टॉम काका की कुटिया - 23 / हैरियट वीचर स्टो / हनुमान प्रसाद पोद्दार

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक दिन सवेरे जब मिस अफिलिया घर के कामज-काज में लगी हुई थी, उसी समय सेंटक्‍लेयर ने सीढ़ी के पास खड़े होकर उसे पुकारा - "बहन, नीचे आओ, मैं तुम्‍हें दिखाने के लिए एक चीज लाया हूँ।"

मिस अफिलिया ने नीचे आकर पूछा - "कहो, क्‍या दिखाते हो?"

सेंटक्‍लेयर ने आठ-नौ वर्ष की एक हब्‍शी लड़की को खींचकर उसके सामने कर दिया।

लड़की बहुत ही काली थी। अपने चंचल नेत्रों से वह कमरे की चीजों को बड़े कौतूहल से देख रही थी। जिस प्रकार अत्‍याचार से पीड़ित होकर हृदय की नीचता और दुष्‍टता बाहरी गंभीर भाव के आवरण से ढकी रहती है, उसी प्रकार बाहरी गंभीर भाव और विनय उसके मुँह पर झलक रही थी। उसके कपड़े बड़े मैले-कुचैले और फटे-पुराने थे; शरीर उसका दुबला-पतला और बड़ा ही गंदा था। उसे देखकर मिस अफिलिया ने पूछा - "अगस्टिन, क्‍या सोचकर तुमने इसे खरीदा है?"

सेंटक्‍लेयर बोला - "यही कि तुम इसे सिखाओ-पढ़ाओ और कर्तव्‍य का ज्ञान कराओ। इसका नाम टप्‍सी है। यह खूब नाचती-गाती है।"

इसके बाद सेंटक्‍लेयर ने टप्‍सी से कहा - "यह तेरी नई मालकिन हैं। मैं इनके हाथ में तुझे सौपता हूँ। देखना, इन्‍हें खुश रखना।"

टप्‍सी गंभीरता का भाव धारण करके बोली - "जो आज्ञा!"

सेंटक्‍लेयर ने फिर कहा - "टप्‍सी, तुझे भला बनना पड़ेगा।"

उसने फिर कहा - "जो आज्ञा!"

मिस अफिलिया ने सेंटक्‍लेयर से कहा - "अगस्टिन, तुम्‍हारा घर यों ही इन गुलामों और इनके बच्‍चों से भरा पड़ा है। इनके मारे घर में पैर रखने की तो जगह नहीं है। सवेरे उठ कर देखती हूँ, कोई दरवाजे के पास पड़ा है तो दो-एक मेज के नीचे से सिर निकाल रहे हैं, कोई सीढ़ी पर पड़ा हुआ है तो कोई नहीं। फिर इतनों के होते हुए भी यह एक और नई आफत क्‍यों मोल ले आए?"

अगस्टिन बोला - "मैंने तुमसे कहा न कि सिखाने-पढ़ाने के लिए। तुम शिक्षा पर बहुत भाषण दिया करती हो। इससे मैंने सोचा कि इसे तुमको दूँगा, जिससे तुम इसे खूब पढ़ा-लिखाकर अपने साँचे में ढालो और इसे कर्तव्‍य का ज्ञान कराओ।"

अफिलिया ने कहा - "मैं इस नहीं चाहती। पहले से ही जितने हैं, कम नहीं हैं। उन्‍हीं के लिए कुछ कर सकूँ तो बहुत है।"

अगस्टिन बोला - "बस, यही तुम ईसाइयों का धर्म है! एक सभा बना ली और दो-चार गरीब लड़कों को, (जो दरिद्रता के मारे पढ़ नहीं सकते) पादरी बनाकर धर्म-प्रचार करने को विदेश में भेज दिया। इन बेचारों को जन्‍म भर विदेश में गला फाड़-फाड़कर मरना पड़ता है। तुम लोग दो-एक को सिखा-पढ़ाकर ईसाई बनाओ तो जानूँ कि अलबत्ता तुम लोग धर्म पर श्रद्धा रखते हो। पर तुमसे परिश्रम नहीं होगा, मुँह से चाहे जो कह लो, काम पड़ने पर कहोगी कि ये मैले हैं, बड़े गंदे हैं, इन्‍हें देखकर घिन आती है।"

अफिलिया बोली - "मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। इसे पढ़ाना धर्म का काम जरूर है, पर तुम्‍हारे घर में तो यों ही बेहिसाब दास-दासी भरे पड़े हैं। मेरा समय और दिमाग चाटने के लिए वही काफी हैं। एक नए को और लाए बिना आखिर क्‍या बिगड़ रहा था?"

