दलित साहित्य : नयी सदी की दहलीज पर शरणकुमार लिंबाले / नामदेव ढसाल

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नामदेव ढसाल के संबंध में
समीक्षा लेखक:शरण कुमार लिंबाले

दलित साहित्य‘ का प्रवाह मात्रा मराठी में नहीं पूरे भारतीय स्तर पर स्थापित हो चुका है। विश्व के नजदीक आने की प्रक्रिया तेजषी से बढने के कारण दलित साहित्य की चर्चा अब विश्वस्तर पर हो रही है। ’सबल्टर्न लिटरेचर‘ ’लिटरेचर ऑफ ऑप्रेस्ड‘ ऐसी चर्चा सुनायी देती है। भारतीय और वैश्विक स्तर पर दलितों की अभिव्यक्ति की जो चर्चा हो रही है और विश्व के शोषितों के साहित्य के नाते दलित साहित्य की ओर देखा जा रहा है। इसका कल के दलित साहित्य पर प्रभाव निश्चित ही होगा।

कल तक ’दलित साहित्य‘ की चर्चा मात्रा मराठी और महाराष्ट्र के सीमा के अंदर होती थी। अब इस सीमा को पार कर दलित साहित्य की चर्चा हो रही है। इस कारण महाराष्ट्र के मूल ’दलित साहित्य‘ को अब ’मराठी दलित साहित्य‘ ऐसा विशेषण लगाया जाता है। हिन्दी दलित साहित्य, तमिल दलित साहित्य, गुजराती दलित साहित्य और कन्नड दलित साहित्य ऐसा विभाजन हो रहा है। इसमें मराठी दलित साहित्य अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में समृद्ध है, यह मान्य करना होगा। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि मराठी का दलित साहित्य और दलित लेखक यही महत्व के हैं।

मराठी से भी स्तरीय दलित साहित्य का निर्माण अन्य भारतीय भाषाओं में हो रहा है। दलित साहित्य ने मराठी साहित्य को नयी परिभाषा दी है, नयी अभिव्यक्ति दी, नया नायक दिया। मराठी अभिरुचि को अंर्तमुखी किया। मराठी समीक्षा का क्षितिज विस्तारित हुआ। अब यह स्वर बदलना पढेगा। मराठी दलित साहित्य ने भारत के दलित को लिखने के लिए प्रेरणा दी। भारतीय दलित साहित्य के आंदोलन को जन्म दिया। भारत के अन्य राज्य के दलित महाराष्ट्र के दलित आंदोलन को और दलित साहित्य को आदर्श मानकर कार्य करने लगे। ऐसा क्यों हुआ? महाराष्ट्र के दलित युवकों ने ’दलित पैंथर‘ नाम का विद्रोही संघठन स्थापित किया (सन् १९७२)। यही दलित साहित्य के उदय का कालखंड है।

दलित पैंथर ने दलितों के अन्यायविरुद्ध अंदोलन किया। उसकी प्रतिध्वनि देश के हर हिस्से में गयी। अन्य राज्यों में भी दलित युवक एकत्रा आए। मराठवाडा विश्वविद्यालय को डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर का नाम देने के लिए इन युवकों ने नामांतर की लडाई पन्द्रह वर्ष तक लडी। इस का परिणाम अन्य राज्यों में भी हुआ। नामांतर की लडाई ने देश के दलितों को भावनात्मक स्तर पर एकत्रा करने का काम किया। इसी समय महाराष्ट्र और केन्द्र शासन ने डॉ. अंबेडकर का साहित्य प्रकाशित करना शुरू किया। शासकीय नियंत्राण के कारण अंबेडकरी साहित्य का प्रसार अधिक गति से हुआ। भारत के अनेक राज्यों में बाबासाहेब अंबेडकर के साहित्य की मांग होने लगी। भारतीय स्तर पर अंबेडकरी विचार का जैसे-जैसे प्रसार होने लगा, उसी परिमाण में भारतीय दलितों के मन में ऊर्जा का संचार होने लगा। भारतीय दलितों ने अपने विचार का प्रसार करने के लिए अपनी मासिक पत्रिाका, साहित्य संस्था, प्रकाशन संस्था, सम्मेलन और ग्रंथ वितरण की व्यवस्था शुरू की। इसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय स्तर पर दलित साहित्य के सर्जन की शुरूआत हुई।

