ड्राइविंग लाइसेन्स / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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गौतम के सामने वह थप्पड़ मेरे गाल पर नहीं, रुह पर पड़ी थी। आंखों के सामने तैरते स्याह धब्बों के पार मैंने मुड़कर देखा था- वह हमेशा की तरह दूसरी तरफ देख रहा था। वह यहां, इस कमरे में, इस घर में नहीं था। कभी नहीं होता... उसका झुका हुआ सर, गिरे हुये कंधे मेरी नज़रों के सामने धुंधला जाते हैं। उसका यूं हो कर न होना... मेरे भीतर कुछ चिलकता है, बुझती अंगीठी की आग़ की तरह। विवशता अलग बात है, मगर कोई इतना निर्लिप्त, इतना तटस्थ कैसे हो सकता है! जिन्दा इंसान का खून गरम होता है... आगे मेरे हर तरफ गहरा कुहासा है और उसमें गूंजती मेरी सिसकियां! मैं रोना नहीं चाहती, मगर रोती हूँ, खुद से नफरत करते हुये। अपना लिजलिजापन अब नहीं सहता। क्यों हूँ मैं ऐसी! असहाय, विपन्न...

हर क्षण पसलियों में जकड़ा दिल पत्ते की तरह कांपता रहता है। जिया हुया आतंक शिराओं में धपधपाता है। डर मेरा स्वभाव हो गया है। खून में प्रवहित होता है ऑक्सीजन की तरह। मगर इसमें जीवन नहीं, मृत्यु है- भय से लिथड़ा हुआ! शादी के गुज़रे हुये अट्ठारह साल भय की धीमी ज़हर को बूंद-बूंद जीने जैसा है। दिन के उजाले में खंजर की तरह चमकता हुआ, रात के घुप्प अंधकार में सांप के केंचुल की तरह लसलसाता... अनंत ने मेरे भीतर डर को गहरे रोप दिया है। खाल पर गहरे-हल्के धब्बों के साथ आत्मा में नीले फफुंद की तरह जड़े हुये। एक अर्सा हुआ, मैं हिचकियों में नहीं रोती, खुल कर नहीं बोलती। शिकायत? वह तो कभी नहीं!

अनंत से मेरा प्रेम विवाह था! मैं अक़्सर अपनी देह पर पड़ी लाल-नीली धारियों को देखते हुये हैरत से सोचती हूँ, प्यार से बड़ा कोई झूठ हो सकता है? मुझे अनंत के कहे शब्द याद आते- चमकदार, रंगीन मगर खोखले। समंदर के तट पर बिखरे शंख-सीपियों-से। सुन्दर और खाली!

सपने और अपेक्षायें एक-एक कर टूटी थीं। बहुत मर्मांतक था वह सब। मुखौटे के पीछे का सच- कदाकार, भयावह! यह अनंत ही था जिससे मैंने प्यार किया था! कलई उतरते ही भीतर की बदसूरती अपनी पूरी भीषणता के साथ सतह पर उलीच आया था। एक सुन्दर चेहरे और रंग-रोगन के पीछे छिपी सड़ांध देती सोच, गीड़ और कीचड़ से लिथड़ी दृष्टि जो अभाव और अंधकार के सिवा कुछ नहीं देखना चाहता। प्रेम में मैंने मनुष्य को सबसे ऊपर माना था। खून, रंग, औकात की परवाह नहीं कि थी। मगर धीरे-धीरे समझ पाई थी, कपड़े और जुबान बदल लेने से खून में दौड़ता संस्कार और भीतर दबा पड़ा समूह मन नहीं बदल जाता। अनंत पर ऊंची शिक्षा, अच्छी नौकरी, मोटी तनख्वाह का मुलम्मा तो चढ़ा था, मगर भीतर से वह वही मर्द रह गया था जो उसके दादा, परदादा और पूर्वज थे। वह अपनी सोच से बूढ़ा था, अंधा था। अपनी उम्र और वक्त से सौ साल पीछे कहीं जी रहा था। ओढ़े हुये आचरण के नीचे उसका यथार्थ, उसका आप घात लगाये, दम साधे पड़ा है यह मैं भांप नहीं पाई थी। मीठे शब्दों के जादू में बंधी उसके साथ सारे दहलीज और लक्ष्मण रेखायें पार कर निकल आई थी। कितना बड़ा दु: साहस था वह! सोचकर मुझे पसीना आता है। बाउजी, बड़े भैया, दादी... हवेली की ऊंची दीवारें और उससे भी ऊंचे उनके अहंकार, कठोर अनुशासन! इन सबके बीच माँ अलग से याद आती हैं- सूती साड़ी में सर से पांव तक मुड़ी हुई, एक झुकी हुई कांपती-लरजती छाया... दादी के राज में कभी उनका उघडा हुआ चेहरा या उठी हुई आंखें नहीं देखी। भयभीत पशु की तरह इधर-उधर देखती हुई फुसफुसा कर बोलती थीं, उनका सोना-जागना, चलना-फिरना- कुछ भी नज़र नहीं आता था। एक परछाई की तरह चुपचाप इस कोने से उस कोने तक सरकती फिरती थीं। ज़मींदार घर की बहुओं को सात पर्दों में मूंद कर रहना पड़ता था। माँ भी रहती थीं। उन्हें छत पर जाने नहीं दिया जाता था, खिड़की पर बैठने नहीं दिया जाता था। पैरों पर सांकल पड़ने से पहले मैं अपनी माँ के लिये जाने कहां-कहां से क्या-क्या चुरा लाती थी- कविता, कहानी की क़िताबें, रंगीन तस्वीरें, फूल... उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। भर दुपहरी अनाज की कोठरी या धान के गोले के पीछे छिप कर कहानियां पढ़ती थीं। हमारे मास्टरजी माँ के गांव के थे, बचपन के दोस्त। उनके लिये छिपाकर कहानी की क़िताबें लाते थे। उन क़िताबों को माँ तक पहुंचा कर मुझे कितनी खुशी होती थी! लगता था, कोई बड़ा काम किया है। जिस दिन मैंने थाल में पानी डाल कर माँ को उसमें चौदहवीं के चांद का अक्स उतार कर दिखलाया था, माँ मुझे सीने से लगा कर बहुत रोई थी। रोते हुये फुसफुसाती रही थी- मेरा चांद! मेरा आसमान! पंख, हवा, धूप... उस दिन मुझे माँ की कही हुई बातें समझ नहीं आई थी। बहुत अजीब लगा था। मगर उनके साथ-साथ देर तक रोती रही थी। आज मुड़कर देखती हूँ तो लगता है, मैंने अपनी विरासत बहुत पहले से संभाल ली थी। थाल में चमकता चांद जाने कब सरक कर खिड़की के पार चला गया था। पीछे रह गया था ज़र्द उजाले का एक धब्बा। बुझे दीये के धुंये के साथ कमरे में नीम अँधेरा घिर आया था धीरे-धीरे। माँ की लौ देती आंखें भी उसके साथ निष्प्रभ हो आई थीं।

