परिभाषा, परिधि और पंख: देश-विदेश में स्त्रीत्व की व्याख्या / शेफ़ालिका कुमार

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आदत एक अंधेपन को जन्म देती है और हमे इस प्रकार से अपने आगोश में लेती है कि हम यथार्थ को भूल कर और अपनी चेतना को दबाकर जीने लगते हैं. और फिर, एक दिन कोई ऐसी घटना होती है जो सुनामी की तरह, शांत सतह को फाड़कर ऊपर आती है और अपने चपेट में सबको ले लेती है.

ऐसी ही झगझोरने वाला काण्ड १ ६ दिसंबर को सामने आया. उस घिनौने हादसे की क्रूरता और हिंसा ने घृणा से हमे भर दिया. भारत जाग गया. अखबारों में और टी. वी. पर बलात्कार और नारी शोषण से सम्बंधित वारदातों को प्रमुखता मिलने लगी. हमारे समाज में यह सब तो आये दिन हो रहा था पर हमे आदत सी हो गयी थी इन घटनाओं के साथ जीने की , सो मीडिया भी पहले पृष्टों पर इन्हे छापती नहीं थी. फिर और भी काण्ड सामने आये. अप्रैल में एक पांच वर्षीय लड़की के साथ तो और भी दरिंदगी हुई. दो युवा बलात्कारियों ने हिंसा और बर्बरता की सीमा को हर तरह से पार कर लिया था. यह ही नहीं , रोज़ ऐसी ही घटनाओं की खबर अख़बारों में आने लगी है और हमें लगने लगा है कि वाकई हमारे समाज में बहुत गंदगी हो गयी है.

१६ दिसंबर की घटना के बाद, विवाद और चर्चाएँ होने लगी , नारे लगने लगे और मोमबतियां जला कर , सड़कों पर प्रदर्शन किया गया , इन्साफ के लिए, और औरतों के भविष्य के लिए. क्या उन मोम्बतियों की रोशिनी हमारे छोटे शहरों और कस्बों तक पहुच पायेगी? वहां, जहां औरतों की हालत और भी बदतर है?

आकड़े गवाह हैं की बलात्कार और नारी शोषण से सम्बंधित घटनाएँ हर साल बढती जा रहीं हैं. जहाँ एक तरफ भारत, या उसके कुछ हिस्सों में ग्लोबलाईज़ेशन की धूम है वहाँ भी ये आकड़े बढ़ रहें हैं. महिलायें अमीर हो, शिक्षित हो , या फिर गरीब हों, अशिक्षित हो, एक बिंदु पर आ कर वे एक सामान हो जाती हैं - वह असुरक्षित हैं और अनेक रूपों में उनका शोषण हो रहा है और युगों से होता आया है.

क्यों? कानून और पुलिस अपना काम नहीं कर रही है, वह कारण तो है ही। कई जगहों पर तो रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं. पर उतने ही बडे अपराधी हैं हमारा समाज और हमारे परिवार. क्यों हम भूल जाते है की परिवार में और सामजिक तौर पर नारी के प्रति अपना दृष्टिकोण और अपना व्यवहार बदलना उतना ही ज़रूरी है जितना है एक अच्छी सरकार और पुलिस की मांग करना? ऐसे अपराध के दो पहलू होते है , एक हिंसात्मक पहलू और दूसरा मानसिक. और जब तक समाज में कुछ लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी , ऐसे अपराध होते रहेंगे.

क्या है वह जो हमारे इस व्यवहार और इस दृष्टिकोण के लिए ज़िम्मेदार है? वही इस समस्या की जड़ है. नारी की इस स्तिथि को जन्म दिया है युगों से चलती आई, पितृसत्तात्मक सम्माज की नारी की परिभाषा और उससे जुडी हर चीज़ की परिभाषा. अक्सर परीभाषाओं से परिधि का निर्माण होता है. जब परिभाषा ही गलत हो तो?

चाहे शहर हो या गाँव, हमारा समाज नारी को एक ख़ास अवतार में देखना चाहता है. जब वह अपनी मंशा के अनुसार कोई नया रूप लेती है तो लोगों के गुस्से और हिंसा का शिकार बन जाती है. समाज के सोच से जनमी ये बाते ही समस्या की जड़ हैं और समाज को इन बातों को समझना होगा, नहीं तो जो भी बदलाव आयेगा वह सिर्फ ऊपर से मलहम लगाता जायेगा और अन्दर नासूर बढता रहेगा.

बडे शहरों में कभी- कभी लगता है कि इन सीमायों को औरतों ने बहुत हद तक पार करके अपने आप को सशक्त कर लिया है। कई औरते आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है, पुरुषों की तरह शिक्षित और जागरूक है , यहाँ बड़ी-बड़ी कंपनियों में लगता है कि लिंग भेद को हम कोसों दूर छोड़ आये है. ग्लास सीलिंग बहुत जगह ख़तम हो रही है. पर एक तरफ सड़कों पर आकर , लोगों की निगाह और उनका बर्ताव हमें याद दिला देता है कि बहुत कुछ वहीँ का वहीँ रुका है. जो बदला है वह एक बड़े से क्षीर सागर में पड़ती बूँद का लेहेर्व्रित है जिसकी कोई गणना ही नहीं.

इन आधुनिक औरतों का स्टेटस अनोखा और दिलचस्प हो गया है. त्रिशंकु के सामान है वह. ऊपर -ऊपर से तो समाज उन्हे आगे बढने और ऊचाइयों को चूम लेने दे रहा है, पर समाज की अच्छी औरत की विकृत परिभाषा ने उन्हे अभी भी जकड रखा है. इसीलिए तो हमारे हिंदी सीरियलों में सुन्दर और आधुनिक कपडे सिर्फ वैम्प को दिए जाते हैं. शहरों में कई कॉलेजों में ड्रेस कोड है. अगर जींस पहना जा सकता है तो उसके ऊपर लम्बा कुरता होना चाहिए.

कोई काण्ड होता है तो दोश जीनस या माडर्न कपड़ो को दिया जाता है. या फिर पीड़ित नारी ने किसी रूप में ऐसे शोषण को बढ़ावा दिया होगा. क्योंकि अच्छी औरतें दबे- ढके कपडे पहनती हैं , रात को देर से घर नहीं लौटती, बोइफ़्रेनड के साथ नहीं घूमती, पराये मर्द को भाई समझती हैं. ....ऐसी बकवास का कोई अंत नहीं है.

अगर किसी के साथ बलात्कार होता है तो वह इसलिए नहीं होता कि उन्होने सावधानी नहीं बरती , वह इसलिए होता है क्योंकि किसीने अपनी घटिया सोच और हिंसात्मक प्रवित्ति को अंजाम दिया है. वह लापरवाही या बहुत ज्यादा स्वतंत्र होने का उदहारण नहीं है. वह उदहारण है एक ऐसे समाज का जो कहीं न कहीं औरतों के प्रति कुंठित विचारधारा रखता है.

वहीं गाँव मे, वहां के स्वनिश्चित न्यायाधीशों की बाते बेतुकी और आपतिजनक लगती है और जो इनका शिकार बन रहा है उनके लिए ऐसे फैसले कितने दुखद होंगे! आये दिन खाप पंचायतें, जो हरयाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में मुख्या रूप से सक्रिय है औरतो पर ज़ुल्म करके अमानवीय फैसले सुनाया करती है. उनका न्याय सिंपल है पीड़ित को और पीड़ित करना - दी विक्टिम शुड बी फर्दर विक्टामाइज्ड। जोर ज़बरदस्ती से परिवार या कौम अक्सर अपनी बात मनवा लेती है.

लीला जोशी नमक औरत पर, उदैपुर जिले की खाप ने , आरोप लगाया कि शादी शुदा होने पर भी उसका सम्बन्ध किसी व्यक्ती के साथ था. दोनों को अध्नग्न अवस्था में पीटा गया और औरत के बाल काटे गए। ऐसे कई अमानवीय फैसले खाप पंचायत ने किये हैं.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी २०१३ में यह फैसला सुनाया कि औरतों को मोबाइल फोने इस्तेमाल करने से रोकना या कोई ख़ास कपडे पहनने के लिए मजबूर करना ,शादी के फैसलों में दखल देना और किसी की शादी को रिक्त घोषित करना गैर कानूनी है पर अक्सर पुलीस खाप के ज़ुल्मों से नज़र हटा लेती है. नेतागण भी ऐसा करते है क्योंकी खाप पंचायतें एक बहुत बड़ी वोट बैंक जो है. सत्ता और राजनीति के बिछाए खेल में नारी को जो इन्साफ मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता है.

