तिग्मांशु को व्यावसायिक मुखौटों के साथ भी पहचाना जा सकता है / जयप्रकाश चौकसे

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तिग्मांशु को व्यावसायिक मुखौटों के साथ भी पहचाना जा सकता है
प्रकाशन तिथि : 29 नवम्बर 2013


तिग्मांशु धूलिया की 'पान सिंह तोमर' को भूलना संभव नहीं परन्तु 'बुलेट राजा' में वे चंबल से दूर भीतरी उत्तर प्रदेश पहुंच गए हैं, जहां का मतदाता भारत के भाग्यविधाता को चुनने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चंबल जैसी ताकतें उत्तर प्रदेश में हर कालखंड में सक्रिय रही हैं। 'बुलेट राजा' का ऊपरी स्वरूप एक सामान्य एक्शन व्यावसायिक फिल्म का ही है। इस तरह की फिल्मों के लिए डायरेक्टर खोजने में मेहनत करनी पड़ती है। ऐसे भी किसी भी सितारे की फिल्म में डायरेक्टर ढूंढ़े नही मिलता, परन्तुु यह माध्यम ही कुछ ऐसा है कि सितारा न निगलते बनता है, न उगलते बनता है। बहरहाल तिग्मांशु धूलिया को उसके व्यावसायिक मुखौटे पहनने के बाद भी पहचाना जा सकता है। इस फिल्म में कुछ दृश्य और पात्र ऐसे हैं जो आपको वर्तमान की सड़ांध से परिचित कराते हैं।

फिल्म में एक अत्यंत धनाढ्य व्यक्ति है। वह सभी राजनैतिक दलों को अकूत धन देता है। वह अपने विश्वासप्राप्त सचिव के पांच सितारा होटल के उस कक्ष में जा रहा है जो किसी अन्य के नाम से लिया गया है। भारत के धनाढ्य कितने 'सफाई' प्रेमी है कि उन्हें कक्ष में इंतजार कर रही कालगर्ल की मेडिकल रिपोर्ट देते हुए कहता है कि लड़की 'क्लीन' हैं अर्थात उसे सेक्स संबंधित कोई बीमारी नही हैं। धनाढ्य लोग अपनी 'बेशकीमती जान' के प्रति कितने सजग हैं कि अपनी अय्याशी के स्थान पर भी साफ सफाई का उन्हें ध्यान है। भारत में मनुष्य की कीमत के मानदंड अलग हैं। आप हवाई दुर्घटना में मरें तो रेल दुर्घटना में मरने से अधिक धन मिलता है। कार दुर्घटना में मरने पर इंश्योरेंस की मोटी रकम मिलती है। आजकल धर्म प्रधान राजनीति का दौर है तो सांप्रदायिक दंगे में मरने पर मोटी रकम मिलती है। कई दिन तक अखबारों में फोटो छपते रहते हैं। इसी तरह राजनीति में भी युवा लड़कियों को बहुत अवसर प्राप्त है। इस देश के विरोधाभास देखिए कि महिलाओं के लिए संसद में तीस प्रतिशत आरक्षण का बिल संभवत: पैंतीस वर्ष से लटका हुआ है, परंतु राजनीति में शक्तिशाली साहब लोगों की अंतरंग मित्र होने के अनेक लाभ हैं। जब बात उजागर हो जाए तो कन्या को सपरिवार पूरा जीवन विदेश में रहने का अवसर मिलता है। इसे कहते हैं 'चित भी मेरी, पट भी मेरी' । दूसरा दृश्य यह है कि फिल्म की बंगाली नायिका फिल्म सितारा बनने घर से भागी थी और अब अपने गैर-बंगाली प्रेमी के साथ घर आई है। उसके माता-पिता घर से भाग कर फिल्म में अभिनय करने को उतना बुरा नहीं मानते जितने गैर-बंगाली मर्द से प्रेम को। नायिका अपने कम्युनिस्ट चाचा से मदद की प्रार्थना करती है तो वे भी गैरबंगाली एवं विजातीय दूल्हे के पक्ष में नही हैं। वे स्पष्ट कहते हंै कि कम्युनिज्म का कोई अर्थ नहीं है, वर सजातीय होना चाहिए। यह भारत की अपनी विशेषता है कि नास्तिक होना कम्युनिज्म की आवश्यक शर्त है परंतु भारत में कम्युनिस्ट भी जात-पात पर यकीन करते हैं। सच तो यह है कि इस दल के भी अपने ब्राह्मण हैं और उन्होंने ही कम्युनिज्म को पूरे देश में नहीं फैलने दिया अन्यथा आज दोनों प्रमुख दलों से नाराज मतदाता कम्युनिस्ट को वोट करता।

इस फिल्म में एक छोटी चरित्र भूमिका युवा प्रतिभाशाली उभरते हुए चित्रकार की है और नायक उसे भरपूर पैसा देता है कि अपनी कला साधे और उद्योगपति तथा राजनैतिक माफिया से दूर रहे। यही कलाकार कठिन समय में नायक की मदद करता है परंतु भ्रष्ट होने के पहले ही अवसर पर धन लेकर नायक के साथ विश्वासघात करता है। तिग्मांशु धूलिया भारत के सांस्कृतिक शून्य को इस तरह अभिव्यक्त कर रहे हैं जैसे हमारे देश में कलाकार, लेखक, पत्रकार सब भ्रष्ट होने के अवसर का ही इंतजार करते हैं। फिल्म में जिमी शेरगिल और युवा विद्युत ने बहुत अच्छा काम किया है। फिल्म में एक चरित्र भूमिका सबसे अधिक गहरी चोट करती है। जेल में एक बूढ़ा अपराधी है, जिसके पास तीन मोबाइल हैं और महंगा कम्प्यूटर है।

यह रहस्यमय व्यक्ति उद्योगपति, माफिया, नेता, धार्मिक ठेकेदार, पुलिस सबका विश्वास प्राप्त है। संकेत मिलने पर वह ही धन देता है। वह जेल में भी राजा है और बाहरी दुनिया में किसे सिंहासन मिले यह तय करता है। ये पात्र प्रतीक है दलाल का जिसके बिना न सत्ता का काम चलता है, न उद्योगपति का और न ही अपराध जगत का। इस चरित्र को गढऩा धूलिया की जीनियसनेस को बताता है। अब भारत एक विराट बीहड़ है। डाकुओं ने मुखौटे लगा लिए हैं। इस तरह धूलिया ने पान सिंह तोमर को उसके तमाम मुखौटोंके साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया।