ज्ञान चतुर्वेदी की प्रस्तावना / खोया पानी / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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हिंदी ही नहीं, विश्व की प्रायः अन्य बड़ी भाषाओं में भी व्यंग्य उपन्यास गिने-चुने ही लिखे गये हैं। अंग्रेजी में पी.जी. वुडहाउस ने अलबत्ता फैंटेसी की अपनी दुनिया और जीव्स जैसे पात्र रचकर हास्य के अमर उपन्यास लिखे हैं - वो भी ढेर सारे। परंतु उनके उपन्यासों की भूमि यह धरती नहीं और इस धरती का आमजन नहीं। वो अलग ही दुनिया है, जो बेहद बांधती तो है, पर कहीं है नहीं। फिर 'थ्री मेन इन ए बोट' जेरोम की अमर रचना है, जोसफ़ हेलर की 'कैच ट्वेंटी टू' नामक युद्ध विरोधी अनोखा व्यंग्य उपन्यास है, उन्हीं की 'गुड एज गोल्ड' भी है, डॉ. रिचर्ड गॉर्डन की 'डॉक्टर सीरीज' के विख्यात व्यंग्य उपन्यास हैं। ये तो अंग्रेजी के तुरत-फुरत याद आने वाले अमर व्यंग्य उपन्यास हैं। इन्हीं में 'एनिमल फार्म' को भी गिन लूं, तो गलत नहीं कहा जायेगा।

इधर हिंदी में 'राग दरबारी' ने हिंदी पाठकों को पहली बार यह बताया कि कैसे इतने बड़े कैनवस को समेट कर बड़ा उपन्यास भी विशुद्ध व्यंग्य में लिखा जा सकता है, गो कि श्रीलाल शुक्ल जी को इसे व्यंग्य-उपन्यास की संज्ञा देना नहीं भाता। पर वो है तो। क्या करें। है, तो है।

परसाई जी की 'रानी नागफनी की कहानी' नामक एक फैंटेसीनुमा लघु-व्यंग्य-उपन्यास था, जिसकी सीमाएँ 'राग दरबारी' के बरक्स रखकर कभी भी जानी जा सकती हैं। व्यंग्यकार रवींद्रनाथ त्यागी ने भी एक आत्मकथात्मक उपन्यास (अशेष कथा) लिखा, जो व्यंग्य-उपन्यास नहीं था। शरद जोशी का 'मैं, मैं और केवल मैं' नामक अधूरा-सा व्यंग्य-उपन्यास उनकी मृत्यु के बाद छपा और वो कथ्य, कहन, तथा कैनवस के स्तर पर भी अधूरा ही रहा। मेरा विश्वास है कि शरद जी यदि जीवित होते, तो इसको इस रूप में न छपवाते। इससे पहले व्यंग्य-उपन्यास के नाम पर सुबोध कुमार श्रीवास्तव का 'शहर बंद क्यों है' को भी ले सकते हैं। ज्ञान चतुर्वेदी नामक खाकसार ने 'नरकयात्रा', 'बारामासी' और 'मरीचिका' नामक तीन व्यंग्य-उपन्यास लिखे, जो 'राग दरबारी' की विरल परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं। यशवंत व्यास ने 'चिंताघर' और कामरेड गोडसे' नाम के दो महत्वपूर्ण प्रयोगवादी व्यंग्य-उपन्यास लिखे हैं जो काफी चर्चित भी रहे। गिरीश पंकज ने भी 'माफिया' लिखकर व्यंग्य-उपन्यासों की दुनिया में कदम रखा है। प्रदीप पंत का 'इन्फोकार्प का करिश्मा' उपन्यास हाल ही में आया है। दुखद है कि 'राग दरबारी' के लेखक ने बाद में कोई व्यंग्य-उपन्यास लिखा ही नहीं। अब उर्दू पर आयें।

