नाचीज़ उसी शहर की गली है, जहाँ फुक्कन बाबू की प्रेमिका रहती है / शैवाल

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शहर बहुत छोटा है... इस कदर छोटा कि कौनी भरी एक मुट्ठी में तब्दील हो जाये। एक चौक, एक बाजार, एक स्टेशन, एक बस स्टैंड, दो मुख्य सड़कें और तीन आंत की तरह पसरी गलियां। लोग-बाग भी वस पिद्दी से... जिन पर एक अदद कवर स्टोरी भी नहीं लिखी जा सकती। तीन राष्ट्रभाषा परिषद का पुरस्कार लेकर ही मरेंगे। दो मिनिस्टर बनने का इंतजार करते मर गए। पांच कब्र में पड़े गर्दन हिला रहे हैं कि शादय कोई पामेला बोर्डेम की बची-खुची शोहरत ही घर में ले आए। सात ऐसे लोग जीवित हैं जिन्होंने महात्मा गां द्वारा कटोरे में छोड़ा हुआ बकरी का दूध पिया था लेकिन अब उनकी हालत ऐसी है कि बतौर जूठन अमृत भी छोड़ दें तो कोई न पिये। शेष बचे दो मशहूर कोठागामी, चार शोहदे, आठ पहलवान और दस फालतू चमचे । फुक्कन बाबू को इनके बीच गिनना ठीक नहीं। उनकी जिंदगी कुछ ऐसी है, जैसे किसी फटे हुए थेले में चार आने का लाल साग ! यानी नामचीन लोगों में उन्हें गिनने की कोई वजह नहीं। बेतरतीब दाढ़ी-बाल, फल-फल पाजामा और चूं- चूं के बोल निकालती साइकिल - कुल मिलाकर यही हैं फुक्कन बाबू। और यही उनके बारे में गौर करने लायक बात है। क्योंकि दुनिया में दो तरह की शख्सियतें होती हैं- एक का खास चेहरा होता है, जो अमूमन फोटो बनकर किताब, अखवार या वृत्तचित्र में दिखाई देता है। दूसरी शख्सियत बेशक्ल होती है, या हर आम शक्ल उसकी तरह दिखती है। गोकि शक्ल न हुआ, दो आने का फुटका हो गया या मुंगफली, जिसे कड़की, मैच, हर्ष-विषाद यानी सारी स्थितियों में एक समभाव के साथ खाया जा सके। पेशे की शक्ल में एक अदद नोकरी। बतौर डर घर में अदद बीबी। बतौर मोह- दो बच्ची और एक बच्चा। बतौर शौक बीड़ी, वतीर उपलब्धि 'खूनी खंजर', 'बागी हसीना' और 'शहरा की हूर' नामक फिल्मों में फिरदौस उपनाम से गीत लेखन। तीन फिल्मों तक म्यूजिक डायरेक्टर अदब शाह उन्हें आदाव करता रहा

लेकिन चौथी फिल्म में कहने लगा कि नाम तो मेरा जायेगा, असिस्टेंट शायर कहलाना चाहो तो पैसे छोड़ने पड़ेंगे। वह किलेदार हो गया और फुक्कन वावू वापस लौट आये। अब तो यह बात पुरानी हो गयी जैसे वह मशहूर वाक्य 'लांग- लांग एगो देयर बाज ए किंग' । फिलवक्त किसी को बताइये कि यही है मशहूर गीत के शायर तो वह आपको आड़े हाथों लेगा, "मियां! झूठ बोलने को कोई और नहीं मिला। फिल्म के लोग ऐसे ही होते हैं।" सही में नहीं होते। और हो गये होते, तो फुक्कन बाबू नहीं रहते, जिसे सुबह-सुबह हाथ में झाडू पकड़ाकर वीवी डांट लगाती है, "बड़ा नाम है क्या तो... चौराहे पर खड़े हो जाओ, तो कोई भीख भी न दे!" मौला बचाये ऐसे नाम से, जो भीख मांगने के लिये कमाया गया हो। फुक्कन बाबू की फितरत ऐसी नहीं। कोई कहता है कि यार, क्यों इस गदही की दुम्मी जैसे शहर में अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे हो...तो फुक्कन बाबू मुस्कुराकर कहते हैं, "साहेब ! मिट्टी में फना होना ही असल में फन है... मिट्टी को बर्बाद करना नहीं।" सुना बम्बई से बाद में भी कई लोग आये और लोहबान-धूप जलाकर हाथ जोड़ गये, "उस्ताद! हमें भी कुछ बना दो।" तिसपर फुक्कन बाबू ने कहा, "मियां! किस चक्कर में पड़े हो? इस जमाने में मिट्टी के ही बने रहो तो वहुत है।" यह मिट्टीवाला फलसफा कुछ लोगों के गले नहीं उत्तरता। पत्नी ने एक दिन सुना तो सीधा छाती ठोककर कहा, "कल मिलता है तो आज मिल जाये मिट्टी में! कौन सुख के वास्ते मर्दवाली कहलाऊं!" फुक्कन बाबू ने धूप में स्याह होकर वर्तन मांजते हुए पत्नी से कहा, "हटो न, वर्तन धो दूँ!" तिसपर पत्नी ने जवाब दिया, "शहंशाह की औलाद ! जा, चुल्लू भर पानी लेके अपने करम धो ले।" करम कोई कटोरा तो था नहीं, लिहाजा फुक्कन वावू अपना-सा मुँह लिये ओसारे में बैठ गये। पाँच पैसे आयें, इस हिसाब से कभी काम ही नहीं किया। कभी मुशायरे में नहीं गये। एकाध बार चले गये हों, तो उसकी वात अलग है। हर वार एक ही बात कहते हैं, "मंच पर जाना जरूरी है तो पैसे लेकर क्यों! और फुटपाथ से बड़ा मंच कौन सा है?" अफसर- अफसरान के यहाँ से बुलावा आता है। लेकिन इस फटेहाल किस्म से जाते हैं और ऐसी- ऐसी हरकतें करते हैं कि दुबारा कोई नहीं

