष वे पालें जो केवल अपने लिए जीते हैं, जिन्हें अपने और अपने परिवार की चिंता है - गांधी और टैगोर दोनों ही समाज के लिए अपना सर्वोत्तम दे रहे थे इसलिए राग-द्वेष दूर-दूर तक नहीं था।

कहना न होगा कि रवींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी के बीच जिन आत्मीय संबंधों का निरूपण किया गया है, उसके बाहर विभिन्न मुद्दों पर असहमतियाँ भी उतनी ही खरी थीं। इन असहमतियों के रहते संबंधों में किसी प्रकार का कड़ुवापन नहीं था। इसका एक कारण तो यह कि दोनों अपनी असहमतियों को छुपाते नहीं थे, अपनी भाषा में उन्हें जो कहना होता था, कहते थे और यह भी चाहते थे कि दूसरे पर इसका असर हो। ऐसा ही एक मुद्दा चरखे की भूमिका को लेकर था। गुरुदेव ने अपनी असहमति को तार्किक ढंग से गांधीजी को बताना उचित समझा इसलिए सितंबर,1925 के 'माडर्न रिव्यू' में एक लंबा लेख लिखा। यह बहुत ही सुचिंतित लेख था, जिसमें वे लिखते हैं 'बहुत से लोग हैं जो दृढ़तापूर्वक कहते हैं और कुछ लोग हैं जो विश्वास करते हैं कि चरखा से स्वराज्य मिल सकता है, लेकिन मुझे अभी तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसकी इस प्रक्रिया के बारे में स्पष्ट धारणा हो। इसीलिए कोई विचार-विमर्श नहीं, बल्कि इस प्रश्न पर केवल झगड़ा है।'

इस लेख को गांधीजी ने ध्यान से पढ़ा। जाहिर है कि टैगोर की असहमति गांधीजी के लिए महत्वपूर्ण थी। हो सकता है कि गांधीजी ने कभी यह सोचा भी न हो कि टैगोर उनके चरखा संबंधी विचारों से असहमत भी हो सकते हैं। जब अपने आत्मीय-जन प्रश्न उठाते हैं तो उस पर पुनर्विचार जरूरी हो जाता है। इसी बीच लोगों को अवसर मिला और यह प्रवाद फेला दिया कि टैगोर ने ईर्ष्यावश यह लेख लिखा है। ऐसी स्थिति में गांधीजी को अपना पक्ष रखना जरूरी लगा। उन्होंने अपनी सारी व्यस्तताओं के बावजूद 5 नवंबर,1925 के 'यंग इंडिया' में लिखा 'मैंने अफवाह सुनी कि इस आलोचना का मूल कारण ईर्ष्या ही है। ऐसी निराधार शंकाएँ दुर्बलता और असहिष्णुता के वातावरण की द्योतक हैं। जरा ध्यान से सोचने पर स्पष्ट हो जाएगा कि हृदयहीन आरोप बिलकुल निराधार है। मुझमें ऐसा क्या है, जिससे कवि मुझसे ईर्ष्या करेंगे। ईर्ष्या के लिए पहले प्रतिद्वंद्विता की संभावना होनी चाहिए। सो मैं तो अपने जीवन में कभी एक तुकबंदी भी नहीं कर पाया हूँ। कवि में जो कुछ है, उसका अंश भी मुझमें नहीं है। उनकी महत्ता को प्राप्त करने की आकांक्षा मेरे मन में कभी नहीं आ सकती। वे अपनी महत्ता के निर्विवाद अधिकारी हैं। आज संसार में कोई दूसरा कवि उनकी बराबरी नहीं कर सकता। वे अपने क्षेत्र में जिस निर्विवाद स्थिति के अधिकारी हैं, उससे मेरे महात्मापन का कोई संबंध नहीं है। यह बात समझ लेनी चाहिए कि हमारे कार्य क्षेत्र अलग-अलग हैं और वे कहीं भी एक-दूसरे से नहीं टकराते।' यह उत्तर केवल टैगोर को ही नहीं था बल्कि उन लोगों को भी था जो इस असहमति से आनंदित थे, जिन्हें लगता था कि अब दोनों एक दूसरे के विरुद्ध लिखेंगे। गांधीजी ने बहुत ही विनम्रता से अपनी और टैगोर की सीमाएँ भी बताईं और यह भी कि