देह के पार / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
(देह के पार / जयश्री राय से पुनर्निर्देशित)
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अभिनव ने आगे झुककर धीरे से उसके चेहरे पर आ गये बालों को हटाया था. इस तरह से उसके बालों के हटाये जाने में जाने क्या था, नव्या अंदर तक सिहर गयी थी. सहमी आँखों से देखा था उसे, एक पलक, कंपकंपाती हुई- बहुत कुछ था उसकी नजरों में- लगाव और इच्छा के बीच की-सी चीजें, अनाम, मगर बहुत स्पष्ट...

उसके अंदर कुछ गहरे तक रंग गया था, एक साथ कई गाँठें खुली-बँधी थी, वह विस्तार पाने की चाह में अपनेआप में और-और सिमट आयी थी- वही वर्जित का दुर्निवार, अदम्य आकर्षण और ग्लानि की अनवरत ताडना...

इतने करीब होने से उसकी देहगंध नव्या के नाशपुटों को छू रही थी- शराब, कोलोन और सिगरेट की मिली-जुली गंध... बेईमान, दिलफरेब, मगर खूबसूरत... वह अपने भीतर चढते ज्वार को महसूसती है. हर बार यही होता है, उसके करीब आते ही... सारे यत्न से बाँधे गये तटबंध तास के पत्तों की तरह भरभराकर गिर पडते हैं ! बहुत लज्जाजनक है यह सब- अपनी दुर्बलता, यह गहरा लालच और इच्छा... बहुत लाचार महसूस करती है वह स्वयं को, मगर क्या करें, उसके सामने आते ही गलकर मोम बन जाती है. ऐसा ही तासीर है उसका- उन कत्थई पिघलती आँखों का, नशे में भीगी हुई, अबाध्य, उद्दंड... !

अपनी गीली, थरथराती आवाज को सतर करने का एक असफल प्रयास करती है वह, एकबार फिर- अब चलूंगी अभि, सुनु का क्लास खत्म हो गया होगा...

वह जानती थी, इस बार भी उसकी आवाज ने उसकी आँखों का साथ नहीं दिया था, वही विश्वासघात- स्वयं का दिया हुआ... मगर उसके उठते ही अभिनव ने उसका हाथ पकड लिया था- थोडी देर और रूक जाती... कि दिल अभी भरा नहीं...

अभिनव की उष्ण उंगलियों में उसकी सूनी कलाई चूडियों की तरह झनझनाई थी. जी चाहा था, वही ढह जाय- उसकी गोद में. मगर ऐसा कुछ भी करना उसके वश मे नहीं था. बार-बार स्वयं को याद दिलाती रही थी- यह सब बस मृग मरिचिका है. जलते हुए मरू में पानी का भ्रम, और कुछ नहीं... मगर इच्छाओं का क्या, पलक मूँदें आग पर चलती है. उसने इसबार मुडकर अभिनव की तरफ नहीं देखा था. इतना साहस नहीं था. उठकर अपनी चीजें सहेजने लगी थी. भीतर से खुद को भी, कितना बिखर जाती है...

अभिनव जमीन पर बिछे बिस्तर पर अपनी बाँहों का सरहाना बनाकर लेटा हुआ था. होंठों पर जलती हुई सिगरेट दबी हुई थी. बिस्तर के चारों तरफ बीयर के खाली कैंस बिखरे पडे थे. आँखों में हल्का नशा लिए वह उसे एकटक देखे जा रहा था. अपना पर्स उठाते हुए उसे स्वयं पर लगी हुई अभिनव की आँखों का अहसास हो रहा था. हिलते-डुलते हुए भी जैसे संकोच हो रहा था. थोडी देर बाद उसने मुडकर उसे असहज नजरों से देखा था, मगर फिर अभिनव की आँखों की खुली भूख ने उसे गहरे अश्वस्तिबोध से भर दिया था - अब चलूँ अभि...?

एक गहरी जम्हाई लेते हुए उसने उसकी बात को अनसुनी कर दिया था- कभी तो औरत भी बन जाया करो जे ! हमेशा अम्मा बनी रहती हो... उसकी आवाज में हल्की झल्लाहट के साथ गहरा व्यंग्य था.

- यह सेंस ऑफ ड्युटी है अभि... तुम जैसे बोहेमियन जिंदगी जीनेवाले मर्द इसे नहीं समझ पायेंगे...न चाहते हुए भी उसका लहजा अचानक बहुत तीखा हो गया था. वह ओवर डिंफेसिव हो रही थी या यह उसकी निराश इच्छाओं से उपजा हुआ गुस्सा था.

आज की पूरी दोपहर उसने अभिनव के साथ उसके इस कमरे के एंकात में बिताई थी. अपनी बेटी सुनु को उसके प्यानो क्लास में छोडकर वह यहाँ चली आयी थी. अभिनव को पहले से पता था, आज वह उसके पास आयेगी. उसीने उसे बुलाया था. वह पहले भी कई बार उसके पास इस कमरे में आ चुकी थी.

दोनों का परिचय एक फुड फेस्टीबल के दौरान हुआ था. वहाँ नव्या ने चाट का स्टॉल लगाया था. अभिनव पूरे कार्यक्रम को किसी पत्रिका के लिए कवर कर रहा था. उसे उसपर फिचर स्टोरी लिखनी थी. स्वयं को व्यवसाय से जर्नलिस्ट बताया था उसने. फोटोग्राफी भी करता था. बाद में उसने उसकी रेसिपी से बनाये हुए खानों पर एक पूरा फोटो फिचर भी तैयार किया था. लोकप्रिय महिलाओं की पत्रिका में छपने से परिचितों में उसका खासा रौब पडा था, चर्चा भी हुई थी.

इंटरव्यु लेते हुए एकबार अभिनव ने अचानक बहुत संजीदगी से पूछ लिया था- और आप अपनी सुंदरता के लिए क्या इस्तेमाल करती हैं? ऐसा रूप-रंग, ऐसी फिगर... वह बिल्कुल लाल पड गयी थी. झट् से कोई जबाव देते नहीं बन पडा था. बहुत देर तक सहज भी नहीं हो पायी थी. आँखें झुकाये बैठी रह गयी थी. सवाल पूछते ही अभिनव दूसरे ही क्षण एकदम से अंजान बन गया था. स्वाभाविक ढंग से दूसरे सवाल करने लगा था. मगर वह भूल नहीं पायी थी. उसी क्षण कुछ अद्भुत घटा था उसके अंदर, जैसे रंगों की कोई गाँठ अनायास खुल गयी हो...

इसके बाद दोनों में घनिष्टता बढी थी, धीरे-धीरे दोनों आप से तुम पर उतरे थे, उसके बाद नमस्ते से हाय पर और अब औपचारिकता से बेतकल्लुफी तक का सफर भी दोनों ने अपने अंजाने ही न जाने कब तय कर लिया था.

अभिनव अपने किसी मित्र के फ्लैट के एक रूम में पेइंग गेस्ट बनकर रहता था. उसका मित्र वर्तमान में विदेश में था. फ्लैट के बाकी कमरे बंद थे. अभिनव के हिस्से एक कमरा, संगलग्न बाथरूम-टॉयलेट और एक छोटी-सी बॉल्कनी ही आयी थी. उसके लिए काफी था. रहता भी कहाँ था टिककर, रातदिन घूमता रहता था.

आषाढ का महीना है, आकाश चौबीस घंटे झर रहा है, जैसे आकाश का तल टूट गया है. कांक्रिट का जंगल भी हरा हो गया है... हर दीवार पर काई, चारों तरफ उग आये जंगलात... नव्या बाहर देखने की कोशिश करती है. काँच की खिडकियों पर बूँदों की अनवरत टकोर और छज्जे पर हवा का शोर... चारों तरफ एक गुनगुनाहट-सी छाई हुई है, मानो पूरी दुनिया गीत गा रही हो. एक गीत में तो वह भी डूबी हुई है... अपने अंदर सुर के मद्धिम आरोह-अवरोह में चहलकदमी करती हुई-सी वह सोचती है और हल्के से मुस्कराती है. इस तरह कि अभिनव न देख पाये. यह चोरी उसी से है !

बैल्कनी की तरफ खुलनेवाली खिडकी का पर्दा तेज हवा में पतवार बना हुआ है. भीगी हवा से कमरा नम हो आया है. सबकुछ सीला-सीला, एक बोसीदा गंध हर तरफ...