बुलाता। कहता है, "अदब का मतलब है शऊर... कायदा-करीना... यह नहीं कि नंगे बदन घूमते चलो सोसाइटी में!" फुक्कन बाबू हँसकर कहते हैं, "इन्हें केवड़ा अगरवत्ती बेचनेवाला सेल्समेन चाहिए... सजा-धजा आदमी, जिसको माध्यम बनाकर अदव की सौदागरी हो सके !" तो फिर फिल्मों में क्यों गये थे थे? लोग सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं। " मेरा एक एक शेर उठाकर देख लो, उसमें कहीं भी नंगापन नहीं... चाहे फिल्म में भरा पड़ा हो... मैंने जिन्दगी की बात की, मंच मिला तो उसका उपयोग किया। 'शहरा की हुर' का वह शेर याद है- पत्तियाँ बीनले ये उम्र गुजर जायेगी/शाख पूछेगी मियां, तेरा ठिकाना क्या है? बोलो, कहाँ है विकाऊपन इसमें?" अदब शाह से उन्हें कोई दुश्मनी नहीं, हालांकि पैसे-वैसे भी नहीं दिए उसने। लेकिन फुक्कन बाबू बाजवक्त उसे शुभकामनापत्र भेजते हैं। अदब शाह ने फिर कभी खत नहीं लिखा उन्हें। किसी हिरोइन से शादी की। प्रोड्यूसर बना, फिर डायरेक्टर, फिर एक साथ राइटर, डायरेक्टर, सिनेमेटोग्राफर, एडीटर सब कुछ बन गया। हाँ, सारे विभाग के लिए एक-एक असिस्टेंट जरूर रख लिया। उसकी पिछली फिल्म पर फुक्कन बाबू ने गरमा-गरम समीक्षा लिखी थी और पूरी फिल्म की ऐसी-तैसी करके रख दी। यह दूसरी बात है कि फिल्म जब रिलीज होने वाली थी तो उन्होंने ताबड़तोड़ एक खत भेजा था, "ईश्वर आपको बह दे, जो आप चाहते हैं। यही कामना है।" यह दोतरफा आचरण क्यों? जबाव में फुक्कन बाबू कहते हैं, "व्यक्तिगत प्रेम और सामाजिक उत्तरदायित्व अलग-अलग चीजें हैं। एक उसूलवाले आदमी को दोनों का निर्वाह करना चाहिए। मैंने उसके साथ कभी सुख-दुख बांटे थे, उसके लिए वैसे ही प्रार्थना की थी जैसे पांघों के बड़ा होने के लिए किसान करता है। यह दूसरी बात है कि वह उस रास्ते नहीं गया, जिस रास्ते उसे जाना चाहिए था। और इस कारण वह समाज का दोषी है। समाज की तरफ से मैंने उसका विरोध किया और दोस्त के नाते उसकी सफलता की कामना की।" मामला टेढ़ा है। फुक्कन बाबू के अंदर क्या है, दरिया है या पत्थर का शहर- नामालूम है यह सब। इस शहर में उनका कोई संगी साथी नहीं। लेकिन हर

सामाजिक मामले, नुक्ते या प्रसंग को वे घुसकर देखते हैं। उनका देखना भी इस तरह का होता है कि उन्हें कोई नहीं देखता। उनके शामिल होने को भांप लेना भी मुश्किल बात है। वे कहते हैं, "एक हुजूम की नजर से किसी मसले को देखना पूर्वाग्रह भरा होता है, एक हुजूम के साथ शामिल होना भी भेड़चाल है।" बहरहाल उन्हें एक जगह बराबर देखा जाता है, हकीम लुकमान अली के यहाँ। उनकी तीसरी वेगम शायरा है। दोनों फुक्कन बाबू को इज्जत देते हैं। यह दूसरी बात है कि उनके नाम का इस्तेमाल भी वे करते हैं कि "फलां ग्रेट शायर मेरे यहाँ आते हैं... आइये, आज मिलवा दूंगा।" लोग सोचते हैं कि यहीं तो फुक्कन बाबू के उसूल घरे के घरे रह गए। वह बेईमान जो गुलावजल की जगह इत्र का पानी देता है और दवा की जगह हल्दी का चूरन, आखिर उसमें खसूसियत है कि उनके नाम का इस्तेमाल कर ले रहा है। और भी कई तरह की बेईमानियों में शामिल रहता है वह। वेगम शायरा तो भला क्या होंगी लेकिन फुक्कन मियां ने एक कप चाय और विस्कुट के चक्कर में पूरा दीवान लिख दिया उसके लिए। इसी साल वेगम को उत्तर प्रदेश की किसी संस्था ने दस हजार का इनाम दिया है। इनाम की खबर मिलने के साथ फुक्कन वावू गुम हो गये। दो-तीन महीने वहाँ नहीं गये। फिर आप-व-आप शुरू भी हो गये, और आना-जाना अव बदस्तूर कायम है। इस मामले में वे कहते हैं, कहीं-न-कहीं एक शरण्य जरूर होता है, जो तुम्हें टूटने के वक्त आश्रय देता है, तुम्हारे जख्मों पर लेप लगाकर जीने लायक बना देता है... वहाँ तुम एक बच्चे की तरह हो, और इसी हिसाब से तुम्हारा आचरण भी होना चाहिए।" वेगम को कोई संतान नहीं है। बेगम फैली हुई देहवाला एक रेगिस्तानी किस्सा है। इस किस्से को फुक्कन बाबू की जिंदगी से जोड़ने की कई कोशिशें हुई हैं। लेकिन फुक्कन वावू जैसे फट पड़ते हे यह सब सुनकर, "कोई नवावी दरबार का शायर नहीं हूँ मैं... चार आनेवाली लाल साग जैसी जिंदगी रखता हूँ... मेरे रूहानी एप्रोच तक पहुँचने की कोशिश करो... मैं चाहता हूँ कि बेगम अपने पैरों पर खड़ी हो जाये, उस कसाई हकीम के आसरे पर नहीं रहे... कल को कुछ हो- हवा जाये, तो अपनी जिंदगी को खुद बचा सके वह!"

