टॉम काका की कुटिया - 17 / हैरियट वीचर स्टो / हनुमान प्रसाद पोद्दार

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यहाँ से टॉम के जीवन के इतिहास के साथ और भी कई व्‍यक्तियों का संबंध आरंभ होता है। अत: उन लोगों का कुछ परिचय देना आवश्‍यक है।

अगस्टिन सेंटक्‍लेयर के पिता लुसियाना के एक रईस और जमींदार थे। इनके पूर्वज कनाडा-निवासी थे। अगस्टिन के पिता जन्‍मभूमि छोड़कर लुसियाना चले आए और वहाँ कुछ जमीन लेकर बहुत से गुलामों से काम लेने लगे और धीरे-धीरे एक अच्‍छे जमींदार हो गए। अगस्टिन के चाचा वारमंट में जा बसे और वहाँ खेती करने लगे।

अगस्टिन की माता का जन्‍म हिउग्‍नो संप्रदाय के एक फ्रांसीसी उपनिवेशी के घर हुआ था। अगस्टिन का शरीर जन्‍म से ही अपनी माता की भाँति दुर्बल था। वारमंट की जलवायु बड़ी अच्‍छी समझी जाती थी, इससे बहुत बचपन में ही अगस्टिन को अपने चाचा के यहाँ भेज दिया गया था।

अगस्टिन सेंटक्‍लेयर में बचपन से ही कोमलता, उदारता और दयालुता के चिह्न स्‍पष्‍ट झलकते थे। ज्‍यों-ज्‍यों सेंटक्‍लेयर की उम्र बढ़ती गई, उसके इन गुणों में भी वृद्धि होती गई। उसकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी। उदारता और महत्ता उसके हृदय के स्‍वाभाविक गुण थे। क्षुद्रता और नीचता आदि भाव उसके पास नहीं फटकने पाते थे। काम-काज में उसका मन नहीं लगता था। इससे उसके पिता ने सारे काम का भार अपने दूसरे लड़के अलफ्रेड पर डाल दिया था।

अगस्टिन की विश्‍वविद्यालय की पढ़ाई शीघ्र ही समाप्‍त हो गई। फिर उसके जीवन में उस लहर का संचार हुआ, जो एक बार सबके हृदयों को चंचल बना देती है। उस लहर से उसका प्रेमी हृदय नवीन अनुराग से उमड़ उठा, उसके जीवन-सरोवर में नया कमल खिल गया। जो हो, रूपक जाने दीजिए, संक्षेप में सुनिए, क्‍या बात थी। सेंटक्‍लेयर एक बुद्धिमती, रूप-गुणशीला रमणी के विशुद्ध प्रेम का पात्र हो गया। दोनों का विवाह तय हो गया। युवक अपने घर बड़े उत्‍साह से विवाह की तैयारियाँ करने लगा। इसी बीच उसकी प्रेमिका के अभिभावक का पत्र आया। लिखा था:

'यह पत्र तुम्‍हारे पास पहुँचने के पहले ही तुम्‍हारी मनोनीता कुमारी किसी दूसरे की पत्‍नी हो जाएगी।'

इसी के साथ सेंटक्‍लेयर के वे सब प्रेम-पत्र भी वापस आए, जो समय-समय पर उसने अपनी प्रेमिका कुमारी को भेजे थे।

इस पत्र को पाकर सेंटक्‍लेयर दु:ख और आहत अभिमान से पागल-सा हो गया। हृदय की अनिवार्य यंत्रणा के वेग से अधीर होकर उसने निश्‍चय किया कि अब सारी पिछली बातों को हृदय से एकदम भुला देगा। अदम्‍य अभिमान के कारण उसने इस बेढंगी कार्रवाई का कारण भी न पूछा। उस पत्र के पाने के दो सप्‍ताह के भीतर ही उसी नगर के एक धनवान वणिक की अति रूपवती कन्‍या से उसका विवाह ठीक हो गया। यह संसार एकमात्र खरीद-फरोख्‍त का बाजार है। विशुद्ध प्रेम और अकृत्रिम परिणय का सौदा इस बाजार में बहुत कम होता है, शायद ही कभी होता हो। अगस्टिन इसका अपवाद न था। उसे लाचार होकर संसार-प्रचलित क्रय-विक्रय की प्रथा का अवलंबन करना पड़ा। देखते-देखते उसका विवाह हो गया। जिस स्‍त्री से सेंटक्‍लेयर का विवाह हुआ था, उसकी जमा-पूँजी बस रुपया और सौंदर्य, यही दो चीजें थीं।

विवाह के उपरांत नव-दंपति इष्‍ट-मित्रों के बीच हँसी-खुशी में दिन बिताने लगे।

किंतु एक महीना भी न होने पाया था कि एक दिन अगस्टिन के नाम एक पत्र आया। पत्र के सिरनामे पर वही परिचित अक्षर थे। पत्र देखकर सेंटक्‍लेयर का मुँह पीला पड़ गया। काँपते हाथों से उसने पत्र लिया। जिस समय सेंटक्‍लेयर को पत्र मिला था, उस समय मित्रों से उसका घर भरा हुआ था। वह एक आदमी से हँस-हँसकर बातें कर रहा था। ज्‍यों-त्‍यों अपनी बातें समाप्‍त करके वह चुपके से निकल पड़ा। एकांत में जाकर उसने पत्र खोला। हाय! आज इस पत्र को पढ़ने से ही क्‍या लाभ है?

