नारीत्व की देह-यात्रा: साहित्य के दर्पण में / भाग 1 / प्रतिभा सक्सेना

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देह-यात्रा इसलिये कि नारी की बात आते ही उससे प्राप्त सौन्दर्य-सुविधा-सेवा की सुखानुभूति में लीन किसी की दृष्टि उसके मन और आत्मा तक नहीं पहुँच पाती। नीति-शास्त्र, आचार-विचार, धर्मोपदेश सब का एक ही मूल-स्वर - सेवा-सुश्रुषा करते हुए पुरुष के अधीन, और अनुकूल रहने में ही उसका कल्याण है, कहीं भी त्रुटि होने पर वह एकदम त्याज्य- ज्यों माटी का भाँडा। नारीत्व का इतना भर प्रयोजन समाज के लिए पर्याप्त समझा गया। पौराणिक-गाथाओं में भी यही प्रतिपादन मिलता है -पिता के द्वारा उधार दी गई पुत्री माधवी के शरीर-उपभोग से अर्जित- श्यामकर्ण घोड़े गालव का प्राप्य, दान के पुण्य-भागी पिता। और माधवी? चार राजाओं और गालव के गुरु की भोग्या बन उनके लिये चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न करने के बाद रिक्त ही लौट आई, अपनी अगली ड्यूटी पिता के कन्या-दान की चाह पूरी करने। शैव्या बिकी, सत्यवादी हरिश्चंद्र को यश मिला। पुरुषार्थ- चतुष्टय पुरुष के लिए है, और इस साधना में सांसारिक उद्देश्य पूरे करने तक वह सहधर्मिणी है, आत्मिक उन्नयन केवल पुरुष के हिस्से, स्त्री की सार्थकता उसके त्यागे हुए को निभाने में स्वयं को खपा देना है। और तो और काव्य की संवेदना भी उसे व्यक्ति होने का गौरव नहीं दे पाई।

साहित्य-रचना वैयक्तिक प्रक्रिया होते हुए भी समाज-सापेक्ष होती है, इसलिये साहित्यिक रचनाओं में वैयक्तिकता और सामाजिकता का विलक्षण समन्वय दृष्टिगत होता है। लेखक का व्यक्तित्व उसकी स्वैच्छिक और स्वतंत्र रचना न होकर किसी समाज के अंतर्गत, उसके प्रभावों से निर्मित और प्रभावित होने के कारण समाज और साहित्य का संबंध अति घनिष्ठ होता है और किसी भी युग के लेखन से तत्कालीन सामाजिक स्थितियों का अनुमान किया जा सकता है। हिन्दी साहित्य के विभिन्न युगों के अनुशीलन द्वारा हम तत्कालीन समाज की नारी के प्रति दृष्टि की खोज कर सकते हैं।

हि। सा। का प्रारंभ ईसा की दसवीं शताब्दी से माना जाता है। किसी भाषा के साहित्य का आविर्भाव कोई आकस्मिक घटना नहीं होती, उसके रूप निर्धारण के पीछे पिछले युगों के प्रभाव काम करते हैं। हिन्दी की पृष्ठभूमि में भाषाओं की जो सुदीर्घ परंपरा रही है उसमें संस्कृत, पालि। प्राकृत और अपभ्रंश के नाम आते हैं।

संस्कृत इस परंपरा में सर्वाधिक प्राचीन है जो परवर्ती युगों के साथ विकसित होती रही और और युगीन प्रभावों को आत्मसात् करती रही। छठी शताब्दी के बद नारद, बृहस्पति, याज्ञवल्क्य, मनु आदि ने स्मृतियों की रचना की जिनमें वर्णाश्रम और राजधर्म के साथ नारी-धर्म की भी चर्चा है। इनमें भी मनु-स्मृति का विशेष महत्व है, जिसके 5, 9 तथा 11वें अध्यायों में स्त्री-पुरुष संबंधों पर प्रकाश डाला गया है।

सामाजिक मान्यताओं पर इन स्मृतियों का दूरगामी प्रभाव पड़ा जो साहित्यिक रचनाओं में बिंबित हुआ।

