धरती के भीतर दिन रात खालीपन से भरा एक आसमान रहता था / श्रीकांत दुबे

Gadya Kosh से
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तब तक मेरी रोज की आदतों और हरकतों पर जंग लग चुकी थी।

खान मेरे सामने खड़ा खा रहा था। बीच में एक मेज थी, जिसके एक ओर मैं भी आलू प्याज के पराठे पर लगा पड़ा था। और मैं शुक्रगुजार हूँ 'गायत्री ढाबे' का जिसने उस रोज खाना इतना लजीज बनाया था कि खान को खाने के सिवाय और किसी की भी सुध नहीं थी। अथवा हो सकता है कि खान को लगी तेज भूख भी इसके लिए जिम्मेदार हो। पर मुझे पूरा यकीन है कि खाना चाहे जितना भी लजीज हो और खान की भूख चाहे जितनी भी तेज हो, लेकिन एक बार मुझ पर नजर पड़ जाने के बाद आस पास सैकड़ों की उपस्थिति को नजरंदाज कर वह सिर्फ और सिर्फ मुझे ही देखता। मैंने खाना अभी शुरु ही किया था और तब तक उसकी नजर मुझ पर नहीं पड़ी थी। वह खड़े खड़े अपनी प्लेट पर झुका था और मैंने अपनी प्लेट को बिना किसी आहट के उठा लिया। मैं चौकन्ना था और वहाँ से खिसक रहा था। खिसकना भी कुछ ऐसे कि मेरे खड़े होने की जगह पर मेरी उपस्थिति और अनुपस्थिति का खान के खाते जाने पर कोई फर्क न पड़े। इस क्रम में मैं सबसे पहले अपनी जगह से एक कदम पीछे हट कर कुछ देर के लिए रुक गया था, जिससे मेरी छाया से कट रही रौशनी की फाँक पूरी की पूरी खान की थाली में उतर आई और मेरे रुकने भर के वक्त में खान को उसकी आदत भी पड़ गई। फिर मैं लगभग समकोण बनाती हुई दिशा में मंथर गति से बढ़ने लगा था। गायत्री ढाबा एक जमा हुआ नाम था और एक छत के नीचे पड़ी नंगी मेजों से लेकर लगभग बीस मीटर दूर खड़े नीम के पेड़ तक फैला था। मैं अपने प्लेट के साथ नीम के पेड़ के चबूतरे तक आ गया था, जहाँ रात की पहली पहर का अँधेरा थोड़ा घना था और वहाँ खड़े और बैठे कई लोगों के बीच से खान मुझे पहचान नहीं सकता था।

खान और मेरे रिश्ते के इस मोड़ तक आ जाने के पीछे एक सात आठ महीनों की लंबी भूमिका थी। और उसकी पहली दिलचस्प बात यह थी कि खान और मेरा मिलना भी पहले पहल गायत्री ढाबे पर ही हुआ था। एक ऊब से भरी दोपहरी के बीचोबीच। खान दाहिने कंधे में एक झोला लटकाए हुए था और मुझसे बार बार फोन पर बात करने के बावजूद घर तक नहीं पहुँच पाया था। और चूँकि गायत्री ढाबा एक जमा हुआ नाम था और उसके आस पास के दो तीन मुहल्लों में आने वाला हर नया शख्स वहाँ अपने आने के शुरुआती एक दो दिनों में ही उसका पता जान जाता था, लिहाजा मैं और खान भी उससे परिचित थे। सो मेरे घर को खोज खोजकर तंग आ जाने के बाद उसने मुझसे गायत्री ढाबे तक आ जाने की सिफारिश की थी। और मैं उसे बताकर कि मैं हरे रंग की टी शर्ट में रहूँगा, एक बैंगनी बुश्शर्ट पहनकर वहाँ पहुँच गया था। हम दोनों एक दूसरे से दस बारह मीटर की दूरी पर खड़े होकर, एक दूसरे को तीन चार बार देख लेने के बावजूद एक दूसरे को ढूँढ़ रहे थे। खान मुझे पहचान पाए, इसके लिए मेरा हरे रंग का टी शर्ट पहने होना जरूरी था, और मैं 'खान मुझे पहचानेगा' की सोच के भरोसे खड़ा था। धूप से बचने की जुगत में खान नीम के पेड़ के चबूतरे पर बैठ गया था और मोबाइल निकाल कर लास्ट डायल्ड की लिस्ट पर जाने वाला था कि मैं उसके सामने पहुँचकर पूछ लिया था 'खान?'। तब तक खान की नजरों में हरे टी शर्ट में आने वाले 'मैं' की तलाश साफ थी। मैंने हाथ बढ़ाया, उसने अपनी गर्म हथेली को जोश के साथ मेरे हाथ से मिलाया। आगे उसने मुझसे मेरा एक फोटो और पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड अथवा राशन कार्ड में से किसी एक की फोटोकापी माँगी। मैंने अपनी एक फोटो और राशन कार्ड की एक प्रति उसे सौंप दी। खान ने कई पन्नों वाले एक फार्म पर कई जगह सही का निशान लगा दिया और मुझे उन जगहों पर दस्तखत करते जाने को बोला। उन दिनों 'जागो ग्राहक जागो' का प्रचार जोरों पर था जिसके असर की बदौलत मैंने खान से एक बार पूछ लिया था कि इतने लंबे चौंड़े में यह सब लिखा क्या है? यूँ, उसके बताने या न बताने की दोनो ही स्थितियों में ही दस्तखत तो कर ही देता, लेकिन उसने कहा कि 'कुछ नहीं सर, बस वही सारे 'टर्म्स एंड कंडीशंस' हैं जो दूसरे किसी भी नेटवर्क के प्लान में होते हैं। मैं हच से वोडाफोन में तब्दील हो गई टेलीकाम कंपनी के के अंतर्गत प्रीपेड से बदलकर पोस्टपेड प्लान का ग्राहक हो गया था।

कहानी जिस वक्त से शुरू होती है, उन दिनों देश दुनिया के हालात से वाकिफ आस्तिक लोगों के जेहन में सर्वशक्तिमान के नाम पर ईश्वर के बाद जो नाम सबसे पहले आता था, वह 'जार्ज बुश' हुआ करता था।

मैं जयपुर में 'फर्स्ट साल्यूशन' नाम की कंपनी में काम करता था।

मैं जयपुर में नौकरी के लिए किसी दूसरे छोटे शहर, कस्बे या किसी पिछड़े गाँव से नहीं आया था। बल्कि तब से तीन साल पहले एक दूसरे बड़े शहर, लखनऊ से आया था, जो कि मेरी पैदाइश का शहर भी था और जिसे मेरे पिता अपना शहर भी कहते थे। मैंने जयपुर के ही 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय इंस्टीट्यूट आफ साइंस एंड मैनेजमेंट' से एमबीए का दो वर्षीय कोर्स भी किया था और कॅरियर के जिस मुकाम तक पहुँचा था वह मेरे एमबीए के उस दो साला कोर्स की ही बदौलत था। आगे यह भी बता दूँ कि मैं अपने काम के बारे में सोचकर खुश रहता था कि उसे मोतीहारी, सहरसा, पुरूलिया, गाजीपुर, बलिया, रामपुर, सागर, मुरैना, बीकानेर, रायचूर और पठानकोट जैसे छोटे शहरों में परवरिश पाने वाला कोई ऐरा गैरा तो कतई नहीं कर सकता था। मेरे काम के लिए जरूरी था अंग्रेजी बोलना। अंग्रेजी भी ऐसी वैसी नहीं, यूएस एक्सेंट वाली फ्लूएंट अंग्रेजी। अभी चूँकि मैं उस मुकाम को काफी पीछे छोड़ आया हूँ और मुझे किसी नए प्रतियोगी का खतरा बिलकुल भी नहीं है, इसलिए बता देता हूँ कि अपनी अंग्रेजी को वैसी ही खतरनाक बनाने का बेस्ट तरीका हर रोज हालीवुड की फिल्मों वाला अंग्रेजी चैनल एचबीओ देखना है।

एमबीए की अपनी पढ़ाई के दौरान, मैं मैनेजमेंट पढ़ाने वाले प्रोफेसर्स के बीच काफी जहीन विद्यार्थी माना जाता था। उनमें से कई शिक्षकों की मुताबिक मैं हर साल दिल में अजीब अजीब सा होने वाले मौसम में कैंपस सलेक्शन के लिए आने वाली कंपनियों में से किसी न किसी के द्वारा एक अच्छी नौकरी के लिए चुन लिया जाने वाला था।

यूँ, हुआ भी हू ब हू वैसा ही।

पढ़ाई के शुरुआती दिनों में हमारे जेहन में कोर्स के पूरा होते न होते देश भर की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से किसी न किसी की एक टीम का मैनेजर बन जाने के ख्वाब काफी सहजता से उग आया करते थे। हममें से कइयों के मामले में तो ये ख्वाब अपने देश की राजनीतिक सीमा को पार कर विदेशों तक विचर आते थे। लेकिन जैसे जैसे हम पढ़ाई के नाम पर दिन ब दिन क्लास में अपने प्रजेंटेशन और बहुधा आने वाले गेस्ट प्रोफेसर्स के सामने के अपने फर्स्ट इंप्रेशन का खयाल रखते गए, रेस्तराँ में छोले और चावल जैसे सहज खाद्यों को भी अलग ही सलीके से मिलाना और कट्लरीज से खाना सीखते गए और ब्रांडेड कपड़े पहन लेने भर से अपने भीतर एक अतिरिक्त आत्मविश्वास का आ जाना महसूसते गए, समय समय पर हमारे ख्वाब भी अपना चेहरा बदलते रहे।

