जेल से बाहर─ राजनीति से विराग / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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जहाँ तक याद है सितंबर के महीने में मैं रिहा हुआ और कोडरमा तक बस में जा के वहीं से रेल से रवाना हुआ। दूसरे ही दिन सवेरे बिहटा पहुँच गया। पटने से ले कर बिहटा तक बहुत लोग मिलते गए रिहाई की खबर सभी को थी। बिहटा में तो स्वागत के लिए अपार भीड़ थी। अभी तक सत्याग्रह जारी रहने के कारण जोश बना था। उस दिन आश्रम के बगल में एक अच्छी सभा हुई थी। मगर मैं उस सभा में नहीं गया। लोगों के प्रेम और उमंग का आभारी मैं जरूर बना। हालाँकि दिल के भीतर जो वेदना थी वह अवर्णनीय थी। मैं उसे किस पर प्रकट करता? खुशी इस बात की थी कि उस इलाके के लोगों ने जैसा साथ दिया था वैसी ही मुस्तैदी नजर आती थी! मैंने सभी से मिल-मिलाके और उनके चंदन,फूल,माला आदि को स्वीकार कर के उन्हें खुश किया। मेरा स्वास्थ्य देख कर लोगों को घबराहट बहुत हुई। मगर अब तो चिंता न थी। उसे ठीक होने में ज्यादा देर न लगी। फिर भी कई महीने तो लगी गए। इस बीच कोई भी साथी मुझे छेड़ने न आए कि काम में लगिए। आते भी कैसे? शरीर की हालत तो देखते ही थे। फिर भी सरकार तो सतर्क थी ही।

अखबारों के द्वारा ही मेरा राजनीतिक संसार से संबंध था। इसी बीच पं. मोतीलाल नेहरू की हालत खराब हुई। वे मरणासन्न हुए। इधर गाँधी जी समझौते में लगे थे। दिल्ली में जमावड़ा था और बातें होती थीं। गाँधी जी, वायसराय लार्ड अरविन से प्राय: मिलते थे। पं. नेहरू को यह जानकर खुशी हुई कि वे मर तो रहे हैं, मगर उनका ध्येय सिध्द हो रहा है। उन्हें क्या पता था कि वह मृगमरीचिका थी और उसका बदला सूद सहित देश को, खासकर उनके प्रांत को आगे चुकाना पड़ा। खैर उनका शरीरांत हुआ।

मैंने पढ़ा कि मरण से पूर्व गायत्री जपने में वे लगे थे। हम लोगों में─आदमियों में─धार्मिक भावना कितनी निरूढ़ और मूलबध्द है इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि जो जीवन भरधर्मकी बातों से अलग रहे वह भी मरण काल में गायत्रीया नमाज पढ़ने लगे। यह हमारी कमजोरी की निशानी है कि जिंदगी भर कुछ खयाल न कर केअंत में उसे सोचें और मानें। कुछ कट्टर नास्तिकों के बारे में भी सुना है कि अंत में उन्हें कहना पड़ा कि “यदि कोई भगवान है तो वह मुझे बचाए-If there be any God, O god save me" लेकिन क्रांतिकारी और गैरक्रांतिकारी नेतृत्व का पता भी इसी से लग जाता है। यह न होता तो सभी नेता क्रांतिकारी ही माने जाते।

हाँ तो, राम-राम कर के सन 1931 ई. के प्रथम चतुर्थांश के बीतते-न-बीतते सरकार से सुलह हो गई और सभी लोग जेल से बाहर आ गए। सरकार ने जो सपनों में भी न सोचा था वह जागृति और त्याग देख कर वह चक्कर में बह पड़ी। फिर तो उसने उससे निकलने का अच्छा मौका ढूँढ़ा ताकि आगे के लिए तैयारी कर ले। इस बार तो अनजान में और धोखे में वह भरपूर तैयारी न कर सकी थी। कांग्रेस ने आक्रमण किया और उसने अपनी रक्षा की। अब आगे उसने स्वयं आक्रमण करने की ठानी और कांग्रेस को अपनी रक्षा करने की फिक्र में डालने का विचार कर लिया। इसीलिए साइमन कमीशन की रिपोर्ट को बेकार समझ गोलमेज कॉन्फ्रेंस का पँवारा उसने फैलाया। ताकि उसी में फँसा के उसके पर्दे में इसी दरम्यान में अपनी पूरी तैयारी कर ले। तब एकाएक कांग्रेस पर छापा मारे।

कहते हैं, नमक कानून का राजनीति से क्या संबंध? फिर भी उसी के करते हमारे देश में नवजीवन आया। मगर उसी जाल में फँस के सन 1932 ई. में हमने धोखा भी तो खाया। सरकार ने नमक की रियायतें कुछ मान लीं और हमने अपनी जीत समझी। यदि यह बात न रहती और कोई असली राजनीतिक या आर्थिक प्रश्न को ले करलड़ाई जारी हुई रहती तो न सरकार उस पर झुकती और न हम घपले में पड़ते। इसीलिए बुध्दिमानी इसी में है कि राजनीति में सदा वैसे ही प्रश्न सामने लाये जायें और उन्हीं को ले कर लड़ा जाए। गैर-राजनीतिक सवाल खड़े कर के लड़ाई कभी न छेड़ी जाय। इसमें सदा खतरा है।