वह पत्र सेंटक्‍लेयर की पूर्व प्रेमिका के पास से आया था। उसे पढ़कर विवाह का पूरा रहस्‍य मालूम हो गया।

पहले जिस अभिभावक का उल्‍लेख किया गया है, उस नर-पिशाच ने अपनी अधीनस्‍थ इस कुमारी को अपने पुत्र के साथ ब्‍याहने की बड़ी चेष्‍टा की; पर जब कन्‍या किसी तरह राजी न हुई तब वह उस पर मनमाने अत्‍याचार करने लगा। इससे भी जब सफलता न मिली, तो इस दगाबाज ने ऊपरवाली चाल चलकर सेंटक्‍लेयर से उसका पवित्र नाता तोड़ दिया। इधर सेंटक्‍लेयर का पत्र न पाने के कारण वह दिन-पर-दिन चिंतित रहने लगी। पत्र पर पत्र लिखे, पर उत्तर न मिला। हजार बार सोचा, पर कोई कारण समझ में नहीं आया। धीरे-धीरे उसके मन में तरह-तरह के संदेह और आशंकाएँ उठने लगीं। इसी सोच में वह दिन-पर-दिन सूखने लगी। अंत में एक दिन उस पापी अभिभावक की शठता उसे मालूम हो गई। वह जान गई कि इस नराधम ने उनके पारस्‍परिक प्रेम में बाधा डालने की कुचेष्‍टा की है।

पत्र पढ़कर सेंटक्‍लेयर को सब बातों का पता चला। पत्र का अंतिम भाग आशापूर्ण वाक्‍यों और प्रेमोक्तियों से भरा हुआ था। रमणी ने लिखा था- "मैं जीते-जी तुम्‍हारी ही हूँ।" अभागा युवक उसे पढ़कर छटपटाकर रह गया। उसे मौत से भी अधिक दु:ख हुआ। पर क्‍या करता! सोचा, अब दु:ख करने से पुरानी बात नहीं लौटती। उसने तुरंत उत्तर दे दिया। लिखा:

"तुम्‍हारा पत्र मिला, किंतु समय पर नहीं। अब मिलना न मिलना दोनों बराबर है। मुझे जो खबर मिली थी, उसे मैंने सच मान लिया। मैं उस समय पागल-सा हो गया था। मेरा विवाह हो गया। जो कुछ होना था, हो गया। कुछ भी बाकी नहीं रहा। अब सब बातें मन से भुला दो। जो हो गया सो हो गया।"

इस घटना से सेंटक्‍लेयर का सुख-स्‍वप्‍न भंग हो गया। उसका प्रेमी हृदय शुष्‍क हो गया। उस काल्‍पनिक सुख-शांति-पूर्ण संसार को कल्‍पना से बिना कर देने पर सेंटक्‍लेयर को प्रकृत संसार-पथ का पथिक होना पड़ा। वह कल्‍पनानुरंजित संसार यथार्थ संसार से कितना भिन्‍न है, इसका अनुभव उस संसार में प्रवेश किए बिना नहीं हो सकता।

उपन्‍यासों में प्रणय-निराशा और मृत्‍यु मानों एक साथ ही डोर में बँधे रहते हैं। ज्यों ही कोई प्रणय से निराश होता है, तुरंत मृत्‍यु महारानी पहुँचकर उसके भग्‍न हृदय की दारुण जलन को सदा के लिए ठंडा कर देती है।

परंतु प्रकृत जीवन और उपन्‍यास में बड़ा भेद है। प्रकृत जीवन में उपन्‍यास की भाँति मृत्‍यु इतनी पास नहीं खड़ी रहती। संसार में नित्‍य कितने ही लोगों का प्रणय टूटता है, पर कितने आदमी हैं, जो उसके लिए प्राण देते हैं? जीवन चारों ओर से दु:खों और यंत्रणाओं से घिर जाता है, सारी आशाओं पर पानी फिर जाता है। हृदय घोर निराशा में डूब जाता है। इतने पर भी मनुष्‍य नहीं मरता। जैसे समय पर पहले खाता-पीता था, काम करता था, सोता-घूमता था, वैसे ही अब भी सारे-के-सारे काम करता है। अगस्टिन के हृदय को बहुत गहरी चोट लगने पर भी संसार की इसी गति के अनुसार उसे काम करने पड़ते थे। किंतु उसकी पत्‍नी मेरी योग्‍य होती तो उसका अंधकारमय जीवन फिर भी प्रकाशमान हो सकता था, पर मेरी की अदूरदर्शी दृष्टि अगस्टिन के हृदय तक न पहुँचती थी। उसने यह बात जानने की कोशिश तक नहीं की कि उस हृदय पर कोई घाव लगा है। हम पहले ही कह आए हैं कि विपुल संपत्ति और रूप-लावण्‍य के सिवा मेरी में और कोई भी गुण न था। पर इन दोनों में एक भी गुण जी की जलन को ठंडा नहीं कर सकता था, हृदय के घाव को नहीं भर सकता था।

पत्र पाने के बाद अगस्टिन एक निर्जन कमरे में जाकर लेट गया। बड़ी देर के बाद पत्‍नी ने आकर पूछा - "तुम्‍हें क्‍या हो गया है?"