वे एक दूसरे को मन से कितना आदर देते हैं। दो वैचारिक और बड़े लोगों में किसी मुद्दे पर असहमति होना एक प्रकार से जरूरी भी है, सम्मान का मतलब हर निर्णय में सहमति नहीं होता। बौद्धिक समाज में ऐसी सहमतियों के कोई अर्थ नहीं होते। गुरुदेव ने अपने लेख के आरंभ में इसे और स्पष्ट करते हुए लिखा 'जब ईश्वर ने मनुष्य की बुद्धि उत्पन्न की तो उसके सामने मकड़ी की मानसिकता आदर्श नहीं थी जिसकी नियति निरंतर एक जैसा जाला बनाने की होती है और यह मानव प्रकृति के प्रति अत्याचार है कि किसी झुंड के माध्यम से उस पर दबाव डाला जाय और उसे एक जैसे रूप और आकार तथा प्रयोजन के लिए एक मानकीकृत उपयोगी वस्तु में परिवर्तित कर दिया जाय।' दोनों महापुरुष अपने इस तर्क पर दृढ़ हैं कि आत्मीय संबंधों के बावजूद विचारों की असहमतियाँ हो सकती हैं। आदर और सम्मान का मतलब अपनी बुद्धि और अपने विचारों को गिरवी रखना नहीं होता। इसलिए गुरुदेव की चरखा, बिहार का भूकंप जिसे गांधी जी ने दैवी कठोर दंड कहा था, सत्याग्रह तथा यरवदा समझौते पर असमतियों के वे अर्थ नहीं लगाने चाहिए जो सामान्य जन लगाने के आदी हैं। विचारों की असहमति मन और बुद्धि की स्वतंत्रता का द्योतक है न कि व्यक्ति विरोध का।

कई बार यह अविश्वसनीय-सा लगता है कि जो दो व्यक्ति अपनी धुन में लगातार काम करते जा रहे हैं, वे एक दूसरे के प्रति संवेदना की अंतिम सीमा तक आत्मीय होते हुए भी विचारों में एकदम भिन्न और विरोधी नजर आते हैं। फरवरी, 1931 में बंगाल के गवर्नर सर स्टैनले जैकसन के विदाई समारोह में जिस पार्वती ने उन पर गोली चलाई, उसने शांतिनिकेतन में इस काम को करने की शपथ ली थी। जाहिर है कि गुरुदेव को यह सुनकर बहुत बुरा लगा। वे गांधीजी की कई बातों से असहमति पहले ही व्यक्त कर चुके थे, अब एक मौका और था, जो पार्वती और उनके युवा सहयोगियों ने प्रदान किया था। टैगोर आगबबूला थे, उन्हें लगने लगा था कि राजनीतिक आंदोलन के साथ शांतिनिकेतन भी कलह और अशांति का केंद्र बनता जा रहा है। इस घटना का चित्र निर्मित करते हुए रोजा लिखती हैं 'टैगोर पूरी तरह टूटे हुए से अपनी बेंच पर बैठे थे। हिंदुस्तानी अध्यापकों के विनीत नमस्कार शंकालु निगाहों से स्वीकार कर रहे थे।' उन्हें इस बात का दुख था कि जिस शांतिनिकेतन की स्थापना उन्होंने शिक्षा और शांति के लिए की थी, वहाँ इस प्रकार की हिंसक राजनीति को स्थान मिलने लगा है। टैगोर ने कहा 'महात्मा एक शांतिपूर्ण क्रांति चाहते हैं। वे हिंदुस्तान की मुक्ति के लिए रक्तहीन संघर्ष की योजना बना रहे हैं। मैंने उनको सावधान किया था। मैंने इन नतीजों के बारे में उनसे प्रार्थना की थी। लेकिन उन्होंने मेरी सलाह ठुकरा दी। वे समझते हैं, मैं कवि हूँ और मेरा दिमाग सातवें आसमान पर रहता है। गांधीजी को अपने व्यावहारिक आदर्शवादी होने का गर्व है -जो आत्मबलिदान में विश्वास रखते हैं, जो रक्तहीन विजय का विश्वास दिलाते हैं। अब भी वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं देंगे कि अनुशासनहीता हमें कहाँ ले जाएगी और शांतिपूर्ण प्रतिरोध का क्या