दिया जो प्यार/ निर्मल प्रतिपल /चुकता नहीं / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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दिया जो प्यार / निर्मल प्रतिपल / चुकता नहीं [मेरे सात जनम]

लेखक किसी प्रशासक या कार्पोरेट जगत का टहलुआ नहीं, वरन् सत्ता के दलालों पर निगाह रखनेवाला पहरेदार है। उसकी प्रतिबद्धता आम जनता से, उसके सुख-दु: ख से है न कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तरह लूटनेवाले मुनाफ़ाख़ोर कार्पोरेट जगत से या जनविरोधी दृष्टिकोण अपनाकर शासन के घिनौने हथकण्डे के डण्डे के बल पर अपनी जेबें भरनेवाले नौकरशाहों से है। बरसों टुटही साइकिल पर घूमने वाले अगर आज घूस उलीचकर विशिष्ट डाकू बन गए तो यह उनके लेखक होने का प्रमाण नहीं। प्रश्न यह है कि उनका खुद का रचनात्मक योगदान किस विधा में क्या है? कुछ विधाओं को उन्होंने त्याग दिया या विभिन्न विधाओं ने उनसे अपनी जान छुड़ा ली? पद से अगर रचनाकार का क़द मापा जाए तो मधुशाला लिखते समय हरिवंश राय 'बच्चन' की क्या उम्र थी, क्या पद था? आज तक मधुशाला को जो लोकप्रियता मिली है, वह आधुनिक काल के किसी रचनाकार को नहीं मिली। जय शंकर प्रसाद और शरत् चन्द्र को भी टटोल लेंगे। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता पन्नालाल पटेल की स्कूली शिक्षा और उनका पद क्या था? लोक प्रिय कवि धूमिल या मुक्तिबोध भी न तो किसी कम्पनी के मालिक थे न किसी जिले के प्रशासनिक अधिकारी। यदि किसी वर्ग विशेष के लोगों को ही लेखक माना जाता तो आज साहित्य-जगत कंगाल ही होता। यदि इन गिने-चुने लोगों के हृदय में ही साहित्य की अनुभूति होती या अनुभूति पर इनका कब्जा होता तो बात मानी जा सकती थी।

कोई विशिष्ट गाँव, शहर या जिला किसी विधा का स्कूल नहीं हो सकता। हमें इस कबिलाई सोच और संकीर्णता से उबरना चाहिए. सहृदय रचनाकार अगर मेरठ या फ़रीदाबाद का हो तो उसे औरों से कमतर रचनाकार नहीं कहा जा सकता। जो प्रामाणिक अनुभूतिजन्य रचेगा, उसी का रचा हुआ रसज्ञों को रुचेगा और वही इस साहित्य धारा में बचेगा भी।

डॉ सत्यभूषण वर्मा द्वारा समर्थित हिन्दी हाइकु की अपनी एक परम्परा और शिल्प-स्वीकृति है। 5-7-5 =17 वर्ण के जिस छन्द को हिन्दी और नेपाली ने अपनाया है, अन्य भाषाओं (अंग्रेज़ी, पंजाबी मराठी आदि) ने उसे तरज़ीह नहीं दी है। पंजाबी हाइकु का जो ब्लॉग 30 अगस्त 2007 से चल रहा है, विश्व भर में उस पर भ्रमण करने वालों की संख्या आज तक लगभग 171000 (एक लाख इकहत्तर हज़ार) है; जो हाइकु के बढ़ते रुझान को दर्शाती है।

1989 मई में केन्द्रीय विद्यालय लारेंस रोड दिल्ली में कई राज्य के केन्द्रीय विद्यालयों का 15 दिवसीय सेमिनार था। उस सेमिनार में लघुकथा और हाइकु जैसी नई विधाओं पर भी चर्चा हुई थी। लघुकथा के लिए अशोक भाटिया और हाइकु के लिए इन पंक्तियों के लेखक ने चर्चा की थी। उस समय जिस तरह के हाइकु लिखे जा रहे थे, वे पाठकों को आकर्षित नहीं कर रहे थे। सीधा-सा कारण था-प्रसिद्धि के लोभ में अयोग्य लोगों की घुसपैठ। उस समय सेमिनार में मौजूद कथाकार और उपन्यासकर सुदर्शन रत्नाकर ने भी उस अवधि में कुछ हाइकु लिखे, जिनकी आज संख्या 500-600 तक हो गई. वे अब संग्रह छपवाने का मन बना रही हैं।

