जैसा भी था, जो भी था, हमारे लिए तो बी.आर.टी. मेट्रो से कम नहीं था / लख्मी चंद कोहली

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[[लख्मी चंद कोहली, 2001 से अंकुर के साथ जुड़े हैं और अंकुर में आए नए साथियों के साथ नियमित संवाद और रियाज़ में शामिल हैं। इनके लेखन के कुछ टुकड़े ‘बहुरूपियाशहर’(किताब) और ‘फ़र्स्टसिटि’(मेगज़ीन) में प्रकाशित हैं। ये दक्षिणपुरी में रहते हैं।]]

सुबह के नौ बज रहे थे और रोज़ाना की तरह पुष्पा भवन का बीआरटी बस स्टैंड लोगों से खचाखच भरा था। हर कोई किसी न किसी बस के इंतज़ार में था। जैसे ही कोई बस दूर से आती दिखाई देती तो उस का स्वागत किया जाता। जब तक वो दूर रहती, हर आँख उसे तब तक देखती रहती जब तक की उसका नंबर ठीक से नज़र नहीं आ जाता। जैसे ही उसका नंबर मालूम हो जाता तो भीड़ का एक पूरा जत्था उसकी ओर चलने लगता। पर उसमें भी किसी को यह नहीं पता होता की वो किस तरफ में रुकेगी? बीआरटी के जिस स्टैंड में गाड़ियाँ कम खड़ी होगीं उसमें वो बस रोकी जाती और फिर लोग उसमें चढ़ने के लिए यहाँ से वहाँ होते। उस बस को भागदौड़ कर, पकड़ सकते थे, वो चलें जाते और जो नहीं पकड़ सकते थे, वो दूसरी बस का इंतज़ार करते। हर पंद्रह मिनट के अंतराल में ये जद्दोजहद यहाँ पर देखी जा सकती थी।

हर एक बस अपने साथ में दस से पंद्रह सवारी को भर कर ले जाती और दूसरी आने के बीच भीड़ में पंद्रह से बीस नई सवारी और शामिल हो जाती। पुष्पा भवन का ये बस स्टैंड हमेशा भीड़ से लबालब रहता।

“अब तो ये टूट ही जाये तो ही परेशानी का हल होगा। ” पीछे से ये आवाज़ आई।

फिर कोई बोलता – “टूटेगी ही, जब कोई भी, उसकी अपनी लाइन में नहीं चलेगा तो इस बीआरटी का फ़ायदा ही क्या? ”

पास में खड़े एक और शख़्स ने कहा, “अशोक जी, ये कार वालों की करामात है। हम बस में सफ़र करने वाले आराम से निकल जाते थे, वो फंस जाते थे। तो उन्हे ये बात हज़म नहीं हुई।”

अशोक जी ने कहा, “करामात किसी की भी हो मगर अब फिर से तानाशाही शुरू होगी। बसें अपनी मर्जी से चलेगीं, ऑटो तो पहले ही मेट्रो तक हो गए हैं। प्राइवेट गाड़ियाँ अपने हिसाब से किराया मांगेगीं। अभी भी, 10 बजे की नौकरी पर पहुंचने के लिए घर से 8 बजे निकलना पड़ता है बीआरटी टूट जायगी तो फिर 7 बजे निकलना होगा। ”

इतने में एक बस आकर खड़ी हुई। वो पहले से ही खचाखच थी। आगे वाले गेट को खोला नहीं गया, पीछे वाले गेट पर लोग भरे थे। किसी को समझ में नहीं आया की इसे रोका ही क्यों गया था। चार कॉलसेंटर की कार बस स्टैंड पर पहले से खड़ी हुई थीं। हर कार में दो – तीन लोग बैठे थे। कार वाले आराम से खड़े थे। बसें उन्हे ओवरटेक करके जहां – तहां खड़ी हो रही थी। लोग बस को पकड़ने के लिए उसी तरह से यहाँ से वहाँ हो रहे थे।

“सबसे ज़्यादा मज़े तो बाइक वाले ले रहे हैं चाचा, कभी साइकिल लेन में, कभी बस लेन में तो कभी अपनी लेन में कुदा देते हैं और पहुँच जाते हैं सबसे आगे। ”

“बाइक हो भी तो ज़्यादा गई हैं, ” पीछे से एक ने बोला।

“ये सब ससुराल वालों का कमाल है। दहेज में बाइक दे देकर ट्रेफिक बड़ा दिया दिल्ली का। ”

“भाई साहब, अब बाइक नहीं कार देने का रिवाज़ है तभी तो देख लो सड़क पर कार के अलावा कुछ दिखता भी है। ”

“सही कह रहे हो भाई साहब। ”