प्रायः सभी स्मृतिकारों ने नारी धर्म में नैतिकता को अपरिहार्य माना। एक ओर आत्मा को शरीर से अधिक महत्व दिया गया - शरीर को भंगुर और बाह्य आवरण मात्र बताया गया, लेकिन जहाँ नारी की बात आती है, उसकी शुचिता और सत् का आधार केवल शरीर रह गया। पुरुष के प्रति उसकी अनन्य निष्ठा सब-कुछ हो गई, शेष सब गौण हो गया। नैतिकता के मानदंड केवल नारी के लिये रह गये, यदि पुरुष के लिये भी नैतिकता अनिवार्य रही होती तो आज भारत का चरित्र ही कुछ और होता। स्त्री को घर की शोभा और सम्मान का पात्र माना गया पर उसे स्वतंत्र रहने योग्य नहीं समझा गया। यह नियंत्रण संबवतः पुरुष के विषयी और वासनापूर्ण स्वभाव के कारण लगाया गया। जिसका परिणाम केवल नारी के हिस्से में आता है। । सृष्टि की परंपरा चलाने का दायित्व प्रकृति ने नारी को दिया और तदनुरूप शारीरिक संरचना के कारण उसे जीवन-पर्यन्त सुख-सुविधा और संरक्षण देने के लिये जो दायित्व पुरुष को विभिन्न संबंधों के माध्यम से सौंपे गये कालान्तर में उसके अधिकार के प्रतिपादक बन गये और नारी अबला और निरीह हो कर पुरुष पर आश्रित होती गई।

नारी-परक अभिव्यक्तियों के निरीक्षण के लिये पहले उसकी दो श्रेणियों की पड़ताल करना उचित होगा। -1। धार्मिक और नीतिपरक साहित्यऔर 2। लौकिक साहित्य।

संस्कृत की नीतिपरक उक्तियों में (विदुर नीति, भर्तृहरि नीति, चाणक्य नीति आदि में )नारी निन्दा का स्वर मुखर रहा है, उसके गुणों की ओर से आँखें मूँद कर, जीवन में उसे मिलनेवाले कष्टों, उपेक्षाओं और वंचनाओं की अनदेखी कर, उसके अवगुणों को बढ़-चढ़ा कर वर्णित किया गया। पापाचारिणी, मिथ्यावादिनी कह कर उसकी साक्षी न लेने का आदेश दिया गया। यहीं नारी-स्वभाव के आठ दोषों के बारे में बताया गया। फिर आगे के कवि इसी परंपरा को खीचते चले गये।

संस्कृत के लौकिक साहित्य में नारी के प्रति पर्याप्त संतुलित दृष्टिकोण रहा। वहां पुरुष उसकी कामना करता है और उसे स्वयंवर का अधिकार है

परिवार में पुत्री, भगिनी, वधू और माता के रूपों में वह सम्मान की पात्र है। यहाँ नारी के विरह में पुरुष की व्यथा-वेदना के मार्मिक वर्णन प्राप्त होते हैं।

कालिदास के काव्य में नारी के उदात्त चित्र अंकित हुए हैं। वराहमिहिर के अनुसार ब्रह्मा जी ने स्त्री से बढ़ कर और कोई रत्न इस संसार को नहीं दिया। एक बड़े मार्के की बात उन्होंने कही, कि जो लोग नारी निन्दा करते हैं वे उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे की उक्ति चरितार्थ करते हैं।

संस्कृत काव्य में नारी, सौन्दर्य की प्रतीक, प्रेरणा की मूर्ति और आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु रही।

कहीं-कहीं उसकीशारीरिक और मानसिक दुर्बलताओं की निन्दा भी की गई , लेकिन दृष्टिकोण में पूर्वाग्रह और असंतुलन नहीं है।

आगे चल कर यह संतुलन बिगड़ता गया। बौद्ध धर्म की निवृत्तिमूलकता ने संसार त्याग करने के लिये नारी के प्रति पुरुष के आकर्षण को विकर्षण में बदलना चाहा। अश्वघोष के बुद्ध-चरित' और सौन्दरानन्द में इसी दृष्टिकोण के अनुरूप नारी का वीभत्स वर्णन मिलता है।, उसे जर्जर भाण्ड के समान दूषित, कलुषित और कुरूप बताया गया, मानो पुरुष के शरीर का निर्माण किन्हीं दूसरे तत्वों से हुआ हो।

निवृत्तिमार्ग के इन पथिकों ने पुरुष के मन में विरक्ति जगाने के लिये, सारी दुर्बलताओं, दोषों और दूषणों का आरोपण उस पर कर दिया। आगे के कवि जिनमें संत कवियों का नाम सबसे ऊपर है, उस परंपरा को यथावत् ग्रहण कर आगे बढ़ाते गये। बाद के रामभक्त कवि भी नारी को हीन, आठ अवगुणों से पूर्ण और ताड़ना के योग्य कहने से नहीं चूके।

