धरती कहे पुकार के, सुन ले तराने प्यार के / जयप्रकाश चौकसे

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धरती कहे पुकार के, सुन ले तराने प्यार के
प्रकाशन तिथि :13 मार्च 2015


जब 1939-40 में भूमिहीन किसान के भाग कर मुंबई आए पुत्र मेहबूब खान 'औरत' बना रहे थे तब अमेरीका में पर्ल एस.बक की पुस्तक से प्रेरित 'गुडअर्थ' एंव महान स्टीनबैक की लिखी 'ग्रेप्स ऑफ रेथ' पर भी फिल्में बनाई जा रही थी। ये तीनों फिल्में किसान की व्यथा-कथाएं हैं - एक चीन के किसान की, दूसरी जमीन अमेरिका की और मेहबूब खान की फिल्म में भारत के किसान का संघर्ष है गोयाकि दुनियाभर के किसान अन्याय् के शिकार रहे हैं। इस तरह की फिल्मों का सिलसिला लंबे समय से चला रहा है परंतु आमिर खान की 'लगान' के बाद तिगमांशु धूलिया की 'पानसिंह तोमर' के अतिरिक्त किसान व्यथा गायब हो गई है। भूमि अधिग्रहण कानून विगत दो माह से सुर्खियों में है और 9 संशोधनों के साथ लोकसभा में पारित हो चुका है तथा 14 मार्च को राज्यसभा में प्रस्तुत होगा। इसी संभावित कानून के विरोध में अन्ना हजारे पदयात्रा की तैयारी कर रहे हैं।

इस सब शोर में एक तथ्य रेखांकित नहीं हो पा रहा है। आर्थिक उदारवाद के बाद अनेक शहरों में नगर की सीमा के निकट की किसानों की जमीन 20 से 30 करोड़ रुपए एकड़ के भाव में बिक रही है। बिहार औद्योगीकरण के प्रारंभिक दौर में है परंतु पटना के निकट जमीन के दाम आसमान छू रहे हैं। इतना अधिक धन किसान की सात पुश्तों ने नहीं देखा है और वे नि:संकोच अपने पुरोधाओं की जमीन बेच रहे हैं। यह इसलिए हुआ कि विगत दशकों में किसान को भेजे गए खाद, बीज इत्यादि उस तक नहीं पहुंचे और सारी सहायता चुनिंदा बड़े किसान जीम गए। जमींदारी प्रथा कानूनी रूप से समाप्त हुई परंतु व्यावहारिक जीवन में वह दादागिरी आज भी जारी है। जब किसान सारा वर्ष परिश्रम करके अपनी फसल को उचित दाम पर नहीं बेच पाता, तब वह अपने जीवन से ही असंतुष्ट है। क्या अपने पसीने और नीर से जमीन सींचने का कोई अर्थ रह गया है? अन्याय आधारित व्यवस्था ने उसका साहस हर लिया है। सबसे भयावह बात यह है कि टेलीविजन के कारण अय्याश समाज को वह देख रहा है और उसके मन में भी आराम पसंद अरमान जाग गए हैं। खेत के प्रति उसकी रूमानियत समाप्त हो गई है। एक दौर था जब वह धरती को माता मानता था और कोई अपनी मां को नहीं बेचता परंतु विगत दशकों में पूरे देश में जीवन मूल्य बदल गए हैं। लक्ष्मी के सामने झुके माथे देख-देखकर अब वह धरती की मिट्‌टी को सिर पर नहीं लगाना चाहता है।

इस तरह की बातों का एक पक्ष यह भी है कि जमीन के बदले मिले करोड़ो से उनके पुत्रों ने तेज वाहन खरीद लिए हैं और अब वे शहरों में 'आखेट' खेलने आते हैं, शराब पीने, वासना में डूबने आते हैं। इन हरकतों से समाज की बुनावट पर असर पड़ रहा है।

यह कितनी अजीब बात है कि मध्यम वर्ग की विभिन्न सतहों पर अपनी आय के दायरे में मध्यम वर्ग भी अय्याश हो गया है और अब किसानों का एक वर्ग भी अपना 'जलसाघर' खोज रहा है। सदियों बाद उसके हाथ धन का कोड़ा आया हैं। वह बेचारा नहीं जानता की उसका कोड़ा उसी की पीठ पर पड़ रहा है, क्योंकि बिगड़ी हुई संतान के लिए करोड़ों भी कम पड़ जाएंगे। यह आराम पसंदगी, ये ऐशोआराम की लहरें कैसे पैदा हुईं और कैसे अब हर वर्ग उसकी पकड़ में गया है? यह समाजशास्त्री का क्षेत्र है। इस दुरूह बात का सरलीकरण यह है कि पहले अमीरों के जलसाघर पर लोहकपाट चढ़े होते थे परंतु अब दिखावे की लहर ने उन दीवारों में दरारें डाल दी हैं और अट्ट‌ालिकाओं की वे हवाएं नीचे की सभी बस्तियों में फैल गई हैं। हमने किस मोड़ पर जीवन मूल्य खो दिए? क्या समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, असमानता इत्यादि इसके लिए जवाबदार है या इन मूल्यों को महत्वहीन कर देने के कारण भ्रष्टाचार असमानता का दावानल प्रारंभ हुआ है?

आज मदर इंडिया, ग्रेप्स ऑफ रेथ, गुडअर्थ, गोदान 'दो बीघा जमीन' और 'हीरामोती' की तरह की फिल्में शायद लोकप्रिय नहीं हो पाएं। लोकप्रियता के मानदंड बदल गए हैं और लोकप्रियता स्वयं एक बीमारी बन गई है। अब किसी भी वर्ग से क्रांति की संभावना नहीं है।