गौतमबुद्ध, कबीर ’पेरियार‘, ई. व्ही., रामस्वामी नायकर, संत बश्वेश्वर, महात्मा फुले, राजर्षि शाहू महाराज और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के साथ चार्वाक और माक्र्स के विचार भी सामने आये। सम्यक क्रांति के रसायन की निर्मिति शुरू हुई। कांशीराम के कार्य के कारण उत्तर में फुले, शाहु और अंबेडकर के विचारों का प्रचार और प्रसार शुरू हुआ। दलितों के साथ-साथ ’बहुजनवाद‘ की स्थापना होने लगी। ब्राह्मण विरोधी आंदोलन की शक्ति बढने लगी। भारतीय राजनीति के संतुलन सूत्रा बदलने लगे। चुनाव की राजनीति में दलितों का महत्व बढ गया। ब्राह्मण व्यवस्था के प्रतीक ’राम‘ और ’रामायण‘ पर प्रहार होने लगे। पेरियार ने तो रामायण पर काफी प्रहार किए। प्रो. अरुण कांबले ने ’रामायण में संस्कृति संघर्ष‘ पुस्तक लिखी। इसके पहले राजा ढोले के ’साधना‘ में प्रकाशित लेख ’काला स्वतंत्राता दिवस‘ ने महाराष्ट्र में हलचल मचा दी और दलितों की नयी पीढी में विद्रोह का तूफान पैदा कर दिया। फुले, अंबेडकर अंग्रेज समर्थक थे ऐसा हिन्दुत्ववादी संगठन कहने लगे। इस बहाने पुराण-काल का सांस्कृतिक संघर्ष आधुनिक रूप में तीव्र होने लगा।

दलित-बहुजन और अल्पसंख्यक का त्रिावेणी संगम होने लगा। दलित मुस्लिम ऐक्य के प्रयत्न भी हुए। *स्ती साहित्य, मुस्लिम और आदिवासी साहित्य का निर्माण हुआ। दलित, शोषित, अल्पसंख्यक को संगठित करने की चर्चा होने लगी। इसी समय ’मंडल आयोग‘ की राजनीति शुरू हुई। मंडल आयोग के विरूद्ध देशभर में अंदोलन हुए। इसके परिणाम स्वरूप दलित और ओ.बी.सी. समाज के संगठित होने की प्रक्रिया शुरू हुई। महाराष्ट्र के बहुजन समाज ने फुले, शाहू और अंबेडकरी विचारों को स्वीकार किया। यह प्रयोग प्रस्थापित व्यवस्था को कठिन लगने लगा। परंपरावादी व्यवस्था ताकतवर करने के लिए मंडल विरोधी भावना की निर्मिति की जाने लगी। आरक्षण के विरोध में आंदोलन तीव्र होने लगे। आरक्षण के विरोध से दलित बहुजन ऐक्य होगा यह देखते ही मुस्लिमों के विरोध में वातावरण तैयार किया गया। बाबरी मस्जिद गिरायी गयी। राम मंदिर का प्रश्न राष्ट्रीय बनाया गया। इससे हिन्दू विरोधी मुस्लिम प्रचार को अधिक तीव्र किया गया। कश्मीर के अंदर चल रहे दहशतवाद के कारण हिन्दुत्ववादी आंदोलन को समर्थन मिलने लगा। मुंबई का बम विस्फोट और उसके बाद हिन्दू-मुसलमान दंगा अथवा गोधरा हत्याकांड के बाद हुआ मुस्लिम नरसंहार ये सभी दंगे हिन्दू-मुस्लिम समाज में अधिक रोष निर्माण करने वाले थे। हिन्दू-मुस्लिम दंगे किसी न किसी बहाने होने लगे। देश के सामाजिक जीवन में संशय और असुरक्षा का निर्माण हुआ।

’दलित‘ और ’मुस्लिम‘ के साथ समान शत्राुता के कारण बहुजन जाति हिन्दूवाद की ओर आकर्षित हने लगी। प्रतिगामी हिन्दू के साथ-साथ पुरोगामी हिन्दू भी दलित आंदोलन से दूर जाने लगे। एक ओर दलित आंदोलन अकेला पडने लगा तो दूसरी ओर उस आंदोलन के अलग-अलग हिस्से होने लगे। इसका फायदा हिन्दुत्ववादी आंदोलन ने लिया। गोलवलकर गुरुजी और अंबेडकर की एक ही पालकी में शोभा यात्राा निकाली, हिन्दू समाज एकत्रा रहना चाहिए यह भूमिका लेकर हिन्दुत्ववादियों ने ’समरसता मंत्रा‘ की स्थापना की। आगे समरसता सम्मेलन की शुरूआत हुई। शिवसेना जैसे उग्र राजकीय आंदोलन ने ’शिवशक्ति-भीमशक्ति एकत्रा होनी चाहिए‘, यह भूमिका ली। *भाजपा ने उत्तर प्रदेश में देा बार मायावती को सत्ता पर बिठाकर दलितों की सहानुभूति ली। आज देश में हिन्दुत्ववादी संगठन एक होने लगे हैं। मुस्लिम विरोधी भावना तीव्र होने लगी है। दलितों में खेमेबाजी बढ गयी है।