बौद्ध धर्म का साहित्य पालि भाषा में रचा गया जिसमें दुखमय संसार के त्याग का स्वर ही प्रधान रहा। संस्कृत साहित्य में जो नर-नारी एक दूसरे के पूरक थे, गिरा अर्थ जल-बीचि सम एक दूसरे से अभिन्न थे, अज-इन्दुमती, और विक्रम-उर्वशी के समान एक-दूसरे के सहचर थे, उनके संबंध अब बिलकुल बदल गये। यह संबंध अब दो व्यक्तियों, दो आत्माओं का सहज-स्वाभाविक संबंध नहीं रहा, उसमें से साझेदारी का भाव तिरोहित हो गया। पुरुष की संगिनी और मित्र होने के स्थान पर वह अनुगामिनी और भोग्या मात्र रह गई। मानवी के स्थान से च्युत कर उसे दो रूपों में देखा जाने लगा - देवी और दासी। और यही दासी आगे चलकर माया, ठगिनी और डाकिन में परिवर्तित हो गई। जहाँ वह माता है, श्रेष्ठ आचरण वाली है, पुरुष के प्रति पूर्ण समर्पण में अपने व्यक्तित्व को लुप्त कर देती है वहाँ वह पूजित हो कर भी मानवीय जगत से अलगाव की स्थिति में है। व्यक्तित्व की गरिमा उसे नहीं मिली और सहयात्री होने के गौरव से उसे वंचित कर दिया गया। फिर भी कहीं-कहीं नारी की अस्मिता साहित्य में मुखर हुई है।

संस्कृत के काव्य ललित विस्तर और अश्वघोष के बुद्ध-चरित में गौतमबुद्ध की पत्नी गोपा के चरित्र को उभारा गया है। वह सिद्धार्थ द्वारा पुरस्कृत होने पर अवगुण्ठन खोल कर सभा में प्रवेश करती है। रनिवास के विरोध करने पर वह उत्तर देती है-। 'वस्त्र की सहस्र तहें भी लज्जाहीन के व्यक्तित्व और स्वभाव को नहीं ढँक सकतीं, किन्तु गुणी और सात्विक व्यक्ति तो अनावृत्त हो कर रत्न की तरह विचर सकते हैं'

नारी-चरित्र का यह अनुपम उदाहरण है।

जैन काव्यों का प्रणयन धार्मिक प्रेरणा से हुआ है। इस काल के जैन कवियों ने भी मानव को प्रबोधित करते हुये भोगों की क्षणभंगुरता और भौतिक स्वरूप की नश्वरता तथा परनारी-गमन की अनैतिकता की ओर ध्यान आकर्षित किया। परन्तु जैन काव्यों में नारी को व्यक्ति होने का गौरव भी मिला है। । राजमती स्वेच्छा से नेमिनाथ का वरण करती है। उसके उदासी हो कर चले जाने पर अनब्याही रह कर अपने जीवन को साधना के मार्ग पर प्रवृत्त करती है।

बौद्धों की हीनयान शाखा का विकास वज्रयानी और फिर सिद्ध-परंपरा के रूप में हुआ। सर्व प्रथम इन रचनाकारों की सामाजिक स्थिति पर दृष्टि डालना उचित होगा क्यों कि आचार-विचार व्यवहार और मान्यताओं पर उस वर्ग और परिवेश का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है जिसके बीच जन्म और पोषण पाकर कोई व्यक्तित्व निर्मित होता है।

डॉ। धर्मवीर भारती ने सिद्धों को शूद्र माना है और कहा है कि निम्न वर्ग की स्त्रयों से विवाह कर उन्होंने उनकी आजीविका को अपना लिया। ये प्रकृतिक जीवन के उपासक थे, इनके आचार-विचार भोगवादी थे। इस संप्रदाय में भोग, धर्म पालन का एक साधन बन गया था। पंचमकारों का सेवन मान्य था और नारी को मुद्रा नाम से अभिहित किया जाता था। निम्न वर्ग की तरह देह-प्रधानता कह सकते हैं। नारी को उन्हों ने साधना हेतु माध्यम बनाया था। उनके अनुसार सिद्धि प्राप्त करने के लिये नारी सेवन अनिवार्य था।