अभिनव शायद सुबह से ही पी रहा है. दो बजे के करीब जब वह आयी थी, वह इसी तरह अपने बिस्तर पर पडा हुआ था. बगल में तभी खोले गये बीयर के कैन से झाग उफनकर आसपास फैल रहा था. सी. डी. प्लेयर में से निकलकर गुलाम अली की उदास, सांद्र आवाज कमरे के सूने में तैर रही थी- चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला, मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला...

उसने जल्दी से झुककर बीयर के झाग में डूबा हुआ मोबाइल उठाकर अपनी साडी के आँचल से पोंछा था- तो आज सुबह से ही शुरू हो गये हैं जनाब... देखिए आपका मोबाइल भी खूब पी चुका, अब टुन्न होकर बोलेगा कैसे?

उसकी बात सुनकर वह सीधा होकर लेटा था और फिर उसे भी अपने पास खींचकर बैठा लिया था- आ गयी बीवी...?

- हाँ, मगर तुम्हारी नहीं, अनिरूद्ध की ! आँचल सँभालते हुए उसने झुँझलाकर कहा था जो अभिनव के खींचने से सरक आया था. वह जानती है, अभिनव ऐसी हरकतें जानबुझकर करता है. न जाने उसका इस तरह से उसे ’बीवी’ कहना उसे क्यों अच्छा नहीं लगता. शायद यह उसके कहने का व्यंग्यभरा लहजा था जो उसे दंश दे जाता था.

- क्या फर्क पडता है, उसकी या किसी की, हो तो मेरे ही साथ न !

वह उनींदा-सा मुस्कराया था.

- ज्यादा बहको मत...उसने कपट गुस्से में कहा था, मगर अपनी आवाज की मुलामियत को छिपा नहीं पायी थी. क्यों हर बार न चाहते हुए भी अभिनव के सामने कमजोर पड जाती है... उसे खुद पर ही एकबार फिर गुस्सा आने लगा था. अभिनव अनायास मुस्कराने लगा था, एक शरारत भरी मुस्कराहट-

आज तो बडी अच्छी साडी पहनी है- तसर सिल्क... मुझे रिझाने के लिए न?

- तुम्हें लुभाने के लिए क्यों, तुम तो हो ही जन्मलोभी... यह साडी अरुप को पसंद है.

- साडी यह पसंद है, मगर औरत तो कोई और ही पसंद है न... उसकी अंगुलियों में अपनी अंगुलियाँ उलझाते हुए अब वह खुलकर हंस पडा था. नव्या अपमान से अंदर तक सुलग उठी थी. पिछले ही महीने उसने अरुप को अपनी कोलीग रमिता के साथ रंगे हाथों पकडा था. इस बात को लेकर दोनों में बहुत झगडा भी हुआ था. वह एक महीने अपने मायके में भी रहकर आयी थी. यह बात उसने अभिनव को बतायी थी. आज उसी घटना की तरफ इशारा करके वह उसे ताने मार रहा था. वह झटके से उठने लगी थी, मगर अभिनव ने उसे हाथ पकडकर अपने पास बैठा बैठा लिया था- नाराज हो गयी बीवी... चलो माफ कर दो... कहते हुए उसने नव्या के कान पकड लिए थे.

- अभि...

उसके हाथ झटकते हुए वह फिर उठने लगी थी, मगर इस बार भी अभिनव ने उसे खींचकर अपनी गोद में गिरा लिया था और फिर उसके खुले पेट पर गुदगुदी कर दी थी. न चाहते हुए भी वह हंस पडी थी, मगर आँखों में गुस्सा बरकरार था- तुम मुझे इस तरह से क्यों छूते हो अभि, तुम्हें याद नहीं रहता, मैं किसी की पत्नी हूँ...?

- बिल्कुल याद है, तुम उस गधे की बीवी हो...

अभिनव ने सिगरेट का कस खींचकर मुँह से धुएँ का छल्ला बनाया था.

- हाउ डेयर यु काल हीम अ गधा... वह तुनककर खडी हो गयी थी, मगर अपनी आँखों में चमकती हुई हँसी को छिपा नहीं पायी थी

- अब गधा को गधा न कहूँ तो क्या घोडा कहूँ... वह अब भी लापरवाही से धुएँ के छल्ले उडा रहा था. नव्या उसकी तरफ पीठ करके खडी हो गयी थी. थोडी देर तक कमरे में एक थमकता हुआ मौन पसरा रहा था और फिर न जाने कब अभिनव उठकर उसके पास आ खडा हुआ था, उसकी खुली पीठ पर अंगुलियाँ फिराते हुए गुगुनाया था- अच्छा जी मैं हारी, चलो मान जाओ न...

- मुझे इस तरह से छुआ मत करो अभि... नव्या की आवाज में अब मिन्नत थी. बहुत लाचार दिख रही थी वह इस समय.

- क्यों? अभिनव ने उसकी आँखों में झाँका था- कुछ-कुछ होता है?

- नहीं, कुछ भी नहीं, बिल्कुल नहीं... कहते-कहते नव्या एकदम से रूआंसी हो आयी थी. उसकी तरफ देखते हुए अभिनव की आँखों में दया के-से भाव उभर आये थे- डोंट माइंड यार, मैं बडा चिपकू किस्म का आदमी हूँ... बचपन में पाच-छह साल तक माँ का दूद पीता रहा. हर वक्त उनके साथ ही लगा रहता था. दस सालतक तो उनकी गोद में ही सोता रहा. माँ मुझे गोद में लिए-लिए ही पूरी फिल्म देख लेती थीं. उसके आँचल की तरफ देखते हुए यह बात उसने न जाने कैसी अजीब-सी आवाज में कही थी. सुनकर उसके अंदर ठंडी लहरें उठने लगी थीं. देह की नर्म रेखाएँ सिहरकर कठिन हो आयी थीं... क्या कहना चाह रहा था वह !

उसकी स्थिति भाँपकर ही शायद अभिनव ने अचानक से बातचीत का विषय बदल दिया था- अच्छा, अब एक खुशखबरी सुनो..

- क्या?

- मेरी नौकरी चली गयी...

- वाह ! उसने भी नाटकीयता में उसका साथ दिया था. हालांकि सुनकर उसे अंदर ही अंदर गहरा धक्का लगा था. इस साल यह उसकी चौथी नौकरी छूटी थी. कहीं टीककर काम नहीं कर पाता था.

- अब खाओगे क्या? उसने अपनी ठोढी पर हाथ रखकर आँखों को झपकाया था.

- कच्चू, और क्या... वह कहाँ कम जानेवाला था.

- और बीयर का पैसा, वो कहाँ से आयेगा?

- तुम हो न मेरी सेठानी... कहते हुए अभिनव ने उसके पर्स से टटोलकर पाँच सौ का नोट निकाल लिया था. नव्या को अच्छा नहीं लगा था. पिछली बार भी उसने उसके पर्स से मजाक ही मजाक में हजार रूपये निकाल लिये थे.

- अरे, मुझे इंटरनेट का बिल भरना है, वर्ना कल जरूर बंद हो जायेगा...

- कोई बात नहीं बीवी, अपने पति से मांग लेना, इतना तो लूटाता है दूसरों पर...

- इसलिए मैं भी लूटाऊँ... कहते ही उसे लगा था, कुछ गलत कह गयी है. मगर अभिनव पूर्ववत् मुस्कराता रहा था- यह उधार मेरे खाते में लिखवा लो, अगले जन्म सूद सहित लौटा दूंगा...

वह कुढकर रह गयी थी. कहती भी तो क्या, अभिवन पर किसी बात का असर नहीं होता था. न जाने किस धातु से बना था.

अभिनव ने अब तकिये के नीचे से एक लिफाफा निकाला था- अच्छा चलो, इनमे से एक तस्वीर चुनो, इस साल मुझे शादी करनी ही पडेगी, पूरे बत्तीस का हो गया हूँ, माँ जान खा रही हैं.

