जहाँ आप हैं वहाँ एक दिन मैं भी आऊँगा और पूछूँगा आपसे… / गिरीश तिवारी गिर्दा

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जहाँ आप हैं वहाँ एक दिन मैं भी आऊँगा और पूछूँगा आपसे…
लेखक:डी.एन. भट्ट

आदरणीय गिर्दा,

बड़ा नाम सुना था आपका। सोचता था कि कब और कैसे मिलना होगा आपसे। उत्तराखंड आंदोलन में आपकी चर्चा खूब सुनी थी। आखिर नवम्बर 1999 में आपसे पहली मुलाकात हो गयी। वो भी यहाँ नहीं, टिहरी गढ़वाल में। आपको याद होगा अंजनीसैंण में भुवनेश्वरी महिला आश्रम द्वारा आयोजित ‘संचार’ विषयक कार्यशाला में आप बतौर विशेषज्ञ पधारे थे और मैं प्रशिक्षणार्थी के रूप में। उस दिन से आपके और मेरे बीच जो ‘संचार’ शुरू हुआ वह आज तक जारी है।

उस पहली भेंट में आपसे बातें तो ज्यादा नहीं हो सकीं, लेकिन भविष्य में मिलने की उम्मीद जरूर बँधा गयी। 2001 में हल्द्वानी में ‘शैलनट’ के बैनर पर रंगकर्म प्रारम्भ किया तो सोचा कि आपसे और नैनीताल के अन्य स्थापित रंगकर्मियों और नाट्य दलों से सीखने का अवसर मिलेगा। आपकी बताई नाट्य संस्थाओं और उनके स्थापित रंगकर्मियों को हम हल्द्वानी में आयोजित होने वाली नाट्य कार्यशालाओं में बुलाते रहे, लेकिन वे कभी नहीं आये। बार-बार बुलाने पर भी जब आपके सिखाये ‘शिष्य’ ही नहीं आये तो आपको बुलाने की हिम्मत ही नहीं बची। फिर भी हौसला जुटा कर दिसम्बर 2004 में आपको बुलाने का साहस कर ही डाला। सोचता था कि आप भी मना कर देंगे या कोई बहाना बना कर टाल देंगे। सुखद आश्चर्य हुआ, जब आपने खुशी-खुशी आने की सहमति दी।

दुनिया भर में आपको जानने वाले आपके प्रशंसक आपको कवि, गीतकार, नाटककार, अभिनेता, होल्यार, आंदोलनकारी, संस्कृतिकर्मी व साहित्यकार के रूप में जानते हैं। लेकिन हमने आपका जो रूप देखा, वह था संवेदनशील शिक्षाविद तथा प्रभावशाली शिक्षक का। सम्प्रेषण की अद्भुत कला थी आपमें। यही कारण था कि आप जिससे एक बार संवाद स्थापित कर लेते, वह आपका ही हो जाता था। मुझे अच्छे से याद है कि दिसम्बर 2004 में ‘सृजनात्मक’ लेखन कार्यशाला’ में जब आपने अपना सत्र पूरा किया तो आशीष त्रिपाठी, संवाददाता दैनिक जागरण, ने आपका साक्षात्कार लिया और अगले दिन के अखबार में शेर बीड़ी सुलगाती हुई आपकी फोटो के साथ छापा। ‘कथा बेला में राख के मनखियों को जगाते बोल’ साक्षात्कार के अंत में आशीष ने आपके लिये लिखा था-

किसी को हो न सका उसके कद का अन्दाजा,
वो आसमान था और सर झुकाये बैठा था।

आपका साक्षात्कार लेने के बाद आशीष वैचारिक हलचल का शिकार हो गया था। उसने मुझसे पूछा कि गिर्दा को पद्मश्री, पद्मभूषण आदि मिले कि नहीं। मेरे मना करने पर आशीष को बहुत आश्चर्य हुआ। पद्मश्री आदि तो नहीं पर आशीष त्रिपाठी के प्रयासों से दैनिक जागरण द्वारा जागरणोत्सव के अवसर पर आपको ‘कुमाऊँ गौरव सम्मान’ से नवाजा गया। बाद में 31 मई 2010 को जब देहरादून में आपने अनन्त गंगोला जी के कविता संग्रह ‘अन्तर्मन’ का विमोचन किया तो हमने योजना बनाई कि आपको पद्म पुरस्कार दिलाने के लिये बड़ा अभियान चलायेंगे, लेकिन उससे पहले ही आप चल दिये। ‘गिर्दा’ आपको यह पत्र लिखते हुए मैं अपराध बोध से भी ग्रस्त हो रहा हूँ क्योंकि आप अकसर कहा करते थे कि-

डी.एन यार, मुझे डॉक्यूमेंट कर ले बब्बा, जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं।

मैंने डॉ. कृष्ण गोपाल श्रीवास्तव जी के साथ मिलकर आपके विविध रूपों को डॉक्यूमेंट करने की योजना भी बनाई, लेकिन उससे पहले ही आप मेरा भरोसा तोड़कर चले गये।

गिर्दा नैनीताल समाचार वाले कब से आप पर लिखने को कह रहे थे। लेकिन अब तक हिम्मत नहीं कर पा रहा था, क्योंकि अभी आपके जाने की खबर पर यकीन करने का मन नहीं करता और सोचता हूँ कि आप पर लिखते-लिखते भटक न जाऊँ और अगर लिखूँ तो आपको किस रूप पर लिखूँ ?