इसी पार्श्वभूमि में राष्ट्रीय स्तर पर दलित साहित्य का निर्माण होता है। इस पर ध्यान देना चाहिए। इस कारण देश का समकालीन सामाजिक और राजनीतिक जीवन समझना आवश्यक है। भारत में अनेक राज्य हैं। इन राज्यों की भाषा भी अलग-अलग है। प्रत्येक राज्य की भौगोलिक परिस्थिति और सामाजिक जीवन में अंतर है। मिझोरम, नगालैण्ड के मनुष्य के चेहरे और रंग में और तमिल, केरल के मनुष्य के चेहरे और रंग में एकरूपता नहीं है। संपूर्ण भारत में जातिव्यवस्था कम करनी होगी। हर राज्य में जातियां अलग-अलग हैं। उनकी प्रथा, परंपरा अलग हैं। प्रत्येक राज्य का अपना चेहरा अलग है। प्रत्येक राज्य में शिक्षा प्रसार का परिमाण अलग-अलग है। इसका प्रत्येक राज्य के दलित साहित्य के स्वरूप पर प्रभाव होने वाला है। भारतीय दलित साहित्य की प्रेरणा ’अंबेडकरी विचार‘ है। फिर भी इसमें प्रदेश और स्थानीय क्रांतिकारी विचार का प्रभाव भी बढने लगता है। उत्तर की चर्मकार जाति के लोग संत रैदास की जय जयकार करते हैं। आदिवासी, घुमंतू ये विरसा मुंडा, तंटया भिल्ल और उमाजी नाईक को अपना पुराण-पुरुष स्वीकारते हैं। मातंग समाज लहुजी वस्ताद का जय-जयकार करता है। क्या दक्षिण में ’पेरियार‘ का विचार टाला जा सकता है?

बाबासाहेब अंबेडकर के विचारों के साथ आगे अन्य शोषित संदर्भ निर्मित हो सकते हैं। विदेश में भी अंबेडकरी विचार वहां के स्थानीय संदर्भ के परिवेश म निर्मित हो सकता है। अंबेडकरी विचार की भारतीय तथा वैश्विक स्तर पर स्थापना की जानी चाहिये। इससे भारतीय दलित-साहित्य के विकास की रूपरेखा स्पष्ट होगी। मराठी के दलित-साहित्य को भारतीय स्तर पर ले जाने का पूरा श्रेय मराठी दलित साहित्य के अनुवादों का है। मराठी दलित साहित्य के अनुवाद के कारण सबसे पहले हिन्दी में दलित साहित्य की चर्चा हुईर्। १९८० के शुरूआत में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद ने चंद्रकांत पाटील के मदद से एक राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी मराठी दलित कविता पर आयोजित की थी। उसमें हिन्दी के त्रिलोचन, प्रयाग शुक्ल, ज्ञानरंजन, चंद्रकांत देवताले, कमलाप्रसाद, भगवत रावत के साथ अनेक प्रतिष्ठित कवि उपस्थित थे। दलित साहित्य को उन्होंने समझा। बाद में मराठी दलित कविता का संकलन ’’सूरज के वंशधर‘‘ नाम से १९८२-८३ में प्रकाशित हुआ। यह संकलन चंद्रकांत पाटील ने संपादित-अनुवादित किया था। उसमें मराठी के दलित साहित्य की निर्मिति के कारणों की चर्चा की है।

इसके माध्यम से नामदेव ढसाल हिन्दी में और हिन्दी से अन्य भारतीय भाषाओं में विशेषतः मलयाली, बंगाली, पंजाबी, असमी भाषा में चर्चा में आए। दलित आत्मकथा भी मराठी से हिन्दी में और हिन्दी से अन्य भाषाओं में अनुवादित हुई। साम्यवादी साहित्य के बढते प्रभाव के कारण और निग्रो-रेड इंडियन साहित्य तथा सबआल्टर्न अभ्यास के कारण दलित साहित्य को साहित्य ज्ञाताओं में प्रतिष्ठा मिली। दलित साहित्य में चित्रिात दलित शोषितों के दुःखों की तीव्र अभिव्यक्ति के कारण आम जनता ने भी दलित-साहित्य को तुरंत स्वीकार किया। इसी पद्धति से एक दशक में ही मराठी का दलित-साहित्य भारतीय दलित-साहित्य का प्रेरणास्रोत बन गया। इसी दशक के अंत में नोबेल विजेता वी.एस. नायपॉल ने अपनी भाषा विषयक तीसरी पुस्तक में नामदेव ढसाल के संबंध में ४०-४२ पन्नों का लेख लिखा। इस संदर्भ में दलित साहित्य की चर्चा, मराठी दलित साहित्य को लेकर विश्व स्तर पर की गयी। अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, स्पॅनिश भाषा के पाठकों की भी इस साहित्य में रुचि जागी। पिछले दिनों प्रकाशित हुआ ’’वसुधा‘‘ का दलित साहित्य विशेषांक और रमणिका गुप्ता का कार्य पाठकों को ध्यान में लेना चाहिए। अनुवाद ने संवाद की भूमिका निभायी। इसमें चंद्रकांत पाटील, दामोदर खडसे, डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे, निशिकांत ठकार, दिनकर सोनवलकर के नाम अनुवाद में महत्वपूर्ण हैं।

