चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 7

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दिन अनुमान दो घण्टे चढ़ चुका है। महाराज सुरेन्द्रसिंह, राजा वीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, इन्द्रजीसिंह और आनन्दसिंह वगैरह खिड़कियों में बैठे उस तिलिस्मी मकान की तरफ देख रहे हैं जिसके अन्दर लोग हंसते-हंसते कूद पड़ते हैं। उस मकान के नीचे बहुत-सी कुर्सियां रखी हुई हैं जिन पर हमारे ऐयार तथा और भी कई प्रतिष्ठित आदमी बैठे हुए हैं और सब लोग इस बात का इन्तजार कर रहे हैं कि इस मकान पर बारी-बारी से ऐयार लोग चढ़ें और अपनी अक्ल का नमूना दिखावें।

और ऐयारों की पोशाक तो मामूली ढंग की है मगर भूतनाथ इस समय कुछ अजब ढंग की पोशाक पहने हुए है। सिवाय चेहरे के उसका कोई अंग खुला हुआ नहीं। ढीला-ढाला मोटा पायजामा और गंवारू रूईदार अचकन के अतिरिक्त बहुत बड़ा काता मुंड़ासा बांधे हुए है। जिसका पिछला सिरा पीठ पर से होता हुआ जमीन तक लटक रहा है। हाथ दोनों बल्कि नाखून तक अचकन की आस्तीन में घुसा रखे हैं और पैर के जूते की भी विचित्र सूरत हो रही है। भूतनाथ का मतलब चाहे कुछ भी क्यों न हो मगर लोग इसे केवल मसखरापन ही समझ रहे हैं।

सबके पहले पन्नालाल उस मकान की दीवार पर चढ़ गये और अन्दर की तरफ झांककर देखने लगे, मगर पांच-सात पल से ज्यादे अपने को न बचा सके और हंसते हुए अन्दर की तरफ कूद पड़े।

इसके बाद पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण और चुन्नीलाल ने कोशिश की मगर ये तीनों भी लौटकर न आ सके और पन्नालाल की तरह हंसते हुए अन्दर कूद पड़े। इसके बाद और ऐयारों ने भी उद्योग किया मगर कोई सफल-मनोरथ न हुआ। यहां तक कि जीतसिंह, तेजसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह को छोड़कर सभी ऐयार बारी-बारी से जाकर मकान के अन्दर कूद पड़े, केवल भूतनाथ रह गया जिसने सबके आखिर में चढ़ने का इरादा कर लिया था।

भूतनाथ मस्तानी चाल से चलता हुआ सीढ़ी के पास गया और धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा। देखते ही देखते वह दीवार के ऊपर जा पहुंचा। उस पर खड़े होकर एक दफे चारों और मैदान के अन्दर की तरफ झांका। यहां जो कुछ था उसे देखने के बाद उसने अपना चेहरा उस तरफ किया जिधर खिड़कियों में बैठे हुए महाराज और राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह बड़े शौक से उसकी कैफियत देख रहे थे। भूतनाथ ने हाथ उठाकर तीन दफे महाराज को सलाम किया और जोर से पुकारकर कहा, “मैं इसके अन्दर झांककर देख चुका और बड़ी देर तक दीवार पर खड़ा रहा, अब हुक्म हो तो नीचे उतर आऊं!”

महाराज ने नीचे उतर आने का इशारा किया और भूतनाथ मुस्कराता हुआ मकान के नीचे उतर आया, इस बीच में ऐयार लोग भी जो भूतनाथ के पहले मकान के अन्दर कूद चुके थे घूमते हुए बड़े तिलिस्मी मकान के अन्दर से आ पहुंचे और भूतनाथ की कैफियत देख-सुनकर ताज्जुब करने लगे।

भूतनाथ के उतर आने के बाद सब ऐयार मिल-जुलकर महाराज के पास गये ओर महाराज ने प्रसन्न होकर भूतनाथ को दो लाख रुपये इनाम देने का हुक्म दिया। सभी ऐयारों को इस बात का ताज्जुब था कि उस तिलिस्म का असर भूतनाथ पर क्यों नहीं हुआ और वह कैसे सभों को बेवकूफ बनाकर आप बु़द्धिमान बन बैठा और दो लाख रुपये का इनाम भी पा गया।

जीतसिंह - भूतनाथ, यह तुमने क्या किया कौन-सी तरकीब निकाली जिससे इस तिलिस्मी हवा का तुम पर कुछ भी असर न हुआ?