'पंडित दीनदयाल उपाध्याय इंस्टीट्यूट आफ साइंस एंड मैनेजमेंट' में चौथी, और उस संस्थान में अपनी आखिरी परीक्षाओं से ठीक पहले के दिनों तक हमारे ख्वाबों का रूप एक निश्चित तस्वीर से बदलकर एक चलचित्र में तब्दील हो गया, जिसमें हर रोज कई सारी तस्वीरें बदल जाया करती थीं। परीक्षा की तैयारियों का तनाव महसूस करते हुए भी हम सभी अपना ज्यादातर वक्त इंटरनेट पर नौकरियाँ तलाशने में खर्च करने लगे। मैनेजमेंट की डिग्री के बारे में मैनेजमेंट गुरुओं की राय अमूमन यह हुआ करती थी कि जो कुछ होना है वह आखिरी सेमेस्टर की परीक्षाओं तक जाते जाते तय हो जाना है। तब तक अगर कोई नौकरी हथिया लिया तो 'मौज्जा ही मौज्जा', वर्ना फिर से उसी भीड़ का हिस्सा बन जाना होगा। मतलब क्या तो बीए और क्या एमबीए?

परीक्षाओं की शुरुआत अब हफ्तों से घटकर महज कुछ दिनों की दूरी पर रह गई थी। आँखें खुली रखकर ऊपर देखने पर हमें खाली आसमान नजर आता था, लेकिन उन्हें बंद करते साथ ही पुतली के सामने रिसेशन नाम का घना बादल छा जाता था। एक शब्द के रूप में हममें से कइयों के सामने पहली बार आने के बाद बेहद थोड़े ही समय में रिसेशन लोगों की जुबान से हर रोज दो चार बार निकल जाने वाला जुमला बन गया। (बाजार और खरीदार और रोजी और रोजगार पर कहर बरपाने वाली इस चीज को हम मंदी इसलिए नहीं कहते थे कि पढ़ने के लिए अखबार और समाचार के लिए चैनलों का अंग्रेजी में होना हमारा आग्रह था।)

उन्हीं दिनों इंस्टीट्यूट में कैंपस प्लेसमेंट की खातिर एक कंपनी के आने की खबर आई। खबर हकीकत में बदलकर पुरानी हो गई, और संस्थान के मामले उसके अगले कई सालों के लिए एक स्थायी खबर यह छोड़ गई कि फलाँ साल में 'पंडित दीनदयाल इंस्टीट्यूट आफ साइंस एंड मैनेजमेंट' में कैंपस प्लेसमेंट के लिए सिर्फ एक ही कंपनी आई। और उसने भी चौरानबे की तादाद से महज तीन विद्यार्थियों को नौकरी के लिए चुना। थोड़ी और तफसील में जाएँ तो उन तीन में से भी दो को छह महीने पूरा करते करते अपने काम से हाथ धोना पड़ गया। यूँ इन तमाम लपटों में तपने के बाद, जब हमारे सारे साथी राख सरीखे हुए जा रहे थे, धातु का इकलौता टुकड़ा मैं निकला। मेरे शिक्षकों और घर वालों की नजर में वह धातु सोना था।

फर्स्ट साल्यूशंस कंपनी के लिए चयनित हम तीनों में से कोई भी किसी भी टीम का मैनेजर नहीं बन सका। और तीनों को कस्टमर सपोर्ट एक्जीक्यूटिव के पोस्ट दिए गए।

अगर आप जयपुर शहर से थोड़े से कुछ ज्यादा वाकिफ होंगे, तो आपको शिवाजी नगर का इलाका जरूर ही याद होगा। तो फर्स्ट साल्यूशंश नाम की कंपनी, यानि कि मेरा आफिस वहाँ से स्टेशन रोड पर ही करीब चार सौ मीटर चल लेने पर मिल जाता था। कंपनी की बिल्डिंग में ईंट, गारे और चूने आदि से ज्यादा मात्रा में काँच का इस्तेमाल किया गया था, जिसे देखकर आफिस जाने के पहले ही दिन मैंने मान लिया था कि असल मायनों में तो तहजीब और शरीफों का शहर जयपुर ही है। मुझे आश्चर्य था कि इतने बड़े शहर में क्या ऐसा कोई भी शरारती इंसान या बच्चा नहीं है 'जो देखते हैं क्या होता है?' के कुतूहल से भरा एक पत्थर बिल्डिंग के किसी कँचीले हिस्से पर भाँज दे? अपने पिता के, और कहने के लिए तहजीबों वाले शहर लखनऊ में तो, मुझे लगता है ऐसा वाकया कब का और तब तक शायद कई बार हो चुका होता। अभी चूँकि हाथों का उर्ध्वाधर घेरा बनाते हुए क्रिकेट की एकाध गेंदें फेंक देने पर भी मेरे पंखे दो तीन दिन तक दुखते रहते हैं, वर्ना अपने पुराने दिनों में और अपने पिता के शहर, यानी लखनऊ में होने पर ऐसा काम शायद खुद मैं ही कर डालता। खैर, मेरे नए आफिस और नए काम में और भी कई मामले ऐसे थे, जो मुझे कई दिन तक नई नई हैरतें देते रहे थे। जैसे कि आफिस के पाँचवे माले पर बना बड़ा सा कैफेटेरिया, और उसमें भी चाय, काफी और बादाम मिल्क का बिलकुल ही मुफ्त में मिलना। और आफिस के रिसेप्शन से पेन, स्टैपलर, गोद और नोटबुक जैसी किसी भी चीज का तुरंत ही, और बिना किसी बहस के मिल जाना। (यह बात मुझे पहली बार तब पता चली थी जब मैंने अपने ट्रेनर से ट्रेनिंग के नोट्स के लिए एक नोटबुक खरीदने को किसी दुकान का पता पूछा। वह हँस कर बोला कि स्टेशनरी के सारे सामान आफिस के रिसेप्शन से मिल जाएँगे, और वो भी पूरा का पूरा फ्री, दुकान पर जाने और अपने पैसे लगाने की जरूरत नहीं है। 'नाउ यू आर अ पार्ट आफ अ बिग कारपोरेट, एंड सच कंपनीज टेक ए लाट आफ केअर आफ देअर एंप्लाईज।')

'फर्स्ट साल्यूशंस' कंपनी की अपनी नौकरी में हम एक अमेरिकी टेलीकाम कंपनी 'टलीसेल' के लिए काम किया करते थे। मैं एक बड़ी टीम का हिस्सा था, जिसके लोग अमेरिका के न्यूयार्क शहर से लेकर भारत के तीन शहरों जयपुर, पुणे और इंदौर में काम किया करते थे। हमारी टीम का नाम 'रिसीवेबल मैनेजमेंट' था और हमें डाटाबेस से चुनकर अमेरिका के अलग अलग शहरों में जी रहे उन लोगों को फोन और उनसे वसूली की कोशिश करना होता था जो कंपनी की सुविधाओं का इस्तेमाल कर लेने के बाद उसकी कीमत चुकाने से कतरा रहे हों। यूँ मोटे और सच्चे तौर पर हमारी टीम के दो हिस्से थे। पहला हिस्सा अमेरिका के पंद्रह फीसदी लोगों का, और दूसरा भारत के तीन शहरों को मिलाकर जमा पचासी फीसदी लोगों का। फोन और वसूली का असली काम भारत में किया जाता था, और अमेरिका के पंद्रह फीसदी लोगों का काम सिर्फ हमारे काम की निगरानी और पड़ताल करते रहना होता था। अमेरिका के न्यूयार्क शहर में बैठने वाले पंद्रह फीसदी लोग काम के लिए वहाँ के वक्त से दिन के दस बजे आते थे। भारत के तीन शहरों के पचासी फीसदी लोगों को भी अपने काम के लिए उन्हीं के समय पर आना होता था, जिसका कि अनुवाद भारत के संदर्भ में शाम के साढ़े सात बजे हुआ करता था। उत्तरी गोलार्ध में सर्दी के दिनों में वे लोग थोड़ी और देर से, यानी ग्यारह बजे आया करते थे, इसलिए भारत के तीन शहरों के पचासी फीसदी कर्मचारियों को भी एक घंटे की देरी से मतलब रात के साढ़े आठ बजे आना होता था। जाने के मामले में भी ऐसा ही होता था। हमारे काम के एक एक पल की खबर एक आनलाइन सिस्टम में कैद होती रहती थी। यूँ न्यूयार्क शहर में बैठे पंद्रह फीसदी लोगों को मिलती रहती थी। साढ़े सात या फिर साढ़े आठ, चाहे जिस भी वक्त से काम शुरू करो, तब से लेकर अगले नौ घंटों तक। नियम से उन नौ घंटों के बाद हम स्वतंत्र हुआ करते थे। लेकिन काम के साथ साथ दिन बीतते जाने के दौरान नौ घंटे के दौर का अकसर दस या ग्यारह घंटों तक खिंच जाने जैसा नियम का अपवाद भी एक अनिवार्य नियम बन गया।

