दुर्गा सप्तशती और फूटे गणेश / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
मेरे जीवन की एक और बात है जिसका संबंध संस्कृत पठन के जमाने से ही विशेष संबंध रखता है। हालाँकि वह चीज पीछे तक रही हैं। वह है नियमित रूप से दुर्गा सप्तशती का पाठ। काशी में ही मैंने दुर्गा सप्तशती का नियमित रूप से प्रतिदिन पाठ शुरू किया। वह बहुत समय तक चलता रहा है। नवरात्र के दिनों में तो क्रमश: एक, दो, तीन करते-करते आखिरी दिन नौ पाठ तक करता था। कभी-कभी संपुट पाठ भी कर डालता था। जानें कब और कैसे मेरे मन में शुरू में यह बात आई। पीछे तो यह मेरे जीवन का एक अंग ही बन गई। न जानें दुर्गा सप्तशती की कितनी पुस्तकें मैंने खरीदीं और मँगाईं। क्योंकि आज की छपी पुस्तकों में बड़ी ही अशुद्धियाँ हैं। उन्हें ठीक करना जरूरी था। यह काम अनेक पुस्तकें कर सकती थीं। इसके सिवाय हर अध्याय के उपसंहार में ऐसी बातें लिखी रहती हैं जो पाठ के समय पढ़ी नहीं जानी चाहिए। कुछ और भी नियम हैं। इन सब बातों के लिए मैंने और-और ग्रंथ भी ढूँढ़े। अंत में पं. बालकृष्ण मिश्र जी के पास एक प्रखर तांत्रिक की हस्तलिखित पुस्तक मिली। उसकी सहायता से मैंने अपनी पुस्तक का संशोधन दरभंगे में किया। वहाँ एक छपी पुस्तक भी मिली और पं. बालकृष्ण जी ने इस छपी पुस्तक को ही प्रामाणिक बताया। इसलिए मैं बहुत दिनों तक उसी का पाठ करता रहा। बहुतों की धारणा है कि दुर्गा सप्तशती के इस चिरकाल के अनुष्ठान का ही फल है कि मेरी बुद्धि इतनी तेज है। कौन कहे, क्या बात है? बुद्धि तो पहले भी तेज ही थी।
काशी में ही पढ़ने के समय फूट गणेश के मंदिर के ऊपर एक छोटा सा कमरा किराए पर ले कर रहने लगा था। जहाँ तक याद है, सन 1913-14 की बात है। एकांत स्थान था। इससे कोई बाधा नहीं रहती थी। एक बार ऐसा हुआ कि पास-पड़ोस में रहनेवाले एक बड़े से बंदर को कुछ लोगों ने चिढ़ाया और खदेड़ा। वह अचानक मेरे कमरे के ऊपर आ गया। बहुत क्रुद्ध था। मैं उससे बचना चाहता था। कमरे में घुस के दरवाजे बंद कर सकना जल्दी में असंभव देख मैं दोनों हाथों से एक खंभा पकड़ के लटक गया। लेकिन उसने मेरे हाथों पर हमला किया। फलत: हाथ छूट गए। मैं नीचे जा पड़ा और बाएँ पाँव की एड़ी के ऊपर का हिस्सा एक किनारदार पत्थर के खंभे में जोर से जा टकराया। नतीजा हुआ कि और कहीं तो चोट नहीं लगी, हालाँकि नीचे-ऊपर सर्वत्र पत्थर की ही दीवार, फर्श आदि थे। लेकिन एड़ी के ऊपर जोड़ की हड्डी टूट गई। मैं बड़े कष्ट में रहा। जैसे-तैसे उठा कर ऊपर कमरे में पहुँचाया गया। हड्डी ठीक करवाने वगैरह की कोशिश मित्रमंडली करने लगी। मैं तो चल-फिर सकता न था। उस समय स्वामी पूर्णानंद सरस्वती ने रात-दिन साथ रह के मेरी बहुत