इधर मेरा ज्यादा समय आश्रम में ही उसी के कार्य में बीतता था। राजनीति से तो मैं अलग था ही। लड़ाई बंद होने पर तो उसकी जरूरत भी न थी। मगर बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमिटी की ओर से बाबू श्री कृष्ण सिंह बाबू राजेंद्र प्रसाद आदि ने गया जिले में और पटने के मसौढ़ा परगने में जिसका वर्णन पहले कर चुका हूँ, दौरे किए और किसानों की समस्याओं की जाँच की। बल्कि एक प्रकार की जाँच कमिटी बनाकर जाँच की गई। उनके सामने बड़ी भीषण बातें पेश हुईं। किसानों से उनने प्रतिज्ञा की कि हम तुम्हारे दु:ख दूर करेंगे। कहते हैं कि वे लोग हालात देख-देख कर सचमुच रोये! यह भी बताया जाता है कि गया जिले में जब वे लोग गए तो एक विधावा बाभनी (ब्राह्मणी) सामने आई और कहने लगी कि एक बकरी पाली थी कि उसे बेच कर गुजर करती। लेकिन टेकारी राज के कर्मचारी उसे बलात ले जाकर चट्ट कर गए! अब मैं क्या करूँ? इस पर उन लोगों को खून के आँसू बहाने पड़े। मगर इसका नतीजा क्या हुआ सो तो आगे बताएँगे। असल में गरजनेवाले तो बरसते नहीं!

बात असल में यह थी कि सन 1930 ई. में जो लहर मुल्क में आई उसके करते किसानों में अभूतपूर्व जागृति हुई। फलत: उनकी समस्याएँ खामख्वाह ऊपर आ गईं, जो अब तक दबी पड़ी थीं। जब उन्होंने नेताओं के कहने से त्याग और बलिदान किया तो उन्हें हिम्मत हुई कि नेताओं से भी हम कुछ कहें और अपने दुखड़े सुनाएँ। इसी का नतीजा था कि यह जाँच-पड़ताल हुई। आखिर नेता लोग इनकार कैसे कर सकते? अभी तो किसानों से उन्हें बहुत काम लेने थे। इसीलिए उनकी बातों को ले कर जाँच-पड़ताल की और उन्हें आश्वासन दिया। इसी बीच युक्त प्रांत में भी किसानों का यह प्रश्न उठा और बड़ा भीषण हो गया। यहाँ तक कि युक्तप्रांत की सन 1932 ई. वाली लड़ाई किसानों के प्रश्नों को ले कर ही हुई और कर बंदी चली। और-और प्रांतों में भी यह बात जरूर आई। मगर जहाँ किसानों में जागृति ज्यादा थी वहाँ यह प्रश्न भी तेज हो गया।

लेकिन इस जाँच-पड़ताल से मेरा कोई संबंध न था। न मैं पूछा गया और न उसमें शामिल हुआ। यह ठीक है कि गया जिले के डॉ. युगलकिशोर सिंह मुझसे हजारीबाग जेल में किसानों की बातें बहुत करते थे। वहाँ किसान-सभा तथा किसान आंदोलन को चलाने की चर्चा बराबर होती थी। मगर मैं तो अब विरागी था। कांग्रेस या राजनीति से जो भीषण विराग हुआ उसने किसान-सभा से भी विरागी बना दिया। मुझे भी ताज्जुब है कि उस विराग से किसान-सभा का तो कोई नाता था नहीं?कांग्रेस का भले ही था, किसान-सभा तो उस समय राजनीतिक संस्था थी भी नहीं। सपने में भी यह सोचा न जा सका था कि उसे राजनीति में घसीटा जाय। फिर राजनीति से होनेवाले विराग का शिकार वह क्यों हुई यह एक पहेली है।

मालूम पड़ता है, यह स्वाभाविक सूचना थी इस बात की, कि सभा को गहरी राजनीति में पड़ना है। शायद इसीलिए यह न जानते हुए भी मैं उससे विरागी बन गया। मैं सबको एक ही समझता था, और मानता था कि किसान आंदोलन में जाने पर फिर वहीं खिंचकर चला जाऊँगा। इसीलिए किसान-सभा से भी अलग ही रहा।