भूत - बात मामूली-सी है, जब तक मैं नहीं कहता तभी तक आश्चर्य मालूम पड़ता है।

तेज - आखिर कुछ कहो भी तो सही।

भूत - मेरे दिल को इस बात का निश्चय हो गया था कि इस मकान के अन्दर से किसी तरह की हवा, भाप या धुआं ऊपर की तरफ जरूर उठता है जो झांक कर देखने वाले के दिमाग में सांस के रास्ते से चढ़कर उसे मदहोश या पागल बना देता है, और दीवार के ऊपरी हिस्से पर भी कुछ-कुछ बिजली का असर जरूर है जो उस पर पैर रखने वाले के शरीर को शिथिल कर देती है या और भी किसी तरह का असर कर जाती है। मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूं कि लकड़ी पर बिजली का असर कुछ भी नहीं होता, अर्थात् जिस तरह धातु, मिट्टी, जल, चमड़ा और शरीर में बिजली घुसकर पार निकल जाती है उस तरह लकड़ी का छेदकर बिजली पार नहीं हो सकती अतएव मैंने अपने पैर में लकड़ी के बुरादे का थैला चढ़ा लिया, बल्कि जूते के अन्दर भी लकड़ी की तख्ती रख दी, जिससे दीवार से पैदा होने वाली बिजली का मुझ पर असर न हो, इसके बाद बेहोशी का असर न होने के लिए दवा भी खा ली, इतना करने पर भी जब तक मैं मकान के अन्दर झांकता रहा तब तक अपनी सांस को रोके रहा। मैंने अन्दर की तरफ चलती-फिरती और नाट्य करके हंसाने वाली पुतलियों को देखा और उस पीतल की चादर पर भी ध्यान दिया जो दीवार के ऊपर जड़ी थी और जिसके साथ कई तारें भी लगी हुई थीं। यद्यपि उसका असल भेद मुझे मालूम न हुआ मगर मैंने अपने बचाव की सूरत निकाल ली।

इतना कहकर भूतनाथ ने खंजर की नोक से अपने पायजामे में एक छेद कर दिया और उसमें से लकड़ी का बुरादा निकालकर सभों को दिखाया। भूतनाथ की बातें सुनकर महाराज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भूतनाथ तथा और ऐयारों की तरफ देखकर कहा, “वास्तव में भूतनाथ ने बहुत ठीक तरकीब सोची। उस तिलिस्म के अन्दर जो कुछ भेद है, हम बता देते हैं, इसके बाद तुम लोग उसके अन्दर जाकर देख लेना। जमानिया तिलिस्म के अन्दर से इन्द्रजीतसिंह एक कुत्ता लाये हैं जो देखने में बहुत छोटा और संगमरमर का बना हुआ मालूम होता है और बहुत-सी पीतल की बारीक तारें उस पर लिपटी हुई हैं। असल में वह कुत्ता कई तरह के मसालों और दवाइयों से बना हुआ है। वह कुत्ता जब पानी में छोड़ दिया जाता है तो उसमें से मस्त और मदहोश कर देने वाली भाप निकलती है और उसके साथ जो तारें लिपटी हुई हैं उनमें बिजली पैदा हो जाती है। दीवार के ऊपर जो पीतल की चादर बिछाई गई है उसी के साथ वे तारें लगा दी गई हैं और उनसे कुछ नीचे हटकर एक अच्छे तनाव का शामियाना तान दिया गया है जिससे कूदने वाले को चोट न लगे। इसके अतिरिक्त(भूतनाथ से) जिन्हें तुम पुतलियां कहते हो वे वास्तव में पुतलियां नहीं हैं बल्कि जीते-जागते आदमी हैं जो भेष बदलकर काम करते हैं और एक खास किस्म की पोशाक पहिरने और दवा सूंघने के सबब उन सब पर उस बिजली ओैर बेहोशी का असर नहीं होता। इस खेल के दिखाने की तरकीब भी एक ताम्रपत्र पर लिखी हुई है जो उसी कुत्ते के साथ पाया गया था। इन्द्रजीत का बयान है कि जमानिया तिलिस्म में इस तरह के और भी कुत्ते मौजूद हैं।