लिफाफे के अंदर तीन तस्वीरें थीं, लडकियों की. नव्या के अंदर जैसे एकदम से कोई दीवार बैठ गयी थी- एक निःशब्द कंपन और उसकी फैलती हुई तरंगे... वह न देखती हुई नजरों से तस्वीरों को तकती रही थी, मगर धुँधलायी हुई नजरों से कुछ स्पष्ट नहीं दिखा था. गनीमत हुई कि अभिनव ने उसके चेहरे के यह भाव नहीं देखे, वह दूसरी तरफ देखते हुए सिगरेट सुलगा रहा था. कुछ देरतक उन तस्वीरों को नामालूम घूरकर उसने बिस्तर पर उन्हें फेंक दिया था. अभिनव ने उन्हें लपककर समेटा था- अरे रे, क्या करती हो जालिम, आहिस्ता से... हसीनाएँ हैं, चोट खा जायेंगी...

- हसीनाएँ ! माय फुट... नव्या एकदम से झुंझला पडी थी- किसी से भी शादी कर लो, क्या फर्क पडता है... मैं तो कहती हूँ, तीनों से कर लो !

- तीनों से... कुछ ज्यादा नहीं हो जायेगा? मेरी सेहत का तो कुछ ख्याल करो बीवी...

- ज्यादा क्यों, तुम तो हो ही मिस्टर कासा नोवा... सौ को भी संभाल लोगे... वह अपनी आवाज की तल्खी छिपा नहीं पा रही थी.

- थैंक्स फॉर द कॉमप्लीमेंट.... कहते हुए उसने उसे अपनी बाँहों में भर लिया था- आर यु जेलस बीवी, टेल मी, आर यु जेलस...?

- वाई सुड आई बी...? कहते हुए वह अपने शब्दों के विरूद्ध उसकी बाँहों में मोम हो आयी थी. ऐसा क्यों होता है... दुर्बलता के एक छोटे-से क्षण में वह उसके सीने से लग गयी थी. जलती हुई पलकों को मींचकर उसने किसी तरह अपने आँसुओं को बहने से रोका था. सेमल के फाहे की तरह एक रेशमी ख्याल अनायास उडता हुआ आया था- अगर कुछ चाहती हूँ तो बस यही चाहती हूँ- इन बाँहों के घेरे में बँधी रहना... देह की तपिश में पिघलना, साँसों की लय में निरंतर बहना... किसी बंधनहीन नदी की तरह- अबाध्य, उश्रृंखल... यदि समय को बाँधा जा सकता तो वह इस क्षण को फ्न्नेम में जडकर हमेशा के लिए अपने पास रख लेती. न जाने कितनी देर बाद अपने ही ख्यालों से चौंककर वह अभिनव से अलग हो गयी थी.

- कभी जिंदगी को अपनी मर्जी से भी जी लो जे... यह मुखौटा ओढ-ओढकर थक नहीं जाती? कहते हुए अभिनव की आँखों में गहरी समझ थी, जैसे उसे आर-पार देख रहा हो. उसकी इन बेधती हुई आँखों से नव्या को डर लगता है, वे सीधे कपडों के अंदर उतर जाती हैं. वह बिल्कुल विवस्त्र हो जाती है. अपनी साँसों को सम में लाते हुए उसने इधर-उधर देखा था, उसकी तरफ देखने से बचने के लिए- इस बरसात में एक कप चाय मिल जाती...

- चाय... छीः ! ऐसे मौसम में कोई चाय पीता है... आसमान से मय बरस रहा है, जमीन सराबोर है, हवा नशे से बोझिल... और तुम हो कि... हाउ अनरोमांटिक ! खैर... लो- कहते हुए अभिनव ने बीयर का कैन उसके मुँह से लगा दिया था. न न करते हुए भी दो-चार घूँट उसके गले से नीचे उतर ही गया था. एक ठंडा तूफान... रेशमी झाग और बुलबुले उसकी नसों के संजाल में जैसे विद्युत तरंगों की तरह अनायास फैलते चले गये थे. एक नमकीन इच्छा में एकदम से देह का रगो-रेश हो आया था. जी चाहा था, थोडी- सी और पी ले, मगर अपनी इच्छा के विरूद्ध उसने बुरा-सा मुँह बनाया था- धत् ! कितनी बीटर है, पता नहीं कैसे पीते हो...

- तुम औरतें... झूठ को जीना ही तुमलोगों का पवित्र संस्कार है... स्वयं को नकारते-नकारते बस वही नहीं रह जाती हो जो तुम वास्तव में होती हो... सच, मुझे तुमलोगों पर बहुत तरस आता है...

- तरस तो मुझे भी खुद पर बहुत आता है अभि... मन ही मन कहते हुए वह उठकर फिर खिडकी के पास आ खडी हुई थी, मगर क्या करे... अगर हम औरतें अपने सच को जीने लगे तो तुम्हीं लोग हमें एक पल में मार डालोगे...सच को जीने से परहेज नहीं है हमें, सच को जीने के परिणाम से डर लगता है...

अपनी सुलगती हुई पलकों को झपकते हुए उसने बाहर की ओर देखा था- तेज बरसते हुए पानी की मोटी चादर के नीचे पूरी दुनिया मटमैली दिख रही थी- बुझी हुई राख की रंगत जैसी... आसपास की जमीन नदी बनकर बह रही थी. हवा-पानी के शोर में एक अजीब-सा संगीत घुला था, बहुत उदास... उसे लगा था, यह पूरा मौसम उसमें जज्ब हो रहा है, गंध और अनुभूति की तरह उसके रेशे-रेशे में गूँथती हुई, स्वप्न और इच्छा की एक तरल वेणी... वह यकायक एक अनाम, अझेल प्रतीति से भर उठी थी, जैसे पीडा के कगार पर अर्से का पथराया मौन चीख में तब्दील होकर टूट पडना चाहता है... एक परकटे पक्षी की छटपटाहट समेटे वह चुपचाप खडी रही थी, अपने अंदर के झरते हुए आसमान के नीचे निःचेष्ट, निर्वाक, तर-बतर होते हुए...

न जाने कब अभिनव उसके पीछे आ खडा हुआ था. अपनी कमर की खुली त्वचा पर उसकी हथेली के आँचभरे स्पर्श को महसूसते हुए वह एक पागल इच्छा और आँसुओं की नमक में अंदर ही अंदर घुलती रही थी. हवा में बीयर, सिगरेट की गंध के साथ अभिनव की देहगंध भी फैली हुई थी. उसने अनायास अपनी साँस रोक ली थी. अभिनव की महक उसे अस्थिर कर देती है. हर बार वह एक वर्जित की ग्लानि में आकंठ डूब जाती है. यह मन हर निसिद्ध चीज की ओर ही क्यों भागता है इस तरह?

धीरे से मुडकर उसने अभिनव की आँखों में झाँका था. वहाँ एक बेफिक्र मस्ती और खुमार के सिवा कुछ भी नहीं था. दृष्टि में कोई गहराई नहीं, बस, इच्छाओं का एक उथला सागर है... वहाँ वह भी नहीं, उसकी काया है- फक्त उतार-चढाव और मांसलता... आखिर क्या हूँ मैं उसके लिए? अनायास वह सोच पडी थी- इस उबाऊ, निर्जन दोपहर को काटने का एक साधन मात्र? शायद अभिनव मुझे एक बोर्ड हाउस वाइफ से ज्यादा कुछ नहीं समझता, जिसके पास ढेर सारा समय और उदासी भरा अकेलापन है. ऐसी औरतें ईजी टरगेट होती हैं. अ सीटिंग डक...

इन्हें आसानी से एक्स प्लाइट किया जा सकता है. थोडे से मीठे शब्द और साहचर्य के बदले यह सबकुछ लूटाने को तैयार हो जाती हैं. अपने अंदर का संचित प्यार और इच्छाएँ दोनों हाथों से उढेल देती है- धारासार... साथ में रूपये-पैसे भी !

मगर मेरा सच तो यह नहीं है... जीवन में उदासी और अकेलापन तो है, मगर उसीसे सबके लिए उपलब्ध नहीं हो गयी हूँ. अभिनव मेरे लिए सिर्फ समय काटने का साधन नहीं है... मैं उससे... सोचते हुए वह अंदर तक थरथरा उठी थी. एक छोटा-सा लफ्ज और कुछ अक्षर उसकी जिंदगी का सबसे बडा सच बन गया है. वह अभिनव जैसे यथार्थवादी व्यक्ति को समझ नहीं पाती. उसके लिए प्यार जैसी चीजों का कोई अस्तित्व ही नहीं है. बस, विपरित सेक्स का आकर्षण है, जिस्म की भूख है और क्षण का सच है.

