नकली का भंडाफोड़ और असली सभा फिर / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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फिर सभा का काम शुरू हुआ। बिहार प्रांतीय किसानों की सभा क्या थी, खासी दिल्लगी थी। थोड़े से शहर के लोग थे। दो-चार बाहर के भी थे और शायद दस-बीस किसान। चटपट गुरु सहाय बाबू ने कहा कि किसान-सभा का अध्यक्ष किसी किसान को ही होना चाहिए। अत: मैं बाबू डोमा सिंह का नाम इसके लिए पेश करता हूँ। देवकी बाबू ने समर्थन किया और श्री डोमा सिंहअध्यक्षबने। उसी समय मैंने जाना कि यही डोमा सिंह हैं। इसके बाद फौरन मैंने सवाल उठाया कि एक बिहार प्रांतीय किसान-सभा पहले से है। हममें कुछ लोग उसके पदाधिकारी आदि भी हैं। ऐसी दशा में बिना उसे या उसके मेंबरों और पदाधिकारयों को एक मौका दिए ही दूसरी सभा खड़ी करने से आगे खतरा हो सकता है। इसलिए या तो दोनों को मिलाकर नई सभा बने या कम-से-कम पुराने लोगों को एक मौका दिया जाय कि वे क्या करना चाहते हैं? ताकि पीछे उन्हें कुछ करने का न्यायोचित हक न रह जाए। इस पर गुरु सहाय बाबू ने कहा कि”ठीक”।

मगर देवकी बाबू घबराए। वे अपनी लीडरी खतरे में देख बोल बैठे कि वे लोग तो कुछ करते-धरते नहीं। फिर हम क्यों रुकें रहें?मैंने कहा कि सो तो ठीक है। मगर कायदे के अनुसार उन्हें मौका देने के लिए रुकना ही चाहिए। वे बोले,क्या हम लोग भी बैठे ही रहें, यदि वे लोग कुछ नहीं करते?मैंने कहा,खुशी से काम कीजिए,खूब कीजिए,बैठने को कौन कहता है?मगर दो सभाएँ बन के आपस में ही न लड़ें,इसके लिए एक मौका उन्हें दीजिए। इसमें आप ही को लाभ है। इस पर लोगों ने मान लिया और पुराने पदाधिकारियों आदि को खबर देने की ठहरी। जहाँ तक याद है, 29 फरवरी को फिर दोनों की संयुक्त मीटिंग करने का निश्चय हुआ। इससे वहाँ बैठे राजा सूर्यपुरा और दूसरे लोग घबराए सही। मगर करते क्या?यह तो कायदे की बात ठहरी।

फिर प्रश्न उठा कि जमींदारों के साथ किसानों के समझौते की जो शर्ते हैं, उन पर विचार हो। लोग हाँ-हाँ कर बैठे और अंबिका बाबू ने चटपट वही कागज पर लिखी उसकी तथाकथित शर्ते पढ़ सुनाईं। फिर राय देने लगे कि जहाँ तक ये शर्ते किसानों को अधिकार देती हैं वहाँ तक तो मान ही लेना चाहिए और ज्यादे के लिए आंदोलन भी जारी रखना चाहिए। यह निराली दलील थी। मैं हैरान था कि समझौता भी हो और उसके बाद उससे अधिक हक के लिए आंदोलन भी जारी रहे वह अजीब समझौता है। इसे विरोधी (जमींदार) कैसे मानेंगे कि हम आंदोलन जारी रखेंगे।

लेकिन इस पचड़े में पड़ने के बजाय मैंने फिर कायदे-कानून का ही प्रश्न उठाया और इस सवाल को फिलहाल स्थगित करना चाहा। मैंने कहा कि कुछ भी निश्चय करने के पूर्व आखिर हमें मालूम भी तो हो कि क्या शर्ते हैं। आप यहाँ एक कागज पर लिखी बातें सुना रहे हैं और कहते हैं कि यही शर्ते हैं। मैं माने लेता हूँ कि यही हैं। मगर जब तक इन्हें छाप कर आपने किसानों में बाँटा नहीं और उन्हें इनकी जानकारी कराई नहीं, तब तक उन्हीं के नाम पर इन्हें स्वीकार करने की बात आप कैसे कर सकते हैं?आखिर लोगों को पहले से इनकी जानकारी भी तो हो। साथ ही पहले से जानकारी रहने पर इनके बारे में सोच-समझ कर यहाँ लोग आते। मगर जो लोग यहाँ हैं उन्हें भी तो इनकी जानकारी पहले थी नहीं ताकि वे तैयार होकर आते और अपनी राय इनके बारे में देते। भला यह भी कोई तरीका है कि इतने महत्त्व पूर्ण और प्रांत भर के किसानों के जीवन-मरण से संबंध रखनेवाले प्रश्नों के बारे में हम फैसला करने बैठे और उन पर पहले जरा सा गौर भी नहीं किया?

अब तो लोग दंग थे। सबों के मनोरथ पर पाला पड़ता नजर आया। केवल गुरुसहाय बाबू बोले कि हाँ, यह तो ठीक है। मगर देखा कि राजा सूर्यपुरा बुरी तरह बेचैन हैं और चाहते हैं कि शर्तों के बारे में कुछ-न-कुछ फैसला यहीं हो जाय। उन्हें गुरुसहाय बाबू से बड़ी आशा थी। मगर वह तो मेरे चंगुल में आ गए। बाकी दो उनके बिना बेकार साबित हुए। इससे राजा साहब को गुरुसहाय बाबू पर गुस्सा हुआ जो भीतर ही रहा। बाहर आता भी कैसे? तब तो सारी कलई जो खुल जाती। मगर पीछे निकाला गया जब कौंसिल में उनका नामिनेशन न करवा के बाबू शिवशंकर झा का करवाया गया। क्योंकि,जैसा पीछे पता चला,गुरुसहाय बाबू को नामजद कराने का वचन जमींदार दे चुके थे।

यद्यपि राजा साहब मजबूर थे और कुछ कर न सकते थे। तथापि उनने दलील शुरू की और कहा कि अच्छे काम में देर करना ठीक नहीं,खतरा हो सकता है। मैंने कहा कि”राजा साहब,मजबूरी है, या करें?” बोले, “शर्ते तो सामने हैं”। मैंने कहा कि”आखिर सोचें भी तो, क्या यों ही राय दें। कहीं किसानों का गला कटा तो?” उनने फिर कहा, “आखिर समझौता ही तो है। इसमें'गिव एंड टेक' (Give and take) की बात है। कुछ आप छोड़ें,कुछ हम छोड़ें,और काम चले।” मैंने कहा, “राजा साहब,सो तो ठीक है। मगर,यही तो सोचना है कि किसे कितना छोड़ना है। आपका और गरीब किसानों का छोड़ना-दोनों बराबर नहीं हो सकता। हाथी के सामने पाँच मन खाने के लिए चावल पड़ा था और चींटी के सामने सिर्फ एक चावल था। बात-ही-बात में हाथी ने चींटी से कहा कि ले मैं भी एक चावल छोड़ता हूँ और तू भी छोड़ दे। बस, हमारी और तेरी बहस खत्म। तो क्या यह ठीक होगा? देखने में तो दोनों का समान ही त्याग है। मगर एक चावल छोड़ने से जहाँ हाथी का कुछ न होगा,वहाँ चींटी का सारा परिवार भूखों मर जायगा। फलत: हमें यही तो सोचना है कि येशर्तेचींटी के परिवार को कहीं मारनेवाली तो नहीं हैं?इसीलिए समय चाहते हैं। साथ ही, जमींदार-सभा के प्रतिनिधि आप लोग चुनें और किसान-सभा के हम चुनें और जरूरत हो तो काफी बातचीत कर के कमी-बेशी या उज्र पूरा किया जाय, यहाँ किससे पूछें? जमींदार-सभा ने किसी को चुना है या नहीं कौन कहे? यह कौन है यह भी कैसे जानें?”