कुछ परीभाषाएं तो बहुत खतरनाक होतीं हैं , जैसे सौन्दर्य और नारीत्व की परिभाषा. स्त्री सुन्दर नहीं है तो उसमे दोष है और अगर वह सुन्दर है और उसे अपनी सौन्दर्य का आभास ,है या वह सुन्दर दिखना चाहती है, तो यह भी आपत्तिजनक है! न चित उसकी न पट उसकी.

कभी -कभी इन परिभाषाओं में उलझकर हम बहुत कुछ खो देते। उदाह्हरण स्वरुप - यह सच है कि औरत को सौंदर्य और भोग की वस्तु समझकर उसका सदियों से शोषण हुआ है. इस तरह उसकी प्रतिभा और उसकी बुद्धि की अवहेलना की गयी है. इसीलिए बात असली सौंदर्य की उठती है जो अन्दर होती है. यह मत श्रेष्ट है और अपनी जगह पर सही है.

पर जो औरते आकर्षक दिखना चाहती हैं , अच्छे कपडे , मेक -अप लगान चाहती हैं उनपर रोक - टोक क्यों लगती है? अपने बारे में निर्णय लेने के लिए नारी स्वतन्त्र है. पर इसका यह मतलब नहीं कि अपने प्रति उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं है. उप्भोग्तावादी समाज में गलत रूप से प्रभावित होना आसान, है चाहे बात मर्दों की की जाये या औरतों की. जिसके पास सूझ-बूझ है वह अपने जीवन में संतुलन बनाए रहते है.

फिल्म जगत में कुछ औरतों नें यह सुनिश्चित किया है कि सही अर्थ में उनके लिए सुन्दरता क्या है? ऐसा करना बहुत ज़रूरी है। जहाँ साइज़ जीरो की मांग है वहाँ विद्या बालन ने ,इसके विरुद्ध अपनी नेचुरल ब्यूटी और प्रतिभा का बेमिसाल प्रमाण प्रस्तुत किया है. मदरहुड को एन्जॉय करती ऐश्वर्या राय भी अपने वज़न के विवाद से चिन्तित नहीं हैं.

आजकल अक्सर "मेट्रोसेक्सुशुअल मेल " की बात होती है. बड़े -बड़े शहरों में कई मर्द है जो अपने रूप के प्रति बहुत जागरूक हैं. आकर्षक दिखने के लिए वह वह सब करते है जो अबतक औरते ही करा करती थीं - थ्रेडिंग। मैनीक्योर , पेडिक्योर , आदि. बड़ी आसानी से समाज ने और औरतों ने इन्हें स्वीकार किया ठीक वैसे ही जैसे उन मर्दों को किया, जो इन बातों में रूचि नहीं रखते हैं.

विविधता एक सच है और उसे स्वीकार करने में ही समझदारी है. अलग -अलग औरतों की भी अलग अलग पहचान होती है, उनके सपने , प्रतिभाएं और परिवेश सब अलग होते है इसीलिए एक खाने में उन्हे कैसे रखा जा सकता है?

विवधता की बात करें तो सबसे पहले शहर और गाँव की औरतों के बीच के फासले की बात आती है. हमारे देश में ऐसा लगता है कि एक बहुत बड़ी खायी है जो शहरों और गाँवों को विभाजित करती है. गाँव की औरतों के संघर्ष अलग हैं. जहाँ औरत या लड़की होने के नाम पर एक रोटी कम और सब्जी नहीं दी जाती हो , स्कूल नहीं जाने दिया जाता हो या फिर भ्रूण में ही हत्या कर दी जाती हो, वहाँ की औरतों को आधुनिक स्त्री का संघर्ष बड़ी-बड़ी बातें लगेगीं.

नारित्व की छवि ही समाज में कुछ ऐसी है की उसकी सीमाओं में सिमटते, घुटते, त्याग करते और एक इंसान होकर भी जानवरों से कम प्रेम पाकर, यह औरते परिवार में अपना कर्त्तव्य निभा रहीं है.

