नई धारा, प्रथम उत्थान / आधुनिक काल / काव्य / शुक्ल

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हिन्दी साहित्य का इतिहास
आधुनिक काल (काव्य खंड) संवत् 1925 -1950 / प्रकरण 2 - नई धारा, प्रथम उत्थान

यह सूचित किया जा चुका है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस प्रकार गद्य की भाषा का स्वरूप स्थिर करके गद्य साहित्य को देशकाल के अनुसार नए नए विषयों की ओर लगाया, उसी प्रकार कविता की धारा को भी नए नए क्षेत्रों की ओर मोड़ा। इस नए रंग में सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति की वाणी का था। उसी से लगे हुए विषय लोकहित, समाजसुधार, मातृभाषा का उध्दार आदि थे। हास्य और विनोद के नए विषय भी इस काल में कविता को प्राप्त हुए। रीतिकाल के कवियों की रूढ़ि में हास्यरस के आलंबन कंजूस ही चले आते थे। पर साहित्य के इस नए युग के आरंभ से ही कई प्रकार के नए आलंबन सामने आने लगे, जैसे , पुरानी लकीर के फकीर, नए फैशन के गुलाम, नोच खसोट करने वाले अदालती अमले, मूर्ख और खुशामदी रईस, नाम या दाम के भूखे देशभक्त इत्यादि। इसी प्रकार वीरता के आश्रय भी जन्मभूमि के उध्दार के लिए रक्त बहानेवाले, अन्याय और अत्याचार का दमन करने वाले इतिहासप्रसिद्ध वीर होने लगे। सारांश यह कि इस नई धारा की कविता के भीतर जिन नए नए विषयों के प्रतिबिंब आए, वे अपनी नवीनता से आकर्षित करने के अतिरिक्त नूतन परिस्थिति के साथ हमारे मनोविकारों का सामंजस्य भी घटित कर चले। कालचक्र के फेर से जिस नई परिस्थिति के बीच हम पड़ जाते हैं, उसका सामना करने योग्य अपनी बुद्धि को बनाए बिना जैसे काम नहीं चल सकता, वैसे ही उसकी ओर अपनी रागात्मिका वृत्ति को उन्मुख किए बिना हमारा जीवन फीका, नीरस, शिथिल और अशक्त रहता है।

विषयों की अनेकरूपता के साथ साथ उनके विधान का ढंग भी बदल चला। प्राचीन धारा में 'मुक्तक' और 'प्रबंध' की जो प्रणाली चली आती थी, उससे कुछ भिन्न प्रणाली का भी अनुसरण करना पड़ा। पुरानी कविता में 'प्रबंध' का रूप कथात्मक और वस्तु वर्णनात्मक ही चला आता था। या तो पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक वृत्तों को लेकर छोटे छोटे आख्यान काव्य रचे जाते थे, जैसे , पद्मावत, रामचरितमानस, रामचंद्रिका, छत्राप्रकाश, सुदामाचरित, दानलीला, चीरहरन लीला इत्यादि , अथवा विवाह, मृगया, झूला, हिंडोला, ऋतुविहार आदि को लेकर वस्तुवर्णनात्मक प्रबंध। अनेक प्रकार के सामान्य विषयों पर, जैसे , बुढ़ापा, विधिविडंबना, जगतसचाईसार, गोरक्षा, माता का स्नेह, सपूत, कपूत , कुछ दूर तक चलती हुई विचारों और भावों की मिश्रित धारा के रूप में छोटे छोटे प्रबंधों या निबंधों की चाल न थी। इस प्रकार के विषय कुछ उक्तिवैचित्रय के साथ एक ही पद्य में कहे जाते थे अर्थात् वे मुक्तक की सूक्तियों के रूप में ही होते थे। पर नवीन धारा के आरंभ में छोटे छोटे पद्यात्मक निबंधों की परंपरा भी चली जो प्रथम उत्थानकाल के भीतर तो बहुत कुछ भावप्रधान रही पर आगे चलकर शुष्क और इतिवृत्तात्मक (मैटर ऑव फैक्ट) होने लगी।

