पारिवारिक जीवन / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल

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डॉक्टर ब्राउन ने अपनी एक पुस्तक में अपने पिता का, जो स्काटलैण्ड देश के एक प्रसिध्द पादरी थे, कुछ वृत्तान्त लिखा है जिसका एक अंश अत्यन्त हृदयग्राही है। वे लिखते हैं- 'अपनी माता की मृत्यु के उपरान्त मैं उन्हीं के पास सोता था। उनका पलँग उनके पढ़नेलिखने के छोटे कमरे ही में रहता था जिसमें एक बहुत छोटा सा आतिशदान भी था। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि किस प्रकार वे उन मोटी मोटी बेढंगी जरमन भाषा की पुस्तकों को उठाते थे और उनसे चारों ओर घिरकर उनमें गड़ से जाते थे। जिस समय वे आकुलता के साथ उनके पन्नों को काटते जाते, अपने स्वभाव के अनुसार उनमें मग्न होकर झटपट उनका रसास्वादन करते जाते और बेढंग कटे हुए पन्नों के कागज की धज्जियाँ निकालकर मेरे आगे फेंकते जाते थे, मैं टक लगाए उनकी ओर देखता रहता था। जब तक मैं जागता रहता था, वे बिस्तर पर नहीं जाते थे। पर कभी कभी ऐसा होता कि बहुत रात गए वा सबेरा होते होते मेरी नींद टूटती और मैं देखता कि आग बुझ गई है, उजाला खिड़की के रास्ते कुछ कुछ आ रहा है, उनका सुन्दर गम्भीर मुख झुका हुआ है और उनकी दृष्टि उन्हीं पुस्तकों की ओर गड़ी हुई है। मेरी आहट सुनकर वे मुझे, मेरी माँ का रखा हुआ, प्यार का नाम लेकर पुकारते और बिस्तर पर आकर मेरे गरम शरीर को छाती से लगाकर सो रहते थे'। इस वृत्तान्त से हमें उस स्नेह और विश्वास के सम्बन्ध का पूरा आदर्श मिलता है जो पिता पुत्र के बीच होना चाहिए। पुत्र पिता की ओर अन्वीक्षणयुक्त स्नेह से देख रहा है और पिता पुत्र को गहरी और सच्ची सहानुभूति से छाती से लगा रहा है। माता और पुत्र का स्नेह ऐसा नहीं होता। उसमें एक ओर शासन के भाव की कमी रहती है, दूसरी ओर आज्ञापालन के भाव की। पर पिता पुत्र के स्नेह में यद्यपि वेग कम रहता है पर विवेक अधिक रहता है, यद्यपि अवलम्बन का मृदुल भाव कम रहता है पर समता की बुध्दि विशेष रहती है। चाहे पिता पुत्र के मनोविकारों को उतना न जाने, पर वह उसकी बुध्दि की विशेष थाह रखता है। उसका पुत्र के साथ तीन प्रकार का सम्बन्ध होता है-पथदर्शक का, तत्व चिन्ततक का और मित्र का। डॉक्टर ब्राउन और उनके पिता के बीच जैसा व्यवहार था, उससे दोनों को लाभ था। उसके द्वारा पिता के भाव भी पुष्ट और उत्तेरजित होते थे-वह अपने आप ही में मग्न रहने तथा रूखाई और अल्पभाषण के बोझ से दबे रहने से बचता था। पुत्र के लिए भी यह एक खासी शिक्षापध्दति थी। इसके द्वारा उसकी बुध्दि और विवेक की भी उन्नति होती थी और उसे एक प्रकार का स्थायी आनन्द भी मिलता था। बुध्दिमान् और सुशील पिता से जितना हम सीखते हैं, उतना सैकड़ों शिक्षकों से भी नहीं। पिता सबसे बढ़कर और सच्चा शिक्षक है जिसके दिए हुए पाठों को हम सदैव पढ़ा करते हैं। ये पाठ केवल उसके मुँह से