उर्दू में अपनी मिठास तो है ही और उसमें काव्यात्मक लोच भी है, जो उसके समृद्ध कविता संसार में देखा जा सकता है। शायरी की एक जगमग परंपरा है वहां। परंतु उर्दू में हास्य-व्यंग्य की जो लंबी रिवायत है, वो तो उसे एकदम से बेहद समृद्ध भाषा बना देती है। उर्दू व्यंग्य में हिंदी व्यंग्य से इतर बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो उसके व्यंग्य को अपेक्षाकृत अधिक पठनीय, तीखा और जमीन से जुड़ा बनाती हैं। कुछ बातों की चर्चा करना मुनासिब होगा। एक तो ये कि वहां हास्य को व्यंग्य के समकक्ष ही आदर दिया गया है, बल्कि दोनों को अलग करके देखने की अप्राकृतिक कोशिश भी वहां नहीं की गयी है। हास्य की जो समृद्ध परंपरा शौकत थानवी, पतरस बुखारी आदि से चली है, वो अपने उच्चतम शिखर पर यूसुफ़ी साहब के इस उपन्यास में दिखाई देती है, जो इस समय आपके हाथ में है। इम्तियाज अली ताज, ग़ुलाम अब्बास, कन्हैया लाल कपूर, इब्ने-इंशा, फिक्र तौंसवी, मुज्तबा हुसैन आदि के तीखे व्यंग्य में उसी तरह से हास्य है, जैसा हिंदी में बड़े कौशल से शरद जोशी की रचनाओं में मिलता है या 'राग दरबारी' और उसकी परंपरा के उपन्यासों में मिलता है और इस हास्य के कारण उर्दू व्यंग्य कभी कमजोर नहीं हुआ - बल्कि वह बेहद पठनीय और हृदयंगम हो गया। तो एक तो यह, दूसरी बात है उर्दू व्यंग्यकारों की जुम्लेबाजी और विट की बादशाहत। ये चली ही आ रही है। पतरस बुखारी की रचनाओं से शुरू करो तो फिर यूसुफ़ी साहब तक पहुंचो। वे बड़ी मशक्कत से जुम्ले तैयार करते हैं और हर जुम्ला आपको बेसाख्ता चमत्कृत करता है। यूसुफ़ी साहब का यह उपन्यास तो जुम्लों का नायाब खजाना है और किसी भी व्यंग्यकार के लिए एक टेक्स्ट बुक की तरह भी है कि हम विश्लेषित करें कि कैसे 'कही' को 'बतकही' बनाया जा सकता है।

तीसरी बात उनकी सहजता है। उर्दू व्यंग्य बेहद सहज है। वह प्रायः फालतू के पांडित्य प्रदर्शन में नहीं पड़ता। आजकल का हिंदी व्यंग्यकार प्रायः अपनी रचनाओं में थानेदार, वकील और न्यायाधीश तो होता ही है, साथ ही कोड़े फटकारने वाला भी - और इस कोशिश में अपने लेखन में अधिकतर असहज हो जाता है। परसाईजी, शरदजी या त्यागीजी वहां महान हैं, जहां सहज हैं। हिंदी वालों पर यह अतिरिक्त दबाव शायद आलोचकों का है कि व्यंग्य ऐसा हो, वैसा हो, इस डिजाइन का हो और सबसे बेहूदा बात कि कैसा न हो? इस दबाव के चलते कई बार असहजता दिखाई पड़ती है। उर्दू व्यंग्य बेहद सहज है और सहज होना कितना कठिन हो सकता है, यह कोई यूसुफ़ी साहब जैसा एक पैराग्राफ लिखने की कोशिश करके कभी भी देख सकता है। चौथी बात यह कि उर्दू व्यंग्यकार अपनी कविता के बेहद करीब है। उर्दू की शेरो-शायरी की काव्य संपदा से बेहद परिचित और सटीक जगहों पर उसके इस्तेमाल की शाइस्तगी और तमीज से भी परिचित। कविता की बुनावट से उसका यह गहन लगाव और समझ उर्दू व्यंग्य को एक काव्यात्मक भाषा और अभिव्यक्ति भी देती है।

यूसुफ़ी साहब के इस उपन्यास में कई जगहों पर वे विशुद्ध कवि हैं - कहने में बेहद भावुक और भाषा में महाकवि के समकक्ष। हास्य के जुम्ले गढ़ते-गढ़ते यूसुफ़ी साहब कब कविता की भाषा के गहने गढ़ने में मुब्तिला हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। और भी बहुत- सी बातें लिखी जा सकती हैं, पर अभी वह अवसर नहीं है।