अपनी माँ से ही मैंने नि: शब्द रोना सीखा था, पैर दबा कर चलना सीखा था, सिर्फ पानी पी कर रातों को सोना सीखा था... मगर इन सब के साथ ही जाने कब उनसे मैंने सपने देखना भी सीख लिया था। निसिद्ध, वर्जित सपने! एक गहरी, निविड़ रात में चोरों की तरह भागते हुये अपने मायके से स्त्री-धन के रुप में मैं यही ले आई थी- माँ के तमाम डर और इन सब के बीच अंजाने अंखुआया हुआ सपनों का एक कांपता हुआ नन्हा बीज! डर के बीच जीये और पनपे मेरे सारे सपनों का रंग नीला ही था...

इतनी डरपोक रुना इतना बड़ा कदम कैसे उठा पाई! पूरा गांव मेरी इस हरकत से हैरान रह गया था। कल की सोलह साल की रुना आज इतने वर्षों बाद पीछे मुड़ कर देखती है तो खुद भी सोचती रह जाती है। प्यार ही है जो इतना हौसला दे सकता है। उन दिनों मैं सचमुच प्यार में थी! उस प्यार की याद मुझे आज भी उदास कर जाती है। उसे इस तरह नहीं मरना था...

देर तक रोने के बाद मैं बाथरुम से मुंह धो कर आई थी। घंटा भर गरजने-बरसने के बाद अनंत गाड़ी ले कर बाहर निकल गया था। आज उसकी कला अकादमी की मीटिंग है। बहुत व्यस्त रहता है वह। दर्जन भर संस्थाओं से जुड़ा है। कहीं अध्यक्ष तो कहीं एगज़िक्युटिव मेम्बर! बहुत मुश्क़िल से मुझे ताने देने का समय निकाल पाता है। मार-पीटकर कहता भी है- मेरे पास इतना फालतू समय है कि यही सब करता रहूँ! क्यों मुझे हाथ उठाने पर मजबूर करती हो? कभी सलीके से रह नहीं सकती? अपने सारे उत्पीड़न के लिये अंतत: मैं ही दायी ठहरायी जाती।

मैंने धीरे-से झांककर गौतम के कमरे में देखा था। तकिये में चेहरा गड़ाये वह पेट के बल बिस्तर पर पड़ा था। शायद सो रहा था। पता नहीं! दिन पर दिन जाने यह लड़का कैसा होता जा रहा है। किसी पहेली की तरह। हमेशा चुप और अपने में गुम। जब तक घर में रहता है या तो बत्ती बुझा कर बिस्तर में पड़ा रहता है या बैल्कनी में बैठ कर गिटार बजाता रहता है। उसका गिटार बजाना सुन कर ऐसा नहीं लगता कि कोई धुन बजा रहा है बल्कि गिटार के तार तोड़ने की क़ोशिश कर रहा है। जाने क्या चल रहा है उसके भीतर, मैं उसे छिप कर देखती हूँ। अकेले में पागलों की तरह अपने पंचिंग बैग में घूंसे बरसाता रह्ता है। ऐसे समय में उसकी आंखों में, पूरे चेहरे पर एक अजीब-सा जुनून होता है। जैसे सब कुछ तहस-नहस कर देना चाहता है। जाने कैसी दुश्मनी है उसे दुनिया से। देर तक घूंसे बरसाने के बाद जब वह फर्श पर निढाल ढह कर बेतहासा हांफता है, उसके गिरे हुये कंधे और पसीने से लथपथ पीठ की तरफ देखते हुये मैं अपनी जल उठी पलकों को झपकाती हूँ। ज़िन्दगी से वह मेरी अकेली उम्मीद है- मेरा इकलौता बेटा! उसमें मेरे सपनों को साकार होना था...