महाराज की बातें सुनकर सभों को बड़ा ताज्जुब हुआ, इसी तरह हमारे पाठक महाशय भी ताज्जुब करते और सोचते होंगे कि यह तमाशा संभव है या असम्भव मगर उन्हें समझ रखना चाहिए कि दुनिया में कोई बात असम्भव नहीं है। जो अब असम्भव है वह पहले जमाने में सम्भव थी और जो पहिले जमाने में असम्भव थी वह आज सम्भव हो रही है। 'दीवार कहकहा' वाली बात आप लोगों ने जरूर सुनी होगी। उसके विषय में भी यही कहा जाता है कि उस दीवार पर चढ़कर दूसरी तरफ झांकने वाला हंसता-हंसता दूसरी तरफ कूद पड़ता है और फिर उस आदमी का पता नहीं लगता कि क्या हुआ और कहां गया। इस मशहूर और ऐतिहासिक बात को कई आदमी झूठ समझते हैं मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। इसके विषय में हम नीचे एक लेख की नकल करते हैं जो तारीख 14 मार्च सन् 1905 ई. के अवध अखबार में छपा था –

“अगले जमाने में फिलासफर (वैज्ञानिक लोग) अपनी बु़द्धि से जो चीजें बना गये हैं अब तक यादगार हैं। उनकी छोटी-सी तारीफ यह है कि इस समय के लोग उनके कामों को समझ भी नहीं सकते। उनके ऊंचे हौसले और ऊंचे खयाल की निशानी चीन के हाते की दीवार है और हिन्दुस्तान में भी ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनका किस्सा आगे चलकर मैं लिखूंगा। इस समय 'दीवार कहकहा' पर लिखना चाहता हूं।

मैंने सन् 1899 ई. में 'अखबार आलम' मेरठ में कुछ लिखा था जिसकी मालिक अखबार ने बड़ी प्रशंसा की थी, अब उसके और विशेष सबब खयाल में आये हैं जो बयान करना चाहता हूं।

मुसलमानों के प्रथम राज्य में उस समय के हाकिम ने इस दीवार की अवस्था जानने के लिए एक कमीशन भेजा था जिसके सफर का हाल दुनिया के अखबारों से प्रकट हुआ है।

संक्षेप में यह कि कई आदमी मरे परन्तु ठीक तौर पर नहीं मालूम हो सका कि उस दीवार के उस तरफ क्या हाल-चाल है।

उसकी तारीफ इस तरह पर है कि उस दीवार की ऊंचाई पर कोई आदमी जा नहीं सकता और जो जाता है वह हंसते-हंसते दूसरी तरफ गिर जाता है, यदि गिरने से किसी तरह रोक लिया जाय तो जोर से हंसते-हंसते मर जाता है।”

यह एक तिलिस्म कहा जाता है या कोई और बात है, पर यदि सोचा जाय तो यह कहा जायगा कि अवश्य किसी बु़द्धिमान आदमी ने हकीमी कायदे से इस विचित्र दीवार को बनाया है।

यह दीवार अवश्य कीमियाई विद्या से मदद लेकर बनाई गई होगी।

यह बात जो प्रसिद्ध है कि दीवार के उस तरफ जिन्न और परी रहते हैं जिनको देखकर मनुष्य पागल हो जाता है और उसी तरफ को दिल दे देता है, यह बात ठीक हो सकती है परन्तु हंसता क्यों है यह सोचने की बात है।

