जनता की ताकत पर गहरी आस्था की कविता: कभी नहीं जनता मरती / महेश चंद्र पुनेठा

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अत्याचारों के होने से

लोहू के बहने चुसने से

बोटी-बोटी नुच जाने से

किसी देश या किसी राष्ट्र की

कभी नहीं जनता मरती।

मुरदा होकर भी जीती है

बंदी रह कर भी उठती है

साँसों साँसों पर उड़ती है

किसी देश या किसी राष्ट्र की

कभी नहीं जनता मरती।

सब देशों सब राष्ट्रों में

शासक ही शासक मरते हैं

शोषक ही शोषक मरते हैं।

किसी देश या किसी राष्ट्र की

कभी नहीं जनता मरती।

जनता सत्यों की भार्या है,

जागृत जीवन की जननी है

महामही की महाशक्ति है

किसी देश या किसी राष्ट्र की

कभी नहीं जनता मरती।

इस कविता के बरक्स रघुवीर सहाय की एक कविता की इन पंक्तियों को रखकर देखें - लोग सिर्फ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग / लोग ही लोग हैं चारों तरफ लोग, लोग, लोग / मुँह बाये हुए लोग और आँख चुंधियाए हुए लोग / कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग / खुजताले हुए लोग और सहलाते हुए लोग / दुनिया एक बजबजाती हुई-सी चीज हो गई है। यहाँ एक जनवादी कवि और मध्यवर्गीय मानसिकता के कवि के बीच अंतर समझ में आ जाता है।जनता को देखने के ये दो अलग-अलग दृष्टिकोण हैं जो अलग-अलग राजनैतिक समझ और जीवन-दर्शन से पैदा होते हैं। केदार के लिए जनता भीड़ मात्र नहीं है, न ही मार तमाम लोग। वे जनता को हिकारत भरी नजर से नहीं देखते हैं न ही असहाय-निर्बल। वे जनता की ताकत पर गहरी आस्था रखने वाले कवि हैं। मात्र बीस पंक्तियों की उक्त कविता इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है। जनता की ताकत पर ऐसा विश्वास एक जनवादी ही कर सकता है। कुछ अकादमिक आलोचक इसे जनता के प्रति अंधपूजा भाव भी कह सकते हैं पर यह संघर्षशील जनता के प्रति जिम्मेदारी का भाव है जिसके पीछे कवि का यथार्थबोध भी है और इतिहासबोध भी। शासकों द्वारा जनता को तमाम तरीके से डराने-धमकाने-दमन का प्रयास किया जाता रहा है। इतिहास इस तरह की घटनाओं से भरा पड़ा है। वर्तमान में भी हमारे आस-पास इसके उदाहरण कम नहीं हैं। अपनी सैनिक-अर्द्धसैनिक शक्ति के बल पर शासक उसे दबाना चाहता है पर जनता है कि तमाम अत्याचार-शोषण-उत्पीड़न-दमन के बावजूद चुप नहीं बैठती है। हिंसक-अहिंसक साधनों के साथ हमेशा उठ खड़ी होती है। एक नई शक्ति के रूप में। बकौल आलोचक डाॅ0जीवन सिंह के, “ यह सही है कि 'जनता' में सब कुछ सदा अच्छा नहीं होता उसकी जिंदगी में भी अनेक तरह की, दुर्बलताएं होती हैं। इसके बावजूद उदित होती प्रतिरोध की ताकत भी उसी जनता के भीतर होती है, जो बराबर संघर्षरत है।” यह एक ऐतिहासिक सत्य है। जन संघर्षों के प्रति यथार्थवादी रूख। जनता का कितना ही शोषण किया जाय वह कभी नहीं मरती है। हम इतिहास में बहुत पीछे भी नहीं जाएं, अभी हाल में ही मिस्र, ट्यूनेशिया, सीरिया, लेबनान में जनता का जो उभार दिखाई दिया है वह कवि केदारनाथ अग्रवाल की इस आस्था को ही सही सिद्ध करता है- कभी नहीं जनता मरती है / ...शासक ही शासक मरते हैं / शोषक ही शोषक ही मरते हैं। यह दूसरी बात है कि शासक या शोषक को इस बात का भ्रम तथा अहंकार होता है कि वह अपनी ताकत के बल पर जनता को हरा देगा। वह अपने शीश महल में बैठा अपनी नीवं खिसकती नहीं देख पाता। लेकिन कुछ समय के लिए ऐसा भले ही हो जाए अंततः जनता की एकजुटता की ही जीत होती है क्योंकि - चुन-चुन / क्षण-क्षण के कण / जीवित जनता / जोड़ रही है दिन की हड्डी-पसली-ममता / दृढ़ से दृढ़तर बना रही है अपनी क्षमता। इसलिए तो केदार उस जनता से बल ग्रहण करते हैं। जनता के बल को ही अपनी कविता का बल बताते हैं - मुझे प्राप्त है जनता का बल / वह बल मेरी कविता का बल / मैं उस बल से / शक्ति प्रबल से / एक नहीं सौ साल जिऊँगा / काल कुटिल विष देगा तो भी / मैं उस विष को नहीं पिऊँगा। जनता के इस बल से प्राप्त ताकत से ही कवि युग-जीवन के सत्य को लिखने की बात तथा राज्य द्वारा अमित धन-सम्पत्ति देने पर भी नहीं बिकने का संकल्प व्यक्त करता है। जनता की ताकत पर विश्वास करने वाला कवि ही ऐसा कह सकता है।