धीरे-धीरे कितनी दूर होता जा रहा है वह मुझसे, सबसे! हाथ बढ़ाते ही यूं छिटक कर अलग हो जाता है! उसकी अनुपस्थिति में उसके कमरे में जा कर उसके सामानों में उसे ढूंढ़ती फिरती हूँ- उसके कपड़ों में बसी उसकी देह-गंध, उसकी क़िताबें... पूरी दीवार घेर कर उसके पसंदीदा गायकों के आदमक़द पोस्टर्स लगे हैं। उनकी तरफ देखते हुये मेरा दिल धड़कने लगता है- गायकों के बल्लम-भाले की तरह नुकीले, रंगे बाल, टैटूज़ की हुई बांहें, बिंधे हुये होंठ, जीभ, भौंहें... मर्दों के लिपस्टिक से रंगे होंठ, मसकारा लगी पलकें- सब कुछ कितना अजीब, एक हद तक भयावह। संगीत के नाम पर भी बस चीख-पुकार और आर्तनाद। जैसे जंग छिड़ी हो! गीतों के बोल और बैंडों के नाम भी भय और अवसाद से भर देते हैं- 'रिवर फ्लोज़ फ्रोज़ेन', 'ट्रैल ऑफ टीअर्स', 'कैनिबल कॉर्प्स', 'मेटालिका'... वह किस दहकती दुनिया में रहता है! कैसी मार-काट मची है वहां! क्या वहाँ कोई हरा-भरा पेड़ नहीं, सुकून की ठंडी छांह नहीं! आतंक की दुनिया...

कई सालों से उसके रिजल्टस खराब आ रहे हैं। किसी तरह एस. एस. सी. पास किया था। तगड़ा डोनेशन दे कर नामी कॉलेज में दाखिला दिलवाया गया है। आगे बारहवीं की परीक्षा है। रोज़ अनंत से डांट खाता है। उसकी हर ग़लती और असफलता के लिये अनंत मुझे कसूरवार ठहराता है- 'अपने बिगड़ते हुये बच्चे के भविष्य की चिंता ना करके इस उम्र में लेखिका बनने चली है। बेमतलब किलो-किलो काग़ज़ काला ना करके उसकी पढ़ाई पर ध्यान दो! बेटा हिप्पी बन रहा है। सर पर पंछियों के घोंसले जैसे बाल, गंदी, फटी जिंस, ... क्या हाल बना रखा है छोकरे ने!' गौतम कहता कुछ नहीं मगर करता वही है जो करना चाहता है। एक दम ढीठ और बेशर्म।

एक दिन उसकी डायरी के कुछ पन्ने पढे थे। उसे एम. बी. ए. नहीं करना। अपना बैंड बनाना है- 'डेथ विश'! वह मृत्यु से आब्सेश्ड प्रतीत होता है। कंप्यूटर में सेव किये हुये उसके फाईल्स के विषय देख कर भी मैं आतंक से भर उठती हूँ- जघन्य हत्या, सीरियल किलींग्स, भूत-प्रेत पर शोध...

अनंत से एक अर्सा हुये मन खोल कर कोई बात नहीं कि जा सकती। ना उसकी इन बातों में रुचि है ना समय। अब तो मेरा भी मन नहीं करता। हर बात पर काटने को दौड़ता है। पैसे और ताक़त के मद ने उसे अहंकार से भर दिया है। बाहर वह सबका बॉस है और घर में भी। वह बस हुक्म देता है। कुछ सुनने का धैर्य उसके पास कभी नहीं था। मैं शादी से पहले के अनंत के चेहरे का मिलान आज के अनंत से करती हूँ तो मुझे कहीं कोई साम्य नहीं मिलता। वह अनंत जिसे मैंने ज़िन्दगी की तरह प्यार किया था वह कभी था भी! इतने बड़े भ्रम को मैंने कैसे सच मान लिया था! मुट्ठी से झड़ गये रेत की तरह अपनी ज़िन्दगी के बारे में अब मैं सोचना नहीं चाहती। दिमाग़ जिन्दा बारुद बन जाता है।

कब टूट कर रेज़ा-रेज़ा हो जाऊं... सोच कर दहशत से भर उठती हूँ। अभी मुझे जीना है, गौतम मेरा अकेला दायित्व है। उसे पूरा करना है।

मेरा सारा कहना-सुनना अब सत्य के साथ है। वही है जिसके पास मैं अपने मन की गांठें खोलती हूँ। वह सुनता है मुझे। उसके पास मेरे लिये हमेशा समय होता है। हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा भी वह मेरे साथ-साथ होता है। मैं सोच नहीं पाती, मेरे लिये यह उसकी करुणा है या प्यार। वह कहता है, प्यार है। मान लेना चाहती हूँ मगर ठिठक जाती हूँ। कुछ इतना खूबसूरत, इतना अनोखा मेरे लिये कैसे हो सकता है! मेरे लिये किस्मत के हाथ हमेशा तंग रहे हैं। कुछ मिला भी तो बहुत कुछ खो कर। एक का मूल्य मैंने अक़्सर दो से चुकाया है। थोड़ी-सी ख़ुशी के बदले ढेर सारे दुख मोल लिये हैं। अर्सा हुआ, मन का सहज विश्वास खो गया है। अब किसी तरफ दो क़दम निश्चिंत बढ़ा नहीं पाती।

सत्य कहता है, तुम्हें मेरे प्यार पर यकीन नहीं होता? कहो, इस रिश्ते से क्या मिलना है मुझे? अपनी क़ैद से तुम निकलना नहीं चाहती। फोन, नेट के ज़रिये एक आभासी दुनिया के हम बाशिंदे बन कर रह गये हैं। कभी तुम्हारा हाथ तक नहीं पकड़ा, कभी पकड़ सकूंगा, यह भी नहीं जानता। फिर भी रात-दिन तुम्हारे साथ हूँ। हूँ ना? तो फिर?

...यही तो विडम्बना है! तुम सचमुच मुझसे प्यार करते हो- इस तरह टूट कर। इस सुख को मैं सम्हाल नहीं पाती। अर्सा हुआ, सब कुछ खो कर कुछ खोने के डर से परे हो गई थी। अब सत्य को पा कर फिर से डर गई हूँ। मेरे पास खोने के लिये बहुत है- सत्य है! उसका अमित प्यार है! सत्य कहता है, मैं तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ, बस तुम्हरा हो कर। मुझे कहीं जाने मत देना। सुन कर मैं बस रोती हूँ। मुझसे इतना सुख नहीं सहता। सुख मुझे डराता है, आशंकित करता है। मुझे उदासियां रास आ गई हैं। मैं इनकी आदी हो गई हूँ। सत्य मेरी आदत बिगाड़ने पर तुला है। कहता है, मुझसे अपेक्षायें करो, ज़िद्द करो, मैं तुम्हारे सारे सपने पूरे करुंगा। अपने प्यार से तुम्हें बिगाड़ना चाहता हूँ। अब तक हर ख़ुशी से वंचित रही हो। अब जी लो मुझे। मैं तुम्हारी ज़िन्दगी बनना चाहता हूँ। सुनकर मैं नि: शब्द रोती हूँ। फोन के दूसरी तरफ तरफ सत्य गहरी सांस लेता है- फिर रोने लगी ना? उससे कुछ नहीं कहती मगर चाहती हूँ वह मुझे रोने दे। ख़ुशी में रोने का मौका ज़िन्दगी में पहली बार इस तरह आया है... अक़्सर सोचती हूँ, जाने सत्य किसे चाहता है... मुझे या मेरी कहानियों की रचयिता को! वह शून्य में खड़ा होना चाहता है, हवा में आश्रय ढूंढ़ रहा है। घर की नींव को ज़मीन का आधार चाहिए वह सोचता नहीं। सपने सुंदर होते हैं मगर उनमें हमेशा जिया जा सकता है क्या!

भीतर वर्षों की उदासियां इकट्ठी थी, उन्हें बाहर उलीचना ज़रुरी था वर्ना सांस घुट जाती। क़लम हाथ में पकड़ी तो मन बह निकला। शब्दों का ज्वार उठा। मेरी लेखनी ने मेरे जीवन के सारे क्लेश को अपने में समेट लिया। एक बार छपी तो बस छपती चली गई. मगर किंचित ख़ुशी के साथ ढेर-सी परेशानियां आयीं। बाहर दुनिया थी तो घर में अनंत। हमेशा दंश देने को तैयार। हर वह चीज़ जो मुझे दुनिया से जोड़े, मुक्त करे, पहचान और व्यक्तित्व दे, उसे उससे नफरत थी। मैं उसकी मिल्कियत हूँ, उसकी जागीर, उसके घर में पड़ी रहूँ। फिर चाहे मुझमें घुन लग जाये या जंग, उसे परवाह नहीं। मैं रोऊं, ज़िन्दगी भर रोऊं, उसे कोई ऐतराज़ नहीं। ऐतराज़ है उसे सिर्फ मेरी खुशी से, मुस्कराहट से, आज़ादी से। मैं उसके दिये दुख में जियूं, उसी के दुख में मर जाऊं... उसका पुरुष अहंकार इससे ज़्यादा सोच नहीं पाता। मैं छपने लगी हूँ, मेरा लिखा सराहा जाता है, मेरी पहचान बन रही है। यह सब उसके बर्दास्त के बाहर है। रात-दिन लताड़ कर, मेरा मखौल उड़ा कर वह मेरे आत्म विश्वास को तोड़ देना चाहता है। चाहता है कि अपनी आख़िरी क़ोशिश को छोड़ कर मैं पंगु बन जाऊं। शायद मैं बन भी जाती। मगर सत्य ने, उसके प्यार ने मुझे ऐसा होने से बचा लिया। यह उसीका दिया विश्वास है जो मैं खुद पर ला सकी। मैं चल नहीं पाती, लड़खड़ा कर गिर-गिर पड़ती और ऐसे में सत्य हर बार बढ़ कर मुझे सम्हाल लेता। कहता, उठो, फिर क़ोशिश करो, तुम ऐसा कर सकती हो... और उसके शब्दों के तिलस्म से बंधी मैं फिर से चल पड़ती। उसका मुझ पर विश्वास, प्यार मेरा बैशाखी नहीं, मेरा हौसला बन गये थे।

अनंत की निर्ममता और गौतम की उदासीनता के विराट शून्य के बीच यदि मेरे पास कुछ था तो वह सत्य का साथ था। दूर एक अलग शहर में बैठा वह हर क्षण मेरे साथ होता था। एक बार शहर में लगे पुस्तक मेले में उससे मुलाकात हुई थी। मेरी सद्य: प्रकाशित पुस्तक में मेरा हस्ताक्षर लेने अचानक सामने खड़ा हुआ था। उस छोटी-सी मुलाकात में एक जादू-सा घटा था। कुछ पलों के लिये हम स्तब्ध-से रह गये थे। उसी समय अनंत मुझे वहाँ से खींच ले गया था। उसके बाद आयी थीं उसकी चिट्ठियां, फोन... वर्षों से बंजर पड़ी ज़मीन के एक टुकड़े पर जीवन अंखुआया था। हरियाली की कुछ छींटें पड़ी थी अजाने ही!