यह रूहानी एप्रोच है या एकतरफा प्रेम-प्रसंग, कोई घुसकर नहीं देख पायेगा। लेकिन जहाँ किसी को घुसकर देखने की जरूरत नहीं हुई, वह तो एक खालिस और बेलाग प्रेम- प्रसंग था, जिसमें पहल उस औरत की तरफ से हुई थी और फुक्कन बाबू के लिये यह शहर रातोंरात सपनों की राजधानी बन गया था। शहर की बीरान पड़ी गलियों ने एकबारगी करवट लेकर कहा था, 'आइये आइये, मेहरबान ! नाचीज उसी शहर की गली है, जहाँ फुक्कन बाबू की प्रेमिका रहती है...' राजा-महाराजाओं का यह किस्सा नहीं, सो 'ईस्वी सन्' बताने की जरूरत नहीं। युद्ध और समझौतों का बयान नहीं, इसलिए हल्दीघाटी या पानीपत जैसी किसी जगह का नाम बताना भी बेजा हरकत है। बहरहाल आपके समझने भर की बात इतनी सी है कि जिस गली ने ऐसी हांक लगायी, आप मान लीजिए कि ऐन वही किस्सा है यह। मौसम का नाम बताना जरूरी है, ताकि पता लगे कि हमारी किस्मत में बहार का आना कब से शुरू होता है। तो साहिब, जेठ की बेहद तपिश भरी दोपहर थी वह, जिस दिन यह किस्सा शुरू हुआ था। फुक्कन बाबू तीन मील से ताबड़तोड़ साइकिल चलाकर आ रहे थे। हलक सुख रहा था। सिर जैसे तवे की तरह जल रहा था। तलुवे शेषनाग के फन की तरह तनतना रहे थे। सांसें लुहार की धौंकनी की तरह फूं-फूं कर रही थीं और दिल अशआरों के मरहले पर पहुँचने के लिए बेताब हुआ जा रहा था, "साए-साए, शव के साए... चुपके-चुपके आना ! गश्त लगातीं यादें साहिब, चुपके- चुपके आना ! इससे पहले कि ख्वाबोखयाल की दुनिया एक जली हुई रोटी की शक्ल ले बैठती, फुक्कन बाबू रुक गये। साइकिल एक स्कूल के अहाते के सामने रोकी। फिर फाटक खोलकर अंदर गये। हैंडपंप चलाकर हाथ मुंह धोया। पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठ गये। आँखें मूंदकर प्रकृतिस्थ होने की कोशिश करने लगे। उसके पलभर बाद ही ऐसा हुआ, कि किसी छांहदार साए ने आवाज की शक्ल अख्तियार कर ली। आदाब किया, पूछा, "पड़ाव पर हैं?" "नहीं, मुकम्मिल जिंदगी के लिए सफर में हूँ।

"और एक पुरसकून मरहला मिले तो यहाँ से उठेंगे?" फुक्कन बाबू ने आँखें खोलकर देखा। आवाज एक तराशे हुए जिस्म में तब्दील हो गयी थी। कंदील जैसी आंखें ह्वाइट मार्बल से बने आले पर हवाओं का हाल अहवाल ले रही थीं। अशआर गश खा गये। कदमों ने खुद-ब-खुद फैसला सुना दिया और पूछा, "कहाँ तक चलना है?" कंदील हवाओं पर तैरने लगे। पीछे-पीछे साइकिल का पहिया अशआर की पगडंडियों पर चला। पगडंडियों ने धूप की नब्ज देखी और थर्मामीटर फूट गया। चंद लमहों के बाद ठंडें कमरे में बीड़ी का धुआं मिसरे के ओठों से लगा था, संगमरमर की मूरत ट्रे में शरबत लेकर सामने खड़ी थी और गजल का फकीर किसी पुरपेंच गलियारे में अपने घर का पता पूछता फिर रहा था, "कमरे में एक जिस्म का पत्थर ख्वाह की बोली बोले, इश्क की रेती लेके, साहिब, चुपके-चुपके आना!" लेकिन धुएं ने अनसुना कर दिया। शरबत हलक में अटक गया। औरत ने धीरे से फुक्कन बाबू की पीठ सहलायी। कानों के पास मुंह ले जाकर सवाल दागा, "शाखों ने पूछ ली क्यों ठिकाने की बात साहिब... क्या जानता नहीं वह, दिल का ठिकाना दिल है!" फुक्कन बाबू को लगा कि दिल को थामा नहीं गया तो वह शिमले की जगह होनोलूलू पहुँच जाएगा। और पता नहीं, वहाँ से लीटने के लिए टिकट के पैसे भी जेब में होंगे या नहीं। इसलिए चंद लमहों के बाद ही ओठों पर शरबती चीजों की जगह बीड़ी को बसा दिया और सिर को सूरज हलवाई के चूल्हे पर बतौर तवा हाजिर कर दिया.... या खुद झाड़पुर के लिए बिदा हो गये ! जैसा कि पहले ही जिक्र किया जा चुका है, झाड़पुर में एक अबाबील रहती थी। उसकी सीरत पुटुस के फूलों जैसी थी। सूरत में एक तेजी थी, जैसे कीचड़ में जमा दो चुल्लू पानी में सूरज की सुनहली धूप तैर रही थी। आव कायम थी, लेकिन वह पसीने से लिथड़ी हुई होती थी। खूबसूरती थी, लेकिन वह मलबे में