जयपुर की हमारी टीम में मेरे जैसे कुल छत्तीस कस्टमर सपोर्ट एक्जीक्यूटिव थे, जो तीन अलग अलग टीम लीडर्स के निरीक्षण में काम करते थे। तीनों टीम लीडर्स के निरीक्षण के लिए एक आपरेशन मैनेजर भी था। आपरेशन मैनेजर का काम उसके काम के ज्यादातर वक्त में टीम के न्यूयार्क स्थित सदस्यों से फोन और ईमेल के जरिए बातचीत करते रहना था। हम जो काम करते थे, वहाँ उसे प्रासेस कहा जाता था और आपरेशन मैनेजर को प्रासेस का मास्टर ट्रेनर और स्पोक (सिंगल प्वाइंट आफ कांटैक्ट)। आपरेशन मैनेजर हर दो महीने पर दो हफ्तों के लिए अमेरिका जाता था और हर बार 'प्रासेस अपडेट' के नाम पर नए नए फरमान लाया करता था। फरमानों में अमूमन काम के हमारे 'डेली टार्गेट', यानी कंपनी के उपभोक्ताओं को किए जाने वाले काल्स की संख्या में दो चार का इजाफा सबसे अहम होता था। आपरेशन मैनेजर इसे आउटसोर्सिंग के बिजनेस में स्थायित्व लाने के लिहाज से उठाया गया एक कदम कहता था और तर्क देता था कि ऐसा करते रहने के साथ हम अपने क्लाइंट को कम लागत में ऐसी सेवा देते हैं, जो दूसरे किसी भी देश में नहीं मिल सकती। यूँ, हमारे साथ बिजनेस जारी रखना क्लाइंट की मजबूरी होती है।

वह वक्त एक हद का भी था। हद बचपन से लेकर तब तक हर वक्त किसी न किसी लक्ष्य के पीछे भागते रहने की। और लक्ष्यों की बात करें तो वे पढ़ाई के समूचे दौर में आती जाती परीक्षाओं में अव्वल आने के। कठिन परीक्षाओं में पास हो जाने के। सिर्फ पढ़ने के लिए की जाने वाली पढ़ाई पूरी कर, कुछ कर गुजरने के लिए पढ़ाई के। फिर उसकी परीक्षाएँ, और आखिरकार उसके भरोसे कुछ कर लेने के लक्ष्य।

नौकरी तो मुझे मिल चुकी थी, लेकिन किसी न किसी लक्ष्य के पीछे भागना अब भी एक आदत थी। पिता और रिश्तेदारों के निर्देश अब सेहत और बचत जैसे मामलों तक सीमित रहने लगे थे। पर मेरी फितरत इनमें से किसी को भी अपना अगला लक्ष्य नहीं बना सकी। हफ्ते में मुझे दो दिन की छुट्टी मिल जाती थी। लेकिन वे दो दिन कभी भी एक साथ नहीं आते। यूँ, सप्ताह मुझे कभी भी सात दिनों का नहीं लगने पाता और इस तरह से दो या तीन या चार दिनों के अंतराल पर मिलने वाली एक दिन की छुट्टी मेरे लिए दो या तीन या चार दिनों वाले एक छोटे से हफ्ते का निर्माण कर देती।

मैं अपनी छुट्टियों के दिन अपनी सभी जेबों को ढेर सारी मोहलत से भरा पाता। उन्हें दोनों हाथों से लुटाकर मैं खुश हो जाना चाहता। पर न जाने क्यों, वे न जाने किधर से सरककर खतम हो जाते और मैं खुद को अगले रोज की शाम में दफ्तर जाने की तैयार होता हुआ पाता।

आफिस में मैंने अभी अपने दो महीने भी नहीं पूरे किए थे कि मुझे वहाँ का चमकता सितारा घोषित कर दिया गया (उस महीने का स्टार आफ द टीम अवार्ड मुझे ही मिला था)। अवार्ड के तौर पर मुझे यूएस से आया एक डीवीडी प्लेयर दिया गया। अब मैं अपनी छुट्टी के दिनों में ज्यादातर वक्त घर में ही बिताता और ज्यादातर अंग्रेजी और थोड़े बहुत हिंदी गाने सुनकर अकेले ही रूमानी होता रहता। लक्ष्यों के पीछे भागने की मेरी आदत अभी छूटने ही वाली थी कि इस रूमानी होने ने मुझे नया ही कुछ पकड़ा दिया।

प्यार मेरा अगला लक्ष्य हुआ।

'इंसोम्निया' के गाने सुनते हुए अब मेरा काम रिकी मार्टिन के अलबम की अभिनेत्री को याद करने भर से नहीं चल पाता। मैं प्यार, मिलन, जुदाई और बेवफाई जैसे जज्बात को अपनी असल जिंदगी के किसी शख्स से जोड़कर महसूस कर पाने की फिराक में पड़ गया। मैंने इसके लिए कई सारी योजनाएँ बनाईं, पड़ोस से लेकर दफ्तर तक कई सारी लड़कियों के मामले में मैं ऐसी संभावनाएँ खोजता रहा। इस पूरे की तफसील अलग ही से एक कहानी हो सकती है, इसलिए अभी सिर्फ इतना, कि आखिरकार मुझे कोई मिल ही गई। घर से दफ्तर तक के लिए किए जाने वाले बस के सफर से शुरू हुए उस सिलसिले में महज सात आठ दिनों के भीतर मुझे लगने लगा कि अब मैं निम्मी के साथ घनघोर मोहब्बत में हूँ।

निम्मी बड़ी प्यारी थी। उसके चेहरे का आकार देखकर दिमाग में जो शब्द सबसे पहले आता, वह 'गोल' था। मैं ढेर सारे काम, और कई बार तो कई दिनों तक खाने और सोने की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के सिवाय सिर्फ काम ही करते रहने के बावजूद मैं खुश था। मैं हर रोज दिन में दोपहर बाद के किसी घंटे में उठता था। दो या ढाई या तीन बजे। कभी कभार आँखों में जलन वलन सा लगने पर साढ़े तीन या चार भी बजा देता था। इस तरह से उठने और आफिस पहुँचने के बीच मुझे तीन या चार घंटे मिल जाते थे, 'जो जी करे जैसा कुछ करने के लिए। हालाँकि 'जो जी करे' टाइप का कुछ भी करने की स्वतंत्रता के बावजूद मुझे सिर्फ एक ही चीज की चाहत रहती थी। वो था निम्मी से ढेर सारा प्यार। इस बात का पता निम्मी को भी था और उसके लिए भी शायद सबसे पसंदीदा काम यही हो गया था। निम्मी भी एक आफिस में काम करती थी। निम्मी फैशन और ग्लैमर के मामलों में अप टू डेट रहती थी और कभी कभार 'आई हेट जस्ट टू लर्न, रादर आई प्रेफर टू अर्न ह्वाइल लर्न' जैसी बातें कहा करती थी। निम्मी जयपुर के नामी 'यथार्थ पब्लिशिंग हाउस' की रिसेप्शनिस्ट थी और साथ साथ बी.काम. सेकेंड इयर की छात्रा भी।

निम्मी का आना, मेरे जीवन के खिचखिच भरे दिनों में बार बार खुशियों के आते रहने जैसा था। निम्मी के आने से पहले इसी तरह मैं बार बार के, न जाने कितने टाइप के दुखों की आवृत्ति महसूस करता था। यूँ दुख तो न जाने कब से मटियाई गढ़ही के स्थिर पानी की तरह मेरे सीने में हर वक्त ठहरा रहता था, लेकिन उसकी आवृत्ति का मतलब किन्हीं वजहों से उसमें लहरों का उठने लगना। गढ़ही तो फिर भी वैसी ही बनी रही, लेकिन निम्मी के आ जाने के बाद जैसे उसमें मीठे और पारदर्शी पानी के सोते फूट आए, और उसमें उठती हिलोरें अजीब अजीब सी खुशियों से लबरेज रहा करती थीं।

निम्मी का दफ्तर और मेरा घर एक ही मुहल्ले में थे। और यूँ ही मेरा दफ्तर और निम्मी का घर भी आस ही पास थे। निम्मी जिस रोज पहली बार मेरी आँखों में, मेरे सामने से चले जाने के बाद भी काफी समय तक के लिए अटक गई थी, वह उसके महीनों पहले से उसी बस से अपने घर वापस जाती थी जिसमें सवार हो मैं अपने आफिस पहुँचता था। निम्मी दिन के वक्त थोड़ी भी फुरसत मिलने पर सीधे मेरे घर चली आती। और फुरसत न मिलने पर भी, मेरे बार बार के फोन करने और बुलाने पर किसी न किसी तरीके से फुरसत निकालकर आ जाती। निम्मी भी जयपुर में किराए के कमरे में रहती थी और उसके कमरे का दरवाजा सीधा एक खुली सी गली में खुलता था। इसलिए कई बार की रातों में मैं भी दफ्तर से फुरसत चुराकर उसके घर आ जाता। यूँ हमारे आस पास की दुनिया में तब भी लड़कियों पर बदचलन और लड़कों पर शोहदा और आवारा होने के आरोप आसानी से लगा दिए जाते थे। लेकिन दिन में टहलने वाली लड़कियाँ फिर भी शरीफ हो सकती थीं, और लड़कों के लिए रातों तक में भी ऐसा करने की छूट थी। इसलिए महज थोड़ी सी सावधानी बरतकर हम किसी भी शहर में मिल जाने वाले उन ढेर सारे लोगों के डर से मुक्त रह सकते थे, जो मेरे और निम्मी के रिश्ते की असलियत जान लेने के बाद मुझे शोहदा और निम्मी को बदचलन करार देते और अपनी समूची सामर्थ्य हमारी मुखालफत में लगाने लगते।