बस फिर तो राजा साहब की बोलती बंद हो गई। उन्होंने पहली बार देखा कि यह तो गजब के आदमी से पाला पड़ा। मैंने भी पहली ही बार उन्हें देखा और उनकी दलील सुनी। यों तो बहुत सुन रखा था कि वे खूब ही होशियार और चलते-पुर्जे हैं। मैंने देखा कि वे निराश-से हो रहे हैं। लेकिन इससे क्या? आखिर उसी 29 फरवरी को ही तो मिल कर फैसला करने का निश्चय हुआ। तब तक मंत्री जी को हुक्म हुआ कि समझौते की शर्ते छपवा कर बाँटें। उन्हीं के साथ 29वीं की मीटिंग की सूचना भी हो। यह भी आदेश रहे कि लोग अपने-अपने इलाकों में सभाएँ कर के किसानों को ये शर्ते समझाएँ और उनकी राय ले कर आयें। खूब आंदोलन और प्रचार हो यह बात भी तय पाई। ये शर्ते छपीं और बँटीं भी।

मगर अब जो सबसे बड़ी दिक्कत पेश आई वह यह कि ये शर्ते किसके दरम्यान तय पाईं और इनमें पार्टी कौन-कौन हुए। यह प्रश्न उठना जरूरी था। मैं तो चाहता ही था कि सब बातों की सफाई हो। इसीलिए तो मौका लिया गया। मगर यहाँ तो तबेले में लतियाहुज शुरू हो गई। पता ही नहीं चलता था कि कब और किसके दरम्यान ये शर्ते तय पाई थीं। यह भी नहीं पता चला कि आया यही शर्ते थीं या कि कुछ और। यह भी नहीं मालूम हुआ कि कभी ये या और शर्ते दो पार्टियों के बीच किसी कागज पर लिखकर उस पर उन दोनों के हस्ताक्षर भी हुए थे। यहाँ तक नौबत पहुँची कि कुछ शर्तों के बारे में गुरुसहाय बाबू का कहना कुछ था और चंद्रेश्वर बाबू का कुछ दूसरा ही। यही नहीं,जमींदारों की तरफ से भी इन शर्तों के विभिन्न रूप छपे और अंत में मैंने देखा कि तथाकथित समझौते की शर्तों के तीन स्वरूप लोगों के सामने समय-समय पर आए जिनमें एक दूसरे में कुछ-न-कुछ अंतर जरूर था। बात यह थी कि यों ही जबानी गोलमटोल बातें कर के जमींदार लोग किसानों को ठगना चाहते थे। उधर जो लोग किसानों की तरफ से बोलने का दम भरते थे उन्हें न तो इसकी तमीज थी और न परवाह। उन्हें तो अपना मतलब अलग ही साधाना था। जमींदारों की अक्ल के सामने वह टिक भी नहीं सकते। फलत:,आसानी से चकमे में आ गए।

खैर,सभा का काम तो इस प्रकार पूरा हुआ और मेरा जो मतलब था वह सिध्द हो गया। डॉ. युगलकिशोर सिंह जिस मतलब से मुझे लेने बिहटा गए थे वह सोलहों आना पूरा हुआ। साथ ही जिन लोगों ने अपना मतलब गाँठने के लिए यह कुचक्र रचा था वे भग्न मनोरथ भी हो गए। उनके दिल पर क्या गुजरती थी इसका पता गैरों को क्या हो सकता था?लेकिन अभी कुछ होना बाकी था और वह भी पूरा हो के रहा।

अब तक हममें किसे पता था कि बिहार लैंडहोल्डर्स असोसियेशन के कर्णधारों के पैसे से ही यह किसान-सभा बुलाई गई थी और यही किसानों के भाग्य का निपटारा टेनेन्सी कानून के पेचीदे मामले में करनेवाली थी। सो चलते-चलाते उसका भी भंडाफोड़ होई गया। बात यों हुई कि यारों ने सोचा,शिष्टाचार के अनुसार कुछ लोगों को धन्यवाद तो दे लें। इसलिए विसर्जन होने के पूर्व धन्यवाद दान चला और याद नहीं कि किसे-किसे धन्यवाद दिएगए। मगर आखिर में देवकी बाबू ने कहा कि सिन्हा साहब (श्री सच्चिदानंद सिन्हा) को भी धन्यवाद दिया जाय। मैंने कहा, किसान-सभा को उन्हें धन्यवाद देने से क्या ताल्लुक?उन्होंने पुनरपि हठ किया कि नहीं,धन्यवाद तो देना ही चाहिए उन्हें भी। मैंने साफ कहा कि यह अनुचित है। तब हारकर चुपके से उनने मुझसे कह दिया कि उन्होंने सभा के काम के लिए रुपए जो दिए थे। इस पर मैंने धीरे से उनसे कह दिया कि तब तो और भी बुरा होगा,यदि आपने उनका नाम लिया। क्योंकि लोग समझ जाएगे कि आपकी यह सभा जमींदारों के ही पैसे से बनी है। इस पर चुप हो गए और सभा विसर्जन हुई।