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "खैर बाबा, तुम रास्‍ते पर आईं, यही बहुत है। सुनो, मैं इसे केवल शिक्षा दिलाने के लिए नहीं लाया हूँ। पड़ोस में हमारे एक साहब हैं। वह मर्द-औरत दोनों-के-दोनों बड़े शराबी हैं। यह लड़की उन्‍हीं के यहाँ रहती थी। वे दिन-रात इसे पीटते थे और यह चिल्‍लाया करती। इसकी चीखों के मारे घर के सामने से गुजरना मुश्किल था, इसी से मैंने इसे खरीद लिया। इसमें कुछ अक्‍ल जान पड़ती है। कोशिश करके देखो कि तुम इसे सिखा-पढ़ाकर आदमी बना सकती हो कि नहीं। मैं इसे तुम्‍ही को सौंप दूँगा। तुम इसे अपना ईसाई धर्म सिखलाओ। मुझमें तो शिक्षा देने की योग्‍यता नहीं है। तुम कुछ कर सको तो यत्‍न करके देखो!"

जैसे कोई दुर्गंधित और सड़ी हुई चीज को उठाने के लिए बेमन से आगे बढ़ता है, वैसे ही मिस अफिलिया उस बालिका के पास जाकर बोली - "ओह, कितनी गंदी है! आधे बदन पर कपड़ा ही नहीं है।"

वह उसे नीचे रसोईघर के पास ले गई। उसे देखकर दीना बोली - "मेरी तो अक्‍ल ही काम नहीं करती कि मालिक ने इसे किसलिए खरीदा है। मैं इसे अपने पास नहीं रहने दूँगी।"

जेन और रोजा ने मुँह बनाकर कहा - "हम इसे कभी अपने पास न आने देंगी।"

मिस अफि‍लिया ने देखा कि उस बालिका का बदन धोना और कपड़े पहनाना तो दूर की बात है, कोई उसको छूना भी नहीं चाहता। तब ईसाई धर्म के अनुरोध से लाचार होकर वह स्‍वयं ही उसका शरीर साफ करने लगी। बड़ी अनिच्‍छा से जेन ने उसकी कुछ मदद की।

लड़की की पीठ और कंधों पर कोड़ों की मार के दाग और घाव देखकर मिस अफिलिया को उस बच्‍ची पर बड़ी दया आई।

साफ कपड़े पहनाकर अफिलिया ने कहा - "अब यह जरा ईसाई-सी जान पड़ती है।" फिर मन ही मन उसका शिक्षाक्रम निश्‍चय करके पूछने लगी - "टप्‍सी, तू कितने बरस की है?"

टप्‍सी ने दाँत निपोरकर कहा - "मालूम नहीं।"

अफिलिया बोली - "अरी, तू अपनी उम्र नहीं जानती? तुझे कभी किसी ने नहीं बताई। तेरी माँ कहाँ है?"

टप्‍सी ने फिर खीस निकालकर कहा - "मेरे माँ कभी नहीं थी।"

"तेरे माँ कभी नहीं थी! इसके क्‍या माने? तू कहाँ पैदा हुई थी?"

"मैं कभी पैदा नहीं हुई थी।"

"मेरी बातों का जवाब इस तरह नहीं देना चाहिए। मैं तेरे साथ खेल नहीं कर रही हूँ। तू बता कहाँ जन्‍मी थी और तेरे माँ-बाप कौन थे?"