सिद्धों की मान्यता थी कि प्रथमानन्द, बिरमानन्दऔर सहजानन्द की प्राप्ति स्त्री द्वारा ही संभव है। इन्हीं मान्यताओं का प्रभाव उनके साहित्य पर है। उनके लिये नारी मात्र एक साधन है। केवल शरीर उनके लिये ग्राह्य था। इसलिये जितनी निम्न जाति की होगी उतनी ही उनकी साधना के उपयुक्त होगी। उच्च स्तर की महिलाओं में मनस् और आत्मा का तत्व देह को गौण बना देता है अतःवे देह-सुख शुद्ध दैहिक स्तर पर न ले सकेंगी, न दे सकेंगी। नारी के पतन की कथा को उन्होंने आगे बढ़ाया और व्यभिचार को साधना का नाम दे कर उस समय के साधकों ने समाज को गुमराह किया। सच्चे सिद्ध तो विरले ही होते थे पर साधना के नाम पर भोग करनवालों की कमी नहीं थी। सिद्धों की रचनाओं में नारी का प्रतीकात्मक रूप मिलता है और उनकी दृष्टि समाज-सापेक्ष नहीं है।

सिद्ध-संप्रदाय की नाथ-संप्रदाय में परिणति का श्रेय गुरु गोरखनाथ को है। सिद्धों की स्वैराचार साधना के स्थान पर उन्होंने शील और सदाचार का मार्ग अपनाने की बात कही और योग-मार्ग पर बल देकर इन्द्रिय-निग्रह का महत्व प्रतिपादित किया। उनका कथन है -

'कन्या कुमारिका नग्ना उन्मत्ता अपि योशिता,

न निन्देत् जुगुप्सेत् न हसेन्नावमानयेत्,

एक वृक्ष श्मशान च समूह योशितामपि

नारी च रिक्त वसनाम् दृष्टा वन्देत् भक्तितः'

नारी को सम्मान देते हुये उन्होंने कामुकता का पूर्ण बहिष्कार किया। उनके मतानुसार नारी साधकों के संग शोभा नहीं देती। संसार त्यागने के लिये इन कवियों ने नारी का त्याग आवश्यक माना क्यों कि नारी प्रवृत्ति की ओर ले जाती है। और वह मार्ग इन्हे काम्य नहीं था। ये निवृत्ति मार्ग पथिक थे और समाज से निरपेक्ष हो कर वैयक्तिक उन्नयन की ओर अग्रसर रहे।

अपभ्रंश के साहित्य में सामन्तवादी समाज-व्यवस्था का चित्रण है। युद्धों में विजय पाना और भोगों को छक कर भोगना राजाओं के दो ही काम रह गये। नारी पुरुष की तुष्टि का हेतु बनी और भोग्या रूप में उसका चित्रण साहित्य का विषय हो गया।

उसका सौन्दर्य पुरुष को लुभाता है, और उसे पाने के लिाये भीषण युद्ध होते हैं

स्त्री का काम है मिलन-काल में पति को तुष्टि देना और विरह-काल मं भिन्न-भिन्न ऋतुओं के अनुसार अलग-अलग ढंग से रोना-कलपना।

पुरुषों के द्वारा मनचाहे विवाह भी उसके जीवन में दुख और वेदना का कारण बने रहे। वह अधिकारहीन, निरीह और दयनीय स्थिति को प्राप्त होती गई।

