चंद्रकांता संतति / खंड 1 / भाग 4 / बयान 2

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कंचनसिंह के मारे जाने और कुंअर इंद्रजीतसिंह के गायब हो जाने से लश्कर में बड़ी हलचल मच गई। पता लगाने के लिए चारों तरफ जासूस भेजे गये। ऐयार लोग भी इधर-उधर फैल गये और फसाद मिटाने के लिए दिलोजान से कोशिश करने लगे। राजा वीरेंद्रसिंह से इजाजत लेकर तेजसिंह भी रवाना हुए और भेष बदलकर रोहतासगढ़ किले के अंदर चले गये। किले के सदर दरवाजे पर पहरे का पूरा इंतजाम था मगर तेजसिंह की फकीरी सूरत पर किसी ने शक न किया।

साधू की सूरत बने हुए तेजसिंह सात दिन तक रोहतासगढ़ किले के अंदर घूमते रहे। इस बीच में उन्होंने हर एक मोहल्ला, बाजार, गली, रास्ता, देवल, धर्मशाला इत्यादि को अच्छी तरह देख और समझ लिया, कई बार दरबार में भी जाकर राजा दिग्विजयसिंह और उसके दीवान तथा ऐयारों की चाल और बातचीत के ढंग पर ध्यान दिया और यह भी मालूम किया कि राजा दिग्विजयसिंह किस-किस को चाहता है, किस-किस की खातिर करता है, और किस-किस को अपना विश्वासपात्र समझता है। इन सात दिन के बीच में तेजसिंह को कई बार चोबदार और औरत बनने की जरूरत पड़ी और अच्छे-अच्छे घरों में घुसकर वहां की कैफियत और हालत को भी देख-सुन आये। एक दफे तेजसिंह उस शिवालय में भी गये जिसमें भैरोसिंह और बद्रीनाथ ने ऐयारी की थी या जहां से कुंअर कल्याणसिंह को पकड़ ले गये थे।

तेजसिंह ने उस शिवालय के रहने वालों तथा पुजारियों की अजब हालत देखी। जब से कुंअर कल्याणसिंह गिरफ्तार हुए थे तब से उन लोगों के दिल में ऐसा डर समा गया था कि वे बात-बात में चौंकते और डरते थे, रात में एक पत्ती के खड़कने से भी किसी ऐयार के आने का गुमान होता था, साधू-ब्राह्मणों की सूरत से उन्हें घृणा हो गई थी, किसी संन्यासी, ब्राह्मण, साधू को देखा और चट बोल उठे कि ऐयार है, किसी मजदूर को भी अगर मंदिर के आगे खड़ा पाते तो चट उसे ऐयार समझ लेते और जब तक गर्दन में हाथ दे हाते के बाहर न कर देते चैन न लेते! इत्तिफाक से आज तेजसिंह भी साधू की सूरत बने शिवालय में जा डटे। पुजारियों ने देखते ही गुल करना शुरू किया कि 'ऐयार है, ऐयार है, धरो, पकड़ो, जाने न पाए!' बेचारे तेजसिंह बड़ा घबराए और ताज्जुब करने लगे कि इन लोगों को कैसे मालूम हो गया कि हम ऐयार हैं क्योंकि तेजसिंह को इस बात का गुमान भी न था कि यहां के रहने वाले कुत्ते, बिल्ली को भी ऐयार समझते हैं, मगर यकायक वहां से भाग निकलना भी मुनासिब न समझाकर रुके और बोले –

तेज - तुम कैसे जानते हो कि हम ऐयार हैं

एक पुजारी - अजी हम खूब जानते हैं कि सिवाय ऐयार के कोई दूसरा हमारे सामने आ नहीं सकता है! अजी तुम्हीं लोग तो हमारे कुंअर साहब को पकड़ ले गये हो या कोई दूसरा बस-बस यहां से चले जाओ, नहीं तो कान पकड़ के खा जाएंगे।

'बस - बस, यहां से चले जाओ' इत्यादि सुनते ही तेजसिंह समझ गये कि ये लोग बेवकूफ हैं, अगर हमारे ऐयार होने का इन्हें विश्वास होता तो ये लोग 'चले जाओ' कभी न कहते बल्कि हमें गिरफ्तार करने का उद्योग करते, बस इन्हें भैरोसिंह और बद्रीनाथ डरा गये और कुछ नहीं।

तेजसिंह खड़े सोच ही रहे थे कि इतने में एक लंगड़ा भिखमंगा हाथ में ठीकरा लिये लाठी टेकता वहां आ पहुंचा और पुजारीजी की जयजयकार करने लगा। सूरत देखते ही पुजारी चिल्ला उठा और बोला, “लो देखो, एक दूसरा ऐयार भी आ पहुंचा, अबकी शैतान लंगड़ा बनकर आया है, जानता नहीं कि हम लोग बिना पहचाने नहीं रहेंगे, भाग नहीं तो सिर तोड़ डालूंगा।”

अब तेजसिंह को पूरा विश्वास हो गया कि ये लोग सिड़ी हो गये हैं, जिसे देखते हैं उसे ही ऐयार समझ लेते हैं। तेजसिंह वहां से लौटे और सोचते हुए खिड़की की राह1 दीवार के पार हो जंगल में चले गए कि अब यहां के ऐयारों से मिलना चाहिए और देखना चाहिए कि वे कैसे हैं और ऐयारी के फन में कितने तेज हैं।

इस किले के अंदर गांजा पिलाने वालों की कई दुकानें थीं जिन्हें यहां वाले 'अड्डा' कहा करते थे। चिराग जलने के बाद ही से गंजेड़ी लोग वहां जमा होते जिन्हें अड्डे का मालिक गांजा बनाकर पिलाता और उनसे एवज में पैसे वसूल करता। वहां तरह-तरह की गप्पें उड़ा करती थीं जिनसे शहर भर का हाल झूठ-सच मिला-जुला लोगों को मालूम हो जाया करता था।


शाम होने के पहले ही तेजसिंह जंगल से लौटे, लकड़हारों के साथ-साथ बैरागी के भेष में किले के अंदर दाखिल हुए और सीधे अड्डे पर चले गये जहां गंजेड़ी दम पर दम लगाकर धुएं का गुब्बार बांध रहे थे। यहां तेजसिंह का बहुत कुछ काम निकला

1. रोहतासगढ़ किले की बड़ी चारदीवारी में चारों तरफ छोटी - छोटी बहुत - सी खिड़कियां थीं जिनमें लोहे के मजबूत दरवाजे लगे रहते थे और दो सिपाही बराबर पहिरा दिया करते थे। फकीर, मोहताज और गरीब रियाया अक्सर उन खिड़कियों (छोटे दरवाजों) की राह जंगल में से सूखी लकड़ियां चुनने या जंगली फल तोड़ने या जरूरी काम के लिए बाहर जाया करते थे, मगर चिराग जलते हुए ये खिड़कियां बंद कर दी जाती थीं।

और उन्हें मालूम हो गया कि महाराज के यहां केवल दो ऐयार हैं, एक का नाम रामानंद, दूसरे का नाम गोविंदसिंह है। गोविंदसिंह तो कुंअर कल्याणसिंह को छुड़ाने के लिए चुनार गया हुआ है, बाकी रामानंद यहां मौजूद है। दूसरे दिन तेजसिंह ने दरबार में जाकर रामानंद को अच्छी तरह देख लिया और निश्चय कर लिया कि आज रात को इसी के साथ ऐयारी करेंगे क्योंकि रामानंद का ढांचा तेजसिंह से बहुत कुछ मिलता था और यह भी जाना गया था कि महाराज सबसे ज्यादा रामानंद को मानते हैं और अपना विश्वासपात्र समझते हैं।

आधी रात के समय तेजसिंह सन्नाटा देख रामानंद के मकान में कमंद लगाकर चढ़ गये। देखा कि धुर ऊपर वाले बंगले में रामानंद मसहरी के ऊपर पड़ा खर्राटे ले रहा है, दरवाजे पर पर्दे की जगह पर जाल लटक रहा है जिसमें छोटी-छोटी घंटियां बंधी हुई हैं। पहले तो तेजसिंह ने उसे एक मामूली पर्दा समझा मगर ये तो बड़े ही चालाक और होशियार थे, यकायक पर्दे पर हाथ डालना मुनासिब न समझकर उसे गौर से देखने लगे। जब मालूम हुआ कि नालायक ने इस जालदार पर्दे में बहुत-सी घंटिया लटका रखी हैं तो समझ गए कि यह बड़ा ही बेवकूफ है, समझता है कि इन घंटियों के लटकाने से हम बचे रहेंगे। इस घर में जब कोई पर्दा हटाकर आवेगा तो घंटियों की आवाज से हमारी आंख खुल जायगी, मगर यह नहीं समझता कि ऐयार लोग बुरे होते हैं।