निम्मी का आशियाना असल में एक बड़ा सा कमरा और उससे एक दरवाजे के सहारे जुड़े रसोई घर तक में सीमित था, जिसमें वो अपनी एक दोस्त के साथ रहती थी। रातों में जब कभी मैं निम्मी के घर में दाखिल होता, निम्मी की दोस्त सोते सोते एकबारगी जागती और उनींदी आँखों से मुझे देखकर फिर से मुँह ढँक लेती। मुझे घर के अंदर लेने के वक्त निम्मी भीतर की बत्ती बुझाए होती और खुलते दरवाजे में दरार बनने के साथ ही उसका दायाँ हाथ बाहर आ जाता, मेरी दाईं कुहनी में उलझ जाता, और मुझे किसी हल्के सामान की तरह अंदर खींच लेता था। निम्मी मेरी कुहनी में अपना हाथ उलझाए हुए ही मुझे सीधे रसोई घर में लिए जाती। कुछ देर के लिए मुझे अंदर खड़ा कर बाहर आती और खटिया के नीचे से एक चटाई उठा लाती। निम्मी ने वह चटाई खास इसी उद्देश्य के लिए खरीदी थी, वर्ना पहले हमें रसोई की नंगी फर्श पर बैठना, और फिर लेटना पड़ता था। और हमारे पैरों के नीचे या पीठ या पेट के ऊपर से कई बार एकाध तिलचट्टे गुजर जाया करते। निम्मी को पता होता था कि मुझे उसकी गोद में सिर रखकर बहुत सुकून मिलता है, इसलिए वो बिना पूछे रसोई की भीतरी दीवार के सहारे बैठ जाती, मुझे हल्के सहारे से लिटाकर मेरा सर अपनी गोद में रख लेती और मेरे बालों में उँगलियाँ फेरने लगती। ऐसी मुद्रा में लेटने पर मुझे अपने पैरों को घुटने से थोड़ा मोड़ना पड़ता था। हम दोनों जीरो वाट की क्षमता वाले बल्ब की हरी, मरती रौशनी में नहाए होते और एक दूसरे की चमड़ी को इंच इंच चूमते हुए उसका असली रंग भूले होते थे। निम्मी के करीब होने की हरेक हालत में, बस चंद मिनटों के बाद मैं उससे बेतरह लिपट जाना चाहता, लेकिन ऐसा कर पाना सिर्फ उसके या मेरे घर पर ही हो पाता था। मेरे घर में हमारा मिलना हर बार दिन में ही संभव हो पाता था, जब कि कमरे के हरेक कोने में ढेर सारी अनचाही रौशनी फैली रहती थी। इसलिए मिलने और प्यार के लिए हमें रात और निम्मी का घर ही अच्छा लगता, जहाँ हम अपनी मर्जी और जरूरत के मुताबिक रौशनी कर लेते थे, वर्ना कई दफा प्यार की एकाध किस्तें अँधेरे में भी निबटा देते। यूँ जीरो वाट की क्षमता वाला बल्ब हम दोनों के बीच एक जिगरी दोस्त की तरह था, जो लेटकर निम्मी के संग बेहद अंतरंग क्षणों से गुजरते हुए भी मुझसे अपनी आँखें मिलाता रहता था।

कई बार ऐसा भी हो जाता था कि मुझे निम्मी से मिले दो दो चार चार दिन बीत जाते। ऐसा उसके या फिर मेरे में से किसी एक के दफ्तर में काम का दबाव दूसरे दिनों से कुछ अधिक होने की स्थिति में होता था। पर चूँकि निम्मी को मुझे और मुझे उसका नशा सा था, और जैसे दिन के किसी भी वक्त पर हो सकने वाली मेरी सुबह एक सिगरेट सुलगाए बिना नहीं हो पाती थी, हमारे सोने की रस्म भी एक दूजे से प्यार किए बिना शुरू नहीं हो सकती थी। प्यार के काम को निबटाने के लिए हमें अकसर ही अपने फोन का सहारा लेना पड़ता।

भारत जैसे देश में जब सूरज ताजा ताजा ही उगा होता, अकसर मैं थका हारा सा, काम से वापस आता। मैं निम्मी को फोन लगाता और 'तेरी मोहब्बत ने मेरी मार ली है जानेमन' कहकर प्यार भरी बातें शुरू कर देता। प्यार की उस पूर्व निर्धारित दूरी वाली यात्रा में सहमति की दरकार वाले कई सारे मुकामों पर निम्मी इनकार से शुरू कर तकरार और इसरार से होते हुए इकरार के मुकाम तक पहुँच जाती। यूँ इस सफर के सारे पड़ाव पहले से तय हुआ करते थे और हम दोनों को बखूबी पता होता था कि आगे क्या कहना और कब और कितनी देर तक चुप रहना है। इस खेल को रेडियो पर क्रिकेट का आँखों देखा हाल सुनाए जाने के शिल्प में खेला जाता, फर्क सिर्फ इतना होता था कि खेल के सारे खिलाडियों की जगह सिर्फ और सिर्फ हम दोनों होते थे, और 'एडम गिलक्रिस्ट ने एम एस धोनी को स्टंप कर दिया है' की जगह 'मैंने तुम्हारी टी शर्ट उतार दी है' जैसी बातें कहा करते थे। फर्क यह भी होता था कि मैं जींस खोलने और निम्मी के होठों पर उँगलियाँ सरकाने जैसी किसी भी हरकत से पहले उसे बताता था कि मैं ऐसा करने जा रहा हूँ, जैसा कि क्रिकेट के कमेंट्रेटर 'अगली गेंद पर शोएब मलिक एक ऊँचा छक्का मारने जा रहा है' या फिर 'विरेंदर सहवाग फिर से एक बार कवर्स में लपक लिया जाने वाला है' कहकर नहीं करते थे। निम्मी मेरी ऐसी पूर्व सूचनाओं को (फोन पर ही सही) कार्य रूप देने में अपने हल्के इनकार से रुकावट डालने की कोशिश करती, जिसे कि मेरे द्वारा नजरंदाज कर दिया जाना पहले से तय होता था। आगे मैं बताता कि अब मैं ऐसा कर रहा हूँ तो वह जवाब देती 'हूँ'। मैं पूछता कि कैसा लग रहा है तो वो कहती कि 'मत करो प्लीज'। मैं फिर से पूछता कि कैसा लग रहा है, तो वो कहती कि 'अच्छा'। अमूमन यह बात करते करते हम दोनों के ढीले पड़ जाने के अतिरिक्त दोनों ओर की फोन लाइनों पर पसर जाने वाले विरक्तिपूर्ण सन्नाटे और फिर फोन डिस्कनेक्ट करने के वक्त से ठीक पहले की हालत होती थी। मेरे आखिरी प्रश्न और उसके आखिरी उत्तर के अंत में हम एक और एक शब्द जोड़ देते 'जान'। यह किसी चमकीले रेस्तराँ के खाने का 'मेनकोर्स चाहे जैसा भी हो' के बाद का डेजर्ट होता था, जो हर बार हमारी इंद्रियों में एक अलग ही तरह का जायका छोड़ जाता था।

सब कुछ इतना करीने से और ठीक चल रहा था कि डर लगने लगा था कि सब कुछ इतना करीने से और इतना ठीक कैसे चल सकता है?

तब तक मुझे कंपनी के लिए काम करते हुए कुल चौदह महीने हो गए थे, एक साल पूरा कर लेने पर कंपनी ने मेरे परफार्मेंश की जाँच पड़ताल करके मेरी तनख्वाह में साढ़े छह सौ रुपए प्रति माह का इजाफा भी कर दिया गया था। यूँ कंपनी तो मेरे लिए काफी पहले से उदार थी लेकिन उन दिनों कंपनी का रवैया मेरे लिए पूरा पूरा बदल गया था। बार बार के बुलावों के कारण टीम लीडर के डेस्क और मैनेजर के केबिन में मेरा आना जाना इतना बढ़ गया था कि टीम के दूसरे साथी कई बार मौका और फुरसत दोनों के होने के बावजूद मुझसे कटे कटे से रह जाते थे। मेरे साथ सबको पता था कि अब अगर आगे किसी भी प्रमोशन की खबर आई तो उसका रिश्ता मुझसे ही होगा।

एक दिन मुझे एक छोटे मीटिंग रूम में बुलाया गया, जहाँ कि मैनेजर और सीनियर मैनेजर पहले से मौजूद थे। चूँकि सीनियर मैनेजर के निरीक्षण में कुल तीन मैनेजर, छह टीम लीडर और सौ से ज्यादा कस्टमर केअर एक्जीक्यूटिव्स काम करते थे, इसलिए तय था कि वह मेरे बारे में सिर्फ वही बातें जानता था जो कि उसे मेरे टीम लीडर और मैनेजर से पता चली थीं। मीटिंग का लीडर सीनियर मैनेजर ही था और उसने मीटिंग रूम में मेरे दाखिल होने के साथ ही लपककर मुझसे हाथ मिला लिया। मुझे दफ्तर आए महज आधे घंटे ही हुए थे, इसलिए मैं तरोताजा था। लिहाजा उससे हाथ मिलाते वक्त मैंने अनचाहे ही एक अतिरिक्त उत्साह दिखा दिया। उसने कहा 'आई लाइक योर कांफिडेंस। टेक योर सीट।' सीनियर मैनेजर ने अपनी बात इस एक हिदायत के साथ शुरू किया कि मैं उस मीटिंग में होने वाली किसी भी बात को अपने तक ही रखूँ।