ईसा की पहली शताब्दी से ही नारी की स्थिति गिरने लगी थी। दिगंबर सिद्ध आचार्यों को वह सिद्धि के मार्ग में रोड़ा प्रतीत हुई, वे उसे अज्ञान, दुख और नरक की ओर ले जानेवाली मानने लगे। पुरुष की दुर्बलता का दायित्व नारी पर डालते हुये जैन आचार्यों ने कहा कि नारी की वाणी में अमृत और हृदय में विष होता है। बौद्ध-काल में सतीत्व का आदर्श प्रतिष्ठित रहा, और नारी को हेय माना गया। 'कण्डिन-जातक ' में कहा गया है कि उस जनपद को धिक्कार है जिसका संचालन स्त्रियाँ करती हैं। उस काल में नारी का आदर्श था कि वह पति के प्रति समर्पित और निष्ठावान रहे, अपमान, तिरस्कार और कष्ट सह कर भी मन में दुर्भावना न रखे, कुण्ठा न पाले। पुरुष को अधिकार है कि जब चाहे उसे त्याग दे क्यों कि उसके जीवन का ध्येय उच्च है। (पुरुष केवल पुत्र परिवार तक सीमित नहीं है, जब कि नारी जीवन का लक्ष्य यही है कि इसी मनें अपने अस्तित्व को विलीन कर दे। यदि वह परिवार त्याग कर निकल जाता है तो उसकी संतान के पोषण का दायित्व स्त्री का है। संसार की विषम स्थितियों को झेलना उसकी नियति है जो उसे अकेले सहन करना है। नारी जीवन की करुणाभरी कहानी उन 'थेरी-गाथाओँ' में मिलती है जो स्त्रियों द्वारा रचित हैं। प्रारंभ में बुद्ध की करुणा के कपाट केवल पुरुषों के लिये खुले थे। नारी का प्रवेश निषिद्ध था। बाद में उसे सद्धर्म में दीक्षित होने का अधिकार मिला लेकिन वह केवल तभी जब उसे अपने स्वामी की अनुमति मिल जाये। इस मामले में कुल-स्त्री से अधिक भाग्यशाली वेश्यायें रहीं, जो स्वाधीन थीं। एक ओर सामान्या के नाम पर व्यभिचार उचित ठहराया जा रहा था। दूसरी ओर था दरबारों और रजवाड़ों का विलासी जीवन। जिस पर मन आया उठवा कर हरम में डाल लिया। एक बार किसी की भोग्या बन जाने के बाद स्त्री के लिये कहीं जाने को कोई रास्ता नहीं बचता था। यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार जनता का आचरण भी तदनुरूप हो गया था। ऐसी स्थिति में पुरुष की काम-पिपासा पर नियंत्रमण लगाने तथा उसे विरक्त करने के लिये संतों ने नारी देह की निन्दा शुरू की। उनका उद्देश्य जन सामान्य को ऐन्द्रिय-सुखों से विमुख कर आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख करना था। इहलोक से वैराग्य और गृह-त्याग का पाठ उन्होंने पढ़ाना शुरू कर दिया। उन्हें यह भी प्रतीत हुआ कि नारी को स्वीकार कर उन्हें संसार को स्वीकार करना होगा और समाज के नियंत्रण में रहना होगा। ऐसी स्थिति में कर्मठ जीवन बिताना आवश्यक होता। मनमौजीपन अथवा निठल्लापन उनमें से अधिकाँश के स्वभाव में था 'मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय' यह उनके लिये पर्याप्त था। पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण की चिन्ता उन्हें नहीं थी। वे घर जला कर हाथ में लुकाठी ले कर खड़े हो गये और दूसरों को भी घर जला कर अपने साथ चलने की प्रेरणा देने लगे।

प्राचीन आश्रम-पद्धति में नारी केवल गृहस्थाश्रम में ग्राह्य थी, वानप्रस्थ में वह पुरुष का साथ दे सकती थी किन्तु शेष दोनों आश्रमों में वह निषिद्ध थी। संतों ने वर्णाश्रम से विद्रोह किया था, गृहस्थाश्रम में उनकी आस्था नहीं थी। वे निर्बंध, विमुक्त रहना चाहते थे

इसलिये नारी के साथ निबाहना उनके स्वभाव मैं नहीं था। यही कारण है कि संसार की असारता के साथ नारी-निन्दा का स्वर उनके काव्य में प्रधान रहा।

संतों के काव्य में नारी-निन्दा प्रतीकात्मक है और कुलटा नारी की निन्दा करते हुये उन्होंने सती और पतिव्रता की प्रशंसा की है। उन्होंने यौन-भाव को गर्हित माना और और पुरुष की दुर्बलता के कारण नारी पर प्रतिबंध लगाना उचित समझा। कुछ संतों ने संतुलित दृष्टिकोण का परिचय भी दिया है-दादू ने शीलवंत पुरुषों पर विचार करते हुये कहा-जो पुरुष नारी को देख कर नारी हो जाय वह शीलवंत है। उन्होंने दाम्पत्य के माधुर्य का निरूपण भी किया जिसमें दोनों को समान स्तर पर प्रतिष्ठा दी। उनके अनुसार नारी-नर एक दूसरे को बैरी हैं, नारी नर को पीती है और नर नारी को खाता है। इस प्रकार अज्ञानवश दोनो विलीन हो जाते हैं।

संत रज्जब एक प्रश्न बड़ी परेशानी में डालनेवाला है कि प्रत्येक स्त्री मातृरूपा है तो फिर उससे भोग-विलास कैसे किया जा सकता है!आश्चर्य यह है कि उन्होंने शरीर और आत्मा के धर्म को एक कैसे मान लिया। शरीर माता, वधू, कन्या अनेक रूप धारण करता है पर आत्मा इनसे परे है। मुश्किल यह है कि ये लोग नारी को सिर्फ़ 'देह' के रूप में देख पाते हैं। संत सुन्दरदास ने नारी की सराहना करनवाले को महा गँवार बताया। नारी शरीर की निन्दा करते हए वे कहते हैं-उसका रोम-रोम मलिन है, सभी इन्द्रियाँ मलीन हैं हड्डियाँ मासँ और मज्जा मेद और चमड़े से लिपटा है, उदर में विकार और स्थान-स्थान पर रक्त भंडार भरे हैं- वीभत्सता की पराकाष्ठा पर पहुंचते हुए वे कहते हैं -परुष मूत्र हू आँत एकमेक मिलि रहीं।