केदार बाबू अपने समाज की इतिहास-गति को इकहरे और एकांगी रूप में न देखकर सदैव उसके द्वंद्वात्मकता में देखते हैं। वास्तव में हम पाते हैं कि दुनिया में अब तक जितने भी परिवर्तन हुए हैं वे सारे जनता की संगठित शक्ति और जुझारुपन के बदौलत ही हुए हैं। कोई भी ऐसा शासन जो शोषण-दमन की नींव पर खड़ा है वह अधिक दिनों तक नहीं टिक पाया है। कुछ समय के लिए भले जनता की सामूहिक चेतना को भ्रमित या कुंद कर दिया जाय या उसे 'मुरदा' बना लिया जाय पर देर-सबेर वह जाग उठती है। वह रोके नहीं रुकती है। मारे नहीं मरती है। वही है जो दिशांतर कर सकती है। केदार का विश्वास रहा है कि-जहाँ धूल-धरती सिसकती पड़ी है / जहाँ आँसुओं की बरसती झड़ी है / जहाँ लाट खल्वाट खूनी गड़ी है / जहाँ मृत्यु-मीनार ऊँची खड़ी है / वहाँ जनता रहेगी। वह सारे दुःखों को सहेगी फिर भी हँसती हुई जिएगी। न काटे कटेगी न मारे मरेगी। एक न एक दिन युगांतर करेगी। कवि का जनता पर ऐसा अटूट विश्वास वैज्ञानिक, अद्भुत और नई ऊर्जा से भरने वाला है। जनता को बंदी बनाकर बाँधने की कोशिश हमेशा की जाती रहती है पर अधिक समय तक ऐसा नहीं चल सकता वह तमाम बंधनों को तोड़ उठ खड़ी होती है- मुरदा होकर भी जीती है / बंदी रह कर भी उठती है। यही जनता है जिसने - रीड, परदे और आत्मा की प्रबलतम तीव्र ध्वनियाँ / जो कि थीं साम्राज्यवादी मान्यताओं की लहरियाँ / और सारे उपनिवेशों पर निरंकुश नाचती थी, उसको धूल चटा दी। हिंद, बर्मा, अरब, पैलेस्टीन की जन-क्रांतियों ने / मार कर हँसिया-हथौड़े / देह उसकी तोड़ दी है / हड्डियों को चरमरा कर लुंज उसको कर दिया है। इसी जनता के बल पर तो कवि कहता है- अतः आज हम हँसते-हँसते / नयी शपथ यह प्रथम करेंगे / शोषक का साम्राज्य हरेंगे / जनवादी सरकार करेंगे। इस जनता की शक्ति को वे अपनी 'लड़ रहा है जीवंत उत्तरी वियतनाम' कविता में भी रेखांकित करते हैं- डालर ने सोचा था / हो ची मिह्न भुनगा है / उसका देश केंचुआ है / उसके लोग मुरदा हैं / जाहिल आबादी है / चुटकी से मसल देगा भुनगे को / एड़ी से कुचल देगा कंेचुए को / जल्दी से जीत लेगा मुरदों को / जाहिल आबादी को पीट लेगा / लेकिन / उस भुनगे ने / डालर को मसल दिया। केचुए ने / डालर को कुचल दिया / मुरदों ने / डालर को पीस दिया / जाहिल आबादी ने / डालर का खून किया / डालर की फौज फटी काई-सी / डालर के वायुयान / टूट गए कुल्हड़ से / फूट गए बुल्ले से। भारत सहित तीसरी दुनिया के राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम इसी जनता की शक्ति के परिणाम रहे। भगत सिंह, अंबेडकर, सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गाँधी सरीखे नायकों की शक्ति जनता ही तो थी।