इतना सारा लिखने का मेरा कुल तात्पर्य यह था कि हिंदी के संसार को हम मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी साहब की लिखी, उर्दू व्यंग्य की इस नायाब कृति से परिचय करायें जिसका अनुवाद 'तुफ़ैल' चतुर्वेदी ने ऐसी सहज भाषा में किया है कि यह हिंदी की ही मूलकृति नजर आने लगी है। 'तुफ़ैल' ने अपनी पत्रिका 'लफ्ज' के जरिये जब मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी साहब का परिचय हम हिंदी वालों से कराया, तब मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस किया था कि यदि 'तुफ़ैल' जैसे मूल्यवान पुल दो भाषाओं के बीच न हों, तो हमें तो पता ही न चले कि उस तरफ की दुनिया कैसी नायाब है। मैं तो 'खोया पानी' की पहली किस्त पढ़कर ही चमत्कृत रह गया था। ऐसे अनुवाद दूसरी भाषा के खजाने को बटोरकर अपनी भाषा की झोली में भरने जैसे होते हैं। यूसुफ़ी साहब का यह व्यंग्य-उपन्यास, हिंदी व्यंग्य के लेखकों और पाठकों, दोनों को व्यंग्य की नई ताकत, तेवर और तरावट से परिचित कराता है।

यूसुफ़ी साहब के इस उपन्यास में नॉस्टेल्जिया का अद्भुत संसार है। पार्टीशन द्वारा हिंदुस्तान के दो फांक हो जाने के बाद का दर्द भी और यथार्थ भी, यादें भी और बदलती दुनिया की बातें भी, फिर पात्र सारे ऐसे कि जिन्हें घनघोर यथार्थ से उठाकर उन पर फंतासी का रंग रोगन कर दिया गया हो। वे लोग कि जो अभी भी उसी समय में जी रहे हैं जो गुजर गया, वे शहर जो अब वो नहीं रहे कि जैसा छोड़कर कभी पाकिस्तान जाना पड़ा।

धार्मिक कठमुल्लापन की बेलौस खिल्ली - बिना लाग-लपेट के। आम मुसलमान के जीवन की मुश्किलें, सपने और हकीकतें। हास्य की पराकाष्ठा। इंप्रोवाइजेशन के अद्भुत प्रयोग। भाषा के मायावी खेल। नायाब चरित्र। इन्सान और इन्सानियत से प्रेम करने का एक कोमल तागा, जो पूरी रचना में यहां से वहां तक। जुम्लेबाजी के एक से बढ़कर एक प्रयोग कि जिन्हें कंठस्थ करके किसी को भी सुनाने का मन करे।

हिंदी के व्यंग्य-उपन्यासों की अपनी परंपरा अभी बन रही है। उसमें सीखने, समझने, करने और अपना लेने की बड़ी गुंजाइश है। यूसुफ़ी साहब का यह उर्दू व्यंग्य-उपन्यास हमें व्यंग्य उपन्यास रचने के सूक्ष्म नये तरीकों से परिचित कराता है - विषय, उसकी भाषा और कहन को लेकर यह उपन्यास हिंदी के व्यंग्य उपन्यासों से अलग जुरूर है पर बेहद ताकतवर, दिलकश, पठनीय और बार-बार पढ़ने के लिए बाध्य करने वाला। इसमें पी.जी. वुडहाउस का फंतासी संसार जैसा भी कुछ है, 'राग दरबारी' के समकक्ष हास्य तथा विट भी है, उर्दू हास्य का अपना कलेवर भी और वे अनोखे पात्र भी, जो अभी भी इस दुनिया को दुनिया होने का अर्थ देते हैं। यूं वो साहित्य से धीरे-धीरे खारिज हो रहे हैं या दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आम आदमी आदि के तहत मात्र फतवे के तौर पर वहां रह पा रहे हैं।

यूसुफ़ी साहब के जरिये वास्तव में हम उर्दू के एक ऐसे अनोखे हास्य-व्यंग्य संसार से परिचित होते हैं, जो उर्दू में भी अद्वितीय है। यूसुफ़ी साहब जैसे लिखने वाले तो उर्दू में भी नहीं। उन्होंने उर्दू हास्य-व्यंग्य को एक नया रंग दिया है। उनके तीन और व्यंग्य उपन्यास हैं, जिनका तुफ़ैल चतुर्वेदी अनुवाद कर रहे हैं। मैं आशा करता हूं कि ये उपन्यास भी हिंदी में जल्द ही उपलब्ध होंगे। उर्दू यूं भी हिंदी ही तो है, और उसकी कहानियां भी हिंदुस्तान के अवाम की कहानियों जैसी। ये उपन्यास हिंदी व्यंग्य के पाठकों की रुचि और सोच में एक नया आयाम जोड़ेंगे, इस आशा के साथ यूसुफ़ी साहब का यह पहला उपन्यास आपकी नज्र।