मीटिंग में जो कुछ भी बताया गया वह हमारे टीम के कई लोगों की जिंदगियों में भूचाल ला देने वाला था। मीटिंग में मुझे बताया गया कि 'हमारे काम को अमेरिका से भारत सिर्फ इसलिए आउटसोर्स किया गया था कि उससे पैसे बचाए जा सकें। यूँ अपने इस उद्देश्य में तो हमारा क्लाइंट पूरा सफल रहा है अब तक, लेकिन यहाँ के लड़कों द्वारा, ढंग से अमेरिकन शैली वाली अंग्रेजी न बोल पाने के नाते बहुत सारे ग्राहकों से नकरात्मक प्रतिक्रिया मिलने लगी है और बहुत से ग्राहक इसकी वजह से हमारी जगह दूसरी कंपनियों की सेवाएँ लेने लगे हैं। इसलिए सीनियर मैनेजमेंट ने कुछ फैसले लिए हैं। जिसका पहला हिस्सा यूरोप के किसी ऐसे देश का निर्धारण करना था, जहाँ शिक्षित युवा बेरोजगारों की तादाद आस पास के दूसरे देशों की तुलना में ज्यादा हो, और वे अपनी अंग्रेजी में हल्के से सुधार के साथ अमेरिकी शैली में बोल सकें। फिलहाल वह देश चुन लिया गया है, वह देश पोलैंड है और वहाँ अपना आफिस भी लगभग तैयार कर लिया गया है। फैसले की अगली कड़ी है पोलैंड में कम से कम पचास लोगों की एक टीम बनाना और उन्हें यहाँ के काम के तरीकों पर बखूबी ट्रेनिंग देकर तैयार करना। इसके लिए फिलहाल हमने दो लोगों को चुना है, पहला कोई एक टीम लीडर जो पूरे प्रासेस का ओवरव्यू देगा और मास्टर ट्रेनर की हैसियत से सारे जटिल सवालों की जवाबदेही उसी की होगी। और दूसरा शख्स होगा कोई कस्टमर केअर एक्जीक्यूटिव जो कि प्रासेस की एक एक तफसील दे सकेगा। पोलैंड जाने वाले कस्टमर केअर एक्जीक्यूटिव के तौर पर जिसका चयन किया गया है, वो शख्स तुम हो। इस काम के लिए तुम्हें ही क्यों चुना गया इसकी वजहें दो हैं। पहली तो साफ तौर पर प्रासेस में तुम्हारी शानदार परफारमेंस, और दूसरा यह कि ह्यूमन रिसोर्स टीम के रिकार्ड के अनुसार टीम के नए लड़कों में इकलौते तुम्हीं हो जिसके पास पहले से विदेश जाने का पासपोर्ट है। आने वाली तेरहवीं तारीख को तुम्हारी रवानगी होगी, दिल्ली से।' वह मार्च महीने की उन्नीसवीं तारीख थी।

मुझे बखूबी पता चल गया कि मेरी टीम और प्रासेस के लिए आने वाले दिन अपना रंग और मौसम किस कदर बदल लेने वाले हैं? लेकिन मुझे खुद अपनी नियति ही नहीं पता थी। इस वाकए ने मेरे सामने दो अहम सवाल खड़ा कर दिया था। पहला और सबसे बड़ा सवाल यह कि ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट के पास यह खबर कैसे आई कि मेरे पास विदेश जाने के लिए एक पासपोर्ट पहले से मौजूद है? और दूसरा सवाल यह, जो मैनेजमेंट के साथ हुई बातों से निकल कर जलते हुए मेरे सामने आ खड़ा हुआ था, कि पोलैंड जाने और नए लड़कों को प्रशिक्षित करके वापस आने के बाद मेरा क्या होगा? क्या मुझे भी अपनी टीम के बाकी सदस्यों की बेरोजगार जमात का हिस्सा बन जाना पड़ेगा?

पहले सवाल, जो कि अपने पूरेपन में महज एक सवाल ही था, को इस कयास के सहारे सुलझा लिया गया कि हो सकता है कि नियुक्ति के समय नियुक्ति पत्र में मैंने अपने पास एक पासपोर्ट होने के विकल्प के सामने एक टिक मार्क लगा दिया हो। दूसरे सवाल का कोई जवाब मुझे यूँ नहीं मिल सकता था, और मैनेजमेंट से पूछ पाने का मौका मुझे नहीं दिया गया था। यूँ इसे मैनेजमेंट से दुबारा से भी पूछा जा सकता था, लेकिन डर था कि कहीं मेरे दिल में उठते संशयों की असलियत उन्हें पता लग गई तो शायद मैं विदेश जाने के इस मौके से वंचित रह जाऊँ।

उन्नीस मार्च के आस पास की ही कोई रात थी। मैं दफ्तर के बाहर चाय और सुट्टे की दुकान पर आया। पूरे दफ्तर में अगर मैं किसी को अपना दोस्त कह सकता था तो वह आशू था। आशू का पूरा नाम आशुतोष दांदगे था। आशू जब कभी अपने कॉलेज के दिनों की यादें पलट रहा होता, तो उनमें उसके दोस्त उसे आशू ही बुलाते थे। मैं भी चूँकि उसके लिए दोस्त वोस्त जैसा कुछ ही महसूस करता था, इसलिए उसे आशू ही बुलाता था। दुकान पर धुएँ के हल्के बेतरतीब छल्लों के बीच आशू भी मौजूद था और हमारी नजरों के मिलने के कुछ ही देर बाद पूछ पड़ा, क्या हुआ, तुम कुछ परेशान नजर आ रहे हो। यूँ दफ्तर में उस तरह का काम उतनी देर तक कर चुकने के बाद चेहरे पर उतनी परेशानी का उभर आना लाजिमी था, लेकिन मेरे पास अपने भीतर के संशयों को किसी भरोसेमंद शख्स से बयाँ करने का अच्छा भी यही था। मैंने साँस का एक बड़ा झोंका अपने भीतर गहरे तक भरा और बोला हाँ यार परेशान तो हूँ। आशू ने प्रत्याशित प्रतिक्रिया दी, पूछा, क्यों क्या हो गया? मैं छोटी गोल्ड फ्लेक का लंबा सा कश खींचकर बोलना शुरू कर दिया। सबकुछ बताने की शुरुआत में ही मैंने उसे सबकुछ अपने ही तक रखने वाली, अपने आप को मेरे मैनेजर से मिली हिदायत भी ट्रांसफर कर दी।

लेकिन कोई था, जो हमारी बात की शुरुआत से ही हमारी बात में अपने एक वाक्य का अवकाश खोजने लगा था। और थोड़ा मौका मिलते ही बोल पड़ा, अगर पासपोर्ट चाहिए तो बस बारह दिनों में मिल जाएँगे। यूँ उसकी की बहुत सारी हरकतें अपनी जान पहचान के बहुत सारे लोगों से मैच कर सकती थीं, लेकिन अपने पूरेपन में वह हम दोनों के लिए ही एक अजनबी था। उसने यह भी बताया कि उसका नाम बीशा है, और तुरंत ही हमारी प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर चुप भी हो गया। बीशा की आवाज में एक उतना ही अतिरिक्त भारीपन था जितना कि उसकी कमर और गर्दन के आसपास लिपटी बेकार की चर्बी।

बीशा के दखल ने हमारी बात की रफ्तार को कम कर दिया। तब तक आशू भी रात की रौशनी में, आने वाले दिनों में अपनी नौकरी छूट जाने की संभावनाओं की कसैली गंध सूँघने लगा था। जैसे तैसे उसने अपने खयालों से फुरसत ली और वापस दफ्तर में जाने से पहले मुझे बीशा से आगे की बात करने की सलाह देता गया। मैं बीशा पर पासपोर्ट मिलने तक की समूची प्रक्रिया से जुड़े सवाल बरसाने लगा।

अगले कई रोज तक मुझे सोने के लिए महज तीन से चार घंटे ही मिल पाए। निम्मी से मिले हुए भरे पूरे दिनों का एक सप्ताह गुजर गया। उसका फोन आता और मैं बता दिया करता कि मैं पासपोर्ट ऑफिस, पुलिस स्टेशन या फिर कमिश्नरी में लाइन में, काउंटर पर या फिर किसी अफसर के इंतजार में खड़ा या फिर न जाने कहाँ बैठा हुआ हूँ।

पासपोर्ट पा लेने की प्रक्रिया में बीशा बेशक काफी मददगार था, लेकिन उसमें हर जगह खुद की मौजूदगी भी जरूरी थी। बीशा का रहना हर मोड़ पर कुछ यूँ काम आता कि मैं किसी भी दफ्तर की किसी भीड़ भरी लाइन में खड़ा होता, और थोड़ा ही वक्त बीतता कि पंक्ति में बीसियों लोगों की उपस्थिति को नजरंदाज कर मुझे सबसे पहले बुला लिया जाता।