तेजसिंह ने अपने बटुए में से कैंची निकाली और बहुत सम्हालकर पर्दे से एक-एक करके घंटी काटने लगे। थोड़ी ही देर में सब घंटियों को काट के किनारे कर दिया और पर्दा हटाकर अंदर चले गए। रामानंद अभी तक खर्राटे ले रहा था। तेजसिंह ने बेहोशी की दवा उसके नाक के आगे की, हलका धूरा सांस लेते ही दिमाग में चढ़ गया, रामानंद को एक छींक आई जिससे मालूम हुआ कि अब इसे घंटों तक होश में न आने देगी।

तेजसिंह ने बटुए में से एक अस्तुरा निकालकर रामानंद की दाढ़ी और मूंछ मूंड़ ली और उसके बाल हिफाजत से अपने बटुए में रखकर उसी रंग की दूसरी दाढ़ी और मूंछ उसके लगा दी जो उन्होंने दिन ही में किले के बाहर जंगल में तैयार की थी। तेजसिंह इतने ही काम के लिए रामानंद के मकार पर गए थे और इसे पूरा कर कमंद के सहारे नीचे उतर आए तथा धर्मशाला की तरफ रवाना हुए।

तेजसिंह जब बैरागी साधू के भेष में रोहतासगढ़ किले के अंदर आए थे तो उन्होंने धर्मशाला1 के पास एक बैठक वाले के मकान में छोटी-सी कोठरी किराये पर ले ली थी और उसी में रहकर अपना काम करते थे। उस कोठरी का एक दरवाजा सड़क की तरफ था जिसमें ताला लगाकर उसकी ताली ये अपने पास रखते थे, इसलिए उस कोठरी में आने-जाने के लिए उनको दिन और रात एक समान था।

रामानंद के मकान से जब तेजसिंह अपना काम करके उतरे उस वक्त पहर भर रात बाकी थी। धर्मशाला के पास अपनी कोठरी में गए और सबेरा होने के पहले ही अपनी सूरत रामानंद की-सी बना और वही दाढ़ी और मूंछ जो मूंड लाये थे दुरुस्त करके खुद लगा कोठरी से बाहर निकले और शहर में गश्त लगाने लगे, सबेरा होते तक राजमहल की तरफ रवाना हुए और इत्तिला कराकर महाराज के पास पहुंचे।

हम ऊपर लिख आए हैं कि रोहतासगढ़ में रामानंद और गोविंदसिंह केवल दो ही ऐयार थे। इन दोनों के बारे में इतना लिख देना जरूरी है कि इन दोनों में से गोविंदसिंह तो ऐयारी के फन में बहुत ही तेज और होशियार था और वह दिन-रात वही काम किया करता था। रामानंद भी ऐयारी का फन अच्छी तरह जानता था मगर उसे अपनी दाढ़ी और मूंछ बहुत प्यारी थी इसलिए वह ऐयारी के वे ही काम करता था जिसमें दाढ़ी और मूंछ मुंड़ाने की जरूरत न पड़े और इसलिए महाराज ने भी उसे दीवान का काम दे रखा था। इसमें भी कोई शक नहीं कि रामानंद बहुत ही खुशदिल, मसखरा और बुद्धिमान था और उसने अपनी तदबीर से महाराज का दिल अपनी मुट्ठी में कर लिया था।

रामानंद की सूरत बने हुए तेजसिंह महाराज के पास पहुंचे, मामूल से बहुत पहले रामानंद को आते देख महाराज ने समझा कि कोई नई खबर लाया है।

महाराज - आज तुम बहुत सबेरे आये! क्या कोई नई खबर है?

रामा - (खांसकर) महाराज, हमारे यहां कल तीन मेहमान आये हैं।

महा - कौन-कौन?