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "मेरा सिरदर्द कर रहा है।"

बुद्धिमती मेरी ने इसी को सच मान लिया, फिर कोई और बात न पूछकर औषधि की व्‍यवस्‍था कर दी। किंतु वह सिरदर्द क्‍या एक दिन का था? उसके बाद अक्‍सर सेंटक्‍लेयर को उसी प्रकार सिरदर्द हुआ करता था। जब देखते-देखते कई दिन बीत गए, तब एक दिन मेरी ने कहा - "विवाह के पहले नहीं जानती थी कि तुम ऐसे रोगी हो। मैं देखती हूँ कि तुम्‍हें तो बराबर ही सिरदर्द हुआ करता है। मेरे फूटे भाग! अभी हाल में हम लोगों का विवाह हुआ है और अभी से मुझे लोगों के घर अकेले घूमने जाना पड़ता है। तुम साथ नहीं जा सकते। मुझे बड़ा नागवार मालूम होता है।"

पत्‍नी की मोटी बुद्धि देखकर पहले-पहल तो सेंटक्‍लेयर मन-ही-मन संतुष्‍ट हुआ, परंतु जब विवाहित जीवन के कुछ आरंभिक दिन बीत गए और आदर-सत्‍कार का बंधन कुछ ढीला पड़ने लगा, तब सेंटक्‍लेयर ने देखा कि रूप और गुण दोनों एक साथ नहीं रहते और लावण्य तथा सौंदर्य मनुष्‍य को अधिक दिनों तक सुख नहीं दे सकते। उनका आनंद शीघ्र ही फीका पड़ जाता है। उसने अनुभव किया कि ऐश्‍वर्य की गोद में पली हुई और पिता की लाडली सुंदरी से इस जीवन-यात्रा में सुख पाने की कोई संभावना नहीं है। जिसे लोग प्रेम कहते हैं, उस प्रेम की मात्रा मेरी के हृदय में एक तो थी ही बहुत थोड़ी, और जो नाममात्र को थी भी वह तो अपने ही ऊपर थी, दूसरों पर नहीं। मेरी अपने पिता की इकलौटी बेटी थी। पिता के घर नौकर-चाकरों तथा कुटुंबियों पर हुकूमत करती आई थी। उसे जब जिस बात की चाह होती थी, वह तुरंत पूरी होती थी। उसने जब चाहा, वह सुलभ हो या दुर्लभ, पिता ने उसे देकर राजी किया। दास-दासियों पर वह जैसा रौब-दाब रखती थी और दबाव डालती थी, उसका ठिकाना न था। वे बेचारे हर घड़ी मालिक की लड़की को खुश करने की चिंता में लगे रहते थे। कहीं जरा-सी भी भूल हो जाती थी, तो वह उन्‍हें बड़ा कठोर दंड देती थी। ऐसी दशा में पलकर मेरी का हृदय केवल अहमन्‍यता और स्‍वार्थपरता का घर हो गया था। अपने सुख के सिवा उसे और कुछ सुहाता ही न था। अपनी बात के सामने उसे पल भर के लिए भी दूसरे की बात का ध्‍यान न आता था। साथ ही उसे अपने परम सुंदरी होने का पूरा भान था।

उसका विचार था कि यदि वह असामान्‍य रूपवती न होती तो लुसियाना प्रदेश के असंख्‍य नवयुवक उससे विवाह करने के लिए इतनी व्‍याकुलता क्‍यों दिखाते? पर मूल कारण कुछ और ही था। असल बात यह थी कि उससे विवाह करने की इच्‍छा रखनेवाले युवक यह सोचकर उसके आगे शीश झुकाते थे कि जो उससे विवाह करेगा, वही उसके पिता के अपार धन का मालिक होगा। मेरी अपने स्‍वामी का बड़ा सौभाग्‍य समझती थी कि उसे उस जैसा स्‍त्रीरत्‍न मिला। स्‍वामी के साथ व्‍यवहार में भी उसका यह आंतरिक विश्‍वास पग-पग पर झलकता था। कभी-कभी वह बातों-बातों, में बड़े साफ शब्‍दों में, स्‍वामी से यह कह भी डालती थी।

ऐसी स्‍त्री के साथ रहकर गृहस्‍थी चलाना सेंटक्‍लेयर के लिए बड़ा कठिन हो गया। एक ओर तो वह अपनी पूर्व प्रेमिका को अपने हाथों दिए आघात का स्‍मरण करके दु:खी हो रहा था, अपने को मन-ही-मन बराबर धिक्‍कारता था और दूसरी ओर इसी समय श्रीमती मेरी महारानी के वचन-बाण उसके हृदय को बेंधते थे। इससे वह प्राय: काम का बहाना करके घर से चला जाया करता था। पर ऐसी स्‍वार्थ-परायण स्‍त्री सदा स्‍वामी के अंदर का सारा प्रेम सोखने की इच्‍छा किया करती है। जो स्‍त्री स्‍वामी को प्‍यार करना नहीं जानती, वह उतना ही अधिक स्‍वामी का प्रेम चाहती है। अत: सेंटक्‍लेयर को घर से भागकर भी छुटकारा नहीं मिलता था।

विवाह के एक साल बाद मेरी को एक कन्‍या हुई। इस कन्‍या का मुख-कमल देखते ही दयालु सेंटक्‍लेयर का हृदय गंभीर संतान-वात्‍सल्‍य से भर गया। वह कन्‍या ज्‍यों-ज्‍यों बढ़ने लगी, सेंटक्‍लेयर का प्रेम भी उस पर बढ़ता गया। किंतु सेंटक्‍लेयर का इस कन्‍या को प्राणों से अधिक प्‍यार करना उसकी स्‍त्री मेरी को असह्य हो गया! वह मन-ही-मन विचार करने लगी कि सेंटक्‍लेयर के हृदय में एक तो यों ही प्रेम नहीं है, फिर मुश्किल से जो थोड़ा बहुत था भी, सो वह इस कन्‍या ने ले लिया। मैं तो अब स्‍वामी के प्रेम से बिल्‍कुल ही खाली रह गई। यह सब सोचकर वह कन्‍या का जैसा चाहिए, वैसा लालन-पालन नहीं करती थी। कन्‍या के जन्‍म लेने के उपरांत मेरी को प्राय: सिरदर्द बना रहता था। वह सदा पलंग पर पड़ी रहती थी। कन्‍या के पालन-पोषण का भार दास-दासियों के जिम्‍मे कर दिया गया। बीच-बीच में सेंटक्‍लेयर स्‍वयं उसको सँभाल लिया करता था।