नवीनधारा के प्रथम उत्थान के भीतर हम हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, अंबिकादत्त व्यास, राधाकृष्णदास, उपाधयाय बदरीनारायण चौधारी आदि को ले सकतेहैं।

1. भारतेंदु हरिश्चंद्र , जैसा ऊपर कह आए हैं, नवीन धारा के बीच भारतेंदु की वाणी का सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति का था। नीलदेवी, भारतदुर्दशा आदि नाटकों के भीतर आई हुई कविताओं में देश दशा की जो मार्मिक व्यंजना है, वह तो है ही; बहुत सी स्वतंत्र कविताएँ भी उन्होंने लिखीं जिनमें कहीं देश के अतीत गौरव गाथा का गर्व, कहीं वर्तमान अधाोगति की क्षोभभरी वेदना, कहीं भविष्य की भावना से जगी हुई चिंता इत्यादि अनेक पुनीत भावों का संचार पाया जाता है। 'विजयिनीविजय वैजयंती' में, जो मिस्र में भारतीय सेना की विजय प्राप्ति पर लिखी गई थी, देशभक्ति व्यंजक कैसे भिन्न भिन्न संचारी भावों का उद्गार है! कहीं गर्व, कहीं क्षोभ, कहीं विषाद। 'सहसन बरसन सों सुन्यो जो सपने नहिं कान, सो जय आरज शब्द को सुन', और 'फरकि उठीं सबकी भुजा, खरकि उठीं तरवार। क्यों आपुहिं ऊँचे भए आर्य मोछ के बार' का कारण जान, प्राचीन आर्य गौरव का गर्व कुछ आ ही रहाथा कि वर्तमान अधाोगति का दृश्य ध्यान में आया और फिर वही 'हाय भारत!' कीधाुन।

हाय! वहै भारत भुव भारी । सब ही विधि सों भई दुखारी

हाय! पंचनद, हा पानीपत । अजहुँ रहे तुम धारनि बिराजत

हाय चित्तौर! निलज तू भारी । अजहुँ खरो भारतहि मँझारी

तुममें जल नहिंजमुनागंगा । बढ़हु बेगि किन प्रबल तरंगा

बोरहु किन झट मथुरा कासी? धाोवहु यह कलंक की रासी

'चित्तौर', 'पानीपत' इन नामों मेंं ही हिंदूहृदय के लिए कितने भावों की व्यंजना भरी है। उसके लिए ये नाम ही काव्य हैं। नीलदेवी में यह कैसी करुण पुकारहै ,

कहाँ करुणानिधि केशव सोये?

जागत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोये

यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि भारतेंदुजी ने हिन्दी काव्य को केवल नए नए विषयों की ओर ही उन्मुख किया, उसके भीतर किसी नवीन विधान या प्रणाली का सूत्रपात नहीं किया। दूसरी बात उनके संबंध में ध्यान देने की यह है कि वे केवल 'नरप्रकृति' के कवि थे, बाह्य प्रकृति की अनेकरूपता के साथ उनके हृदय का सामंजस्य नहीं पाया जाता। अपने नाटकों में दो एक जगह उन्होंने जो प्राकृतिक वर्णन रखे हैं (जैसे सत्य हरिश्चंद्र में गंगा का वर्णन, चंद्रावली में यमुना का वर्णन) वे केवल परंपरापालन के रूप में हैं। उनके भीतर उनका हृदय नहीं पाया जाता। वे केवल उपमा और उत्प्रेक्षा के चमत्कार के लिए लिखे जान पड़ते हैं। एक पंक्ति में कुछ अलग अलग वस्तुएँ और व्यापार हैं और दूसरी पंक्ति में उपमा या उत्प्रेक्षा। कहीं कहीं तो यह अप्रस्तुत विधान तीन पंक्तियों तक चला चलता है।