रामा - एक तो खांसी जिसने मुझे बहुत ही तंग कर रखा है, दूसरे कुंअर आनंदसिंह, तीसरे उनके चार ऐयार जो आज ही कल में किशोरी को यहां से निकाल ले जाने का दावा रखते हें।

महा - (हंसकर) मेहमान तो बड़े नाजुक हैं। इनकी खातिर का भी कोई इंतजाम किया गया है या नहीं

रामा - इसीलिए तो सरकार मैं आया हूं। कल दरबार में उनके ऐयार मौजूद थे। सबके पहले किशोरी का बंदोबस्त करना चाहिए, उनकी हिफाजत में किसी तरह की कमी न होनी चाहिए।

महा - जहां तक मैं समझता हूं वे लोग किशोरी को तो किसी तरह नहीं ले जा सकते, हां वीरेंद्रसिंह के ऐयारों को जिस तरह भी हो सके गिरफ्तार करना चाहिए।

रामा - वीरेंद्रसिंह के ऐयार तो अब मेरे पंजे से बच नहीं सकते, वे लोग सूरत बदलकर दरबार में जरूर आयेंगे, और ईश्वर चाहे तो आज ही किसी को गिरफ्तार करूंगा मगर वे लोग बड़े ही धूर्त और चालबाज हैं, प्रायः कैदखाने से भी निकल जाया करते हैं। महा - खैर हमारे तहखाने से निकल जायेंगे तो समझेंगे कि चालाक और धूर्त हैं। महाराज की इतनी ही बातचीत से तेजसिंह को मालूम हो गया कि यहां कोई तहखाना हे जिसमें कैदी लोग रखे जाते हैं, अब उन्हें यह फिक्र हुई कि जहां तक हो सके इस तहखाने का ठीक-ठीक हाल मालूम करना चाहिए। यह सोच तेजसिंह ने अपनी लच्छेदार बातचीत से महाराज को ऐसा उलझाया कि मामूली समय से भी आधे घंटे की

1. रोहतासगढ़ में एक ही धर्मशाला थी। देर हो गई। ऐसा करने से तेजसिंह का अभिप्राय यह था कि देर होने से असली रामानंद अवश्य महाराज के पास आवेगा और मुझे देख चौंकेगा, उसी समय मैं अपना काम निकाल लूंगा जिसके लिए उसकी दाढ़ी-मूंछ लाया हूं, और आखिर तेजसिंह का सोचना ठीक भी निकला।

तेजसिंह रामानंद की सूरत में जिस समय महाराज के पास आये थे उस समय ड्योढ़ी पर जितने सिपाही पहरा दे रहे थे सब बदल गए और दूसरे सिपाही अपनी बारी के अनुसार ड्योढ़ी के पहरे पर मुस्तैद हुए जो इस बात से बिल्कुल ही बेखबर थे कि रामानंद महाराज से मिलने के लिए महल में गये हैं।

ठीक समय पर दरबार लग गया। बड़े-बड़े ओहदेदार, नायब, दीवान, तहसीलदार, मुंशी, मुत्सद्दी इत्यादि और मुसाहब लोग दरबार में आकर जमा हो गये। असली रामानंद अपनी दीवान की गद्दी पर आकर बैठ गया मगर अपनी दाढ़ी की तरफ से बिल्कुल ही बेखबर था। उसे तेजसिंह का मामला कुछ भी मालूम न था, तो भी यह जानने के लिए वह बड़ी उलझन में पड़ा हुआ था कि उस दरवाजे के जालीदार पर्दे में की घंटियां किसने काट डाली थीं। घर भर के आदमियों से उसने पूछा और पता लगाया मगर पता न लगा, इससे उसके दिल में शक हुआ कि इस मकान में जरूर कोई ऐयार आया मगर उसने आकर क्या किया सो नहीं जाना जाता, हां मेरे इस खयाल को उसने जरूर मटियामेट कर दिया कि घंटियां लगे हुए जालीदार पर्दे के अंदर मेरे कमरे में चुपके से कोई नहीं आ सकता, उसने बता दिया कि यों आ सकता है। बेशक मेरी भूल थी कि उस पर्दे पर इतना भरोसा रखता था, पर तो क्या खाली यही बताने के लिये वह ऐयार आया था। इन्हीं सब बातों को सोचता हुआ रामानंद अपने जरूरी कामों से छुट्टी पा दरबारी कपड़े पहन बन-ठनकर दरबार की ओर रवाना हुआ। बेशक आज उसे कुछ देरी हो गई थी और वह सोच रहा था कि महाराज दरबार में जरूर आ गये होंगे, मगर वहां पहुंचकर उसने गद्दी खाली देखी और पूछने से मालूम हुआ कि अभी तक महाराज के आने की कोई खबर नहीं। रामानंद क्या सभी दरबारी ताज्जुब कर रहे थे कि आज महाराज को देर क्यों हुई।