चार-पाँच वर्ष की हो जाने पर बालिका के प्रत्‍येक कार्य और आचरण से विशेष दया, स्‍नेह और ममता का भाव प्रकट होने लगा। सेंटक्‍लेयर ने कन्‍या की ऐसी कोमल प्रकृति और सहृदयता देखकर अपनी माता के नाम पर उसका नामकरण किया। सेंटक्‍लेयर की जननी बड़ी दयालु थी। दूसरे का जरा भी दु:ख देखकर उसका हृदय भर आता था। अगस्टिन अपनी माता पर असीम श्रद्धा और भक्ति रखता था। उसकी माता का नाम इवान्‍जेलिन था। इससे उसने अपनी कन्‍या का भी वही नाम रखा।

इधर मेरी की हालत सुनिए। उसे नित्‍य एक नया मन गढ़ंत रोग होने लगा। दिन भर अलहदी की तरह पलंग पर पड़े-पड़े शरीर में पीड़ा होने लगती थी और वह सोचती थी कि उसे कोई नया रोग हो गया है। उन रोगों की चिकित्‍सा और सेवा उसकी इच्‍छा के अनुकूल नहीं होती, इसकी उसे सदा ही शिकायत बनी रहती और इसके लिए वह सदैव स्‍वामी पर चिड़चिड़ाया करती। कभी-कभी अभिमान के वशीभूत होकर रोने लगती और कभी अपने भाग्‍य को कोसती। वह अपने मन में इसे केवल विधि की विडंबना ही समझती थी कि जो उसकी-सी रूपवती, गुणवती, पुण्‍यवती और बुद्धिमती नारी को ऐसी दुरवस्‍था में पड़ना पड़ा। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि किसी-किसी मनोकल्पित रोग के कारण वह लगातार तीन-तीन, चार-चार दिन तब बिस्‍तर न छोड़ती थी। इसलिए घर का सब काम दास-दासियों के ही भरोसे था। इसके सिवा इवा का भी लालन-पालन अच्‍छी तरह न होने के कारण वह भी कुछ दुबली हो गई थी। यह देखकर सेंटक्‍लेयर घर के प्रबंध एवं इवा के लालन-पालन के लिए वारमंट से अपने चाचा की लड़की मिस अफिलिया को लाने के लिए वारमंट रवाना हो गया। जहाज में सेंटक्‍लेयर के साथ जिस महिला की बात पहले कही गई है, वह मिस अफिलिया ही थी। उसे साथ लेकर अगस्टिन इस जहाज में घर लौट रहा था।

चलते-चलते जहाज नवअर्लिंस आ पहुँचा। इन लोगों के उतरने के पहले मिस अफिलिया के संबंध में दो-एक बातें कहना उचित जान पड़ता है। मिस अफिलिया की अवस्‍था 45 वर्ष की है। घर के कामकाज में वह बड़ी होशियार है। उसके हर काम से उसकी सहनशीलता और फुर्तीलेपन का परिचय मिलता है। उसके सारे काम और व्‍यवहार नियमपूर्वक तथा उत्‍कृष्‍ट प्रणाली एवं परिपाटी के होते हैं। काम के लिए यदि वह कोई नियम बना लेती है तो उसे कभी नहीं तोड़ती। नियम की तो वह बड़ी ही पक्‍की है। असावधानी को वह बहुत बड़ा पाप समझती है। वह औरों को भी किसी काम में लापरवाही करता देखकर बड़ी झुँझलाती और उनपर घृणा प्रकट किया करती है। कर्तव्‍य-पालन में वह बड़ी कठोर है। जिस काम को वह अपना कर्तव्‍य समझती है, उसे पूरा करने में कोई कसर नहीं रखती। वह सदा विवेक से काम लिया करती है। यदि उसे 'विवेक की दासी' कहा जाए तो अत्‍युक्ति न होगी।

वास्‍तव में अंग्रेज-ललनाओं में बहुतेरी विवेक के वश में होती हैं, पर उनका वह विवेक-यंत्र अंकुश की भाँति उन्‍हें चलाता है। मनुष्‍य-समाज में दो तरह के प्राणी दिखाई पड़ते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो केवल कर्तव्‍य मानकर विवेक के आदेश का पालन तो करते हैं, पर उसका पालन करने से उनके हृदय में आनंद की धारा नहीं बहती। कुछ ऐसे होते हैं, जो हृदय के वेग में पड़कर विवेक के आदेश पालन करने में उन्‍मत्त हो जाते हैं। पहली प्रकार के विवेक का आदेश लोहे के चने चबाने से भी कठिन काम है। जो लोग पहली प्रकार के विवेक के आदेश पर काम करते हैं, उन्‍हें दुनियाँ कर्तव्‍य-परायण कहती है। पर दूसरी प्रकार का विवेक मनुष्‍य को कर्तव्‍य-प्रमत्त बना देता है। ऐसी दशा में विवेक और आवेग इन दोनों में कोई भेद नहीं रह जाता। महाराजा जयसिंह को कर्तव्‍य-परायण कहा जा सकता है, पर वह कर्तव्‍य-मत अथवा कर्तव्‍य-नेता कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते। दूसरी पवित्र श्रेणी में बुद्ध, ईसा और चैतन्‍य आदि के पवित्र नाम गिनाने योग्‍य हैं। कर्तव्‍य-परायण मनुष्‍य मशीन की भाँति कर्तव्‍य के अनुरोध का पालन करता है, परंतु कर्तव्‍य-मत्त व्‍यक्ति हृदय के उमड़े हुए वेग से तन्‍मय होकर कर्तव्य को पूरा करता है।

