परंपरागत अदाज़ में एक जुदा अंदाज़ का जादू (मुहम्मद अली सिद्दीक़ी) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उर्दू अदब में एक तेजस्वी समालोचक की हैसियत से इस आलेख के लेखक को विशेष रूप से आदर प्राप्त है। फ़ैज़ की शायरी की ज़बान, बिंब, प्रतीक, रूपक आदि पर अक्सर विवादपूर्ण दृष्टिकोण की चर्चा की जाती है। उर्दू काव्यभाषा की परंपरा में फ़ैज़ की नयी उद्भावनाओं और समकालीन यथार्थ को व्यंजित करने वाली कथन-शैली पर मुहम्मद अली सिद्दीक़ी का एक ख़ास नज़रिया है। इस समय पाकिस्तान की उर्दू साहित्य-समीक्षा में प्रगतिशील मानदंडों के वे प्रामाणिक व्याख्याता माने जाते हैं। यह लेख उनके एक निबंध संग्रह ‘मज़ामीन’ से लिया गया है।

फ़ैज़ निर्विवाद रूप से फ़ैज़ हैं उन्होंने परंपरागत काव्य भाषा से अपने धीमे स्वभाव, सुंदर सांस्कृतिक रचाव और तार्किक खोज पर आधारित वैज्ञानिक विश्वास के लिए जिस ढंग से बिल्कुल जुदा अंदाज़ से काम लिया है वह न केवल उनकी कलात्मक श्रेष्ठता का प्रमाण है बल्कि उस सत्य की घोषणा भी है कि उन्होंने परंपरागत भाषा पर उठायी जाने वाली सामूहिक आपत्तियों को निराधार और अनावश्यक घोषित कर दिया है। फ़ैज़ परंपरागत काव्य भाषा से संबंध-विच्छेद किये बिना एक बड़े रचनाकार के रूप में उभरे। जबकि आधुनिक युग के कई बड़े रचनाकार चली आ रही काव्य-शैली को निरस्त किये बिना या उस में दरार डाले बिना अपनी विशेष काव्य शैली आविष्कृत न कर सके। ये फ़ैज़ ही हैं जो अपने चिराग़ों को हाफ़िज़ और उर्फ़ी के चिराग़ों से जलाते और मसहफ़ी की हसीं फज़ा में बाक़ायदा तौर पर सांस लेते हुए सौदा और ग़ालिब की ओर बढ़ते हैं।

मसहफ़ी फ़ैज़ के सर्वप्रिय कवियों में से हैं। वे मसहफ़ी और साथ ही साथ सौदा के रंग में इस हद तक डूबे हुए हैं कि ग़ालिब से सभी प्रकार के लगाव के बावजूद फ़ैज़ ग़ालिब के कौतुक भरे वातावरण से बचकर निकल जाते हैं। फ़ैज़ ने प्रियतम को सच्चा और अच्छा मानते हुए भी अपने अनोखेपन पर अडिग रहते हुए मसहफ़ी और सौदा के रंगों से एक तीसरा रंग पैदा करने की कामयाब कोशिश की है। उन्होंने अपने जाम में मुहब्बत की पवित्रा शराब के साथ अपनी राजनीतिक दृष्टि को कुछ इस ढंग से प्रस्तुत किया है कि वे परंपरागत काव्य भाषा की सैकड़ों सालों की जादूगरी को मंत्रा बनाते हुए उसे अपने विशेष जादू से चमत्कृत करते हुए दिखायी देते हैं। उन्होंने इस प्रभामंडल को विस्तृत करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पटल पर सक्रिय समान विचार के कवियों से कुछ इस ढंग से आदान-प्रदान किया है कि उर्दू कविता के इतिहास का एक उज्ज्वल अध्याय बन गया है। जब फ़ैज़ अपने शेर में वास्तविकता जगाते हैं तो ऐसी स्थिति में वे बड़ी हद तक धार्मिक ज्ञान का भी उपयोग करते हैं।