इन अनुवादकों ने मराठी का दलित साहित्य विश्व स्तर पर रखा। कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और महीप सिंह ने दलिल साहित्य का समर्थन किया। मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मलखान सिंह और सूरज पाल चौहान जैसे दलित लेखक राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुऐ। सोहनपाल सुमनाक्षर ने दलित आंदोलन को गति दी। मराठी के दया पवार, लक्ष्मण माने, लक्ष्मण गायकवाड, बेबी कांबले, शंकरराव खरात, प्र. ई. सोनकांबेल, किशोर काले, माधव कोंडविलकर, दादासाहेब मोरे जैसे लेखकों की हिन्दी में पहचान हुई। सवर्ण समाज दलित साहित्य पढ रहा है। समझ रहा है। अभ्यास कर रहा है। उस पर संशोधन कर रहा है। परंतु दलित मनुष्य के संबंध में तथा उसके जीवन के बारे में उदासीन है। ये बेचैन करने वाला चित्रा है। वैश्वीकरण के कारण विश्व के नजदीक आने की प्रक्रिया शुरू हुई जिसका ’इलेक्ट्राॅनिक मीडिया‘ और मल्टी नेशनल कंपनियों को श्रेय है। मल्टीनेशनल कंपनी दलित साहित्य की पुस्तकें छाप रही हैं। दलित साहित्य की काफी मांग है।

मराठी दलित आत्मकथा पुस्तकें अन्य भाषाओं में अनुवादित हुई हैं। रामनाथ चव्हाण का ’बामनवाडा‘ और दत्ता भगत का ’वाटा पलवाटा‘ नाटकों का अनुवाद प्रकाशित हुआ है। लक्ष्मण माने, लक्ष्मण गायकवाड और दया पवार की आत्मकथाएं विदेशी भाषाओं में प्रकाशित हुई है। शरण कुमार लिंबाले, किशोर काले, वसंत मून और नरेन्द्र जाधव की पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद हुआ है। दलित लेखकों का साहित्य अन्य भाषा में अनुवादित हो रहा है। इस बहाने अन्य भाषाओं की तुलना में मराठी साहित्य ने स्पष्ट ही दलित साहित्य में मराठी साहित्य की रुचि बढाई है, यह ध्यान में लेना चाहिए। दलित लेखक अपनी व्यथा वेदना स्पष्ट करने के लिए लिखता रहता है। अपना दुःख, अपने प्रश्न लोगों को समझाना चाहिए, यह उसकी भूमिका है। अब विश्व का पाठक यह साहित्य पढने वाला है। इस कारण दलित लेखकों की अभिव्यक्ति को महत्व मिलने लगा है।

दलित लेखक के प्रश्न जाति-व्यवस्था से संबंधित हैं। आगे स्थानीय और वैश्विक दो अलग-अलग विभागों का निर्माण होने वाला हैं। वैश्विकता का स्थानीयता पर सतत् आक्रमण होने वाला है। स्थानीय प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय प्रश्न के सामने टिकने वाले नहीं है। अब स्थानीय लोगों को प्रबोधन के लिए लिखना है या विश्वबाजार म ’बेस्ट सेलर‘ साबित होना है, यह प्रश्न महत्व का है। भविष्य में वैश्विक पुस्तक बाजार और लोगों की रुचि पकडना लेखकों को जरूरी है। एक भाषा की मर्यादा में लिखना और विचार करने की आदत बदलनी पडेगी। मराठी चित्रपट जगत जैसी स्थिति कल मराठी साहित्य में आने वाली है। इस पर मराठी लेखकों को विचार करना चाहिए। दलित साहित्य का प्रवाह प्रस्थापित हुआ है। यह प्रवाह प्रस्थापित करने वाली कलाकृतियों की संख्या कितनी है यह महत्वपूर्ण है। उसके लिए कम से कम पचास कलाकृतियों की आवश्यकता है। प्र.ई. सोनकांबले यादों के पंछी, दया पवार-बलुंत, लक्ष्मण माने-उपरा, लक्ष्मण गायकवाड-उठाईगीर, शरणकुमार लिंबाले-अक्करमाशी आत्मकथाएं महत्वपूर्ण हैं।

नामदेव ढसाल-गोलप