"मैं कभी नहीं जन्‍मी थी। एक व्‍यापारी के यहाँ बूढ़ी मौसी ने मुझे कुछ और लड़कों के साथ पाला था।"

जेन दाँत निकालकर बोली - "मिस साहब, आप जानती नहीं कि गुलामों का व्‍यापार करनेवाले लोग बकरी के बच्‍चों की तरह छोटे-छोटे लड़के-लड़कियों को खरीद लाते हैं और कुछ दिन उन्‍हें पालकर बड़े होने पर बाजार में बेचते हैं। शायद इसे भी किसी व्‍यापारी ने दो-तीन बरस की उम्र में खरीदा होगा, इसी से यह अपने माँ-बाप की बाबत कुछ नहीं जानती।"

अफिलिया ने पूछा - "इस मालिक के घर तू कितने दिनों से थी?"

"मालूम नहीं!"

जेन बोली - "हब्‍शी बच्‍चे ये सब बातें नहीं बता सकते। इन्‍हें न गिनती आती है और न यही जानते हैं कि बरस किसे कहते हैं।"

अफिलिया ने पूछा - "टप्‍सी, तुने कभी ईश्‍वर का नाम सुना है?"

टप्‍सी को इस सवाल पर अचरज हुआ, पर वह अपने स्‍वभाव के अनुसार खीस निकालकर हँसने लगी।

"तू जानती है, तुझे किसने बनाया है?" अफिलिया ने अगला सवाल किया।

"किसी ने नहीं बनाया। मुझे लगता है, मैं अपने-आप बड़ी हो गई।"

"तू सीना जानती है?"

"नहीं।"

"तू क्‍या कर सकती है? अपने मालिक के यहाँ तू क्‍या करती थी?"

"पानी भरती थी, बरतन माँजती थी, छुरी-काँटा साफ करती थी।"

"क्‍या वे तुझसे भलमनसी का बर्ताव करते थे?"

अफिलिया की ओर एकटक देखकर वह बोली - "जान पड़ता है, वे अच्‍छे थे।"

इसी समय सेंटक्‍लेयर ने आकर मिस अफिलिया की कुर्सी के पीछे से कहा - "जीजी, इसे पढ़ाने में बड़ी सुविधा रहेगी। इसके मन में कोई पूर्व संस्‍कार नहीं है। इसका मन एकदम कोरे कागज की तरह है। तुम्‍हें इसके किसी तरह संस्‍कार दूर करने का कष्‍ट नहीं उठाना पड़ेगा।"

मिस अफिलिया के शिक्षा-संबंधी विचार भी उसके और विचारों की भाँति एकदम नपे-तुले हुए थे। उसके ये विचार वैसे ही थे, जैसी शिक्षा सौ बरस पहले इंग्‍लैंड में प्रचलित थी। छात्रों के लिए जो जरूरी हो, उसे मन लगाना सिखलाना; सवाल-जवाब के ढंग से बालकों को यह बताना कि ईश्‍वर ने ही इस जगत को रचा है और वही पालन कर रहा है; पुस्‍तक-पाठ, सीना-पिरोना और झूठ बोलने पर सड़ासड़ बेतों की मार! अफिलिया ने इन्‍हीं नियमों के अनुसार टप्‍सी को शिक्षा देने का निश्‍चय किया।

सेंटक्‍लेयर के परिवार में सब टप्‍सी को मिस अफिलिया की लड़की कहते और समझते थे। सताए हुए लोग इतने गिर जाते हैं कि एक-दूसरे के लिए उनकी कुछ भी सहानुभूति नहीं होती, इसी से सेंटक्‍लेयर के घर का कोई दास-दासी टप्‍सी को स्‍नेह की दृष्टि से नहीं देखता था। सब उसे एक बला समझते थे। इसी कारण मिस अफिलिया उसे अपने ही सोने के कमरे में रखती थी और उसे बिस्‍तर बिछाने का काम दे रखा था। पर टप्‍सी से मिस अफिलिया को कितना कष्‍ट मिल रहा था, इसे उसका जी ही जानता था। लेकिन उसमें हद दर्जे की सहिष्‍णुता भी थी, इससे वह घबराई नहीं।

पहले दिन मिस अफिलिया ने टप्‍सी को बिछौना करने का ढंग और उसकी बारीकियाँ बताना आरंभ किया।

"टप्‍सी, मैं तुझे बताती हूँ कि मेरा बिछौना इस तरह बिछाना। देख ले, अच्‍छी तरह सीख ले।"

टप्‍सी ने बड़े उत्‍साह से कहा - "जो आज्ञा!"