मिस अफिलिया कर्तव्‍य-परायण थी। हम उसे कर्तव्‍य-मत्त नहीं समझते। कर्तव्‍य-पालन में वह कभी पीछे नहीं हटती, दुर्गम पर्वत उसके कर्तव्‍य-मार्ग में कभी बाधा नहीं डाल सकता। अगाध समुद्र या प्रचंड अग्नि कर्तव्‍य-पालन से विमुख नहीं कर सकती। हृदय की अनिवार्य निर्बलता के साथ वह सदा घोर संग्राम किया करती थी। यदि वह उस विकट संग्राम में कभी हार जाती तो अपनी निर्बल प्रकृति का ध्‍यान करके बहुत खिन्‍न होती थी।

अत: इन कारणों से उसका हार्दिक धर्म-विश्‍वास उसे प्रसन्न बनाकर उल्‍टा कभी-कभी उसके अंत:करण को विषाद के अंधकार से पूर्ण कर देता था।

पर बड़ा आश्‍चर्य तो यह देखकर होता था कि अफिलिया जैसी कर्तव्‍य-परायण, धीर-गंभीर प्रकृतिवाली और विवेकशील स्‍त्री, चंचलमति अगस्टिन को प्‍यार करे। इन दोनों की प्रकृति में जरा-भी समता नहीं थी। दोनों के स्‍वभाव में 36 का-सा संबंध था। लेकिन मिस अफिलिया लड़कपन से ही बड़े चाव से अगस्टिन को धर्म-शिक्षा दिया करती और अपने सगे छोटे भाई की भाँति उसका दुलार करती थी। अगस्टिन का स्‍वभाव चंचल होने पर भी वह बड़ा स्‍नेहशील था। इसी से मिस अफिलिया लड़कपन से उसे प्‍यार करती थी और यही कारण था कि अगस्टिन के प्रस्‍ताव पर वह तुरंत उसके घर आने को राजी हो गई। अगस्टिन के घर का काम-काज सँभालने तथा इवान्‍जेलिन के पालन-पोषण का भार उठाने के लिए वह बड़ी खुशी से अगस्टिन के साथ नवअर्लिंस आ गई। जहाज नवअर्लिंस पहुँचने को हुआ तो मिस अफिलिया बड़ी फुर्ती से माल-असबाब बाँधने लगी। इधर इवा से बार-बार कहने लगी- "तेरी गुड़िया कहाँ है? कैंची कहाँ है! खिलौने कहाँ हैं? अपने सब खिलौने गिन डाल। कितनी लापरवाही रखती है। अभी तक इन चीजों को नहीं गिना?"

इवा ने कहा - "बुआ, अब तो हम लोग घर ही चलते हैं, इन सब चीजों को लेकर क्‍या होगा?"

अफिलिया - "क्‍या होगा? घर ले चल, वहाँ ठिकाने से रख देना। बच्‍चों को अपनी वस्‍तुएँ सावधानी से रखनी चाहिए।"

इवा - "बुआ, मुझे यह सब रखना नहीं आता।"

अफिलिया - "अच्‍छा, तू देख, मैं सब ठीक कर देती हूँ। एक यह तेरा बक्‍स है। यह खिलौना दो; कैंची तीन और फीता चार। सब चार चीजें हुईं। बेटी, मैं जानती हूँ, तू अकेली अपने बाबा के साथ आती तो ये सब चीजें खो जातीं।"

इवा - "हहं, मैंने यों ही कितनी ही बार कितनी चीजें खो दीं और बाबा ने सब चीजें मुझे फिर खरीद दीं।"

अफिलिया - "वाह, कैसी अच्‍छी बात है। एक बार एक चीज को खो देना और फिर उसी को खरीद लेना।"

इवा - "बुआ, यह तो बड़ी सीधी बात है।"

अफिलिया - "सीधी बात है! यह हद दर्जे की लापरवाही है। घोर लापरवाही।"

यों ही बार-बार "लापरवाही, लापरवाही" करते हुए मिस अफिलिया सारी वस्‍तुएँ बक्‍स में भरने लगी। जब बक्‍स भर गया तो इवा ने कहा - "बुआ, बक्‍स तो भर गया, अब इसमें और चीजें नहीं समाएँगी। अब क्‍या करोगी?"

यह सुनकर अफिलिया बोली - "नहीं समाएँगी। जरूर समाएँगी; क्‍यों नहीं समाएँगी?"

इतना कहकर बक्‍स के कपड़ों को जोर से दबाने लगी। अफिलिया का रुख देखकर मानो संदूक बेचारा डर गया। अफिलिया ने सारी चीजों को संदूक में रखकर हँसते हुए कहा - "अभी तो संदूक में और भी चीजें रख देने को जगह खाली है। तू इस संदूक पर खड़ी हो जा, मैं चाबी से बंद कर दूँ।"

इस प्रकार अफिलिया संदूक से संग्राम में जीतकर इवा से बोली - "तेरे बाबा कहाँ हैं? जा, उन्‍हें बुला ला। कह दे, हम लोग तैयार हैं।"

इवा - "बाबा तो नीचे के कमरे में खड़े एक आदमी से बातें कर रहे हैं और नारंगियाँ खा रहे हैं।"

अफिलिया - "जा, दौड़कर बुला ला। जहाज अब घाट-किनारे पहुँचने ही वाला है।"