इसी दरम्यान तथाकथित समझौते के आधार पर एक टेनेन्सी बिल तैयार कर के श्री रायबहादुर श्यामनंदन सहाय ने जमींदारों की तरफ से कौंसिल में पेश भी कर दिया था। उसका अधिवेशन चालू था। और खासतौर से बाबू शिवशंकर झा वकील (मधुबनी, दरभंगा) इसके समर्थन के लिए किसानों के प्रतिनिधि के नाम में जमींदारों के ही द्वारा नामजद भी करवाएगए थे। बाबू गुरुसहाय लाल ने जो कमजोरी हमारी सभा में उस दिन दिखाई उसके करते जमींदारों ने उन्हें पहले नामजद नहीं कराया। मगर पीछे मालूम होता है,भीतर-ही-भीतर उनने भी दरबारदारी की। अत: आखिर में वह भी नामजद किएगए। उस सभा के बाद एक दिन वह मेरे पास बिहटा आश्रम में भी आए और पूछने लगे कि क्या करना चाहिए। मैंने कहा कि आप तो हमारे आदमी हैं। इसलिए युनाइटेड पार्टी में हर्गिज शामिल न हों। नहीं तो बुरा होगा। उन्होंने कहा,मैं ऐसा कभी कर नहीं सकता। वहीं पहली बार मैंने उनसे कहा कि आपका और सर गणेश का चुनाव क्षेत्र एक ही है और मैं चाहता हूँ कि उनके मुकाबले में आप आगामी चुनाव में जीतें, मैं आपको जिताऊँ। इसीलिए आपको सजग किए देता हूँ। इसके बाद वह चले गए।

उसके उपरांत समझौते के नाम पर जो शर्ते छपीं और बँटीं उनका जिक्र पहले ही कर चुका हूँ। याद रहे,सत्याग्रह जारी था और धरपकड़ चलती ही थी। फिर भी मैंने सारी शक्ति लगाकर उस समझौते का भंडाफोड़ किया। प्रांत में जगह-जगह सभाएँ कीं। इधर देखा कि जमींदार के दलाल भी काफी मुस्तैद थे। कभी-कभी अखबारों में पढ़ते थे कि पूर्णिया तथा और जगहों में किसान-सभाओं के नाम से उस समझौते के समर्थन हो रहे हैं। ऐसी सभाओं की खबर कई बार पढ़ी और चौंके भी। उधर बाबू गुरुसहाय लाल भी धीरे-धीरे जमींदारों की गोद में चले गए, मगर चुपके से। क्योंकि प्रत्यक्ष होने पर कहीं के न रहते। फिर तो उनकी कोशिश होने लगी कि प्रांतीय किसान-सभा मीटिंग में उस समझौते का समर्थन हो जाय। इसीलिए अपने साथियों को तैयार किया कि उस दिन सबको जमा करो और ज्यादा किसान लाओ जो पक्ष में वोट दें। इससे दूसरे लोग घबराए। एक दिन बाबू बलदेव सहाय,वकील शाम को बिहटा तक पहुँचे भी यही खबर लेने कि ऐसा न हो कि मैं हार जाऊँ। उन दिनों बाबू विनोदानंद झा प्रांतीय कांग्रेस के डिक्टेटर थे। उनका संदेशा भी मिला कि चाहें तो कुछ खास मदद की तैयारी की जाय। मैंने सबों को धन्यवाद दिया और निश्चिंत रहने को कहा। हाँ,सभी जिलों में प्रचार हो जाय और समझदार लोग आ जाए, यही बात कर देने को मैंने कहा। फिर वे चले गए।

