डरना मना है, हंसना मना है, रोना जारी है / जयप्रकाश चौकसे

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डरना मना है, हंसना मना है, रोना जारी है
प्रकाशन तिथि :10 फरवरी 2018


हिन्दुस्तानी सिनेमा में हास्य कलाकारों की परम्परा रही है और हास्य कलाकारों को केन्द्रीय भूमिका देकर भी फिल्में बनाई गई हैं। जॉनी वाकर और मेहमूद ने बतौर नायक कुछ फिल्में अभिनीत की हैं। दक्षिण भारत में बनी हिन्दुस्तानी फिल्मों में मूल कथा से अलग हास्य कलाकार की समानांतर कथा जारी रहती थी। मेहमूद के पास इतना अधिक काम था कि वे जागते रहने के लिए दवा का सहारा लेते थे। उस दौर में छात्रों ने भी दवा का प्रयोग किया है। मेहमूद की मृत्यु उसी दवा के अधिक सेवन के कारण होना बताई जाती है। मेहमूद के पिता मुमताज अली नृत्य कला में प्रवीण थे। मेहमूद की बहन मीनू मुमताज भी कलाकार थी और गुरुदत्त की साहब बीबी गुलाम में गीत 'सुना है तेरी मेहफिल में रतजगा है, आज साकिया नींद नहीं आएगी' उन पर फिल्माया गया था। मेहमूद ने अपने संघर्ष के समय छोटी छोटी भूमिकाएं अभिनीत कीं। एक दौर में तो वे एक फिल्मकार की कार के ड्राइवर भी रहे। गुरुदत्त की 'प्यासा' में वे नायक के दुष्ट स्वभाव के सगे भाई की भूमिका में प्रस्तुत हुए थे। कड़े संघर्ष के बाद एक दौर ऐसा भी आया जब वे फिल्म के नायक से भी अधिक मेहनताना पाने लगे। हर फिल्म में अपनी भूमिका वे स्वयं ही लिखते भी थे।

जॉनी वाकर ने पेट की खातिर बस कन्डक्टर की नौकरी की और वे मुसाफिरों को हंसाया करते थे। एक बार महान कलाकार बलराज साहनी ने उन्हें बस में यात्रियों को चुटकुले सुनाते देखा और गुरुदत्त से उनकी सिफारिश की। गुरुदत्त अपनी हर फिल्म में जॉनी वाकर के लिए भूमिका लिखते थे। यह गौरतलब है कि निहायत ही संजीदा गुरुदत्त के सबसे नज़दीकी दोस्त हंसोड़ जॉनी वाकर थे। यह संभव है कि यह रिश्ता कुछ एन्टीडोट दवा की तरह रहा। दवा की प्रतिक्रिया रोकने या उसकी तेजी को कम करने के लिए एन्टीडोट दिया जाता है। एन्टीबायोटिक के साथ हमेशा विटामिन बी काम्प्लेक्स दिया जाता है। दवाओं के प्रभाव से बचने की छतरी या कहें कवच विटामिन की गोलियां होती हैं। गरीबी से होने वाले साइड इफेक्ट्स के लिए हास्य का माद्दा होना जरूरी है। दरअसल साधनहीन लोगों का सबसे बड़ा सम्बल हास्य का माद्दा ही है जैसे कि साहिर साहब ने फिल्म 'हम दोनों' के गीत में लिखा है कि 'मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया'।

हास्य कलाकारों में एक थे राधाकिशन जिन्होंने 'शराबी', 'छोटी बहन', 'लाजवंती', 'श्रीमान सत्यवादी', 'बरखा बहार', और 'परवरिश' जैसी अनेक फिल्मों में काम किया है। राजकपूर और माला सिन्हा अभिनीत 'परवरिश' में अस्पताल के जच्चाखाने में दो परिवारों के एक ही समय जन्मे बच्चे इस कदर साथ हो लेते हैं कि यह बताना कठिन हो जाता है कि कौन सा शिशु किस परिवार का है। एक श्रेष्ठि वर्ग का परिवार है और दूसरा तवायफ का। समझौता यह होता है कि दोनों शिशु अमीर परिवार में पाले जाएंगे और उम्र के बढ़ते ही 'पहचान' हो पाएगी। तवायफ का भाई भी श्रेष्ठि परिवार में रहने आता है। यह भूमिका राधाकिशन ने अभिनीत की थी। भाइयों की भूमिकाएं राजकपूर और मेहमूद ने अभिनीत की थीं और इसी फिल्म की सफलता से मेहमूद को बेहतर अवसर मिले। राधाकिशन ने हास्य भूमिकाओं के साथ ही कुछ भूमिकाएं खलनायक की भी अभिनीत की हैं। राधाकिशन का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि उनके आते ही लोग हंसने लगते थे। इसी कारण राधाकिशन किसी शवयात्रा में शामिल नहीं होते थे। राधाकिशन मुंबई के एक बहुमंजिला इमारत में रहते थे। उनके प्राय: ठहाके लगाना कुछ लोगों को पसंद नहीं था। ऐसे ही इन्दौर के एम.वाय. अस्पताल परिसर में कैन्सर के इलाज के लिए एक भवन डॉ. मधुसूदन द्विवेदी के प्रयास से खुला था। डॉ. मधुसूदन द्विवेदी के ठहाके आप पड़ोस की इमारत में भी सुन सकते थे। उन्होंने कैन्सर मरीजों को अपनी दवा से राहत दी हो या ना दी हो परन्तु उनके ठहाकों से मरीज मुस्करा देते थे। उस दौर के लोगों का कहना था कि राधाकिशन के हंसने पर इमारत के सचिव को एतराज था और उनमें विवाद होता था। एक दिन उनकी हंसी पर कड़ी आपत्ति ली गई तो उन्होंने छत से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। एक झूठ से भरे बयान पर एक महिला का हंसना भी लोगों को गवारा नहीं हुआ।