केदार बाबू शोषित जनता का आह्वान करते हैं- पत्थर के सिर पर दे मारो अपना लोहा / वह पत्थर जो राह रोक कर पड़ा हुआ है / जो न टूटने के घमंड में अड़ा हुआ है / जो महान फैले पहाड़ की / अंधकार से भी गुफा का / एक बड़ा भारी टुकड़ा है। यह कहते हुए जनता के भीतर शक्ति का संचार करते हैं- हार न मानो / और न हारो, जीना जानो / यह जीवन की आन हमारी शान है / और हमारे भुजवीरों की प्रान है। इसलिए - मार हथौड़ा / कर-कर चोट / लोहू और पसीने से ही / बंधन की दीवारें तोड़।

यदि कोई यह सोचता है कि जनता पर अत्याचार करने उसका शोषण-उत्पीड़न या दमन करने से उसको मारा जा सकता है तो यह भ्रम है। किसी भी देश की जनता को मारा नहीं जा सकता है उसको खत्म नहीं किया जा सकता है क्योंकि जनता में संघर्ष की अकूत ताकत होती है। वह क्षिति की छाती को जर्जर देखकर बादलों की तरह गरज उठती है। तमाम तरीकों से उसे दबाया जाय, भले उसमें तमाम दोष हों, अंधविश्वासों-रूढ़ियों से जकड़ी हो, संकीर्णताओं से ग्रस्त हो, 'मुरदा' होकर पड़ी हो पर उसे अंधविश्वासों, रूढ़ियों और संकीर्णताओं में बहुत दिनों तक उलझाये नहीं रखा जा सकता है। दमन-अत्याचार -शोषण बढ़ता है तो उसके समझ में बातें आने लगती है। वह सामाजिक-राजनैतिक बंधनों को तोड़ उठ खड़ी होती है -सांसों-साँसों पर उड़ती है। संगठित होकर शोषणकारी सत्ता का अंत करके ही दम लेती है। जनता की इस एकजुटता के आगे बड़ी से बड़ी शोषणकारी सत्ता नहीं ठहरती है उसे अंततः खत्म होना ही होता है। शोषण-दमन तभी तक होता जब तक वे असंगठित होती है। संगठित होकर जनता क्रांतिकारी सर्वहारा का रूप लेती है। इसकी संगठित शक्ति लामबंद होकर बड़े से बड़े चट्टानों को उड़ा सकती है। जैसा कि मुक्तिबोध कहते हंै - “ कोई भी बुद्धिजीवी व्यक्ति यह जानता है कि एक स्थान में एकत्रित संगठित जनता भीड। नहीं है क्योंकि वह संगठित है। जहाँ संगठन है वहाँ एक प्रेरणा और एक उद्देश्य भी है। जहाँ एक प्रेरणा और उद्देश्य है वहाँ एक स्फीति और सक्रिय चेतना है। देश-विदेश के पिछले इतिहास से हमें ये सूचित होता है कि संगठित जनता ने असाधारण कार्य किया है। संगठनों की प्रेरणा तथा उद्देश्य उचित हैं या अनुचित, यह बात उनकी परीक्षा करने से स्पष्ट होगी परंतु हमारे कई नए कवियों को उस एकत्रीकरण से ही डर लगता है जिसे जनता का सामूहिक दृश्य कह सकते हैं। उसे सामूहिकता से चिढ़ है। क्यों? इसलिए कि पश्चिमी विचार पत्र उसे वैसा ही सिखाते हैं। उसे सिखाया गया है कि सचेत, आत्मनिर्णीत, विवेकपरक, संकल्प से शून्य होकर व्यक्ति अपने को समूह में विलीन कर देता है। इसलिए हे! जागरूक, सचेत महानुभाव तुम अपने को समूह में विलीन मत करो। दूसरे शब्दों में जनता समूह है वह अज्ञ है, वह अंधकारग्रस्त है, वह जल्दी ही भीड़ बन जाती है। उसका साथ मत दो। तुम सचेत व्यक्तित्वशाली प्राण-केंद्र हो। उसमें अपने आपको विलीन मत करो। अपने अंतिम निष्कर्ष मंे यह विचारधारा अंत्यंत प्रतिक्रियावादी है, वह जन के