अफिलिया बोली - "टप्‍सी, इधर देख, यह चादर की सीधी परत है, यह उल्‍टी। तुझे याद रहेगा न? उल्‍टी ओर से मत बिछाना।"

बड़े ध्‍यान से देखते हुए टप्‍सी ने कहा - "जो आज्ञा!"

जिस समय मिस अफिलिया उसे बिछौना बिछाने का ढंग सिखा रही थी, उसी समय टप्‍सी ने धीरे-धीरे उसके फीते और दस्‍ताने चुराकर अपनी आस्‍तीन में छिपा लिए। अफिलिया ने कहा - "अच्‍छा, अब बिछाकर दिखला।"

टप्‍सी बड़ी चतुराई से बिस्‍तर बिछाने लगी। अफिलिया बड़ी प्रसन्‍न हुई। लेकिन तभी दुर्भाग्‍यवश टप्‍सी की आस्‍तीन से अकस्‍मात् फीता बाहर निकल आया। यह देखकर अफिलिया बोली - "अरी, यह क्‍या? तू बड़ी खोटी है। तूने चोरी करना भी सीखा है?"

यह कहकर उसकी आस्‍तीन से फीता निकाल लिया। लेकिन टप्‍सी इससे जरा भी नहीं झेंपी। बड़ी गंभीर बनकर खड़ी रही और जरा देर बाद मानो कोई बात ही न हो, बोली - "मेम साहब का फीता मेरी आस्‍तीन में कैसे आ गया?"

अफिलिया ने कहा - "तु बड़ी दुष्‍ट है। मुझसे झूठ मत बोल। तूने फीता चुराया था।"

टप्‍सी बोली - "मेम साहब, मैं सच कहती हूँ कि मैंने इससे पहले कभी ऐसा फीता नहीं देखा था।"

"टप्‍सी, तू नहीं जानती कि झूठ बोलना कितना बड़ा पाप है।"

"मेम साहब, मैं कभी झूठ नहीं बोलती। मैं सच-ही-सच कहती हूँ।"

"टप्‍सी, इस तरह झूठ बोलेगी तो मैं तुझे कोड़े लगाऊँगी।"

"दिन भर बेंत लगाने से भी कोई दूसरी बात नहीं हो सकेगी। मैंने कभी यह फीता नहीं देखा था। आपने बिछौने पर रखा था, सो मेरी आस्‍तीन में चला गया।"

टप्‍सी के यों लगातार झूठ बोलने से मिस अफिलिया को ऐसा गुस्‍सा आया कि उसने कुर्सी से उठकर उसे पकड़कर झकझोरा और कहा - "फिर कभी मुझसे झूठ मत बोलना।"

अफिलिया का झकझोरना था कि टप्‍सी की दूसरी आस्‍तीन से दस्‍ताने निकल पड़े?

अफिलिया ने कहा - "अब बोल, अब भी कहेगी कि तूने दस्‍ताने नहीं चुराए? फीता तो अपने-आप आस्‍तीन में चला गया! ये दस्‍ताने किसने तेरी आस्‍तीन में ठूँस दिए?"

टप्‍सी ने दस्‍तानों की चोरी स्‍वीकारकर ली, पर फीते की चोरी से इनकार करती गई।

अफिलिया ने कहा - "टप्‍सी, अगर तू अपनी गलती मान ले तो तुझे चाबुक नहीं लगाऊँगी।"

टप्‍सी ने सब चीजों की चोरी स्‍वीकार कर ली और अपनी भूल के लिए बहुत पछतावा करने लगी।

अफिलिया ने कहा - "मैं जानती हूँ कि तूने घर की और भी चीजें चुराई होंगी। कल मैंने तुझे घर में बहुत बार इधर-उधर फिरते देखा था। अगर और कोई चीज चुराई हो तो सही-सही बता दे, मैं तुझे नहीं मारूँगी।"

"मेम साहब, मैंने इवा के गले का हार चुराया है।"

"अरी दुष्‍टा, और बोल!"