ठीक समय और तारीख पर मीटिंग हुई। जोश बहुत था। उधर तैयारी थी कि आज जीतना है चाहे जैसे हो। इसीलिए गुरुसहाय बाबू के दोस्त नौजवान वकील लोग बहुत गर्म हो रहे थे और मुस्तैदी दिखा रहे थे। 5-6 घंटे तक झमेला और वाद-विवाद होता रहा। बड़ी तनातनी थी। आखिर में मजबूर होकर गुरुसहाय बाबू को मेरी यह दलील माननी पड़ी कि यों जब चाहें जिस किसी को यों ही खड़ा कर के जमींदार इसी तरह समझौते का ढोंग रच सकते हैं। यही समझौता उनके लिए पक्का दृष्टांत हो जायगा। और इस तरह वे किसानों को तबाह करते रहेंगे। इसलिए आज इस समझौते के गुण-दोष को न देख इस सिध्दांत के आधार पर ही इसका विरोध होना चाहिए। इसीलिए मैंने कहा कि जमींदार लोग फिलहाल इसे रद्द करें। फिर फौरन बाकायदा किसान-सभा से समझौता करें। उसमें आप ही हमारे प्रतिनिधि रह सकते हैं। हमें उज्र न होगा। आज तो इसका समर्थन करना किसानों के लिए भविष्य में भारी खतरा तैयार करना होगा। बस, वे चुप रहे। करते भी क्या?वोट लेने पर भी जब हारने का लक्षण उन्होंने देखा तो यही बात मान ली।

फिर जो प्रस्ताव पास हुआ उसमें साफ लिखा गया कि किसान-सभा सिध्दांत की दृष्टि से इस समझौते को गलत समझ इसका घोर विरोध करती है और सरकार से माँग पेश करती है कि इसके आधार पर टेनेन्सी बिल को रोक दे। गुरुसहाय बाबू को सभा के मंत्री की हैसियत से कौंसिल में इस बिल के विरोध करने का आदेश दिया गया। पर सरकार यदि न माने और बिल पर विचार होने ही लगे तो उन्हें इस्तीफा देने की आज्ञा दी गई। एक ही प्रस्ताव में यह सभी बातें लिखी गईं और अंत में यह भी कहा गया कि श्री शिवशंकर झा किसानों के प्रतिनिधि नहीं हैं।

अगले ही दिन कौंसिल में बिल पेश होने को था और उससे पहले यह प्रस्ताव सरकार को और सभी मेंबरों को मिल जाना चाहिए था। इधर रात के नौ बजे थे। और प्रेस बंद थे। फिर राय हुई कि रातोंरात किसी प्रेस में छपवाने की कोशिश हो। एक पत्र(Covering letter) के साथ ही यह प्रस्ताव अंग्रेजी में छपे और तड़के मैं बिहटा से आ के सभापति की हैसियत से पत्र पर हस्ताक्षर करूँ। उसके बाद फौरन ही कौंसिल में इसे पहुँचाया जाय। यही हुआ। रात में मैं बिहटा गया। वहाँ से सवेरे ही आकर पत्र पर हस्ताक्षर किया। मगर करते-कराते देर हो गई।

फिर जब स्वयं एक आदमी के साथ कौंसिल भवन में गया तो उसका काम शुरू हो चुका था। इसलिए मेंबरों को साक्षात देना असंभव समझ उसके सभापति के द्वारा बँटवाने का प्रबंध किया गया। तब तक तो सनसनी मची ही थी और सभी जान रहे थे। सभापति थे बाबू निरसू नारायण सिंह। उन्होंने उसे मेंबरों को दिया ही नहीं। कौंसिल के बीच में स्थगित होने पर बाहर इसके लिए मुझसे उन्होंने यह कह के क्षमा माँगी कि कौंसिल के एक मेंबर पर (उनका अभिप्राय श्री शिवशंकर झा से था) इस प्रस्ताव में आक्षेप होने के कारण मैं इसे बँटवा न सका। यह जान कर मुझे गुस्सा आया और सोचा कि जब यह हजरत अगले चुनाव में खड़े होंगे तो देखूँगा कि कैसे चुने जाते हैं। मगर संयोग ऐसा हुआ कि उसके बाद वे गवर्नर की कार्यकारिणी के सदस्य बन गए। इससे खड़े ही न हुए। उस सदस्यता से हटने पर तो वह चुनाव से अलग ही हो गए।