फ़ैज़ ने सूफ़ियाना और सामाजिक ज्ञान को प्रायः विस्मृत नहीं किया है लेकिन शायद ही उर्दू के किसी और शायर ने स्पष्ट रूप से धार्मिक उपक्रमों से इस हद तक क्रांतिकारी काम लिया हो जिस हद तक फ़ैज़ ने। उनके जीवन काल में पारंपरिक काव्य पद्धति के विरुद्ध कई बड़े और महत्वपूर्ण विद्रोह हुए लेकिन वे बहुत हद तक केवल इस कारण निष्प्रभावी हो गये कि फ़ैज़ जैसे महान रचनाकार ने परंपरागत भाषा की कमियों के खि़लाफ़ सभी तर्क निरस्त कर दिये। ऐसा नहीं था कि ये आपत्तियां पूरी तरह से ग़लत या अनावयक थीं। लेकिन फ़ैज़ ने उन आपत्तियों को जिस ढंग से प्रभावहीन बना दिया इसके कारण फ़ैज़ के समानधर्मा और उनके अनुयायियों के लिए रास्ते अपने आप आसान हो गये। वर्तमान परिस्थिति फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के लिए बहुत अनुकूल रही लेकिन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की अप्रत्याशित लोकप्रियता ने फ़ैज़ के अध्ययन के रास्ते में कई रुकावटें खड़ी कर दी हैं। चूंकि कई साहित्यिक पंडित इस भ्रम में हैं कि आने वाले कुछ वर्षों में साहित्यिक भाषा बदल जायेगी या इस हद तक बदल जायेगी कि शायद आने वाली पीढ़ी ही फ़ैज़ की गिनती क्लासिक कवि के रूप में करने लगे। फ़ैज़ की काव्य पद्धति पर आज भी वे सभी आरोप लगा रहे हैं जिन्हें फ़ैज़ जैसे शायर के खि़लाफ़ प्रतिक्रिया ही माना जा सकता है। यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या फ़ैज़ कोई वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं? क्या उनकी कविता की भाषा के विरुद्ध आज से बीस साल पहले भी नयी कविता के दावेदारों ने आसमान सिर पर नहीं उठा लिया था, और क्या आज भी गद्यमय कविता के कई समर्थक फ़ैज़ की काव्य भाषा को पारंपरिक घोषित कर उसे आधुनिक विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अपर्याप्त घोषित नहीं कर रहे हैं?

फ़ैज़ की शैली निश्चित रूप से दो प्रकार के दृष्टिकोण को जन्म देती है। उसे स्वीकार किया जाये या फिर उसे अस्वीकार किया जाये। लेकिन यह संभव नहीं है कि फ़ैज़ की काव्य शैली को पसंद करके उससे दूर रहा जाय। आज हमारे बीच ऐसे बहुत से कवि हैं जिन्होंने इस असफल प्रयास में अपना भविष्य गंवा दिया और ऐसे महानुभाव भी हमारे बीच उपस्थित हैं जिन्होंने फ़ैज़ की दार्शनिक भाषा को भी अनसुना कर दिया और विरोधी राय की आतिशबाज़ी की सहायता से थोड़ी सी रौशनी पैदा करके अपने उद्देश्य की पूर्ति कर गये।

फ़ैज़ की काव्य भाषा के विषय में पहली बात तो यह है कि यह हमारी काव्य-परंपरा की निरंतरता में है। स्पष्ट है कि विद्रोह परंपरा ही के किसी न किसी मिलन बिंदु से फूटता है। फ़ैज़ अपने विरोधियों के हर वार से इस आधार पर बचते रहे और सुरक्षित होते चले गये कि वह अजनबी भाषाओं के अनमोल रूपकों और कुछ अनोखे काव्यानुभव को उर्दू के भंडार में कुछ इस ढंग से रचनात्मक ईमानदारी के साथ शामिल करते हैं कि ये गढ़े हुए शब्द फ़ैज़ की रचना में शामिल होते ही फ़ैज़ की अपनी खोज नज़र आने लगते हैं। जबकि फ़ैज़ से कमतर रचनाकारों के यहां इस ढंग का अधिग्रहण चोरी मालूम पड़ता है और उनकी पंक्तियां चीख-चीख कर बताती हैं कि यहीं कहीं हमारे बीच ‘बाहरी तत्व’ छिपा बैठा है। फ़ैज़ की काव्य शैली न केवल परंपरा के सुंदरतम दौर से संबद्ध होती है बल्कि वह उसे अपने विशेष परिवेश, संस्कृति, पीढ़ियों के संस्कार और अच्छे-बुरे के बारे में परंपरागत अनुभवों से गुज़ारते हुए नये युग की आवश्यकताओं से संबद्ध कर देते हैं। और इस तरह फ़ैज़ की परंपरा की अवधारणा में वह सब कुछ आ जाता है जो उनके लिए राजनीतिक रूप से ठीक भी होता है। फ़ैज़ के यहां राजनीतिक रूप से ठीक और सौंदर्यशास्त्राीय ढंग से सुंदर होने में किसी प्रकार का कोई द्वंद्व नहीं है। फ़ैज़ की रचनाओं का अध्ययन अगर केवल इस पहलू से किया जाये तो उनकी शायरी में राजनीति और सौंदर्यशास्त्र दोनों एक दूसरे के संबंध को स्पष्ट करते हैं। एक ख़ास ढंग का राजनीतिक उद्देश्य ख़ास ढंग का सौंदर्यशास्त्रीय नियम उत्पन्न करता है और विशेष संबंधों को चिह्नित भी। इस ढंग से प्रतीकों को नये सिर से अपनाने की इच्छा उत्पन्न होती है और यह काम उस समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब उपमानों को अनायास ही व्यवहृत करने से अर्थ स्पष्ट हो सकता है। फ़ैज़ इस मंज़िल से इस तरह गुज़रते हैं कि उनकी शायरी की पंक्तियों के बीच का अर्थ छिपा नहीं रहता बल्कि हमसे बातचीत करता रहता है। कई बार उनकी शायरी चौंका देने वाला जादुई दायरा बन जाता है जिसका अर्थ उसी समय स्पष्ट हो पाता है जब पाठक फ़ैज़ की वेव लैंथ पर आ जाये।

फ़ैज़ की काव्य शैली के विरोध का एक कारण तो केवल यह जान पड़ता है कि फ़ैज़ ने अपने चिंतन के साथ श्रेष्ठ रचनात्मक तकनीक को मिला दिया है जो हर किसी के बस की बात नहीं है। फ़ैज़ के चिंतन पर आक्रमण किया जा सकता है। फ़ैज़ की तकनीक पर नाक-भौं चढ़ायी जा सकती है। और फ़ैज़ की काव्य भाषा की कई नयी शैलियों पर उंगली भी उठायी जा सकती है। लेकिन जब यही सब अलग-अलग अंग-प्रत्यंग आपस में मिलकर अपने डवेंपब का निर्माण कर देते हैं तो फिर सारे हमले बेकार हो जाते हैं। क्योंकि अब युद्ध केवल काव्य प्रभाव ही से हो सकता है और काव्य-प्रभाव के विरुद्ध युद्ध परंपरागत काव्य शैली की संभावना से युद्ध किये बिना संभव नहीं हो पाता और यह काम फ़ैशनप्रिय विद्रोह के बस की बात नहीं है।

फ़ैज़ ने पहला युद्ध तो परंपरावादियों के विरुद्ध लड़ा। वह उस समय जब उन्होंने अपनी नज़्म में जो ग़ज़ल ही की परंपरा का एक अंग थी, प्रगातिशील अर्थ को इस तरह ग्रहण किया कि वह काव्य-परंपरा में बोझ-सा न लगे। उन्होंने अपनी नज़्मों में ग़ज़ल के सभी प्रकार के माधुर्य को मिलाते हुए उनके अर्थ के लिए रास्ते निकाले जो कई कवियों के विचार में छंद मुक्त कविता में ही संभव थे। फ़ैज़ ने यह मोर्चा अपने पहले संग्रह नक़्शे-फ़रियादी में लिया था।