"रोजा के कान की बाली चुराई है।"

अफिलिया ने संयत स्‍वर में कहा - "जा, अभी दोनों चीजें ला।"

"मेरे पास नहीं हैं। मैंने फूँक डाली।"

"फूँक डाली! झूठ बोलती है। जा, झटपट ला, नहीं तो कोड़े खाएगी।"

टप्‍सी ने रोते और सिसकते हुए कहा कि वह नहीं ला सकती। सब चीजें जल गईं।

"तूने उन चीजों को जलाया क्‍यों!"

"मैं बड़ी पापिन हूँ, दुष्‍टा हूँ, इसी से ऐसा किया।"

ठीक इसी समय इवा अपना हार गले में पहने हुए वहाँ आई। अफिलिया ने कहा - "क्‍यों इवा, तुमने अपना हार कहाँ पाया?"

इवा विस्‍मय से बोली - "पाया! खोया कहाँ था! यह तो मेरे गले ही में पड़ा है।"

"कल तूने इसे पहन रखा था?"

"हाँ बुआ, यह सारी रात मेरे गले ही में रहा है। सोते समय मैं इसे उतारकर रखना भूल गई थी।"

अफिलिया अब बड़े चक्‍कर में पड़ी। इतने में रोजा भी अपनी बाली झुलाती हुई आ पहुँची। उसे देखकर अफिलिया को और भी अचरज हुआ। उसने बड़ी निराशा से कहा - "हे राम, मैं इस लड़की को लेकर क्‍या करूँगी?" फिर बोली - "टप्‍सी, तूने जो चीजें नहीं चुराईं, उनके लिए कैसे कह दिया कि तूने चुराई हैं?"

टप्‍सी ने आँखें मलते हुए कहा - "मेम साहब, आपने मुझे सब स्‍वीकार करने को कहा था, इसी से मैंने सब स्‍वीकार कर लिया।"

"लेकिन मैंने तुझसे यह तो नहीं कहा था कि जो नहीं लिया है उसे भी स्‍वीकार कर ले। यह भी वैसा ही बड़ा झूठ है, जैसा दूसरा।"

टप्‍सी ने बड़े सरल और आश्‍चर्य भाव से कहा - "अच्‍छा यह बात है?"

इस पर रोजा ने टप्‍सी की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर कहा - "भला यह सच कहेगी? मैं इसकी मालिक होती तो मारे कोड़ों के इसकी चमड़ी उधेड़ देती।"

इवा ने आज्ञा के ढंग से कहा - "चुप रहो रोजा, मैं तुम्‍हारी ऐसी बातें सुनना पसंद नहीं करती।"

रोजा ने कहा - "मिस इवा, तुम बड़ी दयालु हो। इन शैतानों से व्‍यवहार करना नहीं जानती हो। ये जितने ही काटे जाएँ, उतने ही सीधे रहते हैं।"

इवा ने क्रुद्ध होकर कहा - "रोजा, खबरदार जो ऐसी बात मुँह से फिर कभी निकाली।"

रोजा सकपका गई।

इवा खड़ी टप्‍सी को देखती रही। आमने-सामने खड़ी ये बालिकाएँ पराधीनता और स्‍वाधीनता के दो जीत-जागते उदाहरण हैं। स्‍वाधीनता के उत्तम और पराधीनता के बुरे फल का कैसा अच्‍छा चित्र है! स्‍वाधीनता की गोद में पली हुई इवान्‍जेलिन उमंग से उमड़े हुए सरल और स्‍नेह भाव से टप्‍सी को उपदेश दे रही है और टप्‍सी शुष्‍क हृदय से बनावटी विनय दिखलाकर संदिग्‍ध चित्त से उसकी बातें सुन रही है। कितना भेद है! इवा ने कहा - "टप्‍सी, तू चोरी क्‍यों करती है? तुझे जो चीज चाहिए, मैं दूँगी। तू फिर चोरी मत करना।"