रामानंद को महाराज बहुत मानते थे, यह उनका मुंहलगा था, इसीलिए सभों ने वहां जाकर हाल मालूम करने के लिए इसको ही कहा। रामानंद खुद भी घबराया हुआ था और महाराज का हाल मालूम किया चाहता था, अस्तु थोड़ी देर बैठकर वहां से रवाना हुआ और ड्योढ़ी पर पहुंचकर इत्तिला करवार्ई।

रामानंद रूपी तेजसिंह बैठे महाराज से बातें कर रहे थे कि एक खिदमतगार आया और हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। उसकी सूरत से मालूम होता था कि वह घबराया हुआ है और कुछ कहना चाहता है मगर आवाज मुंह से नहीं निकलती। तेजसिंह समझ गये कि अब कुछ गुल लिखा चाहता है, आखिर खिदमतगार की तरफ देखकर बोले -

तेज - क्यों क्या कहना चाहता है

खिद - मैं ताज्जुब के साथ यह इत्तिला करते डरता हूं कि दीवान साहब (रामानंद) ड्योढ़ी पर हाजिर हैं।

महा - रामानंद!

खिद - जी हां।

महा - (तेजसिंह की तरफ देखकर) यह क्या मामला है

तेज - (मुस्कुराकर) महाराज, बस अब काम निकला ही चाहता है। मैं जो कुछ अर्ज कर चुका वही बात है। कोई ऐयार मेरी सूरत बना आया है और आपको धोखा दिया चाहता है, लीजिये इस कम्बख्त को तो मैं अभी गिरफ्तार करता हूं फिर देखा जायगा। सरकार उसे हाजिर होने का हुक्म दें फिर देखें मैं क्या तमाशा करता हूं। मुझे जरा छिप जाने दें, वह आकर बैठ जाय तो मैं उसका पर्दा खोलूं।

महा - तुम्हारा कहना ठीक है, बेशक कोई ऐयार है, अच्छा तुम छिप जाओ, मैं उसे बुलाता हूं।

तेज - बहुत खूब, मैं छिप जाता हूं, मगर ऐसा है कि सरकार उसकी दाढ़ी-मूंछ पर खूब ध्यान दें, मैं यकायक पर्दे से निकलकर उसकी दाढ़ी उखाड़ लूंगा क्योंकि नकली दाढ़ी जरा ही-सा झटका चाहती है।

महा - (हंसकर) अच्छा-अच्छा, (खिदमतगार की तरफ देखकर) देख उससे और कुछ मत कहियो, केवल हाजिर होने का हुक्म सुना दे। तेजसिंह दूसरे कमरे में जाकर छिप रहे और असली रामानंद धीरे-धीरे वहां पहुंचे जहां महाराज विराज रहे थे। रामानंद को ताज्जुब था कि आज महाराज ने देर क्यों लगाई, इससे उसका चेहरा भी कुछ उदास-सा हो रहा था। दाढ़ी तो वही थी जो तेजसिंह ने लगा दी थी। तेजसिंह ने दाढ़ी बनाते समय जान-बूझकर कुछ फर्क डाल दिया था, जिस पर रामानंद ने तो कुछ ध्यान न दिया मगर वही फर्क अब महाराज की आंखों में खटकने लगा। जिस निगाह से कोई किसी बहरूपिये को देखता है उसी निगाह से बिना कुछ बोले-चाले महाराज अपने दीवान साहब को देखने लगे। रामानंद यह देखकर और भी उदास हुआ कि इस समय महाराज की निगाह में अंतर क्यों पड़ गया है।