दबे मखमल की तरह थी। उसके पैर बदसूरत थे। क्योंकि दस सालों से लगातार नंगे चलते रहे थे धूल-कीचड़ में। बहरहाल पैरों के साथ एक रूहानी मकसद जुड़ा था। यह मुहब्बत की तपिश थी जिसने बिवाइयों की शक्ल अख्तियार कर ली थी। खैर थी कि वह पैरों में पैदा हुई थी।

फुक्कन बाबू की बेगम एक बड़े और खानदानी घर से आयी थीं। श्वसुर अपने जमाने के मशहूर कोतवाल थे। लेकिन जिस वक्त बेगम का व्याह हो रहा था, श्वसुर की आंखों में फफोले पड़ गए थे। जो फुक्कन बाबू जैसे फक्कड़ पर अटक कर रह गयी। बेगम का कहना सही है, वरना उनकी क्या औकात थी जो ऐसी मशहूर हवेली की दहलीज पर पैर भी रख लेते। हवेली की चिड़िया इस दियासलाई जैसे घर में कैद हो गयी और पंख झर गये उसके। सो बच्चे पर बिगड़ने का हक है उसका । तैश में अंट-शंट बकती है, रोती है। फिर चेहरा गिराए 'बच्चे' पर फहार की तरह बरस जाते हैं आंसू "देखो, पाजामा बांधने का शऊर भी नहीं इसे.... कहाँ उतरकर पहुंच गया है। मैं नहीं होती तो जाने नंगे बदन ही घूमता।" वाजिब बात है, फुक्कन बाबू के बदन पर पड़े एक दोगजवाले कपड़े की तरह हैं बेगम। जिस दिन यह कपड़ा फटा, घर नंगा हो जाएगा, फुक्कन क्या चीज है। हजार-दो- हजार की नौकरी से क्या कर लेते वह। घर चला लेते वह या बच्चों को पढ़ा लेते, लेकिन सारे काम एक साथ कैसे निपटा लेते। आश्चर्य होता है उन्हें, कि यह औरत क्या-क्या कर लेती है। कुदाल मारकर धरती को बेहाल कर देती है, और उसकी छाती पर फटी जेब से हरी सब्जियां, मक्की के दाने, पपीते, अमरूद और चांदनी के दो चार फूल भी झटक लेती है। छत मुंह विदोड़ती है तो दीवाल पर चढ़कर वहाँ पहुंच जाती है, मिट्टी के लोदे सने चार झापड़ मारती है और नीचे उतर आती है। छत फिर अपनी जगह गुम्मा बनकर अटक जाती है। दीवाली- दशहरे में दीवालों पर चूना मारना भी उसी का काम है। और तो और पाखाने की सफाई भी वही करती है।

क्या है बेगम, फुक्कन सोचते हैं- महरी, धोबन, मजूरन, रसोइया, दर्जिन, किसान या मेहतरानी ? सब कुछ मिलाकर कुछ बन सकता हो, तो वह बेगम है। फक्कड़ फुक्कन को शहंशाह बनानेवाली पब्लिक, जो हर मोर्चे पर अकेले लड़ रही है। और रोती है तो क्या चौक पर बैठकर ? अपने घर में कुछ भी करे पब्लिक, सरदार साब की छाती काहे फटती है? फुक्कन बाबू जानते हैं, घरोंदे की दुनिया में चिड़िया का रोना सिर्फ रोना नहीं, एक लोकगीत... जिंदगी की ऐन तपिश, आवाज और लय से निकले आदमी को आदमी बनाए रखने का जज्वाती सलीका हुनर या कला है! एक दिन सुना वेगम ने, फुक्कन बाबू सामने की राह से गुजरते हुए एक आदमी से पूछ रहे हैं, "पलटू बाबू! कितने की मुर्गी मिली ? मटन बनाएंगे या मुर्गा-दोप्याजा? पुलाव भी बनेगा?" पलटू बावू ने तफसील से बयान किया सब कुछ। फिर रोने लगे, "बनानेवाली के हाथ में छहुंदर मरा है- एकदम कबाड़ा करके रख देती है सब कुछ क और एक दिन की बात नहीं, हर इतवार की बात है।" फुक्कन बाबू ने हसरत भरी नजरों से मुर्गी को देखा, फिर उसांस भरकर कहा, "बड़ जालिम है ऊपरवाला जिसके यहाँ मुर्गा है वहाँ बनानेवाले हाथ नहीं- ओर जहाँ हाथ है, वहाँ मुर्गा नहीं पहुँचता !" बेगम ने देखा, लौटकर आये फुक्कन बाबू का चेहरा। और छह माह बाद हर पंद्रहवें दिन फुक्कन बाबू का 'पहुंचा' शोरवे में डूबा हुआ होता। उन्हें क्या पता था कि बेगम ने कब चूजे मंगवाये, कैसे पाल-पोसकर बड़ा किया और मर्द की एक इच्छा को पूरे करने के लिए उतनी मेहनत से पट्ठा बनाये गये मुर्गे को क्या कुछ सहते हुए हलाल करती रही? अंततः एक दिन सिसकारियां भरते हुए और नाक सुड़कते हुए पूछ ही लिया उन्होंने, "कहाँ से मुर्गा आया बेगम?" वेगम ने काटती हुई नजरों से देखा उन्हें और मद्धम आवाज में कहा, "छुन्नु के दादा की रियासत से!" फुन्नू बाबू चुप हो गये। लेकिन बेगम ने कटार की धार को धो- पोंछकर रखने के लिए थोड़े ही निकाला था। सो अपनी रो में कहती गयी, "जिसके कलेजे में दम नहीं कि जबर्दस्ती अपनी मिहनत के बल पर इंसान की जिंदगी जी ले वह गजल क्या लिखेगा और अदीब क्या बनेगा?"