कौंसिल भवन में ही मैं श्री गुरु सहाय बाबू से मिला और पूछा कि आप तो ठीक हैं न? रात में जो तय हुआ उसी के अनुसार चलेंगे न? क्योंकि उन्होंने पहले ही कह दिया था कि सरकार न मानेगी और बिल पर विचार जरूर ही होगा। इसलिए मैंने उनसे पूछा कि इस्तीफा देंगे न? इस पर वे कुछ बिगड़कर बोलने लगे। मैंने उनका रंग बदरंग देखा। फिर तो साफ कहा कि आप बिगड़ते किस पर हैं? आप ही ने सभा की। आप उसके मंत्री हैं। सर्वसम्मति से गत रात्रि में ही प्रस्ताव पास हुआ। आपने उसे माना और इस्तीफे का वचन भी दिया। अब बिगड़ने की क्या बात है? सभा का प्रस्ताव और सबके सामने दिया हुआ अपना वचन इन दोनों को ही तोड़ कर कहाँ रहिएगा? आप ही खत्म होइएगा। मैं तो आप ही के लिए यह कह रहा हूँ। मगर उलटे आप बिगड़ रहे हैं?मुझे क्या? मैं जाता हूँ। आपकी जो मर्जी हो कीजिए।

बस,इसके बाद मैं हट गया और वह कौंसिल में चले गए। मुझे पता चल गया कि सभा के बाद जमींदारों से उनकी भेंट हुई और इन्हें समझाया गया कि सभा में तो आपने भूल की। स्वामी ने आपको फिर ठग लिया,अब अगर विरोध करेंगे या इस्तीफा देंगे तो ठीक न होगा। असल में किसानों के नाम से समझौते के कर्ता-धर्ता तो वही हजरत बने ही थे। हालाँकि,छिपाते चलते थे?इसलिए जमींदारों के सामने उसका विरोध या उससे इनकार करने की उनमें हिम्मत कहाँ थी?इसीलिए उसका समर्थन किया और कहीं के न रहे?

उसी दिन वहीं राजा,सूर्यपूरा से बहुत कुछ बातें हो गईं। वे तो बहुत ही चतुर और व्यवहारकुशल आदमी हैं। इसलिए उन्होंने चाहा कि बाबा गुरु सहाय लाल की ही तरह मुझे भी अपने चंगुल में फँसा लें। जहाँ तक याद है,वही युनाइटेड पार्टी के मंत्री थे। मगर उस पार्टी और जमींदारों की सभा (लैंड होल्डर्स असोसिएशन) में दरअसल कोई फर्क न था। कहने मात्रा के ही लिए दो संस्थाएँ और दो नाम थे। बेशक,युनाइटेड पार्टी में कुछ ऐसे लोगों के भी नाम थे जो जमींदार न थे और कहने के लिए किसानों का प्रतिनिधित्व करते थे। मगर यह सब काम चलाने के तरीके थे। इसीलिए वह बिल उस पार्टी की ही तरफ से,कहने के लिए पेश किया गया था।

हाँ,तो बातचीत में राजा साहब ने कहा कि ये किसान-जमींदार झगड़े कब तक चलाइएगा?क्या ये खत्म नहीं किए जा सकते?मैंने कहा,मैं तो एक क्षण भी इन्हें चलने देना नहीं चाहता। इससे तो किसानों की हानि ज्यादा है। आप लोग तो बड़े हैं,धानी हैं। इसलिए हानियों को बर्दाश्त कर सकते हैं,कर लेते हैं। मगर किसान तो तबाह हो जाते हैं। कारण,वे गरीब जो ठहरे। इस पर वे बहुत खुश हुए और बोले कि तो फिर यह झगड़ा आखिर मिटेगा कैसे?मैंने कहा, आप युनाइटेड पार्टी या जमींदार सभा की तरफ से पाँच आदमी चुन दें और हम किसान-सभा की ओर से। उन्हें पूरा अधिकार हो कि जो कुछ तय कर लें हम दोनों दलवाले उसे ही मान लें। यह सुनकर कम-से-कम ऊपर से तो वह खुश ही हुए और बोले कि हाँ,कुछ तो होना ही चाहिए। मैंने कहा कि मेरा तो यह प्रस्ताव ही है। क्या आप इसे स्वीकार करते हैं?उन्होंने कहा,सोचकर जवाब दूँगा। मैंने कहा,अच्छा। उन्होंने उसी दिन रेल में या पटना स्टेशन पर उत्तर देने को कहा, जब मैंने उत्तर की अवधि पूछी। स्टेशन पर वे मिले भी और उसी ट्रेन से आरा गए, जिससे मैं बिहटा गया। दानापुर में उनने मुझसे कहा कि महाराजा दरभंगा से पूछकर मैं लिखूँगा।