यह पहला अवसर था जब टप्‍सी ने ऐसे मधुर और स्‍नेह-पूर्ण वचन सुने। इस स्‍नेह-संभाषण से उसका हृदय पिघलने लगा। उसकी आँखों से दो बूँद आँसू गिर पड़े, पर तुरंत ही उसके कठोर भाव ने आकर फिर उसके हृदय पर अधिकार कर लिया। उसने दाँत दिखलाकर इवा की बात हँसी में उड़ा दी। उसे इस बात का बिल्‍कुल विश्‍वास नहीं हुआ कि इवा उसे अपनी चीजें दे सकती है।

टप्‍सी के मन में ऐसे भावों का उदय होना स्‍वाभाविक था। उसे इस जन्‍म में न किसी ने प्‍यार किया, न उसके प्रति दया दिखलाई। उसे कोड़ों की मार और ऊपर से तिरस्‍कार के सिवा कभी और कुछ नसीब नहीं हुआ। भला ऐसी दशा में पली हुई लड़की इवा की उन सरलतापूर्ण बातों पर सहसा कैसे विश्‍वास कर सकती थी? उसे इवा की बातें मजाक-सी जान पड़ीं। अफिलिया ने टप्‍सी को पढ़ाने-लिखाने के अनेक ढंग सोचे, अनेक उपाय किए, पर कोई विधि कारगर न हुई। टप्‍सी की दुष्‍टता किसी तरह कम न हुई। हारकर एक दिन अफिलिया ने सेंटक्‍लेयर से कहा - "मेरी तो समझ में ही नहीं आता कि बिना कोड़े लगाए मैं कैसे उसे राह पर लाऊँ?"

सेंटक्‍लेयर बोला - "तब तुम अपने दिल के संतोष के लिए उसे कोड़े ही लगाओ। मैं तुम्‍हें उस पर पूरा अधिकार देता हूँ। जो चाहो, सो करो।"

"लड़के बिना मार के सीधे नहीं होते, पिटने से ही उनकी अक्‍ल दुरुस्‍त होती है।"

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "हाँ-हाँ, जरूर। जो तुम ठीक समझो, करो। पर, मैं तुमसे एक बात कहता हूँ। मैंने देखा है कि इस लड़की पर खूब कोड़े पड़ते थे, लोहे की छड़ को गर्म करके इसे दागा जाता था, इसकी लात-घूँसों से ठुकाई होती थी, फिर भी इसका स्‍वभाव दुरुस्‍त नहीं हुआ। इसी लिए जब तक इसकी और ज्‍यादा मरम्‍मत न होगी, तब तक कुछ न होगा।"

"तब बोलो, क्‍या उपाय हो? अफिलिया ने पूछा।"

"तुम्‍हारा सवाल टेढ़ा है।" सेंटक्‍लेयर बोला - "मैं चाहता हूँ कि तुम अपने-आप ही इसका उत्तर सोच लो। मुझे ऐसे लोगों की दवा नहीं मालूम, जिन्‍हें कोड़े खाने पड़ते हैं और जो कोड़े खाकर भी नहीं सुधरते।"

अफिलिया बोली - "मेरी तो अक्‍ल ही काम नहीं करती। मैंने कभी ऐसी लड़की नहीं देखी।"