अंत में यह सूचित कर देना आवश्यक है कि गद्य को जिस परिमाण में भारतेंदु ने नए नए विषयों और मार्गाें की ओर लगाया उस परिमाण में पद्य को नहीं। उनकी अधिकांश कविता तो कृष्णभक्त कवियों के अनुकरण पर गेय पदों के रूप में है जिनमें राधाकृष्ण की प्रेमलीला और विहार का वर्णन है। श्रृंगाररस के कवित्त सवैयों का उल्लेख पुरानी धारा के अंतर्गत हो चुका है। देशदशा, अतीतगौरव आदि पर उनकी कविताएँ या तो नाटकों में रखने के लिए लिखी गईं अथवा विशेष अवसरों पर, जैसे , प्रिंस ऑफ वेल्स (पीछे सम्राट् सप्तम एडवर्ड) का आगमन, मिस्र पर भारतीय सेना द्वारा ब्रिटिश सरकार की विजय , पढ़ने के लिए। ऐसी रचनाओं में राजभक्ति और देशभक्ति का मेल आजकल के लोगों को कुछ विलक्षण लग सकता है। देशदशा पर दो एक होली वा वसंत आदि गाने की चीजें फुटकल भी मिलती हैं। पर उनकी कविताओं के विस्तृत संग्रह के भीतर आधुनिकता कम ही मिलेगी।

गाने की चीजों में भारतेंदु ने कुछ लावनियाँ और ख्याल भी लिखे जिनकी भाषा खड़ी बोली होती थी।

2. पं. प्रतापनारायण मिश्र , भारतेंदुजी स्वयं पद्यात्मक निबंधों की ओर प्रवृत्त नहीं हुए पर उनके भक्त और अनुयायी पं. प्रतापनारायण मिश्र इस ओर बढ़े। उन्होंने देशदशा पर ऑंसू बहाने के अतिरिक्त 'बुढ़ापा', 'गोरक्षा' ऐसे विषय भी कविता के लिए चुने। ऐसी कविताओं में कुछ तो विचारणीय बातें हैं , कुछ भावव्यंजना और विचित्र विनोद। उनके कुछ इतिवृत्तात्मक पद्य भी हैं जिनमें शिक्षितों के बीच प्रचलित बातें साधारण भाषण के रूप में कही गई हैं। उदाहरण के लिए 'क्रंदन' की ये पंक्तियाँ देखिए ,

तबहि लख्यौ जहँ रह्यो एक दिन कंचन बरसत।

तहँ चौथाई जन रूखी रोटिहुँ को तरसत

जहाँ कृषी वाणिज्य शिल्पसेवा सब माहीं।

देसिन के हित कछू तत्व कहुँ कैसहुँ नाहीं

कहिय कहाँ लगि नृपति दबे हैं जहँ ऋन भारन।

तहँ तिनकी धानकथा कौन जे गृही सधारन

इस प्रकार के इतिवृत्तात्मक पद भारतेंदुजी ने भी कुछ लिखे हैं। जैसे ,

अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी।

पै धान विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी

मिश्रजी की विशेषता वास्तव में उनकी हास्यविनोदपूर्ण रचनाओं में ही दिखाई पड़ती है। 'हरगंगा', 'तृप्यंताम्' 'बुढ़ापा', इत्यादि कविताएँ बड़ी विनोदपूर्ण औरमनोरंजक हैं। 'हिन्दी, हिंदू, हिंदुस्तान' वाली 'हिन्दी की हिमायत' भी बहुत प्रसिद्ध हुई।

3. उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधरी , इन्होंने अधिकतर विशेष अवसरों पर, जैसे , दादाभाई नौरोजी के पार्लामेंट के मेंबर होने के अवसर पर, महारानी विक्टोरिया की हीरक जुबली के अवसर पर, नागरी के कचहरियों में प्रवेश पाने पर, प्रयाग के सनातन धर्म महासम्मेलन (संवत् 1963) के अवसर पर आनंद आदि प्रकट करने के लिए कविताएँ लिखी हैं। भारतेन्दु के समान नवीन विषयों के लिए ये भी प्राय: रोला छंद ही लेते थे। इनके छंदों में यतिभंग प्राय: मिलता है। एक बार जब इस विषय पर मैंने इनसे बातचीत की, तब इन्हाेंेने कहा , 'मैं यतिभंग को कोई दोष नहीं मानता; पढ़नेवाला ठीक चाहिए।' देश की राजनीतिक परिस्थिति पर इनकी दृष्टि बराबर रहती थी। देश की दशा सुधरने के लिए जो राजनीतिक या धर्म संबंधी आंदोलन चलते रहे, उन्हें ये बड़ी उत्कंठा से परखा करते थे। जब कहीं कुछ सफलता दिखाई पड़ती, तब लेखों और कविताओं द्वारा हर्ष प्रकट करते, और जब बुरे लक्षण दिखाई देते तब क्षोभ और खिन्नता। कांग्रेस के अधिावेशन में ये प्राय: जाते थे। 'हीरक जुबली' आदि की कविताओं को खुशामदी कविता न समझना चाहिए। उनमें ये देशदशा का सिंहावलोकन करते थे , और मार्मिकता के साथ।

विलायत में दादा भाई नौरोजी के 'काले' कहे जाने पर इन्होंने 'कारे' शब्द को लेकर बड़ी सरल और क्षोभपूर्ण कविता लिखी थी। कुछ पंक्तियाँ देखिए ,

अचरज होत तुमहुँ सम गोरे बाजत कारे।

तासों कारे 'कारे' शब्दहु पर हैं वारे

कारे श्याम, राम, जलधार जल बरसनवारे।

कारे लागत ताही सों कारन कों प्यारे

यातें नीको है तुम 'कारे' जाहु पुकारे।

यहै असीस देत तुमकों मिलि हम सब कारे

हीरक जुबली के अवसर पर लिखे 'हार्दिक हर्षादर्श' में देश की दशा का ही वर्णन है, जैसे ,

भयो भूमि भारत में महा भयंकर भारत।

भये वीरवर सकल सुभट एकहि सँग गारत!!

मरे बिबुधा नरनाह सकल चातुर गुनमंडित।

बिगरो जनसमुदाय बिना पथदर्शक पंडित

नए नए मत चले, नए झगरे नित बाढ़े।

नए नए दुख परे सीस भारत पर गाढ़े

'प्रेमघन' जी की कई बहुत ही प्रांजल और सरल कविताएँ उनके दोनों नाटकों में हैं। 'भारत सौभाग्य' नाटक चाहे खेलने योग्य न हो, पर देश दशा पर वैसा बड़ा, अनूठा और मनोरंजक नाटक दूसरा नहीं लिखा गया। उसके प्रारंभ के अंकों में 'सरस्वती', 'लक्ष्मी' और 'दुर्गा' इन तीनों देवियों के भारत से क्रमश: प्रस्थान का दृश्य बड़ा ही भव्य है। इसी प्रकार उक्त तीनों देवियों के मुख से विदा होते समय जो कविताएँ कहलाई गई हैं, वे भी बड़ी मार्मिक हैं। 'हंसारूढ़ा सरस्वती' के चले जाने पर 'दुर्गा' कहती है ,

आजु लौं रही अनेक भाँति धाीर धाारि कै।

पै न भाव मोहिं बैठनो सु मौन मारि कै

जाति हौं चली वहीं सरस्वती गई जहाँ

उध्दृत कविताओं में उनकी गद्यवाली चमत्कारप्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती। अधिकांश कविताएँ ऐसी ही हैं। पर कुछ कविताएँ उनकी ऐसी भी हैं, जैसे , 'मयंक' और 'आनंद अरुणोदय' , जिनमें कहीं लंबे लंबे रूपक हैं और कहीं उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं की भरमार।

4. ठाकुर जगमोहन सिंह , यद्यपि जगमोहन सिंहजी अपनी कविता को नए विषयों की ओर नहीं ले गए, पर प्राचीन संस्कृत काव्यों के प्राकृतिक वर्णनों का संस्कार मन में लिए हुए, अपनी प्रेमचर्या की मधुरस्मृति से समन्वित विंधयप्रदेश के रमणीय स्थलों को जिस सच्चे अनुराग की दृष्टि से देखा है, वह ध्यान देने योग्य है। उसके द्वारा उन्होंने हिन्दी काव्य में एक नूतन विधान का आभास दिया था। जिस समय हिन्दी साहित्य का अभ्युदय हुआ, उस समय संस्कृत काव्य अपनी प्राचीन विशेषता बहुत कुछ खो चुका था, इससे वह उसके पिछले रूप को ही लेकर चला। प्रकृति का जो सूक्ष्म निरीक्षण वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति में पाया जाता है, वह संस्कृत के पिछले कवियों में नहीं रह गया। प्राचीन संस्कृत कवि प्राकृतिक दृश्यों के विधान में कई वस्तुओं की संश्लिष्ट योजना द्वारा 'बिंबग्रहण' कराने का प्रयत्न करते थे। इस कार्य को अच्छी तरह सम्पन्न करके तब ये इधर उधर उपमा, उत्प्रेक्षा आदि द्वारा थोड़ा बहुत अप्रस्तुत वस्तुविधान भी कर देते थे। पर पीछे मुक्तकों में सूक्ष्म और संश्लिष्ट योजना के स्थान पर कुछ इनी गिनी वस्तुओं को अलग अलग गिनाकर 'अर्थग्रहण' कराने का प्रयत्न ही रह गया और प्रबंधकाव्यों के वर्णनों में उपमा और उत्प्रेक्षा की इतनी भरमार हो चली कि प्रस्तुत दृश्य गायब हो चला।

यही पिछला विधान हमारे हिन्दी साहित्य में आया। 'षट्ऋतु' वर्णन में प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों का जो उल्लेख होता था वह केवल 'उद्दीपन' की दृष्टि से , अर्थात् नायक या नायिका के प्रति पहले से प्रतिष्ठित भाव को और जगाने या उद्दीप्त करने के लिए। इस काम के लिए कुछ वस्तुओं का अलग अलग नाम ले लेना ही काफी होता है। स्वयं प्राकृतिक दृश्यों के प्रति कवि के भाव का पता देनेवाले वर्णन पुराने हिन्दी काव्य में नहीं पाए जाते।

संस्कृत के प्राचीन कवियों की प्रणाली पर हिन्दी काव्य के संस्कार का जो संकेत ठाकुर साहब ने दिया, खेद है कि उसकी ओर किसी ने ध्यान न दिया। प्राकृतिक वर्णन की इस प्राचीन भारतीय प्रणाली के संबंध में थोड़ा विचार करके हम आगे बढ़ते हैं। प्राकृतिक दृश्यों की ओर यह प्यारभरी सूक्ष्म दृष्टि प्राचीन संस्कृत काव्य की एक ऐसी विशेषता है जो फारसी या अरबी के काव्यक्षेत्र में नहीं पाई जाती। योरप के कवियों में जाकर ही यह मिलती है। अंग्रेजी साहित्य में वड्र्सवर्थ, शेली, मेरेडिथ ;ॅवतकेूवतजीए ैीमससलण् डमतमकपजीद्ध आदि में उसी ढंग का सूक्ष्म प्रतिनिरीक्षण और मनोरम रूपविधान पाया जाता है जैसा प्राचीन संस्कृत साहित्य में। प्राचीन भारतीय और नवीन योरोपीय दृश्यविधान में पीछे थोड़ा लक्ष्यभेद हो गया। भारतीय प्रणाली में कवि के भाव का आलंबन प्रकृति ही रही है, अत: उसके रूप का प्रत्यक्षीकरण ही काव्य का एक स्वतंत्र लक्ष्य दिखाई पड़ता है। पर योरोपीय साहित्य में काव्यनिरूपण की बराबर बढ़ती हुई परंपरा के बीच धीरे धीरे यह मत प्रचार पाने लगा कि 'प्राकृतिक दृश्यों का प्रत्यक्षीकरण मात्र तो स्थूल व्यवसाय है, उनको लेकर कल्पना की एक नूतन सृष्टि खड़ी करना ही कविकर्म है। 1