फ़ैज़ ने दूसरा मोर्चा उस समय जीता जब बादे-सबा और ज़िंदांनामा के प्रकाशन ने कुछ और बाधाएं पार कीं और परंपरावादियों को एक भ्रम में डालकर बहुत संकट में फंसा दिया। जर्जर व्यवस्था को तहस-नहस करने के लिए जिस काव्य भाषा का प्रयोग किया गया वह मानो जर्जर व्यवस्था को बचाने के लिए प्रस्तुत की जा रही है। यहां फ़ैज़ ने भाषा के विषय में अपनी राजनीतिक समझ से काम लिया जिसके अनुसार भाषाएं सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था से संबद्ध नहीं होती बल्कि उनकी एक अलग व्यवस्था होती है और वे समाज की प्रगति के साथ विकसित होती हैं। फ़ैज़ भाषा के व्यावहारिक महत्व के समर्थक थे। सामंतवादी युग और पूंजीवादी युग की भाषा का अंतर शब्दकोश में सतत वृद्धि के अंतर से संबद्ध किया जाता है। भाषा का व्याकरण और व्यवहार जैसे का तैसा रहता है। अगर फ़ैज़ की काव्य शैली के विरोधी इस बुनियादी वैज्ञानिक वास्तविकता को दृष्टि में रखते तो उन्हें इस अपमान का सामना न करना पड़ता जो उन्हें तर्कसंगत प्रत्यक्षवाद (logical positivism) के पश्चिमी विद्वानों के उस दावे के कारण उठाना पड़ा कि भाषा चाहे वह कोई हो, मानवीय स्वभाव को अभिव्यक्त करने में अक्षम है। फ़ैज़ उन काव्य विमर्शों से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। वे अपनी काव्य भाषा पर मज़बूती से डटे रहे। वे जानते थे कि उर्दू काव्य परंपरा के भीतर रहते हुए दार्शनिक विषय और हास्य-व्यंग्य के भावों को भी व्यक्त किया जा सकता है। फ़ैज़ ने यह मोर्चा अभिव्यक्ति और संप्रेषण की आवश्यकता पर विश्वास रखते हुए जीता। जबकि फ़ैज़ की काव्य शैली को ख़तरनाक हद तक मधुर घोषित करने वालों ने फ़ैज़ के मुक़ाबले में समसामयिकता से प्रयोगवादी उद्भावनाएं प्रस्तुत की थीं, जो स्वीकृत नहीं हो सकीं। संभव है कि भविष्य में यही खोज फ़ैज़ के रंग का असर कम कर सके। किंतु इस समय फ़ैज़ के आसपास होने वाले समस्त विद्रोहों की अपील बहुत सीमित है। यह विशेष रूप से कुछ लोगों के उस दावे के ख़ारिज होने के बाद कि परंपरागत भाषा को निरस्त कर दिया जाये और एक नयी गणितीय भाषा गढ़ ली जाये।