उसके लिए प्न्नेम का न कोई वजूद है, न कोई सच्चाई. प्यार हो जाने जैसी बातों को वह एक दिमागी खुरापात, आबसेशन, या एडिक्सन मानता है, और कुछ नहीं. जिस तरह चाय या शराब का एडिक्शन होता है, उसी तरह किसी के प्रति किसी का आकर्षण या एडिक्शन होता है. बकौल उसके इन दिनों ही गॉट एडिक्टेड टु हर...

क्यों? पूछा था उसने, मान से भरकर. उसका जबाव बहुत सीधा, सहज था उसके पास- वह खूबसूरत है और वह दोनों एक-दूसरे की कम्पनी एनज्वॉय करते हैं. इस कम्पनी में सेक्स भी शामिल हो जाय तो सोने पे सुहागा...

‘लेटस् एनज्वॉय यार, चार दिन की जिंदगानी, उससे भी कम जवानी... सेक्स एक बहुत खूबसूरत अनुभव है और सेक्स को सिर्फ सेक्स के तौर पर लिया जाय, उसे किसी और बात से न जोडा जाय, इसी में उसकी मयर्ाादा है. क्यों सेक्स को शादी, प्यार जैसी दकियानूसी बातों से जोडती हो? सेकस सिर्फ सेक्स है- दो जिस्म के बीच घटनेवाली सबसे खूबसूरत घटना..., उसे इन सडी-गली बातों से जोडकर हादसा मत बनाओ...

ऐसी बातें करते हुए वह कितना व्यवहारिक, एक हदतक निष्ठुर दिखता था. उसका दिल उसकी बातें सुनकर अनायास बैठ जाता था. पूरी दुनिया उसके लिए सिर्फ फिजिक्स, केमिस्ट्री और बायलॉजी थी. प्रेम और सेक्स रसायन और रसायनिक प्रक्रिया ! मन, संवेदना का कोई अस्तित्व नहीं, बस दिमाग... जीवन में देह और देह का भोग, मृत्यु के बाद बची राख और मिट्टी ! वादा नहीं, वफा नहीं, कमिटमेंट नहीं, सिर्फ और सिर्फ मांसल देह और देह का सुख, क्षण में जीवन और क्षण का सच...

उसकी अनास्था, अविश्वास और क्षणवादिता के आगे उसका सनातन सच, शाश्वत आस्थाएँ और अनश्वर भावनाएँ ओछी, बौनी पड गयी थीं. वह हर बात पर उसका और उसके विचारों का मखौल उडाया करता था. कभी-कभी अपमान और आक्रोश में उसकी आँखों में आँसू आ जाते थे- तुम्हारे लिए क्या कुछ भी सच नहीं है ! सव झूठ और बकवास है? वह झट् उसकी आँखों में अपने पूरे वजूद के साथ उतर आता- कुछ भी सच कैसे नहीं? मेरे लिए सच है इन कत्थई आँखों की गर्म झील, हल्के, गुलाबी होठों का नशीला स्वाद, गुदाज देह का बनैला सौदर्य...

मगर मैं सिर्फ यही सब तो नहीं हूँ- एक देह! एक सोच भी हूँ, एक मन, एक जज्बात भी. वह तर्क करती.

हाँ, बिल्कुल, मगर इस स्थूल जगत में हम सूक्ष्म को भी स्थूल के माध्यम से ही देख, अनुभव कर सकते हैं. हवा को किसने देखा है, मुट्ठी में बाँधा है...निराकार ब्रम्ह भी साकार होकर ही हम मनुष्यों को दर्शन देता है, पुजता है. यह निर्गुण-सगुण का विवाद बहुत पुराना है बीवी... एक भारतीय होने के नाते तुम यह क्यों भूल जाती हो कि ईश्वर भी देह धारणकर हमारे समक्ष अवतरित होते हैं- ऊधो! निर्गुन कोन देस को बासी... तो हे मिस जे देवी ! मैं भी आपको आपके इसी सुंदर देह से पहचानता और मानता हूँ ! आप इस बात का बुरा क्यों मानती हैं? कहते हुए धीरे-धीरे वह उसकी बाँह की खुली त्वचा पर कोई अदृश्य कविता लिखता है- यह देह भी आप ही का है... जिसे मैं चाहता हूँ. तुम्हारे मन को चाहूँ तो सही और देह को चाहूँ तो गलत, ऐसा क्यों बालिके?

अपनी अंगुली के पोर से वह उसकी त्वचा पर कोई जादू फेरता चल रहा था. वह एक सूरजमुखी की तरह अपनी देह को अलसाकर जागते हुए महसूस कर रही थी, चाहना की सुनहरी खुमार से बोझिल होते हुए.

वह उसकी बातों से सहमत नहीं होना चाहती, मगर माने बिना भी नहीं रह सकती. और इसी वजह से अंदर खींज उत्पन्न हो रही है. इतनी-सी उम्र में कैसी नंगी, सच्ची बातें करता है !

वह उससे उम्र में छोटा है- काफी छोटा. तीस, बत्तीस की अवस्था होगी उसकी, और इस मई को वह बयालीस की हो जायेगी. एक शाल के जवान पौधे की तरह है वह- ताजा, चमकीला... यौवन और जीवन की अनन्त संभावनाओं से लबरेज, हर क्षण खिल पडने, विहँस पडने को तैयार... जिंदगी उसके रगो-रेश में मधु की सुनहरी धार की तरह भरी हुई है, बूँद-बूँद टपकती हुई, रिसती हुई हर क्षण...

बहुत गर्मी होने लगी है... वह अपने मुँह में सिगरेट दबाये उसे एक आँख से घूरता है, उसकी दूसरी आँख मूँदी हुई है.

आई होप यु डोंट माइंड जे... कहते हुए वह अपनी मूसी हुई सफेद सूती शर्ट धीरे-धीरे उतारता है. वह उसके पीछे खडी दूसरी तरफ देखने का प्रयास करती है, मगर उसकी नजर अभिनव की पीठ पर जमी रह जाती है. जवान मछलियों से भरा हुआ उसका शरीर जैसे पत्थर से तराशकर बनाया गया है. वह चाहकर भी अपनी आँखे फेर नहीं पाती. एक दुर्वार आकर्षण में उसकी पलकें जैसे वही जमकर रह गयी हैं.कुछ पल रूककर, शायाद सायास ही, वह धीरे से उसकी ओर मुडा था, आँखों में इच्छा का खुला निमत्रंण लिए. एक झटके से वह मुडी थी, उसकी तरफ पीठ करते हुए. एक मसृन डोर जैसे एकदम से टूटा था, तडकता हुआ कुछ रेशम-सा- बहुत कोमल और दुर्बल... अंदर फैलता हुआ वही ध्वनि तरंग और उसका मद्धिम कंपन... उसका चेहरा शायद कुछ ज्यादा ही रंग गया था, दोपहर की मटमैली उजास में भी दिखता हुआ.

क्यों चोट्टी, पकडी गयी न... अचानक करीब आकर अभिनव ने उसका कान पकड लिया था. उसके इतना करीब आने से उसकी देहगंध उसके नासारंद्र से टकरायी थी- पसीना और बीयर की मिली-जुली गंध ! उत्तेजक और कामूक... उसने अनायास अपनी साँस रोक ली थी. यह उसके नसों में उतर गयी तो आग बन जायेगी !

छोडो मुझे... उसकी गिरफ्त से छुटने के लिए वह कसमसाई थी- एकदम बच्चे हो !

हाँ, बच्चा हूँ, और मेरे दाँत भी अभी-अभी निकल रहे हैं, किसी को काटने का मन कर रहा है ! कहते हुए उसने सचमुच आगे बढकर उसके दायें कान का लब काट लिया था. वह चिँहूककर परे हट गयी थी- यह क्या बचपना है अभिनव... अब उसे सचमुच गुस्सा आने लगा था. कोने में रखी अलमारी के सामने जाकर उसके आईने में वह अपना कान देखने का प्रयत्न करने लगी थी. उसकी डाँट का कोई असर उसपर नहीं पडा था. उसके पीछे खडा अब भी बेशर्मी से मुस्कराये जा रहा था. न जाने क्यों यकायक किसी आन्तरिक पीडा से उसकी आँखें छलछला आई थी- कितना निर्दयी है यह इंसान ! उसकी आँखों में आँसू देखकर वह उसके पास सरक आया था- अरे रे बीवी.. यह क्या कर रही हो, इतनी सेंटी क्यों हो रही हो? मैं तो मजाक कर रहा था यार... कहते हुए उसने उसे गुदगुदा दिया था - चलो, हँसो...