उक्त प्रवृत्ति के अनुसार कुछ पाश्चात्य कवियों ने तो प्रकृति के नाना रूपों के बीच व्यंजित होनेवाली भावधारा का बहुत सुंदर उद्धाटन किया, पर बहुतेरे अपनी बेमेल भावनाओं का आरोप करके उन रूपों को अपनी अपनी अंतर्वृत्तिायों से छोपने लगे। अब इन दोनों प्रणालियों में से किस प्रणाली पर हमारे काव्य में दृश्य वर्णन का विकास होना चाहिए, यह विचारणीय है। मेरे विचार में प्रथम प्रणाली का अनुसरण ही समीचीन है। अनंत रूपों से भरा हुआ प्रकृति का विस्तृत क्षेत्र उस 'महामानस' की कल्पनाओं का अनंत प्रसार है। सूक्ष्मदर्शी सहृदयों को उसके भीतर नाना भावों की व्यंजना मिलेगी। नाना रूप जिन नाना भावों की सचमुच व्यंजना कर रहे हैं, उन्हें छोड़ अपने परिमित अंत:कोटर की वासनाओं से उन्हें छोपना एक झूठे खेलवाड़ के ही अंतर्गत होगा। यह बात मैं स्वतंत्र दृश्यविधान के संबंध में कर रहा हूँ जिसमें दृश्य ही प्रस्तुत विषय होता है। जहाँ किसी पूर्वप्रतिष्ठित भाव की प्रबलता व्यंजित करने के लिए ही प्रकृति के क्षेत्र से वस्तुव्यापार लिए जायँगे, वहाँ तो वे उस भाव में रँगे दिखाई ही देंगे। पद्माकर की विरहणी का यह कहना कि 'किंसुक गुलाब कचनार औ अनारन की डारन पै डोलत अंगारन के पुंज हैं।' ठीक ही है। पर बराबर इसी रूप में प्रकृति को देखना दृष्टि को संकुचित करना है। अपने ही सुख दु:ख के रंग में रँगकर प्रकृति को देखा तो क्या देखा? मनुष्य ही सब कुछ नहीं है। प्रकृति का अपना रूप भी है।

5. पं. अंबिकादत्त व्यास , व्यास जी ने नए नए विषयों पर भी कुछ फुटकल कविताएँ रची हैं जो पुरानी पत्रिकाओं में निकली हैं। एक बार उन्होंने कुछ बेतुके पद्य भी आजमाइश के लिए बनाए थे, पर इस प्रयत्न में उन्हें सफलता नहीं दिखाई पड़ी थी, क्योंकि उन्होंने हिन्दी का कोई प्रचलित छंद लिया था।

भारतेंदु के सहयोगियों की बात यहीं समाप्त कर अब हम उन लोगों की ओर जाते हैं जो उनकी मृत्यु के उपरांत मैदान में आए और जिन्होंने काव्य की भाषा और शैली में भी कुछ परिवर्तन उपस्थित किया। भारतेंदु के सहयोगी लेखक यद्यपि देशकाल के अनुकूल नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त हुए, पर भाषा उन्होंने परंपरा से चली आती हुई ब्रजभाषा ही रखी और छंद भी वे ही लिए जो ब्रजभाषा में प्रचलित थे। पर भारतेंदु के गोलोकवास के थोड़े ही दिनों पीछे भाषा के संबंध में नए विचार उठने लगे। लोगों ने देखा कि हिन्दी गद्य की भाषा तो खड़ी बोली हो गई और उसमें साहित्य भी बहुत कुछ प्रस्तुत हो चुका था, पर कविता की भाषा अभी ब्रजभाषा ही बनी है। गद्य एक भाषा में लिखा जाय और पद्य दूसरी भाषा में, यह बात खटक चली। इसकी कुछ चर्चा भारतेंदु के समय में ही उठी थी, जिसके प्रभाव से उन्होंने 'दशरथ विलाप' नाम की एक कविता खड़ी बोली में (फारसी छंद में) लिखी थी। कविता इस ढंग की थी ,