निकले हुए शब्द ही नहीं होते बल्कि उसके आचार व्यवहार के रूप में भी होते हैं। क्या कोई कह सकता है कि डॉक्टर ब्राउन को उस आदर्श पुरुष के सत्संग से कितना लाभ पहुँचा होगा जिसमें केवल बुध्दि बल ही न था बल्कि आध्याेत्मिक बल भी अत्यन्त अधिक था। उसमें धैर्य, आत्मनिग्रह, स्वभाव की कोमलता, भावों की पुष्टता, शिष्टता, पवित्रता और धर्मपरायणता इत्यादि गुण ऐसे थे जिनका स्थायी प्रभाव पुत्र पर हर घड़ी पड़ता था। उसकी साहित्य संबंधी सहृदयता से भी बालक ब्राउन को बहुत ही लाभ पहुँचा। जब वह बाइबिल के ओजस्वी अंशों तथा मिल्टन के पद्यों को जोर-जोर से पढ़ता था, तब बालक की बुध्दि और सहृदयता का विकास होता था।

इस प्रकार की अनियमित घरेलू शिक्षा से लाभ उठाने के लिए श्रोता में कुछ श्रध्दा, सीखने की स्नेहपूर्ण तत्परता तथा तीक्ष्ण बुध्दि व समझ होनी चाहिए। खेद के साथ कहना पड़ता है कि ये बातें ऐसी हैं जो आजकल के लड़कों वा नवयुवकों में नहीं पाई जातीं। पहले की अपेक्षा अब परिवार बन्धन शिथिल हो गए हैं। अब घर में भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा शासन का विरोध फैल रहा है। आजकल के नाटकों और उपन्यासों को देखने से यह बात साफ झलकती है कि पिता पुत्र के सम्बन्ध का भाव जैसा पहले समय में था, वैसा अब नहीं रह गया है, अब उसमें घटती हो रही है। प्राय: देखा जाता है कि पिता अब ऐसा शिक्षक नहीं रह गया है जिसकी बातों को पुत्र श्रध्दा और स्नेह से सुने। अब वह ऐसा विश्वासपात्र सुहृद नहीं समझा जाता है कि पुत्र कठिनाई के समय उसकी सलाह को सच्ची और कल्याणकारी समझ उसके लिए उसके पास जाय। अब वह ऐसा शासक नहीं रह गया है जिसकी सामान्य से सामान्य इच्छा को भी पुत्र अपने लिए अटल आदेश समझे। आजकल के कुछ उपन्यासों का रामायण, महाभारत आदि से मिलान करने पर इस परिवर्तन का पता अच्छी तरह चल सकता है। दशरथ की आज्ञा को राम ने किस श्रध्दा और शान्ति के साथ सुना और प्रसन्नमुख वन का रास्ता पकड़ा। भीष्म ने किस प्रकार अविवाहित रहने की कठिन प्रतिज्ञा करके अपने पिता को सन्तुष्ट किया। इसके विरुध्द आजकल के नए ढंग के उपन्यासों में पिता लेखकों की हँसी-दिल्लगी का एक खासा लक्ष्य होता है। उसे चकमा देना, बेवकूफ बनाना, अपमानित करना लेखकों का एक कौशल समझा जाता है। किसी-किसी उपन्यास में तो वह भद्देपन और गँवारपन की मूर्ति बनाया जाता है और उसका अपमान नवशिक्षित और समाज संशोधक पुत्र बड़ी बहादुरी के साथ करते दिखाए जाते हैं।

हमारे पूर्वजों की यह चाल नहीं थी। यह ठीक है कि आजकल की तरह उस समय भी मूर्ख पिता और बेकहे लड़के होते थे, पर उस समय पितृशासन का आदर्श ऊँचा था। जहाँ आजकल लड़के अवज्ञा करते हैं, वहाँ उस समय वे बात सुनते और मानते थे। क्या पूर्व क्या पश्चिम सर्वत्रा यही व्यवस्था थी। इंगलैण्ड में सर फिलिप सिडनी और उसके पिता के सम्बन्ध को देखिए, जटफन के विजेता और 'आर्केडिया' के ग्रन्थकार सिडनी