चंद्रकांता संतति / खंड 1 / भाग 1 / बयान 13

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दूसरे दिन खा-पीकर निश्चिंत होने के बाद दोपहर को जब दोनों एकांत में बैठे तो इंद्रजीतसिंह ने माधवी से कहा -

“अब मुझसे सब्र नहीं हो सकता, आज तुम्हारा ठीक-ठीक हाल सुने बिना कभी न मानूंगा और इससे बढ़कर निश्चिंती का समय भी दूसरा न मिलेगा।”

माधवी - जी हां, आज मैं जरूर अपना हाल कहूंगी।

इंद्र - तो बस कह चलो, अब देर काहे की है पहले यह बताओ कि तुम्हारे मां-बाप कहां हैं और यह सरजमीन किस इलाके में है जिसके अंदर मैं बेहोश करके लाया गया

माधवी - यह इलाका गयाजी का है, यहां के राजा की मैं लड़की हूं, इस समय मैं खुद मालिक हूं, मां-बाप को मरे पांच वर्ष हो गये।

इंद्र - ओह-ओह, तो मैं गयाजी के इलाके में आ पहुंचा! (कुछ सोचकर) तो तुम मेरे लिए चुनार गई थीं

माधवी - जी हां, मैं चुनार गई थी और यह अंगूठी जो आपके हाथ में है सौदागर की मार्फत मैंने ही आपके पास भेजी थी।

इंद्र - हां ठीक है, तो मालूम पड़ता है, किशोरी भी तुम्हारा ही नाम है।

किशोरी के नाम ने माधवी को चौंका दिया और घबराहट में डाल दिया, मालूम हुआ जैसे उसकी छाती में किसी ने बड़ी जोर से मुक्का मारा हो। फौरन उसका खयाल उस सुरंग पर गया जिसके अंदर से गीले कपड़े पहिरे हुए इंद्रजीतसिंह निकले थे। वह सोचने लगी, “इनका उस सुरंग के अंदर जाना बेसबब नहीं था, या तो कोई मेरा दुश्मन आ पहुंचा था या मेरी सखियों में से किसी ने भांडा फोड़ा।” इसी वक्त से इंद्रजीतसिंह का खौफ भी उसके कलेजे में बैठ गया और वह इतना घबराई कि किसी तरह अपने को सम्हाल न सकी, बहाना करके उनके पास से उठ खड़ी हुई और बाहर दालान में जाकर टहलने लगी।

इंद्रजीतसिंह भी चेहरे के चढ़ाव-उतार से उसके चित्त का भाव समझ गये और बहाना करके बाहर जाती समय उसे रोकना मुनासिब न समझकर चुप रहे।

आधे घंटे तक माधवी उस दालान में टहलती रही, जब उसका जी कुछ ठिकाने हुआ तब उसने टहलना बंद किया और एक दूसरे कमरे में चली गई जिसमें उसकी दो सखियों का डेरा था जिन्हें वह जान से ज्यादा मानती थी और जिनका बहुत कुछ भरोसा भी रखती थी। ये दोनों सखियां भी जिनका नाम ललिता और तिलोत्तमा था उसे बहुत चाहती थीं और ऐयारी विद्या को भी अच्छी तरह जानती थीं।

माधवी को कुसमय आते देख उसकी दोनों सखियां जो इस वक्त पलंग पर लेटी हुई कुछ बातें कर रही थीं, घबराकर उठ बैठीं और तिलोत्तमा ने आगे बढ़कर पूछा, “बहिन, क्या है जो इस वक्त यहां आई हो तुम्हारे चेहरे पर तरद्दुद की निशानी पायी जाती है।”

माधवी - क्या कहूं बहिन, इस समय वह बात हुई जिसकी कभी उम्मीद न थी!

ललिता - सो क्या, कुछ कहो तो!