रोशनलाल जी सबको सुन रहे थे। जो रोज़ाना नौ बजे बस स्टैंड पर आते है मगर अपनी मनचाही बस मिलने में दस बज जाते हैं। वो थोड़ा नाराजगी जताते हुए बोले, “सभी ने कहा की बीआरटी बेकार है इसे तोड़ देना चाहिए। हम बस में सफ़र करने वालों ने कभी बीआरटी को तोड़ने को नहीं कहा। जब ये नया – नया बना था। लोगों ने ऑटो में जाना बंद कर दिया था। मैं पुरानी दिल्ली की एक दुकान में काम करता हूँ। खानपुर से 419 बस पकड़ता था और तकरीबन चालीस मिनट में पुरानी दिल्ली पहुँच जाता था। अब बताओ पन्द्रह रुपए में कोई आदमी बीस किलोमीटर का सफ़र चालीस मिनट में पूरा कर लेगा तो उसके लिए तो बीआरटी जैसा रोड बढ़िया ही है न! मैं कभी एक घंटा तीस मिनट तो कभी – कभी एक घंटा पचास मिनट में पुरानी दिल्ली पहुँच पाता हूँ। क्यों, क्योंकि अब बस की लेन में सारी गाड़ियाँ घुसने लगी हैं। पहले तो दो मिनट छोटी गाड़ियों की लाइट खुलती थी, बस की तीस सेकेंड और हम उस तीस सेकेंड में निकल जाते थे, पर अब, निकल ही नहीं पाते।”

रोशनलाल जी अपनी बात पूरी करते ही अपनी बस की तरफ देखने लगे, की आई है या नहीं। उन्ही के पास में मोहनबाला जी बैठी थी। भीड़ से अलग, अपने सात साल के बच्चे के साथ में। हाथो में एक काफी पुरानी सी पॉलिथिन थी। उसमे कुछ कपड़े भरे थे, उस बच्चे ने स्कूल की वर्दी पहनी थी। वो सबकी ओर देखते हुये बोली, “मुझे तो अपना सुबह का काम छोड़ना पड़ा है भइया इस चक्कर में, मैं कृषि विहार में साफ-सफाई का काम करती हूँ। जब ये रोड नया – नया बना था तो घर से आठ बजे निकलती थी, साड़े आठ पहुँच जाती थी। नौ बजे काम शुरू होता था। तो एक घर का काम और पकड़ लिया। उसके तीन सो रुपए मिल जाते थे। अब तो आठ बजे निकलती तो नौ बजे पहुँचती हूँ, तो वो घर छुट गया।”

“अम्मा, अब तो ये टूट भी रही है। तब क्या करोगी? ” पास में खड़े एक लड़के ने पूछा।

मोहनबाला जी माथे पर हाथ मारती हुई बोली, “फिर क्या होगा? बसें तो पहले ही दक्षिणपुरी से हटा दी हैं। अब तो कॉलसेंटर कि गाड़ी चलाने वाले सवारी बिठाते हैं। मरे कहीं भी जाओ तो सीधा दस रुपया किराया मांगते हैं। जहां पाँच रुपए लगता था वहाँ का हम दस रुपया दे रहे हैं। ये टूट जाएगा तो वो पंद्रह रुपए भी कर देंगे। उन्हे रोकने वाला कौन है? ”

इस बार बस आ गई थी। 419 और 423 एक साथ आई थी। लेकिन उसने बस को स्टैंड से दूर ही रोक लिया था। लड़के और आदमी उसकी ओर दौड़ पड़े। लड़कियां भी भागी। मोहनबाला जी और उनका बच्चा नहीं गया। वो भाग नहीं सकती थी। वो सोच रही थी की जब लाइट खुल जाएगी तो बस आगे तो आएगी ही। वो खड़ी रही। जैसा वो सोच रही थीं, वैसा ही वहाँ खड़े कुछ और लोग भी सोच रहे थे, जो दौड़ नहीं सकते थे। लाइट खुली, आगे जो गाड़ियाँ और बाइक खड़ी थी वो वहाँ से चली गई, लेकिन बस वाले ने गाड़ी रोकी नहीं। वो भी उसी लाइट में निकल गया। सभी खड़े के खड़े रह गए और अगली बस का इंतज़ार करने लगे। अब नौ बजकर चालीस मिनट हो चुके थे। भीड़ कम होती और फिर से भर जाती।

“हमारे लिए तो यही हमारी मेट्रो थी अम्मा। बिना रोकटोक के आराम से निकल जाते थे। अब देख लो सड़क पर कभी बस से ट्रेफिक जाम हुआ हो तो। ये तो जल्दबाज़ी में निकलने वालों के चक्कर में होता है।” एक औरत जो काफी देर से खड़ी खाली बस के आने का इंतज़ार कर रही थी, वो बेहद गुस्से में कुछ बोली और आगे चली गई।

खानपुर से आईटीओ जाने का ये रास्ता सेंकड़ों लोगों के लिए ऐसा रास्ता बना था जो काम और घर की दुनिया को जोड़ रहा था। वक्त से पहले पहुँचना भला कौन नहीं चाहता। खासकर की वो लोग जो समय से पहुँच जाये तो काम की दुनिया में नाम कमाते हैं और समय से नहीं पहुंचे तो नौकरी से निकाले जाते हैं।

बसें नियमित थीं। पर अब बस और बस की सवारी के बीच के रास्ते को छोटी गाड़ियों ने घेर लिया था। दस बजकर पन्द्रह मिनट हो चुके थे। पुराने चेहरे कैसे न कैसे अपनी-अपनी बस में लदकर चले गए और नए चेहरे बस स्टैंड पर आ चुके थे।