अपने पिता पर अत्यन्त स्नेह और पूज्यबुध्दि रखते थे। वे जानते थे कि पिता ही से हमने अपने शरीर की सुन्दरता, अपनी बुध्दि की प्रौढ़ता तथा हृदय की दृढ़ता और वीरता प्राप्त की है। पिता भी सिडनी ऐसे पुत्र को पाकर अभिमान से फूले अंगों न समाता था। लार्ड लिटन ने अपने एक उपन्यास में कैक्स्टन नामक एक युवक का उसके पिता के साथ आदर्श सम्बन्ध दिखलाया है। उसमें पिता बुध्दि, धीरता और कोमलता का आगार है और पुत्र श्रध्दा, स्नेह और आज्ञाकारिता का। युवक कैक्स्टन एक स्थल पर कहता है-'मैं प्राय: औरों के साथ की लम्बी सैर छोड़, क्रिकेट का खेल छोड़, मछली का शिकार छोड़, अपने पिता के साथ बगीचे की चहारदीवारी के किनारे धीरे धीरे टहलने जाता। वे कभी तो बिलकुल चुप रहते, कभी बीती बातों को सोचते हुए आगे की बातों की चिन्ता करते। पर जिस समय वे अपनी विद्या का भण्डा र खोलने लगते और बीच-बीच में चुटकुले छोड़ते जाते, उस समय एक अपूर्व आनन्द आता था।' कैक्स्टन कोई कठिनाई आ पड़ने पर पिता ही के पास जाता, दु:ख की घड़ी उसी के पास बैठकर बिताता और अपने हौसलों और आशाओं को उसी के सामने कहता। बड़ा भारी संकट आने पर जब कि दु:ख का एक अटल पहाड़ उसके सामने दिखाई दिया और वह चुपचाप मन मारकर बैठा, तो क्या देखता है कि उसका पिता उसी की ओर टक लगाये आर्द्रचित्त देख रहा है। पर पुत्र को ऐसा पिता मिले, इसके लिए यह भी आवश्यक है कि पिता को ऐसा पुत्र मिले। दोनों में परस्पर सहानुभूति तथा स्नेह की समानता चाहिए। पुत्र को पिता के वय का, उसके अधिक अनुभव का, उसके उन दु:खों का जिन्हें उसने उसके लिए उठाया है, सर्वदा ध्याउन रखना चाहिए। पिता पुत्र के सम्बन्ध में पुत्र को पिता के स्वाभाविक बड़प्पन को स्नेहपूर्वक खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए। बहुत से पुत्र ऐसे होते हैं जो बिलकुल बुरे, बेकहे और स्नेहशून्य तो नहीं होते, पर वे अपने पिता के साथ मानमर्यादा का भाव छोड़ इस प्रकार हेलमेल का व्यवहार रखते हैं, मानो वह उनका कोई गहरा संगी है। वे उससे चलती बाजारू बोली में बातचीत करते हैं और उसके प्रति इतना सम्मान नहीं दिखाते जितना एक बिना जाने सुने आदमी के प्रति दिखाते हैं। यह बेअदबी तिरस्कार से भी बुरी है।

मैं उन लोगों के लिए लिखता हूँ जो अपना जीवन उपयोगी बनाना चाहते हों, जो ईश्वर के दिए हुए गुणों और शक्तियों से भरपूर लाभ उठाना चाहते हों, जो संसार से अपने दिन पूरे करने के उपरान्त अपने कर्मक्षेत्र के बीच-चाहे वह छोटा हो या बड़ा-अपनी स्थिति के द्वारा कुछ भलाई छोड़ जाना चाहते हों। मैं ऐसे लोगों से आत्म संस्कार के निमित्त, अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों की शिक्षा के निमित्त तथा अपने मनोवेगों के परिष्कार के निमित्त शुभ प्रयत्न का अनुरोध करता हूँ। जरमी टेलर कहते हैं-'जिन्दगी एक बाजी के समान है। हारजीत तो हमारे हाथ नहीं है, पर बाजी का खेलना हमारे हाथ में है।' मैं अपने पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि वे सीखें कि यह बाजी किस तरह खेलनी चाहिए। प्रतिभा और अर्जित शक्ति में-अर्थात् उस शक्ति में जो ईश्वरप्रदत्ता है और उसमें जो हम साधन वा अभ्यास द्वारा प्राप्त करते हैं-भेद माना गया है और ठीक भी है। पर यह भेद इतना सूक्ष्म है कि जो पुरुष अपने संकल्प में दृढ़ और अपने कर्म में तत्पर है, वह उसे एक प्रकार से मिटा सकता है। अथवा यों कहिए कि मनुष्य की प्रतिभा भी बहुत कुछ उसी के हाथों में है। बुध्दि वा समझ को हम परिश्रम का फल कह सकते हैं और स्वच्छ विवेक को उपयुक्त शिक्षा वा संस्कार का। डॉक्टर आर्नल्ड ने इसी अभिप्राय से लिखा है-'इस जगत् में सबसे बड़ी तारीफ की बात यह है कि जिन लोगों में स्वाभाविक शक्ति की कमी रहती है, यदि वे उसके लिए सच्ची साधाना और अभ्यास करें तो परमेश्वर उन पर अनुग्रह करता है। हावेल बक्स्टन ने भी कहा है-'युवा पुरुष बहुत से अंशों में जो होना चाहें, वह हो सकते हैं।' एरी शेफर ही की बात को लीजिए जो कहते हैं-'जीवन में शारीरिक और मानसिक परिश्रम के बिना कोई फल नहीं मिलता। दृढ़चित्त और ऊँचे उद्देश्यवाला मनुष्य जो करना चाहे, कर सकता है।' जिस प्रकार बहुत से लोग अपनी सामर्थ्य पर बहुत अधिक भरोसा करके, अपनी पहुँच का विचार न करके अकृतकार्य होते हैं, उसी प्रकार बहुतेरे लोग साहसहीनता और अपनी सामर्थ्य पर अविश्वास के कारण भी अकृतकार्य होते हैं, जिससे उनकी सारी शक्ति मारी जाती है और उनके सारे प्रयत्नों का सार निकल जाता है। यह एक पुरानी कहावत है कि जब तक मनुष्य हाथ नहीं लगाता, तब तक वह नहीं जान सकता कि मैं कुछ कर सकता हूँ या नहीं। हमें चाहिए कि जो करना हो, उसे अच्छी तरह आरम्भ कर दें और दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ते जायँ। हमें आरम्भ अवश्य कर देना चाहिए; क्योंकि यह बँधी हुई बात है कि हममें से हर एक कुछ न कुछ कर सकता है और करेगा, यदि एक बार अकृतकार्य होकर हिम्मत न हारे। एकलव्य यदि द्रोणाचार्य के यहाँ से निराश होकर धनुर्विद्या का अभ्यास छोड़ देता तो वह उसमें इतना कुशल न होता। पैलिसी कभी तामलेट वा लुकदार बरतन बनाने की युक्ति न निकाल सकता, यदि वह पहले पहल बरतनों को भट्ठी में चिटकते देख अपनी धौंकनी आदि फेंक किनारे हो जाता। प्रसिध्द फरासीसी महोपदेशक लकाडर्ेयर यदि सन राच के गिरजे में अपने को बोलने में असमर्थ देख हतोत्साह हो जाता, तो वह एक गली गली घूमने वाला पादरी ही रह जाता। सब बातों का तत्व् यह है कि हम अवसर को हाथ से न जाने दें, हम अपनी प्रत्येक शक्ति का उपयोग करें तथा दृढ़ता, आशा और धीरता के साथ उन्नति के पथ पर आगे बढ़ते जायँ। स्वसंस्कार का कार्य इसी प्रकार सुसम्पन्न होगा।