कहाँ हो ऐ हमारे राम प्यारे । किधर तुम छोड़कर हमको सिधाारे

बुढ़ापे में यह दुख भी देखना था । इसी को देखने को मैं बचा था

यह कविता राजा शिवप्रसाद को बहुत पसंद आई थी और इसे उन्होंने अपने गुटका में दाखिल किया था।

खड़ी बोली में पद्य रचना एकदम कोई नई बात न थी। नामदेव और कबीर की रचना में हम खड़ी बोली का पूरा स्वरूप दिखा आए हैं और यह सूचित कर चुके हैं कि उसका व्यवहार अधिकतर सधुक्कड़ी भाषा के भीतर हुआ करता था। शिष्ट साहित्य के भीतर परंपरागत काव्यभाषा का ही चलन रहा। इंशा ने अपनी 'रानी केतकी की कहानी' में कुछ ठेठ खड़ी बोली के पद्य भी उर्दू छंदों में रखे। उस समय में प्रसिद्ध कृष्णभक्त नागरीदास हुए। नागरीदास तथा उनके पीछे होनेवाले कुछ कृष्णभक्तों में इश्क की फारसी पदावली और गजलबाजी का शौक दिखाई पड़ा। नागरीदास के 'इश्क चमन' का एक दोहा है ,

कोई न पहुँचा वहाँ आसिक नाम अनेक।

इश्क चमन के बीच में आया मजनूँ एक

पीछे नजीर अकबराबादी ने (जन्म संवत् 1797, मृत्यु 1877) कृष्णलीला संबंधी बहुत से पद्य हिन्दी खड़ी बोली में लिखे। वे एक मनमौजी सूफी भक्त थे। उनके पद्यों के नमूने देखिए ,

यारो सुनो ये दधिा के लुटैया का बालपन।

औ मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन

मोहन सरूप नृत्य करैया का बालपन।

बन बन में ग्वाल गौवें चरैया का बालपन

ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन।

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन

परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे।

जोती सरूप कहिए जिन्हें सो वो आप थे

वाँ कृष्ण मदनमोहन ने जब सब ग्वालों से यह बात कही।

औ आपी से झट गेंद उठा उस कालीदह में फेंक दई

यह लीला है उस नंदललन मनमोहन जसुमत छैया की।

रख ध्यान सुनो दंडवत करो, जय बोलो कृष्ण कन्हैया की

लखनऊ के शाह कुंदन लाल और फुंदन लाल 'ललित किशोरी' और ललित माधुरी' नाम से प्रसिद्ध कृष्णभक्त हुए हैं, जिनका रचनाकाल संवत् 1913 और 1930 के बीच समझना चाहिए। उन्होंने और कृष्णभक्तों के समान ब्रजभाषा के अनेक पद तो बनाए ही हैं खड़ी बोली में कई झूलना छंद भी लिखे हैं, जैसे ,

जंगल अब रमते हैं, दिल बस्ती से घबराता है।

मानुष गंधा न भाती है, सँग मरकट मोर सुहाता है

चाक गरेबाँ करके दम दम आहें भरना आता है।

'ललितकिशोरी' इश्क रैन दिन ये सब खेल खेलाता है

इसके उपरांत ही लावनीबाजों का समय आता है। कहते हैं कि मिरजापुर के तुकनगिरि गोसाईं ने सधुक्कड़ी भाषा में ज्ञानोपदेश के लिए लावनी की लय चलाई। लावनी की बोली खड़ी बोली रहती थी। तुकनगिरि के दो शिष्य रिसालगिरि और देवीसिंह प्रसिद्ध लावनीबाज हुए, जिनके आगे चलकर दो परस्पर प्रतिद्वंद्वी अखाड़े हो गए। रिसालगिरि का ढंग 'तुर्रा' कहलाया जिसमें अधिकतर ब्रह्मज्ञान रहता था। देवीसिंह का बाना 'सखी का बाना' और उनका ढंग 'कलगी' कहलाया जो भक्ति और प्रेम लेकर चलता था। लावनीबाजों में काशीगिरि उपनाम बनारसी का बड़ा नाम हुआ। लावनियों में पीछे उर्दू के छंद अधिकतर लिए जाने लगे। 'ख्याल' को भी लावनी के अंतर्गत समझना चाहिए।