फ़ैज़ ने उर्दू की काव्य परंपरा के विरुद्ध जो मोर्चा जीता है वह उन लोगों का भी ध्यान खींचता है और दाद चाहता है जो उनके राजनीतिक चिंतन से असहमति रखते हैं। केवल इसी ढंग से फ़ैज़ की वैज्ञानिक चिंतन पद्धति का समर्थन किया जा सकेगा जिसका उद्देश्य उर्दू भाषा की काव्य परंपरा का बचाव था। फ़ैज़ की काव्य भाषा का अध्ययन किया जाये तो ऐसा लगता है कि हम विशुद्ध सामंतवादी युग में सांस ले रहे हैं। जब वैभवशाली शब्दावली और जड़ावदार भाषा के भीतर कठोर वास्तविकता को छिपाना उद्देश्य होता था, तो कवि इस ढंग की भाषा का प्रयोग केवल इसलिए किया करते थे कि शासक वर्ग की आवभगत रूपवादिता और कलावादी पच्चीकारी द्वारा की जा सके। फ़ैज़ ने इस मेकेनिज़्म से रक्षात्मक के बजाय आक्रामक दृष्टि से काम लिया और वे सफल रहे। यह सब कुछ इसलिए संभव हुआ कि फ़ैज़ ने क्लासिकी शब्दकोश से लाभ उठाते हुए उस वास्तविकता को अपने सामने रखा जो उनकी नौजवानी और जवानी के दौर के उपमहाद्वीप के समाज में Base यानी Content के रूप में थी। उस ज़माने में परिवर्तन और क्रांति के सभी प्रयास क़ौमपरस्त राजनीति, मज़दूर आंदोलन और अंतर्राष्ट्रीयतावाद के अनुभव, एक विशेष ढंग की अंतर्वस्तु (Content) को उपयुक्त रूप (form) में व्यक्त कर रहे थे। हम देखते हैं कि फ़ैज़ की शायरी में क्रांतिकारी विचार के लिए भी कई बार धार्मिक अभिधान (Connotation) के शब्द इस्तेमाल होते हुए नज़र आते हैं, शायद यह सजग चयन के कारण हो। यह सब कुछ इसलिए है कि फ़ैज़ अपनी शायरी का जाल दूर तक और स्पष्ट रूप से फेंकना चाहते थे।

कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :

ख़ुदा वह वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू .... गुरूरे हुस्न सरापा नियाज़ हो तेरा तवील रातों में तू भी क़रार को तरसे तेरी निगाह किसी ग़मगुसार को तरसे खि़ज़ां रसीदा तमन्ना बहार को तरसे कोई जबीं न तेरे संगे आस्तां पे झुमके (नक़्शे-फ़रियादी)

इस बंद में ‘खु़दा’, ‘जबीं’ और ‘संगे आस्तां’ पर ग़ौर कीजिए फ़ैज़ प्रसिद्ध धार्मिक उपादानों से विशुद्ध रूमानी वातावरण उत्पन्न कर रहे हैं। कुछ और उदाहरण देखें :

हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाये काफ़िरों की नमाज़ हो जाये इश्क़ दिल में रहे तो रुस्वा हो लब पे आये तो राज़ हो जाये .... किनारे रहमत हक़ में उसे सुलाती है सुकूते-शब में फ़रिश्तों की मर्सिया ख्वानी तवाफ़ करने को सुबहे बहार आती है सबा चढ़ाने को जन्नत के फूल लाती है। (नक़्शे-फ़रियादी)

मुतलक़ुल-हुक्म है शाराज़ए-असबाब अभी साग़र नाब में आंसू भी ढलक जाते हैं लगज़िशे-पा में भी है पाबंदी आदाब अभी .... खुशा-नज़ाराये-रुख्सारे’ यार की साअत खुशा-क़रारे दिले बेक़रार का मौसम हदीसे बादा-ओ-साक़ी नहीं तो किस मसरफ़ खि़रामे-अब्रे सरे-कोहसार का मौसम .... हमारे दम से है कूए-जुनंू में अब भी ख़जल उबाए शेख़ो-क़बाए-अमीरो-ताजेशही हमीं से सुन्नते मंसूरो-क़ैस ज़िंदा है हमीं से बाक़ी है गुल दामनी-ओ-कज कुलही .... बोलो कि शोरे-हश्र की बुनियाद कुछ तो है बोलो कि रोजे़-अदल की बुनियाद कुछ तो है (दस्ते-सबा)

उपर्युक्त पंक्तियों में आये ठेठ पारंपरिक शब्द व्यापक अर्थों में क्रांतिकारी अर्थों के वाहक हैं, और यही फ़ैज़ की विशेष पहचान है ‘पेकिंग की तामीर’ शीर्षक कविता देखें :

यूं गुमां होता है बाज़ू हैं मेरे साथ करोड़ों और आफ़ाक़ की हद तक मेरे तन की हद है दिल मेरा कोहो-दमन, दश्ते-चमन की हद है मेरे केसे में है रातों का सियहफ़ाम जलाल मेरे हाथों में है सुबह की अनामन कलकूं मेरे आग़ोश में पलती है खु़दाई सारी मेरे मक़दूर में है मोजज़ए-कुन-फ़यकूं