इस विषय में विशेष आगे चलकर कहा जाएगा। हम यहाँ पर यह मान लेते हैं कि युवक पाठक अपना जीवन श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं और ईश्वर की कृपा से प्राप्त मनुष्य जन्म को सार्थक करना चाहते हैं। वे स्वशिक्षा के महत्कार्य में लग गए हैं। इस अवस्था में उन्हें अपनी शिक्षा का आरम्भ घर ही में करना चाहिए। उन्हें पुत्र व भाई के रूप में शिक्षा ग्रहण करनी होगी। इन रूपों में उन्हें स्वार्थत्याग, अधीनता, सच्चाई, ईमानदारी इत्यादि गुणों का अभ्यास करना चाहिए, जो जीवन के संग्राम में कवच और अस्त्र का काम देंगे। घर पर की सीखी हुई यह बातें बाहर भी पूरा काम देंगी। ये घरेलू संस्कार संसार की विकट यात्रा में रक्षक देवताओं के समान उनके साथ रहेंगे, उन्हें लड़खड़ाकर गिरने से बचावेंगे, उनके कानों में आशा का मधुर संगीत डालेंगे और उनके आगे-आगे स्वच्छ सूर्य का प्रकाश फैलावेंगे। इसीलिए मैंने पुस्तक के आरम्भ ही में पिता पुत्र के सम्बन्ध का एक सुन्दर दृष्टान्त दिखाया है। पिता के प्रति पुत्र के तीन कर्तव्यब हैं-स्नेह, सम्मान और आज्ञापालन। यह कहा जा सकता है कि जहाँ आज्ञाकारिता और सम्मान नहीं, वहाँ स्नेह नहीं रह सकता। आजकल माता पिता के प्रति लीक पीटने भर को आधा स्वार्थमय स्नेह ही, जिसमें अधीनता और विवेक की प्रवृत्ति नहीं होती, बहुत से लड़कों में होता है। यह वह गूढ़, पवित्र और सच्चा स्नेह नहीं है जिसे पुत्र अपना कर्तव्ये समझे और पिता जिसका अभिमान करे। जब कोई नवयुवक घर से ऊब जाय या अपनी गुप्त बातों को पिता के कानों में डालने से हिचके, तो उसे तुरन्त सँभल जाना चाहिए और यह समझ लेना चाहिए कि जिस मार्ग पर मैंने पैर रखा है, उससे मेरा सत्यानाश होगा। जिस कार्य में वह प्रवृत्त हो, उसकी भलाई बुराई की जाँच के लिए सबसे सीधा उपाय यह है कि वह उसे अपने परिवार के लोगों के सामने प्रकट करे। इस बात को विचारे कि क्या उसकी चर्चा घर में अपने माता पिता के सामने कर सकता है? क्या वह कार्य इस योग्य है कि उसकी परीक्षा परिवार के बीच हो? जब किसी रासायनिक द्रव्य का एक बार विश्लेषण हो जाता है, तब उसके संयोजक अंश बराबर एक दूसरे से उसी प्रकार पृथक होते जाते हैं जिस प्रकार पहले वे एक दूसरे की ओर आकर्षित होते थे। इसी प्रकार जब कोई युवक एक बार घर से अलग कोई काम कर बैठता है, तब वह बराबर उससे दूर ही पड़ता जाता है। अत: इस प्रवृत्ति को तुरन्त रोकना चाहिए, नहीं तो आगे चलकर इसका रोकना कठिन हो जायेगा। उसके और उसके परिवार के बीच जितना ही अधिक अन्तर बढ़ता जायेगा, उतना ही उसे उस अन्तर को मिटाने में संकोच होगा। पहाड़ की चोटी से लुढ़ककर जो वस्तु जितनी ही नीचे आ जाती है, उतनी ही उसकी गति नीचे की ओर बढ़ती जाती है। जब किसी युवक को यह मालूम हो कि उसका घर अब उसे उतना अच्छा नहीं लगता, जितना पहले लगता था, तब उसे अपने हृदय पर हाथ रखकर टटोलना चाहिए कि 'क्यों?' बहुतेरे चंचल प्रकृति नवयुवकों का यह सिध्दान्त हो रहा है कि किसी पर श्रध्दा करना ठीक नहीं। वे किसी पर श्रध्दा नहीं रखते, किसी से स्नेह नहीं करते। उनकी समझ में परिवार से