इवा - "बाबा कभी जल्‍दी नहीं करते। बुआ, तुम इधर आओ। वह देखो, अपना घर दिखाई पड़ता है।"

अफिलिया - "हाँ, देख लिया। जा, झटपट अपने बाबा को बुला ला। लो, जहाज किनारे आ गया और अगस्टिन अभी भी देर कर रहा है।"

जहाज घाट पर आ लगा। सैकड़ों कुली जहाज पर चढ़ आए। उनमें से एक मिस अफिलिया से बोला - "मेम साहब, अपना बक्‍स मुझे दीजिए।" दूसरा कुली बोला - "मेम साहब, ये बिस्‍तरे मैं उठाता हूँ।" तीसरा बोला - "मेम साहब, यह संदूक मेरे सिर पर उठा दीजिए।" कुलियों का तो यह हाल था और मिस अफिलिया अपनी सारी चीजों को अपने सामने रखकर खड़ी खजाने के संतरी की भाँति पहरा दे रही थी। उसके मुख का रुख और तीव्र दृष्टि देखकर कुली डर के मारे वहाँ से खिसकने लगे। इधर अगस्टिन को देर करते देखकर अफिलिया छटपटाने लगी। कोई पंद्रह मिनट के बाद बिना किसी घबराहट के अगस्टिन ने अफिलिया के पास आकर अन्‍यमनस्‍क भाव से पूछा - "बहन, तुम तैयार हो?"

अफिलिया बोली - "मैं एक घंटे से तैयार बैठी हूँ। मैं तुम्‍हारे देर करने से बहुत उकता रही थी।"

अगस्टिन ने कहा - "उकताने की कौन-सी बात थी! अपनी गाड़ी किनारे खड़ी है। भीड़ छँट जाने दो तो आराम से उतरकर चल चलेंगे।"

इतना कहकर अगस्टिन ने एक कुली से कहा - "अरे, हमारा सामान गाड़ी पर रखवा देना।"

यह सुनकर मिस अफिलिया ने कहा - "मैं उसके साथ जाकर अपने सामने सब चीजें ठीक से गाड़ी पर रखवाती हूँ। तुम यहाँ खड़े रहो।"

अगस्टिन - "तुम्‍हारे साथ जाने की आवश्‍यकता नहीं है। यह सब आप ही ठीक से रख देगा। हम लोग साथ ही चलते हैं।"

अफिलिया - "लेकिन यह बैग और बक्‍स तो मैं कुली को नहीं दूँगी। मैं इन दोनों को स्‍वयं ही ले चलूँगी।"

अगस्टिन - "अपनी वह उत्तर प्रदेश की चाल छोड़ दो। इस देश की रीति-नीति सीखो। बक्‍स और बैग तुम ढोओगी तो लोग तुम्‍हें दासी समझेंगे। डरो मत! सब चीजें इस आदमी को उठाने दो। वह सब चीजें बड़ी सावधानी से गाड़ी पर रख देगा।"

इसी समय इवा बोली - "टॉम कहाँ है?"

अगस्टिन ने उत्तर दिया - "टॉम नीचे है। इवा, टॉम को अपनी माँ के पास ले जाना। कहना कि टॉम को गाड़ी हाँकने के लिए लाए हैं। अब उस शराबी कोचवान को गाड़ी नहीं हाँकने दी जाएगी।"

इवा - "बाबा, टॉम बड़ा अच्‍छा कोचवान रहेगा। वह कभी शराब नहीं पीएगा।"

इसके बाद मिस अफिलिया और इवा को साथ लेकर अगस्टिन जहाज से उतरकर अपनी गाड़ी पर चढ़ा। मिस अफिलिया ने गाड़ी पर चढ़ने के पहले सब चीजें एक-एक करके सँभाल लीं। थोड़ी ही देर में गाड़ी एक सजे-सजाए द्वार पर पहुँच गई। बाहरी दरवाजा पारकर गाड़ी के भीतर पहुँचते ही इवा उतरने के लिए छटपटाने लगी और अफिलिया से बार-बार कहने लगी - "बुआ, देखो, हमारा घर कैसा सुंदर है? तुम्‍हारे घर ऐसा बगीचा नहीं है।"

अफिलिया मुस्‍कराकर बोली - "हाँ घर तो सुंदर है, पर ईसाई का-सा घर नहीं जान पड़ता। मालूम होता है, किसी गैर-ईसाई का घर है।"

सेंटक्‍लेयर को अपने लिए 'गैर-ईसाई' शब्‍द सुनकर बड़ी प्रसन्‍नता हुई। गाड़ी दरवाजे पर लगते ही टॉम सबसे पहले उतरा और घर की शोभा देखकर आश्‍चर्य से चारों ओर देखने लगा। मिस अफिलिया के साथ सेंटक्‍लेयर के गाड़ी से उतरने पर घर के बहुत-से हब्‍शी दास-दासी दरवाजे पर आकर जमा हो गए। सेंटक्‍लेयर दास-दासियों पर कभी अत्‍याचार नहीं करता था। उसके घर इन दास-दासियों को किसी प्रकार की तकलीफ न थी। खाने-पीने का सब तरह से आराम था। इससे उसके लौटने पर सबको विशेष आनंद हुआ। उसका हँसमुख चेहरा देखने के लिए वे सब बड़े उत्‍सुक थे। इन दास-दासियों में एक लंबा पुरुष था। वह बड़ा ठाट-बाट बनाकर दरवाजे पर सबके आगे आकर खड़ा हुआ। उसके पहनावे और रौब-दाब से लग रहा था कि वह इस घर के गुलामों का सरदार है। अपने पीछे बहुत-से दास-दासियों को एकत्र देखकर, उनपर रौब झाड़ने के लिए उसने तोबड़ा-सा मुँह बनाकर कहा - "अरे काले भाई-बहनों, तुम लोगों की करतूतों से मुझे कभी-कभी बहुत ही शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। अपने पैर मिलाकर, एक लाइन में खड़े होओ। आजतक तुम लोगों ने विलायती ढंग पर खड़े होना तक भी नहीं सीखा। तुम लोगों के इस तरह खड़े रहने से मालिक के घर में जाने का रास्‍ता रुक गया है।"