इसी बीच सन् 1932 ई. के आते-न-आते दूसरा सत्याग्रह संग्राम छिड़ गया। सरकार का दमन चक्र तेजी से चलने लगा। वह चक्र ऐसा तेज था कि जरा सा शक होते ही किसी की भी खैरियत न थी! मैंने देखा कि शायद मैं भी न बच सकूँ और खामख्वाह सरकार का कोपभाजन बनूँ। फलत: आश्रम को भी सरकार हड़प लेगी और मैं पूरा बेवकूफ बनूँगा! इसीलिए मैंने आश्रम औरों को सौंपा और उन्हें पत्रादि लिख दिया। इसके बाद अलग जा बैठा। कुछ दिनों तक तो बिहटा आया ही नहीं। कभी सुरतापुर, कभी सिमरी और कभी और जगह रहा। मेरे पास अभी तक कोई जाता भी न था। मगर जब फिर आश्रम में आकर रहने लगा और प्रांत के सभी नेता लोग पकड़े जा चुके, कुछ ही बचे थे, तो मेरे पास पैगाम पर पैगाम आने लगे। कई बार लोग आकर मिले कि चलिए और प्रांत को डिक्टेटरशिप स्वीकार कीजिए। जिस चीज से मैं हजारीबाग जेल में डरता था वही हुई और दबाव पड़ने लगा। मगर मेरा वैराग्य और क्रोध इतना ज्यादा था कि अभी तक शांत न हो पाया था। इसलिए हजार कहने पर भी मैंने साफ इनकार कर दिया और नहीं ही शामिल हुआ।

उस समय कुछ लोगों से इस बारे में जो मेरी बहस हुई और मैंने अपना जो दृष्टिकोण उनके सामने रखा वह बड़ा ही मजेदार तथा सुनने लायक है। मेरा कहना था कि कांग्रेस के भीतर बहुत ही अनाचार और धाँली है। उसके नाम पर अनेक कुकर्म किए जाते हैं। यद्यपि मैं कट्टर गाँधीवादी था। तथापि ये शिकायतें तो गाँधीवादी न होने पर भी नैतिक दृष्टि से उचित ही थीं। मगर गाँधीवादी होने के कारण ये मुझे विशेष अखरती थीं। मैंने यह भी कहा कि मैं जैसे चाहूँ उस संस्था को चला सकता हूँ नहीं। क्योंकि मेरी आवाज वहाँ सुनता कौन है? और जिस संस्था को अपनी मर्जी के अनुसार न चला सकें उसमें रहना उचित नहीं। क्योंकि रहने का सीधा अर्थ होता है उन अनाचारों और कुकर्मों की जवाबदेही लेना। अनजान में यह बात हो भी सकती थी। लेकिन जब मैंने ये बातें जान लीं तब कैसे रह सकता हूँ? जान-बूझ कर जवाबदेही लेना होगा ही। अगर इस प्रकार समझने वाले लोग संस्था से हट जाए तो वह खत्म हो जाय। फिर तो उसके नाम पर कोई गड़बड़ी ही न हो सके। इसीलिए जान-बूझ कर उसमें रहनेवालों के ऊपर जवाबदेही खामख्वाह आ ही जाती है। वह उससे बच नहीं सकते। इसलिए मेरे विचार से उन सब बातों की सबसे बड़ी जवाबदेही गाँधी जी पर ही होनी चाहिए।

मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं हजार कोशिश करने पर भी लोगों को इस मामले में समझा न सका। आज भी शायद ही किसी को समझा सकूँ। मगर मेरा कुछ ऐसा स्वभाव है कि आज भी मैं ऐसी बात किसी-न-किसी प्रकार मानता ही हूँ। तब से ले कर आज तक के अनुभवों ने मुझे बताया है कि जान-बूझकर तरह देने का नतीजा बहुत बुरा होता है। यह ठीक है कि उस समय मैं अतिवादी था और अनेक बातों को सिध्दांत के रूप में मानता था। यह बात आज नहीं है। फिर भी सार्वजनिक चरित्र(Public Morality - Character) नाम की एक चीज ऐसी है, जिसके बिना कोई सार्वजनिक संस्था चल नहीं सकती, अपना ठीक उद्देश्य पूरा कर नहीं सकती। फलत: अगर उसमें ऐसे लोग ज्यादातर आ जाए, तो इस बड़ी सी बात से, इस महान गुण से शून्य हों तो या तो उससे अलग हो जाना या उसे तोड़ देना, दो में एक ही चीज होनी चाहिए। नहीं तो नष्ट चरित्र लोग दूसरों के नाम पर मजा उड़ाते ही रहेंगे। इस मामले में मनुष्य कमजोरियाँ बहुत दिखाता है। कभी-कभी मुझे भी इन कमजोरियों का शिकार होना पड़ा है। मगर अंत में मैंने सीखा है कि कमजोरी दिखाना भी वैसा ही अपराध है बल्कि उससे भी भारी। आखिर सार्वजनिक सेवकों की और क्या बात हो सकती है जिसके बल पर लक्ष्यसिध्दि की आशा की जाय, यदि यह पब्लिक मोरैलिटी और कैरेक्टर ही न रहा? हममें तो इसकी आज बड़ी कमी है। शायद गुलाम देशों में ऐसा ही होता है। लेकिन हमें आजाद भी तो आखिर होना है। इसीलिए तो यह चरित्र निहायत जरूरी है।