छोटा पर्दा सच में बुद्धू बक्सा बन चुका है / नवल किशोर व्यास

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छोटा पर्दा सच में बुद्धू बक्सा बन चुका है

अभी चल रहा टीवी का संसार अनोखा है। चैनल बहुत है पर रिमोट कही एक जगह नहीं ठहरता। टीवी दिमाग की बजाय सारी मेहनत अंगूठे से करवा रहा है। हमारे हाथ के अंगुठे हमारे से ज्यादा सोशियल हो चले है। वक़्त के साथ पारम्परिक  मुहावरो का प्रयोग भी बदल चुका है। कल तक अंगूठा दिखाने का मतलब चिढ़ाना या मना करने से होता था, वही अब इस अंगूठे का प्रयोग स्नेह और चापलूसी के लिए होता है। पुराने दौर की हीरोइन नायक को प्रेम से चिढ़ाने के लिए इस अंगूठे का कई बार इस्तेमाल करती थी। वक़्त बदला तो धीरे धीरे ये भाव भी कालांतर हो गए। अब चिढ़ाने के लिए अंगूठे का नहीं बीच की ऊँगली का प्रयोग होता है। बहरहाल टीवी पर चैनल की परेड में दूरदर्शन की स्थिति प्रेमचंद की बूढी काकी जैसे हो गई है, जबकि टेलीविज़न के सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्शन  दूरदर्शन ने ही दिए है। बड़े बड़े पूंजीपतियों ने टेलीविज़न को पैसा कमाने का जरिया बनाया जबकि दूरदर्शन ने कम संसाधन और पूंजी के बावजूद डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, मालगुडी डेज, व्योमकेश बक्शी, मिर्जा ग़ालिब, ये जो है ज़िन्दगी, मुंगेरीलाल सरीखी सौगाते दर्शको को दी। मालगुडी डेज को तो जितना बेहतरीन आर के नारायण ने लिखा था उतना ही बेहतरीन शंकर नाग ने उसका निर्देशन किया। रचनात्मकता की यह जुगलबंदी विजय आनंद की गाइड में भी थी। मालगुडी डेज देश के गुलामी के दिनों की पृष्ठभूमि में किशोरावस्था के कुछ दोस्तों की कहानी है। चेतन भगत अपने उपन्यास थ्री मिस्टेक ऑफ़ माय लाइफ में लिखते है है सामान्तया दोस्तों के ग्रुप में एक दोस्त बेवकूफ होता ही है जो बिना अपने मित्र की सलाह और सहायता के कुछ नहीं कर सकता। मालगुडी का स्वामीनाथन भी ग्रुप का कथित बेवकूफ है। उसके सारे दोस्त उससे ज्यादा समझदार है पर दुनियादारी समझने वालो के पास स्वामी जैसी मासूमियत कहा? वास्तव में मद्रास का मालगुडी शहर नारायण का काल्पनिक क़स्बा था जिसकी पृष्टभूमि में ही उन्होंने मालगुडी डेज सहित स्नातक, मिठाई वाला नाम की कहानियो को जन्म दिया। उनके लेखन की लोकप्रियता का आलम ये था की पाठको ने भारत के नक़्शे में मालगुडी शहर को ढूंढना शुरू कर दिया। मद्रास आने वाला हर पर्यटक गाइड से मालगुडी शहर के बारे में पूछता। बसे बसाये शहरो की आपाधापी के बीच सुकून के लिए लोग मालगुडी को तलाश करने लगे। महानगर दोस्ताना रचने में लगे है तो छोटे शहर आज भी शीतलता देते है। कोई एफ एम चैनल भी बिनाका गीतमाला का माधुर्य वापिस न ला सका। आज प्राइवेट चैनल के वातानुकूलित कमरे में बैठे लोग बिना दर्शको की रूचि जाने घटिया पर व्यावसायिक रूप से सफल कार्यकर्मो का निर्माण कर रहे है। न्यूज चैनल वाले चीख रहे है और वो सभी न्यूज के नाम पर गॉशिप और सनसनी परोस रहे है। रियलिटी शो के नाम पर कला का व्यवसायीकरण किया जा रहा है। लोग इस तरंह के कार्यक्रमों की अगर निंदा भी कर रहे है तो ये कम्बख़त येे टीआरपी कहा से निकल रही है। टीवी का ये सबसे मुश्किल समय है। टीवी के दर्शको को आज स्वामी की मासूमियत की जरूरत है।