और इनमे तो दलित औरतों का और भी शोषण होता है. इनकी हालत बहुत हद तक अफ्रीकन औरतों की तरह है जहाँ उनका दुगना शोषण होता है, पहले उनकी जाती अथवा रंग को ले कर और दूसरा उनके औरत होने के कारण. अपने ही देश में वह बहिष्कृत रहीं हैं। और जब-जब उनकी कौम ने ज़ुल्मों के खिलाफ विरोध किया तब- तब समाज ने इन औरतों का शोषण करके उस कौम के मर्दों के विद्रोह को शांत करने की कोशिश की है।

1970 में अमरीका में एक पाम्फ्लेट छपा था - 'दी डबल जेयपरडी'. लेखिका फ्रांसिस एम् बेल ने उसमे लिखा था की 'ब्लाक' होने के साथ -साथ एक औरत होना अनोखी बात है. ऐसी औरतों के शोषण के पीछे है सेक्सिस्म , रेसिस्म और राजनीति. गोरी औरतें जो नारी स्वतंत्रता की मांग कर रही हैं वह कुछ हद तक शिक्षित है पर उनकी तुलना में अफ्रीकन अमेरिकन औरते अपने रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में मौत के साथ संघर्ष कर रहीं हैं.

इतनी सालों बाद हमारे देश में यह हाल दलित नारियों का भी है. कानून ने भी अक्सर उन्हें सहारा नहीं दिया जैसे की प्रसिद्ध भवरी देवी काण्ड में हुआ। बाल विवाह के खिलाफ जब उन्होंने आवाज़ उठाई तो गाँव वालों के क्रोध का ग्रास बनी. कानून का दरवाज़ा खटखटाने पर जज ने यह घोषित किया की कोई भी उच्च जाती का पुरुष एक दलित का बलात्कार करके अपने आप को अशुद्ध नहीं कर सकता है और क्योंकि भवरी देवी न तो जवान थी न सुन्दर, कोई युवक ऐसा नहीं करेगा ! बहुत साल तक इन्साफ न मिलने के बाद उनपर एक फिल्म बनी, 1994 में वीरता के लिए पुरस्कार मिला और 2002 में राज्य की ओर से ज़मीन भी मिली.

इस देश में जो नारी उत्पीडन के खिलाफ संघर्ष चल रहा है वह प्रमुख रूप से शहरों में है पर उसमें गाँव की औरतों और दलितों की समस्याओं को भी मेहत्व मिले तो ही बात सारे देश की हो सकेगी. सबकी समस्या समझना और औरतों की विवधता समझते हुए सबके लिए बात करना - ऐसा ही कुछ मानती है विश्व में थर्ड वेव फेमिनिस्ट. उन्होने इस बात को समझा है की हमारा रंग, धर्म, और संस्कृति भिन्न है और इसे लेकर ही आगे बढ़ा जा सकता है.

हम जिस भी समाज में रहतें हों, वहां हर नारी एक व्यक्ति विशेष है, चाहे वह जिस समाज या देश में रहती हो. उसके अपने विचार है, अपने सपने हैं. और इनको मान्यता देने का अधिकार उसे मिलना चाहिए. यह समझना, कि प्रकृति द्वारा दी गयी माँ बनने कि शक्ति का अर्थ है सिर्फ सेवा और प्रेम. और उसका यह ममता से भरा रूप उसके आधुनिक रूप के प्रतिकूल है , जिसमें वह अपने सपने सजोती है , एक मिथ्या है. आज की नारी न तो पहले की फेमिनिस्ट्स की तरह घर और बच्चों को भूलना चाहती है न ही अपने आप को. विश्व में हो रहे थर्ड वेव फेमिनिज्म इस बातकी गवाह है. आज की शसक्त स्त्री का मानना है कि वह हर चीज़ को अपने दृष्टिकोण से देखें और अपना भविष्य तय करे.

वह निर्णय ले तो वह सम्माज के नियम अनुसार नहीं ले , भेड़ चाल में चल कर नहीं ले. उसके अनुसार प्रेम क्या है और रिश्ता कैसा हो? बहुत महत्वपूर्ण सवाल है ये . विश्व भर में औरते इन सवालों को पूछ रहीं हैं और पूछती आयीं हैं. जिन देशों में नारी मुक्ति की लडाई बहुत अरसे से चल रही है और औरते जहां हमारे देश की औरतों से ज्यादा स्वतन्त्र और आत्मनिर्भर समझी जाती हैं , उन देशों में भी यह सवाल एक नंगी तलवार की तरह लटका हुआ है.

