जीवन रहे न रहे, जिंदगी 'परदे के पीछे' नहीं जाती / भुवन गुप्ता

Gadya Kosh से
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परदेकेपीछे लिखने वाले कालजयी स्तंभकार आदरणीय जयप्रकाश चौकसे जी ने आज अधिकृत घोषणा करते हुए इस स्तंभ का आखिरी कॉलम लिखा, जिसे दैनिक भास्कर ने अपने पहले पेज पर प्रकाशित किया. फिल्म और फिल्मों से जुड़ी पेज-थ्री नुमा ख़बरे दैनिक भास्कर के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित हो, यह उस ख़बर/स्तंभ के स्वतः ही कालजयी होने का प्रमाण है.... और इसीलिए आज जब चौकसे जी के इस स्तंभ को पढ़ा, तो लगा कि एक लेखक या स्तंभकार क्या कभी रिटायर होता है ? तकनीकी रूप से नियमित स्तंभ लिखने वाले का न लिखना या न लिख पाना, एक ख़बर हो सकती है; लेकिन, उसके लिखे को उसके रहते और उसके पीछे, सदैव याद किया जाता है.

चौकसे जी ने इस आख़िरी स्तंभ में निदा फ़ाज़ली साहब की पंक्तियों का इस्तेमाल किया है - जंजीरों की लंबाई तक ही है सारा सैर-सपाटा, यह जीवन शून्य बटा सन्नाटा है.

सही लिखा है निदा साहब ने, और सही इस्तेमाल किया है चौकसे जी आपने . . . जीवन के एक मोड़ पर आकर शायद सबको यह अहसास होता होगा कि, उसके जीवन की जंजीर अब खत्म होने को है. जीवन की जंजीर कितनी लंबी होगी यह भी एक रहस्य ही है. हम तो उस देश के निवासी है, जहाँ सत्यवान के प्राण साक्षात यमराज से खींचकर लाने वाली सावित्री कथा कही जाती हो. जीवन का मेला या सैर-सपाटा भले ही जंजीर की लंबाई पर अवलंबित हो, लेकिन ज़िंदगी का हिसाब-किताब एक अलग ही कहानी है. "रहें, न रहें हम; महका करेंगे .." की तर्ज़ पर ज़िंदगी के साथ भी और ज़िंदगी के बाद भी, हासिल 'शून्य बटा सन्नाटा' नहीं होता, हो ही नहीं सकता !

फिल्म और फिल्मों से जुड़े किस्से हम भारतीयों की कमजोरी है. स्वाद में चटपटा पसंद करने की हमारी आदत ने ही शायद फिल्मी पर्दे से जुड़ी मसालेदार चीज़ों को भी 'परदे के पीछे' से देखने की ओर लालायित किया होगा. इसी नब्ज पर हाथ रखकर फिल्मी समीक्षाएं फिल्म की कहानी, निर्देशन, अभिनय, संपादन और संगीत की दिवारों को तोड़कर 'परदे के पीछे' के खुले आसमान की तलाश में बहुत आगे निकल गई. जब फिल्मेंं सप्ताह में एक ही दिन रिलिज़ होती, तो फिल्मी समीक्षाए भी साप्ताहिक ही प्रकाशित होती थी. फिर बातें फिल्म से आगे और 'ज्यादा फिल्मी' होने लगे तो बातें रोज की जाने लगती है. चौकसे जी का अंदाज़-ऐ-बयां उन्हें इस विधा का फनकार बनाता है. फिल्म के बहाने समाज की और समाज के बहाने संस्कृति, धर्म, आध्यात्म की, दर्शन और इतिहास की, सबकी बाते की जा सकती है; यह भी चौकसे जी ने ही बताया और सीखाया भी.

चौकसे जी ने आज भले ही अधिकृत तौर पर और औपचारिक रूप से लेखन से विदाई लेने की कोशिश की हो, लेकिन "फूलों के रंग से, दिल की कलम से" लिखे उनके 'सुनहरे हर्फ़' उनका हासिल है, जो निल बटे सन्नाटा नहीं, ए मिलियन डॉलर धरोहर है.

उनके स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ !