तृतीय उत्थान: वर्तमान काव्यधाराएँ / आधुनिक काल / काव्य / शुक्ल

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हिन्दी साहित्य का इतिहास
आधुनिक काल (काव्य खंड) संवत् 1975 / प्रकरण 4 - नई धारा: तृतीय उत्थान: वर्तमान काव्यधाराएँ

द्वितीय उत्थान के समाप्त होते होते खड़ी बोली में बहुत कुछ कविता हो चुकी थी। इन 25-30 वर्षों के भीतर वह बहुत कुछ मँजी, इसमें संदेह नहीं, पर इतनी नहीं जितनी उर्दू काव्य क्षेत्र के भीतर जाकर मँजी है। जैसा पहले कह चुके हैं, हिन्दी में खड़ी बोली के पद्यप्रवाह के लिए तीन रास्ते खोले गए , उर्दू या फारसी की बह्रों का, संस्कृत के वृत्तों का और हिन्दी के छंदों का। इनमें से प्रथम मार्ग का अवलंबन तो मैं नैराश्य या आलस्य समझता हूँ। वह हिन्दी काव्य का निकालाहुआ अपना मार्ग नहीं। अत: शेष दो मार्गों का ही थोड़े में विचार किया जाता है।

इसमें तो कोई संदेह नहीं कि संस्कृत के वर्णवृत्तों का माधुर्य अन्यत्रा दुर्लभ है, पर उनमें भाषा इतनी जकड़ जाती है कि वह भावधारा के मेल में पूरी तरह से स्वच्छंद होकर नहीं चल सकती। इसी से संस्कृत के लंबे समासों का बहुत कुछ सहारा लेना पड़ता है। पर संस्कृत पदावली के अधिक समावेश से खड़ी बोली की स्वाभाविक गति के प्रसार के लिए अवकाश कम रहता है। अत: वर्णवृत्तों का थोड़ा बहुत उपयोग किसी बड़े प्रबंध के भीतर बीच में ही उपयुक्त हो सकता है। तात्पर्य यह कि संस्कृत पदावली का अधिक आश्रय लेने से खड़ी बोली के मँजने की संभावना दूर ही रहेगी।

हिन्दी के सब तरह के प्रचलित छंदों में खड़ी बोली की स्वाभाविक वाग्धारा का अच्छी तरह खपने के योग्य हो जाना ही उनका मँजना कहा जाएगा। हिन्दी के प्रचलित छंदों में दंडक और सवैया भी हैं। सवैया यद्यपि वर्णवृत्त है, पर लय के अनुसार लघुगुरु का बंधान उसमें बहुत कुछ उसी प्रकार शिथिल हो जाता है जिस प्रकार उर्दू के छंदों में। मात्रिाक छंदों में तो कोई अड़चन ही नहीं है। प्रचलित मात्रिाक छंदों के अतिरिक्त कविजन इच्छानुसार नए छंदों का विधान भी बहुत अच्छी तरह कर सकते हैं।

खड़ी बोली की कविताओं की उत्तरोत्तर गति की ओर दृष्टिपात करने से यह पता चल जाता है कि किस प्रकार ऊपर लिखी बातों की ओर लोगों का ध्यान क्रमश: गया है और जा रहा है। बाबू मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं में चलती हुई खड़ी बोली का परिमार्जित और सुव्यवस्थित रूप गीतिका आदि हिन्दी के प्रचलित छंदों में तथा नए गढ़े हुए छंदों में पूर्णतया देखने में आया। ठाकुर गोपालशरण सिंहजी कवित्तों और सवैयों में खड़ी बोली का बहुत ही मँजा हुआ रूप सामने ला रहे हैं। उनकी रचनाओं को देखकर खड़ी बोली के मँज जाने की पूरी आशा होती है।

खड़ी बोली का पूर्ण सौष्ठव के साथ मँजना तभी कहा जाएगा जबकि पद्यों में उसकी अपनी गतिविधि का पूरा समावेश हो और कुछ दूर तक चलनेवाले वाक्य सफाई के साथ बैठें। भाषा का इस रूप में परिमार्जन उन्हीं के द्वारा हो सकता है जिनका हिन्दी पर पूरा अधिकार है, जिन्हें उसकी प्रकृति की पूरी परख है। पर जिस प्रकार बाबू मैथिलीशरण गुप्त और ठाकुर गोपालशरण सिंहजी ऐसे कवियों की लेखनी से खड़ी बोली को मँजते देख आशा का पूर्ण संचार होता है उसी प्रकार कुछ ऐसे लोगों को जिन्होंने अध्ययन या शिष्ट समागम द्वारा भाषा पर पूरा अधिकार नहीं प्राप्त किया है, संस्कृत की विकीर्ण पदावली के भरोसे पर या अंग्रेजी पद्यों के वाक्यखंडों के शब्दानुवाद जोड़ जोड़ कर, हिन्दी कविता के नए मैदान में उतरते देख आशंका भी होती है। ऐसे लोग हिन्दी जानने या उसका अभ्यास करने की जरूरत नहीं समझते। पर हिन्दी भी एक भाषा है, जो आते आते आती है। भाषा बिना अच्छी तरह जाने वाक्यविन्यास, मुहावरे आदि कैसे ठीक हो सकते हैं?

नए नए छंदों के व्यवहार और तुक के बंधन के त्याग की सलाह द्विवेदीजी ने बहुत पहले दी थी। उन्होंने कहा था कि 'तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचारस्वातंत्रय में बाधा आती है।'

नए नए छंदों की योजना के संबंध में हमें कुछ नहीं कहना है। यह बहुत अच्छी बात है। 'तुक' भी कोई ऐसी अनिवार्य वस्तु नहीं। चरणों के भिन्न भिन्न प्रकार के मेल चाहे जितने किए जायँ, ठीक हैं। पर इधर कुछ दिनों से बिना छंद (मीटर) के पद्य भी , बिना तुकांत के होना तो बहुत ध्यान देने की बात नहीं , निरालाजी ऐसे नई रंगत के कवियों में देखने में आते हैं। यह अमेरिका के एक कवि वाल्ट ह्विटमैन की नकल है, जो पहले बँग्ला में थोड़ी बहुत हुई। बिना किसी प्रकार की छंदोव्यवस्था की अपनी पहली रचना 'लीव्स ऑफ ग्रास' उसने सन् 1855 ई. में प्रकाशित की। उसके उपरांत और भी बहुत सी रचनाएँ इसी प्रकार की मुक्त या स्वच्छंद पंक्तियों में निकलीं, जिनके संबंध में एक समालोचक ने लिखा है ,

A chaos of impressions, thought of feelings thrown together without thyme, which matters little, without metre, which matters more, and often without reason, which matters much.

सारांश यह कि उसकी ऐसी रचनाओं में छंदोव्यवस्था का ही नहीं, बुद्धि तत्व का भी प्राय: अभाव है। उसकी वे ही कविताएँ अच्छी मानी और पढ़ी गईं जिनमें छंद और तुकांत की व्यवस्था थी।

पद्यव्यवस्था से मुक्त काव्यरचना वास्तव में पाश्चात्य ढंग के गीतकाव्यों के अनुकरण का परिणाम है। हमारे यहाँ के संगीत में बँधी हुई राग रागनियाँ हैं। पर योरप में संगीत के बड़े बड़े उस्ताद (कंपोजर्स) अपनी अलग अलग नादयोजना या स्वरमैत्रा चलाया करते हैं। उस ढंग का अनुकरण पहले बंगाल में हुआ। वहाँ की देखादेखी हिन्दी में भी चलाया गया। 'निरालाजी' का तो इनकी ओर प्रधान लक्ष्य रहा। हमारा इस संबंध में यही कहना है कि काव्य का प्रभाव केवल नाद पर अवलंबित नहीं।

छंदों के अतिरिक्त वस्तुविधान और अभिव्यंजनशैली में भी कई प्रकार की प्रवृत्तियाँ इस तृतीय उत्थान में प्रकट हुईं जिससे अनेकरूपता की ओर हमारा काव्य कुछ बढ़ता दिखाई पड़ा। किसी वस्तु में अनेकरूपता आना विकास का लक्षण है, यदि अनेकता के भीतर एकता का कोई एक सूत्र बराबर बना रहे। इस समन्वय से रहित जो अनेकरूपता होगी यह भिन्न भिन्न वस्तुओं की होगी, एक ही वस्तु की नहीं। अत: काव्यत्व यदि बना रहे तो काव्य का अनेक रूप-धारण करके भिन्न भिन्न शाखाओं में प्रवाहित होना उसका विकास ही कहा जाएगा। काव्य के भिन्न भिन्न रूप एक दूसरे के आगे पीछे भी आविर्भूत हो सकते हैं और साथ साथ भी निकल और चल सकते हैं। पीछे आविर्भूत होनेवाला रूप पहले से चले आते हुए रूप से अवश्य ही श्रेष्ठ या समुन्नत हो, ऐसा कोई नियम काव्यक्षेत्र में नहीं है। अनेक रूपों की धारणा करनेवाला तत्व यदि एक है तो शिक्षित जनता की बाह्य और आभ्यंतर स्थिति के साथ सामंजस्य के लिए काव्य अपना रूप भी कुछ बदल सकता है और रुचि की विभिन्नता का अनुसरण करता हुआ एक साथ कई रूपों में भी चल सकता है।

प्रथम उत्थान के भीतर हम देख चुके हैं कि किस प्रकार काव्य को भी देश की बदलती हुई स्थिति और मनोवृत्ति के मेल में लाने के लिए भारतेंदु मंडल ने कुछ प्रयत्न किया पर यह प्रयत्न केवल सामाजिक और राजनीतिक स्थिति की ओर हृदय को थोड़ा प्रवृत्त करके रह गया। राजनीतिक और सामाजिक भावनाओं को व्यक्त करनेवाली वाणी भी दबी सी रही। उसमें न तो संकल्प की दृढ़ता और न्याय के आग्रह का जोश था, न उलटफेर की प्रबल कामना का वेग। स्वदेश प्रेम व्यंजित करनेवाला यह स्वर अवसाद और खिन्नता का स्वर था, आवेश और उत्साह का नहीं। उसमें अतीत के गौरव का स्मरण और वर्तमान ह्रास का वेदनापूर्ण अनुभव ही स्पष्ट था। अभिप्राय यह कि यह प्रेम जगाया तो गया, पर कुछ नया नया सा होने के कारण उस समय काव्यभूमि पर पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित न हो सका।

कुछ नूतन भावनाओं के समावेश के अतिरिक्त काव्य की परंपरागत पद्ध ति में किसी प्रकार का परिवर्तन भारतेंदुकाल में न हुआ। भाषा ब्रजभाषा ही रहने दी गई और उसकी अभिव्यंजनाशक्ति का कुछ विशेष प्रसार न हुआ। काव्य को बँधी हुई प्रणालियों से बाहर निकाल कर जगत् और जीवन के विविधा पक्षों की मार्मिकता झलकाने वाली धाराओं में प्रवाहित करने की प्रवृत्ति भी न दिखाई पड़ी।

द्वितीय उत्थान में कुछ दिन ब्रजभाषा के साथ साथ चलकर खड़ी बोली क्रमश: अग्रसर होने लगी; यहाँ तक कि नई पीढ़ी के कवियों को उसी का समय दिखाईपड़ा। स्वदेशगौरव और स्वदेशप्रेम की जो भावना प्रथम उत्थान में जगाई गई थी उसका अधिक प्रसार द्वितीय उत्थान में हुआ और 'भारत भारती' ऐसी पुस्तक निकली। इस भावना का प्रसार तो हुआ पर इसकी अभिव्यंजना में प्रातिभ प्रगल्भता न दिखाईपड़ी।

शैली में प्रगल्भता और विचित्रता चाहे न आई हो, पर काव्यभूमि का प्रसार अवश्य हुआ। प्रसार और सुधार की जो चर्चा नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना के समय से ही रह रहकर थोड़ी बहुत होती आ रही थी वह 'सरस्वती' निकलने के साथ ही कुछ अधिक ब्योरे के साथ हुई। उस पत्रिका के प्रथम दो तीन वर्षों के भीतर ही ऐसे लेख निकले जिनमें साफ कहा गया है कि अब नायिका भेद और श्रृंगार में ही बँधो रहने का जमाना नहीं है, संसार में न जाने कितनी बातें हैं जिन्हें लेकर कवि चल सकते हैं। इस बात पर द्विवेदीजी बराबर जोर देते रहे और कहते रहे कि 'कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है।' द्विवेदीजी 'सरस्वती' के संपादन काल में कविता में नयापन लाने के बराबर इच्छुक रहे। नयापन आने के लिए वे नएनए विषयोंका नयापन या नानात्व प्रधान समझते रहे और छंद, पदावली, अलंकार आदि का नयापन उसका अनुगामी। रीतिकाल की श्रृंगारी कविता की ओर लक्ष्य करके उन्होंने लिखा ,

इस तरह की कविता सैकड़ों वर्ष से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके जिन्हाेंने इस विषय पर न मालूम क्या क्या लिख डाला है। इस दशा में नए कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं; वही तुक, वही छंद, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक! इसपर भी लोग पुरानी लकीर बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त, सवैये, दोहे, सोरठे लिखने से बाज नहीं आते।

द्वितीय उत्थान के भीतर हम दिखा आए हैं कि किस प्रकार काव्यक्षेत्र का विस्तार बढ़ा, बहुत से नए नए विषय लिए गए और बहुत से कवि कवित्त, सवैये लिखने से बाज आकर संस्कृत के अनेक वृत्तों में रचना करने लगे। रचनाएँ चाहे अधिकतर साधारण गद्यनिबंधों के रूप में ही हुई हों, पर प्रवृत्ति अनेक विषयों की ओर रही, इसमें संदेह नहीं। उसी द्वितीय उत्थान में स्वतंत्र वर्णन के लिए मनुष्येतर प्रकृति को कवि लोग लेने लगे पर अधिकतर उसके ऊपरी प्रभाव तक ही रहे। उसके रूप, व्यापार कैसे सुखद, सजीले और सुहावने लगते हैं, अधिकतर यही देख दिखाकर उन्होंने संतोष किया। चिर साहचर्य से उत्पन्न उनके प्रति हमारा राग व्यंजित न हुआ। उनके बीच मनुष्य जीवन को रखकर उसके प्रकृत स्वरूप पर व्यापक दृष्टि नहीं डाली गई। रहस्यमयी सत्ता के अक्षरप्रसार के भीतर व्यंजित भावों और मार्मिक तथ्यों के साक्षात्कार तथा प्रत्यक्षीकरण की ओर झुकाव न देखने में आया। इसी प्रकार विश्व के अत्यंत सूक्ष्म और अत्यंत महान् विधानों के बीच जहाँ तक हमारा ज्ञान पहुँचा है वहाँ तक हृदय को भी पहुँचाने का कुछ प्रयास होना चाहिए था, पर न हुआ। द्वितीय उत्थानकाल का अधिकांश भाग खड़ी बोली को भिन्न भिन्न प्रकार के पद्यों में ढालने में ही लगा।

तृतीय उत्थान में आकर खड़ी बोली के भीतर काव्यत्व का अच्छा स्फुरण हुआ। जिस देशप्रेम को लेकर काव्य की नूतन धारा भारतेंदुकाल में चली थी वह उत्तरोत्तर प्रबल और व्यापक रूप धारण करता आया। शासन की अव्यवस्था और अशांति के उपरांत अंग्रेजी के शांतिमय और रक्षापूर्ण शासन की प्रति कृतज्ञता का भाव भारतेंदुकाल में बना हुआ था। इससे उस समय की देशभक्ति संबंधी कविताओं में राजभक्ति का स्वर भी प्राय: मिला पाया जाता है। देश की दुखदशा का प्रधान कारण राजनीतिक समझते हुए भी उस दुखदशा में उध्दार के लिए कवि लोग दयामय भगवान को ही पुकारते मिलते हैं। कहीं कहीं उद्योग धांधाों को न बढ़ाने, आलस्य में पड़े रहने और देश की बनी वस्तुओं का व्यवहार न करने के लिए वे देशवासियों को भी कोसते पाए जाते हैं। सरकार पर रोष या असंतोष की व्यंजना उनमें नहीं मिलती। कांग्रेस की प्रतिष्ठा होने के उपरांत भी बहुत दिनों तक देशभक्ति की वाणी में विशेष बल और वेग न दिखाई पड़ा। बात यह थी कि राजनीति की लंबी चौड़ी चर्चा साल भर में एक बार धूमधाम के साथ थोड़े से शिक्षित बड़े आदमियों के बीच हो जाया करती थी जिसका कोई स्थायी और क्रियोत्पादक प्रभाव नहीं देखने में आता था। अत: द्विवेदीकाल की देशभक्ति संबंधी रचनाओं में शासनपद्ध ति के प्रति असंतोष तो व्यंजित होता था पर कर्म में तत्पर कराने का, आत्मत्याग करनेवाला जोश और उत्साह न था। आंदोलन भी कड़ी याचना के आगे नहीं बढ़े थे।

तृतीय उत्थान में आकर परिस्थिति बहुत बदल गई। आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण किया और गाँव गाँव में राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता के विरोध की भावना जगाई गई। सरकार से कुछ माँगने के स्थान पर अब कवियों की वाणी देशवासियों को ही 'स्वतंत्रता देवी की वेदी पर बलिदान' होने को प्रोत्साहित करने लगी। अब जो आंदोलन चले वे सामान्य जनसमुदायों को भी साथ लेकर चले। इससे उनके भीतर अधिक आवेश और बल का संचार हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि आंदोलन संसार के और भागों में चलनेवाले आंदोलनों के मेल में लाए गए, जिससे ये क्षोभ की एक सार्वभौम धारा की शाखाओं से प्रतीत हुए। वर्तमान सभ्यता और लोक की घोर आर्थिक विषमता से जो असंतोष का ऊँचा स्वर पच्छिम में उठा उसकी गूँज यहाँ भी पहुँची। दूसरे देशों का धान खींचने के लिए योरप में महायंत्राप्रवर्तन का जो क्रम चला उससे पूँजी लगाने वाले थोड़े से लोगों के पास तो अपार धानराशि इकट्ठी होने लगी पर अधिकांश श्रमजीवी जनता के लिए भोजन, वस्त्र मिलना भी कठिन हो गया। अत: एक ओर तो योरप में मशीन की सभ्यता के विरुद्ध टालस्टाय की धर्मबुद्धि जगानेवाली वाणी सुनाई पड़ी जिसका भारतीय अनुवाद गाँधाीजी ने किया; दूसरी ओर इस घोर आर्थिक विषमता की ओर प्रतिक्रिया के रूप में साम्यवाद और समाजवाद नामक सिध्दांत चले जिन्होंने रूस में अत्यंत उग्र रूप धारण करके भारी उलटफेर कर दिया।

अब संसार के प्राय: सारे सभ्य भाग एक दूसरे के लिए खुले हुए हैं। इससे एक भूखंड में उठी हुई हवाएँ दूसरे भूखंड में शिक्षित वर्गों तक तो अवश्य ही पहुँच जाती हैं। यदि उनका सामंजस्य दूसरे भूखंड की परिस्थिति के साथ हो जाता है तो उस परिस्थिति के अनुरूप शक्तिशाली आंदोलन चल पड़ते हैं। इसी नियम के अनुसार शोषक साम्राज्यवाद के विरुद्ध राजनीतिक आंदोलन के अतिरिक्त यहाँ भी किसान आंदोलन, मजदूर आंदोलन, अछूत आंदोलन इत्यादि कई आंदोलन एक विराट् परिवर्तनवाद के नाना व्यावहारिक अंगों के रूप में चले। श्री रामधाारीसिंह 'दिनकर', बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', माखनलाल चतुर्वेदी आदि कई कवियों की वाणी द्वारा ये भिन्न भिन्न प्रकार के आंदोलन प्रतिध्वनित हुए। ऐसे समय में कुछ ऐसे भी आंदोलन दूसरे देशों की देखादेखी खड़े होते हैं जिनकी नौबत वास्तव में नहीं आई रहती। योरप में जब देश बड़े बड़े कल कारखानों से भर गए हैं और जनता का बहुत सा भाग उसमें लग गया है तब मजदूर आंदोलन की नौबत आई है। यहाँ अभी कल कारखाने केवल चल खड़े हुए हैं और उनमें काम करने वाले थोड़े से मजदूरों की दशा खेत में काम करने वाले करोड़ों अच्छे अच्छे किसानों की दशा से कहीं अच्छी है। पर मजदूर आंदोलन साथ लग गया। जो कुछ हो, इन आंदोलनों का तीव्र स्वर हमारी काव्यवाणी में सम्मिलित हुआ।

जीवन के कई क्षेत्रों में जब एक साथ परिवर्तन के लिए पुकार सुनाई पड़ती है तब परिवर्तन एक 'वाद' का व्यापक रूप धारण करता है और बहुतों के लिए सब क्षेत्रों में स्वत: एक चरम साधय बन जाता है। 'क्रांति' के नाम से परिवर्तन की प्रबल कामना हमारे हिन्दी काव्य क्षेत्र में प्रलय की पूरी पदावली के साथ व्यक्त की गई। इस कामना के साथ कहीं कहीं प्राचीन के स्थान पर नवीन के दर्शन की उत्कंठा भी प्रकट हुई। सब बातों में परिवर्तन ही परिवर्तन की यह कामना कहाँ तक वर्तमान परिस्थिति के स्वंतत्रा पर्यालोचन का परिणाम है और कहाँ तक केवल अनुकृत है, नहीं कहा जा सकता है। इतना अवश्य दिखाई पड़ता है कि इस परिवर्तनवाद के प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक हो जाने से जगत और जीवन के स्वरूप की यह अनुभूति ऐसे कवियों में कम जग पाएगी जिसकी व्यंजना काव्य को दीर्घायु प्रदान करती है।

यह तो हुई काल के प्रभाव की बात। थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि चली आती हुई काव्यपरंपरा की शैली से अतृप्ति या असंतोष के कारण परिवर्तन की कामना कहाँ तक जगी और उसकी अभिव्यक्ति किन किन रूपों में हुई। भक्तिकाल और रीतिकाल की चली आती हुई परंपरा के अंत में किस प्रकार भारतेंदुमंडल के प्रभाव से देशप्रेम और जातिगौरव की भावना को लेकर एक नूतन परंपरा की प्रतिष्ठा हुई, इसका उल्लेख हो चुका है। द्वितीय उत्थान में काव्य की नूतन परंपरा का अनेक विषयस्पर्शी प्रसार अवश्य हुआ पर द्विवेदीजी के प्रभाव से एक ओर उसमें भाषा की सफाई आई, दूसरी ओर उसका स्वरूप गद्यवत, रूखा, इतिवृत्तात्मक और अधिकतर बाह्यार्थ निरूपक हो गया। अत: इस तृतीय उत्थान में जो प्रतिवर्तन हुआ और पीछे 'छायावाद' कहलाया वह उसी द्वितीय उत्थान की कविता के विरुद्ध कहा जा सकता है। उसका प्रधान लक्ष्य काव्यशैली की ओर था, वस्तुविधान की ओर नहीं। अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया। समन्वित विशाल भावनाओं को लेकर चलने की ओर ध्यान न रहा।

द्वितीय उत्थान की कविता में काव्य का स्वरूप खड़ा करनेवाली दोनों बातों की कमी दिखाई पड़ती थी, कल्पना का रंग भी बहुत कम या फीका रहता था और हृदय का वेग भी खूब खुलकर नहीं व्यंजित होता था। इन बातों की कमी परंपरागत ब्रजभाषा काव्य का आनंद लेनेवालों को भी मालूम होती थी और बँग्ला या अंग्रेजी कविता का परिचय करनेवालों को भी। अत: खड़ी बोली की कविता में पदलालित्य, कल्पना की उड़ान, भाव की वेगवती व्यंजना, वेदना की विवृत्ति, शब्द प्रयोग की विचित्रता इत्यादि अनेक बातें देखने की आकांक्षा बढ़ती गई।

सुधार चाहने वालों में कुछ लोग नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त खड़ी बोली की कविता को ब्रजभाषा काव्य की सी ललित पदावली तथा रसात्मकता और मार्मिकता से समन्वित देखना चाहते थे। जो अंग्रेजी या अंग्रेजी के ढंग पर चली हुई बँग्ला की कविताओं से प्रभावित थे वे कुछ लाक्षणिक वैचित्रय, व्यंजक चित्रविन्यास और रुचिर अन्योक्तियाँ देखना चाहते थे। श्री पारसनाथ सिंह के किए हुए बँग्ला कविताओं के हिन्दी अनुवाद 'सरस्वती' आदि पत्रिकाओं में संवत् 1967 (सन् 1910) से ही निकलने लगे थे। ग्रे, वड्र्सवर्थ आदि अंग्रेजी कवियों की रचनाओं के कुछ अनुवाद भी (जैसे जीतन सिंह द्वारा अनूदित वड्र्सवर्थ का 'कोकिल') निकले। अत: खड़ी बोली की कविता जिस रूप में चल रही थी उससे संतुष्ट न रहकर द्वितीय उत्थान के समाप्त होने से कुछ पहले ही कई कवि खड़ी बोली काव्य को कल्पना का नया रूप रंग देने और उसे अधिक अंतर्भाव व्यंजक बनाने में प्रवृत्त हुए जिनमें प्रधान थे सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधार पांडेय और बदरीनाथ भट्ट। कुछ अंग्रेजी ढर्रा लिए हुए जिस प्रकार की फुटकल कविताएँ और प्रगीत मुक्तक (लिरिक्स) बँग्ला में निकल रहे थे, उनके प्रभाव से कुछ विशृंखल वस्तुविन्यास और अनूठे शीर्षकों के साथ चित्रमयी, कोमल और व्यंजक भाषा में इनकी नए ढंग की रचनाएँ संवत्1970-71 से ही निकलने लगी थीं जिनमें से कुछ के भीतर रहस्य भावना भी रहतीथी।

1. मैथिलीशरण गुप्त , गुप्तजी की 'नक्षत्रानिपात' (सन् 1914), अनुरोध (सन्1915), पुष्पांजलि (सन् 1917), स्वयं आगत (सन् 1918) इत्यादि कविताएँ ध्यान देने योग्य हैं। 'पुष्पांजलि' और 'स्वयं आगत' की कुछ पंक्तियाँ आगे देखिए ,

(क) मेरे ऑंगन का एक फूल।

सौभाग्य भाव से मिला हुआ,

श्वासोच्छ्वासन से हिला हुआ,

संसार विटप से खिला हुआ,

झड़ पड़ा अचानक झूल झूल।

(ख) तेरे घर के द्वार बहुत हैं किससे होकर आऊँ मैं?

सब द्वारों पर भीड़ बड़ी है कैसे भीतर जाऊँ मैं!

इसी प्रकार गुप्तजी की और भी बहुत-सी गीतात्मक रचनाएँ हैं, जैसे ,

(ग) निकल रही है उर से आह,

ताक रहे सब तेरी राह।

चातक खड़ा चोंच खोले है, सम्पुट खोले सीप खड़ी,

मैं अपना घट लिये खड़ा हूँ, अपनी अपनी हमें पड़ी।

(घ) प्यारे! तेरे कहने से जो यहाँ अचानक मैं आया,

दीप्ति बढ़ी दीपों की सहसा, मैंने भी ली साँस कहा।

सो जाने के लिए जगत का यह प्रकाश है जाग रहा,

किंतु उसी बुझते प्रकाश में डूब उठा मैं और बहा।

निरुद्देश नख रेखाओं में देखी तेरी मूर्ति; अहा

2. मुकुटधर पांडेय , गुप्त जी तो, जैसा पहले कहा जा चुका है, किसी विशेष पद्धति या 'वाद' में न बँधाकर कई पद्धतियों पर अब तक चले आ रहे हैं। पर मुकुटधार जी बराबर नूतन पद्धति ही पर चले। उनकी इस ढंग की प्रारंभिक रचनाओं में 'ऑंसू', 'उद्गार' इत्यादि ध्यान देने योग्य हैं। कुछ नमूने देखिए ,

(क) हुआ प्रकाश तमोमय मग में,

मिला मुझे तू तत्क्षण जग में,

दंपति के मधुमय विलास में,

शिशु के स्वप्नोत्पन्न हास में,

वन्य कुसुम के शुचि सुवास में,

था तव क्रीड़ा स्थान

(1917)

(ख) मेरे जीवन की लघु तरणी,

ऑंखों के पानी में तर जा।

मेरे उर का छिपा खजाना,

अहंकार का भाव पुराना,

बना आज तू मुझे दिवाना,

तप्त श्वेत बूँदों में ढर जा

(1917)


(ग) जब संधया को हट जावेगी भीड़ महान्,

तब जाकर मैं तुम्हें सुनाऊँगा निज गान।

शून्य कक्ष के अथवा कोने में ही एक,

बैठ तुम्हारा करूँ वहाँ नीरव अभिषेक

(1910)

3. पं. बदरीनाथ भट्ट , भट्टजी भी सन् 1911 के पहले से भी भावव्यंजक और अनूठे गीत रचते आ रहे थे। दो पंक्तियाँ देखिए ,

दे रहा दीपक जलकर फूल,

रोपी उज्ज्वल प्रभा पताका अंधकार हिय हूल।

4. श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी , बख्शीजी के भी इस ढंग के कुछ गीत सन् 1915-16 के आसपास मिलेंगे।

ये कवि जगत् और जीवन के विस्तृत क्षेत्र के बीच नई कविता का संचार चाहते थे। ये प्रकृति के साधारण, असाधारण, सब रूपों पर प्रेमदृष्टि डालकर, उसके रहस्यभरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को अधिक चित्रमय, सजीव और मार्मिक रूप देकर कविता का एक अकृत्रिम, स्वच्छंद मार्ग निकाल रहे थे। भक्तिक्षेत्र में उपास्य की एकदेशीय या धर्मविशेष में प्रतिष्ठित भावना के स्थान पर सार्वभौम भावना की ओर बढ़ रहे थे जिसमें सुंदर रहयात्मक संकेत भी रहते थे। अत: हिन्दी कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को , विशेषत: श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री मुकुटधार पांडेय को , समझना चाहिए। इस दृष्टि से छायावाद का रूप रंग खड़ा करने वाले कवियों के संबंध में अंग्रेजी या बँग्ला की समीक्षाओं से उठती हुई इस प्रकार की पदावली का कोई अर्थ नहीं कि 'इन कवियों के मन में एक ऑंधाी उठ रही थी जिसमें आंदोलित होते हुए वे उड़े जा रहे थे; एक नूतन वेदना की छटपटाहट थी जिसमें सुख की मीठी अनुभूति भी लुकी हुई थी; रूढ़ियों के भार से दबी हुई युग की आत्मा अपनी अभिव्यक्ति के लिए हाथ पैर मार रही थी।' न कोई ऑंधाी थी, न तूफान, न कोई नई कसक थी, न वेदना, न प्राप्त युग की नाना परिस्थितियों का हृदय पर कोई नया आघात था, न उसका आहत नाद। इन बातों का कुछ अर्थ तब हो सकता था जब काव्य का प्रवाह ऐसी भूमियों की ओर मुड़ता जिनपर ध्यान न दिया गया रहा होता। छायावाद के पहले नए नए मार्मिक विषयों की ओर हिन्दी कविता प्रवृत्त होती आ रही थी। कसर थी तो आवश्यक और व्यंजक शैली की, कल्पना और संवेदना के अधिक योग की। तात्पर्य यह कि छायावाद जिस आकांक्षा का परिणाम था उसका लक्ष्य केवल अभिव्यंजना की रोचक प्रणाली का विकास था जो धीरे धीरे अपने स्वतंत्र ढर्रे पर श्री मैथिलीशरण गुप्त, श्री मुकुटधार पांडेय आदि के द्वारा हो रहा था।

गुप्तजी और मुकुटधार पांडेय आदि के द्वारा स्वच्छंद नूतन धारा चली ही थी कि श्री रवींद्रनाथ ठाकुर की उन कविताओं की धूम हुई जो अधिकतर पाश्चात्य ढाँचे का आध्यात्मिक रहस्यवाद लेकर चली थी। परंतु ईसाई संतों के छायाभास (फैंटसमाटा) तथा योरोपीय काव्यक्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अनुकरण पर रची जाने के कारण बँग्ला में ऐसी कविताएँ 'छायावाद' कही जाने लगी थीं। यह 'वाद' क्या प्रकट हुआ, एक बने बनाए रास्ते का दरवाजा सा खुल पड़ा और हिन्दी के कुछ नए कवि उधर एकबारगी झुक पड़े। यह अपना क्रमश: बनाया हुआ रास्ता नहीं था। इसका दूसरे साहित्यक्षेत्र में प्रकट होना, कई कवियों का इसपर एक साथ चल पड़ना और कुछ दिनों तक इसके भीतर अंग्रेजी और बँग्ला की पदावली का जगह जगह ज्यों का त्यों अनुवाद रखा जाना, ये बातें मार्ग की स्वतंत्र उद्भावना नहीं सूचित करतीं।

'छायावाद' नाम चल पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्रय, वस्तुविन्यास की विशृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साधय मानकर चले। शैली की इन विशेषताओं की दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रही। विभावपक्ष या तो शून्य अथवा अनिर्दिष्ट रह गया। इस प्रकार प्रसारणोन्मुख काव्यक्षेत्र बहुत कुछ संकुचित हो गया। असीम और अज्ञात प्रियतम के प्रति अत्यंत चित्रमयी भाषा में अनेक प्रकार के प्रेमोद्गारों तक ही काव्य की गतिविधि प्राय: बँधा गई। हृत्तांत्राी की झंकार, नीरव संदेश, अभिसार, अनंत प्रतीक्षा, प्रियतम का दबे पाँव आना, ऑंखमिचौली, मद में झूमना, विभोर होना इत्यादि के साथ साथ शराब, प्याला, साकी आदि सूफी कवियों के पुराने सामान भी इकट्ठे किए गए। कुछ हेर फेर के साथ वही बँधी पदावली, वेदना का वही प्रकांड प्रदर्शन, कुछ विशृंखलता के साथ प्राय: सब कविताओं में मिलने लगा।

अज्ञेय और अव्यक्त को अज्ञेय और अव्यक्त ही रखकर कामवासना के शब्दों में प्रेमव्यंजना भारतीय काव्यधारा में कभी नहीं चली, यह स्पष्ट बात 'हमारे यहाँ यह भी था, वह भी था', की प्रवृत्तिवालों को अच्छी नहीं लगती। इससे खिन्न होकर वे उपनिषद् से लेकर तंत्र और योगमार्ग तक की दौड़ लगाते हैं। उपनिषद् में आए हुए आत्मा के पूर्ण आनंदस्वरूप के निर्देश, ब्रह्मानंद की अपरिमेयता को समझाने के लिए स्त्री पुरुष संबंधवाले दृष्टांत या उपमाएँ, योग के सहòदल कमल आदि की भावना को बीच बीच में वे बड़े संतोष के साथ उध्दृत करते हैं। यह सब करने के पहले उन्हें समझना चाहिए कि जो बात ऊपर कही गई है उसका तात्पर्य क्या है? यह कौन कहता है कि मत मतांतरों की साधना के क्षेत्र में रहस्यमार्ग नहीं चले? योग रहस्यमार्ग है; तंत्र रहस्यमार्ग है; रसायन भी रहस्यमार्ग है। पर ये सब साधनात्मक हैं; प्रकृत भावभूमि या काव्यभूमि के भीतर चले हुए मार्ग नहीं। भारतीय परंपरा का कोई कवि मणिपूर, अनाहत आदि के चक्रों को लेकर तरह तरह के रंगमहल बनाने में प्रवृत्त नहीं हुआ।

संहिताओं में तो अनेक प्रकार की बातों का संग्रह है। उपनिषदों में ब्रह्म और जगत् आत्मा और परमात्मा के संबंध में कई प्रकार के मत हैं। वे काव्यग्रंथ नहीं हैं। उनमें इधर उधर काव्य का जो स्वरूप मिलता है वह ऐतिह्य, कर्मकांड, दार्शनिक चिंतन, सांप्रदायिक गुह्य साधना, मंत्रतंत्र, जादू टोना इत्यादि बहुत सी बातों में उलझा हुआ है। विशुद्ध काव्य का निखरा हुआ स्वरूप पीछे अलग हुआ। रामायण का आदिकाव्य कहलाना साफ यही सूचित करता है। संहिताओं और उपनिषदों को कभी किसी ने काव्य नहीं कहा। अब सीधा सवाल यह रह गया कि क्या वाल्मीकि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक कोई एक भी ऐसा कवि बताया जा सकता है जिसने अज्ञेय और अव्यक्त को अज्ञेय और अव्यक्त ही रखकर प्रियतम बनाया हो और उसके प्रति कामुकता के शब्दों में प्रेमव्यंजना की हो। कबीरदास किस प्रकार हमारे यहाँ की ज्ञानवाद और सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद को लेकर चले, यह हम पहले दिखा आए हैं। 2 उसी भावात्मक रहस्यपरंपरा का यह नूतन भावभंगी और लाक्षणिकता के साथ आविर्भाव है। बहुत रमणीय है, कुछ लोगों को अत्यंत रुचिकर है, यह और बात है।

प्रणयवासना का यह उद्गार आध्यात्मिक पर्दे में ही छिपा न रह सका। हृदय की सारी कामवासनाएँ, इंद्रियों के सुखविलास की मधुर और रमणीय सामग्री के बीच एक बँधी हुई रूढ़ि पर व्यक्त होने लगी। इस प्रकार रहस्यवाद से संबंध न रखने-वाली कविताएँ भी छायावाद ही कही जाने लगीं। अत: 'छायावाद' शब्द का प्रयोग रहस्यवाद तक ही न रहकर काव्यशैली के संबंध में भी प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अर्थ में होने लगा।

छायावाद की इस धारा के आने के साथ ही साथ अनेक लेखक नवयुग के प्रतिनिधि बनकर योरप के साहित्यक्षेत्र में प्रवर्तित काव्य और कला संबंधी अनेक नए पुराने सिध्दांत सामने लाने लगे। कुछ दिन 'कलावाद' की धूम रही और कहा जाता रहा 'कला का उद्देश्य कला ही है'। इस जीवन के साथ काव्य का कोई संबंध ही नहीं, उसकी दुनिया ही और है। किसी काव्य के मूल्य का निर्धारण जीवन की किसी वस्तु के मूल्य के रूप में नहीं हो सकता। काव्य तो एक लोकातीत वस्तु है। कवि एक प्रकार का रहस्यदर्शी (सीयर) या पैगंबर है। 3 इसी प्रकार क्रोचे के अभिव्यंजनावाद को लेकर बताया गया कि काव्य में वस्तु या वर्ण्य विषयक कुछ नहीं; जो कुछ है वह अभिव्यंजना के ढंग का अनूठापन है। 4 इन दोनों वादों के अनुसार काव्य का लक्ष्य उसी प्रकार सौंदर्य की सृष्टि या योजना कहा गया जिस प्रकार बेलबूटे या नक्काशी का। कविकल्पना को प्रत्यक्षजगत से अलग एक स्मरणीय स्वप्न घोषित किया जाने लगा और कवि सौंदर्य भावना के मद में झूमनेवाला एक लोकातीत जीव। कला और काव्य की प्रेरणा का संबंध स्वप्न और कामवासना से बतानेवाला मत भी इधर उधर उध्दृत हुआ। सारांश यह कि इस प्रकार के अनेक वाद प्रवाद पत्र पत्रिकाओं में निकलते रहे।

छायावाद की कविता की पहली दौड़ तो बंगभाषा की रहस्यात्मक कविताओं के सजीले और कोमल मार्ग पर हुई। पर उन कविताओं की बहुत कुछ गतिविधि अंग्रेजी वाक्यखंडों के अनुवाद द्वारा संघटित देख, अंग्रेजी काव्यों से परिचित हिन्दी कवि सीधे अंग्रेजी से ही तरह तरह के लाक्षणिक प्रयोग लेकर उनके ज्यों के त्यों अनुवाद जगह जगह अपनी रचनाओं में जड़ने लगे। 'कनक प्रभात', 'विचारों में बच्चों की साँस', 'स्वर्ण समय', 'प्रथम मधुबाल', 'तारिकाओं की तान', 'स्वप्निल कांति' ऐसे प्रयोग अजायबघर के जानवरों की तरह उनकी रचनाओं के भीतर इधर उधर मिलने लगे। निरालाजी की शैली कुछ अलग रही। उसमें लाक्षणिक वैचित्रय का उतना आग्रह नहीं पाया जाता जितना पदावली की तड़क भड़क और पूरे वाक्य के वैलक्षण्य का। केवल भाषा के प्रयोगवैचित्रय तक ही बात न रही। ऊपर जिन अनेक योरोपीय वादों और प्रवादों का उल्लेख हुआ है उन सबका प्रभाव भी छायावाद कही जानेवाली कविताओं के स्वरूप पर कुछ न कुछ पड़ता रहा।

कलावाद और अभिव्यंजनावाद का पहला प्रभाव यह दिखाई पड़ा कि काव्य में भावानुभूति के स्थान पर कल्पना का विधान ही प्रधान समझा जाने लगा और कल्पना अधिकतर अप्रस्तुतों की योजना करने तथा लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और विचित्रता लाने में ही प्रवृत्त हुई। प्रकृति के नाना रूप और व्यापार इसी अप्रस्तुत योजना के काम में लाए गए। सीधे उनके मर्म की ओर हृदय प्रवृत्त न दिखाई पड़ा। पंतजी अलबत्ता प्रकृति के कमनीय रूपों की ओर कुछ रुककर हृदय रमाते पाए गए।

दूसरा प्रभाव यह देखने में आया कि अभिव्यंजना प्रणाली या शैली की विचित्रता ही सब कुछ समझी गई। नाना अर्थभूमियों पर काव्य का प्रसार रुक सा गया। प्रेमक्षेत्र (कहीं आध्यात्मिक, कहीं लौकिक) के भीतर ही कल्पना की चित्रविधाायिनी क्रीड़ा के साथ प्रकांड वेदना, औत्सुक्य, उन्माद आदि की व्यंजना तथा क्रीड़ा से दौड़ी हुई प्रिय के कपोलों पर की ललाई, हावभाव, मधुस्राव, अश्रुप्रवाह इत्यादि के रँगीले वर्णन करके ही अनेक कवि अब तक पूर्ण तृप्त दिखाई देते हैं। जगत और जीवन के नाना मार्मिक पक्षों की ओर उनकी दृष्टि नहीं है। बहुत से नए रसिक प्रस्वेद, गंधायुक्त, चिपचिपाती और भिनभिनाती भाषा को ही सब कुछ समझने लगे हैं। लक्षणाशक्ति के सहारे अभिव्यंजना प्रणाली या काव्यशैली का अवश्य बहुत अच्छा विकास हुआ है पर अभी तक कुछ बँधो हुए शब्दों की रूढ़ि चली चल रही है। रीतिकाल की श्रृंगारी कविता की भरमार की तो इतनी निंदा की गई। पर वही श्रृंगारी कविता , कभी रहस्य का पर्दा डालकर, कभी खुले मैदान , अपनी कुछ अदा बदलकर फिर प्राय: सारा काव्यक्षेत्र छेंककर चल रही है।

'कलावाद' के प्रसंग में बार बार आनेवाले 'सौंदर्य' शब्द के कारण बहुत से कवि बेचारी स्वर्ग की अप्सराओं को पर लगाकर कोहकाफ की परियों या बिहिश्त के फरिश्तों की तरह उड़ाते हैं, सौंदर्य चयन के लिए इंद्रधानुषी बादल, उषा, विकच कलिका, पराग, सौरभ, स्मित आनन, अधारपल्लव इत्यादि बहुत ही सुंदर और मधुर सामग्री प्रत्येक कविता में जुटाना आवश्यक समझते हैं। स्त्री के नाना अंगों के आरोप के बिना वे प्रकृति के किसी दृश्य के सौंदर्य की भावना ही नहीं कर सकते। 'कला कला' की पुकार के कारण योरप में गीत मुक्तकों (लिरिक्स) का ही अधिक चलन देखकर यहाँ भी उसी का जमाना यह बताकर कहा जाने लगा कि अब ऐसी लंबी कविताएँ पढ़ने की किसी को फुरसत कहाँ जिनमें कुछ इतिवृत्त भी मिला रहता हो। अब तो विशुद्ध काव्य की सामग्री जुटाकर सामने रख देनी चाहिए जो छोटे छोटे प्रगीत मुक्तकों में ही संभव है। इस प्रकार काव्य में जीवन को अनेक परिस्थितियों की ओर ले जानेवाले प्रसंगों या आख्यानों की उद्भावना बंद सी हो गई।

खैरियत यह हुई कि कलावाद की उस रसवर्जिनी सीमा तक लोग नहीं बढ़े जहाँ यह कहा जाता है कि रसानुभूति के रूप में किसी प्रकार का भाव जगाना तो वक्ताओं का काम है, कलाकार का काम तो केवल कल्पना द्वारा बेलबूटे या बारात की फुलवारी की तरह की शब्दमयी रचना खड़ी करके सौंदर्य की अनुभूति उत्पन्न कराना है। हृदय और वेदना का पक्ष छोड़ा नहीं गया है, इससे काव्य के प्रकृतस्वरूप के तिरोभाव की आशंका नहीं है। पर छायावाद और कलावाद के सहसा आ धामकने से वर्तमान काव्य का बहुत सा अंश एक बँधी हुई लीक के भीतर सिमट गया, नाना अर्थभूमियों पर न जाने पाया, यह अब अवश्य कहा जाएगा।

छायावाद की शाखा के भीतर धीरे धीरे काव्यशैली का बहुत अच्छा विकास हुआ, इसमें संदेह नहीं। उसमें भावावेश की आकुल व्यंजना, लाक्षणिक वैचित्रय, मूर्ति प्रत्यक्षीकरण, भाषा की वक्रता, विरोध चमत्कार, कोमल पदविन्यास इत्यादि काव्य का स्वरूप संघटित करनेवाली प्रचुर सामग्री दिखाई पड़ी। भाषा के परिमार्जनकाल में किस प्रकार खड़ी बोली की कविता के रूखेसूखे रूप से ऊबकर कुछ कवि उसमें सरसता लाने के चिद्द दिखा रहे थे, यह कहा जा चुका है। 5 अत: आध्यात्मिक रहस्यवाद का नूतन रूप हिन्दी में न आता तो भी शैली और अभिव्यंजना पद्ध ति की उक्त विशेषताएँ क्रमश: स्फुरित होतीं और उनका स्वतंत्र विकास होता। हमारी काव्यभाषा में लाक्षण्0श्निाकता का कैसा अनूठा आभास घनानंद की रचनाओं में मिलता है, यह हम दिखा चुकेहैं। 6

छायावाद जहाँ तक आध्यात्मिक प्रेम लेकर चला है वहाँ तक तो रहस्यवाद के ही अंतर्गत रहा है। उसके आगे प्रतीकवाद या चित्रभाषावाद (सिंबालिज्म) नाम की काव्यशैली के रूप में गृहीत होकर भी वह अधिकतर प्रेमगान ही करता रहा है। हर्ष की बात है कि अब कई कवि उस संकीर्ण क्षेत्र से बाहर निकलकर जगत् और जीवन के और और मार्मिक पक्षों की ओर भी बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। इसी के साथ काव्यशैली में प्रतिक्रिया के प्रदर्शन व नएपन की नुमाइश का शौक भी घट रहा है। अब अपनी शाखा की विशिष्टता को विभिन्नता की हद पर ले जाकर दिखाने की प्रवृत्ति का वेग क्रमश: कम तथा रचनाओं को सुव्यवस्थित और अर्थगर्भित रूप देने की रुचि क्रमश: अधिक होती दिखाई पड़ती है।

स्वर्गीय जयशंकर प्रसादजी अधिकतर तो विरहवेदना के नाना सजीले शब्दपथ निकालते तथा लौकिक और अलौकिक प्रणय मधुगान ही करते रहे, पर इधर 'लहर' में कुछ ऐतिहासिक वृत्त लेकर छायावाद की चित्रमयी शैली को विस्तृत अर्थभूमि पर ले जाने का प्रयास भी उन्होंने किया और जगत के वर्तमान दुखद्वेषपूर्ण मानव जीवन का अनुभव करके इस 'जले जगत के वृंदावन बन जाने' की आशा भी प्रकट की तथा 'जीवन के प्रभात' को भी जगाया। इसी प्रकार श्री सुमित्रानंदन पंत ने 'गुंजन' में सौंदर्य चयन से आगे बढ़ जीवन के नित्य स्वरूप पर भी दृष्टि डाली है; सुख दुख दोनों के साथ अपने हृदय का सामंजस्य किया है और जीवन की गति में भी लय' का अनुभव किया है। बहुत अच्छा होता यदि पंतजी उसी प्रकार जीवन कीअनेक परिस्थितियों को नित्य रूप में लेकर अपनी सुंदर, चित्रमयी प्रतिभा को अग्रसर करते जिस प्रकार उन्होंने 'गुंजन' और 'युगांत' में किया है। 'युगवाणी' में उनकी वाणी बहुत कुछ वर्तमान आंदोलनों की प्रतिध्वनि के रूप में परिणत होती दिखाई देती है।

निरालाजी की रचना का क्षेत्र तो पहले से ही कुछ विस्तृत रहा। उन्होंने जिस प्रकार 'तुम और मैं' में उस रहस्य 'नाद वेग ओंकार सार' का गान किया, 'जूही की कली' और 'शेफालिका' में उन्मद प्रणय चेष्टाओं के पुष्पचित्र खड़े किए उसी प्रकार 'जागरण वीणा' बजाई; इस जगत् के बीच विधवा की विधुर और करुण मूर्ति खड़ी की और इधर आकर 'इलाहाबाद के पथ पर' एक पत्थर तोड़ती दीन स्त्री के माथे पर के श्रमसीकर दिखाए। सारांश यह कि अब शैली के वैलक्षण्य द्वारा प्रतिक्रिया प्रदर्शन का वेग कम हो जाने से अर्थभूमि के रमणीय प्रसार के चिद्द भी छायावादी कहे जानेवाले कवियों की रचनाओं में दिखाई पड़ रहे हैं।

इधर हमारे साहित्य क्षेत्र की प्रवृत्तियों का परिचालन बहुत कुछ पच्छिम से होता है। कला में 'व्यक्तित्व' की चर्चा खूब फैलने से कुछ कवि लोक के साथ अपना मेल न मिलने की अनुभूति की बड़ी लंबी चौड़ी व्यंजना, कुछ मार्मिकता और कुछ फक्कड़पन के साथ करने लगे हैं। भावक्षेत्र में असामंजस्य की इस अनुभूति का भी एक स्थान अवश्य है, पर यह कोई व्यापक या स्थायी मनोवृत्ति नहीं। हमारा भारतीय काव्य उस भूमि की ओर प्रवृत्त रहा है जहाँ जाकर प्राय: सब हृदयों का मेल हो जाता है। वह सामंजस्य को लेकर अनेकता में एकता को लेकर , चलता रहा है, असामंजस्य को लेकर नहीं।

उपर्युक्त परिवर्तनवाद और छायावाद को लेकर चलनेवाली कविताओं के साथ साथ दूसरी धाराओं की कविताएँ भी विकसित होती हुई चल रही हैं। द्विवेदीकाल में प्रवर्तित विविधा, वस्तुभूमियों पर प्रसन्न प्रवाह के साथ चलनेवाली काव्यधारा सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, ठाकुर गोपालशरण सिंह, अनूप शर्मा, श्यामनारायण पांडेय, पुरोहित प्रतापनारायण, तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' इत्यादि अनेक कवियों की वाणी के प्रसाद से विविधा प्रसंग, आख्यान और विषय लेकर निखरती तथा प्रौढ़ और प्रगल्भ होती चली आ रही है। उसकी अभिव्यंजना प्रणाली में अब अच्छी सरसता और सजीवता तथा अपेक्षित वक्रता का भी विकास होता चल रहा है।

यद्यपि कई वादों के कूद पड़ने और प्रेमगान की परिपाटी (लव लिरिक्स) का फैशन चल पड़ने के कारण अर्थभूमि का बहुत कुछ संकोच हो गया और हमारे वर्तमान काव्य का बहुत सा भाग कुछ रूढ़ियों को लेकर एक बँधी लीक पर बहुत दिनों तक चला, फिर भी स्वाभाविक स्वच्छंदता (ट्रई रोमांटिसिज्म) के उस नूतन पथ को ग्रहण करके कई कवि चले जिनका उल्लेख पहले हो चुका है। पं. रामनरेश त्रिपाठी के संबंध में द्वितीय उत्थान के भीतर कहा जा चुका है। तृतीय उत्थान के आरंभ में मुकुटधार पांडेय की रचनाएँ छायावाद के पहले किस प्रकार नूतन, स्वच्छंद मार्ग निकाल रही थीं यह भी हम दिखा आए हैं। मुकुटधारजी की रचनाएँ नरेतर प्राणियों की गतिविधि का भी रागरहस्यपूर्ण परिचय देती हुई स्वाभाविक स्वच्छंदता की ओर झुकती मिलेंगी। प्रकृति प्रांगण के चर अचर प्राणियों का रागपूर्ण परिचय उनकी गतिविधि पर आत्मीयताव्यंजक दृष्टिपात, सुख दुख में उनके साहचर्य की भावना, ये सब बातें स्वाभाविक स्वच्छंदता के पथचिद्द हैं। सर्वश्री सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, ठाकुर गुरुभक्त सिंह, उदयशंकर भट्ट इत्यादि कई कवि विस्तृत अर्थभूमि पर स्वाभाविक स्वच्छंदता का मर्मपथ ग्रहण करके चल रहे हैं। वे न तो केवल नवीनता के प्रदर्शन के लिए पुराने छंदों का तिरस्कार करते हैं, न उन्हीं में एकबारगी बँधाकर चलते हैं। वे प्रसंग के अनुकूल परंपरागत पुराने छंदों का व्यवहार और नये ढंग के छंदों तथा चरण व्यवस्थाओं का विधान भी करते हैं। व्यंजक, चित्रविन्यास, लाक्षणिक वक्रता और मूर्तिमत्ता, सरसपदावली आदि का भी सहारा लेते हैं, पर इन्हीं बातों को सब कुछ नहीं समझते। एक छोटे से घेरे में इनके प्रदर्शनमात्र से वे संतुष्ट नहीं दिखाई देते हैं। उनकी कल्पना इस व्यक्त जगत् और जीवन की अनंत वीथियों में हृदय को साथ लेकर विचरने के लिए आकुल दिखाई देती है।

तृतीयोत्थान की प्रवृत्तियों के इस संक्षिप्त विवरण से ब्रजभाषा काव्यपरंपरा के अतिरिक्त इस समय चलनेवाली खड़ी बोली की तीन मुख्य धाराएँ स्पष्ट हुई होंगी , द्विवेदीकाल की क्रमश: विस्तृत और परिष्कृत होती हुई धारा, छायावाद कही जानेवाली धारा तथा स्वाभाविक स्वच्छंदता को लेकर चलती हुई धारा जिसके अंतर्गत राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की लालसा व्यक्त करनेवाली शाखा भी हम ले सकते हैं। ये धाराएँ वर्तमानकाल में चल रही हैं और अभी इतिहास की सामग्री नहीं बनी हैं। इसलिए इनके भीतर की कुछ कृतियों और कुछ कवियों का थोड़ा सा विवरण देकर ही हम संतोष करेंगे। इनके बीच मुख्य भेद वस्तुविधान और अभिव्यंजनकला के रूप और परिमाण में है। पर काव्य की भिन्न भिन्न धाराओं के भेद इतने निर्दिष्ट नहीं हो सकते कि एक की कोई विशेषता दूसरी में कहीं दिखाई ही न पड़े। जबकि धाराएँ साथ साथ चल रही हैं तब उनका थोड़ा बहुत प्रभाव एक दूसरे पर पड़ेगा ही। एक धारा का कवि दूसरी धारा की किसी विशेषता में भी अपनी कुछ निपुणता दिखाने की कभी कभी इच्छा कर सकता है। धाराओं का विभाग सबसे अधिक सामान्य प्रवृत्ति देखकर ही किया जा सकता है फिर भी दो चार कवि ऐसे रह जाएँगे जिनमें सब धाराओं की विशेषताएँ समान रूप से पाई जाएँगी, जिनकी रचनाओं का स्वरूप मिलाजुला होगा। कुछ विशेष प्रवृत्ति होगी भी तो व्यक्तिगत होगी।


ब्रजभाषा काव्यपरंपरा


जैसाकि द्वितीयोत्थान के अंत में कहा जा चुका है, ब्रजभाषा की काव्यपरंपरा भी चल रही है। यद्यपि खड़ी बोली का चलन हो जाने से अब ब्रजभाषा की रचनाएँ प्रकाशित बहुत कम होती हैं पर अभी देश में न जाने कितने कवि नगरों और ग्रामों में बराबर ब्रजवाणी की रसधारा बहाते चल रहे हैं। जब कहीं किसी स्थान पर कवि सम्मेलन होता है तब न जाने कितने अज्ञात कवि आकर अपनी रचनाओं से लोगों को तृप्त कर जाते हैं। रत्नाकरजी की 'उद्ध वशतक' ऐसी उत्कृष्ट रचनाएँ इस तृतीय उत्थान में ही निकली थीं। सर्गबद्ध प्रबंध काव्यों में हमारा 'बुद्ध चरित'7 संवत् 1979 में प्रकाशित हुआ जिसमें भगवान बुद्ध का लोकपावन चरित उसी परंपरागत काव्यभाषा में वर्णित है जिसमें राम कृष्ण की लीला का अब भी घर घर गान होता है। श्री वियोगीहरिजी की 'वीरसतसई' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिले बहुत दिन नहीं हुए। देवपुरस्कार से पुरस्कृत श्री दुलारे लालजी भार्गव के दोहे बिहारी के रास्ते पर चल ही रहे हैं। अयोध्या के श्री रामनाथ ज्योतिषी को 'रामचंद्रोदय' काव्य के लिए देवपुरस्कार थोड़े ही दिन हुए मिला है। मेवाड़ के श्री केसरीसिंह बारहठ का 'प्रतापचरित' वीररस का एक बहुत उत्कृष्ट काव्य है जो संवत् 1992 में प्रकाशित हुआ है। पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' की सरस कविताओं की धूम कवि-सम्मेलनों में बराबर रहा करती है। प्रसिद्ध कलाविद् रायकृष्णदासजी का 'ब्रजरज' इसी तृतीयोत्थान के भीतर प्रकाशित हुआ है। इधर श्री उमाशंकर वाजपेयी 'उमेश' जी की 'ब्रजभारती' में ब्रजभाषा बिल्कुल नई सजधाज के साथ दिखाई पड़ी है।

हम नहीं चाहते, और शायद कोई भी नहीं चाहेगा, कि ब्रजभाषा काव्य की धारा लुप्त हो जाए। उसे यदि इस काल में भी चलना है तो वर्तमान भावों को ग्रहण करने के साथ ही साथ भाषा का भी कुछ परिष्कार करना पड़ेगा। उसे चलती ब्रजभाषा के अधिक मेल में लाना होगा। अप्रचलित संस्कृत शब्दों को भी अब बिगड़े रूपों में रखने की आवश्यकता नहीं। 'बुद्ध चरित' काव्य में भाषा के संबंध में हमने इसी पद्धति का अनुसरण किया था और कोई बाधा नहीं दिखाई पड़ी थी।

द्विवेदीकाल में प्रवर्तित खड़ी बोली की काव्यधारा


इस धारा का प्रवर्तन द्वितीय उत्थान में इस बात को लेकर हुआ था कि ब्रजभाषा के स्थान पर अब प्रचलित खड़ी बोली में कविता होनी चाहिए; श्रृंगार रस के कवित्त सवैये बहुत लिखे जा चुके, अब और विषयों को लेकर तथा और छंदों में भी रचना चलनी चाहिए। खड़ी बोली को पद्यों में अच्छी तरह ढलने में जो काल लगा उसके भीतर की रचना तो बहुत कुछ इतिवृत्तात्मक रही पर इस तृतीय उत्थान में आकर यह काव्यधारा कल्पनान्वित, भावाविष्ट और अभिव्यंजनात्मक हुई। भाषा का कुछ दूर तक चलता हुआ स्निग्ध, प्रसन्न और प्रांजल प्रवाह इस धारा की सबसे बड़ी विशेषता है। खड़ी बोली वास्तव में इसी धारा के भीतर मँजी है। भाषा का मँजना वहीं संभव होता है जहाँ उसकी अपनी गतिविधि का पूरा समावेश होता है और कुछ दूर तक चलनेवाले वाक्य सफाई के साथ पद्यों में बैठते चले जाते हैं। एक संबंधसूत्र में बद्ध कई अर्थ समूहों की एक समन्वित भावना व्यक्त करने के लिए ही ऐसी भाषा अपेक्षित होती है। जहाँ एक दूसरे में असंबद्ध छोटी छोटी भावनाओं को लेकर वाग्वैशिष्टय की झलक या चलचित्र की ही छाया दिखाने की प्रवृत्ति प्रधान होगी वहाँ भाषा की समन्वयशक्ति का परिचय न मिलेगा। व्यापक समन्वय के बिना कोई ऐसा समन्वित प्रभाव भी नहीं पड़ सकता जो कुछ काल तक स्थायी रहे। स्थायी प्रभाव की ओर लक्ष्य इस काव्यधारा में बना हुआ है।

दूसरी बात जो इस धारा के भीतर मिलती है हमारे यहाँ के प्रचलित छंदों या उनके भिन्न भिन्न योगों से संघटित छंदों का व्यवहार। इन छंदों की लयों के भीतर नादसौंदर्य की हमारी रुचि निहित है। नवीनता में बट्टा लगने के डर से ही इन छंदों को छोड़ना सहृदयता से अपने को दूर बताना है। नई रंगत की कविताओं में जो पद्य या चरण रखे जाते हैं उन्हें प्राय: अलापने की जरूरत होती है। पर ठीक लय के साथ कविता पढ़ना और अलाप के साथ गाना दोनों अलग अलगहैं।

इस धारा में कल्पना और भावात्मिका वृत्ति अधार में नाचती तो नहीं मिलती है पर बोधवृत्ति द्वारा उद्धाटित भूमि पर टिककर उसकी मार्मिकता का प्रकाश करती अवश्य दिखाई पड़ती है। इससे कला का कुतूहल तो नहीं खड़ा होता, पर हृदय को रमाने वाली बात सामने आ जाती है। यह बात तो स्पष्ट है कि ज्ञान ही काव्य के संचरण के लिए रास्ता खोलता है। ज्ञान प्रसार के भीतर ही हृदयप्रसार होता है और हृदयप्रसार ही काव्य का सच्चा लक्ष्य है। अत: ज्ञान के साथ लगकर ही जब हमारा हृदय परिचालित होगा तभी काव्य की नई नई मार्मिक अर्थभूमियों की ओर वह बढ़ेगा। ज्ञान को किनारे रखकर, उसके द्वारा सामने लाए हुए जगत् और जीवन के नाना पक्षों की ओर न बढ़कर, यदि काव्य प्रवृत्त होगा तो किसी एक भाव को लेकर अभिव्यंजना के वैचित्रय प्रदर्शन में ही लगा रह जाएगा। इस दशा में काव्य का विभाव पक्ष शून्य होता जाएगा। उसकी अनेकरूपता सामने न आएगी। इस दृष्टि से देखने पर यह कहा जा सकता है कि धारा एक समीचीन पद्ध ति पर चली है। इस पद्ध ति के भीतर इधर आकर काव्यत्व का अच्छा विकास हो रहा है, यह देखकर प्रसन्नता होती है।

अब इस पद्ध ति पर चलनेवाले कुछ प्रमुख कवियों का उल्लेख किया जाताहै ,

1. ठाकुर गोपालशरण सिंह , ठाकुर साहब अनेक मार्मिक विषयों का चयन करते चले हैं। इससे इनकी रचनाओं के भीतर खड़ी बोली बराबर मँजती चली आ रही है। इन रचनाओं का आरंभ संवत् 1971 से होता है। अब तक इनकी रचनाओं के पाँच संग्रह निकल चुके हैं , माधावी, मानवी, संचिता, ज्योतिष्मती और कादंबिनी। प्रारंभिक रचनाएँ साधारण हैं, पर आगे चलकर हमें बराबर मार्मिक उद्भावना तथा अभिव्यंजना की एक विशिष्ट पद्ध ति मिलती है। इनकी छोटी छोटी रचनाओं में, जिनमें से कुछ गेय भी हैं, जीवन की अनेक दशाओं की झलक है। 'मानवी' में इन्होंने नारी को दुलहिन, देवदासी, उपेक्षिता, अभागिनी, भिखारिनी, वीरांगना इत्यादि अनेक रूपों में देखा है। 'ज्योतिष्मती' के पूर्वार्ध्द में तो असीम और अव्यक्त 'तुम' है और उत्तरार्ध्द में ससीम और व्यक्त 'मैं' संसार के बीच। इसमें प्राय: उन्हीं भावों की व्यंजना है जिनकी छायावाद के भीतर होती है, पर ढंग बिल्कुल अलग अर्थात् रहस्यदर्शियों का सा न होकर भोले भाले भक्तों का सा है। कवि ने प्रार्थना भी की है कि ,

पृथ्वी पर ही मेरे पद हों,

दूर सदा आकाश रहे।

व्यंजना को गूढ़ बनाने के लिए कुछ असंबद्ध ता लाने, नितांत अपेक्षित पद या वाक्य भी छोड़ देने, अत्यंत अस्फुट संबंध के आधार पर उपलक्षणों का व्यवहार करने का प्रयत्न इनकी रचनाओं में नहीं पाया जाता। आजकल बहुत चलते हुए कुछ रमणीय लाक्षणिक प्रयोग अवश्य कहीं कहीं मिलते हैं। कुछ प्रगीत मुक्तकों में यत्रातत्रा छायावादी कविता के ढंग के रूपक भी इन्होंने रखे हैं, पर वे खुलकर सामने आते हैं, जैसे ,

सज धाजकर मृदु व्यथा सुंदरी तज कर सब घर बार।

दु:ख यामिनी में जीवन की करती है अभिसार

उस अनंत के साथ अपना 'अटल संबंध' कवि बड़ी सफाई से इतने ही में व्यक्त कर देता है ,

तू अनंत द्युतिमय प्रकाश है मैं हूँ मलिन अंधेरा,

पर सदैव संबंध अटल है, जग में मेरा तेरा।

उदय अस्त तक तेरा साथी मैं ही हूँ इस जग में,

मैं तुझमें ही मिल जाता हूँ होता जहाँ सबेरा

'मानवी' में अभागिनी को संबोधन करके कवि कहता है ,

चुकती है नहीं निशा तेरी, है कभी प्रभात नहीं होता।

तेरे सोहाग का सुख, बाले! आजीवन रहता है सोता

हैं फूल फूल जाते मधु में, सुरभित मलयानिल बहती है।

सब लता बल्लियाँ खिलती हैं, बस तू मुरझाई रहती है

सब आशाएँ अभिलाषाएँ, उर कारागृह में बंद हुईं।

तेरे मन की दुख ज्वालाएँ मेरे मन में आ छंद हुईं

2. अनूप शर्मा , बहुत दिनों तक ये ब्रजभाषा में ही अपनी ओजस्विनी वाग्धारा बहाते रहे। खड़ी बोली का जमाना देखकर ये उसकी ओर मुड़े। कुणाल का चरित्र इन्होंने 'सुनाल' नामक खंडकाव्य में लिखा। फिर बुद्ध भगवान का चरित्र लेकर 'सिध्दार्थ' नामक अठारह सर्गों का एक महाकाव्य संस्कृत के अनेक वर्णवृत्तों में इन्होंने लिखा। इनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'सुमनांजलि' में है। इन्होंने फुटकल प्रसंगों के लिए कवित्त ही चुना है। भाषा के सरल प्रवाह के अतिरिक्त इनकी सबसे बड़ी विशेषता है व्यापक दृष्टि जिससे ये हमारे ज्ञानपथ में आनेवाले अनेक विषयों को अपनी कल्पना द्वारा आकर्षक और मार्मिक रूप से रखकर काव्यभूमि के भीतर ले आए हैं। जगत् के इतिहास, विज्ञान आदि द्वारा हमारा ज्ञान जहाँ तक पहुँचा है वहाँ तक हृदय को भी ले जाना आधुनिक कवियों का एक काम होना चाहिए। अनूपजी इसकी ओर बढ़े हैं। 'जीवनमरण' में कवि की कल्पना जगत् के इतिहास की विविधाभूमियों के चित्र सामने लाई है। इसी प्रकार 'विराटभ्रमण' में देवी के आकाशचारीरथपर बैठ कवि ने इस विराट् विश्व का दर्शन किया है। एक झलक देखिए ,

पीछे दृष्टिगोचर था गोल चक्र पूषण का,

घूमता हुआ जो नील संपुटी में चलता।

मानो जलयान के वितल पृष्ठ भाग मध्य,

आता चला फेन पीत पिंड सा उबलता

उछल रहे थे धूमकेतु धाुरियों से तीव्र,

यान केतु ताड़ित नभचक्र था उछलता।

मारुत का, मन का, प्रवेग पड़ा पीछे जब ,

आगे चला वाजियूथ आतप उगलता

3. श्री जगदंबाप्रसाद 'हितैषी' , खड़ी बोली के कवित्तों और सवैयों में ये वही सरसता, वही भावभंगिमा लाए हैं जो ब्रजभाषा के कवित्तों और सवैयों में पाई जाती है। इस बात में इनका स्थान निराला है। यदि खड़ी बोली की कविता आरंभ में ऐसी ही सजीवता के साथ चली होती जैसी इनकी रचनाओं में पाई जाती है तो उसे रूखी और नीरस कोई न कहता। रचनाओं का रंग रूप अनूठा और आकर्षक होने पर भी अजनबी नहीं है। शैली वही पुराने उस्तादों के कवित्त सवैयों की है जिनमें वाग्धारा अंतिम चरण पर जाकर चमक उठती है। हितैषीजी ने अनेक काव्योपयुक्त विषय लेकर फुटकल छोटी छोटी रचनाएँ की हैं जो 'कल्लोलिनी' और 'नवोदिता' में संगृहीत हैं। अन्योक्तियाँ इनकी बहुत मार्मिक हैं। रचना के कुछ नमूने देखिए ,

(किरण)

दुखिनी बनी दीन कुटी में कभी, महलों में कभी महरानी बनी।

बनी फूटती ज्वालामुखी तो कभी, हिमकूट की देवी हिमानी बनी

चमकी बन विद्युत रौद्र कभी, घन आनंद अश्रु कहानी बनी।

सविता ससि स्नेह सोहाग सनी, कभी आग बनी कभी पानी बनी

भवसिंधु के बुदबुद प्राणियों की तुम्हें शीतल श्वाँसा कहें, कहो तो।

अथवा छलनी बनी अंबर के उर की अभिलाषा कहें, कहो तो।

घुलते हुए चंद्र के प्राण की पीड़ा भरी परिभाषा कहें, कहो तो।

नभ से गिरती नखतावलि के नयनों कि निराशा कहें, कहो तो

(परिचय)

हूँ हितैषी सताया हुआ किसी का, हर तौर किसी का बिसारा हुआ।

घर से किसी के हूँ निकाला हुआ, दर से किसी के दुतकारा हुआ

नजरों से गिराया हुआ किसी का, दिल से किसी का हूँ उतारा हुआ।

अजी, हाल हमारा हो पूछते क्या! हूँ मुसीबत का इक मारा हुआ

4. श्री श्यामनारायण पांडेय , इन्होंने पहले 'त्रोता के दो वीर' नामक एक छोटा सा काव्य लिखा था जिसमें लक्ष्मण मेघनाद युद्ध के कई प्रसंग लेकर दोनों वीरों का महत्व चित्रित किया गया था। यह रचना हरिगीतिका तथा संस्कृत के कई वर्णवृत्तों में द्वितीय उत्थान की शैली पर है। 'माधव' और 'रिमझिम' नाम की इनकी दो और छोटी छोटी रचनाएँ हैं। इनकी ओजस्विनी प्रतिभा का पूर्ण विकास 'हल्दीघाटी' नामक 17 सर्गों के महाकाव्य में दिखाई पड़ा। 'उत्साह' की अनेक अंतर्दशाओं की व्यंजना तथा युद्ध की अनेक परिस्थितियों के चित्रण से पूर्ण यह काव्य खड़ी बोली में अपने ढंग का एक ही है। युद्ध के समाकुल वेग और संघर्ष का ऐसा सजीव और प्रवाहपूर्ण वर्णन बहुत कम देखने में आता है। कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं ,

सावन का हरित प्रभात रहा, अंबर पर थी घनघोर घटा।

फहराकर पंख थिरकते थे, मन भाती थी बन मोर छटा

वारिद के उर में चमक दमक, तड़ तड़ थी बिजली तड़क रही।

रह रह कर जल था बरस रहा, रणधाीर भुजा थी फड़क रही


धारती की प्यास बुझाने को, वह घहर रही थी घनसेना।

लोहू पीने के लिए खड़ी, यह हहर रही थी जनसेना

नभ पर चम चम चपला चमकी, चम चम चमकी तलवार इधर।

भैरव अमंद घननाद उधर, दोनों दल की ललकार इधर


कलकल बहती थी रणगंगा, अरिदल को डूब नहाने को।

तलवार वीर की नाव बनी, चटपट उस पार लगाने को

बैरी दल की ललकार गिरी, वह नागिन सी फुफकार गिरी।

था शोर मौत से बचो बचो, तलवार गिरी, तलवार गिरी

क्षण इधर गई, क्षण उधर गई, क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।

था प्रलय चमकती जिधार गई, क्षण शोर हो गया किधर गई

5. पुरोहित प्रतापनारायण , इन्होंने 'नलनरेश' नामक महाकाव्य 19 सर्गों में रोला, हरिगीतिका आदि हिन्दी छंदों में लिखा है। इसकी शैली अधिकतर उस काल की है जिस काल में द्विवेदीजी के प्रभाव से खड़ी बोली हिन्दी के पद्यों में परिमार्जित होती हुई ढल रही थी। खड़ी बोली की काव्यशैली में इधर मार्मिकता, भावाकुलता और वक्रता का जो विकास हुआ है उसका आभास इस ग्रंथ में नहीं मिलता। अलंकारों की योजना बीच बीच में अच्छी की गई है। इस ग्रंथ में महाकाव्य की उन सब रूढ़ियों का अनुसरण किया गया है जिनके कारण हमारे यहाँ के मध्यकाल के बहुत से प्रबंधकाव्य कृत्रिम और प्रभावशून्य हो गए। इस बीसवीं सदी के लोगों का मन विरहताप के लेपादि उपचार, चंद्रोपालंभ इत्यादि में नहीं रम सकता। श्री मैथिलीशरण गुप्त के 'साकेत' में भी कुछ ऐसी रूढ़ियों का अनुसरण जी उबाता है। 'मन के मोती' और 'नव निकुंज' में प्रतापनारायण जी की खड़ी बोली की फुटकल रचनाएँ संगृहीत हैं जिनकी शैली अधिकतर इतिवृत्तात्मक है। 'काव्य कानन' नामक बड़े संग्रह में ब्रजभाषा की भी कुछ कविताएँ हैं।

6. तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' , इन्होंने 272 पृष्ठों का एक बड़ा भारी काव्य ग्रंथ पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के चरित के विविध अंगों को लेकर लिखा है। यह आठ अंगों में समाप्त हुआ है। इसमें कई पात्रों के मुँह से आधुनिक समय में उठे हुए भावों की व्यंजना कराई गई है, जैसे , श्रीकृष्ण उद्ध व द्वारा गोपियों को संदेशा भेजते हैं ,

दीन दरिद्रों के देहों को मेरा मंदिर मानो।

उनके आर्त उसासों को ही वंशी का स्वर जानो

इसी प्रकार द्वारका के दुर्ग पर बैठकर कृष्ण भगवान बलराम का ध्यान कृषकों की दशा की ओर इस प्रकार आकर्षित करते हैं ,

जो ढकता है जग के तन को, जो रखता लज्जा सबकी।

जिसके पूत पसीने द्वारा बनती है मज्जा सबकी

आज कृषक वह पिसा हुआ है इन प्रमत्ता भूपों द्वारा।

उसकी घर की गायों का रे! दूध बना मदिरा सारा

पुरुषों के सब कामों में हाथ बँटाने की सामर्थ्य स्त्रियाँ रखती हैं यह बात रुक्मिणी कहती मिलती हैं।

यह सब होने पर भी भाषा प्रौढ़, चलती और आकर्षक नहीं।

छायावाद

संवत् 1970 तक किस प्रकार 'खड़ी बोली' के पद्यों में ढलकर मँजने की अवस्था पार हुई और श्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधार पांडेय आदि कई कवि खड़ी बोली काव्य को अधिक कल्पनामय, चित्रमय और अंतर्भावव्यंजक रूप रंग देने में प्रवृत्त हुए यह कहा जा चुका है। उनके कुछ रहस्य भावापन्न प्रगीतमुक्तक भी दिखाए जा चुके हैं। वे किस प्रकार कार्यक्षेत्र का प्रसार चाहते थे, प्रकृति की साधारण असाधारण वस्तुओं से अपने चिरसंबंध का सच्चा मार्मिक अनुभव करते हुए चले थे, इसका भी निर्देश हो चुका है।

यह स्वच्छंद नूतन पद्ध ति अपना रास्ता निकाल ही रही थी कि श्री रवींद्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई और कई कवि एक साथ रहस्यवाद और 'प्रतीकवाद' या 'चित्रभाषावाद' को ही एकांत धयेय बनाकर चल पड़े। 'चित्रभाषा' या अभिव्यंजन पद्ध ति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिए लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही काफी समझा गया। इस बँधो हुए क्षेत्र के भीतर चलने वाले काव्य ने छायावाद का नाम ग्रहण किया।

रहस्यभावना और अभिव्यंजनपद्ध ति पर ही प्रधान लक्ष्य हो जाने और काव्य को केवल कल्पना की सृष्टि कहने का चलन हो जाने से सहानुभूति तक कल्पित होने लगी। जिस प्रकार अनेक प्रकार की रमणीय वस्तुओं की कल्पना की जाती है उसी प्रकार अनेक प्रकार की विचित्र भावानुभूतियों की कल्पना भी बहुत कुछ होने लगी। काव्य की प्रकृत पद्ध ति तो यह है कि वस्तुयोजना चाहे लोकोत्तर हो पर भावानुभूति का स्वरूप सच्चा अर्थात् स्वाभाविक वासनाजन्य हो। भावानुभूति का स्वरूप भी यदि कल्पित होगा तो हृदय से उसका संबंध क्या रहेगा? भावानुभूति यदि ऐसी होगी, जैसी नहीं हुआ करती तो सच्चाई (सिंसियारिटी) कहाँ रहेगी? यदि कोई मृत्यु को केवल जीवन की पूर्णता कहकर उसका प्रबल अभिलाष व्यंजित करे, अपने मर मिटने के अधिकार पर गर्व की व्यंजना करे तो कथन के वैचित्रय से हमारा मनोरंजन तो अवश्य होगा पर ऐसे अभिलाषा या गर्व की कहीं सत्ता मानने की आवश्यकता न होगी।

'छायावाद' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्यवस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। रहस्यवाद के अंतर्भूत रचनाएँ पहुँचे हुए पुराने संतों या साधाकों की उसी वाणी के अनुकरण पर होती हैं जो तुरीयावस्था या समाधिदशा में नाना रूपकों के रूप में उपलब्ध आध्यात्मिक ज्ञान का आभास देती हुई मानी जाती थी। इस रूपात्मक आभास को योरप में 'छाया' (फैंटसमाटा) कहते थे। इसी से बंगाल में ब्रह्मसमाज के बीच उक्त वाणी के अनुकरण पर जो आध्यात्मिक गीत या भजन बनते थे वे 'छायावाद' कहलाने लगे। धीरे धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र से वहाँ के साहित्य क्षेत्र में आया और फिर रवींद्र बाबू की धूम मचने पर हिन्दी के साहित्य क्षेत्र में भी प्रकट हुआ।

'छायावाद' शब्द का दूसरा प्रयोग काव्यशैली या पद्ध तिविशेष के व्यापक अर्थ में है। सन् 1885 में फ्रांस में रहस्यवादी कवियों का एक दल खड़ा हुआ जो प्रतीकवाद (सिंवालिस्ट्स) कहलाया। वे अपनी रचनाओं में प्रस्तुतों के स्थान पर अधिकतर अप्रस्तुत प्रतीकों को लेकर चलते थे। इसी से उनकी शैली की ओर लक्ष्य करके 'प्रतीकवाद' शब्द का व्यवहार होने लगा। आध्यात्मिक या ईश्वरप्रेम संबंधी कविताओं के अतिरिक्त और सब प्रकार की कविताओं के लिए भी प्रतीक शैली की ओर वहाँ प्रवृत्ति रही। हिन्दी में 'छायावाद' शब्द का जो व्यापक अर्थ में , रहस्यवादी रचनाओं के अतिरिक्त और प्रकार की रचनाओं के संबंध में भी , ग्रहण हुआ वह इसी प्रतीक शैली के अर्थ में। छायावाद का सामान्यत: अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन। इस शैली के भीतर किसी वस्तु या विषय का वर्णन किया जा सकता है।

'छायावाद' का केवल पहला अर्थात् मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्यक्षेत्र में चलने वाली श्री महादेवी वर्मा ही हैं। पंत, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीकपद्ध ति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए।

रहस्यवाद के भीतर आनेवाली रचनाएँ तो थोड़ी या बहुत सभी ने उक्त पद्ध ति पर की हैं, पर उनकी शब्दकला, वासनात्मक प्रणयोद्गार, वेदना विवृत्ति, सौंदर्य संघटन, मधुचर्या, अतृप्तिव्यंजना इत्यादि में अधिकतर नियुक्त रही। जीवन के अवसाद, विषाद और नैराश्य की झलक भी उनके मधुमय गानों में मिलती रही। इसी परिमित क्षेत्र के भीतर चित्रभाषाशैली का वे वैलक्षण्य के साथ दर्शन करते रहे। जैसा कि सामान्य परिचय के भीतर कहा जा चुका है वैलक्षण्य लाने के लिए अंग्रेजी की लाक्षणिक पदावलियों के अनुवाद भी ज्यों के त्यों रखे जाते रहे। जिनकी प्रवृत्ति लाक्षणिक वैचित्रय की ओर कम थी वे बंगभाषा के कवियों के ढंग पर श्रुतिरंजक या नादानुकृत पदावली गुंफित करने में अधिक तत्पर दिखाई दिए।

चित्रभाषा शैली या प्रतीक पद्ध ति के अंतर्गत जिस प्रकार वाचक पदों के स्थान पर लक्षक पदों का व्यवहार आता है उसी प्रकार प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाले अप्रस्तुत चित्रों का विधान भी। अत: अन्योक्तिपद्ध ति का अवलंबन भी छायावाद का एक विशेष लक्षण हुआ। यह पहले कहा जा चुका है कि छायावाद का चलन द्विवेदीकाल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। अत: इस प्रतिक्रिया का प्रदर्शन केवल लक्षण और अन्योक्ति के प्राचुर्य के रूप में ही नहीं, कहीं कहीं उपमा और उत्प्रेक्षा की भरमार के रूप में भी हुआ। इनमें से उपादान और लक्षण लक्षणाओं को छोड़ और सब बातें किसी न किसी प्रकार की साम्यभावना के आधार पर ही खड़ी होने वाली हैं। साम्य को लेकर अनेक प्रकार की अलंकृत रचनाएँ बहुत पहले भी होती थीं तथा रीतिकाल के और उसके पीछे भी होती रही हैं। अत: छायावाद की रचनाओं के भीतर साम्यग्रहण की उस प्रणाली का निरूपण आवश्यक है जिसके कारण उसे एक विशिष्ट रूप प्राप्त हुआ।

हमारे यहाँ साम्य मुख्यत: तीन प्रकार का माना गया है। सादृश्य (रूप या आकार का साम्य), साधार्म्य (गुण या क्रिया का साम्य) और केवल शब्दसाम्य (दोभिन्न वस्तुओं का एक ही नाम होना)। इसमें से अंतिम तो श्लेष की शब्दक्रीड़ा दिखाने वालों के ही काम का है। रहे सादृश्य और साधार्म्य। विचार करने पर इन दोनों में प्रभावसाम्य छिपा मिलेगा। सिद्ध कवियों की दृष्टि ऐसे ही अप्रस्तुतों की ओर जाती है, जो प्रस्तुतों के समान ही सौंदर्य, दीप्ति, कांति, कोमलता, प्रचंडता, भीषणता, उग्रता, उदासी, अवसाद, खिन्नता इत्यादि की भावना जगाते हैं। काव्य में बँधो चले आते हुए उपमान अधिकतर इसी के हैं। केवल रूप रंग, आकार या व्यापार को ऊपर से देखकर या नाप जोखकर, भावना पर उनका प्रभाव परखे बिना, वे नहीं रखे जाते थे। पीछे कविकर्म के बहुत कुछ श्रमसाधय या अभ्यासगम्य होने के कारण जब कृत्रिमता आने लगी तब बहुत से उपमान केवल बाहरी नाप जोख के अनुसार भी रखे जाने लगे। कटि की सूक्ष्मता दिखाने के लिए सिंहनी और भिड़ सामने लाई जाने लगी।

छायावाद बड़ी सहृदयता के साथ प्रभावसाम्य पर ही विशेष लक्ष्य रखकर चला है। कहीं कहीं तो बाहरी सादृश्य या साधार्म्य अत्यंत अल्प या न रहने पर भी आभ्यंतर प्रभावसाम्य लेकर अप्रस्तुतों का सन्निवेश कर दिया जाता है। ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर उपलक्षण के रूप में या प्रतीकवत् (सिंबालिक) होते हैं, जैसे , सुख, आनंद, प्रफुल्लता, यौवनकाल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक उषा, प्रभात, मधुकाल, प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत; माधुर्य के स्थान पर मधु; दीप्तिमान या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अंधेरी रात, संधया की छाया, पतझड़, मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान, भावतरंग के लिए झंकार, भावप्र्रवाह के लिए संगीत या मुरली का स्वर इत्यादि। आभ्यंतर प्रभावसाम्य के आधार पर लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्ध ति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास छायावाद की काव्यशैली की असली विशेषता है।

हिन्दी काव्यपरंपरा में अन्योक्तिपद्ध ति का प्रचार तो रहा है, पर लाक्षणिकता का एक प्रकार से अभाव ही रहा। केवल कुछ रूढ़ लक्षणाएँ मुहावरों के रूप में कहीं कहीं मिल जाती थीं। ब्रजभाषा कवियों में लाक्षणिक साहस किसी ने दिखाया तो घनानंद ने। इस तृतीय उत्थान में सबसे अधिक लाक्षणिक साहस पंतजी ने अपने 'पल्लव' में दिखाया, जैसे ,

1. धूल की ढेरी में अनजान छिपे हैं मेरे मधुमय गान

(धूल की ढेरी=असुंदर वस्तुएँ। मधुमय गान=गान के विषय अर्थात् सुंदर वस्तुएँ)

2. मर्मपीड़ा के हास (हास=विकास, समृद्धि । विरोध वैचित्रय के लिए व्यंग्यव्यंजक संबंध को लेकर लक्षणा)। (मर्मपीड़ा के हास! = हे मेरे पीड़ित मन! आधार आधोय संबंध लेकर)।

3. चाँदनी का स्वभाव में वास। विचारों में बच्चों की साँस।

(चाँदनी=मृदुलता, शीतलता। बच्चों की साँस=भोलापन)।

4. मृत्यु का यही दीर्घ नि:श्वास (मृत्यु=आसन्नमृत्यु व्यक्ति अथवा मृतक के लिए शोक करने वाले व्यक्ति।)

5. कौन तुम अतुल अरूप अनाम (शिशु के लिए। अल्पार्थक के स्थान पर निषेधार्थक।)

'पल्लव' में प्रतिक्रिया के आवेश के कारण वैचित्रय प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक थी जिसके लिए कहीं कहीं अंग्रेजी के लाक्षणिक प्रयोग भी ज्यों के त्यों ले लिए गए। पर पीछे यह प्रवृत्ति घटती गई।

'प्रसाद' की रचनाओं में शब्दों के लाक्षणिक वैचित्रय की प्रवृत्ति उतनी नहीं रही है जितनी साम्य की दुरारूढ़ भावना की। उनके उपलक्षण (सिंबल्स) सामान्य अनुभूति के मेल में होते थे। जैसे ,

1. झंझा झकोर गर्जन है, बिजली है, नीरद माला।

पाकर इस शून्य हृदय को, सबने आ डेरा डाला , 'ऑंसू'

(झंझा झकोर=क्षोभ; आकुलता। गर्जन=वेदना की तड़प। बिजली=चमक या टीस। नीरदमाला=अंधकार। शून्य शब्द विशेषण के अतिरिक्त आकाशवाचक भी है; जिससे उक्ति में बहुत सुंदर समन्वय आ जाताहै।)

2. पतझड़ था; झाड़ खड़े थे सूखे से फुलवारी में।

किसलय दल कुसुम बिछाकर आए तुम इस क्यारी में। , 'ऑंसू'

(पतझड़=उदासी। किसलयदलकुसुम=वसंत, सरसता और प्रफुल्लता)।

3. काँटों ने भी पहना मोती (कँटीले पौधों=पीड़ा पहुँचाने वाले कठोर हृदय मनुष्यों। पहना मोती=हिमबिंदु धारण किया=अश्रुपूर्ण हुए।)

अप्रस्तुत किस प्रकार एकदेशीय, सूक्ष्म और धाुँधाले पर मर्मव्यंजक साम्य का धाुँधाला सा आधार लेकर खड़े किए जाते हैं, यह बात नीचे के कुछ उद्ध रणों से स्पष्ट हो जाएगी ,

1. उठ उठ री लघु लघु लोल लहर।

करुणा की नव अंगड़ाई सी, मलयानिल की परछाई सी,

इस सूखे तट पर छिटक छहर , 'लहर'

(लहर=सरस कोमल भाव। सूखा तट=शुष्क जीवन। अप्रस्तुत या उपमान भी लाक्षणिक हैं।)

2. गूढ़ कल्पना सी कवियों की, अज्ञाता के विस्मय सी

ऋषियों के गंभीर हृदय सी, बच्चों के तुतले भय सी। , 'छाया'

3. गिरिवर के उर से उठ उठ कर, उच्चाकांक्षाओं से तरुवर, हैं झाँक रहे

नीरव नभ पर।

(उठे हुए पेड़ों का साम्य मनुष्य के हृदय की उन उच्चाकांक्षाओं से है, जो लोक के परे जाती हैं।)

4. वनमाला के गीतों सा निर्जन में बिखरा है मधुमास।

छायावाद की रचनाएँ गीतों के रूप में ही अधिकतर होती हैं। इससे उनमें अन्विति कम दिखाई पड़ती है। जहाँ यह अन्विति होती है वहाँ समूची रचना अन्योक्ति पद्ध ति पर की जाती है। इस प्रकार साम्यभावना का ही प्राचुर्य हम सर्वत्र पाते हैं। यह साम्यभावना हमारे हृदय का प्रसार करनेवाली, शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के गूढ़ संबंध की धारणा बँधानेवाली, अत्यंत अपेक्षित मनोभूमि है, इसमें संदेह नहीं, पर यह सच्चा मार्मिक प्रभाव वहीं उत्पन्न करती है जहाँ यह प्राकृतिक वस्तु या व्यापार से प्राप्त सच्चे आभास के आधार पर खड़ी होती है। प्रकृति अपने अनंत रूपों और व्यापारों के द्वारा अनेक बातों की गूढ़ वा अगूढ़ व्यंजना करती रहती है। इस व्यंजना को न परखकर या न ग्रहण करके जो साम्यविधान होगा वह मनमाना आरोपमात्र होगा। इस अनंत विश्व महाकाव्य की व्यंजनाओं की परख के साथ जो साम्यविधान होता है वह मार्मिक और उद्बोधाक होता है, जैसे ,

दुखदावा से नवअंकुर पाता जग जीवन का वन

करुणार्द्र विश्व का गर्जन बरसाता नवजीवन कण।

खुल खुल नव इच्छाएं फैलाती जीवन के दल।

यह शैशव का सरल हास है, सहसा उर में है आ जाता।

यह ऊषा का नवविकास है, जो रज को है रजत बनाता।

यह लघु लहरों का विलास है, कलानाथ जिसमें खिंच आता


हँस पड़े कुसुमों में छविमान, जहाँ जग में पदचिद्द पुनीत।

वहीं सुख में ऑंसू बन प्राण, ओस में लुढ़क दमकते गीत

, गुंजन

मेरा अनुराग फैलने दो, नभ के अभिनव कलरव में।

जाकर सूनेपन के तम में, बन किरन कभी आ जाना।

अखिल की लघुता आई बन, समय का सुंदर वातायन।

देखने को अदृष्टर् नत्तान।

, लहर

जल उठा स्नेह दीपक सा, नवनीत हृदय था मेरा।

अब शेष धूमरेखा से, चित्रित कर रहा अंधेरा

, ऑंसू

मनमाने आरोप, जिनका विधान प्रकृति के संकेत पर नहीं होता, हृदय के मर्मस्थल का स्पर्श नहीं करते, केवल वैचित्रय का कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाते हैं। छायावाद की कविता पर कल्पनावाद, कलावाद, अभिव्यंजनावाद आदि का भी प्रभाव ज्ञात या अज्ञात के रूप में पड़ता रहा है। इससे बहुत सा अप्रस्तुत विधान मनमाने आरोप के रूप में भी सामने आता है। प्रकृति के वस्तु व्यापारों पर मानुषी वृत्तियों के आरोप का बहुत चलन हो जाने से कहीं कहीं ये आरोप वस्तु व्यापारों की प्रकृत व्यंजना से बहुत दूर जा पड़े हैं, जैसे , चाँदनी के इस वर्णन में ,

1. जग के दुख दैन्य शयन पर यह रुग्णा जीवनबाला।

पीली पड़, निर्बल, कोमल, कृश देहलता कुम्हलाई।

विवसना, लाज में, लिपटी, साँसों में शून्य समाई

चाँदनी अपने आप इस प्रकार की भावना मन में नहीं जगाती। उसके संबंध में यह उद्भावना भी केवल स्त्री की सुंदर मुद्रा सामने खड़ी करती जान पड़ती है ,

2. नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद हासिनि।

मृदु करतल पर शशिमुख धार नीरव अनिमिष एकाकिनि

इसी प्रकार ऑंसुओं को 'नयनों के बाल' कहना भी व्यर्थ सा है। नीचे की जूठी प्याली भी (जो बहुत आया करती है) किसी मैखाने से लाकर रखी जान पड़तीहै ,

3. लहरों में प्यास भरी है, है भँवर पात्र से खाली।

मानव का सब रस पीकर, लुढ़का दी तुमने प्याली

प्रकृति के नाना रूपों के सौंदर्य की भावना सदैव स्त्री सौंदर्य का आरोप करके करना उक्त भावना की संकीर्णता सूचित करता है। कालिदास ने भी मेघदूत में निर्विंधया और सिंधु नदियों में स्त्री सौंदर्य की भावना की है जिनसे नदी और मेघ के प्रकृत संबंध की रमणीय व्यंजना होती है। ग्रीष्म में नदियाँ सूखती सूखती पतली हो जाती हैं और तपती रहती हैं। उनपर मेघ छाया करता है तब वे शीतल हो जाती हैं और उस छाया को अंक में धारण किए दिखाई देती हैं। वही मेघ बरसकर उनकी क्षीणता दूर करता है। दोनों के बीच इसी प्राकृतिक संबंध की व्यंजना ग्रहण करके कालिदास ने अप्रस्तुत विधान किया है। पर सौंदर्य की भावना सर्वत्र स्त्री का चित्र चिपकाकर करना खेल सा हो जाता है। उषासुंदरी के कपोलों की ललाई, रजनी के रत्नजटित केश कलाप, दीर्घ नि:श्वास और अश्रुबिंदुता तो रूढ़ हो ही गए हैं; किरन, लहर, चंद्रिका, छाया, तितली सब अप्सराएँ या परियाँ बनकर सामने आने पाती हैं। इसी तरह प्रकृति के नाना व्यापार भी चुंबन, आलिंगन, मधुग्रहण, मधुदान, कामिनी की क्रीड़ा इत्यादि में अधिकतर परिणत दिखाई देते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि प्रकृति की नाना वस्तुओं और व्यापारों का अपना अपना अलग सौंदर्य भी है जो एक ही प्रकार की वस्तु या व्यापार के आरोप द्वारा अभिव्यक्त नहीं हो सकता।

इसी प्रकार पंतजी की 'छाया', 'वीचिविलास', 'नक्षत्रा' में जो यहाँ से वहाँ तक उपमानाें का ढेर लगा है उनमें से बहुत से तो अत्यंत सूक्ष्म और सुकुमार साम्य के व्यंजक हैं और बहुत से रंग बिंरगे खिलौने के रूप में ही हैं। ऐसी रचनाएँ उस 'कल्पनावाद', 'कलावाद' या 'अभिव्यंजनावाद' के उदाहरण सी लगती हैं जिसके अनुसार कवि कल्पना का काम प्रकृति की नाना वस्तुएँ लेकर एक नया निर्माण करना या नूतन सृष्टि खड़ी करना है। प्रकृति के सच्चे स्वरूप, उसकी सच्ची व्यंजना ग्रहण करना उक्त वादों के अनुसार आवश्यक नहीं। उनके अनुसार तो प्रकृति की नाना वस्तुओं का उपयोग केवल उपादान के रूप में है; उसी प्रकार जैसे बालक, ईंट, पत्थर, लकड़ी, कागज, फूलपत्ताी लेकर हाथी घोड़े, घर बगीचे इत्यादि बनाया करते हैं। प्रकृति के नाना चित्रों के द्वारा अपनी भावनाएँ व्यक्त करना तो बहुत ठीक है, पर उन भावनाओं को व्यक्त करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति भी तो गृहीत चित्रों में होनी चाहिए।

छायावाद की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेमगीतात्मक होने के कारण हमारा वर्तमान काव्य प्रसंगों की अनेकरूपता के साथ नई नई अर्थभूमियों पर कुछ दिनों तक बहुत कम चल पाया। कुछ कवियों में वस्तु का आधार अत्यंत अल्प रहता है। विशेष लक्ष्य अभिव्यंजना के अनूठे विस्तार पर रहा है। इससे उनकी रचनाओं का बहुत सा भाग अधार में ठहराया सा जान पड़ता है। जिन वस्तुओं के आधार पर उक्तियाँ मन में खड़ी की जाती हैं उनका कुछ भाग कला के अनूठेपन के लिए पंक्तियों के इधर उधर से हटा भी लिया जाता है। अत: कहीं कहीं व्यवहृत शब्दों की व्यंजकता पर्याप्त न होने पर भाव अस्फुट रह जाता है, पाठक को अपनी ओर से बहुत कुछ आक्षेप करना पड़ता है, जैसे नीचे की पंक्तियों में ,

निज अलकों के अंधकार में तुम कैसे छिप आओगे।

इतना सजग कुतूहल! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे।

आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप चाँप कर उन्हें नहीं।

दुख दो इतना, अरे! अरुणिमा उषा सी वह उधर बही।

यहाँ कवि ने उस प्रियतम के छिपकर दबे पाँव आने की बात कही है जिनके चरण इतने सुकुमार हैं कि जब आहट न सुनाई पड़ने के लिए वह उन्हें बहुत दबा दबाकर रखते हैं तब एड़ियों में ऊपर की ओर खून की लाली दौड़ जाती है। वही ललाई उषा की लाली के रूप में झलकती है। 'प्रसादजी' का ध्यान शरीर विकारों पर विशेष जमता था। इसी से उन्होंने 'चाँप चाँपकर दुख दो', से ललाई दौड़ने की कल्पना पाठकों के ऊपर छोड़ दी है। 'कामायनी' में उन्होंने मले हुए कान में भी कामिनी के कपोलों पर की 'लज्जा की लाली' दिखाई है।

अभिव्यंजना की पद्ध ति या काव्यशैली पर ही प्रधान लक्ष्य रहने से छायावाद के भीतर उसका बहुत ही रमणीय विकास हुआ है, यह हम पहले कह आए हैं। 8 साम्यभावना और लक्षणा शक्ति के बल पर किस प्रकार काव्योपयुक्त चित्रमयी भाषा की ओर सामान्यत: झुकाव हुआ यह भी कहा जा चुका है। साम्य पहले उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक , ऐसे अलंकारों के बड़े बड़े साँचों के भीतर ही फैलाकर दिखाया जाता था। वह अब प्राय: थोड़े में या तो लाक्षणिक प्रयोगों के द्वारा झलका दिया जाता है अथवा कुछ प्रच्छन्न रूपकों में प्रतीयमान रहता है। इसी प्रकार किसी तथ्य या पूरे प्रसंग के लिए दृष्टांत, अर्थात् विन्यास आदि का सहारा न लेकर अब अन्योक्ति पद्ध ति ही अधिक चलती है। यह बहुत ही परिष्कृत पद्ध ति है। पर यह न समझना चाहिए कि उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का प्रयोग नहीं होता है, बराबर होता है और बहुत होता है। उपमा में धर्म बराबर लुप्त रहता है। प्रतिवस्तूपमा, हेतूत्प्रेक्षा, विरोध, श्लेष, एकावली इत्यादि अलंकार भी कहीं कहीं पाए जाते हैं।

किस प्रकार एक बँधो घेरे से निकलकर अब छायावादी कहे जानेवाले कवि धीरे धीरे जगत् और जीवन के अनंत क्षेत्र में इधर उधर दृष्टि फैलाते देखे जा रहे हैं, इसका आभास दिया जा चुका है। अब तक उनकी कल्पना थोड़ी सी जगह के भीतर कलापूर्ण और मनोरंजक नृत्य सा कर रही थी। वह जगत् और जीवन के जटिल स्वरूप से घबराने वालों का जी बहलाने का काम करती रही है। अब उसे अखिल जीवन के नाना पक्षों की मार्मिकता का साक्षात्कार करते हुए एक करीने के साथ रास्ता चलना पड़ेगा। इसके लिए उसे अपनी चपलता और भावभंगिमा का प्रदर्शन, क्रीड़ा कौतुक की प्रवृत्ति कुछ संयत करनी पड़ेगी। इस ऊँचे नीचे मर्मपथ पर चित्रों का बहुत अधिक फालतू बोझ लादकर चलना भी वाण्ाी के लिए उपयुक्त न होगा। प्रसादजी ने 'लहर' में छायावाद की चित्रमयी शैली को तीन ऐतिहासिक जीवनखंडों के बीच ले जाकर आजमाया है। उनमें कथावस्तु का विन्यास नाटकीय पद्ध ति पर करके उन्होंने बाह्य और आभ्यंतर परिस्थितियों का व्यंजक, मनोहर, मार्मिक या आवेशपूर्ण शब्दविधान किया है। पर कहीं कहीं जहाँ मधुमय चित्रों की परंपरा दूर तक चली है वहाँ समन्वित प्रभाव में बाधा पड़ी है। 'कामायनी' में उन्होंने नरजीवन के विकास में भिन्न भिन्न भावात्मिका वृत्तियों का योग और संघर्ष बड़ी प्रगल्भ और रमणीय कल्पना द्वारा चित्रित करके मानवता का रसात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार निरालाजी ने जिनकी वाणी पहले से भी बहुमुखी थी, 'तुलसीदास' के मानस विकास का बड़ा ही दिव्य और विशाल रंगीन चित्र खींचा है।

अब हम तृतीय उत्थान के वर्तमान कवियों और उनकी कृतियों का संक्षेप में कुछ परिचय देना आवश्यक समझते हैं ,

1. जयशंकर प्रसाद , ये पहले ब्रजभाषा की कविताएँ लिखा करते थे जिनका संग्रह 'चित्राधार' में हुआ है। संवत् 1970 से वे खड़ी बोली की ओर आए और 'कानन कुसुम', 'महाराणा का महत्व', 'करुणालय' और 'प्रेमपथिक' प्रकाशित हुए। 'कानन कुसुम' में तो प्राय: उसी ढंग की कविताएँ हैं जिस ढंग की द्विवेदीकाल में निकला करती थीं। 'महाराणा का महत्व' और 'प्रेमपथिक' (संवत् 1970) अतुकांत रचनाएँ हैं जिसका मार्ग पं. श्रीधार पाठक पहले दिखा चुके थे। भारतेंदु काल में पं. अंबिकादत्त व्यास ने बँग्ला की देखादेखी कुछ अतुकांत पद्य आजमाए थे। पीछे पं. श्रीधार पाठक ने 'सांधय अटन' नाम की कविता खड़ी बोली के अतुकांत (तथा चरण के बीच में पूर्ण विराम वाले) पद्यों में बड़ी सफलता के साथ प्रस्तुत की थी।

सामान्य परिचय के अंतर्गत दिखाया जा चुका है कि किस प्रकार सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, बदरीनाथ भट्ट और मुकुटधार पांडेय इत्यादि कई कवि अंतर्भावना की प्रगल्भ चित्रमयी व्यंजना के उपयुक्त स्वच्छंद नूतन पद्ध ति निकाल रहे थे। पीछे उस नूतन पद्ध ति पर प्रसादजी ने भी कुछ छोटी छोटी कविताएँ लिखीं जो संवत् 1975 (सन् 1918) में 'झरना' के भीतर संगृहीत हुईं। 'झरना' की उन 24 कविताओं में उस समय की नूतन पद्ध ति पर निकलती हुई कविताओं से कोई ऐसी विशिष्टता नहीं थी जिसपर ध्यान जाता। दूसरे संस्करण में जो बहुत पीछे संवत् 1984 में निकला, पुस्तक का स्वरूप ही बदल गया। उसमें आधी से ऊपर अर्थात् 33 रचनाएँ जोड़ी गईं जिनमें पूरा रहस्यवाद, अभिव्यंजना का अनूठापन, व्यंजक चित्रविधान सब कुछ मिल जाता है। 'विषाद', 'बालू की बेला', 'खोलो द्वार', 'बिखरा हुआ प्रेम', 'किरण', 'वसंत की प्रतीक्षा', इत्यादि उन्हीं के पीछे जोड़ी हुई रचनाओं में हैं जो पहले (संवत् 1975 के) संस्करण में नहीं थीं। द्वितीय संस्करण में ही छायावाद कही जानेवाली विशेषताएँ स्फुट रूप में दिखाई पड़ीं। इसके पहले श्री सुमित्रानंदन पंत का 'पल्लव' बड़ी धूमधाम से निकल चुका था, जिसमें रहस्यभावना तो कहीं कहीं पर अप्रस्तुत विधान, चित्रमयी भाषा और लाक्षणिक वैचित्रय आदि विशेषताएँ अत्यंत प्रचुर परिमाण में दिखाई पड़ी थीं।

प्रसादजी में ऐसी मधुमयी प्रतिभा और ऐसी जागरूक भावुकता अवश्य थी कि उन्होंने इस पद्ध ति का अपने ढंग पर बहुत ही मनोरम विकास किया। संस्कृत की कोमल कांत पदावली का जैसा सुंदर चयन बंगभाषा के काव्यों में हुआ है वैसा अन्य देशभाषाओं के साहित्य में नहीं दिखाई पड़ता। उनके परिशीलन में पदलालित्य की जो गूँज प्रसादजी के मन में समाई वह बराबर बनी रही।

जीवन के प्रेमविलासमय मधुर पक्ष की ओर स्वाभाविक प्रवृत्ति होने के कारण वे उस 'प्रियतम' के संयोग वियोग वाली रहस्यभावना में , जिसे स्वाभाविक रहस्यभावना से अलग समझना चाहिए , रमते प्राय: पाए जाते हैं। प्रेमचर्या के शारीरिक व्यापारों और चेष्टाओं (अश्रु, स्वेद, चुंबन, परिरंभण, लज्जा की दौड़ी हुई लाली इत्यादि), रंगरेलियों और अठखेलियों, वेदना की कसक और टीस इत्यादि की ओर इनकी दृष्टि विशेष जमती थी। इसी मधुमयी प्रवृत्ति के अनुरूप प्रकृति के अनंत क्षेत्र में भी वल्लरियों के दान, कलिकाओं की मंद मुस्कान, सुमनों के मधुपात्र पर मँडराते मलिंदों के गुंजार, सौरभहर समीर की झपक लपक, पराग मकरंद की लूट, उषा के कपोलों पर लज्जा की लाली, आकाश और पृथ्वी के अनुरागमय परिरंभ, रजनी के ऑंसू से भीगे अंबर, चंद्रमुख पर शरद्धन के सरकते अवगुंठन, मुधाुमास की मधुवर्षा और झूमती मादकता इत्यादि पर अधिक दृष्टि जाती थी। अत: इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देख चाहेतो यह कहें कि इनकी मधुवर्षा के मानस प्रचार के लिए रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानूभूति ससीम पर से कूदकर असीम पर जारही।

इनकी पहली विशिष्ट रचना 'ऑंसू' (संवत 1982, सन 1925) है। 'ऑंसू' वास्तव में तो हैं श्रृंगारी विप्रलंभ के, जिनमें अतीत संयोग सुख की खिन्न स्मृतियाँ रह रहकर झलक मारती हैं, पर जहाँ प्रेमी की मादकता की बेसुधाी में प्रियतम नीचे से ऊपर आते और संज्ञा की दशा में चले जाते है। 9, जहाँ हृदय की तरंगें 'उस अनंत कोने को नहलाने चलती हैं, वहाँ वे ऑंसू उस 'अज्ञात प्रियतम' के लिए बहते जान पड़ते हैं। फिर जहाँ कवि यह देखने लगता है कि ऊपर तो ,

अवकाश10 असीम सुखों से आकाशतरंग11 बनाता,

हँसता सा छायापथ में नक्षत्रा समाज दिखाता।

पर

नीचे विपुला धारणी है दुखभार वहन सी करती।

अपने खारे ऑंसू से करुणासागर को भरती

और इस 'चिर दग्धा दुखी वसुधा' को, इस निर्मम जगती को, अपनी प्रेमवेदना की कल्याणी शीतल ज्वाला का मंगलमय, उजाला देना चाहता है, वहाँ वे ऑंसू लोक पीड़ा पर करुणा के ऑंसू से जान पड़ते हैं। पर वहीं पर जब हम कवि की दृष्टि अपनी सदा जगती हुई अखंड ज्वाला की प्रभविष्णुता पर इस प्रकार जमी पाते हैं कि 'हे मेरी ज्वाला!'

तेरे प्रकाश में चेतन संसार वेदनावाला।

मेरे समीप होता है पाकर कुछ करुण उजाला

तब ज्वाला या प्रेमवेदना की अतिरंजित और दुरारूढ़ भावना ही , जो श्रृंगार की पुरानी रूढ़ि है , रह जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि वेदना की कोई एक निर्दिष्ट भूमि न होने से सारी पुस्तक का कोई एक समन्वित प्रभाव नहीं निष्पन्न होता।

पर अलग अलग लेने पर उक्तियों के भीतर बड़ी ही रंजनकारिणी कल्पना, व्यंजक चित्रों का बड़ा ही अनूठा विन्यास, भावनाओं की अत्यंत सुकुमार योजना मिलती है। प्रसादजी की यह पहली काव्यरचना है जिसने बहुत लोगों को आकर्षित किया। अभिव्यंजना की प्रगल्भता और विचित्रता के भीतर प्रेमवेदना की दिव्य विभूति का, विश्व में उसके मंगलमय प्रभाव का, सुख और दुख दोनों को अपनाने की उसकी अपार शक्ति का और उसकी छाया में सौंदर्य और मंगल का भी आभास पाया जाता है। 'नियतिवाद' और 'दुखवाद' का विषण्ण स्वर भी सुनाई पड़ता है। इस चेतना को दूर हटाकर मदतंद्रा, स्वप्न और असंज्ञा की दशा का आह्वान रहस्यवाद की एक स्वीकृत विधि है। इस विधि का पालन 'ऑंसू' से लेकर 'कामायनी' तक हुआ है। अपने ही लिए नहीं, उजाले में हाथ पैर मारनेवाली 'चिर दग्धा दुखी वसुधा' के लिए भी यहीं नींद लानेवाली दवा लेकर आने को कवि निशा से कहता है ,

चिर दग्धा दुखी यह वसुधा आलोक माँगती, तब भी।

तुम तुहिन बरस दो कन कन, यह पगली सोये अब भी

चेतना की शांति या विस्मृति की दशा में ही 'कल्याण की वर्षा' होती है, मिलनसुख प्राप्त होता है। अत: उसके लिए रात्रिा की भावना को बढ़ाकर प्रसादजी महारात्रिा तक ले गए हैं, जो सृष्टि और प्रलय का संधिकाल है, जिसमें सारे नामरूपों का लय हो जाता है ,

चेतना लहर न उठेगी जीवन समुद्र थिर होगा।

संधया हो सर्ग प्रलय की विच्छेद मिलन फिर होगाÏ

'ऑंसू' के उपरांत दूसरी रचना 'लहर' है, जो कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। 'लहर' पर एक छोटी सी कविता सबसे पहले दी गई है। इसी से समूचे संग्रह का नाम 'लहर' रखा गया। 'लहर' से कवि का अभिप्राय उस आनंद की लहर से है जो मनुष्य के मानस में उठा करती है और उसके जीवन को सरस करती रहती है। उसे ठहराने की पुकार अपने व्यक्तिगत नीरस जीवन को भी सरस करने के लिए कही जा सकती है और अखिल मानव जीवन को भी। यह जीवन की लहर भीतर उसी प्रकार स्मृतिचिद्द छोड़ जाती है जिस प्रकार जल की लहरें सूखी नदी की बालू के बीच पसलियों की सी उभरी रेखाएँ छोड़ जाती हैं ,

उठ उठ, गिर गिर, फिर फिर आती

नर्तित पदचिद्द बना जाती;

सिकता की रेखाएँ उभार

भर जाती अपनी तरल सिहर।

इसमें भी उस प्रियतम का ऑंखमिचौली खेलना, दबे पाँव आना, किरन उँगलियों से ऑंख मूँदना (या मूँदने की कोशिश करना, क्योंकि उस ज्योतिर्मय का कुछ आभास मिल ही जाता है), प्रियतम की ओर अभिसार इत्यादि रहस्यवाद की सब सामग्री है। प्रियतम अज्ञात रहकर भी किस प्रकार प्रेम का आलंबन रहता है, यह भी दो एक जगह सूचित किया गया है, जैसे ,

तुम हो कौन और मैं क्या हूँ? इसमें क्या है धारा सुनो।

मानस जलधिा रहे चिर चुंबित मेरे क्षितिज! उदार बनो

इसी प्रकार 'हे सागर संगम अरुण नील' में यह चित्र सामने रखा गया है कि सागर ने हिमालय से निकली नदी को कब देखा था, और नदी ने सागर को कब देखा था, पर नदी निकलकर स्वर्णस्वप्न देखती उसी की ओर चली और वह सागर भी बड़ी उमंग के साथ उससे मिला।

क्षितिज, जिसमें प्रात: सायं अनुराग की लाली दौड़ा करती है, असीम (आकाश) और ससीम (पृथ्वी) का सहेट या मिलनस्थल सा दिखाई पड़ा करता है। इस हलचल भरे संसार से हटाकर कवि अपने नाविक से वहीं ले चलने को कहता है ,

ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक! धीरे धीरे।

जिस निर्जन में सागर लहरी अंबर के कानों में गहरी

निश्छल प्रेमकथा कहती हो तज कोलाहल की अवनी रे

वहाँ जाने पर वह इस सुख दुखमय व्यापक प्रसार को अपने नित्य और सत्य रूप में देखने की और पारमार्थिक ज्ञान की झलक पाने की भी आशा करता है; क्याेंकि श्रम और विश्राम के उस संधिस्थल पर ज्ञान की दिव्य ज्योति सी जगती दिखाई पड़ा करती है ,

जिस गंभीर मधुर छाया में विश्व चित्रपट चल माया में ,

विभता विभु सी पड़े दिखाई दुख सुख वाली सत्य बनी रे।

श्रम विश्राम क्षितिज बेला से, जहाँ सृजन करते मेला से ,

अमर जागरण उषा नयन से , बिखराती हो ज्योति घनी रे

'लहर' में चार पाँच रचनाएँ ही रहस्यवाद की हैं। पर कवि की तंद्रा और स्वप्न वाली प्रिय भावना जगह जगह व्यक्त होती है। रात्रिा के उस सन्नाटे की कामना, जिसमें बाहर भीतर की सब हलचल शांत रहती है, केवल अभावों की पूर्ति करने वाले अतृप्त कामनाओं की तृप्ति का विधान करने वाले स्वप्न ही जगा करते हैं, इस गीत में पूर्णतया व्यक्त हैं ,

अपलक जगती हो एक रात!

सब सोए हों इस भूतल में;

अपनी निरीहता संबल में,

चलती हो कोई भी न बात।

वक्षस्थल में जो छिपे हुए

सोते हों हृदय अभाव लिए

उनके स्वप्नों का हो न प्रात।

जैसा कि पहले सूचित कर चुके हैं, 'लहर' में कई प्रकार की रचनाएँ हैं। कहीं तो प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुंदर और मधुर रूपकमय गान हैं, जैसे ,

बीती विभावरी जाग री!

अंबर पनघट में डुबो रही

तारा घट उषा नागरी।

खगकुल 'कुल कुल' सा बोल रहा

किसलय का अंचल डोल रहा,

लो, यह लतिका भी भर लाई

मधु मुकुल नवल रस गागरी

कहीं उस यौवनकाल की स्मृतियाँ हैं जिनमें मधु का आदान प्रदान चलता था, कहीं प्रेम का शुद्ध स्वरूप यह कहकर बताया गया है कि प्रेम देने की चीज है, लेने की नहीं। पर इस पुस्तक में कवि अपने मधुमय जगत से निकल जगत और जीवन के कई पक्षों की ओर भी बढ़ा है। वह अपने भीतर इतना अपरिमित अनुराग समझता है कि अपने सान्निधय से वर्तमान जगत में उसके फैलने की आशा करता है। उषा का अनुराग (लाली) जब फैल जाता है तभी ज्योति की किरन फूटती है ,

मेरा अनुराग फैलने दो, नभ के अभिनव कलरव में।

जाकर सूनेपन के तम में, बन किरण कभी आ जाना

कवि अपने प्रियतम से अब वह 'जीवनगीत' सुनाने को कहता है जिसमें 'करुणा का नवअभिनंदन हो'। फिर इस जगत की अज्ञानांधाकारमयी अश्रुपूर्ण रात्रिा के बीच ज्ञानज्योति की भिक्षा माँगता हुआ वह उससे प्रेमवेणु के स्वर में जीवनगीत सुनाने को कहता है जिसके प्रभाव से मनुष्य जाति लताओं के सामने स्नेहालिंगन में बद्ध हो जायगी और इस संतप्त पृथ्वी पर शीतल छाया हो जायगी ,

जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचंद्र दिखा जाओ।

प्रेमवेणु की स्वरलहरी में जीवन गीत सुना जाओ

स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो।

जीवनधान! इस जले जगत् को वृंदावन बन जाने दो

जैसा कि पहले सूचित कर आए हैं, 'लहर' में प्रसादजी ने अपनी प्रगल्भ कल्पना के रंग मंी इतिहास के कुछ खंडों को भी देखा है। जिस वरुणा के शांत कछार में बुद्ध भगवान ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया था उसकी पुरानी झाँकी, 'अशोक की चिंता', 'शेरसिंह का शस्त्रासमर्पण', 'पेशोला की प्रतिध्वनि', 'प्रलय की छाया' ये सब अतीत के भीतर कल्पना के प्रवेश के उदाहरण हैं। इस प्रकार 'लहर' में हम प्रसादजी को वर्तमान और अतीत जीवन की प्रकृत ठोस भूमि पर अपनी कल्पना ठहराने का कुछ प्रयत्न करते पाते हैं।

किसी एक विशाल भावना को रूप देने की ओर भी अंत में प्रसादजी ने ध्यान दिया, जिसका परिणाम है 'कामायनी'। इसमें उन्होंने अपने प्रिय 'आनंद' की प्रतिष्ठा दार्शनिकता के ऊपरी आभास के साथ कल्पना की मधुमती भूमिका बनाकर की है। यह 'आनंदवाद' बल्लभाचार्य के 'काय' या आनंद के ढंग का न होकर, तांत्रिकों और योगियों की अंतर्भूमि पद्ध ति पर है। प्राचीन जलप्लावन के उपरांत मनु द्वारा मानवी सृष्टि के पुन:विधान का आख्यान लेकर इस प्रबंध काव्य की रचना हुई है। काव्य का आधार है मनु का पहले श्रध्दा को फिर इड़ा को पत्नी के रूप में ग्रहण करना तथा इड़ा को बंदिनी या सर्वथा अधीन बनाने का प्रयत्न करने पर देवताओं का उनपर कोप करना। 'रूपक' की भावना के अनुसार श्रध्दा विश्वाससमन्वित रागात्मिका वृत्ति है और इड़ा व्यवसायात्मिका बुद्धि । कवि ने श्रध्दा को मृदुता, प्रेम और करुणा का प्रवर्तन करनेवाली और सच्चे आनंद तक पहुँचाने वाली चित्रित किया है। इड़ा या बुद्धि अनेक प्रकार के वर्गीकरण और व्यवस्थाओं में प्रवृत्त करती हुई कर्मों में उलझाने वाली चित्रित की गई है।

कथा इस प्रकार चलती है। जलप्रलय के बाद मनु की नाव हिमवान की चोटी पर लगती है और मनु वहाँ चिंताग्रस्त बैठे हैं। मनु पिछली सृष्टि की बातें और आगे की दशा सोचते सोचते शिथिल और निराश हो जाते हैं। यह चिंता 'बुद्धि , मति या मनीषा' का ही रूप कही गई है जिससे आरंभ में ही 'बुद्धि वाद' के विरोध का किंचित् आभास मिल जाता है। धीरे धीरे आशा का स्मरणीय उदय होता है और श्रध्दा की मनु से भेंट होती है। श्रध्दा के साथ मनु शांतिपूर्वक कुछ दिन रहते हैं। पर पूर्व संस्कारवश कर्म की ओर फिर मनु की प्रवृत्ति होती है। आसुरी प्रेरणा से पशुहिंसापूर्ण काम्य यज्ञ करने लगते हैं जिससे श्रध्दा को विरक्ति होती है। वह यह देखकर दुखी होती है कि मनु अपने ही सुख की भावना में मग्न होते जा रहे हैें, उनके हृदय में सुख के, सब प्राणियों में, प्रसार का लक्ष्य नहीं जग रहा है जिससे मानवता का नूतन विकास होता। मनु चाहते हैं कि श्रध्दा का सारा सद्भाव, सारा प्रेम, एकमात्र उन्हीं पर स्थिर रहे, तनिक भी इधर उधर बँटने न पाए। इससे जब वह देखते हैं कि श्रध्दा पशुओं के बच्चों को प्रेम से पुचकारती है और अपनी गर्भस्थ संतति की सुखक्रीड़ा का आयोजन करती है तब उनके मन मेंर् ईष्या होती है और उसे हिमालय की उसी गुफा में छोड़कर वे अपनी सुखवासना लिए हुए चल देते हैं।

मनु उजड़े हुए सारस्वत प्रदेश में उतरते हैं जहाँ कभी श्रध्दा से हीन होकर सुर और असुर लड़े थे, इंद्र की विजय हुई थी। वे खिन्न होकर सोचते हैं कि क्या मैं भी उन्हीं के समान श्रध्दाहीन हो रहा हूँ। इसी बीच में अंतरिक्ष से 'काम' की अभिशापभरी वाणी सुनाई पड़ती है कि ,

मनु! तुम श्रध्दा को गए भूल।

उस पूर्ण आत्म विश्वासमयी को उड़ा दिया था समझ तूल

तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की।

समरसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की


यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि।

द्वयता में लगी निरंतर ही वर्णों की करती रहे वृष्टि

अनजान समस्याएँ ही गढ़ती, रचती हो अपनी ही विनष्टि।

कोलाहल कलह अनंत चले, एकता नष्ट हो, बढ़े भेद।

अभिलषित वस्तु तो दूर रहे, हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद

प्रभात होता है। मनु अपने सामने एक सुंदरी खड़ी पाते हैं ,

बिखरी अलकें ज्यों तर्क जाल।

यह विश्व मुकुट सा उज्जवलतम शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल

गुंजरित मधुप से मुकुल सदृश वह आनन जिसमें भरा गान।

वक्षस्थल पर एकत्र धारे संसृति के सब विज्ञान ज्ञान

था एक हाथ में कर्म कलश वसुधा जीवन रस सार लिए।

दूसरा विचारों के नभ को था मधुर अभय अवलंब दिए

यह इड़ा (बुद्धि ) थी? इसके साथ मनु सारस्वत प्रदेश की राजधानी में रह गए। मनु के मन में जब जगत् और उसके नियामक के संबंध में जिज्ञासा उठती है और उससे कुछ सहाय पाने का विचार आता है तब इड़ा कहती है ,

हाँ! तुम ही हो अपने सहाय।

जो बुद्धि कहे उसको न मानकर फिर किसकी नर शरण जाय?

यह प्रकृति परम रमणीय अखिल ऐश्वर्यभरी शोधाकविहीन।

तुम उसका पटल खोलने में परिकर कसकर बन कर्मलीन

सबका नियमन शासन करते बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता।

तुम जड़ता को चैतन्य करो, विज्ञान सहज साधन उपाय

मनु वहाँ इड़ा के साथ प्रजा के शासन की पूरी व्यवस्था करते हैं। नगर की श्रीवृद्धि होती है। प्रकृति बुद्धि बल से वश में की जाती है। खेती धूमधाम से होने लगती है। अनेक प्रकार के उद्योग धांधो खड़े होते हैं। धाातुओं के नए नए अस्त्रा शस्त्रा बनते हैं। मनु अनेक प्रकार के नियम प्रचलित करके, जनता का वर्णों या वर्गों में विभाग करके लोक का संचालन करते हैं। 'अहं' का भाव जोर पकड़ता है। वे अपने को स्वतंत्र नियामक और प्रजापति मानकर सब नियमाें से परे रहना चाहते हैं। इड़ा उन्हें नियमों के पालन की सलाह देती है, पर वे नहीं मानते। इड़ा खिन्न होकर जाना चाहती है, पर मनु अपना अधिकार जताते हुए पकड़ रखते हैं। पकड़ते ही द्वार गिर पड़ता है। प्रजा जो दर्ुव्यवहारों से क्षुब्ध होकर राजभवन घेरे थी, भीतर घुस पड़ती है। देवशक्तियाँ भी कुपित हो उठती हैं। शिव का तीसरा नेत्रा खुल जाता है। प्रजा का रोष बढ़ता है। मनु युद्ध करते हैं और मूर्छित होकर गिर पड़ते हैं।

उधर श्रध्दा इसी प्रकार के विप्लव का भयंकर स्वप्न देखकर अपने कुमार को लेकर मनु को ढूँढ़ती वहाँ पहुँचती है। मनु उसे देखकर क्षोभ और पश्चात्तााप से भर जाते हैं। फिर उन सुंदर दिनों को याद करते हैं जब श्रध्दा के मिलने से उनका जीवन सुंदर और प्रफुल्ल हो गया था; जो जगत् पीड़ा और हलचल से व्यथित था वही विश्वास से पूर्ण, शांत, उज्ज्वल और मंगलमय बन गया था। मनु उससे चटपट अपने को वहाँ से निकाल ले चलने को कहते हैं। जब रात हुई तब मनु उठकर चुपचाप वहाँ से न जाने कहाँ चल दिए। उनके चले जाने पर श्रध्दा और इड़ा की बातचीत होती है और इड़ा अपनी बाँधी हुई अधिकार व्यवस्था के इस भयंकर परिणाम को देख अपना साहस छूटने की बात कहती है ,

श्रम भाग वर्ग बन गया जिन्हें।

अपने बल का है गर्व उन्हें

अधिकार न सीमा में रहते।

पावस निर्झर से वे बहते

सब पिए मत्ता लालसा घूँट।

मेरा साहस अब गया छूट

इस पर श्रध्दा बोली ,

बन विषय धवांत

सिर चढ़ी रही पाया न हृदय, तू विकल कर रही है अभिनय।

सुख दुख की मधुमय धूप छाँह, तूने छोड़ी यह सरल राह।

चेतनता का भौतिक विभाग , कर, जग को बाँट दिया विराग।

चिति का स्वरूप यह नित्य जगत्, यह रूप बदलता है शत शत।

कण विरह मिलन मय नृत्य निरत, उल्लासपूर्ण आनंद सतत

अंत में श्रध्दा अपने कुमार को इड़ा के हाथों में सौंप मनु को ढूँढ़ने निकली और उन्हें उसने सरस्वती तट पर एक गुफा में पाया। मनु उस समय ऑंखें बंद किए चित्ता् शक्ति का अंतर्नाद सुन रहे थे, ज्योतिर्मय पुरुष का आभास पा रहे थे, अखिल विश्व के बीच नटराज का नृत्य देख रहे थे। श्रध्दा को देखते ही वे हतचेत पुकार उठे कि 'श्रध्दे! उन चरणों तक ले चल।' श्रध्दा आगे आगे और मनु पीछे पीछे हिमालय पर चढ़ते चले जाते हैं। यहाँ तक कि वे ऐसे महादेश में अपने को पाते हैं जहाँ वे निराधार ठहरे जान पड़ते हैं। भूमंडल की रेखा का कहीं पता नहीं। यहाँ अब कवि पूरे रहस्यदर्शी का बाना धारण करता है और मन के भीतर एक नई चेतना (इस चेतना से भिन्न) का उदय बतलाता है। अब मनु को त्रिादिक् (थ्रीडाइमेंशस) विश्व और त्रिाभुवन के प्रतिनिधि अलग अलग तीन आलोकबिंदु दिखाई पड़ते हैं जो 'इच्छा', 'ज्ञान' और 'क्रिया' के केंद्र से हैं। श्रध्दा एक एक का रहस्य समझाती है।

पहले 'इच्छा' का मधु, मादकता और अंगड़ाई वाला माया राज्य है जो रागारुण उषा के वं+दुक सा सुंदर है और जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधा की पारदर्शिनी पुतलियाँ रंग बिरंगी तितलियों के समान नाच रही हैं। यहाँ चलचित्रों की संसृतिछायाचारोंओरघूम रही है और आलोक बिंदु को घेरकर बैठी हुई माया मुस्करा रही है। यहाँ चिर वसंत का उद्गम भी है और एक ओर पतझड़ भी अर्थात् सुख और दु:ख एक सूत्र में बँधो हैं। यहीं पर मनोमय विश्व रागारुण चेतना की उपासना कर रहा है।

फिर 'कर्म' का श्यामल लोक सामने आता है जो धाुएँ सा धुँधला है, जहाँ क्षण भर विश्राम नहीं है, और संघर्ष और विफलता का कोलाहल रहता है, आकांक्षा की तीव्र पिपासा बनी रहती है, भाव राष्ट्र के नियम दंड बने हुए हैं, सारा समाज मतवाला हो रहा है।

सबके पीछे 'ज्ञानक्षेत्र' आता है जहाँ सदा बुद्धि चक्र चलता रहता है, सुख दु:ख से उदासीनता रहती है। यहाँ के निरंकुश अणु तर्कयुक्ति से अस्ति नास्ति का भेद करते रहते हैं और निस्संग होकर भी मोक्ष से संबंध जोड़े रहते हैं। यहाँ केवल प्राप्य(मोक्ष या छुटकारा भर) मिलता है, तृप्ति (आनंद) नहीं, जीवनरस अछूता छोड़ा रहता है जिससे बहुत सा इकट्ठा होकर एक साथ मिले। इससे तृषा ही तृषा दिखाई देती है।

अंत में इन तीनों ज्योतिर्मय बिंदुओं को दिखाकर श्रध्दा कहती है कि यही त्रिापुर है जिसमें इच्छा, कर्म और ज्ञान एक दूसरे से अलग अलग अपने केंद्र आप ही बने हुए हैं। इनका परस्पर न मिलना ही जीवन की असली विडंबना है। ज्ञान अलग पड़ा है, कर्म अलग। अत: इच्छा पूरी कैसे हो सकती है? यह कहकर श्रध्दा मुस्कराती है जिससे ज्योति की एक रेखा तीनों में दौड़ जाती है और चट तीनों एक में मिलकर प्रज्वलित हो उठते हैं और सारे विश्व में शृंग और डमरू का निनाद फैल जाता है। उस अनाहत नाद में मनु लीन हो जाते हैं।

इस रहस्य को पार करने पर फिर आनंदभूमि दिखाई गई है। वहाँ इड़ा भी कुमार (मानव) को लिए अंत में पहुँचती है और देखती है कि पुरुष पुरातन प्रकृति से मिला हुआ अपनी ही शक्ति से लहरें मारता हुआ आनंदसागर सा उमड़ रहा है। यह सब देख इड़ा श्रध्दा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करती हुई कहती है कि 'मैं अब समझ गई कि मुझमें कुछ भी समझ नहीं थी। व्यर्थ लोगों को भुलाया करती थी; यही मेरा काम था।' फिर मनु कैलास की ओर दिखाकर उस आनंदलोक का वर्णन करते हैं जहाँ पापताप कुछ भी नहीं है; सब समरस है और 'अभेद में भेद' वाले प्रसिद्ध सिध्दांत का कथन करके कहते हैं ,

अपने दुख सुख से पुलकित यहर् मूत्ता विश्व सचराचर।

चिति का विराट वपु मंगल यह सत्य सतत चिर सुंदर

अंत में प्रसादजी वहीं प्रकृति से सारे सुख, भोग, कांति, दीप्ति की सामग्री जुटाकर लीन हो जाते हैं , वे ही वल्लरियाँ, पराग, मधु, मकरंद, अप्सराएँ बनी हुई रश्मियाँ।

यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसका विचारात्मक आधार या अर्थभूमि केवल इतनी ही है कि श्रध्दा या विश्वासमयी रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शांतिमय आनंद का अनुभव और चारों ओर प्रसार करती हुई कल्याणमार्ग पर ले चलती है और निर्विशेष आनंदधाम तक पहुँचाती है। इड़ा या बुद्धि मनुष्य को सदा चंचल रखती है, अनेक प्रकार के तर्कवितर्कऔर निर्मम कर्मजाल में फँसाए रहती है और तृप्ति या संतोष के आनंद से दूर रखती है। अंत में पहुँचकर कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान के सामंजस्य पर, तीनों के मेल पर जोर दिया है। एक दूसरे से अलग रहने पर ही जीवन में विषमता आती है।

जिस समन्वय का पक्ष कवि ने अंत में सामने रखा है उसका निर्वाह रहस्यवाद की प्रवृत्ति के कारण काव्य के भीतर नहीं होने पाया है। पहले कवि ने कर्म को बुद्धि या ज्ञान की प्रवृत्ति के रूप में दिखाया, फिर अंत में कर्म और ज्ञान के बिंदुओं को अलग अलग रखा। पीछे आया हुआ ज्ञान भी बुद्धि व्यवसायात्मक ज्ञान ही है (योगियों या रहस्यवादियों का परज्ञान नहीं) यह बात 'सदा चलता है बुद्धि चक्र' से स्पष्ट है। जहाँ 'रागारुण कंदुक सा भावमयी प्रतिभा का मंदिर' इच्छाबिंदु मिलता है वहाँ इच्छा रागात्मिका वृत्ति के अंतर्गत है; अत: रतिकाम से उत्पन्न श्रध्दा की ही प्रवृत्ति ठहरती है। पर श्रध्दा उससे अलग क्या तीनों बिंदुओं से परे रखी गई है।

रहस्यवाद की परंपरा में चेतना से असंतोष की रूढ़ि चली आ रही है। प्रसादजी काव्य के आरंभ में ही 'चिंता' के अंतर्गत कहते हैं ,

मनु का मन था विकल हो उठा संवेदन से खाकर चोट।

संवेदन! जीवन जगती को जो कटुता से देता घोंट

संवेदन का और हृदय का यह संघर्ष न हो सकता।

फिर अभाव असफलताओं की गाथा कौन कहाँ बकता

इन पंक्तियों में तो 'संवेदन' बोध वृत्ति के अर्थ में व्यवहृत जान पड़ता है, क्योंकि सुख दुखात्मक अनुभूति के अर्थ में लें तो हृदय के साथ उसका संघर्ष कैसा? बोध के एकदेशीय अर्थ में भी यदि हम 'संवेदन' को लें तो भी उसे भावभूमि से खारिज नहीं कर सकते। प्रत्येक 'भाव' का प्रथम अवयव विषयबोध ही होता है। स्वप्नदशा में भी, जिसका रहस्य क्षेत्र में कड़ा माहात्म्य है यह विषयबोध रहता है। श्रध्दा जिस करुणा, दया आदि की प्रवर्तिका कही गई है, उसमें दूसरों की पीड़ा का बोध मिला रहता है।

आगे चलकर यह 'संवेदन' शब्द अपने वास्तविक या अवास्तविक दु:ख पर कष्टानुभव के अर्थ में आया है। मनु की बिगड़ी हुई प्रजा उनसे कहती है ,

हम संवेदनशील हो चले, यही मिला सुख।

कष्ट समझने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुख

मतलब यह कि अपनी किसी स्थिति को लेकर दु:ख का अनुभव करना ही संवेदन है। दु:ख को पास न फटकने देना, अपनी मौज में , मधुमकरंद में , मस्त रहना ही वांछनीय स्थिति है। असंतोष से उत्पन्न अवास्तविक कष्टकल्पना के दु:खानुभव के अर्थ में ही इस शब्द को जकड़ रखना भी व्यर्थ प्रयास कहा जाएगा। श्रध्दा जिस करुणा दया आदि की प्रवर्तिका कही गई है, वह दूसरों की पीड़ा का संवेदन ही तो है। दूसरों के दु:ख का अपना दु:ख हो जाना ही तो करुणा है। परदु:खानुभव अपनी ही सत्ता का प्रसार तो सूचित करता है। चाहे जिस अर्थ में लें, संवेदन का तिरस्कार कोई अर्थ नहीं रखता।

संवेदन, चेतना, जागरण आदि के परिहार का जो बीच बीच में अभिलाष है उसे रहस्यवाद का तकाजा समझना चाहिए। ग्रंथ के अंत में जो हृदय, बुद्धि और कर्म के मेल या सामंजस्य का पक्ष रखा गया है, वह बहुत समीचीन है। उसे हम गोस्वामी तुलसीदास में, उनके भक्तिमार्ग की सबसे बड़ी विशेषता के रूप में दिखा चुके हैं। अपने कई निबंधों में हम जगत् की वर्तमान अशांति और अव्यवस्था का कारण इसी सामंजस्य का अभाव कह चुके हैं। पर इस सामंजस्य का स्वर हम 'कामायनी' में और कहीं नहीं पाते हैं। श्रध्दा जब कुमार को लेकर प्रजाविद्रोह के उपरांत सारस्वत नगर में पहुँचती है तब 'इड़ा' से कहती है कि 'सिर चढ़ी रही पाया न हृदय'। क्या श्रध्दा के संबंध में नहीं कहा जा सकता था कि 'रस पगी रही पाई न बुद्धि ?' जब दोनों अलग अलग सत्ताएँ करके रखी गई हैं तब एक को दूसरी से शून्य कहना, और दूसरी को पहली से शून्य कहना, गड़बड़ में डालता है। पर श्रध्दा में किसी प्रकार की कमी की भावना कवि की एकांतिक मधुर भावना के अनुकूल न थी।

बुद्धि की विगर्हणा द्वारा 'बुद्धि वाद' के विरुद्ध उस आधुनिक आंदोलन का आभास भी कवि का इष्ट जान पड़ता है जिसके प्रवर्तक अनातोले फ्रांस ने कहा है कि 'बुद्धि के द्वारा सत्य को छोड़कर और सब कुछ सिद्ध हो सकता है। बुद्धि पर मनुष्य को विश्वास नहीं होता। बुद्धि या तर्क का सहारा तो लोग अपनी भली बुरी प्रवृत्तियों को ठीक प्रमाणित करने के लिए लेते हैं।'

विज्ञान द्वारा सुखसाधानों की वृद्धि के साथ साथ विलासिता और लोभ की असीम वृद्धि तथा यंत्राों के परिचालन से जनता के बीच फैली हुई घोर अशक्तता, दरिद्रता आदि के कारण वर्तमान जगत् की जो विषम स्थिति हो रही है उसका भी थोड़ा सा आभास मनु की विद्रोही प्रजा के इन वचनों द्वारा दिया गया है ,

प्रकृति शक्ति तुमने यंत्रों से सबकी छीनी।

शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी

वर्गहीन समाज की साम्यवादी पुकार की भी दबी सी गूँज दो तीन जगह है। 'विद्युत् कण (इलेक्ट्रांस) मिले झलकते से' में विज्ञान की भी झलक है।

यदि मधुचर्या का अतिरेक और रहस्य की प्रवृत्ति बाधक न होती तो इस काव्य के भीतर मानवता की योजना शायद अधिक पूर्ण और सुव्यवस्थित रूप में चित्रित होती। कर्म को कवि ने या तो काम्ययज्ञों के बीच दिखाया है अथवा उद्योगधांधाों या शासनविधानों के बीच। श्रध्दा के मंगलमय योग से किस प्रकार कर्म धर्म का रूप धारण करता है, यह भावना कवि से दूर ही रही। इस भव्य और विशाल भावना के भीतर उग्र और प्रचंड भाव भी लोक के मंगल विधान के अंग हो जाते हैं। श्रध्दा और धर्म का संबंध अत्यंत प्राचीनकाल से प्रतिष्ठित है। महाभारत में श्रध्दा धर्म की पत्नी कही गई है। हृदय के आधो पक्ष को अलग रखने से केवल कोमल भावों की शीतलछाया के भीतर आनंद का स्वप्न देखा जा सकता है; व्यक्त जगत् के बीच उसका आविर्भाव और अवस्थान नहीं दिखाया जा सकता।

यदि हम इस विशद काव्य की अंतर्योजना पर न ध्यान दें, समष्टि रूप में कोई समन्वित प्रभाव न ढूँढ़े, श्रध्दा, काम, लज्जा, इड़ा इत्यादि को अलग अलग लें तो हमारे सामने बड़ी रमणीय चित्रमयी कल्पना, अभिव्यंजना की अत्यंत मनोरम पद्ध ति आती है। इन वृत्तियों की आभ्यंतर प्रेरणाओं और बाह्य प्रवृत्तियों को बड़ी मार्मिकता से परखकर इनके स्वरूपों की नराकार उद्भावना की गई है। स्थान स्थान पर प्रकृति की मधुर, भव्य और आकर्षक विभूतियों की योजना का तो कहना ही क्या है। प्रकृति के धवंसकारी भीषण रूपवेग का भी अत्यंत व्यापक परिधिा के बीच चित्रण हुआ है। इस प्रकार प्रसादजी प्रबंध क्षेत्र में भी छायावाद की चित्रविधान और लाक्षणिक शैली की सफलता की आशा बँधा गए हैं।

2. श्री सुमित्रानंदन पंत , पंतजी की रचनाओं का आरंभ संवत् 1975 से समझना चाहिए। इनकी प्रारंभिक कविताएँ 'वीणा' में, जिसमें 'हृत्तांत्राी के तार' भी है, संगृहीत हैं। उन्हें देखने पर 'गीतांजलि' का प्रभाव कुछ लक्षित अवश्य होता है; पर साथ ही आगे चलकर प्रवर्धित चित्रमयी भाषा के उपयुक्त रमणीय कल्पना का जगह जगह बहुत ही प्रचुर आभास मिलता है। गीतांजलि का रहस्यात्मक प्रभाव ऐसे गीतों को देखकर ही कहा जा सकता है ,

हुआ था जब संधया आलोक

हँस रहे थे तुम पश्चिम ओर,

विहगरव बन कर मैं, चितचोर!

गा रहा था गुण; किंतु कठोर

रहे तुम नहीं वहाँ भी, शोक।

पर पंतजी की रहस्यभावना प्राय: स्वाभाविक ही रही; 'वाद' का सांप्रदायिक स्वरूप उसने शायद ही कहीं ग्रहण किया हो। उनकी जो एक बड़ी विशेषता है प्रकृति के सुंदर रूपों की आह्लादमयी अनुभूति, वह 'वीणा' में भी कई जगह पाई जाती है। सौंदर्य का आह्लाद उनकी कल्पना को उत्तोजित करके ऐसे अप्रस्तुत रूपों की योजना में प्रवृत्त करता है जिनसे प्रस्तुत रूपों की सौंदर्यानुभूति के प्रसार के लिए अनेक मार्ग से खुल जाते हैं। 'वीण्ाा' की कविताओं में इसने लोगों को बहुत आकर्षित किया ,

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि! तूने कैसे पहचाना?

कहाँ कहाँ हे बालविहंगिनी? पाया तूने यह गाना?

निराकार तम मानो सहसा ज्योतिपुंज में हो साकार।

बदल गया द्रुत जगज्जाल में धारकर नाम रूप नाना।

खुले पलक, फैली सुवर्ण छबि खिली सुरभि डोले मधुबाल।

स्पंदन, कंपन, नव जीवन फिर सीखा जग ने अपनाना।

उस मूर्तिमती लाक्षणिकता का आभास जो 'पल्लव' में जाकर अपनी हद को पहुँची है, 'वीणा' से ही मिलने लगता है, जैसे ,

मारुत ने जिसकी अलकों में

चंचल चुंबन उलझाया।

अंधकार का अलसित अंचल

अब दु्रत ओढ़ेगा संसार

जहाँ स्वप्न सजते श्रृंगार।

'वीणा' के उपरांत 'ग्रंथि' है , असफल प्रेम की। इसमें एक छोटे से प्रेमप्रसंग का आधार लेकर युवक कवि ने प्रेम की आनंदभूमि में प्रवेश, फिर चिरविषाद के गर्त में पतन दिखाया है। प्रसंग की कोई नई उद्भावना नहीं है। करुणा और सहानुभूति से प्रेम का स्वाभाविक विकास प्रदर्शित करने के लिए जो वृत्त उपन्यासों और कहानियों में प्राय: पाए जाते हैं, जैसे , डूबने से बचानेवाले, अत्याचार से रक्षा करने वाले, बंदीगृह में पड़ने या रणक्षेत्र में घायल होने पर सेवा सुश्रूषा करनेवाली के प्रति प्रेम संचार , उन्हीं में से चुनकर भावों की व्यंजना के लिए रास्ता निकाला गया है। झील में नाव डूबने पर एक युवक डूबकर बेहोश होता है और ऑंख खुलने पर देखता है कि एक सुंदरी युवती उसका सिर अपने जंघे पर रखे हुए उसकी ओर देख रही है। इसके उपरांत दोनों में प्रेमव्यापार चलता है, पर अंत में समाज के बड़े लोग इस स्वेच्छाचार को न सहन करके उस युवती का ग्रंथिबंधान दूसरे पुरुष के साथ कर देते हैं। यही ग्रंथिबंधान उस युवक या नायक के हृदय में एक ऐसी विषादग्रंथि डाल देता है जो कभी खुलती ही नहीं; समाज के द्वारा किस प्रकार स्वभावत: उठा हुआ प्रेम कुचल दिया जाता है, इस कहानी द्वारा कवि को यही दिखाना था। यद्यपि प्रेम का स्रोत कवि ने करुणा की गहराई से निकाला है पर आगे चलकर उसके प्रवाह में भारतीय पद्ध ति के अनुसार हासविनोद की झलक भी दिखाई है। कहानी तो एक निमित्तामात्र जान पड़ती है; वास्तव में सौंदर्य भावना की अभिव्यक्ति औरआशा, उल्लास, वेदना, स्मृति इत्यादि की अलग अलग व्यंजना पर ही ध्यान जाता है।

पंतजी की पहली प्रौढ़ रचना 'पल्लव' है जिसमें प्रतिभा के उत्साह या साहस का तथा पुरानी काव्यपद्ध ति के विरुद्ध प्रतिक्रिया का बहुत चढ़ा बढ़ा प्रदर्शन है। इसमें चित्रमयी भाषा, लाक्षणिक वैचित्रय, अप्रस्तुत विधान इत्यादि की विशेषताएँ प्रचुर परिमाण मेंं भरी सी पाई जाती हैं। 'वीणा' और 'पल्लव' दोनों में अंग्रेजी कविताओं से लिए हुए भाव और अंग्रेजी भाषा के लाक्षणिक प्रयोग बहुत से मिलते हैं। कहीं कहीं आरोप और अधयवसान व्यर्थ और अशक्त हैं, केवल चमत्कार और वक्रता के लिए रखे प्रतीत होते हैं, जैसे , 'नयनों के बाल' = ऑंसू। 'बाल' शब्द जोड़ने की प्रवृत्ति बहुत अधिक पाई जाती है, जैसे , मधुबाल, मधुपों के बाल। शब्द का मनमाने लिंगों में प्रयोग भी प्राय: मिलता है। कहीं कहीं वैचित्रय के लिए एक ही प्रयोग में दो लक्षणाएँ गुंफित पाई जाती हैं , अर्थात् एक लक्ष्यार्थ से फिर दूसरे लक्ष्यार्थ पर जाना पड़ता है, जैसे , 'मर्म पीड़ा के हास' में पहले 'हास' का अर्थ लक्षणलक्षणा द्वारा वृद्धि या विकास लेना पड़ता है, फिर यह जानकर कि सारा संबोधन कवि अपने या अपने मन के लिए करता है, हमें सारी पदावली का उपादान लक्षणा द्वारा लक्ष्यार्थ लेना पड़ता है, 'हे बढ़ी हुई मर्म पीड़ा वाले मन'। इसी प्रकार कहीं कहीं दो अप्रस्तुत भी एक में उलझे हुए पाए जाते हैं, जैसे , 'अरुण कलियों से कोमल घाव'। पहले 'घाव' के लिए वर्ण के सादृश्य और कोमलता के साधार्म्य से 'कली' की उपमा दी गई। पर 'घाव' स्वयं अप्रस्तुत या लाक्षणिक है और उसका अर्थ है 'कसकती हुई स्मृति'। इस तरह एक अप्रस्तुत लाकर फिर उस प्रस्तुत के लिए दूसरा अप्रस्तुत लाया गया है। इसी प्रकार दो दो उपमान एक में उलझे हमें 'गुंजन' की इन पंक्तियों में मिलते हैं ,

अरुण अधारों की पल्लव प्रात,

मोतियों सा हिलता हिम हास।

कहीं कहीं पर साम्य बहुत ही सुंदर और व्यंजक हैं। वे प्रकृति के व्यापारों के द्वारा मानसिक व्यापारों की बड़ी रमणीय व्यंजना करते हैं, जैसे ,

तड़ित सा सुमुखि! तुम्हारा ध्यान प्रभा के पलक मार उर चीर।

गूढ़ गर्जन कर जब गंभीर मुझे करता है अधिक अधीर

जुगुनुओं से उड़ मेरे प्राण खोजते हैं तब तुम्हें निदान।

पूर्व सुधि सहसा जब सुकुमारि सरल शुक सी सुखकर सुर में।

तुम्हारी भोली बातें कभी दुहराती हैं उर में

जिस प्रकार भावों या मनोवृत्तियों का स्वरूप बाह्य वस्तुओं के साम्य द्वारा सामने लाया जाता है, उसी प्रकार कभी कभी बाह्य वस्तुओं के साम्य के लिए आभ्यंतर भावों या मनोव्यापारों की ओर संकेत किया जाता है, जैसे ,

अचल के जब वे विमल विचार अवनि से उठ उठ करऊपर।

विपुल व्यापकता में अविकार लीन हो जाते थे सत्वर

हिमालय प्रदेश में यह दृश्य प्राय: देखने को मिलता है कि रात में जो बादल खवें में भर जाते हैं, वे प्रभात होते ही धीरे धीरे बहुत से टुकड़ों में बँटकर पहाड़ के ऊपर इधर उधर चढ़ते दिखाई देने लगते हैं और अंत में अनंत आकाश में विलीन हो जाते हैं। इसका साम्य कवि ने अचल ध्यान में मग्न योगी से दिखाया है जिसकी निर्मल मनोवृत्तियाँ उच्चता को प्राप्त होती हुई उस अनंत सत्ता में मिल जाती हैं।

पर 'छाया', 'वीचिविलास', 'नक्षत्रा', ऐसी कविताओं में, जहाँ उपमानों के ढेर लगे हुए हैं, बहुत से उपमान पुराने ढंग के खेलवाड़ के रूप में भी हैं, जैसे ,

बारि बेलि सी फैल अमूल छा अपत्र सरिता के कूल।

विकसा औ सकुचा नव जात बिना नाल के फेनिलफूल

(वीचिविलास)

अहे! तिमिर चरते शशिशावक

इंदु दीप से दग्धा शलभ शिशु!

शुचि उलूक अब हुआ बिहान,

अंधकारमय मेरे उर में,

आओ छिप जाओ अनजान ।

(नक्षत्रा)

सबेरा होने पर नक्षत्रा भी छिप जाते हैं, उल्लू भी। बस इतने से साधार्म्य को लेकर कवि ने नक्षत्राों को उल्लू बनाया है , साफ सुथरे उल्लू सही , और उन्हें अंधेरे उर में छिपने के लिए आमंत्रिात किया है। पर इतने उल्लू यदि डेरा डालेंगे तो मन की दशा क्या होगी? कवि को यदि अपने हृदय के नैराश्य और अवसाद की व्यंजना करनी थी तो नक्षत्राों को बिना उल्लू बनाए भी काम चल सकता था।

कहीं कहीं संकीर्ण समास पद्ध ति के कारण कवि की विवक्षित भावनाएँ अस्फुट सी हैं, जैसे नक्षत्राों के प्रति ये वाक्य ,

ऐ! आतुर उर के समान!

अब मेरी उत्सुक ऑंखों से उमड़ो।

मुग्धा दृष्टि की चरम विजय।

पहली पंक्ति में 'समान' शब्द उस सजावट के लिए आया है जो प्रिय से मिलने के लिए आतुर व्यक्ति उसके आने पर या आने की आशा पर बाहर अनेक प्रकार के सामानों द्वारा और भीतर प्रेम से जगमगाते अनेक सुंदर भावों द्वारा करता है। दूसरी पंक्ति में कवि का तात्पर्य यह है कि प्रियदर्शन के लिए उत्सुक ऑंखें असंख्य सी हो रही हैं। उन्हीं की ज्योति आकाश में नक्षत्राों के रूप में फैले। तीसरी पंक्ति में 'चरम विजय' का अभिप्राय है लगातार एकटक ताकते रहने में बाजी मारना।

पर इन साम्यप्रधान रचनाओं में कहीं कहीं बहुत ही सुंदर आध्यात्मिक कल्पना है, जैसे छाया के प्रति इस कथन में ,

हाँ सखि! आओ बाँह खोल हम लगकर गले जुड़ा लें प्राण।

फिर तुम तम में, मैं प्रियतम में हो जावें दु्रत अंतधर्ाान

कवि कहता है कि छायारूप जगत्! आओ मैं तुम्हें प्यार कर लूँ। फिर तुम कहाँ और मैं कहाँ! मैं अर्थात् मेरी आत्मा तो उस अनंत ज्योति में मिल जाएगी और तुम अव्यक्त प्रकृति या महाशून्य में विलीन हो जाओगे।

'पल्लव' के भीतर 'उच्छ्वास', 'ऑंसू', 'परिवर्तन' और 'बादल' आदि रचनाएँ देखने से पता चलता है कि यदि 'छायावाद' के नाम से 'वाद' न चल गया होता तो पंतजी स्वच्छंदता के शुद्ध स्वाभाविक मार्ग (ट्रघ रोमांटिसिज्म) पर ही चलते। उन्हें प्रकृति की ओर सीधे आकर्षित होनेवाला, उसके खुले और चिरंतन रूपों के बीच खुलनेवाला हृदय प्राप्त था। यही कारण है कि 'छायावाद' शब्द मुख्यत: शैली के अर्थ में चित्रभाषा के अर्थ में ही उनकी रचनाओं पर घटित होता है। रहस्यवाद की रूढ़ियों के रमणीय उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उनकी प्रतिभा बहुत कम प्रवृत्त हुई है। रहस्यभावना जहाँ है वहाँ अधिकतर स्वाभाविक है।

पल्लव में रहस्यात्मक रचनाएँ हैं , 'स्वप्न' और 'मौन निमंत्रण'। पर जैसा कि पहले कह आए हैं, पंतजी की रहस्यभावना स्वाभाविक है, सांप्रदायिक (डागमेटिक) नहीं। ऐसी रहस्यभावना इस रहस्यमय जगत् के नाना रूपों को देख प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के मन में कभी कभी उठा करती है। व्यक्त जगत् के नाना रूपों और व्यापारों के भीतर किसी अज्ञात चेतन सत्ता का अनुभव सा करता हुआ कवि इसे केवल अतृप्त जिज्ञासा के रूप में प्रकट करता है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि उस अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रेम की व्यंजना में भी कवि ने प्रिय और प्रेमिका का स्वाभाविक पुरुष स्त्री भेद रखा है, 'प्रसाद' जी के समान दोनों पुल्ंलिग रखकर फारसी या सूफी रूढ़ि का अनुसरण नहीं किया है। इसी प्रकार वेदना की वैसी बीभत्स विवृत्ति भी नहीं मिलती जैसी यह प्रसादजी की है ,

छिल छिल कर छाले फोड़े मल मल कर मृदुल चरण से।

जगत् के पारमार्थिक स्वरूप की जिज्ञासा बहुत ही सुंदर भोलेपन के साथ 'शिशु' को संबोधन करके कवि ने इस प्रकार की है ,

न अपना ही, न जगत् का ज्ञान, न परिचित हैं जिन नयन न कान।

दीखता है जग कैसा, तात! नाम गुण रूप अजान

कवि, यह समझकर कि शिशु पर अभी उस नामरूप का प्रभाव पूरा पूरा नहीं पड़ा है, जो सत्ता के पारमार्थिक स्वरूप को छिपा देता है उससे पूछता है कि 'भला बताओ तो, यह जगत् तुम्हें कैसा दिखाई पड़ता है?'12

छायावाद के भीतर माने जानेवाले सब कवियों में प्रकृति के साथ सीधा प्रेमसंबंध पंतजी का ही दिखाई पड़ता है। प्रकृति के अत्यंत रमणीय खंड के बीच उनके हृदय ने रूप रंग पकड़ा है। 'पल्लव', 'उच्छ्वास' और 'ऑंसू' में हम उस मनोरम खंड की प्रेमार्द्र स्मृति पाते हैं। यह अवश्य है कि सुषमा की ही उमंगभरी भावना के भीतर हम उन्हें रमते देखते हैं। 'बादल' को अनेक नेत्रााभिराम रूपों में उन्होंने कल्पना की रंगभूमि पर ले आकर देखा है, जैसे ,

फिर परियों के बच्चे से हम सुभग सीप के पंख पसार।

समुद पैरते शुचि ज्योत्स्ना में पकड़ इंदु के कर सुकुमार

पर प्रकृति के बीच उसके गूढ़ और व्यापक सौहार्द्र तक , ग्रीष्म की ज्वाला से संतृप्त चराचर पर उसकी छाया के मधुर, स्निग्ध, शीतल, प्रभाव तक; उसके दर्शन से तृप्त कृषकों के आशापूर्ण उल्लास तक , कवि ने दृष्टि नहीं बढ़ाई है। कल्पना के आरोप पर ही जोर देनेवाले 'कलावाद' के संस्कार और प्रतिक्रिया के जोश ने उसे मेघ को उस व्यापक प्रकृति भूमि पर न देखने दिया जिस पर कालिदास ने देखा था। आरोपविधाायिनी कल्पना की अपेक्षा प्रकृति के बीच किसी वस्तु के गूढ़ और अगूढ़ संबंधप्रसार का चित्रण करनेवाली कल्पना अधिक गंभीर और मार्मिक होतीहै।

साम्य का आरोप भी निस्संदेह एक बड़ा विशाल सिध्दांत लेकर काव्य में चला है। वह जगत् के अनंत रूपों या व्यापारों के बीच फैले हुए उन मोटे और महीन संबंधसूत्रों की झलक सी दिखाकर नरसत्ता के सूनेपन का भाव दूर करता है, अखिल सत्ता के एकत्व की आनंदमयी भावना जगाकर हमारे हृदय का बंधान खोलता है। जब हम रमणी के मुख के साथ कमल, स्मिति के साथ अधाखिली कलिका सामने पाते हैं तब ऐसा अनुभव होता है कि एक ही सौंदर्यधार से मनुष्य भी और पेड़ पौधो भी रूप रंग प्राप्त करते हैं। यहीं तक नहीं, भाषा ने व्यवहार की सुगमता के लिए अलग अलग शब्द रचकर जो भेद खड़े किए हैं वे भी कभी कभी इन आरोपों के सहारे थोड़ी देर के लिए हमारे मन से दूर हो जाते हैं। यदि किसी बड़े पेड़ के नीचे उसी के गिरे हुए बीजों से जमे हुए छोटे छोटे पौधों को हम आसपास खेलते उसके बच्चे कहें तो आत्मीयता का भाव झलक जाएगा।

'कलावाद' के प्रभाव से जिस सौंदर्यवाद का चलन योरप के काव्यक्षेत्र के भीतर हुआ उसका पंतजी पर पूरा प्रभाव रहा है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कई स्थानों पर सौंदर्य चयन को अपने जीवन की साधना कहा हेै, जैसे ,

धूल की ढेरी में अनजान छिपे हैं मेरे मधुमय गान।

कुटिल काँटे हैं कहीं कठोर, जटिल तरुजाल है किसी ओर,

सुमन दल चुनचुनकर निशि भोर, खोजना है अजान वह छोर

मेरा मधुकर का सा जीवन, कठिन कर्म है, कोमल है मन।

उस समय तक कवि प्रकृति के केवल सुंदर, मधुर पक्ष में अपने हृदय के कोमल और मधुर भावों के साथ लीन था। कर्ममार्ग उसे कठोर दिखाई पड़ता था। कर्मसौंदर्य का साक्षात्कार उसे नहीं हुआ था। उसका साक्षात्कार आगे चलकर हुआ जब वह धीरे धीरे जगत और जीवन के पूर्ण स्वरूप की ओर दृष्टि ले गया।

'पल्लव' के अंत में पंतजी जगत के विषम 'परिवर्तन' के नाना दृश्य सामने लाए हैं। इसकी प्रेरणा शायद उनके व्यक्तिगत जीवन की किसी विषम स्थिति ने दी है। जगत की परिवर्तनशीलता मनुष्य जाति को चिरकाल से क्षुब्ध करती आ रही है। परिवर्तन संसार का नियम है। यह बात स्वत: सिद्ध होने पर भी सहृदयों और कवियों का मर्मस्पर्श करती रही है, और करती रहेगी, क्योंकि इसका संबंध जीवन के नित्य स्वरूप से है। जीवन के व्यापक क्षेत्र में प्रवेश के कारण कविकल्पना को कोमल, कठोर, मधुर, कटु, करुण, भयंकर कई प्रकार की भूमियों पर बहुत दूर तक एक संबद्ध धारा के रूप में चलना पड़ा। जहाँ कठोर और भयंकर, भव्य और विशाल तथा अधिक अर्थसमन्वित भावनाएँ हैं वहाँ कवि ने रोला छंद का सहारा लिया है। काव्य में चित्रमयी भाषा सर्वत्र अनिवार्य नहीं; सृष्टि के गूढ, अगूढ़, मार्मिक तथ्यों के चयन द्वारा भी किसी भावना को मर्मस्पर्शी स्वरूप प्राप्त हो जाता है, इसका अनुभव शायद पंतजी को इस एक धारा में चलनेवाली लंबी कविता के भीतर हुआ है। इसी से कहीं कहीं हम सीधे सादे रूप में चुने हुए मार्मिक तथ्यों का सहारा मात्र पाते हैं, जैसे ,

तुम नृशंस नृप से जगती पर चढ़ अनियंत्रिात

करते हो संसृति को उत्पीड़ित, पदमर्दित;

नग्न नगर कर, भग्न भवन प्रतिमाएँ खंडित,

हर लेते हो विभव, कलाकौशल चिरसंचित

आधिा व्याधिा, बहु वृष्टि, वात उत्पात अमंगल।

वह्नि, बाढ़, भूकंप तुम्हारे विपुल सैन्यदल

चित्रमयी लाक्षणिक भाषा तथा रूपक आदि का भी बहुत ही सफल प्रयोग इस रचना के भीतर हुआ है। उसके द्वारा तीव्र मर्मवेदना जगानेवाली शक्ति की पूरी प्रतिष्ठा हुई है। दो एक उदाहरण लीजिए ,

अहे निष्ठुर परिवर्तन!

अहे वासुकि सहस्रफन!!

लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिद्द निरंतर।

छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर

शत शत फेनोच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर।

घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर

मृत्यु तुम्हारा गरल दंत कंचुक कल्पांतर।

अखिल विश्व ही विवर, वक्र कुंडल दिङ्मंडल

मृदुल होठों का हिम जल हास उड़ा जाता नि:श्वास समीर।

सरल भौहों का शरदाकाश घेर लेते घन घिर गंभीर


विश्वमय हे परिवर्तन!

अतल से उमड़ अकूल अपार

मेघ से विपुलाकार

दिशावधि में पल विविध प्रकार

अतल में मिलते तुम अविकार।

पहले तो कवि लगातार सुख का दु:ख में, उत्थान का पतन में, उल्लास का विषाद में, सरस सुषमा का शुष्कता और म्लानता में परिवर्तन सामने ला लाकर हाहाकार का एक विश्वव्यापक स्वर सुनता हुआ क्षोभ से भर जाता है, फिर परिवर्तन के दूसरे पक्ष पर भी , दु:खदशा से सुखदशा की प्राप्ति पर भी , थोड़ा दृष्टिपात करके चिंतनोन्मुख होता है और परिवर्तन को एक महाकरुण कांड के रूप में देखने के स्थान पर सुख दु:ख की उलझी हुई समस्या के रूप में देखता है, जिसकी पूर्ति इस व्यक्त जगत् में नहीं हो सकती, जिसका सारा रहस्य इस जीवन के उस पार ही खुल सकता है ,

आज का दुख, कल का आह्लाद

और कल का सुख, आज विषाद,

समस्या स्वप्न गूढ़ संसार,

पूर्ति जिसकी उस पार।

इस प्रकार तात्विक दृष्टि से जगत् के द्वंद्वात्मक विधान को समझकर कवि अपने मन को शांत करता है ,

मूँदती नयन मृत्यु की रात, खोलती नवजीवन की प्रात।

म्लान कुसुमों की मृदु मुसकान, फलों में फलती फिर अम्लान।

स्वीय कर्मों ही के अनुसार, एक गुण फलता विविधा प्रकार।

कहीं राखी बनता सुकुमार, कहीं बेड़ी का भार।


बिना दुख के सब सुख नि:सार, बिना ऑंसू के जीवन भार।

दीन दुर्बल है रे संसार, इसी से क्षमा, दया और प्यार।

और जीवन के उद्देश्य का भी अनुभव करता है ,

वेदना ही में तप कर प्राण दमक दिखलाते स्वर्ण हुलास।

अलभ है इष्ट, अत: अनमोल; साधना ही जीवन का मोल।

जीवन का एक सत्य स्वरूप लेकर अत्यंत मार्मिक अर्थपथ पर संबद्ध रूप में चलने के कारण, कल्पना की क्रीड़ा और वाग्वैचित्रय पर प्रधान लक्ष्य न रहने के कारण, इस 'परिवर्तन' नाम की सारी कविता का एक समन्वित प्रभाव पड़ता है।

'पल्लव' के उपरांत 'गुंजन' में हम पंतजी को जगत् और जीवन के प्रकृत क्षेत्र के भीतर और बढ़ते हुए पाते हैं, यद्यपि प्रत्यक्षबोध से अतृप्त होकर कल्पना की रुचिरता से तृप्त होने और बुद्धि व्यापार से क्लांत होकर रहस्य की छाया में विश्राम करने की प्रवृत्ति साथ ही साथ बनी हुई है। कवि जीवन का उद्देश्य बताता है , इस चारों ओर खिले हुए जगत् की सुषमा से अपने हृदय को सम्पन्न करना ,

क्या यह जीवन? सागर में जलभार मुखर भरदेना।

कुसुमित पुलिनों की क्रीड़ा व्रीड़ा से तनिक नलेना?

पर इस जगत् में सुखसुषमा के साथ दु:ख भी तो है। इसके इस सुख दु:खात्मक स्वरूप के साथ कवि अपने हृदय का सामंजस्य कर लेता है ,

सुख दुख के मधुर मिलन से वह जीवन हो परिपूरन।

फिर घन में ओझल हो शशि फिर शशि से ओझल होघन

कवि वर्तमान जगत् की इस अवस्था से असंतुष्ट है कि कहीं तो सुख की अति है, कहीं दु:ख की। वह समभाव चाहता है ,

जग पीड़ित है अति दुख से जग पीड़ित रे अति सुखसे।

मानव जग में बँट जावे दुख सुख से औ सुख दुख से।

'मानव' नाम की कविता में जीवनसौंदर्य की नूतन भावना का उदय कवि अपने मन में इस प्रकार चाहता है ,

मेरे मन के मधुवन में सुषमा के शिशु! मुसकाओ।

नव नव साँसों का सौरभ नव मुख का सुख बरसाओ

बुद्धि पक्ष ही प्रधान हो जाने से हृदयपक्ष जिस प्रकार दब गया है और श्रध्दाविश्वास का Ðास होता जा रहा है, इसके विरुद्ध योरप के अनातोले फ्रांस आदि कुछ विचारशील पुरुषों ने जो आंदोलन उठाया उसका आभास भी पंतजी की इन पंक्तियों में मिलता है ,

सुंदर विश्वासों से ही बनता रे सुखमय जीवन।

'नौकाविहार' का वर्णन अप्रस्तुत आरोपों से अधिक आच्छादित होने पर भी प्रकृति के प्रत्यक्ष रूपों की ओर कवि का खिंचाव सूचित करता है।

जैसे और जगह वैसे ही गुंजन में भी पंतजी की रहस्यभावना अधिकतर स्वाभाविक पथ पर पाई जाती है। दूर तक फैले हुए खेतों और मैदानों के छोर पर वृक्षावलि की जो धाुँधाली हरिताभ रेखा सी क्षितिज से मिली दिखाई पड़ती है उसके उधर किसी मधुर लोक की कल्पना स्वभावत: होती है ,

दूर उन खेतों के उस पार, जहाँ तक गई नील झंकार।

छिपा छायावन में सुकुमार स्वर्ग की परियों का संसार

कवि की रहस्य दृष्टि प्रकृति की आत्मा , जगत् के रूपों और व्यापारों में व्यक्त होनेवाली आत्मा , की ओर ही जाती है जो 'निखिल छवि की छवि है' और जिसका 'अखिल जगजीवन हासविलास' है। इस व्यक्त प्रसार के बीच उसका आभास पाकर कुछ क्षण के लिए आनंदमग्न होना ही मुक्ति है, जिसकी साधना सरल और स्वाभाविक है, हठयोग की सी चक्करदार नहीं। मुक्ति के लोभ से अनेक प्रकार की चक्करदार साधना तो बंधान है ,

है सहज मुक्ति का मधु क्षण, पर कठिन मुक्ति का बंधान।

कवि अपनी इस मनोवृत्ति को एक जगह इस प्रकार स्पष्ट भी करता है। वह कहता है कि इस जीवन की तह में जो परमार्थ तत्व छिपा हुआ कहा जाता है उसे पकड़ने और उसमें लीन होने के लिए उसमें बहुत से लोग अंतर्मुख होकर गहरी डुबकियाँ लगाते हैं, पर मुझे तो उसके व्यक्त आभास ही रुचिकर हैं, अपनी पृथक् सत्ता विलीन करते समय भय सा लगता है ,

सुनता हूँ इस निस्तल जल में रहती मछली मोती वाली;

पर मुझे डूबने का भय है; भाती तट की चल जलमाली।

आयेगी मेरे पुलिनों पर वह मोती की मछली सुंदर।

मैं लहरों के तट पर बैठा देखूँगा उसकी छबि जी भर

कहने का तात्पर्य यह कि पंतजी की स्वाभाविक रहस्यभावना को 'प्रसाद' और 'महादेवी वर्मा' की सांप्रदायिक रहस्यभावना से भिन्न समझना चाहिए। पारमार्थिक ज्ञानोदय को अवश्य उन्होंने 'कुछ भी आज न लूँगी मोल' नामक गीत में प्रकृति की सारी विभूतियों से श्रेष्ठ कहा है। रहस्यात्मकता की अपेक्षा कवि में दार्शनिकता अधिक पाई जाती है। 'विहग के प्रति' नाम की कविता में कवि ने अव्यक्त प्रकृति के बीच चैतन्य के सान्निधय से, शब्दब्रह्म के संचार या स्पंदन (बाईब्रेशन) से, सृष्टि के अनेक रूपात्मक विकास का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है ,

मुक्त पंखों में उड़ दिन रात सहज स्पंदित कर जग के प्राण।

शून्य नभ में भर दी अज्ञात, मधुर जीवन की मादक तान

छोड़ निर्जन का निभृत निवास, नीड़ में बँधा जग के सानंद।

भर दिये कलरव से दिशि आश गृहों में कुसुमित, मुदित अमंद

रिक्त होते जब जब तरुवास, रूप धार तू नव नव तत्काल।

नित्य नादित रखता सोल्लास, विश्व के अक्षयवट की डाल

'गुंजन' में भी पंतजी की प्रतिभा बहुत ही व्यंजक और रमणीय साम्य जगह जगह सामने लाती है, जैसे ,

खुल खुल नव नव इच्छाएँ, फैलाती जीवन के दल।

गा गा प्राणों का मधुकर, पीता मधुरस परिपूरण

इसी प्रकार लक्षण के सहारे बहुत ही अर्थगर्भित और व्यंजक साम्य इन पंक्तियों में हम पाते हैं ,

यह शैशव का सरल हास है सहसा उर से है आ जाता।

यह उषा का नव विकास है, जो रज को है रजत बनाता।

यह लघु लहरों का विलास है कलानाथ जिसमें खिंचआता

कवि का भाव तो इतना ही है कि बाल्यावस्था में यह सारी पृथ्वी कितनी सुंदर और दीप्तिपूर्ण दिखाई देती है, पर व्यंजना बड़े ही मनोहर ढंग से हुई है। जिस प्रकार अरुणोदय में पृथ्वी का एक एक कण स्वर्णाभ दिखाई देता है उसी प्रकार बालहृदय को यह सारी पृथ्वी दीप्तिमयी लगती है। जिस प्रकार सरोवर के हलके हलके हिलोरों में चंद्रमा (उसका प्रतिबिंब) उतरकर लहराता दिखाई देता है उसी प्रकार बालहृदय की उमंगों में स्वर्गीय दीप्ति फैली जान पड़ती है।

'गुंजन' में हम कवि का जीवनक्षेत्र के भीतर अधिक प्रवेश ही नहीं, उसकी काव्यशैली को भी अधिक संयत और व्यवस्थित पाते हैं। प्रतिक्रिया की झोंक में अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्रय आदि के अतिशय प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति हम 'पल्लव' में पाते हैं वह 'गुंजन' में नहीं है। उसमेंं काव्यशैली अधिक संगत, संयम और गंभीर हो गई है।

'गुंजन' के पीछे तो पंतजी वर्तमान जीवन के कई पक्षों को लेकर चलते दिखाई पड़ते हैं। उनके 'युगांत' में हम देश के वर्तमान जीवन में उठे हुए स्वरों की मीठी प्रतिध्वनि जगह जगह पाते हैं। कहीं परिवर्तन की प्रबल आकांक्षा है, कहीं श्रमजीवियों की दशा की झलक है, कहीं तर्क वितर्क छोड़ श्रध्दा विश्वासपूर्वक जीवनपथ पर साहस के साथ बढ़ते चलने की ललकार है , कहीं 'बापू के प्रति' श्रध्दांजलि है। 'युगांत' में कवि स्वप्नों से जगकर यह कहता हुआ सुनाई पड़ता है ,

जो सोए स्वप्नों के तम में वे जागेंगे यह सत्य बात।

जो देख चुके जीवननिशीथ वे देखेंगे जीवनप्रभात

'युगांत' में कवि को हम केवल रूप रंग, चमक दमक, सुख सौरभवाले सौंदर्य से आगे बढ़कर जीवन के सौंदर्य की सत्याश्रित कल्पना में प्रवृत्त पाते हैं। उसे बाहर जगत् में 'सौंदर्य, स्नेह, उल्लास' का अभाव दिखाई पड़ा है। इससे वह जीवन की सुंदरता की भावना मन में करके उसे जगत् में फैलाना चाहता है ,

सुंदरता का आलोक स्रोत है फूट पड़ा मेरे मन में।

जिससे नवजीवन का प्रभात होगा फिर जग के ऑंगन में

मैं सृष्टि एक रच रहा नवल भावी मानव के हित, भीतर।

सौंदर्य, स्नेह, उल्लास मुझे मिल सका नहीं जग में बाहर

अब कवि प्रार्थना करता है कि ,

जगजीवन में जो चिर महान्, सौंदर्यपूर्ण औ सत्यप्राण।

मैं उसका प्रेमी बनूँ नाथ! जिसमें मानवहित हो समान!!

नीरस और ठूठे जगत् में क्षीण कंकालों के लोक में वह जीवन का वसंतविकास चाहता है ,

कंकाल जाल जग में फैले फिर नवल रुधिार, पल्लव लाली।

ताजमहल के कलासौंदर्य को देख अनेक कवि मुग्धा हुए हैं। पर करोड़ों की संख्या में भूखों मरती जनता के बीच ऐश्वर्यविभूति के उस विशाल आडंबर के खड़े होने की मानवता से क्षुब्ध होकर युगांत के बदले हुए पंतजी कहते हैं ,

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन।

जब विषष्ण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन

मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति।

आत्मा का अपमान, प्रेत औ छाया से रति

शव को दें हम रूप रंग, आदर मानव का।

मानव को हम कुत्सित चित्र बनावें शव का

'पल्लव' में कवि अपने व्यक्तित्व के घेरे में बँधा हुआ, 'गुंजन' में कभी कभी उसके बाहर और 'युगांत' में लोक के बीच दृष्टि फैलाकर आसन जमाता हुआ दिखाई पड़ता है। 'गुंजन' तक वह जगत से अपने लिए सौंदर्य और आनंद का चयन करता प्रतीत होता है, युगांत में आकर वह सौंदर्य और आनंद का जगत में पूर्ण प्रसार देखना चाहता है। कवि की सौंदर्य भावना अब व्यापक होकर मंगलभावना के रूप में परिणत हुई है। अब तक कवि लोकजीवन के वास्तविक शीत और ताप से अपने हृदय को बचाता सा आता रहा; अब उसने अपना हृदय खुले जगत के बीच रख दिया है कि उसपर उसकी गतिविधि का सच्चा और गहरा प्रभाव पड़े। अब वह जगत और जीवन में जो कुछ सौंदर्य, माधुर्य प्राप्त है अपने लिए उसका स्तवक बनाकर तृप्त नहीं हो सकता। अब वह दु:ख, पीड़ा, अन्याय, अत्याचार के अंधकार को फाड़कर मंगलज्योति फूटती देखना चाहता है , मंगल का अमंगल के साथ वह संघर्ष देखना चाहता है, जो गत्यात्मक जगत का कर्मसौंदर्य है।

संधया होने पर अब कवि का ध्यान केवल प्रफुल्ल प्रसून, अलस, गंधावाह, रागरंजित और दीप्त दिगंचल तक ही नहीं रहता। वह यह भी देखता है कि ,

बाँसों का झुरमुट, संधया का झुटपुट

ये नाप रहे निज घर का मग

कुछ श्रमजीवी घर डगमग डग

भारी है जीवन, भारी पग!

जो पुराना पड़ गया है जीर्ण और जर्जर हो गया है और नवजीवन सौंदर्य लेकर आनेवाले युग के उपयुक्त नहीं है उसे पंतजी बड़ी निर्ममता के साथ हटाना चाहते हैं ,

दु्रत झरो जगत् के जीर्ण पत्र! हे त्रास्त, ध्वस्त! हे शुष्क, शीर्ण!

हिम ताप पीत, मधु वात भीत, तुम वीतराग, जड़ पुराचीन।

झरें जाति कुल वर्ण पर्ण घन, अंधा नीड़ से रूढ़ रीति छन

इस प्रकार कवि की वाणी में लोकमंगल की आशा और आकांक्षा के साथ घोर 'परिवर्तनवाद' का स्वर भी भर रहा है। गत युग के अवशेषों को ध्वस्त करने का अत्यंत रौद्र आग्रह प्रकट किया गया है ,

गर्जन कर मानव केसरि!

प्रखर नखर नवजीवन की लालसा गड़ा कर।

छिन्न भिन्न कर दे गत युग के शव को दुर्धार

ऐसे स्थलों को देख यह संदेह हो सकता है कि कवि अपनी वाणी को आंदोलनों के पीछे लगा रहा है या अपनी अनुभूति की प्रेरणा से परिचालित कर रहा है। आशा है कि पंतजी अपनी लोक मंगलभावना को ऐसे स्वाभाविक मर्मपथ पर ले चलेंगे जहाँ इस प्रकार के संदेह का अवसर न रहेगा।

'युगांत' में नरजीवन की वर्तमान दशा की अनुभूति ही सर्वत्र नहीं है। हृदय की नित्य और स्थायी वृत्तियों की व्यंजना भी, कल्पना की पूरी रमणीयता के साथ कई रचनाओं में मिलती है। सबसे ध्यान देने की बात यह है कि 'वाद' की लपेट से अपनी वाणी को कवि ने एक प्रकार से मुक्त कर लिया है। चित्रभाषा और लाक्षणिक वैचित्रय के अनावश्यक प्रदर्शन की वह प्रवृत्ति अब नहीं है जो भाषा और अर्थ की स्वाभाविक गति में बाधक हो। 'संधया', 'खद्योत', 'तितली', 'शुक' इत्यादि रचनाओं में जो रमणीय कल्पनाएँ हैं उनमें दूसरे के हृदय में ढलने की पूरी द्रवणशीलता है। 'तितली' के प्रति यह संबोधन लीजिए ,

प्रिय तितली! फूल सी ही फूली

तुम किस सुख में हो रही डोल?

क्या फूलों से ली, अनिल कुसुम!

तुमने मन के मधु की मिठास?

हवा में उड़ती रंग बिरंगी तितलियों के लिए 'अनिल कुसुम' शब्द की रमणीयता सबका हृदय स्वीकार करेगा। इसी प्रकार 'खद्योत' के सहसा चमक उठने पर यह कैसी सीधी सादी सुंदर भावना है ,

अंधिायाली घाटी में सहसा, हरित स्फुलिंग सदृग फूटा वह।

'युगवाणी' में तो वर्तमान जगत् में सामाजिक व्यवस्था के संबंध में प्राय: जितने वाद, जितने आंदोलन उठे हैं, सबका समावेश किया गया है। इस नाना वादाें के संबंध में अच्छा तो यह होता कि उसके नामों का निर्देश न करके, उनके भीतर जो जीवन का सत्यांश है उसका मार्मिक रूप सामने रख दिया जाता। ऐसा न होने से जहाँ इन वादों के नाम आए हैं वहाँ कवि का अपना रूप छिपा सा लगता है। इन वादों को लेकर चले हुए आंदोलन में कवि को मानवता के नूतन विकास का आभास मिलता दिखाई पड़ता है। वर्तमान पाश्चात्य साहित्य क्षेत्र की एक रूढ़ि (वर्शिप ऑव द फ्यूचर) के मेल में है। अत: लोक के भावी स्वरूप के सुंदर चित्र के प्रति व्यंजित ललक या प्रेम को कोई चाहे तो उपयोगिता की दृष्टि से कल्पित एक आदर्शभाव का उदाहरणमात्र कह सकता है। इसी प्रकार अतीत के सारे अवशेषाें को सर्वथा ध्वस्त देखने की रोषपूर्ण आकुलता का स्थान भी मनुष्य की स्थायी अंत:प्रकृति के बीच कहीं मिलेगा, इसमें संदेह है।

बात यह है कि इस प्रकार के भाव वर्तमान की विषम स्थिति से क्षुब्ध , कर्म में तत्पर मन के भाव हैं। ये कर्मकाल के भीतर जगे रहते हैं। कर्म में रत मनुष्य के मन में सफलता की आशा, अनुमित भविष्य के प्रति प्रबल अभिलाषा, बाधक वस्तुओं के प्रति रोष आदि का संचार होता है। ये व्यावहारिक हैं, अर्थसाधना की प्रक्रिया से संबंध रखते हैं और कर्मक्षेत्र में उपयोगी माने जाते हैं। पंतजी ने वर्तमान को जगत् का कर्मकाल मानकर उसके अनुकूल भावों का स्वरूप सामने रखा है। सारांश यह है कि जिस मन के भीतर कवि ने इन भावों का अवस्थान किया है वह 'कर्म का मन' है।

इस रूप में कवि यदि लोककर्म में प्रवृत्त नहीं तो कम से कम कर्मक्षेत्र में उतरे हुए लोगों के साथ चलता दिखाई पड़ रहा है। स्वतंत्र द्रष्टा का रूप उसका नहीं रह गया है। उसका तो 'सामूहिकता ही निजत्व धान' है। सामूहिक धारा जिधार जिधार चल रही है उधर उधर उसका स्वर भी मिला सुनाई पड़ रहा है। कहीं वह 'गत संस्कृति के गरल' धानपतियों के अंतिम क्षण बता रहा है, कहीं मध्य वर्ग को 'संस्कृति का दास और उच्च वर्ग की सुविधा का शास्त्रोक्त प्रचारक' तथा श्रमजीवियों को 'लोकक्रांति का अग्रदूत और नव्य सभ्यता का उन्नायक' कह रहा है और कहीं पुरुषों के अत्याचार से पीड़ित स्त्री जाति की यह दशा सूचित कर रहा है ,

पशु बल से कर जन शासित,

जीवन के उपकरण सदृश

नारी भी कर ली अधिकृत!

अपने ही भीतर छिप छिप

जग से हो गई तिरोहित।

पंतजी ने समाजवाद के प्रति भी रुचि दिखाई है और 'गाँधाीवाद' के प्रति भी। ऐसा प्रतीत होता है कि लोकव्यवस्था के रूप में तो 'समाजवाद' की बातें उन्हें पसंद हैं और व्यक्तिगत साधना के लिए 'गांधाीवाद' की बातें। कवि की दृष्टि में सब जीवों के प्रति आत्मभाव ही जीवनजगत् की 'मनुष्यत्व में परिणति' है। मनुष्य की अपूर्णता ही उसकी शोभा है। 'दुर्बलताओं से शोभित मनुष्यत्व सुरत्व से दुर्लभ है'। 'पूर्ण सत्य' और असीम को ही श्रध्दा के लिए ग्रहण करने के फेर में रहना सभ्यता की बड़ी भारी व्याधिा है। सीमाओं के द्वारा वे रेखाओं से मंगलविधायक आदर्श बनकर खड़े होते हैं। 'मानवपन' में दोष है, पर उन्हीं दोषों की रगड़ खाकर वह मँजता है, शुद्ध होता है ,

व्याधि सभ्यता की है निश्चित पूर्ण सत्य कापूजन।

प्राणहीन वह कला, नहीं जिसमें अपूर्णता शोभन

सीमाएँ आदर्श सकल, सीमाविहीन यह जीवन।

दोषों से ही दोष शुद्ध है मिट्टी का मानवपन

'समाजवाद' की बातें कवि ने ग्रहण की है पर अपना चिंतन स्वतंत्र रखा है। समाजवाद और संघवाद (कम्युनिज्म) के साथ लगा हुआ 'संकीर्ण भौतिकवाद' उसे इष्ट नहीं। पारमार्थिक दृष्टि से वह परात्परवादी है। आत्मा और भूतों के बीच संबंध स्थापित करनेवाला तत्व वह दोनों से परे बताता है ,

आत्मा औ भूतों में स्थापित करता कौन समत्व।

बहिरंतर, आत्मा भूतों से है अतीत वह तत्व

भौतिकता आध्यात्मिकता केवल उसके दो कूल।

व्यक्ति विश्व से, स्थूल सूक्ष्म से परे सत्य के मूल

यह परात्परभाव कवि की वर्तमान काव्यदृष्टि के कहाँ तक मेल में है, यह दूसरी बात है। पर जब हम देखते हैं कि उठे हुए सामयिक आंदोलन प्राय: एकांगदर्शी होते हैं, एक सीमा से दूसरी सीमा की ओर उन्मुख होते हैं तब उनके द्वारा आगामी भावसंस्कृति की जो हरियाली कवि को सूझ रही है वह निराधार सी लगती है। इससे हम तो यही चाहेंगे कि पंतजी आंदोलनों की लपेट से अलग रहकर जीवन के नित्य और प्रकृत स्वरूप को लेकर चलें और उसके भीतर लोकमंगल की भावना का अवस्थान करें।

जो कुछ हो यह देखकर प्रसन्नता होती है कि 'छायावाद' के बँधो घेरे से निकलकर पंतजी ने जगत् की विस्तृत अर्थभूमि पर स्वाभाविक स्वच्छंदता के साथ विचरने का साहस दिखाया है। सामने खुले हुए रूपात्मक व्यक्त जगत से ही सच्ची भावनाएँ प्राप्त होती हैं, रूप ही उर में मधुर भाव बन जाता है, इस 'रूपसत्य' का साक्षात्कार कवि ने किया है।

'युगवाणी' में नरजीवन पर ही विशेष रूप से दृष्टि जमी रहने के कारण कवि के सामने प्रकृति का वह रूप भी आया है जिसमें मनुष्य को लड़ना पड़ा है ,

वह्नि, बाढ़, उल्का, झंझा की भीषण भू पर।

कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर

'मानवता' के व्यापक संबंध की अनुभूति के प्रभाव से 'दो लड़के' में कवि को पासी के दो नंगधाडंग़े बच्चे प्यारे लगे हैं, जो ,

जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतर कर,

हैं चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ सुंदर ,

सिगरेट के खाली डिब्बे, पन्नी चमकीली।

फीतों के टुकड़े, तसवीरें नीली पीली

किंतु नरक्षेत्र के भीतर पंतजी की दृष्टि इतनी नहीं बँधा गई है कि चराचर के साथ अधिक व्यापक संबंध की अनुभूति मंद पड़ गई हो। 'युगवाणी' में हम देखते हैं कि हमारे जीवनपथ के चारों ओर पड़नेवाली प्रकृति की साधारण, छोटी से छोटी वस्तुओं को भी कवि ने कुछ अपनेपन के साथ देखा है। समस्त पृथ्वी पर निर्भय विचरण करती जीवन की 'अक्षय चिनगी' चींटी का अत्यंत कल्पनापूर्ण वर्णन हमें मिलता है। कवि के हृदय प्रसार का सबसे सुंदर प्रमाण हमें 'दो मित्र' में मिलता है जहाँ उसने एक टीले पर पास खड़े चिलबिल के दो पेड़ों को बड़ी मार्मिकता के साथ दो मित्रों के रूप में देखा है ,

उस निर्जन टीले पर

दोनों चिलबिल

एक दूसरे से मिले

मित्रों से हैं खड़े,

मौन, मनोहर

दोनों पादप

सह वर्षातप

हुए साथ ही बड़े

दीर्घ सुदृढ़तर।

शहद चाटनेवालों और गुलाब की रूह सूँघनेवालों को चाहे इसमें कुछ न मिले; पर हमें तो इसके भीतर चराचर के साथ मनुष्य के संबंध की बड़ी प्यारी भावना मिलती है। 'झंझा में नीम' का चित्रण भी बड़ी स्वाभाविक पद्ध ति पर है। पंतजी को 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' से निकलकर स्वाभाविक स्वच्छंदता (ट्रई रोमांटिसिज्म) की ओर बढ़ते देख हमें अवश्य संतोष होता है।

3. श्री सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' , पहले कहा जा चुका है कि 'छायावाद' ने पहले बँग्ला की देखादेखी अंग्रेजी ढंग की प्रगीत पद्ध ति का अनुसरण किया। प्रगीत पद्ध ति में नाद सौंदर्य की ओर अधिक ध्यान रहने से संगीत तत्व का अधिक समावेश देखा जाता है। परिणाम यह होता है कि समन्वित अर्थ की ओर झुकाव कम हो जाता है। हमारे यहाँ संगीत राग रागिनियों में बँधाकर चलता आया है; पर योरप में उस्ताद लोग तरह तरह की स्वरलिपियों की अपनी नई नई योजनाओं का कौशल दिखाते हैं। जैसे और सब बातों की, वैसी ही संगीत के अंग्रेजी ढंग की नकल पहले बंगाल में शुरू हुई। इस नए ढंग की ओर निरालाजी सबसे अधिक आकर्षित हुए और अपने गीतों में उन्होंने उसका पूरा जौहर दिखाया। संगीत को काव्य के और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निरालाजी ने किया है।

एक तो खड़ी बोली, दूसरे स्वरों की घटती बढ़ती के साथ मात्राओं का स्वेच्छानुसार विभाग। इसके कारण 'गवैयों की जबान को सख्त परेशानी होगी' यह बात निरालाजी ने आप महसूस की है। गीतिका में इनके ऐसे ही गीतों का संग्रह है जिनमें कवि का ध्यान संगीत की ओर अधिक है, अर्थसमन्वय की ओर कम। उदाहरण ,

अमरण भर वरण गान

वन वन उपवन उपवन

जागा कवि, खुले प्राण।


मधुप निकर कलरव भर,

गीत मुखर पिक प्रिय स्वर,

स्मर शर हर केशर झर,

मधुपूरित गंधा ज्ञान,

जहाँ कवि ने अधिक या कुछ पेचीले अर्थ रखने का प्रयास किया है वहाँ पद योजना उस अर्थ को दूसरों तक पहुँचाने में प्राय: अशक्त या उदासीन पाई जाती है। गीतिका का यह गीत लीजिए ,

कौन तम के पार? (रे कह)

अखिल पल के स्रोत, जल जग,

गगन घन घन धार (रे कह)

गंधा व्याकुल कूल उर सर,

लहर कच कर कमल मुख पर,

हर्ष अलि हर स्पर्श शर

की गूँज बारंबार! (रे कह)

निशा प्रिय उर शयन सुख धान

सार या कि असार? (रे कह)

इसमें आई हुई 'अखिल पल के स्रोत जल जग', 'हर्ष अलि हर स्पर्श शर', 'निशा प्रिय उर शयन सुख धान' इत्यादि पदावलियों का जो अर्थ कवि को स्वयं समझना पड़ा है वह उन पदावलियाें से जबरदस्ती निकाला जान पड़ता है। जैसे , 'हर्ष अलि हर स्पर्श शर = आनंदरूपी भौंरा स्पर्श का चुभा तीर हर रहा है (तीर के निकालने से भी एक प्रकार का स्पर्श होता है जो और सुखद है; तीर रूप का चुभा तीर है) निशा प्रिय उर शयन सुख धान = निशा का प्रियतम के उर पर शयन।

निरालाजी पर बंग भाषा की काव्यशैली का प्रभाव समास में गुंफित पदवल्लरी, क्रियापद के लोप आदि में स्पष्ट झलकती है। लाक्षणिक वैलक्षण्य लाने की प्रवृत्ति इनमें उतनी नहीं पाई जाती जितनी 'प्रसाद' और 'पंत' में।

सबसे अधिक विशेषता आपके पद्यों में चरणों की स्वच्छंद विषमता है। कोई चरण बहुत लंबा, कोई बहुत छोटा, कोई मझोला देखकर ही बहुत से लोग 'रबर छंद', 'केंचुआ छंद' आदि कहने लगे थे। बेमेल चरणों की विलक्षण आजमाइश इन्होंने सबसे अधिक की है। 'प्रगल्भ प्रेम' नाम की कविता में अपनी प्रेयसी कल्पना वा कविता का आह्नान करते हुए इन्हाेंेने कहा है ,

आज नहीं है मुझे और कुछ चाह,

अर्ध्द विकच इस हृदय कमल में आ तू,

प्रिये! छोड़ बंधानमय छंदों की छोटी राह।

गजगामिनी वह पथ तेरा संकीर्ण,

कंटकाकीर्ण।

बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा निरालाजी में है। 'अज्ञात प्रिय' की ओर इशारा करने के अतिरिक्त इन्होंने जगत के अनेक प्रस्तुत रूपों और व्यापारों को भी अपनी सरल भावनाओं के रंग में देखा है। 'विस्मृत को नींद से जगानेवाले' 'पुरातन के मलिन साज' खंडहर से वे जिज्ञासा करते हैं, क्या तुम ,

ढीले करते हो भव बंधान नर नारियों के?

अथवा

हो मलते कलेजा पड़े, जरा जीर्र्ण

निर्निमेष नयनों से

बाट जोहते हो तुम मृत्यु की,

अपनी संतानों से बूँद भर पानी को तरसते हुए।

इसी प्रकार 'दिल्ली' नाम की कविता में दिल्ली की भूमि पर दृष्टि डालते हुए 'क्या यह वही देश है?' कहकर कवि अतीत की कुछ इतिहासप्रसिद्ध बातों और व्यक्तियों को बड़ी सजीवता के साथ मन में लाता है ,

नि:स्तब्धा मीनार

मौन हैं मकबरे ,

भय में आशा को जहाँ मिलते थे समाचार।

टपक पड़ता था जहाँ ऑंसुओं में सच्चा प्यार

यमुना को देखकर प्रत्यभिज्ञा का उदय हम इस रूप में पाते हैं ,

मधुर मलय में यहीं

गूँजी थी एक वह जो तान,

कृष्णघन अलक में

कितने प्रेमियों का यहाँ पुलक समाया था।

समाज में प्रचलित ढोंग का बड़ा चुभता दृश्य गोमती के किनारे कवि ने देखा है जहाँ एक पुजारी भगत ने बंदरों को तो मालपुआ खिलाया और एक कंगाल भिक्षुक की ओर ऑंख उठाकर देखा तक नहीं।

जिस प्रकार निरालाजी को छंद के बंधान अरुचिकर हैं उसी प्रकार सामाजिक बंधान भी। इसी से सम्राट अष्टम एडवर्ड की प्रशस्ति लिखकर उन्होंने उन्हें एक वीर के रूप में सामने रखा जिसने प्रेम के निमित्ता साहसपूर्वक पदमर्यादा के सामाजिक बंधान को दूर फेंका है।

रहस्यवाद से संबंध रखनेवाली निरालाजी की रचनाएँ आध्यात्मिकता का वह रूप रंग लेकर चली हैं, जिसका विकास बंगाल में हुआ। रचना के प्रारंभिक काल में इन्होंने स्वामी विवेकानंद और श्री रवींद्रनाथ ठाकुर की कुछ कविताओं के अनुवाद भी किए हैं। अद्वैतवाद के वेदांती स्वरूप को ग्रहण करने के कारण इनकी रहस्यात्मक रचनाओं में भारतीय दार्शनिक निरूपणों की झलक जगह जगह मिलती है। इस विशेषता को छोड़ दें तो इनकी रहस्यात्मक कविताएँ उसी प्रकार माधुर्य भावना को लेकर चली हैं जिस प्रकार और छायावादी कवियों की। 'रेखा' नाम की कविता में कवि ने प्रथम प्रेम के उदय का जो वर्णन किया है वह सर्वत्र एक ही चेतन सत्ता की अनुभूति के रूप में सामने आता है ,

यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब

स्रोत सौंदर्य का,

वीचियों में कलरव सुखचुंबित प्रणय का

था मधुर आकर्षणमय

मज्जनावेदन मृदु फूटता सागर में।

सब कुछ तो था असार

अस्तु, वह प्यार?

सब चेतन जो देखता

स्पर्श में अनुभव रोमांच,

हर्ष रूप में , परिचय

खींचा उसी ने था हृदय यह

जड़ों में चेतन गतिकर्षण मिलता कहाँ।

'तुलसीदास' निरालाजी की एक बड़ी रचना है जो अधिकांश अंतर्मुख प्रबंध के रूप में है। इस ग्रंथ में कवि ने जिस परिस्थिति में गोस्वामी जी उत्पन्न हुए उसका बहुत ही चटकीला और रंगीन वर्णन करके चित्रकूट की प्राकृतिक छटा के बीच किस प्रकार उन्हेंं आनंदमयी सत्ता का बोध हुआ और नवजीवन प्रदान करनेवाली गान की दिव्य प्रेरणा हुई उसका अंतर्वृत्तिा के आंदोलन रूप में वर्णन किया है।

'भविष्य का सुख स्वप्न' आधुनिक योरोपीय साहित्य की एक रूढ़ि है। जगत् की जीर्ण और प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर नूतन सुखमयी व्यवस्था के निकट होने के आभास का वर्णन निरालाजी की 'उद्बोधन' नाम की कविता में मिलता है। इसी प्रकार श्रमजीवियों के कष्टों की सहानुभूति लिए हुए जो लोकहितवाद का आंदोलन चला है उसपर भी निरालाजी की दृष्टि गई है ,

वह तोड़ती पत्थर;

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर।

इस प्रकार की रचनाओं में भाषा बोलचाल की पाई जाती है। पर निरालाजी की भाषा अधिकतर संस्कृत की तत्सम पदावली में जड़ी हुई होती है जिसका नमूना 'राम की शक्ति पूजा' में मिलता है। जैसा पहले कह चुके हैं, इनकी भाषा में व्यवस्था की कमी प्राय: रहती है जिससे अर्थ या भाव व्यक्त करने में वह कहीं कहीं बहुत ढीली पड़ जाती है।

4. श्रीमती महादेवी वर्मा , छायावादी कहे जानेवाले कवियों में महादेवीजी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं। उस अज्ञात प्रियतम के लिए वेदना ही उनके हृदय का भावकेंद्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएँ छूट छूट कर झलक मारती रहती हैं। वेदना से इन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है, उसी के साथ वे रहना चाहती हैं। उसके आगे मिलनसुख को भी वे कुछ नहीं गिनतीं। वे कहती हैं कि , 'मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ'। इस वेदना को लेकर इन्होंने हृदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना है, यह नहीं कहा जा सकता।

एक पक्ष में अनंत सुषमा, दूसरे पक्ष में अपार वेदना, विश्व के छोर हैं जिनके बीच उसकी अभिव्यक्ति होती है ,

यह दोनों दो ओरें थीं

संसृति की चित्रपटी की;

उस बिन मेरा दुख सूना,

मुझ बिन वह सुषमा फीकी।

पीड़ा का चसका इतना है कि:--

तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा।

तुमको ढूँढेग़ी पीड़ा में

इनकी रचनाएँ समय समय पर इन संग्रहों में निकली हैं , नीहार, रश्मि, नीरजा और सांधयगीत। अब इन सबका एक में बड़ा संग्रह 'यामा' के नाम से बड़े आकर्षक रूप में निकला है। गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवीजी को हुई वैसी और किसी को नहीं। न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्रांजलप्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भावभंगिमा। जगह जगह ऐसी ढली हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है।

ऊपर 'छायावाद' के कुछ प्रमुख कवियों का उल्लेख हो चुका है। इनके साथ ही इस वर्ग के अन्य उल्लेखनीय कवि हैं , सर्वश्री मोहन लाल महतो 'वियोगी', भगवती चरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा और रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'। श्री वियोगी की कविताएँ 'निर्माल्य', 'एकतारा' और 'कल्पना' में संग्रहीत हैं। श्री भगवतीचरण की कविताओं के तीन संग्रह हैं , 'मधुकण', 'प्रेम संगीत' और 'मानव'। श्री रामकुमार वर्मा ने पहले 'वीर हमीर' और 'चित्तौड़ की चिता' की रचना की थी जो छायावाद के भीतर नहीं आती। उनकी इस प्रकार की कविताएँ 'अंजलि', 'रूपराशि', 'चित्ररेखा' और 'चंद्रकिरण' नाम के संग्रहों के रूप में प्रकाशित हुई हैं। श्री आरसीप्रसाद की रचनाओं का संग्रह 'कलापी' में हुआ है। श्री नरेंद्र के गीत उनके 'कर्णफूल', 'शूलफूल', 'प्रभातफेरी' और 'प्रवासी के गीत' नामक संग्रहों में संकलित हुए हैं और श्री अंचल की कविताएँ 'मधूलिका' और 'अपराजिता' में संग्रह की गई हैं।

4. स्वच्छंद धारा

छायावादी कवियों के अतिरिक्त वर्तमानकाल में और भी कवि हैं जिनमें से कुछ ने यत्रातत्रा ही रहस्यात्मक भाव व्यक्त किए हैं। उनकी अधिक रचनाएँ छायावाद के अंतर्गत नहीं आतीं। उन सबकी अपनी अलग अलग विशेषता हैं। इस कारण उनको एक ही वर्ग में नहीं रखा जा सकता। सुबीते के लिए ऐसे कवियों की समष्टि रूप से, 'स्वच्छंद धारा' प्रवाहित होती है। इन कवियों में पं. माखनलाल चतुर्वेदी, (एक भारतीय आत्मा) श्री सियाराम शरण गुप्त, पं. बालकृष्ण शर्मा नवीन', श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान, श्री हरिवंशराय 'बच्चन', श्री रामधाारी सिंह 'दिनकर, ठाकुर गुरुभक्त सिंह और पं. उदयशंकर भट्ट (मुख्य हैं)। चतुर्वेदीजी की कविताएँ अभी तक अलग पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हुईं। 'त्रिाधारा' नाम के संग्रह में श्री केशव प्रसाद पाठक और श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की चुनी हुई कविताओं के साथ उनकी भी कुछ प्रसिद्ध कविताएँ उध्दृत की गई हैं। सियारामशरण गुप्त ने आरंभ में 'मौर्यविजय' खंडकाव्य लिखा था। उनकी कविताओं के ये संग्रह प्रसिद्ध हैं , दूर्वादल, विषाद, आद्र्रा, पाथेय और मृण्मयी। 'आत्मोसर्ग', 'अनाथ' और 'बापू' उनके अन्य काव्य हैं। श्री नवीन ने 'उर्मिला' के संबंध में एक काव्य लिखा जिसका कुछ अंश अस्तंगत 'प्रभा' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। उनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'कुंकुम' नाम से छपा है। श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान की कुछ कविताएँ जैसा कहा जा चुका है 'त्रिाधारा' में संकलित हैं। 'मुकुल' उनकी शेष कविताओं का संग्रह है। श्री बच्चन ने 'खैयाम की मधुशाला' में उमर खैयाम की कविताओं का अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि फिट्जेराल्ड कृत अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर अनुवाद किया है। उनकी स्वतंत्र रचनाओं के कई संग्रह निकल चुके हैं, जैसे , 'तेरा हार', 'एकांत संगीत', 'मधुशाला', 'मधुबाला' और 'निशानिमंत्रण' आदि। श्री दिनकर की पहली रचना है 'प्रणभंग'। यह प्रबंधकाव्य है। अभी उनके गीतों और कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं , 'रेणुका' और 'हुंकार'। ठाकुर गुरुभक्त सिंह की सबसे प्रसिद्ध और श्रेष्ठ कृति 'नूरजहाँ' प्रबंधकाव्य है। उनकी कविताओं के कई संग्रह भी निकल चुके हैं। उनमें 'सरस सुमन', 'कुसुमकुंज', 'वंशध्वनि' और 'वनश्री' प्रसिद्ध हैं। पं. उदयशंकर भट्ट ने 'तक्षशिला' और 'मानसी' काव्यों के अतिरिक्त विविधा कविताएँ भी लिखी हैं, जो 'राका' और 'विसर्जन' में संकलित हैं।

इस प्रकार वर्तमान हिन्दी कविता का प्रवाह अनेक धाराओं में होकर चल रहाहै।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' समाप्त।