तरद्दुद और ताज्जुब के सबब रामानंद के चेहरे का रंग जैसे-जैसे बदलता गया तैसे-तैसे उसके ऐयार होने का शक भी महाराज के दिल में बैठ गया। कई सायत बीतने पर भी न तो रामानंद ही कुछ पूछ सका और न महाराज ही ने उसे बैठने का हुक्म दिया। तेजसिंह ने अपने लिए यह मौका बहुत अच्छा समझा, झट बाहर निकल आये और हंसते हुए एक फर्शी सलाम उन्होंने रामानंद को किया। ताज्जुब और डर से रामानंद के चेहरे का रंग उड़ गया और वह एकटक तेजसिंह की तरफ देखने लगा।

ऐयारी भी कठिन है। इस फन में सबसे भारी हिस्सा जीवट का है। जो ऐयार जितना डरपोक होगा उतना ही जल्द फंसेगा। तेजसिंह को देखिए, किस जीवट का ऐयार है कि दुश्मन के घर में घुसकर भी जरा नहीं डरता और दिन दोपहर सच्चे को झूठा बना रहा है! ऐसे समय अगर जरा भी उसके चेहरे पर खौफ या तरद्दुद की निशानी आ जाय तो ताज्जुब नहीं कि वह खुद फंस जाय।

तेजसिंह ने रामानंद को बात करने की भी मोहलत न दी, हंसकर उसकी तरफ देखा और कहा, “क्यों बे! क्या महाराज दिग्विजयसिंह के दरबार को तैंने ऐसा-वैसा समझ रखा है! क्या तू यहां भी ऐयारी से काम निकालना चाहता है यहां तेरी कारीगरी न लगेगी, देख तेरी गदहे की-सी मुटाई मैं पिचकाता हूं।”

तेजसिंह ने फुर्ती से रामानंद की दाढ़ी पर हाथ डाल दिया और महाराज को दिखाकर एक झटका दिया। झटका तो जोर से दिया मगर इस ढंग से कि महाराज को बहुत हल्का झटका मालूम हो। रामानंद की नकली दाढ़ी अलग हो गई।

इस तमाशे ने रामानंद को पागल-सा बना दिया। उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं। यह समझकर कि यह ऐयार मुझ सच्चे को झूठा किया चाहता है उसे क्रोध चढ़ आया और वह खंजर निकालकर तेजसिंह पर झपटा, पर तेजसिंह वार बचा गए। महाराज को रामानंद पर और भी शक बैठ गया। उन्होंने उठकर रामानंद की कलाई जिसमें खंजर लिए था मजबूती से पकड़ ली और एक घूंसा उसके मुंह पर दिया। ताकतवर महाराज के हाथ का घूंसा खाते ही रामानंद का सिर घूम गया और वह जमीन पर बैठ गया। तेजसिंह ने जेब से बेहोशी की दवा निकाली और जबर्दस्ती रामानंद को सुंघा दी।

महा - क्यों इसे बेहोश क्यों कर दिया?

तेज - महाराज, गुस्से में आया हुआ और अपने को फंसा जान यह ऐयार न मालूम कैसी-कैसी बेहूदी बातें बकता, इसलिए इसे बेहोश कर दिया। कैदखाने में ले जाने के बाद फिर देखा जायगा।

महा - खैर यह भी अच्छा ही किया, अब मुझसे ताली लो और तहखाने में ले जाकर इसे दारोगा के सुपुर्द करो। महाराज की बात सुन तेजसिंह घबराये और सोचने लगे कि अब बुरी हुई। महाराज से तहखाने की ताली लेकर कहां जाऊं मैं क्या जानूं तहखाना कहां है और दारोगा कौन है! बड़ी मुश्किल हुई! अगर जरा भी नाहीं-नुकर करता हूं तो उल्टी आंतें गले पड़ती हैं। आखिर कुछ सोच-विचारकर तेजसिंह ने कहा -

तेज - महाराज भी साथ चलें तो ठीक है।

महा - क्यों?