अभिनव ! उसने उसका हाथ अपने से परे हटाने का प्रयत्न किया था- हर समय मजाक अच्छा नहीं लगता !

तो क्या अच्छा लगता है? झुक कर उसकी आँखों में झाँकते हुए न जाने कैसी आवाज में उसने यह बात पूछी थी कि सुनकर उसके सीने में एक ठंडी लहर-सी उठकर खो गयी थीं. इतने करीब से उसे देखना उसे नर्वस कर रहा था. अपनी जगह से हटने का प्रयास करते ही उसने उसे ठेलकर दीवार से लगा दिया था. उसके दोनों हाथ उसके दोनों तरफ दीवार पर टीके थे. थोडी देर कोशिश करके वह चुप हो गयी थी, उसकी तरफ न देखते हुए उसकी पलकों में हल्की लरज समा गयी थी, दिल धडक रहा था, किसी पक्षी के फरफराते हुए पंख की तरह.

मैंने पूछा मिस जे, हर वक्त क्या करना अच्छा लगता है आपको... उसकी आवाज नीची और गहरी थी, उसके दिल की कई धडकने एकसाथ खो गयी थीं - जानकर क्या करोगे...

- फिर वही करूंगा, हमेशा...

- मैं नहीं जानती...

- नहीं जानती या बताना नहीं चाहती?

- कहा न, नहीं जानती... अब वह रूआँसी होने लगी थी. किसी टीन एजर की तरह उसने अपनी नजरें झुकाकर अपने नाखून कुतरने का प्रयास किया था.

- तो फिर मैं बताऊँ? पूछते हुए उसकी आँखों में सितारे थे, नटखट हँसी भी.

- क्या? उसने उखडती हुई साँसों के बीच बडी मुश्किल से पूछा था.

- यही कि हमेशा क्या करना अच्छा लगता है... उसने झुककर उसकी खुली बाँह पर अपनी नाक रगडी थी, बहुत हल्के-हल्के. एक गहरी साँस खींचकर कहा था- कितनी महकती हो तुम, चाँपा की तरह...

- अभि ! उसने अपनी बेतरतीव होती धडकनों के साथ ढलकता हुआ आँचल सभाँला था- मैंने तुम्हें कितनी बार मना किया है, मुझसे ऐसी बातें मत किया करो... धीरे-धीरे सरकते हुए वह उसके बाँहों के घेरे से बाहर निकल गयी थी और फिर वही जमीन पर बैठ गयी थी. पलकों पर अनायास गहरे बादल घिर आये थे, वह रोने लगी थी सिसक -सिसककर - तुम्हें मुझपर रहम नहीं आता... इतने निष्ठूर क्यों हो?

अभिनव ने उसकी बात का कोई जबाव नहीं दिया था. बगल में बैठकर चुपचाप सिगरेट के कस खींचतारहा था.

बाहर हवा की गति के साथ बारिश और भी तेज हो गयी थी. सामने के छज्जे पर गिरती हुई बूँदों का अनवत शोर बना हुआ था, खिडकी के पर्दे हवा में उडते हुए रंगीन पतंग की तरह लग रहे थे.

न जाने वह कितनी देरतक रोती रही थी. अभिनव ने उसे रोका नहीं था, धैर्य के साथ बैठा रहा था- चुपचाप और गंभीर. एक समय के बाद, जब उसका रोना प्रायः बंद हो आया था, उसने एक टीसू पेपर उसके हाथ में थमाया था- रो चुकी? आर यु फिलिंग बेटर नाउ?

देर तक रोकर वह सचमुच बरसे हुए बादल की तरह हल्की हो आयी थी. टीसू से चेहरा पोंछते हुए अब उसके चेहरे पर झेंप भरी मुस्कान थी.

- क्यों यह कीमती मोती इस तरह से जाया करती हो ! उसकी ठोडी से एक बूँद आँसू अपनी अंगुली के पोर में लेकर वह उसे देरतक गंभीर होकर देखता रहा था- तुम रोती हुई अच्छी नहीं लगती जे... उसके स्वर में संजीदगी थी. एक लंबी चुप्पी के बाद उसने फिर कहा था, चूकती हुई-सी आवाज में- जैसे यकायक बहुत थक गया हो- जिंदगी बहुत मुश्किल है जे ! तुम्हारे सपनों की तरह कोमल नहीं. यहाँ, इस जमीन पर जीने के लिए ऐसा भी बहुत कुछ करना पडता है जिसके लिए आत्मा गवाही नहीं देती.

- एक छोटी- सी जिंदगी के लिए इतने सारे समझौते क्यों? वह उसकी बातें समझ नहीं पा रही थी.

- बुरा मत मानो, तुम औरतों के पास कम से कम यह विकल्प तो है कि किसी से शादी करके अपने जीवन यापन के लिए निश्चित हो जाओ. रूखी-सूखी सही, तुम्हारे दो जून की रोटी की जिम्मेदारी किसी और की होती है. मगर हम पुरूषों के पास यह सुख नहीं है. अपनी और अपने अपनों की जिम्मेदारी हमारे सर पर होती है.

वह उसे चुपचाप सुन रही थी. न जाने वह क्या कहना चाह रहा था. उसकी आँखों में टँके सवाल को उसने पढ लिया था शायद, तभी रूक-रूककर बोला था- जरा कल्पना करो, एक सोलह साल का लडका इस बडे और अजनबी शहर में... एकदम अकेला, मजबूर... पूँजी के नामपर उसके पास दो जोडी हाथ-पैर के सिवा कुछ भी नहीं.

रात के निर्जन में भूख और नींद के बीच वह भी चाहता था, अपनी माँ के आँचल के निरापद आश्रय में छिप जाय, वहाँ मुँह ढँककर सो जाय, मगर... वह उठकर यकायक खिडकी के पास चला गया था और अनवरत झरते हुए आकाश की तरफ देखते हुए सिगरेट के कश खींचने लगा था, जैसे खुद को धुएँ के बवंडर में डूबो देना चाहता हो.

उसके अंदर एक हूक-सी उठी थी. जी चाहा था, बढकर उसे अपनी गोद में खींच ले. कितना अकेला और वलनरेबल दिख रहा था वह उस समय- बिल्कुल डिफेंसलेस !

न जाने कितनी देर बाद उसने कहा था- खोयी हुई आवाज में- मर्द भी मजबूर होते हैं, असहाय और कमजोर भी... मेरे साथ भी वही हुआ जो ऐसी हालत में हो सकता था- एक चिडिया का बच्चा बाज के द्वारा झपट लिया गया. मैंने अपने आततायियों के हाथों अपनी सुरक्षा देखी, उनके खूनी पंजों में आश्रय लेकर अपनी जान बचायी. यह जीने की कवायत थी, जुगाड थी बीवी, और जीने की कोशिश कभी गलत नहीं हो सकती. क्या कहती हो? कहते हुए वह देर बाद मुडा था और उसकी आँखों में झाँका था. उसकी आँखें साफ थी, एकदम निडर, वहाँ कोई संकोच न था.

वह चुपचाप बैठी रह गयी थी. कहती भी तो क्या. उसके अंदर संवेदनाएँ राह भटकी नदी की तरह उमडी फिर रही थी. चाहती थी, उसके चेहरे की सारी उदासी समेट ले, आँचल बनकर पोंछ दे वह सारे दुख जो वह अपने भीतर लिए फिरता है, किसी गुमनाम खत की तरह...

एक लंबे, बेचैन सन्नाटे के बाद वह एकबार फिर उसके पास आ बैठा था, उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए- मैं हमेशा बहुत सुंदर था, उस कम उम्र में तो कुछ ज्यादा ही- गोरा रंग, घुंघराले बाल, लाल होंठ... तो हाथों हाथ लिया गया. इस बेरहम शहर में कोई मन नहीं देखता, मगर शरीर हॉट केक की तरह बिक जाता है. उसकी बातें सुनते- सुनते उसके भीतर एक डर आकार लेने लगा था, वह क्या कहना चाह रहा है...!