9-20 जून 2008 में आगरा में आठ राज्यों के हिन्दी प्रवक्ताओं की कार्यशाला थी। इस अवसर पर डॉ भावना कुँअर के संग्रह 'तारों की चूनर' हिन्दी हाइकु पर विस्तृत चर्चा हुई. डॉ ॠतु पल्लवी और विभा सिंह ने कुछ अच्छे हाइकु भी लिखे। डॉ ॠतु पल्लवी ने 'तारों की चूनर' समीक्षा भी प्रस्तुत की जिसे केन्द्रीय विद्यालय की रिपोर्ट में शामिल किया गया। इस समीक्षा को केन्द्रीय विद्यालय ने अपनी शैक्षिक पत्रिका 'संगम' में भी स्थान दिया और अभिव्यक्ति में पूर्णिमा वर्मन जी ने भी शामिल करके पाठकों तक जानकारी पहुँचाई. नई पीढ़ी के हाइकुकार का यह एक ऐसा संग्रह था, जो गिने-चुने स्थापित हाइकुकारों की परम्परा को पोषित करने वाला पर अब तक भीड़ द्वारा लिखे जा रहे या सम्पादित किए जा रहे संकलनों से हटकर था। इस संग्रह के संवेदना से ओतप्रोत हाइकुओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया। इसी बीच डॉ हरदीप सन्धु ने (जो हिन्दी पंजाबी और अंग्रेज़ी में समान रूप से लिखती हैं) आस्ट्रेलिया से प्रकाशित अपने ब्लॉग से जोड़ा। यह ब्लॉग निरन्तर नए-पुराने रचनाकारों को जोड़ रहा है।

यहाँ कुछ एकल संगहों का जिक्र करना चाहूँगा। डॉ सुधा गुप्ता हाइकु, ताँका और-और हाइकु गीत के लिए पूर्णतया समर्पित हैं। इनकी रचनाधर्मिता से हिन्दी साहित्य को नई ऊँचाई और पहचान मिली है। इनकी कृतियाँ [खुशबू का सफ़र, लकड़ी का सपना, तरु देवता पाखी पुरोहित, कूकी जो पिकी, चाँदी के अरघे में, धूप से गपशप (हाइकु, सेन्र्यू हाइकु-गीत) , बाबुना जो आएगी (हाइकु एवं ताँका-संग्रह) , आ बैठी गीत-परी (हाइकु-गीत-संग्रह) , चुलबुली रात नेपानी माँगता देश (सेन्र्यू-संग्रह, कोरी माटी के दीये (हाइकु, ताँका-गीत) ] हिन्दी हाइकु जगत के लिए मानक एवं प्रतिदर्श प्रमाणित हुई है। डॉ रमाकान्त श्रीवास्तव की कृतियों [जीवन-दर्अ, चिन्तन के क्षण, बालश्री, प्यासा बन-पाखी, कबीर की बानी] में 'बनपाखी' की संवेदनशीलता एवं परिपक्वता हाइकु की सफलता का ज्वलन्त प्रमाण है। डॉ सतीश दुबे (मालवी) हाइकु, शब्दबेधी] के संग्रह अपने विषय और शिल्प के कारण चर्चा में रहे है। डॉ उर्मिला अग्रवाल की कृतियों [ख़याल बुनती हूँ, कोहरे की चादर, मन की बाँसुरी (हाइकु-संग्रह) , अश्रु नहायी हँसी, यायावर है मन (ताँका-संग्रह) में जनसामान्य की घनीभूत पीड़ा के दर्शन होते हैं; जो पाठक को द्रवित कर देती है।

राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु (मन की बात) डॉ गोपाल बाबू शर्मा (मोती कच्चे धागे में) संग्रहों में अच्छे हाइकुओं की सरिता बहती नज़र आती है। डॉ भावना कुँअर (तारों की चूनर) संग्रह के साथ ही अपने मर्मस्पर्शी, गहन अर्थ-गुम्फित हाइकुओं से नई पीढ़ी के समर्थ हाइकुकारों की पंक्ति में सम्मिलित हो गई हैं। इन्हें प्रवासी हाइकुकार कहकर प्रभावशील वरिष्ठ रचनाकारों की श्रेणी से अलग नहीं किया जा सकता। डॉ सतीशराज पुष्करणा के संग्रहों (बूँद-बूँद रोशनी, आस्था के स्वर, खोल दो खिड़कियाँ) में 'खोल दो खिड़कियाँ' हाइकु के नए क्षितिज खोलती है। प्रयोगधर्मी रचनाकार डॉ कुँअर बेचैन नवगीत, ग़ज़ल के साथ 'पर्स पर तितली' के हाइकुओं से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने में सफल हुए हैं। मदन मोहन उपेन्द्र का हाइकु-संग्रह 'चिड़िया आकाश चीर गई' के कई हाइकु हृदयस्पर्शी हैं। हारून रशीद 'अश्क' (जाग गई है शाम) , पुष्पा जमुआर (वक़्त के साथ-साथ) आदि हाइकुकारों की कृतियाँ अपने रचना-सौन्दर्य एवं विषय-वैविध्य के कारण पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं। यह सूची और भी लम्बी है। सबका यहाँ जिक्र करना न सम्भव है, न समीचीन।