हर जगह मैं सज-धज कर अनंत के पीछे-पीछे चलती हूँ। अनंत शान से अपनी सुंदर पत्नी का परिचय सब से कराता है- मेरी मिसेज़, मिसेज़ कुमार! मेरा कोई नाम भी नहीं इस परिचय में। लोग दूर से मुझे हाथ जोड़ कर मेरा अभिवादन करते हैं- नमस्ते भाभी! या हेलो मिसेज़ कुमार! इसके बाद सब मुझे नज़रंदाज कर देते हैं। मैं घंटों किसी कोने में बैठी जम्हाइयां लेती रहती हूँ या मेरी ही तरह किसी बड़े आदमी की सजी-धजी पत्नी से इधर-उधर की दो-चार औपचारिक बातें करने की क़ोशिश में और-और बोर होती हूँ। इस बीच अनंत पूरी महफिल में छाया रहता है। ठहाके लगाता है, किसी से हाथ मिलाता है, लोगों से घिरा जाने क्या-क्या डिस्कस करता रहता है। यह अत्याचार मैंने वर्षों झेला है। मगर मेरे साथ एक-दो कार्यक्रमों में जा कर ही वह झल्ला उठा था। लोग मुझे मेरे नाम से जाने, उसका परिचय मेरे पति के रुप में कराया जाय, यह उससे बर्दास्त नहीं होता। मेरे परिचितों से वह बेरुखी से पेश आता है। उसका व्यवहार भी अपमानजनक होता है। सारे साहित्यकार, संपादक, प्रकाशक उसके लिये चिरकुट और फटीचर होते हैं- तुम्हारे यह मनहूस साहित्यकार! झोला-थैला, दाढ़ी छाप! पान चबा-चबा कर बौद्धिक चर्बण का ढोंग! काम-धाम कुछ नहीं, बैठ-बैठ कर भाषण। जब तक बेकार हैं कम्युनिस्ट हैं, कल रोटी-दारु का जुगाड़ हो जाय, कैपिटलिस्ट हो जायेंगे। अंगूर खट्टे हैं और क्या! चले हैं दुनिया बदलने!

कितना विरोधाभास है उसके स्वभाव में। इधर साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थानों में मुख्य अतिथि के रुप में भाषण करते हुये दुनिया-जहान की अच्छी-अच्छी बातें करता है और घर में उसी साहित्य-कला का श्राद्ध करता रहता है। कितने चेहरे हैं उसके! सहूलियत के हिसाब से ओढ़-उतार लेता है। इन मुखौटों की भीड़ में सबसे कुरुप है उसका अपना चेहरा जिससे शायद सिर्फ मैं परिचित हूँ।

सत्य हर क्षण मेरे साथ होता है फिर भी मैं धीरे-धीरे अपना हौसला खोती जा रही हूँ। अनंत ने मुझे वर्षों पहले निराश कर दिया था। मगर गौतम का मूक विद्रोह, हर तरह से निर्लिप्त हो जाना, किसी अजनबी की तरह... मुझसे सह नहीं रहा। इन दिनों एक नया सगल पाल लिया है उसने- विडियो गेम! कॉलेज के बाद का अधिकतर समय इसी में बिताता है। कभी सारी-सारी रात! सुबह समय पर उठ नहीं पाता। हर दूसरे दिन कॉलेज का प्रिंसिपल या टीचर मुझे बुला कर शिकायत करते हैं। खाना-पीना भी एक तरह से भूल गया है। पूछने पर तरह-तरह के बहाने बनाता है। कितना चिड़चिड़ा हो गया है! एक बात का सीधे मुंह जवाब नहीं देता। उसके कमरे के डस्ट बीन से उस दिन सड़े हुये अंडे, फल और टोस्ट मिले थे। जाने कब से नाश्ता नहीं किया था! अनंत को कहते डर लगता है। उसके पास सारे मर्ज़ की एक ही दवाई है- मार! गौतम जब छोटा था, हर बात पर उसे बेरहमी से पीट देता था। कई बार तो छड़ी और बेल्ट से भी। उसे बचाते हुये कितनी बार मैं खुद जख़्मी हो चुकी थी। पहले-पहल जब कभी अनंत मुझ पर हाथ उठाता था, गौतम आ कर मुझसे लिपट जाता था। तीन साल पहले ऐसे ही एक मौके पर अनंत ने उसे बेल्ट से बुरी तरह पीटा था। अनंत ना जाने किस-किस के नाम से मुझे ताने दे रहा था उस दिन। मेरा कसूर यह था कि मैंने रात के दस बजे किसी लेखक का फोन उठा लिया था। मैं जानती थी गौतम अपने कमरे में जाग रहा होगा इसलिये मुंह बंद किये सब सुने जा रही थी। कितनी बार हाथ जोड़कर कर उससे मिन्नत की थी कि वह इतनी ज़ोर से ना बोले। मगर अनंत हमेशा की तरह कुछ भी बके जा रहा था। और फिर वही हुआ था जिसका मुझे डर था। बीच में अचानक कहीं से गौतम आ खड़ा हुआ था। अपनी मुट्ठियां भींच-भींचकर जाने क्या कुछ बोल गया था अनंत से उसने उस दिन। सुन कर कुछ देर के लिये तो अनंत भी सकते में आ गया था, फिर उसने गौतम को बुरी तरह पीटा था। गौतम सात दिनों तक बिस्तर पर पड़ा रह गया था। उसे किसी तरह समझा ना पाने के कारण दुख, हताशा और अपमान से झुलस कर मैंने भी उसे कह दिया था कि बड़ों के बीच उसे आइंदा कुछ बोलने की ज़रुरत नहीं।

उसके बाद जाने क्या हुआ था, गौतम एकदम अपने आप में सिमट गया था। उसका बोलना, ज़िद्द करना, झगड़ना- सब बंद हो गया था। किसी अजनबी की तरह। सबके बीच रह कर भी अपने आप में सम्पृक्त, उदासीन!

कितनी क़ोशिश करती हूँ उसकी चुप्पी तोड़ने की! हर बार किसी अदृश्य दीवार से टकरा कर लौट आती हूँ। गौतम ने अपने और हमारे बीच जाने कितनी गहरी खाई खोद ली है। सत्य कहता है- उसे ज़रा समय दो। प्युवर्टी से गुज़र रहा है। भीतर हॉरमोन तांडव मचा रहा होता है इस समय। इस उम्र में ऐसे मूड स्वीइंग्स स्वभाविक है। यह समय उसे परेशान करने का नहीं, साथ देने का है। उसे समझाने से ज़्यादा समझो। उसे उसका स्पेस दो। सब ठीक हो जायेगा... मैं सत्य की बात पर यकीन करना चाहती हूँ मगर अंदर का डर खत्म नहीं होता। जाने गौतम किस दिशा में चल पड़ा है!

मेरी हर समस्या का एक ही समाधान है सत्य के पास- मेरे पास चली आओ! इतना सहज है क्या यह सब! फिर गौतम! उसका क्या? उसे तो इस समय सबसे ज़्यादा मेरी ही ज़रुरत है। उसे उसके हाल पर छो़ड़कर अपनी ख़ुशी के पीछे हो लूं? क्या गौतम के बिना कहीं कोई ख़ुशी हो सकती है मेरे लिये? ऊन के लच्छों की तरह मेरे इर्द-गिर्द सवाल के घेरे पड़ते जाते हैं और मैं आपादमस्तक उलझ कर रह जाती हूँ।

आज फिर एक बार अनंत के सामने जा कर खड़ी होना पड़ेगा। लखनऊ में 'साहित्याकाश' पत्रिका का स्थापना दिवस है। मुझे भी एक वक्ता के रुप में आमंत्रित किया गया है। इस बार जाना ज़रुरी है। पिछले कई कार्यक्रमों को टालती आई हूँ। कौन जा कर अपना मज़ाक बनाये। एक-दो बार का अनुभव ही काफी है। अनंत मुझे कहीं अकेली जाने की इजाज़त नहीं देता और साथ जाने के लिये उसके पास समय नहीं। साफ कह चुका है, मेरी इजाज़त के बग़ैर घर से क़दम बाहर रखने से पहले तलाक के पेपर पर साइन करके जाना। फिर देखता हूँ तुम्हारा कौन फटीचर आशिक तुम्हें पनाह देता है। दूर बैठ कर फोन पर या व्हाट्स अप पर दूसरों की बीवियों से मीठी-मीठी बातें करना आसान होता है। जिम्मेदारी उठानी पड़ी तो दो दिन में प्रेम के देव कूच कर जायेंगे। फिर तो हवा फांक कर तुम जी नहीं पाओगी। दस-बीस कहानियान लिख कर साल भर में जो दो-चार हज़ार कमा लेती हो उससे तो गुज़र होने से रही!

एक बार किसी तरह साथ चलने को तैयार भी हुआ तो पूरे कार्यक्रम के दौरान इस बेशर्मी से मेरी निगरानी करता रहा कि लोगों में तमासा बन गया। हर आने-जाने वाले लोगों को घूर-घूर कर देखता रहा, किसी ने अभिवादन किया तो बड़ी बेरुखी से उसे जवाब दिया, सब के बीच बैठ कर निर्लज्ज ढंग से अपनी डींगे हांकता रहा। किसी अप्रिय घटना को टालने के लिये मैं भय से तटस्थ रही। यहाँ तो लोगों को गॉसिप के लिये कोई बात मिल जाय! जब वह बढ़ कर किसी से मेरे बारे में पूछताछ करने लगता था, मैं मन ही मन प्रार्थना करने लगती थी। घर लौट कर भी महीनों तक उसने किसी ना किसी बात को ले कर मेरा जीना दूभर कर रखा था। अचानक बीच रात को मुझे झिंझोर कर जगा कर पूछने लगता- तुमने तो कहा था पिछले बुक फेयर में आलोक शास्त्री नहीं मिले थे जबकि इस बार उनकी बीवी ने बताया वे आये थे? गहरी नींद से अचानक जग कर मैं उसकी बात समझ नहीं पाती और उल्टा-पल्टा जवाब पा कर उसका गुस्सा सातों आसमान पर पहुंच जाता। मेरी हर कहानी पढ़ कर बोलता- इसकी नायिका तुम ही हो ना? कब मिली थी तुम अपने उस फटीचर मास्टर से? यानी मेरा शक सही निकला, पिछली गर्मी में तुम अपनी सहेली के बेटे के जनेऊ संस्कार में नहीं गयी थी। बीच में ट्रेन से उतर कर अपने मास्टर के साथ दो दिन गुज़ार कर आई थी! मैं उसे समझा नहीं पाती, कोई कहानी पूरी तरह काल्पनिक भी हो सकती है। अपनी हर कहानी की नायिका मैं हो नहीं सकती।