यह वक्‍तव्‍य सुनकर सब दास-दासी एक किनारे हटकर खड़े हो गए।

सेंटक्‍लेयर ने दरवाजे पर पहुँचते ही एडाल्‍फ नामक इस प्रधान से हाथ मिलाया और उसका नाम लेकर कहा - "एडाल्‍फ, अच्‍छे तो हो?"

इस प्रकार सेंटक्‍लेयर द्वारा आदर पाने पर एडाल्‍फ ने मालिक के स्‍वागत के लिए जो भाषण रट रखा था, वह सुनाना शुरू किया। एडाल्‍फ का भाषण सुनकर सेंटक्‍लेयर ने हँसते हुए कहा - "भाषण तो खूब तैयार किया है।"

इतना कहकर वह तुरंत घर में चला गया।

मकान में जाते ही इवा दौड़ती हुई अपनी माँ के कमरे में पहुँची। पलंग पर लेटी अपनी माता के गले से लिपट गई और बार-बार उसका मुख चूमने लगी। पर उसकी माता ने अपने कल्पित रोग के कारण कमजोर बनी रहने की वजह से उसको गोद में तो लिया ही नहीं, बल्कि गले से लिपटकर इवा के बार-बार मुँह चूमने से कुछ झुझलाकर बोली - "जा-जा, बहुत हो गया, बहुत हो गया! ठहर जा, मेरे सिर में दर्द बढ़ जाएगा।"

सेंटक्‍लेयर ने अपनी स्‍त्री के कमरे में पहुँचकर उसका मुँह चूमा और मिस अफिलिया की ओर उँगली करके कहा - "प्‍यारी! देखो तुम्‍हारी रोग की बात सुनकर अफिलिया बहन आई हैं।"

मेरी पलंग से नहीं उठ सकी। केवल अधखुले नेत्रों से अफिलिया की ओर एक बार देखकर धीमे स्‍वर में उसका स्‍वागत किया। सब दासियाँ जब कमरे के द्वार पर आकर खड़ी हुईं तो उनमें मामी नाम की एक दासी के गले लिपटकर इवा उसका मुँह चूमने लगी। उस वृद्ध ने इवा को अपनी छाती से लगाकर उसका मुँह चूमा। उसकी आँखों से आनंद के आँसू बहने लगे। वह बड़ी चाह से इवा के मुँह की ओर देखने लगी। उसने जिस प्रकार इवा को अपनी छाती से लगाया था, उससे तो यही जान पड़ता था कि वही इवा की माता होगी। कुछ देर के बाद इवा ने मामी की गोद से उतरकर घर की हर दासी का मुख चूमा।

इवा को इस भाँति दासियों का मुँह चूमते देखकर मिस अफिलिया को बड़ा अचंभा हुआ। इस पर वह सेंटक्‍लेयर से बोली - "अगस्टिन, क्‍या तुम्‍हारे इस दक्षिण देश में दास-दासियों के साथ ऐसा ही व्‍यवहार किया जाता है? भाई, हम लोग तो दास-प्रथा के विरोधी होते हुए भी नौकरों को इतना मुँह नहीं लगाते, इतना आदर नहीं देते। हम लोग वेतनभोगी चाकरों को कभी अपने समान नहीं समझते। दास-दासियों पर दया करना उचित है पर मुँह लगाना ठीक नहीं।"

अफिलिया बहन के ईसाई धर्म संबंधी भाषण का स्‍मरण करके सेंटक्‍लेयर मन-ही-मन हँसा, पर प्रकट में कुछ नहीं बोला। फिर वह कमरे से बाहर निकलकर मामी, जिमी, पली, सूकी इत्‍यादि हर एक दासी का हाथ पकड़कर कुशल पूछने लगा। किसी-किसी दासी के गोद के बच्‍चे के सिर पर हाथ रखकर दुलार करने लगा। सेंटक्‍लेयर के चले जाने पर इवा ने नारंगी की टोकरी उठाकर उसमें से एक-एक नारंगी सब दास-दासियों के बच्‍चों को दी। उन लोगों को वे खिलौने भी बाँट दिए, जो वह उनके लिए लाई थी। फिर सेंटक्‍लेयर ने बरामदे में आकर एडाल्‍फ से कहा - "एडाल्‍फ, यह जो नया आदमी मेरे साथ आया है, इसका नाम टॉम है। सब पर तुम बड़ी हुकूमत दिखाया करते हो, पर देखना, खबरदार, इस आदमी पर कभी रौब न गाँठना। तुम्‍हारे-जैसे काले बंदरों के मूल्‍य की अपेक्षा इसके दूने दाम लगे हैं।"

एडाल्‍फ ने कहा - "सरकार, आप तो मजाक करते हैं।"

सेंटक्‍लेयर ने एडाल्‍फ के कोट की ओर देखकर कहा - "वाह-वाह! तुमने मेरा यह कोट कैसे पहन लिया।"