फुन्नू बाबू दूसरे ही क्षण हलाक हो गये। वाकई इस एक जुमले में जो धार थी, असर धा, तपिश थी या जिंदगी का फलसफा था उसे बयान कर पाने की कूबत उनके पूरे दीवान में कहाँ थी! इसीलिए फुक्कन बाबू बेगम को कभी गांधी कहते थे और कभी गालिब ! लेकिन वेगम इन दोनों को गोली मारती थी क्योंकि वह जिंदगी को गांधी या गालिय बनने के लिए नहीं जी रही थी... और इस जमाने में जो उनका अनुसरण कर रहे थे, वे तो फुक्कन बाबू की तरह 'बामन अवतार' होकर रह गए थे.... या महज सर्कस की चीज !

मुहब्बत में, सर्कस में सब कुछ सनसनीखेज होता है। वह हाथ पकड़कर दी हुई चिट्ठी हो या मुलाकातें या रहस्य भरी मुस्कुराहट या हथेलियों पर चांदनी जैसी हल्की थपथपाहट। उस एहसास से गुजरते हुए पहले-पहल ऐसा लगता है जैसे हारिल के शिकार पर निकले हो। बड़े जोश-खरोश के साथ गोलियां दगती हैं। लेकिन जब हारिल छटपटाकर पानी में गिरता है और आदमी गहराई में डूबकर उसे निकालता है तो हैरान रह जाता है। देखता है कि यह तो वह खुद है- सधा हुआ निशाना और मौत की एक किस्त झेल लेने के बाद भी तड़पता हुआ हारिल... जो पानी से जिंदगी की बातें कर रहा है! सवाल यह है कि ऐन गली की खामोश रफ्तार के बीच कोई आपको पकड़ ले और हाथ में एक टुकड़ा चांद थमा दे, तो कैसा लगेगा? जियेंगे आप या सीधे- सीधे मर जाएंगे? नहीं, दोनों एक साथ होगा। फिर थोड़ा सा होश आयेगा। फिर आप पूछेंगे फुक्कन बाबू की तरह, "यह क्या है?" "मुहब्बत !" "चाहती क्या हो?" "मुहब्बत !" "तुम हो कौन-सी बला?"

बला आपकी हथेली पर एक अहसास की थपकी रखते हुए सरगोशियों भरी आवाज में कहेगी। "मुहब्बत !" यह सब कुछ ऐन जिंदगी के बीच वाली गली में हुआ। मुहब्बत की बीड़ी ओठों पर आयी। साइकिल ने घंटियां बजाई। गली की उस खामोश रफ्तार ने आदमी को किसी अंदर की दुनिया में और जज्यात के सफर पर लगा दिया। वीड़ी रात भर जलती रही, या आदमी ही राख होता रहा.... यह मुझे बीच जिंदगी में क्या हो गया? मेरे रेगिस्तान में यह पानी की झील क्योंकर उग रही है? यह कोई तिलस्म है या मृगतृष्णा ? यह क्यों मारना चाहती है मुझे उसूल और घरोंदे की दुनिया दोनों मरहलों पर? अगर मुहब्बत जिंदगी में वाकई कोई चमत्कार जैसी चीज है, और कायम है सोहनी-महिवाल के जमाने से तो मुझे अब तक हासिल क्यों नहीं हुई? नहीं, यह सब छल है और यकीन नहीं आये, मुहब्बत ऐसी चीज नहीं हो सकती! मुलाकात। घंटियों का गुम होना। इस बार बीच में गली की रफ्तार नहीं थी। एक बाजार धा, दूकानें थीं, खामोश कोना था और सवाल थे। "तू मुझसे मजाक कर रही है?" "नहीं।" "तो मेरे नाम का इस्तेमाल करना चाहती है.... मशहूर बनना चाहती है?” "कुछ नहीं बचता - चाहना या बनना, जब पूरी की पूरी औरत सिर्फ मुहब्बत में तब्दील हो जाए।" "मालूम है, तू बन जाएगी कुछ जो में नहीं बन पाया।" एक शंकित निराशा भरी बुदबुदाहट। "हां, दीवानगी की हद...." चुप्पी। थोड़ा सा यकीन। फिर पानी में तेज बुलबुले या गहराई की थाह लेने का प्रयास ।

"मुझमें क्या है, जो तेरी जैसी औरत को पागल बनाए हुए है?" "तुम्हारी सोयी हुई आंखों का जादू।" "और?" "एक रूहानियत ।" "उसकी दरकार है तो खुदा से लौ लगा।" "एक मासूम, पाक और साफ-शफ्फाक आबोहवा का अहसास।" "तू कहीं वसंत के गोशे में चली जा, जहाँ आबोहवा अभी-अभी पैदा हुई हो।" "वहाँ रंगों का शोर है।" "तो पहाड़ पर चली जा।" आसपास रात का मंजर तारी हो गया। फिर किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी... फिर किसी ने हाथ थामकर फैसला सुनाया, "तलाश तुम पर खत्म हो जाती है, साहिब!" एकबारगी तेज झटकों भरा आलम चारों तरफ व्याप गया, वैसे कोई हाथ छुड़ाकर अंधेरे में निकल जाना चाहता हो, "इस फिल्मी संवाद को मुझे क्यों सुनाती है- किसी हीरो को ढूंढ़, मैं तो सिर्फ मुंशी हूं- मुंशी!" "तू मेरी जिंदगी लिख दे।" "बरना क्या करेगी, मर जाएगी?" इस बार जिंदगी ने वेचैन रूह की तरह लंवी उसांस भरकर कहा, "अहसास बाकी कहाँ रहा कि मर ही जाऊं !"