"क्यों? बस मुझको ही दोष देने के लिए हो? मेरी तो तुम बहुत लानत-मलामत किया करती हो - दास-दासियों को शिक्षा नहीं देते, इनका सत्‍यानाश कर रहे हो! अब क्‍या हो गया? तुमसे एक छोटी-सी आत्‍मा का भी उद्धार करते नहीं बनता? मैं तुमसे यह भी कह देता हूँ कि कोड़ों की मार से इनका सुधार कभी नहीं हो सकता। कोड़ों की मार अफीम की खुराक की तरह होती है। रोज-रोज खुराक बढ़ानी पड़ती है, अंत में बढ़ते-बढ़ते उसका ठिकाना नहीं रहता। प्रू की मौत क्‍यों हुई? रोज उसके मालिक को कोड़ों की संख्‍या बढ़ानी पड़ती थी। यों ही बढ़ाते-बढ़ाते आखिर कोड़ों ने ही उसकी जान ले ली। इसी से मैं अपने दास-दासियों को कोड़े नहीं लगाता। मेरे यहाँ के दास-दासी भी बिगड़े हुए हैं। पर कोड़ों की मार से ये नहीं सुधारे जा सकते। इन्‍हें मारकर और तो कुछ होना नहीं है, अपनी भी प्रकृति पशुओं जैसी बना लेनी है।"

"तुम्‍हारे यहाँ की दास-प्रथा की बलिहारी!"

"बेशक मैं तो खुद कहता हूँ। पर अब तो ये बुरे बन गए। अब इनके लिए क्‍या होना चाहिए।"

अफिलिया बोली - "यह तो मैं नहीं कह सकती, लेकिन मैंने अब इनके सुधार को अपना कर्तव्‍य मान लिया है। अब मैं जी-जान से टप्‍सी के सुधार का यत्‍न करूँगी।"

इसके बाद अफिलिया टप्‍सी के सुधार के लिए बड़ा परिश्रम करने लगी। वह अपने कई घंटे इस काम में लगा देती थी। कैसी भी हैरानी हो, वह परवा नहीं करती थी। इस मेहनत का नतीजा यह हुआ कि टप्‍सी ने जल्‍दी ही किताब पढ़ना सीख लिया। पर और कामों में उसका नटखटपन ज्‍यों-का-त्‍यों रहा। सिलाई सीखने के समय कभी वह सुई तोड़ डालती, कभी तागे का गोला नोच डालती और कभी कूदकर पेड़ पर चढ़ जाती। ये सब उत्‍पाद देखकर अफिलिया ने सोचा कि कहीं इसके संग का बुरा प्रभाव इवा पर न पड़े। उसने सेंटक्‍लेयर से इसकी चर्चा की तो सेंटक्‍लेयर ने इसे हँसी में उड़ा दिया और कहा कि इवा पर किसी की संगत का बुरा प्रभाव नहीं पड़ सकता। कमल पर जैसे जल असर नहीं कर सकता, वैसे ही इवा के हृदय को कोई भी बुराई नहीं छू सकती।

शुरू में घर के दास-दासी टप्‍सी से घृणा करते थे। वह उनके पास नहीं फटकने पाती थी, पर अब उससे सब चौंकते थे। वह बड़ी धूर्त थी। जो कोई उसे नाखुश करता, उसका वह नाक में दम कर देती। चुपके से उसके कपड़े कैंची से या दाँतों से काट देती, नहीं तो स्‍याही ही पोत देती, या उसकी कोई चीज ही चुरा लेती। किसी से छिपा नहीं था कि यह टप्‍सी की ही करतूत है। कोई उससे कुछ कह भी नहीं सकता था, क्‍योंकि उसके विरुद्ध कोई प्रत्‍यक्ष प्रमाण नहीं मिलता था, और बिना प्रत्‍यक्ष प्रमाण के, संदेह का लाभ अपराधी को उठाने देने की पक्षपातिनी अफिलिया दंड न देती थी। टप्‍सी दास-दासियों को ही तंग नहीं करती थी, वह अफिलिया को भी बहुत परेशान करती थी। एक दिन अफिलिया अपने कपड़ों के संदूक की कुंजी बाहर भूल गई। वह टप्‍सी के हाथ लग गई। उसने किया क्‍या कि संदूक से अफिलिया का बहुत बढ़िया दुशाला निकालकर उसे सिर पर लपेट लिया और कुर्सी पर बैठकर आईने में मुँह देखने लगी। अफिलिया ने कमरे में आकर जब यह हाल देखा तो गुस्‍से में भरकर बोली - "यह तू क्‍या कर रही है?"