स्नेह करना हृदय की दुर्बलता है; और जो पुत्र अपने माता पिता से स्नेह रखता है, वह या तो दुधमुँहा बच्चा है अथवा पाखण्ड में फँसा हुआ धूर्त है। जिस युवक ने स्वसंस्कार का कार्य हाथ में लिया हो और जीवन के कर्तव्यस, उद्देश्य और अवसर के विषय में जिसके विचार उच्च हों, उसे ऐसे लोगों का साथ न करना चाहिए; क्योंकि उनका मस्तिष्क बुध्दि से वैसा ही शून्य रहता है जैसा कि उनका हृदय स्नेह आदि से। बात यह है कि श्रध्दा की कमी के साथ-साथ बुध्दि शक्ति का भी झस होता है; अत: उनके साथ से बुध्दि तो कुछ बढ़ेगी नहीं और नैतिक क्षति बड़ी भारी होगी। यह बात मैं अत्यन्त आग्रह के साथ कहता हूँ कि पारिवारिक स्नेह अपनी पवित्रता, अपने उच्च प्रभाव तथा अपनी स्थिरता के कारण स्वसंस्कार का मूल मन्त्र है।

जब हम अपने चारों ओर दृष्टि डालते हैं तब जो बात हमें सब वस्तुओं में दिखाई पड़ती है, वह परिवर्तनशीलता है। फूल कुम्हला जाते हैं और पत्तियाँ सूखकर गिर पड़ती हैं। वसन्त में फिर नए फूल होते हैं और नए पत्तोंु की हरियाली छा जाती है; पर काल पाकर वे फूल-पत्तेि भी चले जाते हैं। एक मुरझाई आशा के उपरान्त दूसरी आशा दिखाई पड़ती है। एक वर्ष के उपरान्त दूसरे वर्ष का आगम और भोग हमारे सामने आता है। दिन आते हैं और जाते हैं। ज्योंही हम वर्तमान से परिचित होते हैं और समझते हैं कि वह हमारे हाथ में है, वह चट व्यतीत हो जाता है और हम आगे उस भविष्य की ओर देखते हैं जिसका विस्तार भी वर्तमान की अस्थिरता के कारण संकुचित होता जाता है। यहाँ एक कहानी याद आती है। एक मनुष्य यह सुनकर दौड़ा कि इन्द्रधनुष पृथिवी पर जिस स्थान से उठा है, वहाँ सोने का एक कटोरा है। पर वह ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, त्यों-त्यों उसे इन्द्रधनुष भी आगे बढ़ता दिखाई पड़ा और अन्त में आकाश में विलीन हो गया। इसी प्रकार कालसमुद्र में बुलबुले पर बुलबुले उठते हैं और अदृश्य होते हैं। पर कुछ वस्तुएँ ऐसी भी हैं जिनका नाश नहीं होता, जिन्हें काल नहीं स्पर्श करता। हमारा घरेलू स्नेह, हमारी पारिवारिक सहृदयता, उदारता और स्वार्थत्याग ये वस्तुएँ ऐसी हैं जो एक ऐसे अमूल्य और अक्षय्य भण्डामर के रूप में संचित होती जाती हैं जो अन्त में उस अनन्त प्रेमस्वरूप परमेश्वर में लीन हो जायेगा। हमारी प्रकृति में जो उत्कृष्टता है वह मृत्यु के उपरान्त भी बनी रहेगी। जिस प्रकार हमारी आत्मा अमर है, उसी प्रकार उसका अंशस्वरूप हृदय भी अमर है। जिस प्रकार हमारा बुध्दिज्ञान बना रहता है, उसी प्रकार हमारे हृदय के भाव भी बने रहते हैं; क्योंकि वे आत्मा के अंश हैं और उनके बिना हमारा अस्तित्व ही खण्डित और अपूर्ण रहेगा। पितृस्नेह के भाव को निकाल लीजिए तो कृष्णकुमारी में बचता क्या है? पिर्निंी उस पतिप्रेम और पातिव्रत भाव के बिना क्या रह जायगी जिसके कारण उसने अपने जी पर खेलकर अपने पति को छुड़ाया था और वह अन्त में चिता में कूदी थी ?