काश्मीर में केशर के खेत की भी यही तारीफ है। तो क्या उसकी सुगन्ध वहां जाकर एकत्र होती है, या वहां भी केशर के खेत हैं जिससे हंसी आती है परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि ऐसा होता तो यह भी मशहूर होता कि केशर की महक आती है। नहीं-नहीं, कुछ और ही हिकमत है जैसा कि हिन्दुस्तान में किसी शहर के मसजिद की मीनारों में यह तारीफ थी कि ऊपर खड़े होकर पानी का भरा गिलास हाथ में लो तो वह आप ही आप छलकने लगता था। इसकी जांच के लिए एक इन्जीनियर साहब ने उसे गिरवा दिया और फिर उसी जगह पर बनवाया परन्तु वह बात न रही। या आगरा में ताजबीबी के रौजे के फव्वारों के नल जो मिट्टी के खरनेचे की तरह थे जैसे खपरैल या बगीचे के नल होते हैं। संयोग से फव्वारों का एक नल टूट गया, उसकी मरम्मत की गई, दूसरी जगह से फट गया यहां तक कि तीस-चालीस वर्ष से बड़े-बड़े कारीगरों ने अपनी-अपनी कारीगरी दिखाई परन्तु सब व्यर्थ हुआ। अब तक तलाश है कि कोई उसे बनाकर अपना नाम करे, मतलब यह कि 'दीवार कहकहा' भी ऐसी ही कारीगरी से बनी है जिसकी कीमियाई बनावट मेरी समझ में यों आती है कि सतह जहां जमीन से आसमान तक कई हिस्सों में अलग की गई लम्बाई का भाग कई हवाओं से मिला है जैसे आक्सीजन,नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बोलिकएसिड गैस, क्लोराइन इत्यादि। फिर इन हवाओं में से और भी कई चीजें बनती हैं जैसा कि नाइट्रोजन का एक मोरक्कब पुट ओक्साइड आफ नाइट्रोजन है (जिसको लाफिंग गैस भी कहते हैं।) बस दुनिया के उस सतह पर जहां लाफिंग गैस जिसको हिन्दी में हंसाने वाली हवा कहते हैं पाई गई है, उस जगह पर यह दीवार सतह जमीन से ऊंचाई तक बनाई गई है। इस जगह पर बड़ी दलील यह होगी कि फिर वह बनाने वाले आदमी कैसे उस जगह अपने होश में रहेंगे, वह क्यों न हंसते-हंसते मर गये और यही हल करना पहले मुझसे रह गया था जिसे अब उस नजीर से जो अमेरिका में कायम हुई है हल करता हूं, याने जिस तरह एक मकान कल के सहारे एक जगह से उठाकर दूसरी जगह रख दिया जाता है उसी तरह यह दीवार भी किसी नीची जगह में इतनी ऊंची बनाकर कल से उठाकर उस जगह रख दी गई है जहां अब है। लाफिंग गैस में यह असर है कि मनुष्य उसके सूंघने से हंसते-हंसते दम घुटकर मर जाता है।

अब यह बात रही कि आदमी उस तरफ क्यों गिर पड़ता है इस खिंचाव को भी हम समझे हुए हैं परन्तु उसकी केमिस्ट्री (कीमियाई) अभी हम न बतावेंगे इसको फिर किसी समय पर कहेंगे।

दृष्टान्त के लिए यह नजीर लिख सकते हैं कि ग्वालियर की जमीन की यह तासीर है कि जो मनुष्य वहां जाता है, वहीं का हो जाता है, जैसे यह कहावत है कि एक कांवर वाला जिसके कांवर में उसके माता-पिता थे वहां पहुंचा और कांवर उतारकर बोला कि तुम्हारा जहां जी चाहे जाओ, मुझे तुमसे कुछ वास्ता नहीं। उसके तपस्वी माता-पिता बुद्धिमान थे, उन्होंने अपने प्यारे लड़के की आरजू-मिन्नत करके कहा कि हमको चम्बल दरिया के पार उतार दो फिर हम चले जाएंगे। लाचार होकर बड़ी हुज्जत से लड़का उनको दरिया के पार ले गया, ज्योंही उस पार हुआ त्योंही चाहा कि अपनी नादानी से लज्जित होकर माता-पिता के चरणों पर गिरकर माफी चाहे परन्तु उसकी माता ने कहा कि 'ऐ बेटा, तेरा कुछ कसूर नहीं, यह तासीर उस जमीन की थी।'

दीवार कहकहा के उस तरफ भी ऐसा ही खिंचाव है, जिसको हम ग्वालियर की हिस्टरी तैयार हो जाने पर यदि जीते रहे तो किसी समय परमेश्वर की कृपा से आप लोगों पर जाहिर करेंगे, अभी तो हमको यह विश्वास है कि इतिहास ग्वालियर के बनाने वाले ग्रेटर साहब ही इस खिंचाव के बारे में कुछ बयान करेंगे। इतिहास लेखक महाशय को चाहिए कि ग्वालियर की तारीफ में इस किस्से की हकीकत जरूर बयान करें कि कांवर वाले ने कांवर क्यों रख दी थी और इसकी तवारीख लिखें या इस किस्से को झूठ साबित करें, क्योंकि जो बात मशहूर होती है ग्रंथकर्ता को उसके झूठ-सच के बारे में जरूर कुछ लिखना चाहिए। तो भी इतिहास ग्वालियर तैयार हो जाने पर उस खिंचाव के बारे में जो दीवार के उस तरफ है पूरा-पूरा हाल लिखेंगे।

ग्वालियर की जमीन में तरह-तरह की खासियत है जिसको हम उस हिस्टरी की समालोचना में (यदि वह बातें हिस्टरी से बच रहीं) जाहिर करेंगे। दीवार कहकहा के सम्बन्ध में जहां तक अपना खयाल था आप लोगों पर प्रकट किया, याने दुनिया के उस हिस्से की सतह पर दीवार नहीं बनाई गई है जहां ओक्साइड आफ नाइट्रोजन है बल्कि पहले दूसरी जगह बनाकर फिर कल के जरिये से वहां उठाकर रख दी गई है। यदि यह कहा जाय कि गैस सिर्फ उसी जगह थी और जगह क्यों नहीं है तो उसका सहज जवाब यह है कि जमीन से आसमान तक तलाश करो किसी न किसी ऊंचाई पर तुमको मिल ही जाएगी। दूसरे यह कि कोई हवा सिर्फ खास जगह पर मिलती है मसलन बन्द जगह की हलाक करने वाली बन्द हवा, जैसा कि अक्सर कुएं में आदमी उतरते हैं और घबड़ाकर मर जाते हैं। यदि यह कहा जाय कि वहां हवा नहीं है तो यह नहीं हो सकता।

पिछले जमाने के आदमी अपनी कारीगरी का अच्छा-अच्छा नमूना छोड़ गये हैं - जैसे मिट्टी की मीनार, या नौशेरवानी बाग या जवाहिरात के पेड़ों पर चिड़ियों का गाना या आगरे का ताज जिसकी तारीफ में तारीख तुराब के बुद्धिमान लेखक ने किसी लेखक का यह फिकरा लिखा है जिसका संक्षेप यह है कि 'इसमें कुछ बुराई नहीं, यदि है तो यही है कि कोई बुराई नहीं'। देखिये आगरा में बहुत-सी बादशाही समय की टूटी-फूटी इमारतें हैं जिनमें पानी दौड़ाने के नल (पाइप) वैसे ही मिट्टी के हैं जैसे कि आजकल मिट्टी के गोल परनाले होते हैं, उन्हीं नलों से दूर-दूर से पानी आता और नीचे से ऊपर कई मरातिब तक जाता था। इसी तरह से ताजगंज के फव्वारों के नल भी थे तथा और भी इसी तरह के हैं जिनमें से एक के टूटने पर लोहे के नल लगाये गये, जब उनसे काम न चला तो बड़े-बड़े भारी पत्थरों में छेद करके लगाये गये, परंतु बेफायदा हुआ।