फ़ैज़ अंतिम पंक्ति तक इस तरह आते हैं कि ‘मोजज़ए कुन फयकूं’ की तरकीब तक पहुंचते हैं। फ़ैज़ ने एक विशुद्ध धार्मिक उपादान को कुछ से कुछ बना दिया है।

फ़ैज़ की कविता ‘शोरिशे-जं़जीर बिस्मिल्ला है’ देखें या ‘फिर आज बाज़ार में ‘पाबजौलां चलो’ दोनों नज़्मों में इस्लामी संस्कृति में सांस लेते हुए उपादानों को कुछ इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि परंपरागत काव्यशैली की संभाव्य शक्ति फ़ैज़ की क़लम में सिमट आई है :

नागहां आज मेरे तार नज़र से कटकर टुकड़े टुकड़े हुए आफ़ाक़ पर ख़ुर्शीदो-क़मर

फिर ‘ज़िंदां ज़िंदां शोर अनलहक़ महफ़िल महफ़िल क़ुल-क़ुल हैं’ जैसी पंक्ति पर रुकिये, और फ़ैज़ के यहां पारंपरिक रस की चाश्नी महसूस कीजिए। ये उद्धरण केवल बानगी भर हैं। ज़ाहिर है कि फ़ैज़ की कविता की मधुरता को कमज़ोरी मान लिया गया। फ़ैज़ पर पारंपरिक भाषा के प्रयोग का आरोप अधिक तूल न पकड़ता अगर उनके एक समकालीन कवि नून मीम राशिद ने फ़ैज़ की परंपरा के साथ ‘मिरंजां-मिरंजी’ (न किसी को दुखी करना न स्वयं दुखी होना) को आलोचना का लक्ष्य न बनाया होता। फ़ैज़ ‘हलक़ाए अरबाबे-ज़ौक़’ (नये ढंग के रचनाकरों का मंडल-हिंदी के प्रयोगवाद जैसा) के काव्यशास्त्र (सनकी) से नहीं भिड़ते तो शायद यह समस्या इतनी गंभीर नहीं होती। लेकिन जो कुछ भी हुआ वह बहुत आवश्यक था। ब्रेख्त और लुकाच के बीच भाषा को लेकर गतिरोध राशिद और फ़ैज़ के बीच के विवाद से मिलता-जुलता है। केवल एक बात अलग है कि लुकाच और राशिद अपने समकालीन प्रतिद्वंद्वियों के बारे में कुछ अधिक सनकी हैं। लेकिन दोनों का महत्व अपनी जगह स्थायी है।

फ़ैज़ की मूल विशेषता यह है कि उन्होंने इकहरे अर्थों वाले उपादानों को नये संदर्भों में प्रस्तुत किया। परंपरागत अन्योक्ति और उपमान केवल उसी रचनाकार के यहां आत्मसात हो सकते हैं जो प्राचीन और नवीन के खांचों में विभाजित न हो। वह अपनी आधुनिकता में प्राचीनता के सार्थक तत्वों को स्वीकारे और अपनी प्राचीनता में सभी प्रकार की आधुनिकता का समर्थन करे। फ़ैज़ ने अर्नेस्ट फिशर की तरह अपनी काव्य भाषा को अपने समय की चिंता तक सीमित कर लिया है। फ़ैज़ की शायरी अपने समय के एक ताक़तवर चिंतन को प्रदर्शित करती है और यह अजीब बात है कि आज़ादी के बाद वे क्रमशः अधिक राजनीतिक भंगिमा स्वीकार करते हुए दिखते हैं, जिसकी एक वजह तो यही है कि आज़ादी उनके लिए भ्रम निकली :

