जयप्रकाश चौकसे ने अपनी लेख यात्रा को विराम दे दिया / शादाब सलीम
आज लेखक और फिल्मकार जयप्रकाश चौकसे ने अपनी लेख यात्रा को विराम दे दिया। इन लेखों के ज़रिए वे आम जनता से एक तरह का वार्तालाप करते थे, ढाई दशक तक यह यात्रा जारी रही।
मेरा उनसे परिचय एक पाठक की हैसियत से था लेकिन मध्यप्रदेश के पूर्व महाधिवक्ता आनंद मोहन माथुर साहब और रंगकर्मी मरहूम तपन भट्टाचार्य ने मुझे वास्तविक रूप से उनसे मिलवाया। उन दिनों मैं माथुर साहब के साथ काम करता था।
मैंने उनमे एक सीधा सरल पुराने कलेवर में आधुनिक व्यक्ति पाया जो लोभ लालच अहंकार से दूर था। पुराने इंदौर के किस्से जैसे उनकी ज़बान पर है, बुरहानपूर उनके संस्मरणों में हमेशा समाया हुआ है। वे शायर काशिफ़ इंदौरी को बहुत याद करते हैं और निदा फ़ाज़ली उनके बहुत अच्छे दोस्त रहे हैं।
बहरहाल उनकी लेख यात्रा एक पाठशाला की तरह है जिसमे पढ़ने वाले छात्र भविष्य के हिंदी कलमकार होंगे। मैं भी उस ही पाठशाला का एक छोटा मोटा छात्र हूँ। केवल सिनेमा ही नहीं बल्कि जीवन के गूढ़ रहस्य भी उन्होंने छेड़े है। इन छोटे से लेखों में उन्होंने साहित्य का गागर में सागर भर डाला है। आश्चर्य तो यह है कि वह यह सारा काम बीमारी के चलते हुए भी जारी रखते थे, यह बड़े साहस की बात है वरना लोग टूट जाते हैं।
एक दफा शायर बशीर बद्र के घर भोपाल जाना हुआ, तब उन्होंने यह सुना कि मैं इंदौर से आया तब सबसे पहले यही पूछा कि जे पी चौकसे कैसे है? मैंने उनसे कहा मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूं कि निरंतर उनके संपर्क में रह सकूं लेकिन कुछ वक़्त पहले देखा था तो अच्छे थे।
उनकी खूबी यह है कि उन्होंने बड़ी किताबे नहीं लिखी बल्कि छोटे छोटे आलेखों की किश्तों में कोई बड़ी ग्रंथ रचना कर दी जो अपने आप में एक दस्तावेज की तरह है। उनके आलेखों को संग्रह कर मध्यप्रदेश के राजकीय संग्रहालय में रखा जाना चाहिए क्योंकि हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बहुत मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। भारत के हिंदी लेखन के चमन में ऐसे दीदावर कभी कभी ही आते हैं।
उन्होंने बहुत पढ़ा है और बहुत देखा है और फिर उसे अपने जीवन की मिक्सी में पीसा है फिर कुछ नया पेश किया है। एक लेखक भी एक रसायनशास्त्री की तरह होता है जो बहुत सारे रसायन मिलाकर कुछ नया गढ़ देता है। जयप्रकाश चौकसे की रसायनशाला से भी कई अद्भुत अविष्कार निकले है। आशा है आप फिर लौटेंगे।