और अगले दिन से फुक्कन बाबू वीमार पड़ गये। यह अंतर्द्वद्ध था भीतर का जो शरीर की कमजोरी बनकर सामने आया। फिर कमजोरी को हवा की ठंडी हरारत ने छुआ। पोस्टमैन हर दिन एक खत दे जाने लगा। हर खत में इस बात का उल्लेख होता, "मैं उपवास पर हूं- जब तक नहीं मिलते, मर जाने की चाहत पालूंगी।" फुक्कन बाबू इस हद तक कठोर नहीं थे। और न ही एक मौत के लिए जिम्मेवार ठहराना चाहते थे अपने आपको। इसलिए अगली बार जब हवा खिड़की से आयी, वे विस्तरें पर नहीं थे।

गली की रफ्तार ने साइकिल की घंटियों को सुना, जज्य किया। कोई जवाब नहीं दिया। बीमार आदमी ने फिर टहोका दिया। गली खुल गयी। खिड़की का पल्ला बजा। यह घंटियों जैसी आवाज नहीं थी। यह सूखे हुए पीले पत्तों की आवोहवा या उसकी आवाज थी। "तुम्हें आना था।" "मुझे मार डालोगी।" "मेरा मरना बेआवाज होगा।" "लेकिन में बीमार हूं- और चीखकर मरूंगा कि तुमने मेरे घरौंदे को तोड़ा!" "कितने बच्चे हैं तुम्हारे ?" "तीन।" "तुम खुद भी वही हो।" "पर तुममें वह नहीं है, जो एक बच्चा चाहता है।" "यानी ?" "ममत्व भाव?"

"मुहब्बत का एक सिरा वह भी है। भाव को पलटकर देखो।" " आंच ठंडी पड़ी तो उबलते हुए पानी की सतह नीचे आयी।" "तुम्हारा मर्द कहाँ है?" "कुवैत में।" "क्या करता है?" "इन्जीनियर है।" "क्यों गया है?" "पैसे कमाने।" "तुमने उससे शादी क्यों की?" "हिन्दुस्तान में लड़कियां अपनी मर्जी से शादी नहीं करतीं?" "तो दगा भी नहीं करती!" "क्योंकि यह भी मर्द का हक है।" "गोकि उसने तुम्हें छोड़ दिया?" "ऐसा भी नहीं है। सिर्फ पैसे आते हैं।" "यानी यहाँ अकेली रहती हो?" "हां।" "बच्चा है?" बोर्डिंग में है- दून में।" "

"तो तुम खालीपन को भरने के लिए मुहब्बत कर रही हो। घर में पैसे हैं, रोटियां हैं, इसलिए अय्याशी कर रही हो!" घंटियां हांफने लगी।

"यह तुम्हारा पूर्वाग्रह है। मुझे और लोगों की दरकार होती तब, तुम्हारी नहीं।" खिड़की का लहजा पहले की तरह शांत था। तर्क में बल था। लेकिन घंटियां बजती हुई एकाएक गली को क्रास कर गयी। हवा भूखी पस्त औरत की तरह कैरियर पर बैठी थी। फुक्कन बाबू को शक हुआ, पलटकर देखा और लौटकर आये, औरत के सामने, सिर्फ इतना कहा, "मैं आदमी हूं और आदमी का मरना बर्दाश्त नहीं कर सकता। तुम मेरी इस कमजोरी का फायदा उठाना चाहो तो उठा लो। लेकिन सोचना, तुम्हारे जीने के साथ मेरा मरना तेज होता जाएगा... और अंत में वह फुक्कन नहीं रहेगा। जिसे तुम चाहने का दम भरती हो।"

वह तेज धूप भरा दिन था। जी.पी.ओ. का कैम्पस। चिट्ठियां जा रही थीं डाकियों के साथ। अपनी चिट्ठियों की शक्ल में वे खुद खड़े थे। आसपास भीड़ थी। उसका कहना था, भीड़ में मिलो तो कोई शक नहीं करता कि मुहब्बत करने वाले लोग मिल रहे हैं। फुक्कन बाबू ने बात को दूसरी तरफ मोड़कर कहा कि "इस भीड़ को समूह में बदल दो- खुद एक इकाई बन जाओ और पूरे समूह से प्रेम करो, तुम्हें कभी मरने का अहसास नहीं होगा।" वह हँसने लगी। पास एक बच्चा गुजरा तो उसने चॉकलेट दी उसे। बच्चा धूप की तरह मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ गया।

"तुम एक खालिस इंसान हो- अभी-अभी पैदा हुआ, इसीलिए लोग तुम्हें ठग लेते हैं।" "यहाँ तक कि तुम भी यही कर रही हो।" "मैं तुम्हें एक मुकम्मिल जिंदगी देना चाहती हूँ।"