यह दाग़ दाग़ उजाला यह शबगज़ीदा सहर

और फिर लगातार जेल के कष्ट झेले। जिन्होंने आज़ादी और उसकी राह में रुकावटों को कुछ इस तरह चित्रित किया कि उनके यहां वतन और महबूब के बीच का अंतर समाप्त हो गया और हम देखते हैं कि जैसे फ़ैज़ ने यह तारीफ़ अपनी काव्य भाषा के बयान में की है।

खु़द फ़ैज़ की काव्य-भाषा के तेवर में शामे-शह्रे-यारां के साथ-साथ परिवर्तन स्पष्ट नज़र आता है और जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं फ़ैज़ के यहां सुंदरता के बजाय तेज और ओज का रंग दिखता है। भाषा कम क्लासिक होती चली जाती है। अपितु कई जगह कथात्मकता का रंग अलग से दिखता है, फ़िलिस्तीन और लेबनान की घटना हृदय विदारक होने के कारण ओज गुण उत्पन्न कर देती है। इस चमत्कार का आरंभ इक़बाल के इस निम्नलिखित शेर से होता है:

गुमां मुबर्रिका बियाबां रसीदकार मुगां हज़ार बादए-नाखु़र्दा दर रंगे-ताक अस्त

इस संग्रह में शामिल नज़्म ‘मेरे दर्द को जो ज़बां मिले’ इस तरह शुरू होती है :

मेरा दर्द नग़मए बेसदा मेरी ज़ात ज़र्रा बेनिशां मेरे दर्द को जो ज़बां मिले मुझे अपना नामो-निशां मिले मुझे राज़ नज़्मे-जहां मिले मेरी ख़ामुशी को बयां मिले मुझे कायनात की सरवरी मुझे दौलते-दो जहां मिले।

यह नज़्म फ़ैज़ की मृत्यु से ग्यारह साल पहले की है और सन् 1973 ई. से 1984 ई. तक फ़ैज़ सजग रूप से जिस शैली की ओर बढ़ते हुए दिखते हैं वह ‘तुम अपनी करनी करे गुज़रो’ का दौर है। अब फ़ैज़ धीरे-धीरे सरल-सीधी शायरी की तरफ़ आ रहे हैं। इस नज़्म का आखि़री बंद देखिए :

अब क्यों दिन की फ़िक्र करो जब दिल टुकड़े हो जायेगा और सारे ग़म मिट जायेंगे तुम ख़ौफ़ो-ख़तर से दर गुज़रो जो होना है सो होना है गर हंसना है तो हंसना है गर रोना है तो रोना है तुम अपनी करनी कर गुज़रो जो होगा देखा जायेगा

इस संग्रह (शामे-शह्रे-यारां) की ग़ज़ल का एक शेर है :

वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़े ख़ुदा गया वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़याल रोजे़-जज़ा गया

इस शेर में ‘ख़ौफ़े-ख़ुदा’ और ‘रोजे़-जज़ा’ के स्पष्टतः सरल और इकहरे अर्थ की तरकीब से किस प्रकार अलग काम लिया गया है।

‘मरसिया इमाम’ में फ़ैज़ अपनी सोच की छाप की घोषणा कुछ इस तरह करते हैं :

तालिब हैं अगर हम तो फ़क़त हक़ के तलबगार बातिल के मुक़ाबिल में सदाक़त के परस्तार इंसाफ़ के, नेकी के मुरव्वत के तरफ़दार ज़ालिम के मुख़ालिफ़ हैं, तो बेकस के मददगार जो ज़्ाुल्म पर लानत न करे आप लईन हैं जो ज़बर का मुन्किर नहीं मुन्किरे-दीं है

‘उम्मीदे-सहर की बात सुनो’ भी अधिक जटिल संरचना की तरह बढ़ती है

अब इल्तिफ़ात निगार सहर की बात सुनो सहर की बात उम्मीदे-सहर की बात सुनो

और मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर जो यासिर अरफ़ात को समर्पित है, निर्वासन के ज़माने की वतनी शायरी से भरी हुई है। यह संग्रह सन् 1978 की पहली नज़्म ‘मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर’ से शुरू होता है। इसमें जुदाई के मनोभाव हैं और मिलन की आखि़री सरमस्तियां पड़ाव पर हैं, स्मृतियों की बौछार है। मख़दूम की आखि़री याद हो या फुफ़काज के शायर क्रासिन कु़ली की कविताओं के अनुवाद इसी विचार की ओर इशारा करते हैं कि