उसकी सोच से बेखबर उसने उठकर फ्रिज से बीयर का दूसरा कैन निकाल लिया था- तुम जानती हो जे, पहली बार मेरा बलात्कार एक सौ किलो के गंदे रीछ-से आदमी ने किया था... कहते हुए उसकी आवाज सपाट थी, मगर सुनकर वह भीतर तक थरथरा उठी थी - ये क्या कह गया वह...!

- तीन दिन से भूखा था, गाँव से नौकरी की तलाश में शहर आया था, लिखने की भी धून थी. उस रात रेल्वे स्टेशन की एक बेचं पर सोया था. मुझे वहाँ सोया हुआ देखकर एक हवलदार बिना किसी चेतावनी के मुझपर टूट पडा था, अपने बुट से मुझे बेरहमी से कोंचे जा रहा था.

अचानक हुए उस हमले से मैं बेहद डर गया था. भीषण प्रहार से खुद को बचाने की कोशिश करते हुए मैं बस अपनी माँ को पुकारे जा रहा था. और कुछ सुझ नहीं रहा था. बहुत तकलीफ के क्षणों में न जाने क्यों अपनी माँ ही याद आती है... एक क्षण के लिए अभिनव की आवाज लडखडा गयी थी, जैसे उसमें पानी भर आया हो, फिर कहा था- और उसी समय वह आदमी वहाँ आया था, विशालकाय और कदर्य ! अपने महंगे कपडों से कोई अमीर आदमी लगता था.

उसे देखते ही उस हवलदार ने उसे एक जोरदार सलाम बजाया था. मुझे उस हवलदार से छुडाकर वह मुझे उसरात अपने घर ले गया था. वहाँ नहला-धुलाकर अच्छा खाना खिलाया था, और फिर पूरी रात मुझे भोगता रहा था. अन्ततक मैं बेहोश हो गया था, मगर कोई प्रतिवाद नहीं कर पाया था. बहुत डरा हुआ था मैं, लाचार तो था ही...

उसकी बातें सुनते हुए वह बडी मुश्किल से अपने आँसू रोके हुए थी. न जाने कब उसने उसका हाथ कसकर पकड लिया था.

डोंट फील सॉरी फॉर मी जे...उसकी तरफ देखकर न जाने वह किस तरह मुस्कराया था- कम उम्र में यह बातें तकलीफ देती थी, मगर अब आदत हो गयी है... अब समझ सकता हूँ, दुनिया में हर एक चीज की एक कीमत होती है. यह मेरे जीने की कीमत थी... मुझे चुकाना ही था. कहते हुए उसने उसकी बायीं हथेली पर अपने होंठ रख दिये. उसे लगा था, अंगार छू गया है, मगर सिहरने के बावजूद वह अपना हाथ हटा नहीं पायी थी. चुपचाप बैठी रह गयी थी, मंत्रमुग्ध की तरह.

थोडी देर बाद उसने उसका हाथ वापस उसकी गोद में वापस रख दिया था- देह का स्वाद मैं एक जमाने से भूल गया हूँ जे, दूसरों की जरूरतें पूरी करते-करते एक मशीन बनकर रह गया हूँ. कई जगह आश्रय लिया, कई जगह नौकरी की. हर जगह दो रोटी और एक छत के लिए इस शरीर को बंधक रखना पडा...!

अय्याश अफसरों, अधिकारियों से लेकर बूढी, अधबूढी सेठानियों, रईसों की पत्नयों तक...किसी ने दया नहीं की, पूरी-पूरी कीमत वसूल की हर मदद के लिए, आश्रय के लिए... पहले-पहल बहुत तकलीफ होती थी. बाद में सब सह गया... आदत हो गयी. थोडी समझदारी आते ही मैंने अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बना लिया. ऊपरवाले ने शायद इसीलिए मुझे इतनी खूबसूरती दी थी. यहाँ हर कोई अपना कुछ न कुछ बेचता है. कोई अपना हुनर, कोई फन तो कोइ अपनी अक्ल. मैं अपनी सुदंरता बेचता हूँ, इट्स दैट सिम्पल...

अपनी खुली हुई हथेली की तरफ घूरते हुए वह देरतक खोया-सा बैठा रहा था फिर एक गहरी साँस खींचते हुए बोलना शुरू किया था- उसके बाद फिर कभी मुझे किसी तरह की तकलीफ का सामना नहीं करना पडा... सबकुछ आसान हो गया. अब सुख-सुविधा मेरे आगे-पीछे बिछी रहती है, दुनिया जैसे जर खरीद गुलाम है. कोई मेरे लिए डिजाइनर सूट सिला रहा है तो कोई पाँच सितारा होटलों में डिनर करवा रहा है. ऑफिस में भी बॉस हमेशा खुश और सदय. मेरे लिए अपनी गाडी का दरवाजा खोलकर खडा रहता है. अगले हफ्ता दुबई जा रहा हूँ, एक शेख साहब का शाही मेहमान बनकर.

उसकी बातें सुनते हुए एकाएकक उसका जिस्म घुलाने लगा था. न जाने कब दुख की जगह गुस्से और घृणा ने ले लिया था. अचानक वह एक झटके से उठ खडी हुई थी- इतना कमाते-धमाते हो तो मुझसे क्यों पैसे मांगते रहते हो !

- इतने सारे खर्चे हैं मेरे बीवी, फिर घर में एक पूरा कुनबा पल रहा है मेरे आसरे. पाँच भाई- बहन, माँ... माँ की बीमारी... उनका जल्द आँपेशन करवाना है. संजीदा होते-होते वह फिर शरारत पर उतर आया था- फिर मेरा हेल्थ स्पा, जिम, रेस कोर्स... कितने खर्चे हैं बीवी...

- काफी ऐश हैं तुम्हारे... उसका स्वर तल्ख हो उठा था. मगर वह उसी ढिठाई से मुस्कराता रहा था- तुम जैसी सेठानियों की मेहरबानी है...

- न मैं तुम्हारी बीवी हूँ, न सेठानी... अब वह सचमुच नाराज हो गयी थी. बेर्शमी की भी एक हद होती है.

- गुस्सा क्यों होती हो जे, मेरी स्थिति समझो यार, हम दोनों तो एक ही जैसे हैं.

उसकी बात पर उसे हैरानी हुई थी, नाराजगी भी.

- तुम अपने साथ मेरी तुलना कर रहे हो...?

- क्यों, नहीं करना चाहिए? हम दोनों ही तो जीने के लिए, रोटी और छत के लिए इस जीवन को रेहन पर चढाये हुए हैं, समझौते कर रहे हैं, अनचाहे रिश्तों को ढो रहे हैं... जिस इंसान से तुम नफरत करती हो, उसीका सिंदूर लगाकर उसके नाम का करवा चौथ करती हो, उसके साथ हम बिस्तर होती हो... किसलिए, जीने के लिए ही न? डोंट माइंड बीवी, सुनने को बहुत बुरा लगता है, मगर यह भी तो एक अर्थ में वेश्यावृत्ति ही है... सुख-सुविधा और सुरक्षा के लिए स्वयं को देना, अपनी मर्जी से या मर्जी के बिना...

वह गुस्से मे थी, मगर उसकी बातें सुनते हुए यकायक उसके अंदर का कोई अदेखा हिस्सा अवश हो आया था. कितनी सांघातिक थी उसकी बातें ! सच्ची भी, तभी तो इतनी यातनादायक भी. उसके अंदर न जाने क्या इस तरह से घुलाने लगा था. आगे बढकर उसने दीवार का सहारा ले लिया था, वर्ना गिर ही पडती. एकबार फिर उसकी आँखों से आँसू बहने लगे थे.

- तुम मुझे क्योंकर मिल गये अभि, मेरा जीना मुश्किल हो गया...

- मुझसे मिलने से पहले खुश थी?

- हाँ थी, क्योंकि तब कोई चाह नहीं थी...कहते हुए वह यकायक रूक गयी थी- क्या कह रही हूँ, यदि पकड में आ गयी तो यह दस्यु तो मुझे पूरी तरह से लूट लेगा ! मेरी कमजोरियाँ इसके हाथ नहीं लगनी चाहिए...

- तो... अब चाह है? कहते हुए वह उसपर पर झुक आया था, इतना कि वह उसके बोझ तले दबने लगी थी. उसकी साँस रूकने को हो आयी थी.

- कहो न, अब चाह है...? पूछते हुए उसकी कत्थई पुतलियाँ एक धीमी आँच में पिघलने लगी थी ं, ऊष्मा में भीगते हुए. उसकी देह का सामिप्य, उससे उठती मर्दानी गंध, हरारत.. उसे गश-सा आने लगा था. उसने अपनी आँखें मूँद ली थी.