इसके बाद तो मैंने उन्हें कितने ही पत्र लिखे कि क्या आपने महाराजा से पूछा? और अगर हाँ तो क्या तय पाया? पहले तो वे अब मिलूँगा,तब मिलूँगा करते रहे। लेकिन मैं कब छोड़नेवाला था। सन 1933 ई. की गर्मियों में जब वे नैनीताल थे,मेरा पत्र वहीं उन्हें मिला था जो सूर्यपुरा भेजा गया था। उन्होंने वहाँ से आने पर महाराजा से मिलने की बात लिखी। उसके बाद मैंने अखबारों में पढ़ा कि वे वहाँ से लौटे और महाराजा के ही पास दरभंगा गए भी। मगर कोई पत्र नहीं लिखा। मैंने कुछ दिन और प्रतीक्षा कर के आखिरी पत्र उन्हें लिख दिया कि शायद आप लोग किसान-सभा के सभापति से पत्रव्यवहार करना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। इसीलिए तो वचन दे-देकर भी न तो उत्तर देते और न साफ बातें लिखते हैं। आखिर, नहीं या हाँ लिखने में क्या लगा है? यह तो मामूली शिष्टाचार मात्र है। इससे तो मैं अब यह भी मानने को विवश हूँ कि मेरा प्रस्ताव आप लोगों को स्वीकृत नहीं। इसीलिए अब और पत्र आपको न लिखूँगा।

हमारी और उनकी इस संबंध की लिखा-पढ़ी की फाइलें मेरे पास सुरक्षित हैं। किसान-सभा के विस्तृत इतिहास में उन्हें स्थान दिया जायगा, या कभी जरूरत होने पर प्रकाशित की जाएगी। इस आखिरी पत्र की स्वीकृति तक उनने न भेजी।

असल बात तो यह थी कि वह मुझे व्यक्तिगत रूप से बातचीत में फाँसकर अपना काम निकाल लेना चाहते थे, जैसा कि जमींदार लोग तब तक बराबर करते आए थे। इसीलिए चर्चा उनने छेड़ी भी थी। मगर मैं तो इस चकमे में फँसनेवाला था नहीं। मेरी व्यक्तिगत हैसियत थी भी और आज भी क्या है, सिवा एक घर-बारहीन भिक्षुक के? फिर उस हैसियत से मैं सोचता भी कैसे? और बिहार प्रांतीय किसान-सभा को जब तक धोखा देना नहीं चाहता तब तक सिवाय सभापति की हैंसियत के दूसरे रूप में बात भी कैसे कर सकता था? मेरी दृष्टि में तो केवल सभा ही थी और अगर मैं कुछ भी था या अगर मुझे उन्होंने पूछा भी तो उसी के करते। ऐसी हालत में मैं उसे ही कैसे भूल जाता? उन लोगों का ऐसा सोचना ही भूल थी। मगर वह तो इस चाल में पहले सफल हो चुके थे। इसीलिए इस बार भी वही चाल चली गई। पर उन्हें पता क्या था कि पहले की सभाएँ नकली और धोखे की थीं और यह असली है? साथ ही, वे यह न समझ सके कि इस बार निराले आदमी से काम पड़ा है जो घर-बार, और यहाँ तक कि भगवान के ढूँढ़ने का पुराना तरीका भी छोड़ के इस काम में पड़ा है। इसीलिए, इस बार उन्हें ही धोखा हुआ और मुँह की खानी पड़ी। लेकिन,हमेशा के लिए यह चाल तभी से खत्म भी हो गई