वापस लौटता हूँ आपके ‘संवेदनशील शिक्षाविद व प्रभावशाली शिक्षक’ होने वाली बात पर। सृजनात्मक लेखन कार्यशाला में आपने प्रतिभागियों को एक अधूरी पंक्ति दी थी-‘सृजन की थकान भूल जा देवता’ और सभी प्रतिभागियों को इस पर पूरी कविता लिख कर लाने को कहा था। अगले दिन सभी प्रतिभागी इस पंक्ति पर पूरी कविता लिख कर लाये। यह शायद आपके प्रशिक्षण का ही प्रभाव था कि 12 दिन की छोटी सी कार्यशाला के बाद हरीश उप्रेती (हिन्दुस्तान) और नवीन जोशी (राष्ट्रीय सहारा) लेखक व पत्रकार के रूप में स्थापित हो गये।

गिर्दा नाट्य कार्यशालाओं के दौरान मैंने पाया कि आपमें बच्चों के साथ काम करने की अद्भुत समझ थी। जिस कुशलता के साथ आप संवाद या विचार को समझाते थे, वह बच्चों के साथ-साथ बड़ों के मानस पटल पर भी स्थायी रूप से अंकित हो जाता। यही कारण है कि आपको यह पत्र लिखते हुए आपके साथ बिताया हर पल किसी फिल्म की तरह मेरे सामने आता जा रहा है। लेकिन एक ही पत्र में सब कुछ नहीं लिखा जा सकता।

‘शैलनट’ व ‘सी.सी.आर.टी.’ के सहयोग से शिक्षकों के लिये आयोजित ‘शिक्षा और संस्कृति’ विषयक कार्यशालाओं के आयोजन में आपके संबोधनों को सुनकर लगा कि शिक्षा के नीति-नियंताओं को आपसे कुछ सीखना चाहिये। शिक्षा की दशा और दिशा सुधारने की किसी भी रिपोर्ट पर आपकी एक कविता ‘कैसा हो स्कूल हमारा’ भारी पड़ती है।

जिजीविषा भी आपमें गजब की थी गिर्दा। मुझे याद है 20 अगस्त 2010 को जब आप सुशीला तिवारी अस्पताल हल्द्वानी में भर्ती कराये गये थे तो आपकी हालत बहुत चिन्ताजनक थी। लेकिन आप ऐसी हालत में अपनी पत्नी, भतीजे और मुझे सब कुछ ठीक हो जाने का दिलासा दे रहे थे। अन्तिम दिनों में आपने हर तरह से मुझ पर भरोसा बनाये रखा और मैंने भी तन-मन-धन से आपके स्वस्थ होने के लिये पूरा प्रयत्न किया। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था।

21 अगस्त 2010 की सुबह 9 बजे मैं आपकी पत्नी एवं पारिवारिक मित्र राजकुमारी चन्द के साथ ऑटो में बैठकर अस्पताल को आ रहा था आपके ऑपरेशन के लिये आवश्यक व्यवस्थायें करने, लेकिन रास्ते में ऑटो अनियंत्रित होकर नहर में गिर गया। मैं 10.30 पर अस्पताल पहुँचा लेकिन तीमारदार नहीं मरीज बनकर। आपको शायद पता भी न चला हो कि मेरे कूल्हे की हड्डी टूट गयी थी और आपकी पत्नी के पैर की एड़ी। मैं तो चलने-फिरने लायक भी नहीं रहा। ऊपर वाली मंजिल में आपका ऑपरेशन हो रहा था और नीचे वाली मंजिल में मेरा एक्स रे। गिर्दा मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं न तो अंतिम समय में आपके पास रह सका और न ही अंतिम यात्रा में शामिल हो सका। अखबार, टेलीविजन और फोन पर सारी खबर मिलती रही।

22 अगस्त 2010 को आपकी मृत्यु की खबर सुनकर अस्पताल के बिस्तर में पड़ा-पड़ा मैं अपने प्रति आपके प्रेम को याद करते हुए सोच रहा था कि एक दिन पहले जिस नहर में ऑटो सहित मैं गिरा था, यदि उसमें पानी होता तो मैं ‘वहाँ’ आपके स्वागत के लिये तैयार खड़ा होता जहाँ आप चले गये। यह भी विचार आता कि आपने खुद का थोड़ा ओर ख्याल रखा होता तो इतनी जल्दी यह दिन नहीं आता। आपने तो ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन का नेतृत्व भी किया। सोचा था आपसे कभी पूछूँगा कि नशे के विरोध में आंदोलन करने वाला विराट व्यक्तित्व ‘निकोटिन’ और ‘एल्कोहॉल’ अपने से दूर क्यों नहीं रख सका ? जहाँ आप हैं वहां एक दिन मैं भी आऊँगा और पूछूँगा आपसे…… मुझे बताओगे न गिर्दा…… जवाब दोगे ना……

नैतीताल समाचार से साभार