- अब मुझे जाने दो अभी... वह रिहाई मांग रही थी, न जाने किससे, उससे या स्वयं से.

- अगर जाना ही है हर बार इस तरह से तो फिर आती ही क्यों हो?

- काश यह मुझे पता होता अभि... उसने अबतक अपनी आँखें नहीं खोली थी. एक पिघलाव निरंतर उसके अंदर लगा था, वह पानी हो रही थी- सर से पाँव तक... मगर, मुझे पता है जे... उसने अपनी सिंकी अंगुलियाँ उसके गाल पर फिरायी थी.

- अभि... उसकी पलकों पर फिर नमक-सी घुल आयी थी.

अच्छा बाबा, फिर से रो मत पडना, यु सेंटी गर्ल...यकायक वह उसके सामने से हट गया था. उसने अपना आँचल सँभाला था.

- जे, यह खूबसूरत दिन, बरसता हुआ आकाश, एकांत, हम और तुम... मेरे पास आओ न, मैं तुम्हारे जिस्म में पराग बो दूंगा, खिल पडोगी फूलों की तरह... सच ! अपने बिस्तर पर लेटकर वह उसे फिर देखने लगा था, आँखों में अनाम इच्छाओं का सारा आकाश लिए... वही खोयापन और विसन्नता...!

वह खुद को समेटकर उठ खडी हुई थी, अब मुझे चलना चाहिए, रूक गयी तो शायद फिर कभी न जा पाऊँ. मगर उसके कदम नहीं उठे थे, जहाँ की तहाँ खडी रह गयी थी, जैसे जमीन से चुन दी गयी हो. एक अदृश्य डोर उसके आसपास थी, उसे बाँधे हुए...

- क्या तुम्हें मुझसे घिन आती है जे, यह सब सुनने के बाद...

- नहीं ! ऐसा बिल्कुल नहीं है. तुम एक शरीर ही नहीं हो मेरे लिए, और भी बहुत कुछ हो- एक सोच, एक व्यक्तित्व, एक दोस्त... एक बहुत भले इंसान... कहते हुए उसकी आवाज भीग आयी थी. उसकी बात सुनकर वह देरतक चुप रह गया था, उस क्षण उसकी आँखों में जाने क्या था, बहुत कोमल सा कुछ, एकदम नया, कोरा... उसके लिए उन्हें सहना कठिन हो गया था, अपनी पीठ फेरकर वह खडी हो गयी थी, अपनी हौलदिली को सँभालते हुए...

- तुम भी सिर्फ एक औरत नहीं हो मेरे लिए जे, शरीर की कमी नही मुझे. यह तुम्हारी सोच, तुम्हारे व्यक्तित्व का अनोखापन है जो मुझे खींचता है.

वह चुपचाप सुनती रही थी. कहती भी तो क्या. एक अबुझ अनुभूतियों का गुंजल बनकर रह गयी थी अंदर ही अंदर, खुद को सुलझाने की कोशिश में बेतरह उलझती हुई...

- यह तुम्हारी आँखें हैं न भूरी-भूरी, ललछौंह, मुझे अक्सर रातों को सोने नहीं देतीं... आकाश के सारे तारे गिन चुका हूँ इनकी याद में... वह करवट बदलकर अब उसे सीधे देख रहा था, उन्हीं बुखार चढी-सी नजर से. उसकी ठंडी त्वचा में आँच भर आयी थी, अपने दहकते हुए गालों को दोनों हाथों से दबाये वह खडी रह गयी थी. कितनी प्यास है उसके अंदर, न जाने कितनी मरूओं की... रेत हुई जा रही है, क्षरती हुई अनवरत. अंदर ही अंदर... उम्र हो गयी है न जीते हुए. जिंदगी महज साँसों और धडकनों का नाम नहीं, इससे भी आगे की कोई चीज है... मुस्कराहट का उजला मुखौटा ओढकर दूसरों को ठग लेती है, मगर खुद का क्या...

उसे अरूप का चेहरा याद हो आया है अनायास... वह मेरा कौन है ! रिश्तों के नाम में कोई अनुभूति भी भर देता... अर्थ भर देता ! एक भरे-पूरे घर का सन्नाटा उनके रिश्ते का अकेला सच है. वह साथ रहते हैं, मगर अकेला जीते हैं... अरूप के हिस्से पूरी दुनिया आयी है, मगर उसके हिस्से... इस दुनिया का भ्रम, परछाइयाँ, निपट मौन- एकदम पथराया हुआ ! वह चल रही है, साथ निभा रही हूँ, मगर किसका... वह जिसका साथ दे रही है, वह तो उसे बहुत पीछे छोड देना चाहता है. एक अधिकार भावना के वशीभूत अरूप उसपर कब्जा जमाये हुए है. बस. वह उसकी सम्पत्ति है, सामान... वर्ना उसका साथ किसे चाहिए ! वह एक भरे-पूरे घर की मिस्ट्नेस है, मगर यह सजावट के शब्द उसे खुशी नहीं दे पाते. वह स्वयं को भरमा नहीं पाती... वह अपने अकेलेपन की यातना को हर पल जीती है. अवज्ञा, अपमान, अवहेलना के भाव उसके अंदर काँटें की तरह हर पल बिंधे रहते हैं.

रिश्ते के नाम पर उनके बीच एक छत और बिस्तर के सिवा कुछ भी नहीं बचा है, मगर वही उसके जीवन का सबसे बडा सच है- जिसे बंदर के मरे हुए बच्चे की तरह उसे अपने सीने से चिपकाये फिरना है- आजन्म... कितनी थक जाती है कभी इस झूठ को जीते हुए ! अंदर की प्यास मरूभूमि बन गयी है, फैल रही है रातदिन, सबकुछ रेत कर रही है. तृष्णा की हद यह कि सारा समंदर, सारा आकाश पी जाएँ, मगर फिर भी यह आग न बुझे... यह अतृप्ति न जाय !

न जाने किस प्रत्याशा में रोज यहाँ इस तरह दौडी चली आती है, मगर विडम्बना यह कि यहाँ भी ज्यादा देर टहर नहीं पाती, आ-आकर लौट जाती है, अपनी सारी भूख-प्यास समेटकर, उसी मरू की ओर जहाँ उसके लिए कोई जल का सोता नहीं. उसे उसके कारावास की आदत हो गयी है, अपने घर की आदत हो गयी है... अब दरवाजा खुल भी जाय तो क्या, उसके पंखों में कोई उडान नहीं बची है... बस थकान है, गहरी थकान- रूह तक उतरी हुई, धंसी हुई...

दूसरों से क्या पाना चाहती है वह, नहीं जानती, मगर स्वयं को देना चाहती थी- अपनी सम्पूर्णता में, उजाड, उडेलकर, यह जरूर जानती है. बार-बार लौटा दी गयी है अपनों के दरवाजे से. उससे किसी को कुछ भी नहीं चाहिए. अरूप को भी, बस एक इस देह के सिवा. मगर वह बस इतना ही तो नहीं है... यातना बनी रहती है, स्वयं के न स्वीकारे जाने से, न पहचाने जाने से... कितना कुछ बचा रह गया है उसके अंदर, एक तरह से पूरी की पूरी ही. सारा ऐश्वर्य संचित रह गया, कुछ खर्च कर नहीं पायी. बस, छीजती रही देह के स्तर पर. मन घिसता है तो चंदन बनता है, मगर शरीर घिसता है तो... कीचड और मिट्टी... और क्या !

इसी कीचड में एक अकेले कमल को जिलाये रखने की कोशिश में यहाँ-अभिनव के पास आती है वह और... लौट जाती है !

वह भी मौसम के थपेडे झेलकर पत्थर बन गया है. न अपनी पहचान देता है, न पहचानना चाहता है. संबंध उसे खौफ देता है, डरावना लगता है. मुखौटों के पीछे जी रहा है, उसे उतारना नहीं चाहता.

वह बाहर देखती है, मटमैली दुपहर में शाम का नील घुलने लगा था. पानी झरकर स्लेटी बादल फिके हो आये थे, एकदम तरल और पारदर्शी-से... क्षितिज में रोशनी की हल्की, पीली कौंध थी, डूबने से पहले का उजाला...