होगा? इस रक्तहीन क्रांति के न जाने कितने खूनी शिकार होंगे? अगर एक छोटा-सा रोड़ा पहाड़ की चोटी से लुढ़कना आरंभ करता है तो जब तक नीचे तलहटी पर पहुँचता है तब तक वह एक बड़ी लुढ़कती हुई चट्टान का रूप ले लेता है - वह लोगों और घरों पर तबाही का तूफान बनकर गिरता है। इस शांतिपूर्ण आंदोलन के नाम पर सारे हिंदुस्तान में खून बह रहा है। भूख हड़ताल, आत्मबलिदान या प्रार्थना सभाओं में इस खून का प्रायश्चित नहीं हो सकता। प्रत्येक मृत्यु के लिए, प्रत्येक शांतिपूर्ण क्रांतिकारी, जो आज जेल में सड़ रहा है, महात्मा ही उत्तरदायी हैं। वे ही इन कच्चे फलों को पेड़ों से तोड़ रहे हैं। कच्चे फल कोई खुशी नहीं लाते और जिन पेड़ों से इन्हें तोड़ा जाता है वे पेड़ इनकी वजह से कष्ट पाते हैं।' शांतिनिकेतन के अपने पूरे परिवार के बीच टैगोर दुखी होकर बोल रहे थे। उनका दुख भविष्य की आशंका से उत्पन्न हुआ था। वे बिल्कुल भी नहीं चाहते थे कि शांतिनिकेतन में इस प्रकार हिंसक योजनाओं को कार्यरूप दिया जाए। वे किसी भी प्रकार की राजनीति के विरोधी थे। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि वे अंग्रेजी राज का विरोध नहीं कर रहे थे। इस देश से उन्हें उतना ही प्यार था जितना और किसी देशभक्त या स्वाधीनता सेनानी को हो सकता है। पर वे हमेशा यह भी चाहते रहे कि शांतिनिकेतन अपने लक्ष्य से न भटके। वे उसे ज्ञान और शांति का पवित्र संस्थान बनाना चाहते थे। इसलिए गांधीजी के प्रति अपने इस वक्तव्य में वे अत्यंत क्रोधित हैं। बहुत ही शांत और दार्शनिक आदमी जब आगबबूला होता है तब उसकी मनोदशा इस प्रकार की ही होती है। शांतिनिकेतन में हिंसा की राजनीति का संकल्प लिया जाए, यह टैगोर के लिए दुखद था, वे इस प्रकार की स्थिति के लिए कभी भी तैयार नहीं थे इसलिए वे राजनीति को भी शांतिनिकेतन के लिए वर्जित मानते थे। उनका अनुभव यह बताता था कि यदि राजनीति आएगी तो उसके दुष्परिणामों को लंबे समय तक रोक पाना उनके बस में नहीं होगा। राजनीति अपने पूरे दाँव-पेंचों के साथ आती है और उसमें सफलता के लिए नैतिक-अनैतिक कुछ भी किया जा सकता है। यहाँ यह प्रश्न जरूर उठता है कि जब पूरे संसार में निर्णायक स्थिति में राजनीति है तो शांतिनिकेतन को उससे बचाकर कैसे रखा जा सकता है? यह एक प्रकार का भोलापन है, जो कवि और दार्शनिकों की अपनी धरोहर होता है। कवि टैगोर जिस दार्शनिक मुद्रा में रहते थे, उसमें इस प्रकार की राजनीति विहीन दुनिया की कल्पना कवि के सपनों की दुनिया है।

महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के पत्रों तथा रोजा की महत्वपूर्ण पुस्तक 'अग्निपुंज शांतिनिकेतन' को पढ़ने के बाद शांतिनिकेतन का अप्रतिम रूप सामने आता है। उसमें कवि टैगोर द्वारा अपना सर्वोत्तम देने का विचार साकार होता है। दुनिया के लिए अनूठे और टैगोर के सपनों के शांतिनिकेतन को बनते हुए देखना नई ऊष्मा प्रदान करता है। लगभग उसी समय 'अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और हिंदू विश्वविद्यालय अपना आकार ग्रहण कर रहे थे। ये तीनों