टप्‍सी ने जवाब दिया - "मैं कुछ नहीं जानती। मैं बड़ी दुष्‍ट हूँ।"

अफिलिया ने झुँझलाकर कहा - "मेरी समझ में नहीं आता कि तेरे साथ किस तरह पेश आऊँ?"

टप्‍सी बिना झिझक के बोली - "मेम साहब, मुझे बेंत मारिए, मेरे पहले मालिक भी मुझे बेंत लगाते थे।"

"टप्‍सी" , अफिलिया ने दया से प्रेरित होकर कहा - "मैं तुझे बेंत नहीं लगाना चाहती, तू अपनी इच्‍छा से ही सुधर सकती है। तू इस तरह की दुष्‍टता छोड़ क्‍यों नहीं देती?"

"मेम साहब, मैंने बेंत खाए हैं। मैं समझती हूँ कि मेरे लिए वही ठीक दवा होगी।" टप्‍सी ने कहा।

अफिलिया अब कभी-कभी टप्‍सी को बेंत जमाने लगी। बेतों की मार खाते समय वह बहुत चीखती और तरह-तरह के स्वाँग रचती पर छूटते ही दूसरे लड़कों से जाकर कहती - "मिस अफिलिया का बेंत मारने का ढंग अच्‍छा नहीं है। उनकी मार तो मुझे मालूम ही नहीं होती। मेरे पहले मालिक की मार से तो चमड़ी निकल आती थी, वह बेंत मारना खूब जानते थे।"

मिस अफिलिया हर रविार को टप्‍सी को धर्म-शिक्षा दिया करती थी। टप्‍सी की स्‍मरण-शक्ति बड़ी अच्‍छी थी। वह अनायास सब यादकर लेती थी।

अफिलिया के सामने खड़ी होकर अब टप्‍सी अपना धर्म-पाठ सुनाने लगी :

"हम लोगों के आदि-पुरुष, आदम और हौआ, पूर्ण स्‍वाधीनता के साथ उच्‍च-प्रदेश में बिचरने लगे। फिर ईश्‍वर की आज्ञा का उल्‍लंघन करने के कारण वे वहाँ से गिरा दिए गए।"

इतना कहकर टप्‍सी कौतूहलपूर्ण दृष्टि से देखने लगी।

अफिलिया ने कहा - "टप्‍सी, चुप क्‍यों हो गई?"

"मेम साहब, क्‍या हमारे आदि-पुरुष केंटाकी में रहते थे?"

"क्‍या मतलब?"

"क्‍या वे केंटाकी से गिराए गए थे? मेरे पहले मालिक कहा करते थे कि वे हम लोगों को केंटाकी से खरीदकर लाए थे।"

सेंटक्‍लेयर जोर से हँस पड़ा। बोला - "बहन, इन्‍हें जाकर समझाओ। इसका अर्थ जब तक न समझा दोगी, तब तक ये यों ही अपना अर्थ लगाते रहेंगे।"

अफिलिया ने झुँझलाकर कहा - "तुम रहने दो! तुम्‍हारे हँसने से पढ़ाने में गड़बड़ होती है।"

"अच्‍छा अब माफ करो, अब मैं हँसकर कोई गड़बड़ नहीं करूँगा।"

यह कहकर सेंटक्‍लेयर अखबार पढ़ने लगा। पर मिस अफिलिया की शिक्षा-प्रणाली ऐसी अनोखी थी कि सेंटक्‍लेयर को बीच-बीच में हँसी आए बिना नहीं रहती थी और अफिलिया उसके हँसने पर बहुत चिढ़ती थी।

टप्‍सी अफिलिया से धर्मशास्‍त्र और लिखना-पढ़ना सीखती रही, पर उसकी दुष्‍टता जरा भी कम न हुई। दूसरे सब दास-दासी उस पर बहुत चिढ़ते थे, पर कोई कभी उसे मारने आता तो वह दौड़कर सेंटक्‍लेयर की कुर्सी के नीचे छिप जाती थी। दयालु सेंटक्‍लेयर किसी को उसे मारने नहीं देता था।