न जाने क्यों अनायास उसकी आँखों के सामने उसका अबतक का जीवन किसी स्लाइड शो की तरह चलने लगा था- एक लंबी सडक सी जिंदगी, धूप में अनवरत जलती हुई... कहीं टुकडाभर छाँह नहीं ! इस सडक की किस्मत में कोई मंजिल नहीं, बस चलने, चलते रहने के भ्रम में पडे रहना... हमेशा-हमेशा.

उसने मुडकर देखा था, अभि अभीतक उसे देख रहा था, आँखों में वही खुला निमंत्रण लिए. एक पल के लिए उसने अपनी आँखें कसकर बंदकर ली थी और फिर फोन करके अपनी सहेली नम्रता से कहा था कि वह सोनाली को प्यानो क्लास के बाद अपने साथ अपने घर ले जाय. वह आठ बजे तक उसे वहाँ से लेने आ जाएगी. उसकी बेटी भी सोनाली के साथ ही प्यानो सीख रही थी. इसके बाद उसने अरूप का नम्बर मिलाया था.

हमेशा की तरह उसका झल्लाया हुआ स्वर- वही बातें- वह देर से आनेवाला है, बोर्ड मीटिंग... आदि-आदि. उसने बातों के बीच में ही फोन काट दिया था. कांट टेक इट एनी मोर... अभिनव उसे कौतुक भरी नजरों से देखे जा रहा था. उसके पास जाकर वह खडी हो गयी थी- तुम्हें हमेशा यही शिकायत रहती है न कि मैं तुम्हें अपने पास आने नहीं देती...

- हाँ !

- वह इसलिए अभि कि मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती थी... बहुत करीब होना दूर जाना है, पा लेना खो देना है... रिश्तों की पाठशाला ने बहुत पहले सीखा दिया है. तुम्हारे साथ भी इस रिश्ते का यही हश्र हो, नहीं चाहती थी.

- तो अब तुम मुझे खो देना चाहती हो?

उसकी बात पूरी करते हुए उसने उसका हाथ पकड लिया था.

- अब खोने-पाने के हिसाब में नहीं पडना चाहती...

- तो आओ, आज मुझे पूरी तरह खो दो... इसी तरह से सही, मगर मेरे लिए तो यह बस पाना ही है...

वह तंद्रालस मुस्कराया था. इसके साथ ही जैसे यकायक आकाश फट पडा था. तेज हवा के साथ मोटी-मोटी बूँदों में एकबार फिर पानी बरसने लगा था. हवा खिडकी पर दो हत्थड मारती हुई गुजर रही थी. छत पर, बरसाती में बूँदों की अनवरत टप-टप और हवा का शोर था- हर तरफ बरसता हुआ रस का, नेह का मादक संगीत..अभिनव ने उसकी तरफ अपना हाथ बढा दिया था-आओ...

मगर अभिनव के बढे हुए हाथों को अदेखा करते हुए वह बगल में रखी हुई मेज के पास जाकर अपना पूरा पर्स उसपर उलट दिया था. देखकर अभिनव हैरत में पड गया था-अरे, इतने रूपये, अच्छा, तो अबतक छिपाकर रखे थे...मगर मेरा तो इतना चार्ज नहीं है...

- यह तुम्हारा मेहताना नहीं, उधार है... कहते हुए उसकी आवाज में कोई कौतुक नहीं था.

- उधार... तब तो हो गया, अगले जन्म में ही चुका पाऊंगा...

- किसी भी जन्म में चुकाना, मगर चुकाना जरूर...

- कितनी कंजूस हो यार... अभिनव के चेहरे पर बेचारगी छा गयी थी.

- कंजूस नहीं, तुम्हारी दोस्त हूँ... तुम्हें खरीदकर, तुम्हारी कीमत लगाकर तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहती... फिर तो उन्हीं की जमात में खडी हो जाऊंगी जिन्होंने तुम्हे आज यहाँ ला खडा किया है- पतन की कगार पर...

उसकी बात सुनकर अभिनव के चेहरे का रंग एकदम से बदल गया था. जैसे गोरी रंगत पर राख पड गया हो.

- फिर... यह रूपये...?

- उधार समझकर रख लो. घर भेजना है न...

- हाँ, और तुम...? यह थोडे-से शब्द कहते हुए ही जैसे वह यकायक थक गया था.

- मैं... मैं फिर आऊंगी तुम्हारे पास- बार-बार लौटकर- इसी तरह... कहाँ जाऊंगी- जा पाऊंगी भला...

- मगर तुम्हें मुझ से कुछ नहीं चाहिए? ... मेरा मतलब, बदले में... अभिनव एकदम से उलझ गया था जैसे. यह बातें इस दुनिया की नहीं, इस जमाने की नहीं... कहाँ की है वह, किस जमीन की, किस मिट्टी की...!

- चाहिए, तुम्हीं से चाहिए, बहुत कुछ... मगर इस तरह से नहीं... चाहती हूँ, स्वयं को पूरी तरह से उसे देना जिसे बिना मूल्य दे सकूँ, और पाना भी- बिना मूल्य ही... यह बाजार-हाट नहीं अभि, मन की दुनिया है, यहाँ सौदा कुछ इसी तरह से होता है- जान की कीमत सिर्फ जान...

वह जैसे नशे में बोल रही थी, आँखों में शराब उतर आया था, कोरों से छलकती हुई-सी... अपने में डूबी हुई वह न जाने किस दुनिया से बोल रही थी- अब तुम आराम करो अभि, तुम बहुत थक गये होगे, बहुत बोझ है तुमपर और बहुत लंबा सफ़र भी... मैं चलती हूँ...

- कहाँ... अभिनव के सवाल में कोई सवाल नहीं था, बस एक शब्द, अनायास, अवांतर-सा.....

- मैं, मैं इस बारिश में आज भीगना चाहती हूँ- खूब-खूब... तर-बतर हो जाना चाहती हूँ-रगो-रेश से- रूह तक...

- वह भला क्यों? न जाने अभिनव क्या समझना चाह रहा था. जिन्दगी का कोई सवाल इतना दुरूह नहीं था जितना आज यह औरत- यह औरतें...

- यह तुम नहीं समझोगे अभि ! तुम तुम जो हो... औरत होते तो समझ पाते... यह हैंगओवर है... कहते हुए वह दरवाजे की ओर बढ गयी थी, किसी शराबी की तरह, लहराती हुई-सी.

- हैंगओवर... ! अभिनव उसके पीछे-पीछे दरवाजे तक आ गया था. चेहरे पर वही सवाल और उलझन...

- हाँ अभि- हैंगओवर- प्यार का... कहते हुए उसके अंतिम शब्द अचानक चमकी बिजली की कडक में खो गये थे. अभिनव दरवाजे में एक बडे प्रश्नचिन्ह की तरह खडा था, उलझनों की गठरी की तरह भारी, बोझिल... उसके पल्ले आज एक पहेली के सिवा कुछ नहीं पडा था. हर रिश्ते में औरत वस्तुतः माँ ही क्यों बन जाती है ! अपनी जात से इनकी निजात नहीं.

उधर वह तेजी से सीढियाँ उतरकर बरसते हुए पानी में भीगती चली गयी थी. कैसा रूप था उसका- पानी और हवा में जलती दीप शिखा-सा...वही कौंध, वही लहक,, वही उजाला! एक शापग्रस्त यक्षिणी- उतनी ही भटकी-भुली हुई, मगर सधे कदमों से... यह बंजारापन उसी का चुना हुआ है- जिसमें वह अपनी मंजिल से आगे निकल गयी है, यह प्यार से आगे की कोई बात है शायद...

गिरती बूँदों में पिघलती, घुलती-सी वह रात के अंधेरे में किसी सपने की तरह धीरे-धीरे खो गयी थी. अपने दरवाजे पर खडे अभिनव ने अपने सामने बिछे अंधकार के समुद्र की ओर देखते हुए अपने बहते हुए आसुओं को रोकने का प्रयास नहीं किया था. उन्हें निर्वाध, निरंकुश बहने दिया था. आज वह रोना चाहता है. बहुत ! खुशी में रोये हुए आज कितना अर्सा हो गया है उसे... वह फिर से वही बच्चा बन गया है और अपने बचपन में, अपनी माँ के पास लौट जाना चाहता है-उनकी गोद में, उनके आँचल की महफूज, सुकून भरी छाँव में...