झंडा के बदली हो जाई: संघर्ष का स्वर - गोरख पाण्डेय / तुषार कान्त उपाध्याय
गीत और कविताये जहाँ जीवन के उत्सव के संगी बनते हैं वही संघर्षशील और हार रहे जीवन तथा समुदाय के लिए नई ऊर्जा के संचरण का माध्यम भी। विश्व के सभी वर्गों ने अपने को अभिव्यक्त करने के लिए काव्यकी विधाओ का हमेशा सहारा लिया है। इन्हे नवोन्मेष का
वाहक बनाया है। भारतीय जन जीवन ने भी अपने आक्रांत वर्त्तमान और अंधकारमय भविष्य के आतंक के बीच काव्य और गीतों में उम्मीद की किरणे ढूंढी। तुलसी के मानस ने तो अपने भीतर की शक्ति के तलाश और संगठित हो कितने भी शक्तिशाली आततायी से संघर्ष करने और विजयी कोने का आह्वान किया। सुर ने कृष्ण और गोपियों के माध्यम से नारी स्वातंत्रय की वीणा बजाई.
गीत और कविताओ ने औपनिवेशीक सत्ता के विरुद्ध जन मानस को संघर्ष के लिए तैयार करने में अहम भूमिका निभाई. बंकिम के 'बन्दे मातरम' के युद्धघोष के कुछ वर्षो बाद ही १९११ ई में रघुवीर नारायण ने भोजपुरी में राष्ट्र गीत लिखा-
सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देशवा से / मोर प्राण बसे हिमखोह रे बटोहिया /
यह गीत भोजपुरी के सीमाओ को लांघता संघर्ष और जिजीविषा का स्वर बना रहा।
गुलामी और शोषण, उसके कारणों और पोषक तत्वों, से लड़ने के लिए महेंद्र मिश्र, रामविचार पाण्डेय, रामेश्वर सिंह 'कश्यप' , धरीक्षण मिश्र, मोती बी ए, महेंद्र गोस्वामी जैसे कवियों और गीतकारों ने त्रस्त जन-समुदाय को मशाल थमा दिया। विजेंद्र अनिल, राम जीवन दास 'बावला' , गोरख पाण्डेय ने तो स्वानुभूत यथार्थ और संघर्ष के गीत गाये। गोरख सबसे अलग थे। लिखा तो इन्होने हिन्दी में भी खूब, पर भोजपुरी गीतों के माध्यम से वे जनमानस की आवाज़ बन गए. किसान-मज़दूर आंदोलन में स्वयं को झोक, उन्होंने व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन के लिए जनता को तैयार करने का बीड़ा उठाया। उनके गीत भोजपुरी की सीमाओ का अतिक्रमण कर दबे कुचले, शोषित वर्ग की क्रांति की सार्वदेशिक आवाज़ बनाने लगे। सीधे ह्रदय में उत्तर जाने वाले भाव और कहने का सहज अंदाज़ ने उनके गीतों को सारे देश के आक्रोश और दमन के विरोध का स्वर बना दिया।
तमाम मेहनत मजूरी के बाद अभाव और त्राशदी झेलने को अभिशप्त जीवन की तस्वीर से उनके गीत 'मेहनत के बारहमासा' का आरम्भ होता है
हमरे सुगना के ले गइल बुखार सजना
नाही दवा-दारू नाहीं उपचार सजाना
तोर मेहनत-मजूरी सब बेकार सजाना
अस जिनगी जियल धिरकार सजना।
ये घोर निराशा "निराला" के अवशाद् और क्षोभ से साम्य खिचती है 'हो इसी कर्म पर वज्रपात, यदि धर्म रहे नत सदा माथ / इस पथ पर मेरे कार्य सकल। हों भ्रष्ट शीत के से शतदल। (सरोज स्मृति)'
तो 'पूस की रात' जैसी हार को स्वीकार कर लेने जैसी बेचारगी भी पैदा करती है।
परन्तु गोरख रोने और निराश होकर बैठने वाले नहीं थे। उन्होंने इस निराशा को ताकत बनाया और संगठित हो संघर्ष के लिए जगाने का काम भी किया
बीतता अन्हरिया के जमनवा हो संघतिया
सबके जगा द
नेहिया के बन्हल परनवा जगा द
अँसुआ में डुबल सपनवा जगा द
मुकुति के मिलल बयानवा संघतिया
सबके जगा द।
गोरख ने गीतों के माध्यम से प्रजातंत्र का नंगापन और विभिन्न बुर्जुवा आंदोलनों के आडम्बर और प्रपंच को खुल कर सामने रखा। इन तथाकथित समाजवादी नेताओ ने जिस तरह जाति-पांति का ज्वर उभार कर जनता की भावनाओ से विश्वाश्घात किया, अपने और अपने परिवार की समृद्धि और सुरक्षा जिनके लिए सामाजिक उत्थान का प्रतिमान बन गयी, इनकी असलियत गोरख का प्रसिद्द गीत "समाजवाद" बड़ी बेबाकी से करता है।
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आयी
समाजवाद उनके, धीरे-धीरे आयी
हाथी से आयी
घोड़ा से आयी
अंग्रेजी बाजा बजाई, समाजवाद ......।
कांग्रेस से आयी
जनता से आयी
झंडा के बदली हो जायी, समाजवाद ............
वादा ले आयी
लबादा ले आयी
जनता के कुर्सी बनाई, समाजवाद ...
महंगी ले आयी
गरीबी ले आयी
केतनो मजूरी कमायी, समाजवाद। ...
धीरे-धीरे आयी
चुपे चुपे आयी
आंखिया पर परदा लगायी, समाजवाद ......।
रजवाड़ों को भी लजा देनेवाली समाजवादियो के जन्म दिन और विवाह
उत्सवों का ऐश्वर्य
उस संघर्षशील जनता से धोखा है,
जिसने अपने बीच का होने के भ्रम में चुना
और ये जनता भी समझने लगी है।
अब मोहभंग की स्थिति की है, जनता समझ रही है कि उसे ही कुर्सी बना दिया गया है। और अब यह भी उजागर है कि शासको ने सिर्फ़ झंडे बदले हैं, उनका मूल वर्ग चरित्र नहीं बदला है।
'जब वोट मांगे अइले' में झूठे
वादो का छलवा परदे से बहार निकल आया
है
और सच तो ये है
कि सारे ढकोसले नेताओ
के
सिर्फ अपने उत्थान के लिए प्रपंच है। और अब स्वयं खड़े
हो कर इस किले को ढहाने
का समय आ गया है।
पहिले पहिले जब वोट मांगे अइले त कहे लगले ना
तोहके खेतवा दियइबो
ओमे फसली उगइबो
..................।
सोंचली कि अब तक जेके-जेके चुनलीं
हम के बनावे सब काठ के पुतरिया
...
जब हम इहवो के किलवा ढहइबो त एहि हाथे ना
तोहके मटिया मिलाइबो
ललका झंडा फहराइबो।
त एहि हाथे ना। ।
तो जब भी शोषण के विरूद्ध जनता क्रुद्ध होगी, शोषकों-दमनकारी ताकतों से लोहा लेने और आत्मोत्सर्ग को तैयार होगी, उनके संघर्ष गीत में गोरख के गीत शामिल होंगे। भले लोग उनका नाम न जाने।