मशहूर लेखिका और ऐकटिविस्ट इव एन्स्लर कहती हैं कि उन्हे बहुत साल लग गए इस फर्क को समझने में की 'प्लीसिंग ' (सुख देने में ) और 'लविंग ' (प्रेम करने में) , "ओबेयिंग ' (आज्ञा मानने ) और "रिस्पेक्टिंग" ( इज्ज़त देने ) में क्या फर्क है. ('आई ऍम अ इमोशनल क्रीचर' - दी सीक्रेट लाइफ़ ऑफ़ गर्ल्स अराउंड दी वर्ल्ड )

बात यह है की जो नारी सशक्त है और शिक्षित है वह भी, ज़रूरी नहीं है, कि इन ख़ास सवालों का सही रूप से उत्तर देने में सक्षम हो. पुरुष -प्रधान समाज ने इतनी सालों तक नारी की चेतना पर ताला लगाया है की कुछ औरते अपनी विशेषता और विराटता भूल गयीं हैं.

जैसे एक दमे के रोगी को दमे के साथ जीने की आदत हो जाती है , घरघराते हुए, उसी में अपने आप को नॉर्मल समझते हुए वह सब काम करता है , वैसे ही मर्दों पे निर्भर औरते , पीढी दर पीढ़ी , आदर, कृतज्ञता और स्वतंत्रता के अभाव में जिए जा रहीं है. अपनी सीमाओं में वह अपने आप को कहती है की वह संतुष्ट है क्योंकि बाहर की दुनियाँ इन दायरों के बाहर और भी खौफनाक है. उन्हे पंख नहीं चाहिए.

ठोकरों को लांग कर, उड़ान भरकर भी , सशक्त शहर की स्त्रीयों को असमंजस में भर देने वाले पप्रश्नों का सामना करना पड़ता है. किशोरावस्था में, कालेज में आते अक्सर लडकियां के प्रत्यक्ष यह सवाल आता है गर्लफ्रेंड और पत्नी के बीच क्या फर्क. है आजके युग में भी कई लोग ऐसा मानते है की कुछ औरते गर्लफ्रेंड मटीरियल होती हैं पर वह वाइफ़ मटीरियल नहीं होती है. हालांकि ऐसे मर्दों की अब कमी नहीं जो ख़ुशी से सम्मान के साथ जिस निर्भीक और सशक्त नारी को 'देट ' करते है उसी को पार्टनर या पत्नी के रूप में चाहते है. पर औरों के लिए ऐसे रिश्तों को समाज और परिवार के सामने स्वीकारना कठिन होता है.

मर्द प्रौड़वास्था तक शादी न करे तो वह जिद्दी और 'चूजी' कहलाता है पर अगर एक महिला ऐसा करे तो वह बेचारी है या उन्सका कसी के साथ कुछ 'चक्कर ' होगा. ऐसी औरतों को रिश्तेदार और समाज ऐसे तंग करते है मानो उनके खिलाफ कोई साजिश चल रही है. विदुर या तालाकशुदा मर्दों को अक्सर बिन ब्याही औरते मिल जाती है पर ऐसी औरतों को अक्सर विदुर या तालाक्शुदा मर्द ही मिलते हैं।

पवित्रता का जूनून, जो सिर्फ हमारे देश में ही नहीं पूरे विश्व में औरतों के सम्बन्ध में होता है और सिर्फ औरतों के सम्बन्ध में होता है. अमेरिका में जहां स्त्रीयों के अधिकारों के लिए शतकों से संघर्ष चला आ रहा है वहां कहीं- कहीं आज भी यही हाल है. जेस्सिक वैलेनटी 'दी प्यूरिटी मिथ ' में कहती है की अपने आप को दुनिया को अच्छा दिखाने का एक आसान तरीका है अपने आप को पवित्र घोषित करना. आप मंद्बुधि, बेवकूफ या अनैतिक हो सकती है परंतू अगर आप पवित्र है तो आप अच्छी हैं और प्रशंसा के योग्य हैं.

और किसी स्त्री को अगर सबसे बड़ा सबक सिखाना है तो उसकी इस पवित्रता को भंग कर दिया जाता है. इस अपराध के पीछे सिर्फ कुंठित मानसिकता और वासना नहीं , हिंसा भी है. और अपराध की वजह को समझकर ही हम और अपराधियों का पैदा होना बंद कर सकते हैं.

ऐसे अपराधों से पीड़ित स्त्रियों के साथ जो सहानुभूति प्रगट करते हैं वे भी समझाते हैं कि घटना के बाद उसकी मानसिकता तो पवित्र है और उसे आशावादी होना चाहिए. मानसिक रूप से ही क्यों, वह पूरी की पूरी पवित्र है ! अपिव्त्र हैं वे जिन्होंने यह अपराध किया है.