एडाल्‍फ कुछ शरमाकर बोला - "हुजूर, इस कोट में ब्रांडी के बहुत दाग लग गए थे। इससे बड़ी बदबू आती थी। मैंने सोचा, अब आप इसे थोड़े ही पहनेंगे। इसे आप जरूर ही फेंक देते, इसी से मैंने पहन लिया।"

एडाल्‍फ की बात पर सेंटक्‍लेयर हँसने लगा। इसके बाद वह टॉम को लेकर अपनी स्‍त्री के कमरे में गया। स्‍त्री से कहा - "प्‍यारी, तुम सदा शिकायत किया करती हो कि मैं तुम्‍हारे आराम का खयाल नहीं करता। यह देखो, तुम्‍हारी गाड़ी हाँकने के लिए एक अच्‍छा कोचवान लाया हूँ। यह आदमी कभी शराब मुँह से नहीं लगाता। गाड़ी हाँकने में बड़ा निपुण है। यह इस तरह गाड़ी हाँकेगा कि गाड़ी में चढ़ने पर तुम्‍हें जरा भी तकलीफ न होगी। आराम से ले जाएगा।"

सेंटक्‍लेयर की स्‍त्री मेरी ने फिर आँखें खोलकर एक बार टॉम की ओर देखा और दबे स्‍वर से बोली - "कुछ दिन हमारे यहाँ रहा कि शराब पीना सीखा।"

सेंटक्लेयर - "नहीं, यह कभी शराब नहीं पीएगा। यह शराब के पास नहीं फटकता।"

मेरी - "न पीता तो अच्‍छा ही है। पर मुझे यकीन नहीं आता।"

फिर सेंटक्‍लेयर ने एडाल्‍फ को बुलाकर कहा - "एडाल्‍फ! टॉम को रसोईघर में ले जाओ। देखो, मैंने जो कहा है, सो याद रखना। टॉम पर बहुत हुकूमत मत जताना।"

एडाल्‍फ के चले जाने पर सेंटक्‍लेयर ने अपनी अपनी स्‍त्री को बुलाकर कहा - "प्‍यारी, जरा इधर आओ।"

मेरी - "रहने दो अपना यह बनावटी प्‍यार। तुम्‍हें यहाँ से गए पंद्रह दिन से ज्‍यादा हो गए, बीच में कभी खोज-खबर भी ली कि मैं मरती हूँ कि जीती हूँ।"

सेंटक्लेयर - "क्‍या इन पंद्रह दिनों में मैंने तुम्‍हें पत्र नहीं लिखा?"

मेरी - "बस, वही दो लाइनों का कार्ड। ऐसी चिट्ठियाँ तो नौकरों को लिखी जाती हैं। इतने दिनों में बस दो लाइनों का एक कार्ड मिला था।"

सेंटक्लेयर - "डाक निकलने ही वाली थी, इससे जल्‍दी में कार्ड लिखकर डाल दिया था। अब उस बीती बात पर झगड़ने से क्‍या लाभ है? देखो, यह फोटो देखो। मैं इवा का हाथ पकड़े खड़ा था। क्‍यों, तस्वीर अच्‍छी आई है या नहीं?"

मेरी - "यों हाथ पकड़कर क्‍यों खड़े हुए? कोई लड़की का हाथ इस तरह पकड़कर खड़ा होता है?"

सेंटक्लेयर - "खैर, मान लो खड़े होने का ढंग बुरा था, पर देखो, तस्वीर अच्‍छी आई है या नहीं?"

मेरी - "मेरी राय से तुम्‍हें क्‍या लेना-देना! तुम्‍हें क्‍या मेरी राय कभी पसंद आती है?"

इतना कहकर मेरी ने तस्वीर उठाकर सिरहाने पटक दी। सेंटक्‍लेयर मन-ही-मन कहने लगा - "पापिनी का मन किसी तरह नहीं भरता। चूल्‍हे में जाए ऐसी स्‍त्री। (प्रकट रूप में) अच्‍छा, बोलो, तस्वीर अच्‍छी आई है या नहीं?"

मेरी - "सेंटक्‍लेयर, मुझे परेशान न करो। तुम्‍हें अक्‍ल तो कुछ है नहीं। तुम मेरा दु:ख नहीं समझते। मैं इधर तीन दिन में बड़ी कमजोर हो गई हूँ। मुझे हल्‍ला-गुल्‍ला बिल्‍कुल नहीं सुहाता। घर में तुम्‍हारे आने से मानो बाजार-सा लग गया है। मेरा दम निकल जाता है। सिर-दर्द के मारे मरी जाती हूँ।"

मिस अफिलिया अभी तक बिल्‍कुल चुपचाप बैठी थी। सिर-दर्द की बात सुनकर उसे बातें करने का मौका मिला। वह बोली - "क्‍या यों ही बराबर आपको सिर-दर्द सताया करता है? मैं समझती हूँ, आप सवेरे उठते ही यदि चिरायते का काढ़ा पीएँ तो आपको कुछ आराम हो सकता है। इब्राहिम साहब की स्‍त्री इन सब रोगों की खूब दवाइयाँ जानती हैं। उनसे मैंने सुना कि इस रोग के लिए चिरायते का काढ़ा बड़ा गुणकारी है।"

यह सुनकर सेंटक्‍लेयर ने कहा - "तो कल ही मैं एक बोतल चिरायते का अर्क ला दूँगा। अच्‍छा, दीदी, अब तुम अपने कमरे में जाकर कपड़े बदल डालो।"

मामी को बुलाकर कहा - "अफिलिया बहन के लिए जो कमरा ठीक की हो वह बता दो। देखो, बहन को किसी तरह की तकलीफ न होने पाए। बहुत अच्‍छी तरह से इसकी सेवा करना।"