उन फव्वारों की तारीफ है कि जो जितना ऊंचा जा रहा है उतनी ही ऊंचाई पर यहां से वहां तक बराबर धारें गिरती हैं। अब जो कहीं बनते हैं तो धार बराबर करने को ऊंची-नीची सतह पर फव्वारे लगाने पड़ते हैं।

इसी तरह का तिलिस्म के विषय का एक लेख ता. 30 मार्च सन् 1905 के अवध अखबार में छपा था उसका अनुवाद भी हम नीचे लिखते हैं –

“गुजरे हुए जमाने की काबिले कदर यादगारो! तुमको याद कर-करके हम कहां तक रोएं और कहां तक विलाप करें जमाने के बेकदर हाथों की बदौलत तुम अब मिट गये और मिटते चले जाते हो, जमीन तुमको खा गई और उनको भी खा गई जो तुम्हारे जानने वाले थे, यहां तक कि तुम्हारा निशान तो निशान तुम्हारा नाम तक भी मिट गया!

खलीफा बिन उम्मीयां के जमाने में जिन दिनों अब्दुल मलिक बिनमर्दा की तरफ से उसका भाई अब्दुल अजीज बिनमर्दा मिस्र देश का गवर्नर था, एक दिन उसके सामने दफीना (जमीन के नीचे छिपा हुआ खजाना) का हाल बतलाने वाला कोई शख्स हाजिर हुआ। अब्दुल अजीज ने बात-बात ही में उससे कहा, 'किसी दफीना का हाल तो बतलाइये!' जिसके जवाब में उसने एक टीले का नाम लेकर कहा कि उसमें खजाना है और इसकी परख इस तौर से हो सकती है कि वहां की थोड़ी जमीन खोदने पर संगमर्मर और स्याह पत्थर का फर्श मिलेगा जिसके नीचे फिर खोदने से एक खाली दरवाजा दिखाई देगा, उस दरवाजे के उखड़ने के बाद सोने का एक खंभा नजर आवेगा, जिसके ऊपरी हिस्से पर एक मुर्ग बैठा होगा, उसकी आंखों में जो सुर्ख मानिक जड़े हैं, वह इस कदर कीमती हैं कि सारी दुनिया उनके बदले और दाम में काफी हो तो हो। उसके दोनों बाजू मानिक और पन्ने से सजे हुए हैं और सोने वाले खंभे से सोने के पत्तरों का कुछ हिस्सा निकलकर उस मुर्ग के सिर पर छाया किये हुए है।

यह ताज्जुब की बात सुनकर उस गवर्नर का कुछ ऐसा शौक बढ़ा कि आमतौर पर हुक्म दे दिया कि वह जगह खोदी जाय और जो लोग उसको खोदेंगे और उसमें काम करेंगे उनको हजारों रुपये दिये जायंगे। वह जगह एक टीले पर थी, इस वजह से बहुत घेरा देकर खुदाई का काम शुरू हुआ। पता देने वाले ने जो संगमर्मर और स्याह पत्थर के फर्श वगैरह बताये थे वे मिलते जाते थे और बताने वाले के फन की तसदीक होती जाती थी और इसी वजह से अब्दुल अजीज का शौक बढ़ता जाता था तथा खुदाई का काम मुस्तैदी के साथ होता जाता था कि यकायक मुर्ग का सिर जाहिर हुआ। सिर के जाहिर होते ही एकबारगी आंखों को चकाचौंक करने वाली तेज रोशनी उस खोदी हुई जगह से निकलकर फैल गई, मालूम हुआ कि बिजली तड़प गई।

यह गैरमामूली रोशनी मुर्ग की आंखों से निकल रही थी। दोनों आंखों में बड़े-बड़े मानिक जड़े हुए थे, जिनकी यह बिजली थी। और ज्यादे खोदे जाने पर उसके दोनों जड़ाऊ बाजू भी नजर आये और फिर उसके पांव भी दिखाई दिये।