कुछ ऐसे हाइकु-संग्रह भी देखने का अवसर मिला, जो पाठकों में हाइकु के प्रति अरुचि ही जगाएँगे। ऐसा तिनटँगिया घोड़ा ज़्यादा दिन नहीं चला पाएगा। हिन्दी जगत में सम्पादन कार्य भी निरन्तर हो रहा है। इस दिशा में और सजगता और गुणवत्ता अपनाने की ज़रूरत है। खुद को मसीहा समझकर या विधा का प्रशासक समझकर काम नहीं चल सकता; क्योंकि साहित्य कभी किसी धन्ना सेठ या प्रशासक का चेरा नहीं रहा। अच्छे रचनाकार को किसी अहंकारी और दूसरों की खड़ाऊ ढोने वाले संरक्षक की ज़रूरत भी नहीं होती। गंगा का संरक्षक तो गोमुख ही हो सकता है; जो सहृदय रचनाकार के भीतर विद्यमान है। वही से सार्थक रचना का निर्मल जल प्रवाहित होता है। आज रातों-रात जोड़-तोड़ करके हाइकु लिखने वालों की भरमार है। ऐसे लोग अपने कचरा-लेखन से सहृदय पाठकों के मन में वितृष्णा पैदा करते रहे हैं। इसका निराकरण तभी सम्भव है जब विश्व के कोने-कोने में बैठे साहित्यकार अच्छा लिखें और पत्र-पत्रिकाएँ अच्छी रचनाओं को स्थान दें। हाइकु की संवेदना और इसके शिल्प के बारे में मैं संस्कृत की यह उक्ति 'मितं च मनोहारी वच:' (संयमित और मनोहर वचन) दोहराना चाहूँगा। यह कथन हाइकु पर पूरी तरह उपयुक्त प्रतीत होती है।

साहित्य की मेरी इस रचनात्मक- यात्रा में कुछ ऐसे रचनाकार भी जुड़े रहे और जुड़ते गए; जिनके बिना मैं और भी अधूरा रह जाता। भाई सुकेश साहनी, रमेशचन्द्र श्रीवास्तव, डॉ. सतीशराज पुष्करणा श्याम सुन्दर अग्रवाल डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति, सुभाष नीरव से मेरी लम्बे अर्से से आत्मीयता रही है। इसी आत्मीय यात्रा में मुमताज (मेरी छात्रा) और टी एच खान, सुदर्शन रत्नाकर (पूर्व प्रवक्ता-केन्द्रीय विद्यालय) , कमला निखुर्पा (हिन्दी प्रवक्ता केन्द्रीय विद्यालय) , डॉ .भावना कुँअर, डॉ .हरदीप सन्धु, रचना श्रीवास्तव और मंजु मिश्रा जुड़े। हम आपस में बिना किसी औपचारिकता के अपने रचनात्मक विचारों का आदान-प्रदान करते रहे हैं। इन्हीं सबसे जुड़कर मुझे लगता है कि 'मेरे सात जनम' हों या न हों; मेरा यह जन्म भी जितना अधूरा है; इनके बिना उससे और भी ज़्यादा अधूरा रह गया होता। इनका न आभार कर सकता हूँ, न इन्हें धन्यवाद दे सकता हूँ; क्योंकि ये तो मेरे अपने हैं और कम से कम इस जन्म में तो रहेंगे ही। आगे भी रह जाएँ तो प्रभु का आभार!

मेरे इन हाइकुओं की प्रथम श्रोता रही वीरबाला काम्बोज। प्रत्येक हाइकु पर इनसे सदा चर्चा हुई. समय-समय पर कुछ तार्किक सुझाव भी दिए जो उचित ही नहीं, व्यावहारिक भी थे। इनका भी क्या आभार अदा करूँ? शायद इसी बहाने कुछ और जनम मिल जाएँ आभार करने के लिए.

इस संग्रह को तैयार करने में दीदी डॉ सुधा गुप्ता जी ने कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए. अपनी अस्वस्थता के बावज़ूद मेरे हाइकु संग्रह की भूमिका बहुत मनोयोगपूर्वक लिखी। इनके हाइकु-संग्रह पढ़ने पर ही मैंने संकलन छपवाने का साहस जुटाया। इनकी प्रेरणा न होती तो मैं इस संग्रह की कल्पना भी नहीं कर सकता था।

प्रबुद्ध पाठकों को यदि मेरे दो-चार हाइकु भी पसन्द आ गए, तो मैं अपना परिश्रम सार्थक समझूँगा।

(25, फ़रवरी, 2011)