पहली जेल यात्रा ─ गाजीपुर में / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अहमदाबाद से लौटते ही गाजीपुर में स्टीमरघाट पर खुफियापुलिस के दर्शन हुए। वह परेशान सी नजर आई। 1 जनवरी 1922 की बात है। हमने समझ लिया कि अब गिरफ्तारी होगी। हुआ भी ऐसा ही। जहाँ तक याद है, 2 जनवरी को पुलिस के अफसर जिला कांग्रेस कमिटी के कार्यालय में सवेरे ही पहुँचे और दिन निकलते न निकलते उनने हमें तैयार हो जाने की सूचना दी। फिर क्या था? नहा-धो के और कुछ खा-पी के हम तैयार हो गए। मालाएँ पहन-पहना कर कोतवाली लाए गए और वहाँ से जेल के भीतर दाखिल हुए।

हमने अंदर जाते ही एक गूँजती आवाज सुनी जो बहुत ही तेज थी। हम समझ न सके कि यह क्या बला है। इतने में जेलर ने आ के कहा कि बलिया जिले से कुछ राजनीतिक बंदी यहाँ आए हैं। वे काम तो कुछ करते ही नहीं। उलटे तूफान मचाते और चिल्लाते हैं। मैं भौंचक सा रह गया। क्योंकि गाँधी जी की सख्त आज्ञा थी कि जेल के सभी नियम माने जाए और कोई गड़बड़ी न की जाए। जेलर ने कहा कि जरा चल के समझा दीजिए। मैं गया। वहाँ पर, चक्की घर में, बलिया के परिचित कार्यकर्ता मिले। उन्हें गेहूँ पीसने का काम मिला था। मगर वे तो गेहूँ पीसने के बजाए उसमें मिले एकाध चने को चुन-चुन कर खाते और 'महात्मा गाँधी की जय' चिल्लाते थे। मुझे देखते ही चुप हो गए। दंड प्रणाम के बाद अहमदाबाद कांग्रेस की बात उत्सुकता से पूछने लगे। मैंने संक्षेप में सब कुछ बता कर पूछा कि यह चिल्लाहट क्यों? काम करने से इन्कार क्यों? उत्तर मिला कि हम तो नारे लगाते हैं। पहले जो नारे लगाते थे उन्हें आज क्यों छोड़ दें? काम भी क्यों करें? मैंने कहा कि 'गाँधी जी की जय' बोलते हैं। उन्हीं की बात मान कर जेल आए हैं। यह उन्हीं की आज्ञा है कि जेल के सभी नियमों की पाबंदी होनी चाहिए। काम करना चाहिए और नारे बंद होने चाहिए। उन्होंने उत्तर दिया कि “वाह हम दुश्मन की मदद काम कर के क्यों करें? नारे भी क्यों बंद करें?” गो कि उस समय उन्होंने मेरे लिहाज से नारे बंद कर दिए। फिर भी मैं उन्हें समझा न सका। मैं इस काम में असमर्थ रहा। फलत: न तो उनके नारे बंद हुए और न उनने काम ही किया। तब तक तो शीघ्र ही मैं कुछ लोगों के साथ बनारस जेल भेज दिया गया।

इस घटना ने मुझे निराली दुनियाँ में पाया। मैं ताज्जुब में था कि यह क्या हो रहा है?गाँधी जी की आज्ञा का उल्लंघन पढ़े-लिखे लोग इस प्रकार क्यों करते हैं? मुझे 'गाँधी जी की जय' के साथ-साथ उनकी आज्ञा की यह भयंकर अवहेलना बुरी तरह खली। मुझे लक्षण अच्छे न दिखे। तब से मैंने बराबर यह बात पाई। दूसरी बार जब सन 1930 ई. में हजारीबाग जेल में था तो वही बात देखी।गाँधी जी का जहाँ तक जेल नियमों के बारे में आदेश था वहाँ तक वह कतई लापता थे। उनकी बातों की रत्तीभर भी परवाह प्रथम और दूसरे विभाग के राजबंदी नहीं करते थे, हालाँकि देश के वही नेता थे। आगे स्वराज्य की सरकार भी उन्हें ही चलानी है। मैंने देखा कि हजारीबाग जेल में राजेंद्र बाबू भी असमर्थ थे। उनकी परवाह कोई न करता था। इसीलिए तभी से मैंने बार-बार सोचा और ईधर और अनुभव होने पर मन-ही-मन कहा कि एक दिन 'गाँधी जी की जय' बोल कर उनकी हत्या लोग ठीक इसी प्रकार कर सकते हैं यदि जरूरत समझें, जिस तरह आज उनके आदेशों की हत्या कर रहे हैं।'महावीर की जय' बोल कर लूटपाट करने, आग लगाने या मुसलमानों के साथ मारपीट करने का अर्थ भी मैं उसी समय समझ पाया।