क्या हृदय के भावों की यह अमरता ऐसी नहीं है जिसके लिए हम उनका अभ्यास करें ? यदि वे मृदुल और गम्भीर भाव ऐसे हैं जिनके बल से माता और शिशु, पिता और पुत्र, भाई और बहिन परस्पर सम्बन्धसूत्र में बँधे रहते हैं और जो मृत्यु के उपरान्त भी बने रहनेवाले हैं, तो हम उनके उपार्जन के लिए पूरा यत्न क्यों न करें? इस प्रकार का यत्न हमारी नैतिक और आध्याोत्मिक शिक्षा का एक अंग होगा-उस शिक्षा का एक अंग होगा जिसके द्वारा हम अपने जीवन के कत्ताव्यों में समर्थ होंगे। यदि हम विचारकर देखें तो विदित होगा कि हमारा परिवार परमात्मा की ओर से स्थापित एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हम अपने अन्त:करण को पवित्र कर सकते हैं और अपनी आत्मा में सत्वगुण को पुष्ट कर सकते हैं। वह कोई शिक्षा नहीं जिसमें इसका विचार न किया जाय। एक महापुरुष का कथन है-'थोड़े से ऐसे जीवों के, जो एक साथ खाते, पीते, सोते और उठते बैठते हैं, एक ही घर में रहने से परिवार नहीं बन जाता। इस तरह तो हम घर की ईंटों ही को परिवार कह सकते हैं। किसी परिवार को, चाहे उसके आधे लोग पृथिवी के भिन्न भिन्न भागों में रहते हों, हम सुखसम्पदापूर्ण परिवार कह सकते हैं। पारिवारिक जीवन के सच्चे अंग तो प्रेमपूर्वक स्मरण, परस्पर का सद्भाव, मंगलकामना, सहानुभूति, माता पिता का आशीर्वाद, पुत्र का स्नेह, भगिनी का अभिमान, भाई का प्यार आदि हैं।'

यह कहावत बहुत ठीक है कि हम किसी वस्तु का गुण तब तक नहीं जानते जब तक उसे खो नहीं देते। हम जिन वस्तुओं को दिन रात देखते रहते हैं, उनकी कदर भी तब तक नहीं जानते जब तक कि उन्हें खो नहीं बैठते। नदी किनारे के गुलाब को जो नित्य देखता है, उसके लिए वह कुछ भी नहीं है; पर आस्ट्रेलिया के उजाड़ में घूमनेवाले के चित्त में उसके मुरझाए हुए दलों को देखकर अनेक वर्णनातीत भाव उदय होंगे। उनमें उसे मृदुल और अनूठे स्वरूपों का आभास मिलेगा। इसी प्रकार बहुत से युवा पुरुष, माता के स्नेह, उसके अपूर्व धैर्य और त्याग का मूल्य तभी समझते हैं जब उसकी स्मृति मात्र रह जाती है। जब वे चिता के किनारे खड़े होकर उसके ऊपर लकड़ियों का ढेर लगता देखते हैं जो किसी समय उन पर प्राण तक न्योछावर करनेवाली उनकी कोमलहृदय माता थीं, तब उनकी ऑंखें खुलती हैं, और वे हाय मारते हुए अपनी हानि को समझते हैं। पर यह भी कोई बात है कि जब तक इस भीषणता के साथ ऑंख न खोली जाय, तब तक चेत न हो? यह तो सत्य है कि तुम्हारे जीवन के अन्तिम काल तक माता की स्मृति के गूढ़ और नीरव प्रभाव के द्वारा तुम्हारी भलाई होती रहेगी। एक अमेरिकन राजनीतिज्ञ कहता है-”मैं नास्तिक हो गया होता यदि मुझे वे दिन स्मरण न होते जब मेरी माँ मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर मुझसे कहलाती थी कि 'हे परमेश्वर! मेरी प्रार्थना सुन'।” इसी प्रकार जान न्यूटन आलने नामक एक व्यक्ति बाल्यावस्था में अपनी माता से प्राप्त धर्मशिक्षा के संस्कार के बल से कुमार्ग में पड़ने से बच गया था। थोड़ा सोचो तो कि एक माता के न रहने से तुम्हारा कितना सच्चा सुख चला गया। तुम्हें फिर वह सुख कहाँ मिलेगा जो प्रेम के परस्पर अनुसरण में मिलता है? माता का आलिंगन, माता की स्नेह दृष्टि जिसमें परस्पर के भाव परिचय का प्रमाण मिलता है-माता का मन्द हास, सुख-दु:ख का कथन श्रवण फिर कहाँ? ये सब बातें गईं। इनसे तुम्हारा क्या लाभ होगा, तुम यह समझने भी न पाए थे कि सब बातें चली गईं।