तेज - दारोगा साहब इस ऐयार को और मुझे देखकर घबरायेंगे और उन्हें न जाने क्या-क्या शक पैदा हो। यह पाजी अगर होश में आ जायेगा तो जरूर कुछ बात बनावेगा, आप रहेंगे तो दारोगा को किसी तरह का शक न होगा।

महा - (हंसकर) अच्छा चलो हम भी चलते हैं।

तेज - हां महाराज, फिर मुझे पीठ पर यह भारी लाश लादे ताला खोलने और बंद करने में भी मुश्किल होगी। महाराज ने अपने कलमदान में से ताली निकाली और खिदमतगार से एक लालटेन मंगवाकर साथ ले ली। तेजसिंह ने रामानंद की गठरी बांध पीठ पर लादी। तेजसिंह को साथ लिए हुए महाराज अपने सोने वाले कमरे में गये और दीवार में जड़ी हुई एक अलमारी का ताला खोला। तेजसिंह ने देखा कि दीवार पोली है और उस जगह से नीचे उतरने का एक रास्ता है। रामानंद की गठरी लिए हुए महाराज के पीछे-पीछे तेजसिंह नीचे उतरे, एक दालान में पहुंचने के बाद छोटी-सी कोठरी में जाकर दरवाजा खोला और बहुत बड़ी बारहदरी में पहुंचे। तेजसिंह ने देखा कि बारहदरी के बीचोंबीच में छोटी-सी गद्दी लगाए एक बूढ़ा बैठा कुछ लिख रहा है जो महाराज को देखते ही उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर सामने आया।

महा - दारोगा साहब, देखिए आज रामानंद ने दुश्मन के एक ऐयार को फांसा है, इसे अपनी हिफाजत में रखिए।

तेज - (पीठ से गठरी उतार और उसे खोलकर) लीजिए, इसे सम्हालिए, अब आप जानिए।

दारोगा - (ताज्जुब से) क्या यह दीवान साहब की सूरत बनाकर आया था

तेज - जी हां, इसने मुझी को फजूल समझा।

महा - (हंसकर) खैर चलो, अब दारोगा साहब इसका बंदोबस्त कर लेंगे।

तेज - महाराज, यदि आज्ञा हो तो मैं ठहर जाऊं और इस नालायक को होश में लाकर अपने मतलब की बातों का कुछ पता लगाऊं, सरकार को भी अटकने के लिए मैं कहता परंतु दरबार का समय बिल्कुल निकल जाने और दरबार न करने से रियाया के दिल में तरह-तरह के शक पैदा होंगे और आजकल ऐसा न होना चाहिए।

महा - तुम ठीक कहते हो, अच्छा मैं जाता हूं, अपनी ताली साथ लिए जाता हूं और ताला बंद करता जाता हूं, तुम दूसरी राह से दारोगा के साथ आना। (दारोगा की तरफ देखकर) आप भी आइएगा और अपना रोजनामचा लेते आइएगा।

तेजसिंह को उसी जगह छोड़ महाराज चले गए। रामानंद रूपी तेजसिंह को लिए दारोगा साहब अपनी गद्दी पर आये और अपनी जगह तेजसिंह को बैठाकर आप नीचे बैठे। तेजसिंह ने आधे घंटे तक दारोगा को अपनी बातों में खूब ही उलझाया इसके बाद यह कहते हुए उठे, “अच्छा अब इस ऐयार को होश में लाकर मालूम करना चाहिए कि यह कौन है” और ऐयार के पास आए। अपनी जेब में हाथ डाल लखलखे की डिबिया खोजने लगे, आखिर बोले, “ओफओह, लखलखे की डिबिया तो दीवानखाने में ही भूल आये, अब क्या किया जाय।' दारोगा - मेरे पास लखलखे की डिबिया है, हुक्म हो तो लाऊं

तेज - लाइए मगर आपके लखलखे से यह होश में न आयेगा क्योंकि जो बेहोशी की दवा इसे दी गई वह मैंने नये ढंग से बनाई है और उसके लिए लखलखे का नुस्खा भी दूसरा है, खैर लाइये तो सही शायद काम चल जाय।

“बहुत अच्छा” कहकर दारोगा साहब लखलखा लेने चले गये, इधर निराला पाकर तेजसिंह ने दूसरी डिबिया जेब से निकाली जिसमें लाल रंग की कोई बुकनी थी, एक चुटकी रामानंद के नाक में सांस के साथ चढ़ा दी और निश्चिंत होकर बैठे। अब सिवा तेजसिंह के दूसरे का बनाया लखलखा उसे कब होश में ला सकता है, हां दो-एक रोज तक पड़े रहने पर वह आप से आप चाहे भले ही होश में आ जाए।