प्रति घृणा पर आधारित है और बुद्धिजीवियों को जनता से अलग करके रखने का एक उपाय है। “ केदार इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते हैं इसलिए वे अज्ञेय की तरह व्यक्तिवादी दर्शन को नहीं बल्कि माक्र्सवादी दर्शन का अपना प्रेरणा स्रोत बनाते हैं और मानते हैं कि कोई भी माक्र्सवादी हुए बिना आदमी नहीं हो सकता। माक्र्सवाद हमें सामूहिकता से रहना सिखाता है। माक्र्सवाद की ही प्रेरणा है केदार बाबू जनता की संगठित ताकत पर निष्ठा रखते हैं। वे मानते हैं कि जनता सत्यमार्ग पर चलने वाली है। जीवन में जीवंतता उसी से आती है क्योंकि वह क्रियाशील है। पृथ्वी की महाशक्ति है। केदार बाबू अपनी एक कविता में सर्वहारा की शक्ति की ऐसी आग से तुलना करते हंै जो लोहे की दीवार वाले गढ़ों को मोमबत्ती की तरह गला देती है क्योंकि शासक वर्ग भौतिक रूप से कितना ही सबल हो पर आत्मिक रूप से कमजोर होता है जबकि जनता के पास आत्मिक शक्ति अधिक होती है जिसके बल पर वह बड़ी-बड़ी फौजों का भी सामना कर लेती है।जनता ऐसा इसलिए कर पाती है क्योंकि उसके पास सत्य का बल होता है। वह सत्य पथ पर चलने वाली और छल-छद्म, लूट-पाट, झूठ-फरेब से दूर होती है। जीत हमेशा उसी की होती है जो सत्य मार्ग पर चलता है उक्त कविता में यह उनका यह कहना बिल्कुल सटीक है - जनता सत्यों की भार्या है / जागृत जीवन की जननी है / महामही की महाशक्ति है। यह कवि की जनता की वास्तविक ताकत को पहचानने की क्षमता है। केदारनाथ अग्रवाल जनता की दुर्बलता और सबलता दोनों की द्वंद्वात्मकता में जीवन को देखते हैं। वे मानते हैं कि केवल खाते-पीते-जीते, कत्था, चूना, लौंग, सुपारी, तम्बाकू खा पीक उगलते, चलते-फिरते बैठे-ठाले, फूहड़ बातें करने वाले घंटों आल्हा सुनते-सुनते मुरदा जैसे सो जाने वाले लोग भी ज़रूरत पड़ने पर खोए, सोए मैदानों-चट्टानों को थर्राने की शक्ति रखते हैं। रोड़ो से बेहारे लोहा ले सकते हैं।'गर्रा नाला' की तरह अर्रा सकते हैं। एक अन्य कविता में वे लिखते हैं- जो पराजित हो नहीं सकते किसी से / जो मिटाए जा नहीं सकते किसी से / जो मरेंगे किंतु फिर जीकर लड़ेंगे। जनता की अमरता या उसकी शक्ति पर उनकी कितनी अटूट आस्था है यहाँ भी देखी जा सकती है- जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है / तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है / जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है / जो रवि के रथ का घोड़ा है / वह जन मारे नहीं मरेगा / नहीं मरेगा! / जो जीवन की आग जलाकर आग बना है / फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है / जिसने शोषण को तोड़ा, शासन को मोड़ा है / जो युग के रथ का घोड़ा है / वह जन मारे नहीं मरेगा / नहीं मरेगा! इस कविता में 'नहीं मरेगा' की आवृत्ति जनता में उनकी दृढ़ एवं गहरी आस्था को प्रदर्शित करती है। जनता में ऐसा दृढ़ विश्वास माक्र्सवाद जैसी वैज्ञानिक विचारधारा से लैस कवि ही व्यक्त कर सकता है।