विश्वविद्यालय आज भी अपनी तरह से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। मैंने एक बार शांतिनिकेतन के एक प्राध्यापक से पूछा कि क्या शांतिनिकेतन अब भी कविगुरु के सपनों का शांतिनिकेतन है तो उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया विद्यालय तो लगभग वैसा ही है लेकिन विश्वविद्यालय तो यूजीसी के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह ही है। मुझे सुनकर धक्का लगा, मुझे कविगुरु के वे शब्द याद आए जो उन्होंने गांधीजी से कहे थे - 'ये मेरी महत्वाकांक्षाओं का जलयान है।' मुझे लगता है यूजीसी की सहायता ने प्राध्यापकों के वेतन बढ़ा दिए, बहुत अच्छी इमारतें तैयार हो गईं लेकिन उसकी आत्मा जिसमें कविगुरु की महत्वाकांक्षाओं का जलयान छुपा था, वह अब वहाँ नहीं है। महात्मा गांधी और टैगोर के पत्रों तथा रोजा की पुस्तक को पढ़ते हुए मेरे मन में यह प्रश्न भी बार-बार उठता रहा है कि एक कवि अपने समय के अद्वितीय राजनेता से कैसे आत्मीय संबंध बनाए हुए है, दोनों की चिंताएँ समान हैं, दोनों एक दूसरे को अंदर तक जानते हैं, कवि महात्माजी के अनूठे योगदान से परिचित हैं तो महात्माजी कवि के महत्वपूर्ण लेखन से। दोनों सार्वजनिक जीवन की बहुत-सी बातों में एक-दूसरे से असहमत हैं लेकिन यह असहमति व्यक्ति संबंधों में किसी प्रकार की फाँक नहीं आने देती। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में जब मैं और आप ऐसे लोगों के बारे में पढ़ते हैं तो लगता है अब राजनेता अपने शहर तो दूर अपने मुहल्ले के साहित्यकार के बारे में न कुछ जानता है और न जानना चाहता है। उसके लिए साहित्यकार का मतलब केवल अपना वोटर ही है। आजादी के बाद कहा जाता है कि इलाहाबाद के साहित्यकार पंडित नेहरू को अपना मानते थे और नेहरूजी साहित्यकारों को उतना ही सम्मान देते थे जितना अन्य कलाकारों को। यही संबंध आचार्य शिवपूजन सहाय और डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बीच थे, दोनों एक दूसरे के कार्यकलापों और चिंताओं से पूरी तरह परिचित थे। परस्पर संबंधों की यह दुनिया अब समाप्तप्रायः हो गई है। राजनेता और साहित्यकारों की अलग दुनिया ने राजनेताओं को खुला छोड़ दिया है, साहित्य पढ़कर या साहित्यकारों की संगत में बैठकर उनकी संवेदना के बचे रहने की संभावना थी, जो अब प्रायः नहीं बची। यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि जब समाज को साहित्य की आवश्यकता ही नहीं है तो साहित्यकार क्यों अपना खून जला रहा है? लेकिन इसका उत्तर अपने प्रश्न में ही छुपा है कि साहित्यकार इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है इसलिए वह इसे बदलना चाहता है। वह अपने साहित्य में एक ऐसी व्यवस्था का सपना भी देता है जो समानता, समरसता और संवेदनशीलता पर आधारित है। राजनेता ऐसे सपने का न विरोध करता है और न उसे स्वीकार करता है बल्कि उसे पुरस्कृत कर देता है। गांधी और टैगोर न तो एक दूसरे को पुरस्कृत कर रहे थे और न स्वीकार अस्वीकार की मनःस्थिति में थे अपितु पूरे मन से एक दूसरे के साथ थे।