अतः नारी निन्दा रूप है जैसे पुरुष शरीर का निर्माण किन्हीं और वस्तुओँ से हुआ हो।

संत गरीबदास का कथन फिर भी ठीक है कि जो बिना विचारे नारी-गत होता है उसकी दुर्गति अवश्यंभावी है।

संतों की परंपरा में और नारी निन्दा में पहला नाम कबीर का। यों तो कबीर बड़े क्रान्तिकारी और बहुत संवेदनशील थे, इतने कि चक्की चलती देख रो पड़ते थे। पर इस ओर कभी उनकी दृष्टि नहीं गई कि कि संसार के बंधनों में नारी भी उतना ही छटपटाती होगी, जितना कि पुरुष। क्योंकि ईश्वर ने दोनों को समान रूप से मन, आत्मा और इन्द्रियाँ दे कर सिरजा है और दोनों एक ही पथ के सहयात्री हैं। नारी को ठगिनी, पापिनी, डाकिनी-नागिनी कह कर वे क्या कहना चाहते हैं?यही न कि पुरुष उससे बचे। एक प्रश्न उनसे पूछने का मन होता है- 'जो तू सच में पुरुष कहाया, नारी देह से काहे आया?"

बात केवल कबीर की नहीं अधिकतर संतों और निर्गुणियों की है। लेकिन जिस परिवेश से वे लोग आए थे वहाँ घर की स्त्रियों से गाली-गलौज करना, घर के उत्तरदायित्व से कन्नी काट जाना और अपने अहं की तुष्टि के लिये स्त्री पर दोषारोपण करना रोज़मर्रा की बात थी। आज भी समाज के निम्न-वर्गों में यही सब देखने को मिलता है। बल्कि स्त्री परिश्रम कर अपना और बच्चों का पेट भरने को धनार्जन करती है तो आदमी उसे भी हड़प जाना चाहता है, ऊपर से आशा करता है कि वह सती-पतिव्रता बनी रहे।

इन संतों में सभी निम्न-वर्ग के नहीं थे इसलिये उन के विचारों में भी अंतर है।

जगजीवन साहब ने नारी-निन्दा न कर सदाचारी जीवन पर बल दिया उनका कथन है-

गृहिणी त्याग कहा वनवासा।

जो उनके सुलझेपन का द्योतक है। उन्होंने पुरुष और नारी के भेद को व्यर्थ बताते हुए उन्हें एक ही वस्तु के दो नाम माना और दोनों में जीवात्मा की समान रूप से विद्यमानता की बात की। संत दूलनदास के अनुसार भी -

'जगतमातु वनिता अहै दूसी जगत जियाव,

निन्दनजोग न ये दोऊ कह दूलन सतभाव। '

डॉ। अंबाशंकर नागर का मत है, 'संत-काव्य एक समूह-गान जैसा है जिसकी पहली पंक्ति को कोई प्रतिनिधि संत गाता है और शेष संत उस रामधुन में उसके द्वारा गाई गई पंक्ति को दोहराते रहते हैं। '

निन्दा के इन्हीं स्वरों का निर्वाह अधिकतर संतों में प्राप्त होता है। सोच-विचार करनेवाले संतों ने इस पर रोक लगाने की चेष्टा भी की

दरिया साहब का कहना था -

नारी जननी जगत की, पाल-पोस दे तोष,

मूरख राम बिसारि करि ताहि लगावै दोष।

गुजरात के संत प्रीतम दास ने समदर्शी बन कर नारी-पुरुष दोनों को आनन्द-स्वरूप हरि का रूप माना। उनके अनुसार तो पुरुष ही पतित होता है अतः नारी किसी प्रकार निन्दनीय नहीं।

इस काल के संत-काव्य में कुछ महिलाओं का भी योगदान है

जिनमें प्रमुख नाम हैं -मीराँ बाई, सहजो बाई दयाबाई आदि। सहजो बाई और दयाबाई अपने गुरु के मत के विपरीत न जा सकीं और उनके स्वर में स्वर मिलाती रहीं

पर मीराँ बाई के काव्य द्वारा एक भुक्तभोगी नारी की वास्तविक स्थिति का अनुमान किया जा सकता है।