सेवा की। क्योंकि मैं तो अकेला ही रहता था। जाड़े के दिन थे। धीरे-धीरे और तकलीफ तो दूर हुई। सूजन भी हटी। मगर जहाँ हड्डी टूटी या खिसकी थी वहाँ कुछ सूजन रही गई। उसके भीतर कोई नोकीली-सी चीज चुभती-सी मालूम होती थी। फिर भी मैं अच्छी तरह चल-फिर सकता था। गर्मियों में, महीनों बाद, अचानक आजमगढ़ के टीकापुर ग्राम में, जो कंधरापुर थाने में है, श्री मथुरा प्रसाद सिंह रईस के यहाँ गया। वहाँ पहले भी जाया करता था। वहीं पर एक हड्डी सुधारनेवाले कारीगर ने फिर से टूटी हड्डी का स्थान कुछ ढीला कर के चुभनेवाली हड्डी तो ठीक कर दी। मगर जरा-सी हड्डी अपनी जगह से जो हटी थी वह हटी ही रह गई। बहुत देर होने से वह अपनी जगह पर की जा सकती न थी। खैर, चुभना और सूजन खत्म हो गई। अब कोई तकलीफ न थी।
काशी में रहने के समय मैं जिन छात्रों को न्याय और वेदांत आदि पढ़ाया करता था उनमें दो-तीन तो द्रविड़ ब्राह्मण थे। उनके नाम भूलता हूँ। मगर पं. मुक्तिराम शर्मा और ब्रह्मचारी रामेश्वरदत्ता के नाम खूब ही याद हैं। पंडित मुक्तिराम शर्मा ने तो प्राचीन-न्याय के न्याय कुसुमांजलि आदि ग्रंथ मुझसे पढ़े थे। ब्रह्मचारी जी तो न्याय और वेदांत आदि सभी कुछ पढ़ते थे। वह थे बड़े ही पटु तथा वाद-विवाद में प्रवीण। चलता-पुर्जा भी खूब थे। लेकिन वाम मार्ग का संसर्ग हो गया था। इसलिए उसी तांत्रिक रति से पूजा-पाठ किया करते थे जिसमें मद्यमांसादि का सेवन भी आता है। मैंने एक दिन फूटे गणेश पर ही पढ़ाते समय कुछ अंदाज किया कि आज वे वैसी पूजा कर के आए हैं। मैंने पूछा तो उनने स्वीकार भी किया। पीछे तो गुजरात या, काठियावाड़ में या उधर कहीं नर्मदा तट में वे जा जमे। वहाँ भक्त-मंडली भी एकत्र की। सुना हैं, वेदांत के उच्चकोटि के ग्रंथ अद्वैतसिद्धि का हिंदि में अनुवाद उन्होंने किया और छपवाया है।मैंने न तो वह अनुवाद देखा है और न उनसे फिर कभी मेरी मुलाकात ही हुई है। मुक्तिराम जी भी फिर कभी मिल न सके।
काशी में रहने के समय की एक घटना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मठों से अलग हो कर मैं जब ईधर-उधर रहता था उसी समय, फूटे गणेश पर जाने के पूर्व लक्ष्मी कुंड के पास एक बड़े से मकान में रहता था। वहीं अंग्रेजी पढ़नेवाले छात्र भी रहते थे। उसी समय कुछ बंगाली लड़के (युवक) बगल के ही मैदान में गेंद वगैरह खेला करते थे। मुझे क्या मालूम कि इनमें कुछ ऐसे भी थे जो पीछे चल कर बनारस षडयंत्रा केस में फँसे थे। उन दिनों तो मैं राजनीति से कहीं दूर था। उसी मकान में एक दिन छात्रों की चीजें रात में चोर ले गया। पुलिस जाँचने आई। मुझे साधु देख उसने पूछा-ताछा। पीछे पता चला कि मेरे घर भी पुलिस गई थी और जाँच की थी। साधुओं की यह इज्जत!