इस बार भी वही हुआ जो हर बार होता आया है। अनंत ने मुझे कार्यक्रम में जाने देने से साफ इंकार कर दिया था। अपनी सारी हिम्मत जुटा कर मैंने बहस करने की क़ोशिश की थी मगर कोई लाभ नहीं हुआ था। अंत में फिर जलील हो कर कमरे से निकल आई थी। बैल्कनी में बैठ कर किसी तरह अपनी सिसकियों पर काबू पाने की क़ोशिश कर रही थी जब गौतम को अपने पीछे खड़ा पाया था। वह जाने कैसी नज़रों से मुझे घूर रहा था। उसकी आंखों से झलकते अजीब-से भाव ने मुझे यकायक सहमा दिया था। क्या था उनमें? नफ़रत, गुस्सा, वितृष्णा या गहरी उपेक्षा? भीतर कहीं गहरे कुछ अनायास दरका था- कैसे अजनबियों की तरह खड़ा है! जैसे उसे मेरी किसी बात से कोई मतलब ही नहीं। मेरे दुख, मेरे आंसू- क्या कुछ भी अब उस तक नहीं पहुंचते? उसे देख कर मेरे भीतर कोई नाड़ी खींचती है, बहते खून में थक्के-से पड़ने लगते हैं मगर वह! उसके भीतर क्या कुछ भी जिन्दा नहीं बचा है। शायद सच ही कहते हैं लोग, खून एक दिन ज़रुर रंग लाता है। अनंत का खून अब इसमें भी बोलने लगा है।

मेरी सोच से बेपरवाह गौतम ने निर्लिप्त आवाज़ में कहा था- 'नाउ आई एम ऐट्टीन। कल से मैं ड्राईविंग क्लास ज्वाइन कर रहा हूँ।' कह कर वह मुड़ कर धीरे-धीरे चला गया था और मैं उसके पीछे एक भयावह अकेलेपन से घिर गई थी, रोते हुये सत्य को फोन किया था। वह कहीं भी हो, मेरे साथ होता है। कहता है, अकेला इंसान हूँ, जब ज़रुरत हो आवाज़ दे लेना, हाज़िर हो जाऊंगा। फोन उठाते ही उसने कहा था- 'बस, अब चली आओ...' सुन कर मैं बस रोती रही थी। मेरे पास इसके सिवा और कोई दूसरा जवाब नहीं होता उसके लिये। वह भी जानता है मेरी इस बात को। इसलिये मुझसे कभी कोई जवाब की उम्मीद भी नहीं करता। कहता है, तुम्हारे हिस्से आंसू आये हैं, मेरे हिस्से इंतज़ार... कई बार मैं झल्ला कर पूछती हूँ- क्यों इतना बर्दास्त करते हो मुझे? वह हंस कर टाल जाता- क्या करूं, प्रेम का कोई विकल्प जो नहीं होता!

आज जैसे मेरे सव्र का बांध टूट गया था। सत्य के सामने मन की सारी गांठे खोल कर बैठ गई थी- गौतम को मैं समझ नहीं पा रही सत्य! वह ऐसा क्यों है! वह मेरा बेटा है, मेरा हिस्सा... मैं उसकी मजबूरी समझ सकती हूँ मगर उसकी ऐसी उदासीनता! दुख के क्षणों में उसका बस मेरे कंधे पर एक हाथ रख देना काफी होता। तरस जाती हूँ उसके दो बोल के लिये... तुम समझते हो ना, किसी की चुप्पी भी मार देती है इस तरह? सत्य ने मुझे धैर्य से सुना था, हर बार की तरह समझाया भी था- कहा ना, इतना जजमेंटल मत बनो। उसकी नसों में तुम्हारा भी खून बहता है और वह पानी नहीं है। उसका रंग भी बोलेगा एक दिन, देखना... इतनी आशायें कहाँ से ला पाता है वह! अँधेरा कभी घेरता नहीं उसे?

गौतम जिस चीज़ के पीछे पड़ता है, बस पड़ जाता है। इन दिनों सब कुछ छोड़ कर ड्राइविंग सीखने में लगा हुआ है। जब देखो कभी घर की गाड़ी, कभी दोस्तों की गाड़ी ले कर सामने के मैदान में चक्कर लगाता रहता है। उस दिन कहा भी था, लर्निंग लायसेंस के साथ इतनी दूर तक ना जाया करे। वह कभी सुनता भी है मेरी! सुबह उठ कर गाड़ी ले कर निकल जाता है। कॉलेज के बाद भी। एक दिन अनंत की गाड़ी भी कहीं से ठोंक लाया था। उस दिन से अनंत ने अपनी गाड़ी उसे देनी बंद कर दी थी। मुझे गौतम की हड़बड़ी देख कर चिंता हो रही थी। क्यों हर बात को ले कर वह इतना ऑब्सेस्ड हो जाता है! मेरी बात सुन कर सत्य हंसता रहा था- यार तुम्हारा एक ही काम है चिंता करना! टेक इट इज़ी! गौतम से पूछा कि उसे किस बात की जल्दी है, २२ दिन का कोर्स तो पूरा करना ही पड़ेगा तो चिढ़ कर जवाब दिया उसे बड़े होने की जल्दी है, मर्द होने की जल्दी है! उसके जवाब ने मुझे सन्न करके रख दिया। तो उसे मर्द बनना है! लगा था मैं उसे इंसान बनाने में नाकाम रही! वह मेरी कोई इज्ज़त नहीं करता, तभी तो इस तरह से बात करता है। ठीक भी तो है, जिस औरत को वह रात-दिन इस तरह से प्रताड़ित होते हुये देखता है उसके प्रति उसके मन में सम्मान आये भी तो कैसे! जीवन का एक और मोर्चा मैं हार गई थी। अब दुख मनाने का भी सामर्थ्य नहीं। हां, एक ग्लानि है, भीतर तक खाती हुई. जाने अंदर अब कुछ बचा भी है कि नहीं। सत्य से भी यह बात शेयर नहीं कर पाई थी। चोर की माँ को रोने का भी सुख कहां- बचपन में सुनी थी यह बात, अपनी माँ से। मां! मेरे भीरु मन में आज भी तुम ही जीती हो। तुमसे छूटना चाहती हूँ मगर कभी छूटना नहीं चाहती।