मान्यता यही कि नारी जीवन का पति और परिवार से उच्च कोई उद्देश्य हो ही नहीं सकता। जो पुरुष के लिये त्याज्य है वह नारी के लिये जीवन का लक्ष्य बना दिया गया। इसीलिये मीराँ के अद्भुत प्रेम को नहीं समझा गया और उसे सहानुभूति नहीं मिली। नारी की नियति बना दी गई थी समाज, धर्म और परिवार की रूढ़ियों में कठपुतली के समान आचरण करती रहे। क्योंकि मीराँ ने अपना स्वतंत्र मार्ग चुनने का साहस किया था, यही उनका सबसे बड़ा अपराध था। परिवार और समाज ने उन्हें आरोपों, आक्षेपों, व्यंग्य, लांछन और प्रतारणाओं से बेध कर उनके स्वाभिमान, आत्मबल और इच्छाशक्ति को रौंद कर एक कुण्ठित व्यक्तित्व में परिणत कर देना चाहा था। उन्हें कुलनासी, बावरी, राँड जैसी उपाधियाँ मिलीं, जीवन भर सास, ननद, देवर का दुर्व्यवहार झेला, और ज़हर का प्याला देकर उन्हें समाप्त करने के कुकृत्य भी किये गये

लेकिन मीराँ उस अदम्य आस्था का नाम था जो किसी के सामने झुकी नहीं, कुण्ठित नहीं हुई। शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलते-झेलते जब उनकी सहन-शक्ति ने जवाब दे दिया तो उन्होंने घर छोड़ दिया -

सास लड़ै मेरी ननद खिजावै, राणा रह्या रिसाय,

पहरो भी राख्यो, चौकी बिठाइयो ताला दियो लगाय।

♦♦ • ♦♦

लोग कहें मीराँ भई बावरी सासु कहै कुलनासी रे।

और भी -

जहर का प्याला राणा भेज्यो। । ।

उस युग में नारी का दर्द जाननेवाला कोई नहीं था।

इस सब से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि नारी का पारिवारिक और सामाजिक जीवन दूसरों की दया पर निर्भर था।

सास ननद बहू को तरह-तरह के कष्ट देती थीं, पति ही उसका एकमात्र आश्रय था लेकिन वह भी कुछ दिन सुहागिन बनाता था, फिर तो दूसरी की चाह उसका स्थान ले लेती थी। बहु-विवाह के कारण सौत का दुख निरंतर उसे सालता था। लेकिन यही वह समय था जब वंचिता नारी ने भक्ति का अधिकार प्राप्त किया।, समाज के निम्न-वर्ग के साथ स्वामी रामानन्द ने स्त्री को भी यह अधिकार दिया और इस समय के संतों ने स्त्रियों को भी अपना शिष्य बनाया। । मीराँ बाई और झाली रानी, संत रैदास की शिष्या कही जाती हैं। सहजोबाई, दयाबाई, जनाबाई आदि संत-कवयित्रियों ने भी इस युग को अपनी रचनाओं से समृद्ध किया। एक बड़ी अजीब बात है कि जिस नारी से बचने के लिये ये महापुरुष सब कुछ छोड़कर भाग निकले और रमते-राम बन गये वह नारी निरंतर उनके मन पर छाई रही। इसीलिय उसके लिये निन्दा औऱ घृणा व्यक्त कर वे अपने को विरक्त और उच्च स्तर का सिद्ध करने का प्रयास करते रहे। लेकिन भक्ति के तन्मय क्षणों में उस परम पुरुष की भार्या बन कर उन्होंने अपनी आत्मा मे गुंजारते सत्य को वाणी दी और साधक के रूप में स्वयं को कन्या, यौवनमयी नारी, परिणीता, सुन्दरी और सती की भूमिकाओं में रख संपूर्ण नारीत्व को शिरोधार्य कर स्वयं को नारी-निन्दा के पाप से मुक्त कर लिया।

आत्मा का नारी रूप में चित्रण समूचे संत-काव्य में हुआ है। आगे सगुण काव्य में भी इस परंपरा का निर्वाह हुआ, रीति-काल में भी यह धारा टूटी नहीं और वर्तमान साहित्य में भी यत्र-तत्र दिखाई दे जाती है।

प्रेम-मार्गी कवियों में फ़ारसी प्रभाव मुखर हुआ। अपने प्रेम-काव्यों में उन्होंने नारी को पुरुष से ऊँचा स्थान दिया।