असल में चाहे हम लाख आदर्शवादी बनें और उसका प्रचार करना चाहें। लेकिन जनता की अपनी कसौटी होती है चीजों के तौलने की। उसके अपने रास्ते होते हैं काम करने के। अगर हमारी बातें उसकी कसौटी पर खरी उतरें तब तो ठीक है। तब तो वह उनकी पाबंदी अच्छी तरह करेगी। लेकिन खरी न उतरने पर उन बातों के अमल के नाम पर उलटी बातें करेगी। इसी प्रकार उसके अपने रास्ते से भिन्न रास्ते पर यदि आप उसे चलाना चाहेंगे तो यही खतरा होगा। कुछ समय तक या आपके सामने भले ही वह आपके रास्ते पर चलती नजर आए। लेकिन पीछे तो खामख्वाह वह अपना चिरपरिचित रास्ता ही पकड़ेगी। यह धा्रुव सत्य है। संसार का और उसमें पैदा होनेवाले अनेक धर्म, मजहबों एवं सभ्यताओं का इतिहास साफ बताता है कि समय-समय पर अवतार, पेशवा, पैगंबर, मसीहा या ऋषि-मुनि पैदा होते हैं सही। वे एड़ी-चोटी का पसीना एक करने के बाद बड़ी कठिनाई से कुछ ही समय के लिए कुछ लोगों को सत्य, नम्रता, दया आदि के रास्ते पर लाते हैं भी। लेकिन फिर उनके हटते ही ढीलापन और गड़बड़ घोटाला अपना सिर उठाने लगते हैं। यह बात पहले तो नहीं मालूम पड़ती। मगर पीछे साफ दीखने लगती है और कुछ दिनों के बाद 'वही रफ्तार बेढंगी' शुरू हो जाती है। हजारों और लाखों वर्षों की इन सबों की कोशिशों के बाद भी इस दुनिया में वही असत्य, वही निर्दयता, वही अनाचार-व्यभिचार आदि भीषण रूप से आज भी पाए जाते हैं! गोया कुछ हुआ ही नहीं!

जो सुधारक या पेशवा दुनियाँ की इस सहज प्रवृत्ति, उसकी अपनी कसौटी और उसकी निजी राह पर दृष्टि न कर के, या यों कहिए कि उसकी अवहेलना कर के अपने किसी भी आदर्शवाद का प्रचार करना चाहता है वह चट्टान से अपना माथा टकराता है! उस समय तो नहीं जिसका यहाँ जिक्र कर रहा हूँ, परंतु आज और कुछ दिन पहले से भी मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ। खेद है, गाँधी जी आज भी इस प्रकट सत्य को, सुननेवालों के लिए पहाड़ की चोटी से पुकारनेवाले सत्य को, इन गत बीस वर्षों के अनुभवों के बाद भी , समझ न सके हैं। ऐसा लगता है कि वह शायद समझना भी नहीं चाहते!

खैर, तो जल्दी ही मेरा केस एक डिप्टी मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुआ। न्याय का स्वांग किया जा कर, जैसा कि उस जमाने में बराबर होता था। क्योंकि कांग्रेसवाले पैरवी तो करते न थे और अपराध स्वीकार कर लेते थे, मुझे एक साल सख्त कैद और पच्चीस रुपए जुर्माना और न देने पर एक मास का और सख्त कैद-यों कुल मिला कर पूरे तेरह मास सख्त कैद-की सजा सुना दी गई! क्रिमिनल लॉ एमेंडमेंट की दूसरी या (ब) धारा के अनुसार यह दंड दिया गया। इसके बाद तो गले में बाकायदा तख्ती (तौक) जेल में पहुँचते हो पहना दी गई, जेल के कपड़े भी मिल गए और मैं पूरा कैदी बन गया। पीछे मेरे वे तीन-चार साथी भी इसी प्रकार पकड़ के आ गए और कैदी भी बन गए।

आगे बढ़ने के पूर्व एक बात कह देनी है। सदा से ही खाने-पीने में सफाई और तन्मूलक छुआछूत का तो मैं पक्का पक्षपाती था। यहाँ तक कि रेलगाड़ी में बैठ कर या हलवाई की दूकान की मिठाई तक न खाता था। यह बात ईधर कुछ वर्षों के भीतर और भी सख्त हो गई थी, खास कर बाजार की पकी-पकाई चीजें न खाने के बारे में। उधर जेल में घुसते ही मैंने देखा कि वही लोहे के बर्तन है जो ठीक-ठीक मले तो कभी जाते ही नहीं। यों ही कुछ धो-धा कर छोड़ दिए जाते हैं। धोने की सिर्फ रस्म अदाई होती है! पानी भी ऐसी जगह भरा रहता है कि जूठा तो होई जाता है। खामख्वाह जूठे हाथ और बर्तन उसमें डाल दिए जाते ही हैं। यह देखते ही मैं झल्ला गया। फलत: जेल का खाना खाने की हिम्मत हो न सकी। वह पानी भी न ले सका। इसलिए एक-दो दिन कुछ खाया-पिया ही नहीं। फिर तो जेलर ने दूध देने का प्रबंध किया। इसी बीच तो हमें बनारस भेजने की आज्ञा आ गई। फिर तो वहीं जाना पड़ा। इस प्रकार गाजीपुर जेल में चंद ही दिन कटे। यह अच्छा था कि जहाँ संन्यास से पूर्व पढ़ने-लिखने में कई साल गँवाए वहीं, राजनीतिक जीवन में प्रवेश करने पर पहले केस चला और जेल यात्रा हुई!