यहाँ प्रश्न उठता है केदार बाबू जिस जनता पर इतना विश्वास करते हैं वह जनता कौन है? इसका उत्तर उनकी अलग-अलग कविताओं में व्यक्त हुआ है। वह है श्रम संपृक्त जनता - जो अन्न उपजाती है सड़कें बनाती है कारखानों में उत्पादन करती है। जो लोहा पीटती है। जो खून चाटती हुई वायु में / पैनी कुसी खेत के भीतर / दूर कलेजे तक ले जाकर / जोत डालता है मिट्टी को। उसको कवि हमेशा जीवन में सक्रिय देखता है - मैंने उसको जब-जब देखा / लोहा देखा / लोहा जैसा -तपते देखा, गलते देखा / ढलते देखा / मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा। यही लोग हैं जो इस बात को कहने का साहस करते हैं-हम पचास हैं, / मगर हाथ सौ फौलादी हैं / सौ हाथों के एका का बल बहुत बड़ा है / हम पहाड़ को भी उखाड़ कर रख सकते हैं...।बिना मजूरी पूरी पाए / हवा हाथ से नहीं झलेंगे। / हाथ उठाए / फन फैलाए / सब जन गरजे। कवि पाब्लो नेरूदा कहते हैं - जनता मेरे जीवन का सबसे बड़ा पाठ रही है, जब भी मैं इसके बीच आ जाता हूँ तो बिल्कुल बदला हुआ महसूस करता हॅू। मुझे लगता है कि मैं इस अनिवार्य बहुमत का अंश हॅू, मानवता के महान वृक्ष का एक पत्ता हॅू। केदार नाथ अग्रवाल भी अपने पुरखे के इस स्वर से स्वर मिलाते हैं और उसे अपने जीवन में लागू करते हैं। वे हमेशा अपने जन और जनपद के बीच रहना ही पसंद करते रहे। हमेशा उस मनुष्य को खोजते रहे जो श्रम, ईमान और सत्य के पथ पर चलता रहा-मैं उसे खोजता हॅू / जो आदमी है / और / अब भी आदमी है / तबाह होकर भी आदमी है / चरित्र पर खड़ा / देवदार की तरह बड़ा।

'कभी नहीं जनता मरती है' या 'वह जन मारे नहीं मरेगा' यह कोरा विश्वास या आशावाद ही नहीं बल्कि एक यथार्थ भी है। जनता श्रम के पर्याय का नाम है। कर्मठता उसका गुण व स्वभाव है। वह उत्पादन करती है किसी अन्य के श्रम तथा अधिशेष पर निर्भर नहीं रहती है।

उक्त कविता से कवि की जनता के प्रति पक्षधरता तथा जनसंघर्षों के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण का पता चलता है। ऐसी कविता केवल जनता का कवि ही लिख सकता है जिसके मन में जनता की शक्ति के प्रति गहरी या गौरवशाली संबद्धता का भाव हो। जो जनता को परिवर्तन की ताकत मानता हो तथा जनता की सत्ता चाहता हो। जैसा कि केन्या के प्रसिद्ध उपन्यासकार न्गुगी वा थ्योंगो लिखते हंै, “ साहित्य में दो तरह के परस्पर विरोधी सौंदर्यबोध होते हैं: दमन और उत्पीड़न और साम्राज्यवाद के प्रति मौन स्वीकृति का सौंदर्यबोध, और पूर्ण मुक्ति के लिए मानव समुदाय के संघर्ष का सौंदर्यबोध।” केदारनाथ अग्रवाल की इन कविताओं का सौंदर्यबोध मुक्ति के लिए मानव समुदाय के संघर्ष का सौंदर्यबोध है। जनता को इतना प्यार करने वाला और उस पर इतना विश्वास रखने वाले कवि को मूलतत्ववादी और 'शिश्नोदर प्रवृत्ति का कवि' कहना मुझे कहीं से समझ में नहीं आता है। यह उनका ग़लत मूल्यांकन है। केदार सचेत और सायास वर्गीय चेतना के कवि हैं। ऊपर आयी चर्चा से भी यह बात पुष्ट होती है। शताब्दी वर्ष में उनकी प्रेम, करुणा, सौंदर्य, प्रकृति संबंधी कविताओं की चर्चा खूब की जा रही है पर इस तरह की उत्कट जन-आस्था की कविताओं की बहुत कम चर्चा हो रही है क्या यह जानबूझकर नहीं है? प्रगतिशीलों द्वारा अज्ञेय की शताब्दी कार्यक्रम बढ़-चढ़ कर मनाना या उनमें उत्साह से भाग लेना और केदारनाथ अग्रवाल को मांसल कविता का कवि और फार्मेंलिस्ट सिद्ध करना क्या एक ही मंतव्य से किए जा रहे दो अलग-अलग प्रयास नहीं हैं? डाॅ0 रामविलास शर्मा का विश्वास था कि एक बार अखिल भारतीय आंदोलन होने दो, लोग केदार की कविताएं ढूँढ-ढूँढ कर पढेंगे। निश्चित रूप से तब जन-आस्था की इसी तरह की कविताएं होंगी जो जनता की जबान पर चढ़ चारों ओर गूँजंगी।