दमभर में दारोगा साहब लखलखे की डिबिया ले आ पहुंचे, तेजसिंह ने कहा, “बस आप ही सुंघाइये और देखिये इस लखलखे से कुछ काम निकलता है या नहीं।”

दारोगा साहब ने लखलखे की डिबिया बेहोश रामानंद के नाक से लगाई पर क्या असर होना था, लाचार तेजसिंह का मुंह देखने लगे। तेज - क्यों व्यर्थ मेहनत करते हैं, मैं पहले ही कह चुका हूं कि लखलखे से काम नहीं चलेगा। चलिये महाराज के पास चलें, इसे यों ही रहने दीजिये, अपना लखलखा लेकर फिर लौटेंगे तो काम चलेगा।


दारोगा - जैसी मर्जी, इस लखलखे से तो काम नहीं चलता।

दारोगा साहब ने रोजनामचे की किताब बगल में दाबी और तालियों का झब्बा और लालटेन हाथ में लेकर रवाना हुए। एक कोठरी में घुसकर दारोगा साहब ने दूसरा दरवाजा खोला, ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियां नजर आईं। ये दोनों ऊपर चढ़ गये और दो-तीन कोठरियों से घुसते हुए एक सुरंग में पहुंचे। दूर तक चले जाने के बाद इनका सिर छत से अड़ा। दारोगा ने एक सुराख में ताली लगाई और खटका दबाया, एक पत्थर का टुकड़ा अलग हो गया और ये दोनों बाहर निकले। यहां तेजसिंह ने अपने को एक कब्रिस्तान में पाया। इस संतति के तीसरे भाग के चौदहवें बयान में हम इस कब्रिस्तान का हाल लिख चुके हैं। इसी राह से कुंअर आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह उस तहखाने में गये थे। इस समय हम जो हाल लिख रहे हैं वह कुंअर आनंदसिंह के तहखाने में जाने के पहले का है, सिलसिला मिलाने के लिए फिर पीछे की तरफ लौटना पड़ा। तहखाने के हर एक दरवाजे में पहले ताला लगा रहता था मगर जब से तेजसिंह ने इसे अपने कब्जे में कर लिया (जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा) तब से ताला लगाना बंद हो गया, केवल खटकों पर ही कार्रवाई रह गई।

तेजसिंह ने चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखा और मालूम किया कि इस जंगल में जासूसी करते हुए कई दफे आ चुके हैं और इस कब्रिस्तान में भी पहुंच चुके हैं मगर जानते नहीं थे कि यह कब्रिस्तान क्या है और किस मतलब से बना हुआ है। अब तेजसिंह ने सोच लिया कि हमारा काम चल गया, दारोगा साहब को इसी जगह फंसाना चाहिए जाने न पावें।

तेज - दारोगा साहब, हकीकत में तुम बड़े ही जूतीखोर हो।

दारोगा - (ताज्जुब से तेजसिंह का मुंह देख के) मैंने क्या कसूर किया है जो आप गाली दे रहे हैं ऐसा तो कभी नहीं हुआ था!

तेज - फिर मेरे सामने गुर्राता है! कान पकड़ के उखाड़ लूंगा!

दारोगा - आज तक महाराज ने भी कभी मेरी ऐसी बेइज्जती नहीं की थी।

तेजसिंह ने दारोगा को एक लात ऐसी मारी कि बेचारा धम्म से जमीन पर गिर पड़ा। तेजसिंह उसकी छाती पर चढ़ बैठे और बेहोशी की दवा जबर्दस्ती नाक में ठूंस दी। बेचारा दारोगा बेहोश हो गया। तेजसिंह ने दारोगा की कमर से और अपनी कमर से भी चादर खोली और उसी में दारोगा की गठरी बांध ताली का गुच्छा और रोजनामचे की किताब भी उसी में रख पीठ पर लाद तेजी के साथ अपने लश्कर की तरफ रवाना हुए तथा दोपहर दिन चढ़ते-चढ़ते राजा वीरेंद्रसिंह के खेमे में जा पहुंचे। पहले तो रामानंद की सूरत देख वीरेंद्रसिंह चौंके मगर जब बंधे हुए इशारे से तेजसिंह ने अपने को जाहिर किया तो वे बहुत ही खुश हुए।