उस मुर्ग वाले सोने के खंभे के अलावा एक और खंभा भी नजर आया जो एक इमारत की तरह पर था। यह इमारती खंभा रंग-बिरंगे पत्थरों का बना हुआ था, जिसमें कई कमरे थे और उनकी छतें बिलकुल छज्जेदार थीं। उसके दरवाजों पर बड़े और खूबसूरत आलों (ताकों) की एक कतार थी जिनमें तरह-तरह की रखी हुई मूरतें और बनी हुई सूरतें खूबी के साथ अपनी शोभा दिखा रही थीं, सोने और जवाहिरात के जगह-जगह पर ढेर थे जो छिपे हुए थे, ऊपर से चांदी के पत्तर लगे थे और पत्तरों पर सोने की कीलें जड़ी थीं। अब्दुल अजीज बिनमर्दा यह खबर पाते ही बड़े चाह से उस मौके पर पहुंचा, और जो आश्चर्यजनक तिलिस्म वहां जाहिर था उसको बहुत दिलचस्पी के साथ देर तक देखता रहा और तमाम खलकत की भीड़-भाड़ थी, तमाशबीन अपने बढ़े हुए शौक से एक-दूसरे पर गिरे पड़ते थे। एक जगह ढले हुए तांबे की सीढ़ी ऊपर तक लगी हुई थी, उसको देखकर एक शख्स ऊपर जल्दी-जल्दी चढ़ने लगा, हर एक तमाशबीन ताज्जुब के साथ वहां की हर चीज को देख रहा था।

उस जीने की चौथी सीढ़ी पर जब चढ़ने वाले ने कदम रखा तो जीने की दाहिनी और बाईं तरफ से दो नंगी तलवारें, अपना काट और तड़प दिखाती हुई निकलीं। यद्यपि इस चढ़ने वाले ने बचने के लिए हर तरह की कोशिश की मगर दोनों निकलने वाली तलवारें प्राणघातक शत्रु थीं, जिन्होंने देखते ही देखते इस चढ़ने वाले आदमी का काम तमाम कर दिया, और फिर यह देखा गया कि इस शख्स के टुकड़े नीचे कट-कटकर गिरे। उनके गिरते ही वह खंभा झोंके ले-लेकर आप से आप हिलने लगा और उस पर से वह बैठा हुआ मुर्ग कुछ अजब शान से उड़ा कि देखने वाले अचंभे में होकर देखते रह गये।

जिस वक्त उसने उड़ने के लिए अपने बाजू (डैने) फटफटाये तो अद्भुत सुरीली और दिल लुभाने वाली आवाजें उससे निकलीं लोग सुनकर दंग रह गये, और यह आवाजें हवा में गूंजकर दूर-दूर तक फैल गईं।

उस मुर्ग के उड़ते ही एक किस्म की गर्म हवा चली जिसकी वजह से जिस कदर तमाशबीन आस-पास में खड़े थे सब के सब उसी तिलिस्मी गार (खोह) में गिर पड़े। उस गड्ढे के अंदर उस वक्त खोदने वाले बेलदार, मिट्टी को बाहर फेंकने वाले मजदूर और मेठ वगैरह जिनकी तादाद 1000 कही जाती है मौजूद थे, जो सब के सब बेचारे फौरन मर गये। अब्दुल अजीज ने यह हाल देखकर एक चीख मारी और कहा, यह भी अजीब दुखदायी बात हुई! इससे क्या उम्मीद रखनी चाहिए।

इसके बाद और मजदूर उसमें लगा दिए गये। जिस कदर मिट्टी वगैरह निकली थी वह सब की सब अंदर डाल दी गई, वह मर जाने वाले तमाशबीन सब भी उसी के अंदर दफना दिए गए और आखीर में उस तिलिस्म की जगह अच्छा-खासा एक 'कब्रिस्तान' बन गया। गए थे दफीना निकालने के लिए और इतनी जानें दफन कर आये, खर्च खाटे में रहा।”