माधवी - चलो बैठो कहती हूं, इसीलिए तो आई हूं।

बैठने के बाद कुछ देर तक तो माधवी चुप रही, इसके बाद इंद्रजीतसिंह से जो कुछ बातचीत हुई थी कहकर बोली, “इसमें कोई शक नहीं कि किशोरी का कोई दूत यहां आ पहुंचा और उसी ने यह सब भेद खोला है। मैं तो उसी समय खटकी थी जब उनको गीले कपड़े पहिरे सुरंग के मुंह पर देखा था। बड़ी ही मुश्किल हुई, मैं इनको यहां से बाहर अपने महल में भी नहीं ले जा सकती, क्योंकि वह चाण्डाल सुनेगा तो पूरी दुर्गत कर डालेगा, और मैं उस पर किसी तरह का दबाव भी नहीं डाल सकती क्योंकि राज्य का काम बिल्कुल उसी के हाथ में है, जब चाहे चौपट कर डाले! जब राज्य ही नष्ट हुआ तो फिर यह सुख कहां अभी तक तो इंद्रजीतसिंह का हाल उसे बिल्कुल नहीं मालूम है मगर अब क्या होगा सो नहीं कह सकती!”

माधवी घंटे भर तक अपनी चालाक सखियों से राय मिलाती रही, आखिर जो कुछ करना था उसे निश्चय कर वहां से उठी और उस कमरे में पहुंची जिसमें इंद्रजीतसिंह को छोड़ आई थी।

जब तक माधवी अपनी सखियों के साथ बैठी बातचीत करती रही तब तक हमारे इंद्रजीतसिंह भी अपने ध्यान में डूबे रहे। अब माधवी के साथ उन्हें कैसा बर्ताव करना चाहिए और किस चालाकी से अपना पल्ला छुड़ाना चाहिए सो सब उन्होंने सोच लिया और उसी ढंग पर चलने लगे।

जब माधवी इंद्रजीतसिंह के पास आई तो उन्होंने पूछा, “क्यों एकदम घबराकर कहां चली गई थीं'

माधवी - न मालूम क्यों जी मिचला गया था, इसीलिए दौड़ी चली गई। कुछ गरमी भी मालूम होने लगी, जाकर एक कै की तब होश ठिकाने हुए।

इंद्र - अब तबीयत कैसी है

माधवी - अब तो अच्छी है।

इसके बाद इंद्रजीतसिंह ने कुछ छेड़-छाड़ न की और हंसी-खुशी में दिन बिता दिया, क्योंकि जो कुछ करना था वह तो दिल में था जाहिर में तकरार कर माधवी के दिल में शक पैदा करना मुनासिब न समझा।

माधवी का तो मालूम ही था कि वह शाम को चिराग जले बाद इंद्रजीतसिंह से पूछकर दो घंटे के लिए न मालूम किस राह से कहीं जाया करती थी, आज भी अपने वक्त पर उसने जाने का इरादा किया और इंद्रजीतसिंह से छुट्टी मांगी।

इंद्र - न मालूम क्यों तुमसे कुछ ऐसी मोहब्बत हो गई है कि एक पल को भी आंखों के सामने से दूर जाने देने को जी नहीं चाहता, मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी बात मान लोगी और कहीं जाने का इरादा न करोगी।

माधवी - (खुश होकर) शुक्र है कि आपको मेरा इतना ध्यान है, अगर ऐसी मर्जी है तो मैं बहुत जल्द लौट आऊंगी।

इंद्र - आज तो नहीं जाने देंगे। अहा, देखो कैसी घटा उठी आ रही है, वाह इस समय भी तुम्हारे जी में कुछ रस नहीं पैदा होता!

इस समय इंद्रजीतसिंह ने दो-एक बातें जिस ढंग से माधवी से कीं इसके पहले नहीं की थीं इसलिए उसके जी की कली खिली जाती थी, मगर वह ऐसे फेर में पड़ी हुई थी कि जी ही जानता होगा, न तो इंद्रजीतसिंह को नाखुश करना चाहती थी और न अपने नित के काम में ही बाधा डालने की ताकत रखती थी। आखिर कुछ सोच-विचारकर इस समय इंद्रजीतसिंह का हुक्म मानना ही उसने मुनासिब समझा और हंसी-खुशी में दिल बहलाया। आज चारपाई पर लेटे हुए इंद्रजीतसिंह के पास रहकर उनको अपने जाल में फंसाने के लिए उसने क्या-क्या काम किए इसे हम अपनी सीधी-सादी लेखनी से लिखना पसंद नहीं करते, हमारे मनचले पाठक बिना समझे भी न रहेंगे। माधवी को इस बात का बिल्कुल खयाल न था कि शादी होने पर ही किसी से हंसना-बोलना मुनासिब है। वह जी का आ जाना ही शादी समझती थी। चाहे वह अभी तक कुंआरी ही क्यों न हो मगर मेरा जी नहीं चाहता कि मैं उसे कुंआरी लिखूं, क्योंकि उसकी चाल-चलन ठीक न थी। यह सभी कोई जानते हैं कि खराब चाल-चलन रहने का नतीजा बहुत बुरा होता है मगर माधवी के दिल में इसका गुमान भी न था।

इंद्रजीतसिंह के रोकने से माधवी अपने नियम तौर पर जहां वह रोज जाती थी आज न गई मगर इस सबब से आज उसका जी बेचैन था। आधी रात के बाद जब इंद्रजीतसिंह गहरी नींद में सो रहे थे वह अपनी चारपाई से उठी और जहां रोज जाती थी चली गई, हां आने में उसे आज बहुत देर लगी। इसी बीच में इंद्रजीतसिंह की आंख खुली और माधवी का पलंग खाली देख उन्हें निश्चय हो गया कि आज भी वह अपने रोज के ठिकाने पर जरूर गई।

वह कौन-सी ऐसी जगह है जहां बिना गये माधवी का जी नहीं मानता और ऐसा करने से वह एक दिन भी अपने को क्यों नहीं रोक सकती इसी सोच-विचार में इंद्रजीतसिंह को फिर नींद न आई और वह बराबर जागते ही रह गये। जब माधवी आई तब वह जाग रहे थे मगर इस तरह खुर्राटे लेने लगे कि माधवी को उनके जागते रहने का जरा भी गुमान न हुआ।

इसी सोच-विचार और दाव-घात में कई दिन बीत गये और इंद्रजीतसिंह ने उसका शाम का जाना बिलकुल रोक दिया। वह अब भी आधी रात को बराबर जाया करती और सुबह होने के पहले ही लौट आती।

एक दिन रात को इंद्रजीतसिंह खूब होशियार रहे और किसी तरह अपनी आंखों में नींद को न आने दिया, एक बारीक कपड़े से मुंह ढंके चारपाई पर लेटे धीरे-धीरे खुर्राटे लेते रहे।

आधी रात के बाद माधवी अपने पलंग पर से उठी और धीरे-धीरे इंद्रजीतसिंह के पास आकर कुछ देर तक देखती रही। जब उसे निश्चय हो गया कि वह सो रहे हैं तब उसने अपने आंचल के साथ बंधी ताली से एक अलमारी खोली और उसमें से एक लंबी चाभी निकाल फिर इंद्रजीतसिंह के पास आई तथा कुछ देर तक खड़ी रहकर, वह सो रहे हैं इस बात का निश्चय कर लिया। इसके बाद उसने वह शमादान गुल कर दिया जो एक तरफ खूबसूरत चौकी के ऊपर जल रहा था।

माधवी की यह सब कार्रवाई इंद्रजीतसिंह देख रहे थे। जब उसने शमादान गुल किया और कमरे के बाहर जाने लगी वह अपनी चारपाई से उठ खड़े हुए और दबे कदम तथा अपने को हर तरह से छिपाये हुए उसके पीछे रवाना हुए।

सोने वाले कमरे से बाहर निकल माधवी एक दूसरी कोठरी के पास पहुंची और उसी चाभी से जो उसने अलमारी में से निकाली थी उस कोठरी का ताला खोला मगर अंदर जाकर फिर बंद कर लिया। कुंअर इंद्रजीतसिंह इससे ज्यादे कुछ न देख सके और अफसोस करते हुए उसी कमरे की तरफ लौटे जिसमें उनका पलंग था।