बीशा से अपना वास्ता मैं सिर्फ उतने ही दौर के लिए रखना चाहता था जितने में कि मुझे मेरा पासपोर्ट मिल जाए। मैं इतने ही दौर के लिए, अपनी दिनचर्या में बीशा के आने और जाने की बात को निम्मी से छुपा लेना चाहता था। इसकी एक वजह थी। दरअसल हमारी दूसरी ही मुलाकात में, बिना किसी प्रसंग और प्रस्तावना के बीशा ने मुझसे निम्मी का जिक्र कर दिया। उसने मुझे बस इतना ही बताया कि वो मुझे कई बार उस लड़की के साथ देख चुका है। बहरहाल, अब हमारे रिश्ते के मामले में बीशा की किसी भी खिलाफत का कोई डर नहीं था, क्योंकि मैं एक रकम चुकाकर उसकी सेवाओं का ग्राहक बन चुका था। लेकिन बीशा का इतना इशारा भर यह जानने के लिए काफी था कि ऐसे और भी ढेर सारे लोग होंगे जो मेरे और निम्मी के सिलसिले को, उसकी हकीकत से भी बढ़ चढ़कर जानते होंगे, और जिन्हें देखकर हमारी आँखें शायद दो एक बार देखा हुआ महसूस कर सकती थीं या फिर हो सकता है कि पूरा ही अजनबी।

एक दिन दोपहर के लगभग ठीक बाद निम्मी का फोन आया। उसने पूछा कि कहाँ हो? मैंने बताया कि पासपोर्ट वेरिफिकेशन का चक्कर हैं, एक पुलिस वाले के साथ बाइक पर हूँ। निम्मी ने कहा कि जिसके साथ बाइक पर हो, वह पुलिस वाला नहीं है, रानीगंज चौराहे का शोहदा है, और आते जाते मुझ पर कई बार उल्टी सीधी फब्तियाँ कस चुका है। आगे की उसकी बातों के मुताबिक मुझे बीशा का साथ ठीक उसी पल छोड़ देना था। मैंने निम्मी से पूछा कि तुम कहाँ हो? मैं बीशा की हीरो होंडा सीडी 100 एसएस से उतरकर रसना रेस्टोरेंट में निम्मी से मिलने चला गया।

रसना रेस्टोरेंट में चौथाई आयतन में बर्फ भरी गिलास वाली लस्सी पीते हुए मैं निम्मी के चारो ओर छाए गुस्से के आवरण को भेदने की जुगत करता रहा। निम्मी को सबसे ज्यादा कष्ट मेरे झूठ बोलने की बात को लेकर था, और उससे थोड़ा कम इस बात से कि मैंने बीशा के साथ हो

ने की बात को उससे छुपाया था। लस्सी खतम होने, मतलब रेस्टोरेंट से विदा होने के औपचारिक संकेत के ऐन मौके पर ही उसकी आँखें भर आईं। मैंने उसे बढ़कर अपने हाथों से पोछा, उसके माथे को अपने सीने पर रखकर उसे कुछ ही समय में ढेर सारा प्यार दिया और एक बेजान सा वायदा भी किया, आगे बीशा से नहीं मिलने का।

मैं घर आया, दफ्तर गया, और फिर से वापस आकर सो गया। फिर से तीन चार घंटे ही हुए थे कि बीशा ने फोन कर दिया। निम्मी से किए वायदे के मुताबिक बीशा से मुझे नहीं मिलना था, लेकिन पासपोर्ट पा लेना ज्यादा जरूरी था। मैं रोज के ही रूटीन में बीशा के पास पहुँचा और रानीगंज चौराहे से होते हुए आगे पासपोर्ट ऑफिस की ओर बढ़ने लगा। हम रसना रेस्टोरेंट तक भी नहीं पहुँचे थे कि मेरी आँखों में आस पास की दुकानों, ठेलों, मोटरगाड़ियों और लोगों को धुँधला करती निम्मी की सजीव तस्वीर आ गई। मैंने अचानक ही बीशा से गाड़ी रोक लेने के लिए कहा। बीशा को भी कोई हैरत नहीं हुई और मैं गाड़ी से उतरकर निम्मी के पास पहुँचने वाला था, हमारे बीच अभी थोड़ी सी दूरी बची हुई थी कि वो यह कहकर मुझसे और भी दूर जाने लगी कि मैं दुबारा उससे बात भी न करूँ और मिलने की कोशिश तो बिलकुल भी करूँ। उसका यह उद्घोष बीशा समेत आस पास के दो चार दूसरे लोगों ने भी सुना था। मैं कुछ देर तक खड़ा सा निम्मी का जाना देखता रहा, फिर वापस बीशा के की ओर और आया और पासपोर्ट ऑफिस की ओर बढ़ निकला।

पासपोर्ट के मामले में जो एक सबसे बड़ी अड़चन आ रही थी, वह जयपुर शहर में मेरे तीन साल से भी ज्यादा रह लेने के बावजूद मेरे पास किसी ऐसे दस्तावेज का न होना था जो साबित कर सके कि मैं कम से कम पिछले एक साल से जयपुर शहर का निवासी हूँ। इसे साबित करने के लिए हमारा या किसी का जुबानी आश्वाशन कतई अपर्याप्त था। लिहाजा मैंने बीशा का साथ अगले कुछ और रोज तक नहीं छोड़ने का फैसला किया, और इस बीच फोन पर निम्मी को समझाते रहने की कोशिश करने का भी। पूरा दिन और पूरी रात बीत गए। अगला आधा दिन भी। निम्मी ने मेरा फोन नहीं उठाया। आगे बीशा का फोन आया और मैं फिर से उसके साथ निकल लिया। निम्मी उस रोज भी ऐन उसी जगह खड़ी मिली। दूर से ही उसने मेरे आने का आभास कर लिया। मैं वहाँ तक पहुँचता, इससे पहले ही वह पास की गली के अंदर घुस गई। बीशा ने गाड़ी की रफ्तार में कोई तब्दीली नहीं कि और हम आगे बढ़ते गए।

आपको इतना सारा बताते हुए वो एक बात तो मैं भूला ही रहा, जैसा कि आप भी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में करते ही होंगे, ढेर सारे छोटे से थोड़े बड़े शहरों में रहने पर, इंटरनेट, केबल, बिजली और पानी और टेलीफोन जैसी सुविधाओं के उपभोग के बदले उनके पैसे वक्त पर या कई बार वक्त के बाद भी नहीं चुका पाने पर, हर रोज ही वसूली के लिए दो एक फोन काल रिसीव कर लेने पर। ऐसी बातों को सिर्फ अपने तक ही रखते होंगे और बस अगले ही महीने उसे चुका देंगे को लेकर फिलवक्त तक के लिए आश्वस्त हो जाते होंगे। मेरे पास भी हच से वोडाफोन में तब्दील हो चुकी कंपनी से हर रोज दो तीन फोन वसूली के लिए आ जाते थे। चंद महीनों पहले तक मैं उस कंपनी का काफी वफादार उपभोक्ता था। खुद कंपनी भी मेरे लिए ऐसा महसूस करती थी, और इसीलिए पोस्ट पेड प्लान में कंपनी पर मेरे उधार की सीमा को बढ़ाते बढ़ाते साढ़े पाँच हजार रुपए तक कर दिया गया था। जिंदगी में निम्मी के आ जाने से एक तरफ मेरे फोन का बिल बढ़ चढ़कर आने लगा, दूसरी तरफ उसके साथ होने पर अच्छा अच्छा खाने और न जाने कहाँ कहाँ घूमने के जरिए रुपयों का सीधा खर्च भी काफी बढ़ गया। लिहाजा, फोन का बिल चुकाने का काम मैं लगातार के तीन महीने तक दूसरे खर्चों की तुलना में हाशिए पर धकेलता रहा। मैंने साढ़े पाँच हजार की उधार सीमा को भी पार कर लिया। बाद में जब भी मुझे वसूली के फोन आते, मैं खुद को उसे चुका पाने की स्थिति में नहीं पाता। मै हर बार वसूली की काल आने पर जल्द ही वह रकम चुका देने का आश्वासन देता और फोन करने वाले नंबर को फोन में सेव कर लेता और अगली बार से उस नंबर से आने वाली किसी भी कॉल का जवाब नहीं देता। यूँ कंपनी को भी मेरी यह बात शायद पता थी, इसीलिए मुझे हर बार एक नए ही नंबर से फोन किया जाने लगा।