"अंदर से मारकर ?" "यह मौत मेरे कारण नहीं... तुम दूसरे किस्म की मौत मर रहे हो।" "और यह तुम्हारी समस्या नहीं?" "जब एकात्म हो लो तो पता नहीं लगता कि कोई चीज तुम्हारी है या मेरी!" "मुझे उसकी समस्या भी अपनी लगती है, जो कुवैत में है।" "वह मसीहा है अपनी नजर में वह पैसे से काठ को भी औरत बना लेगा।" "तो यही दुख है तुम्हारा कि वह काठ बना गया तुम्हें?" औरत चुप हो गयी। देर गये तक आवाजों के शोर में डूवी रही। यह दूसरी बात है कि अपने अंदर और जोरों से बोलती रही। जब लगा कि बोलना या चुप रहना दोनों बेमानी हैं, तो तेजी के साथ सड़क की ओर निकल गयी।

पतझर के बीच वाले दिन थे, जब वे अगली बार मिले एक दरख्त के नीचे। ऊपर ऊढे बादल थे। और जमीन पर आदमी अपनी परछाई तक से अलग था। इस अलगाव के बीच बातें थीं- जो एक दूसरे के समांतर चल रही थीं। "मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए।" "और यही सबसे बड़ी चाहना है।" "मैं तुम्हें सिर्फ देना चाहती हूँ।" "जो मैंने किसी से नहीं चाहा!" "बुरा तो यह है कि तुम उसे नहीं चाहते, जो तुम्हारा प्राप्य है।" "प्राप्य और कला आमने-सामने हों, तो दोनों में से एक का मरना निश्चित है।" "तुम मुझे अपना प्राप्य मान लो।"

"फिर?" "मैं चाहती हूँ कि मैं मर जाऊँ तुम्हारी कला के लिए।" "मैं कसाई नहीं हूँ।" "लेकिन वे थे जिन्होंने काठ बना दिया तुम्हें।" "तुम किनकी बातें कर रही हो?" "जिनके पास पैसे थे।" "मेरा और तुम्हारा काठ होना एक जैसा नहीं।" "ऊपर-ऊपर ऐसा लगता है।" "और अंदर से क्या है सब, सिर्फ तुम जानती हो?" "तुम्हें भी जानना चाहिए- मैं तुम्हारे साथ चलूंगी, उस जंगल के अंदर घुसो।" "मुझे समझाओ कि उस जंगल में तुम्हारे साथ की जरूरत क्यों है?" "मेरे पास पैसे हैं- जो तुम्हारी कमी है। यकीनन तुम्हें फिल्म बनाना चाहिए।" "तो तुम्हारी मुहब्बत की वजह वही थी?" "अभी नहीं समझ पाओगे क्योंकि वह भाव नहीं बना तुम्हारे अंदर !" "और भाव बनने पर क्या होगा?" "तर्क नहीं करोगे, सिर्फ बहना चाहोगे।" "तुम्हारी नजर में यह बहना भर मुहव्वत है?" "नहीं।" "फिर क्या है?" "काठ हो गये दो लोगों का कंधा और साथ !"

"फुक्कन को अपने आँखों के सामने पहली बार लगा-एक दरख्त है, जो आसमान तक पहुँच रहा है। "तुमने पहले ऐसा नहीं कहा।" दरख्त ने झुककर कहा। "तुमने ऐसा महसूस नहीं किया।" "चलना कब है?" "बसंत की पहली तारीख को।" वे अब उठकर एक ओर निकल गये, जहाँ दरख्त नहीं थे।

तो उस दिन ऐसा ही हुआ था जनाब, जैसा मैंने आपसे कहा था, कि यह शहर फुक्कन वावृ के लिए सपनों की राजधानी बन गया था... शहर की बीरान पड़ी गलियों ने उसी रात से करवट लेकर कहना शुरू किया था, 'आइये आइये, मेहरबान ! नाचीज उसी शहर की गली है- जहाँ फुक्कन बाबू की प्रेमिका रहती है।' मुझे मालूम है, आप जरूर भड़केंगे कि इससे क्या हुआ, शहर में सुरखाब के पर लग गये? उनकी प्रेमिका क्या घंटाघर है, कुतुबमीनार है, जंतर-मंतर है, चीन की दीवार है, तिब्बत का पठार है, बेबीलोन का झूलता हुआ बगीचा है या बीजापुर का गोलगुम्बज है? नहीं, कुछ नहीं है। और मेरी नजर में यही बहुत कुछ है। जहाँ बहुत कुछ होता है, वहाँ राजनैतिक दाव-पेंच होते हैं, हथियारों की खरीद-बिक्री होती है, महाशक्तियों का खेल होता है, एटमबम का भय होता है, एक उजड़ा हुआ शहर हिरोशिमा होता है या फिर कोई वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका और ईरान होता है। सब कुछ होता है वहाँ- रंग रोगन भी और बियाबान बनाने वाली अक्ल भी, लेकिन हम नहीं होते। या कहो, यह फुक्कन बाबू नहीं होता। या कहो, वैसा जज्बा नहीं होता। लेकिन यह शहर सिर्फ चार मोड़, दो सड़कें और तीन गलियों वाला कोई नक्शा नहीं। यह भरी-पूरी जिंदगी का सबूत है- जहाँ हमारे घर हैं और सबसे

बड़ी बात यह कि इंसानी हसरत से भरे दिल भी बसते हैं यहाँ। तो अगर हम आदमी हैं या संघर्ष करने वाले जीव हैं तो हमें दिलों की बात करनी चाहिए। हमें फुक्कन बाबू की प्रेमिका को जानना चाहिए, फुक्कन वावू की बात करनी चाहिए। किसी लाट गवर्नर की आत्मकथा पढ़ने से बेहतर है। वैसे चेहरों के साथ सरोकार बनाना जो खास नहीं होते, लेकिन जिनके कारण यह कायनात अपनी जगह पर कायम है।

