घौरा बैद्य अर कूणा दवै कि क्वी कदर नि होंदि / संदीप रावत

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कुछ लोगूं ब्वन छ बल जु आज साहित्यकार या अपणि भाषा का लिख्वार बण्यां छन, वु त शहरों मा बैठी लिखणा छन। यूं लोखूंन् हि अपणा गौं-गुठ्यार, चैका-डंड्याळा अर डांडा-कांठा छोड़ियलीं। य बात सूणी अर पैढ़ी कति लिख्वारों कि नाक पर घचाक लगी सक्द , किलै कि जब मिन या बात सूणी त मी थैं बि बुरू लग। सैद या बात वूंकि कुछ हद तक ठिक बि ह्वे सक्द।

पर म्यरा ख्याल से इना लोग नि जण्दा कि बिना देख्यां, बिना समझ्यां, बिना सक्यां अर पहाड़ कि पिड़ा मैसूस कर्यां बगैर, केवल शहरों मा बैठी, अखबार पैढ़ी या केवल पत्र-पत्रिकौं तैं पढ़िक मन मा भाव पैदा नि ह्वे सकदा। गढ़वाळि भाषा का कति लिख्वार चार बिसी से जादा उमर का ह्वेगेनी। आदरणीय सर्व श्री प्रेमलाल भट्ट ,भीष्म कुकरेती, पुष्कर सिंह कण्डारी, शिवराज सिंह निःसंग, ललित केशवान आदि जना कति जण्या-मण्या बुजुर्ग लिख्वार छन। यूं लोगुन बि त अपणा गौं-गुठ्यारों मा बगत बितै अर अब्बि बि अपणा गौं या जलम भूमि से जुड्यां छन। यों का बादा नै पीढ़िक् लिख्वार बि कै न कै तरां से अपणि जैड़, अपणा गौं-गुठ्यार, पाड़ यानि अपणि बोली भाषा अर लोक संस्कृति से जुड्यां छन। पुरणा अर वरिष्ठ साहित्यकार, लिख्वार त ह्वे-ह्वे, नै पीढ़ि का लिख्वारूं मा बि ज्यादातर लोगूं का धार-खाळ दिख्यां छन, समझ्यां छन, सैक्यां छन। यूं सब्यूं कि पाड़ै पिड़ा द्यखीं छ अर मैसूस करीं छ। अब त यीं नै पीढ़ि का लिख्वार बि रौंस-हौंस , जोस अर नै सोच का दगड़ा लिखणा छन त य हमारि भाषा, हमारि पच्छ्याणा वास्ता भौत भली बात छ।

हम सब्यूं का अपणा बाळपन मा ब्यो-बरात्यूं मा सफेद- लाल निसाण कांध्यूं मा सक्यां छन, मसक बाजा अर तुतरी (रणसिंघा) बजद देखीं छ अर ढोल-दमौ मा सरैंया नचदा देख्यां छन। हम जगर्यों तैं जागर लगौंदा अब्बि बि द्यखदां। चैत का मैना औज्यूं थैं चैत पसारा मंगद कतगै जगौं अब्बि बि द्यखदां। इगास-बग्वाळ मा गौं मा लोख्वूं दगड़ि हमारा बि भैला खेल्यां छन। होळ्यारों टोली ज्वा एक मैना पैलि बटी गौं-गौं होळ्या गीत गौंदा छा अर होळि मंगदा छा, वूं होळ्यारों दगड़ि हम बि गौं-गौं मा घुम्यां छां। अपणा बाळपन मा पिराळ (पिरड़ू) का नीस घुसरड़ी हमारि बि खेलीं छन। अपणा गौं मा अखोड़ झडै़ हमारि बि द्यखीं छ। यां का बारा मा त आज गौं का नजीक रौण वळा कतगै लोग बि नि जण्दा होला।

गढ़वाळि भाषा का लिख्वार /रचनाकारों,संस्कृति कम्र्यूं पर आज य मसल बि बैठणि छ कि ‘घ्यूवा कमोळा उन्द बि डाळ फिर्बि रूखो हि रूखो।’ उत्तराखण्ड मा, उत्तराखण्ड से भैर बस्यां प्रवासी अर कतगै संस्था, लिख्वार, संस्कृति प्रेमी त भौत तन-मन अर इख तक कि धन से बि यीं भाषा कि सेवा कन्ना छन, यखै संस्कृति ज्यूंदी रखणै कोशिश कन्ना छन, पर क्या कन्न? यखा कतगौ लोगूं तैं यां मा बि मीन-मेख निकळणै आदत सि ह्वेगे। देस-विदेसों का लोग बि हमारि भाषा अर संस्कृति पर जोर-शोर से काम कन्ना छन। क्वी न क्वी त बात ह्वेली हमारि भाषा अर संस्कृति मा। सै बात त य छ कि बल ‘घौरा बैद्य अर कूणा दवै कि क्वी कदर नि होंदि।’ भौतिकता कि चकाचैंध मा नै छ्वाळि त ह्वे- ह्वे, पर यखा दाना-सयाणा लोग बि अपणि भाषा अर संस्कृति छोडणा छन, भुलौणा छन अर सब्यों दगड़ि नै जमाना बौळ मा बौळ्येणा छन। यां से हमारि भाषा अर संस्कृति मा विकार औण बैठिग्ये।

ये विकार से हमारि भाषा अर संस्कृति बिमार ह्वे सक्दि। अपणि भाषा अर संस्कृति तैं बिमार होण से बचैणा वास्ता, यूं तैं व्यवहार मा लौण अर विकसित कन्नै आवश्यकता छ। साहित्य सेवी, लिख्वार,संस्कृति कर्मी त ये काम मा लग्यां हि छन पर आज यखा सब्या लोगों तैं याने आम लोगूं तैं बि लेख्वारूं/साहित्यकारों,संस्कृति प्रेम्यूं ,सस्ंथौं दगड़ा अगनै औणै जर्वत छ। अबारि अपणा घौर मा नै छ्वाळि तैं गढ़वाळि सिखौण अर ब्वनौ तैं प्रेरित कन्न भौत जरूरी छ, तबि हमारि भाषा याने मातृभाषा ज्यूंदी रैकि ऐथर बढ़ी सक्द,बिकसित ह्वे सक्द। यखा आम लोगूं बि यां का वास्ता अगन्या औण ही प्वाड़लु।