इसके अतिरिक्त रीतिकाल के कुछ पिछले कवि भी, जैसा कि हम दिखा आए हैं, इधर उधर खड़ी बोली के दो चार कवित्त सवैये रच दिया करते थे। उधर लावनीबाज और ख्यालबाज भी अपने ढंग पर कुछ ठेठ हिन्दी में गाया करते थे। इस प्रकार खड़ी बोली की तीन छंद प्रणालियाँ उस समय लोगों के सामने थीं जिस समय भारतेंदुजी के पीछे कविता की भाषा का सवाल लोगों के सामने आया , हिन्दी के कवित्त सवैया की प्रणाली, उर्दू छंदों की प्रणाली और लावनी का ढंग। संवत् 1943 में पं. श्रीधार पाठक ने इसी पिछले ढंग पर 'एकांतवासी योगी' खड़ी बोली पद्य में निकाला। इसकी भाषा अधिकतर बोलचाल की और सरल थी। नमूना देखिए ,

आज रात इससे परदेशी चल कीजे विश्राम यहीं।

जो कुछ वस्तु कुटी में मेरे करो ग्रहण, संकोच नहीं

तृण शय्या औ अल्प रसोई पाओ स्वल्प प्रसाद।

पैर पसार चलो निद्रा लो मेरा आसिर्वाद

प्रानपियारे की गुन गाथा, साधु! कहाँ तक मैं गाऊँ।

गाते गाते चुके नहीं वह चाहे मैं ही चुक जाऊँ

इसके पीछे खड़ी बोली के लिए एक आंदोलन ही खड़ा हुआ। मुजफ्फरपुर के बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री खड़ी बोली का झंडा लेकर उठे। संवत् 1945 में उन्होंने 'खड़ी बोली आंदोलन' की एक पुस्तक छपाई जिसमें उन्होंने बड़े जोर शोर से यह राय जाहिर की कि अब तक जो कविता हुई, वह तो ब्रजभाषा की थी, हिन्दी की नहीं। हिन्दी में भी कविता हो सकती है। वे भाषातत्व के जानकार न थे। उनकी समझ में खड़ी बोली ही हिन्दी थी। अपनी पुस्तक में उन्होंने खड़ी बोली पद्य की पाँच स्टाइलें कायम की थीं, जैसे , मौलवी स्टाइल, मुंशी स्टाइल, पंडित स्टाइल, मास्टर स्टाइल। उनकी पोथी में और पद्यों के साथ पाठकजी का 'एकांतवासी योगी' भी दर्ज हुआ। और कई लोगों से भी अनुरोध करके उन्होंने खड़ी बोली की कविताएँ लिखाईं। चंपारन के प्रसिद्ध विद्वान और वैद्य पं. चंद्रशेखरधार मिश्र, जो भारतेंदुजी के मित्रों में थे, संस्कृत के अतिरिक्त हिन्दी में भी बड़ी सुंदर और आशु कविता करते थे। मैं समझता हूँ कि हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल में संस्कृत वृत्तों में खड़ी बोली के कुछ पद्य पहले पहल मिश्रजी ने ही लिखे। बाबू अयोध्याप्रसादजी उनके पास भी पहुँचे और कहने लगे , 'लोग कहते हैं कि खड़ी बोली में अच्छी कविता नहीं हो सकती। क्या आप भी यही कहते हैं? यदि नहीं, तो मेरी सहायता कीजिए।' उक्त पंडितजी ने कुछ कविता लिखकर उन्हें दी, जिसे उन्होंने अपनी पोथी में शामिल किया। इसी प्रकार खड़ी बोली के पक्ष में जो राय मिलती, वह भी उसी पोथी में दर्ज होती जाती थी। धीरे धीरे एक बड़ा पोथा हो गया जिसे बगल में दबाये वे जहाँ कहीं हिन्दी के संबंध में सभा होती जा पहुँचते। यदि बोलने का अवसर न मिलता या कम मिलता तो वे बिगड़कर चल देते थे।

संदर्भ

1. देखो, 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य' निबंध।