बहरहाल उस दिन भी कायनात अपनी जगह पर थी। हालांकि वह बसंत की पहली तारीख थी। और आवावील या फुक्कन बाबू की बेगम अपने कैदखाने के चारों ओर का बाड़ा मजबूत कर रही थी। फुक्कन बाबू उस दिन ऑफिस से थोड़ा पहले निकल चुके थे और शहर में उन चीजों की खरीद कर रहे थे, जो बम्बई में नहीं मिला करतीं। मसलन पहलवान छाप बीड़ी, अनारकली गड़ाखू और मुजफ्फरपुर की जाफरानी पत्ती। सब कुछ तय थाः यह भी कि फुक्कन बाबू को बम्बई जाना हैः यह भी कि जानवरों से बचाने के लिए बाड़े को मजबूत करना हैः यह भी कि पौधा रोपोगे तो फल आयेगा ही। और अंततः यह भी कि इस साल जिंदगी में तो वसंत की पहली तारीख का अहसास होगा ही। फुक्कन बाबू जिस वक्त घर लौटे, बेगम के हाथों से लेकर बांहों तक कंटीले झाड़ के निशान उग आये थे। फुक्कन बाबू ने आते ही पूछा कि सारा सामान तैयार है। बेगम ने कहा कि अरसे से बैठे हैं हम तो, कि जल्लाद आये और सर कलम कर दे। फुक्कन बाबू ने इसरार किया कि आज तो ऐसा मत बोल। बेगम ने पूछा कि जो उसने सगुन नहीं किया तो निम्मो मेहतरानी करेंगी यह सब। और आज क्या कयामत का दिन आ गया, जो अल्ला मियां उतरकर नीचे आ रहा है। फुक्कन बाबू ने मीठी नजरों से देखा। फिर फुसफुसाकर कहा, "वसंत की पहली तारीख है।" ऐन उसी वक्त बड़े वाले बेटे ने एक खत लाकर दिया, जिसे पोस्टमैन दिन के किसी वक्त दे गया था और उसने आले पर संभालकर रख दिया था। फुक्कन

बाबू ने लिफाफे को हाथ में लिया, खोला खत पढ़ा और वसंत की पहली तारीख को वैसा ही कुछ किया जिसके लिए बेगम मशहूर थीं और शौहर ने जैसा करने से उसे मना किया था अभी-अभी। यह निहायत फटे कलेजे से रोना था। वेगम दंग थी। उसे नहीं मालूम था कि घरोंदे में चिड़िया का रोना सिर्फ रोना नहीं, एक लोकगीत होता है... जिंदगी की तपिश से, आवाज और लय से निकला हुआः आदमी को आदमी बनाये रखने का जज्बाती सलीका, हुनर या कला है। उसने घबराकर उलाहना देना शुरू किया, "देखो, इसे रोने का भी शऊर नहीं... रोने के साथ माँ-बाप को भी याद नहीं करता ये मरद... न ये बोलकर रोता है कि किसकी शादी हो गयी... किसका गौना हो गया... या कौन से रिश्ते वाले की मौत हो गयी..." फुक्कन बाबू ने हिचकी का बंधना रोका, गर्दन को हिलने से मना किया, सिर को झुकाया, फिर असली वात पर पहुँचकर कहा, "बाबू भाई मर गया!" "सगे वाला था?" बेगम ने आश्चर्य के साथ पूछा। "हाँ।" "मां की तरफ से या बाप की तरफ से?" "फिल्म की तरफ से।" "कैसे मरा?" "दिल ने काम करना बंद कर दिया।" "क्या करता था?" "आर्ट डायरेक्टर था।"

"पर्दे पर आता था?"

"नहीं, पीछे से काम करता था।"

"यह कौन सा काम होता है?"

"सजावट करना।"

"हीरो-हीरोइन का?"

"नहीं, सेट की सजावट।"

"यह सेट क्या हुआ और उसे सजाते कैसे हैं?"

"जैसे दिवाल, छत और मकान बनाना वहाँ सारे सामान को करीने से सजाना और एक मुकम्मिल घर या आदमी की दुनिया बसाना...सब सेट की सजावट में शामिल हैं।"

“घर किसका और दुनिया किसकी ?"

"हीरो हीरोइन सहित सारे किरदारों की!"

बेगम की आँखें फैलकर चौड़ी हो गयीं। फिर मुँह खुला और एक वजनदार बात तीर की तरह बाहर निकली, "मुआ इतने जरूरी काम करता था- सारा संसार बनाता था तो पर्दे पर काहे नहीं आता था... दिखाई काहे नहीं देता था!"

फुक्कन बाबू ने सिर फेरा, नजर उठाया, बेगम को देखा। और नजरें वैसी ही अटकी रह गयीं। यानी कहने का मतलब यह कि दूसरे ही क्षण फुक्कन बाबू हलाक हो गये थे। वाकई उस जुमले में धार थी, असर था, तपिश थी या जिंदगी का फलसफा था... उसे बयान कर पाने की कूवत उनके पूरे दीवान में भी कहाँ थीं! ...दिन को आना था, आया। रात को जाना था, चली गयी। बंबई की ट्रेन को आना था, सो आयी गयी। लेकिन फुक्कन बाबू वैसे ही पत्थर की तरह बिना बोले बैठे रहे।

वसंत की पहली तारीख चली गई। एक बार फिर शहर की वीरान गलियों ने करवट ली और हाँक लगाई, "आइए, आइए, मेहरबान ! नाचीज़ उसी शहर की गली है, जहाँ फुक्कन बाबू की प्रेमिका रहती है।"

जाहिर है कि फुक्कन बाबू की प्रेमिका वहीं है- जहाँ पहले थी, और वही हैं- और जो पहले थी-यानी जिसके बारे में वे कहा करते थे, "साहेब ! मिट्टी में फ़ना होना ही असल फन है, मिट्टी को बर्बाद करना नहीं !"