बात बिगड़ रही थी। धीरे धीरे हर ओर से। पासपोर्ट के मामले में तो मुझे हरी झंडी मिल गई और कहा गया कि उसे अगले एक हफ्ते में मेरे पास डाक से भेज दिया जाएगा। लेकिन दफ्तर में मुझे फिर से एक बार उसी मीटिंग रूम में बुलाया गया। इस बार मीटिंग में ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट से एक लड़की भी मौजूद थी। मीटिंग की शुरुआत में सीनियर मैनेजर ने मुझे बताया कि पिछले दो हफ्तों में टीम से सात लड़कों का जाना हुआ है, और सबने अपने जाने की वजह यही बताई कि उन्हें यहाँ के प्रासेस के बंद होने की खबर मिली है इसलिए उन्होंने कोई वैकल्पिक नौकरी खोज ली है। आगे का जारीपन सीनियर मैनेजर के प्रश्नों की बौछार में था। पहला सवाल यह था कि मैंने पिछली मीटिंग की सारी बातें टीम में किस किस को बताया? और दूसरा यह कि इतनी सख्त हिदायत के बाद भी मैंने ऐसा क्यों किया? तीसरा यह कि अगर मेरे पास कोई वैलिड पासपोर्ट नहीं था, तो यह बात मैंने मैनेजमेंट और एच आर को पहले ही क्यों नहीं बताई? बाकी इन्हीं सवालों के तमाम उप प्रश्न। इन प्रश्नों के जवाब के रूप में बोली गई मेरी बातें शायद दो एक वाक्यों के बार बार के दुहराव थे और उनमें डॉट डॉट और कॉमा की भरमार सी थी। मीटिंग के पूरे दौर में मेरे सिवाय हर किसी, जिसमें मेरा टीम लीडर, मेरा मैनेजर, सीनियर मैनेजर और वह एचआर विभाग की लड़की मौजूद थी, के चेहरे पर ढेर सारे प्रश्नवाचक चिह्न उगे हुए थे। मीटिंग को इस फरमान के साथ खत्म किया गया कि कंपनी की क्रिटिकल इन्फार्मेशन लीक करने के लिए मुझ पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। मीटिंग चूँकि मेरे काम की शिफ्ट खतम होने के बाद बुलाई गई थी, इसलिए मीटिंग से उपजा सारा का सारा तनाव जस का तस मेरे माथे में जमा हुआ घर तक आ गया। घर आने से पहले मैंने सुट्टे की दुकान से तीन अल्ट्रा माइल्ड सिगरेट बैक टू बैक पिया और थोड़ा रुक रुककर चार प्याली चाय भी। इसलिए घर आते आते दिन अपनी जवानी की ओर बढ़ने लगा था।

ऑफिस में जो कुछ भी हुआ या हो रहा था, उसकी लगाम का एक भी रेशा मेरे हाथ में नहीं था। दूसरी ओर निम्मी का साथ भी नहीं। बताना चाहूँगा कि इन समूची घटनाओं के क्रम में मिलने वाले हरेक छोटे बड़े अंतरालों में मैं एकाध बार निम्मी को फोन लगाता रहा, जिनमें से किसी एक का भी जवाब नहीं मिलने पर हर बार अपनी तात्कालिक मुश्किल को बयाँ करता हुआ एक एसएमएस भी भेज देता रहा। निम्मी ने इनमें किसी का भी जवाब नहीं दिया। उस रोज भी, जब मेरे कार्यकारी मष्तिष्क का नब्बे प्रतिशत से ज्यादा भाग ऑफिस में हुई मीटिंग से लाए गए ढेर सारे तनाव से भरा पड़ा था, घर में मुझे नींद भी नहीं आने वाली थी, मैं लगातार निम्मी को कॉल और मैसेजेज करता रहा।

वसूली के लिए वोडाफोन कंपनी का उद्यम और उसे टाल कर फिलवक्त के लिए मेरी बच निकलने की कोशिशें तब तक इस मुकाम तक आ गईं थीं कि कंपनी अपने वसूली वाले कर्मचारियों को मेरे घर तक भेजने पर उतारू हो गई। जैसा कि जयपुर में मेरे घर तक पहुँचना किसी के लिए पहली बार में थोड़ा कठिन था, मैं लगातार ऐसे लोगों की पहुँच से बचता भी रहा था। लेकिन चूँकि डाकिए को मेरा पता अच्छे से मालूम था, इसलिए वोडाफोन द्वारा भेजी गई लीगल नोटिस साबुत मेरे घर पर आ गई। यह रुपए न चुकाने की स्थिति में मुझ पर कानूनी कार्रवाई किए जाने की अरसे से मिल रही धमकियों का वास्तविकता में अनुवाद था।

उस रोज दोपहर बाद के दो बजे के आस पास मुझे जो कॉल आई, वह खान की थी। खान ने नर्म आवाज में कहा कि पैसे चुका दो सर, बेवजह परेशान होने और करने में क्या रखा है? खान से अपने पुराने परिचय का लाभ उठाने की जुगत में मैंने फिर एक बार टल्ली देने कोशिश की। लेकिन खान ने तुरंत ही आवाज बदल ली और बोला कि आज शाम तक जाकर अगर मैंने बिल नहीं चुकाया तो कल वो खुद मुझसे मिलने आएगा। और यह भी कि ऐसे में वसूली के दूसरे तरीके भी आजमाए जा सकते हैं।

मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा था। जैसे कि हर बार कुछ भी नहीं सूझने की स्थिति में मैं करता आया था, मैंने बहुत दिल से निम्मी को फोन लगाया। कुछ देर के लिए मुझे टेलीपैथी जैसी चीज में यकीन हो आया, जो निम्मी को मेरे बुरे हालात की सच्ची खबर देने में शायद कारगर होती। लेकिन निम्मी ने फिर से फोन नहीं उठाया। मैंने उसे एक और मैसेज भेज दिया, लिखते हुए कि मैं तुमसे मिलने आ रहा हूँ। मैं अपनी यथास्थिति में ही यथार्थ पब्लिशिंग हाउस की ओर चल दिया। जैसे कि मेरे पैरों को पहले से सबकुछ देखा सुना हो, मैं अनवरत चलता जा रहा था कि यथार्थ पब्लिशिंग हाउस के वाचमैन ने मुझे रोक दिया। मेरे आने की वजह पूछा जो मैंने उसे बता दिया। वह वाचमैन की जगह पर मुझे अकेला छोड़ अंदर चला गया। बाहर आया तो इस बात के साथ निम्मी आज काम पर नहीं आई है। आगे मैंने उससे पूछा कि ऐसा कैसे हो सकता है, जबकि निम्मी ने ही मुझे उससे मिलने को बुलाया है? वाचमैन पर मेरे इस झूठ का समुचित असर हुआ और वह वापस इस बात की जाँच करने चला गया। कुछ देर बाद उसकी जगह तमतमाई हुई निम्मी का निकलना हुआ, जो मेरे पास रुकते हुए कड़ककर 'बोली क्या है?' मैंने मेमने की सी आवाज में एक सॉरी कहा और थोड़ा अंतराल लेकर कुछ और बोलने ही वाला था कि उसने अपनी जुबान से एक दूसरी बिजली भी गिरा दी, 'शट अप एंड गेट लॉस्ट। आल्सो नेवर ट्राई टू कॉल मी।'

वहाँ से वापस आने के वक्त मेरा जी कर रहा था कि अब से लेकर बाकी की पूरी जिंदगी मैं चुप ही रहूँ। मैं अपनी चाहत के मुताबिक ही चलने भी लगा। निम्मी से बात हो पाना फिलहाल मेरे लिए दुनिया के सबसे मुश्किल कामों में से एक हो गया था। और बाकी किसी की भी फोन कॉल मेरे लिए उतनी जरूरी नहीं थी। सो मैंने अपना फोन भी बंद कर दिया। ऐसा करने से मैं वसूली की काल्स से भी बच सकता था। इसलिए मेरी चाहत के मुताबिक मेरा फोन भी अब जिंदगी भर बंद ही रहने वाला था। मैं घर आया और कुछ सादा सादा सा बोध कराता हुआ अमोल पालेकर टाइप का पैंट और शर्ट पहनकर बस स्टैंड तक गया। चुप रहने को प्राथमिकता देता हुआ मैं कंडक्टर को दूरी के हिसाब से वाजिब किराया सात रुपए पकड़ा दिया। कंडक्टर को चूँकि मुझसे हर रोज छह ही रुपए लेने की आदत थी, सो उसने चुपचाप मुझे एक रुपए का सिक्का लौटा दिया। उस रोज शायद कंडक्टर ने भी मेरे ही टाइप का कोई फैसला कर रखा हो, और मुझे एक रुपया नहीं लौटाने की अवस्था में मेरे बहस करने को लेकर पूरा पूरा आश्वस्त रहा हो। चुपचाप चलते और मुड़ते हुए बस मेरे ऑफिस के सामने रुक गई। चुपचाप उतरकर मैंने चुपचाप खड़े सिक्योरिटी गार्ड को अपना आई डी कार्ड दिखाया, उसने कार्ड में चिपकी मेरी चुपचाप तस्वीर को मेरे चेहरे से मिलाने की हर रोज जैसी कोशिश की। यकीनन, वह इसमें रोज से ज्यादा कामयाब भी रहा होगा। मैं ऑपरेशन फ्लोर के सुदूर कोने वाले अपने क्यूबिकल की ओर बढ़ते हुए सहकर्मियों के शोरगुल से भरे हाय हैलो का जवाब अपने खामोश हाथ को हिलाते हुए देता गया। कई बार मेरा चेहरे ने आदतन, बिलावजह मुस्कराना चाहा। लेकिन शायद यह भी चुप्पी की मुखालफत वाली कोई चीज थी, सो होटों को वापस अपनी शांत मुद्रा में आना पड़ा। मैंने चुपचाप रखे कंप्यूटर को एक बटन दबाकर आहिस्ता ऑन किया। उसने साँय साँय की धीमी आवाज देनी शुरू कर दी, और मैंने अपने सिर के ऊपर हेडफोन चढ़ा लिया। देर तक एक स्पैनिश गाने की कॉलर ट्यून सुनने के बाद मुझे बोलना पड़ा, 'कुड आई स्पीक टू मिस मेलिसा रोब्लेस प्लीज...' यह मेरे कंठ से, बहुत देर बाद निकली कोई आवाज थी। चुप्पी से तब तक मुझे इतना प्यार हो गया था, कि थोड़ी देर बाद मैं फिर से एक घनघोर खामोशी में चला गया। रात के खाने के वक्त को वहाँ लंच ब्रेक कहने का चलन था, जिसके आने तक मेरा मैनेजर तीन बार मेरे डेस्क तक आ चुका था और थोड़ी देर तक मुझे घूरकर वापस जा चुका था। लोग कहने लगे थे कि आज मैं हर रोज से ज्यादा उत्साह में बोल रहा हूँ और कंप्यूटर के चेहरे पर झलकती मेरी कॉल हिस्ट्री बता रही थी कि मैंने उतने वक्त के लिए औसत से दो गुना ज्यादा काल्स ले चुका था।