हर इक दौर में हम, हर ज़माने में हम ज़हर पीते रहे, गीत गाते रहे

स्पष्ट रूप से यह पीछे की ओर देखने का प्रयास है किंतु इस दौर की शायरी में ओज गुण स्पष्ट रूप से दिखता है। बैरूत-प्रवास इस दिशा में अपने आप में प्रेरणा की एक बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

‘लाओ तो क़त्लनामा मेरा’ और ‘तीन आवाज़ें’ स्पष्ट रूप से सरल काव्यशैली की ओर क़दम है लेकिन उन नज़्मों में भी और ख़ास तौर पर ‘तीन आवाज़ें’ का आखि़री हिस्सा ‘निदाए-ग़ैब’ की निम्नलिखित पंक्तियां गवाह हैं कि फ़ैज़ विशुद्ध राजनीतिक प्रयास या उद्देश्य के लिए धार्मिक अभिधान के शब्द बहुत चपलता और सुंदरता से प्रयुक्त करते हैं और इस तरह वे अपनी रचनाओं को बहुआयामी बनाने में सफल हो जाते हैं :

हर एक ऊलुल-अम्र को सदा दो कि अपनी फ़र्दे-अम्ल संभाले उठेगा जब मजमा सरफरोशां पड़ेंगे दारो-रसन के लाले कोई न होगा कि जो बचा ले जज़ा सज़ा सब यहीं पर होगी यहां अज़ाबो-सवाब होगा यहीं से उठेगा रोजे़-महशर यहीं पे रोजे़-हिसाब होगा

फ़ैज़ के ओज और अली सदार जाफ़री के ओज की अवधारणा में समानता ढूंढने का चलन नज़र आने लगा है। उन दोनों समकालीन कवियों की ओज की अवधारणा में काफ़ी अंतर है। फ़ैज़ की भंगिमा विशुद्ध राजनीतिक नहीं है। ‘दो नज़्में फ़िलिस्तीन के लिए’ में फ़ैज़ की ओज की अवधारणा स्पष्ट हो जाती है।

‘गुबारे अय्याम’ फ़ैज़ के अंतिम दिनों की रचना है जो सन् 1983 ई. में इस शेर पर ख़त्म होती है:

या ख़ौफ़ से दर गुज़रें या जां से गुज़र जायें मरना है या जीना है इक बार ठहर जायें फ़ैज़ संभवतः स्पष्ट रूप से वह सब कुछ कह गये जो काव्य भाषा में कहा जा सकता है। शायरी से फ़ैज़ ने और फ़ैज़ से शायरी ने जैसा व्यवहार किया है वह हमारी क़ौमी ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण अध्याय है।

एक ऐसे दौर में जब साहित्य और रोमांचक विधाओं के सभी विभागों ने वे सारे काम अपने जिम्मे ले लिये हैं जब दूसरे समाज में सभी विभागों की उपस्थिति में अपने-अपने ढांचों में पूरे किये जाते हैं। यह कठिन कार्य बहुत हद तक बड़ी खू़बसूरती से साथ पूरा किया जा रहा है। फ़ैज़ ने इस जिम्मेदारी को जिस ढंग से बख़ूबी निभाया है वह नयी पीढ़ी के मन में इस तरह बैठ गया है कि अब तकनीक और रूप के लिए विद्रोह शायरी का असली उद्देश्य यानी अंतर्वस्तु के लिए विद्रोह नहीं रह गया है। फ़ैज़ अपने अनुयायियों और बाग़ियों के लिए केवल इस कारण से भी आदरणीय रहेंगे कि उनकी काव्य शैली से बग़ावत अब बहुत कठिन है। (1985 ई.)

हिंदी अनुवाद : मो० ज़फ़र इक़बाल