अभी कमरे के दरवाजे तक पहुंचे भी न थे कि पीछे से किसी ने उनके मोढ़े पर हाथ रखा। वे चौंके और पीछे फिरकर देखने लगे। एक औरत नजर पड़ी मगर उसे किसी तरह पहचान न सके। उस औरत ने हाथ के इशारे से उन्हें मैदान की तरफ चलने के लिए कहा और इंद्रजीतसिंह भी बेखटके उसके पीछे मैदान में दूर तक चले गये। वह औरत एक जगह खड़ी हो गई और बोली, “क्या तुम मुझे पहचान सकते हो' इसके जवाब में इंद्रजीतसिंह ने कहा, “नहीं, तुम्हारी-सी काली औरत तो आज तक मैंने देखी ही नहीं!”

समय अच्छा था, आसमान पर बादल के टुकड़े इधर-उधर घूम रहे थे, चंद्रमा निकला हुआ था जो कभी-कभी बादलों में छिप जाता और थोड़ी ही देर में फिर साफ दिखाई देता था। वह औरत बहुत ही काली थी और उसके कपड़े भी गीले थे। इंद्रजीतसिंह उसे पहचान न सके, तब उसने अपना बाजू खोला और एक जख्म का दाग उन्हें दिखाकर फिर पूछा, “क्या अब भी तुम मुझे नहीं पहचान सकते'

इंद्र - (खुश होकर) क्या मैं तुम्हें चाची कहकर पुकार सकता हूं

औरत - हां, बेशक पुकार सकते हो।

इंद्र - अब मेरी जान बची, अब मैं समझा कि यहां से निकल भागूंगा।

औरत - अब तो तुम यहां से बखूबी निकल जा सकते हो क्योंकि जिस राह से माधवी जाती है वह तुमने देख ही लिया है और उस जगह को भी बखूबी जान गये होगे जहां वह ताली रखती है, मगर खाली निकल भागने में मजा नहीं है। मैं चाहती हूं कि इसके साथ ही कुछ फायदा भी हो। आखिर मेरा यहां आना ही किस काम का होगा और उस मेहनत का नतीजा भी क्या निकलेगा जो तुम्हारा पता लगाने के लिए हम लोगों ने की है सिवाय इसके तुम यह भी क्योंकर जान सकते हो कि माधवी कहां जाती है या क्या करती है

इंद्र - हां बेशक, इस तरह तो सिवाय भागने के और कोई फायदा नहीं हो सकता फिर जो हुक्म करो मैं तैयार हूं।

औरत - जब माधवी उस राह से बाहर जाय तो उसके पीछे हो जाने से उसका सब हाल मालूम होगा और हमारा काम भी निकलेगा।

इंद्र - मगर यह कैसे हो सकेगा वह तो कोठरी के अंदर जाते ही ताला बंद कर लेती है।

औरत - हां सो ठीक है, मगर तुमने देखा होगा कि उस दरवाजे के बीचोंबीच में ताला जड़ा है जिसे खोलकर वह अंदर गई और फिर उसी ताले को भीतर से बंद कर दिया।

इंद्र - मैंने अच्छी तरह खयाल नहीं किया।

औरत - मैं बखूबी देख चुकी हूं, उस ताले में बाहर-भीतर दोनों तरफ से ताली लगती है।

इंद्र - खैर इससे मतलब

औरत - मतलब यही है कि अगर इसी तरह की एक ताली हमारे पास भी हो तो उसके पीछे जाने का अच्छा मौका मिले।

इंद्र - अगर ऐसा हो तो क्या बात!

औरत - यह कोई बड़ी बात नहीं, जहां वह ताली रखती है वह जगह तो तुम्हें मालूम ही होगी

इंद्र - हां मालूम है।

औरत - बस तो मुझे वह जगह बता दो और तुम आराम करो, मैं कल आकर उस ताली का सांचा ले जाऊंगी और परसों उसी तरह की दूसरी ताली बना लाऊंगी।

जहां ताली रहती थी उस जगह का पता पूछकर वह काली औरत चली गई और इंद्रजीतसिंह अपने पलंग पर जाकर सो रहे।