मैंने रात के खाने के लिए अपना लंच ब्रेक सबसे बाद में लिया। ब्रेक खतम कर वापस होते ही मुझे फिर से मीटिंग रूम में आने का फरमान दे दिया गया। मैं चुपचाप मीटिंग रूम में दाखिल हुआ। फिर से वहाँ मेरा टीम लीडर, मैनेजर, सीनियर मैनेजर और एचआर विभाग की लड़की मौजूद थी। सबके खामोश चेहरे मुझ पर दहाड़ रहे थे। सबसे पहले सीनियर मैनेजर ने जुबान खोली और एक लंबे संभाषण में जो कुछ कहा उसका लब्बोलुआब यह था कि पिछले एक महीने में मैंने एक पर एक कई सारी ऐसी गलतियाँ की हैं, जिनके लिए मुझ पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है। कंपनी की क्रिटिकल इंफार्मेशन लीक करने से लेकर कॉल्स पर कई सारे ग्राहकों को गलत जानकारियाँ देने और उन्हें सीमा से बाहर जाकर डराने धमकाने तक के आरोप इसमें शामिल थे। फिर मैनेजर ने मेरी परफारमेंस में पिछले एक महीने में आए ढेर सारे उतार चढ़ाव का जिक्र किया। आगे, टीम लीडर ने मेरे उस दिन के कॉल्स की संख्या के हवाले से मेरे ओवर प्रोडक्टिव होने की बात की, और बताया कि ऐसा करते हुए निश्चित रूप से ढेर सारे ग्राहकों को गलत जानकारियाँ दी गई होंगी और कइयों के साथ गलत बर्ताव भी किया गया होगा।

मैं चुप था। शीत चुप, वसंत चुप। मेरी चुप्पी पर जो आखिरी आघात किया गया वह एचआर विभाग की उस लड़की का था। उसने कहा, 'श्योर साइलेंस इस बीइंग टेकन एस एन अप्रूवल ऑव ह्वाट ऑल योर सीनियर्स हैव टोल्ड सो फार। सो आन दैट बेसिस यू आर बीइंग टर्मिनेटेड फ्राम इम्मीडिएट इफेक्ट। बिफोर साइनिंग आन दिस टर्मिनेशन लेटर, डू यू हैव एनी क्वेश्चन ऑर डाउट्स फॉर अस?' मेरे पास सवालों के अंबार थे। इतने सारे सवाल कि मैं मीटिंग रूम में मौजूद चारों लोगों पर हरेक क्षण में अनगिन सवाल उछाल सकता था। लेकिन उनमें किन्हीं के भी उत्तर उनके पास नहीं होते, इसका मुझे पहले से पता था। मैनें एक 'नहीं' भी नहीं कहा और कागज पर दस्तखत कर दिया। उसकी एक प्रति मुझे दी गई और सीनियर मैनेजर ने मीटिंग रूम में बने रहने के मेरे धैर्य की सराहना करते हुए मेरे उज्ज्वल भविष्य की कामना की। आगे बाकी के तीनों ने भी वह क्रम दुहराया और एचआर विभाग की लड़की ने मुझसे कंपनी का मेरा पहचान पत्र माँगकर रख लिया। वह मुझे दफ्तर के मुख्य द्वार तक छोड़ने भी आई क्योंकि किसी भी दरवाजे को खोलने के लिए मेरे पास पहचान पत्र का होना जरूरी था, जिसे कि उसने ले लिया था।

कंपनी से टर्मिनेशन का मतलब होता था कि कंपनी मुझे तात्कालिक महीने में काम करने के बदले किसी भी तरह का भुगतान तो नहीं ही करेगी, साथ ही साथ मुझे वहाँ उतने दिनों तक काम करने के लिए कोई अनुभव का प्रमाण पत्र भी नहीं मिलेगा। वह महीने की अट्ठाइसवीं तारीख थी।

मैं दफ्तर से बाहर आया, और सुट्टे की दुकान पर देर तक स्तब्ध सा खड़ा रहा। इस बीच दुकान पर खड़े लड़के ने एक बार यह भी पूछ लिया था कि भइया, गोल्ड फ्लेक या अल्ट्रा माइल्ड? मैंने उसका कोई भी जवाब नहीं दिया था। रात काफी गहरा चुकी थी और मैंने सड़क किनारे टहलते हुए एक पत्थर का टुकड़ा खोज लिया था। मैंने फर्स्ट साल्यूशंश कंपनी के एक शीर्षस्थ कँचीले हिस्से को निशाना बनाकर उसे उछाल दिया था। निशाना तो शायद सही लग जाता, लेकिन मेरे द्वारा पत्थर को मिली उछाल मुझसे इमारत की दूरी की तुलना में बहुत कम थी। पत्थर ने फिर भी, एक आवाज के साथ कंपनी की बाउंड्री में जगह ले ली, और उसके गिरने के बाद कुछ ही क्षणों में एक शोर के साथ कई सारे वर्दीधारी मेरे पीछे दौड़ रहे थे। मैं उनके आगे दौड़ते हुए देर तक दौड़ता ही रहा और वे थककर, रुककर वापस लौट गए।

मैं जयपुर के अपने उसी कमरे में चार और दिन बिता गया था। इस बीच मैं दिन या रात के किसी पहर में दो एक बार कुछ खाने के लिए निकलता। मेरे पास जमा पैसों के लगभग पूरा चुक जाने के बाद की मेरी तैयारी अगले किसी काम के मिलने तक के लिए अपने पिता के शहर, यानी लखनऊ वापस हो जाने की थी। इन चार दिनों के बीच दो दफा मैं खान के सामने पड़ा, और उसके चिल्लाकर मुझे बुलाने के बावजूद मैं झट से किसी ओर दफा हो गया। लेकिन उस पाँचवे दिन उसने अपना वायदा पूरा किया। वह सीधा मेरे घर पर हाजिर हो गया। बड़े से हॉस्टलनुमा बिल्डिंग में मेरा कमरा तक खोजकर। उसके साथ तीन और हट्टे कट्ठे लोग थे और उनमें से एक बीशा भी था। बीशा और मैं एक दूसरे को देखते ही थोड़ी देर के लिए अचंभित रह गए। आगे बातचीत की कमान खुद बीशा ने अपने हाथों में ले ली और मुझे अपना सारा हाल बयाँ करने का मौका दे दिया।

इत्मीनान से सबकुछ सुन लेने के बाद सभी कुछ देर के लिए खामोश रहे। फिर खान ने कहा कि यूँ ऐसा होता तो नहीं है, लेकिन ऐसे में बचने का सिर्फ एक ही रास्ता है। वो यह, कि तुम भी हमारे साथ काम करो, और अपने जैसे भगोड़े ग्राहकों से वसूली का जिम्मा लो। तुम्हारी पगार का सीधा रिश्ता की गई वसूली से होगा और तुम्हारे नाम कंपनी के साढ़े पाँच हजार रुपए तुम्हारी शुरुआती दो महीनों की पगार से काट लिए जाएँगे।

मेरे पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था और यह जो विकल्प मेरे सामने था, वह मुझे फिलहाल की दो बड़ी मुश्किलों से उबार सकने में सक्षम दिखता था। वे दो मुश्किलें मेरा रोजगार और वोडाफोन कंपनी के नाम मेरी उधारी का चुकाया जाना था।

लेकिन इस विकल्प को चुन लेने पर मेरी तीसरी मुश्किल जस की तस बनी ही रहने वाली थी। मेरी तीसरी मुश्किल निम्मी का मुझसे दूर हो जाना थी जो आगे भी इसलिए बनी रहने वाली थी कि मैं अपने वसूली के काम के सिलसिले में दिन के किसी भी हिस्से में जयपुर के किसी भी चौराहे पर बीशा की हीरो होंडा सीडी 100 एसएस की पिछली सीट पर सवार दिख सकता था।

पिछले दिनों मैंने फिर से निम्मी को फोन लगाना चाहा, लेकिन मुझे 'दिस नंबर इज नाट इन यूज' का संदेश सुनाई दिया। अब वह अपने पुराने ठिकाने पर भी नहीं रहती। मैंने यथार्थ पब्लिशिंग हाउस में भी अलग अलग तरीकों से दरियाफ्त कर ली, अब वह वहाँ भी काम नहीं करती। यूँ इस साल उसने बीकाम का तीसरा साल भी पूरा कर लिया होगा। शायद इसलिए वह आगे के 'अर्न ह्वाइल लर्न' के लिए किसी और शहर में चली गई हो।