औरतों को कितनी ही परिधियों को लान्गना है. और कई इस दिशा में जागरूक है. कई अपने आप को 'फेमिनिस्ट' बोलती है तो कईयों का मानना है की फेमिनिस्म उनके लिए नहीं है। पर फेमिनिस्ट न होकर भी वह औरतों के सामान्य अधिकारों की मांग करती है और इसके लिए आवाज़ उठाना चाहती है. बिल्ले लगा के घुमाना , की हम क्या हैं , क्या नहीं है इससे तो कभी कभी और सीमायें उत्त्पन्न होती है और लोग हस्तांतरित होते है. फेमिनिस्ट होना , नहीं होना , औरत होना, मर्द होना, 'अदर सेक्स ' होना. ..कोई भी, हो जो स्त्री-मुक्ति के लिए है वह एक दुसरे से जुडा है .

ऐसी ही प्रभावशाली भीड़ ने 'क्रिमिनल लौ अमेंडमेंट ऐक्ट 2013' को जन्म दिया. "निर्भया' हादसे के बाद जस्टिस वर्मा बेंच ने, सरकार के आदेश पर 'एंटी रेप बिल ' में सुधार लाने के लिए एक बहुत ही बढियां रिपोर्ट पेश की. हालाकी सरकार ने उसमे से कुछ ही सुझाव चुनी पर अब यह नए कानून औरतों को सुरक्षित और स्वतन्त्र रखने की दिशा में एक लम्बी छलांग है. बलात्कारियों के लिए २ ० साल की सज़ा और कुछ हालातों में म्रियुदंड . "स्टॉकिंग ( पीछा करना ), तेज़ाब फेकना , वायारिस्म ( दर्शनरति) भी दंडनीय हैं.

पर अफ़सोस 'मैरिटल रेप' के लिए कोई क़ानून नहीं है जबकि इस रिपोर्ट ने सलाह दी थी की मैरिटल रेप (वैवाहिक बलात्कार ) को जुर्म घोषित किया जाये.

औरत की मर्ज़ी या नामर्ज़ी देश या कानून के लिए ज़रूरी क्यों नहीं है क्योंकि अपने तन पर अपना अधिकार एक सामान्य मनुष्य का मूलभूत अधिकार है. 2000 में यूनाइटेड नेशंस पोप्युलेशन फंड ने सर्वे में पाया की २/३ विवाहित भारतीय औरतों के साथ उनके पति जोर ज़बरदस्ती करते हैं.

जिस दिन भारत में और उसके साथ चीन , अफ़घानिस्तान , पकिस्तान और सऊदी अरेबिया में, वैवाहिक बलात्कार के खिलाफ कानून बन जायेगा उस दिन ऐसा लगेगा कि समाज यह समझने लगा है कि जब औरत किसी के साथ संबध बनाती है तो वह प्रेम करती है और अपने आप को किसी के साथ बाँटती है। वह अपने अधिकारों को बेच कर किसी के आधीन नहीं हो जाती है.

तब तक चर्चा जारी है. ऐसा लगता है की यह सबसे महत्वपूर्ण समय है , खासकर भारत के लिए क्योंकि युवा शक्ति ने कुछ सवालों को उठाकर सबको संचालित कर दिया है. दौड़ शुरू हो गयी है. पर इस बदलाव के लिए सबको तैयार होना पड़ेगा. जब औरते सदियों से चलती आई परिभाषाओं की बेड़ियाँ तोड़ कर आगे निकलती हैं तो समाज अक्सर उसका स्वागत करने के बजाये अलग-अलग रूप में इन औरतों पर ज़ुल्म ढा कर उन्हें रोकने की कोशिश करता है. इसका उदहारण है हमारे समाज में होते औरतों के प्रति अपराध. ऐसा हिंसात्मक और जड़ चिंतन अपने पारिवारिक परिवेश में ही बदल सकता है और फिर एक नए समाज का निर्माणहोगा जहाँ औरतों की अपनी ख़ास जगह हो. हमें इस बदलाव के लिए भी बदलाव लाना होगा - अपने आप में. कानून के हाथ कभी भी इतने लम्बे नहीं हो पाएंगे, कि जो काम हमें करने हैं, वह वे कर दें.