वहाँ परमात्मा को नारी और साधक को पुरुष रूप में प्रस्तुत किया गया है। अपने से उच्च स्तर की असीम रूप और गुणों से संपन्न कुमारी को प्राप्त करने के लिये, पुरुष, संसार त्याग, योगी बन कर निकल पड़ता है। कोई मानवेतर प्राणी, जिसे गुरु का रूप माना गया है उसका मार्ग-दर्शन करता है रास्ते में पड़नेवाली बाधाओँ को पार करने के क्रम में वह अपना जीवन भी दाँव पर लगा देता है

तब उसका प्रेम फलीभूत होता है। इन कवियों का उद्देश्य इश्क़मजाज़ी से इश्क़ हकी़की़ तक ले जाना है। इसलिये हम नहीं मान सकते कि नारी के प्रति उनके हृदय में पूज्य-भाव या सम्मान की भावना थी। अपनी ब्याहता और समर्पिता रूप-गुण-संपन्न पत्नी को छोड़ कर यात्रा पर निकलते समय उन्हें ज़रा भी ग्लानि नहीं होती थी। जायसी ने तो उस निष्ठावान पत्नी को 'दुनिया-धंधा' कह कर उसकी ओर से सहानुभूति का रास्ता ही बंद कर दिया। पति के विरह में दुखी रहना उसका परम धर्म है। और उस वेदना का वर्णन बड़ी रुचि पूर्वक बारहमासे में किया गया है।

इन प्रेम-काव्यों में कुछ नई स्थापनाएँ भी मिलती है। मुल्ला दाऊद के चंदायन में बाल्यवस्था में विवाहित चन्दा, पति की उदासीनता के कारण मायके चली आती है

लोरिक की वीरता देख कर वह उसके प्रति आकर्षित होती है और लोरिक अपनी विवाहिता पत्नी को छोड़ कर चन्दा को भगा ले जाता है। अंत में उन दोनों के प्रेम को सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है। सदयवत्स और सावलिंगा की प्रेम-कथा में भी सावलिंगा का विवाह अन्यत्र होने के बाद भी वह सदयवत्स की हो जाती है। अर्थात् विवाहिता के अन्य पुरुष के प्रति प्रेम को भी स्वीकृति मिली है।

ये प्रेम-गाथाएँ सामाजिक पृष्ठभूमि में नहीं नहीं रची गई हैं।

इनमें नारी-पुरुष का प्रेम ही पर्याप्त है अन्य संबंधों को महत्व नहीं दिया गया है।

सगुण भक्ति के काव्य में नारी की स्थिति निर्गुण काव्य से भिन्न है

राम और कृष्ण भक्त कवियों ने अपने आराध्यों की परिकल्पना युगल-रूपों में की है उन्होंने उनमें अभिन्नता स्थापित कर नारी को पुरुष की चिर-सहचरी माना। नारी जीवन की विभिन्न भूमिकाएँ राम-काव्य में प्राप्त होती है। और संबंधों में मर्यादा का पूरा-पूरा निर्वाह है। विमाता को प्रत्येक स्थिति में माता के समान आदर देना, भाभी का पूरा सम्मान शवरी जैसी नारियों से सहज और आदरपूर्ण व्यवहार राम-काव्य में ही संभव हुआ है। स्त्री की इच्छा का पूरा मान, चाहे कैकेयी का वरदान हो चाहे सीता की वन-गमन का आग्रह। 'वधू लरकिनीं पर घर आईं, राखेहु नयन पलक की नाईं '

कह कर नव-वधुओं के प्रति स्नेह और, संरक्षण की भावना व्यक्त की गई है। अनुज-वधू, भगिनी, सुत-नारी कन्या के समान मान्या हैं। पर इसके साथ ही परंपरा से प्राप्त कुछ प्रभाव भी यहाँ दिखाई दे जाते है -अवगुन आठ और ताड़ना की बात !स्वतंत्र होने पर बिगड़ जाने की संभावना भी उन्हीं प्रभावों को सूचित करती है।

राम -काव्य में प्रवृत्ति मार्ग की महत्ता का प्रतिपादन है। इसलिये नारी को प्रतिष्ठा मिली साथ ही दोनों को एक व्रती और निष्ठापूर्ण होने का आदर्श प्रस्तुत किया गया। पुरुष अकेले कोई धार्मिक कार्य संपन्न नहीं कर सकता, अर्धांगिनी के साथ ही उसकी पूर्णता है। इन मर्यादावादी कवियों ने नारी के साथ मर्यादापूर्ण व्यवहार का औचित्य सिद्ध किया और उसे कामिनी रूप में दखना अनुचित बताया। पुरुष अगर परनारी के साथ यही दृष्टि रखे तो समाज की अधिकांश गन्दगी का सफ़ाया हो जाये।