आज गौतम की ड्राइविंग की परीक्षा है। सुबह उठ कर गया है। रात भर अजीब बेचैनी में रहा। कई बार कमरे में झांक आई थी। हर बार बैल्कनी में टहलते हुये पाया। भोर रात तक स्टडी टेबल का लैम्प जल रहा था। उसे मर्द बनने की जल्दी है, अपने पिता की बिरादरी में शामिल होना है... सोच-सोच कर मन डूबता रहा था। तुम्हारे पिता ही क्या कम थे मेरे जीवन में... आज कल उससे भी इसी तरह मन ही मन बात करने लगी हूँ। आमने-सामने तो संभव नहीं हो पाता।

दफ्तर जाने से पहले अनंत भी आ कर सुबह-सुबह मुझसे उलझ गया था। मैंने एक बार फिर उससे लखनऊ जाने की बात की थी। बात बढ़ते-बढ़ते बहुत बढ़ गई थी। उसने ड्राइवर के सामने अपनी फाइल मेरे मुंह पर दे मारी थी। कुछ लोगों के उसी समय उससे मिलने आ जाने पर वह उठ कर चला गया था। मैंने मुड़ कर देखा था, घर का माली, चौकीदार- सब हमें देख रहे थे। नौकरानी के चेहरे पर कौतुक के भाव थे। वह मुस्कराती आंखों से जैसे मुझे मुंह चिढ़ा रही थी। मैं जानती हूँ, वह अनंत की मुंह लगी है। मेरी मजम्मत से उसे ख़ुशी मिलती है। ओह! कितना अपमानजनक था यह सब! अपने कमरे में बैठी रोती रही थी। रह-रह कर सत्य के शब्द याद आते रहे थे- बस, अब चली आओ... कैसे चली जाऊं! मैं अपने नाल से बंधी हूँ! बच्चा देह से अलग हो जाता है, रुह से नहीं! एक अदृश्य नाल जीवन भर माँ को अपने बच्चे से जोड़े रखता है। यह बंधन किसी के काटे नहीं कटता... काश तुम्हें यह बात समझा पाती सत्य! तुम कहते हो तुम गौतम को भी अपनाओगे, मगर वह अपनी मर्ज़ी का मालिक है, मेरी बात समझेगा भी!

जाने मैं कितनी देर तक रोती रही थी। जब गौतम आया था, मैं बाथरुम से मुंह धो कर बाहर निकल रही थी। वह यकायक मेरे सामने आ खड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर अजीब-से भाव थे। मेरा मन सहम उठा था। जाने अब इसको क्या हुआ! थोड़ी देर चुप रह कर गौतम ने अचानक झुक कर मेरे पैरों में प्रणाम किया था- मुझे ड्राइविंग लाइसेंस मिल गया मां! उसके इस अनायास बदले हुये तेवर से मैं चकित रह गई थी। अचानक उसे क्या हुआ! मेरे चेहरे पर आये भाव को देख कर शायद उसने मेरी मन: स्थिति भांप ली थी। रुक-रुक कर बहुत सधी, सयंत आवाज़ में कहा था- मैं अब तक अपने बड़े होने के इंतज़ार में था मां... ताकि तुम्हें इस घर से बाहर ले जा सकूं... उसकी बात सुन कर मैं कुछ भी कह नहीं पाई थी, चुपचाप उसकी तरफ देखते हुये खड़ी रह गई थी। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हो पा रहा था। अपना चेहरा झुकाते हुये उसने अब धीमी आवाज़ में कहा था- मैंने सत्य जी के कई पत्र देखे हैं, फोन पर तुम लोगों की बात भी...

उसकी बातों से जाने अचानक मेरे भीतर क्या घटा था। सैकड़ों जंग खाई सलाखें एकसाथ चरमराई थीं। कोई दीवार गिरी थी। मैं थहरा कर ज़मीन पर बैठते हुये एकदम से फूट पड़ी थी- और तू गौतम...? उसने मेरे बगल में बैठते हुये मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया था- अब मैं पढ़ना चाहता हूँ मां, आस्ट्रेलिया के एक कॉलेज में मैंने दाखिले के लिये अप्लाई कर दिया है। बस दो-चार साल की बात है... उसकी बातें सुनते हुये मैं नि: शब्द रोती रही थी- सचमुच मेरा गौतम कितना बड़ा हो गया है! थोड़ी देर बाद मुझे हाथ पकड़ कर खड़ी करते हुये गौतम ने अपनी जेब से कार की चाभी निकाली थी और मुझसे पूछा था- कहो, तुम्हें कहाँ जाना है? मैं पहुंचा आऊंगा!