स्वार्थ दृष्टि से भी और परमार्थ दृष्टि से भी पारिवारिक स्नेह का अर्जन आवश्यक है। सच पूछिए तो इस प्रकार के अर्जन से मनुष्य स्वार्थपर होने से बचता है। यदि हम अपने सुख का ध्या्न रखेंगे, तो हमें अन्त में दूसरों के सुख का ध्यािन रखना ही पड़ेगा। अत: हम जो ऊपर कह आए हैं, ठीक कह आए हैं कि परिवार एक पाठशाला वा शिक्षा देनेवाली संस्था है जिससे स्वसंस्कार में सहायता मिलती है; क्योंकि पारिवारिक सुख के लिए सबसे पहली बात यह है कि प्रत्येक प्राणी आत्मनिग्रह का अभ्यास करे। यदि प्रत्येक प्राणी अपनी ही बात रखना चाहे, अपनी ही इच्छा के अनुसार सब कुछ होने का हठ करे, अपनी ही रुचि और प्रवृत्ति को सबके ऊपर रखना चाहे तो घर में सच्ची शान्ति कभी नहीं रह सकती। जहाँ एक बार किसी का क्रोध भड़का कि सारा घर उद्विग्न और व्याकुल हो जायेगा, प्रत्येक प्राणी की शान्ति भंग होगी। पारिवारिक सम्बन्ध के सुखपूर्वक निर्वाह के लिए युवा पुरुष को चाहिए कि वह बराबर आत्मसंवरण का उदाहरण दिखलावे, आवेग में आकर कोई बात मुँह से न निकाले, दूसरे की त्योरी न चढ़ने दे और मीठे वचन बोले जिनसे क्रोध शान्त होता है। एक साधु के साथ कई दुर्जनों की रक्षा हो जाती है। घर में एक मधुरभाषी प्राणी, कोरस में एक निपुण गवैये के समान, सबको ठीक रखता है। बाहर उसके चित्त में क्रोध उत्पन्न करनेवाली चाहे कितनी ही बातें हुई हों, कितनी ही बातों से उसका जी दु:खी हो, पर युवा पुरुष जब घर के भीतर आवे तब शान्त और प्रसन्नमुख आवे। वह कठोर संयम करे, अपनी चेष्टा को वश में रखे, अपनी जबान में लगाम लगा दे। हा! क्रोध की लाल ऑंखों और आवेश के कठोर वचनों से कितने अनर्थ होते हैं। युवा पुरुषों को 'लगती हुई बात' कहने की बड़ी रुचि होती है। प्राय: वे व्यंग्यपूर्ण उत्तर और चुटीली फब्तियाँ किसी बुरी नीयत से नहीं बल्कि अपनी बुध्दि की तीक्ष्णता दिखाने के लिए मुँह से निकालते हैं। यह एक ऐसा दोष है जिससे उन्हें जहाँ तक हो सके, बचना चाहिए। बात की चोट बड़ी गहरी होती है। जब तुम्हारा लगती हुई चुटीली बात कहने को जी चाहे, तब तुम इस बात को सोच लिया करो कि ऐसा करने से थोड़ी देर के लिए तुम्हारा रंग तो बँध जायेगा, पर बहुत दिनों के लिए बैर ठन जायेगा। एक महात्मा का वचन है कि 'अप्रिय सत्य बोलने से मौन रहना अच्छा है'। बहुतेरे घरों की यह चाल होती है कि उसके प्राणी नए आदमियों के सामने भी एक दूसरे को जलीकटी सुनाया करते हैं। अंग्रेजी भाषा का अलौकिक गद्य लेखक कार्लाइल कहता है-'व्यंग्य वा ताना मेरे देखने में शैतान की भाषा है, इसी से बहुत दिनों से मैंने उसे छोड़ दिया है।' जानसन का कथन है-'किसी मनुष्य को दूसरे को कटु वचन कहने का उसी प्रकार अधिकार नहीं है जिस प्रकार उसे ढकेल देने का।'

पर चेष्टा और चितवन से जो रुखाई प्रकट की जाती है, वह भी क्रोध से भरे हुए कटु वचनों से कम नहीं होती। हमें अपना मुँह ही नहीं बन्द करना चाहिए, अपने मनोवेगों को भी दबाना चाहिए। हमें स्वार्थ, ईर्ष्यां, द्वेष और तुनुकमिजाजी को भी, कटु वचन और लाल ऑंखें जिनके बाहरी लक्षण हैं, दूर करना चाहिए। मिजाज ठीक रखना अपने आपको वश में रखने का ही नाम है, धीर प्रकृति, उदार हृदय और स्वच्छ चित्त का फल है। पास्कल कहता है-'मैं सब मनुष्यों के निकट सच्चा, ईमानदार और विश्वासपात्र होने के यत्न करता हूँ। मेरा हृदय उनके प्रति कोमल रहता है जिनका हमारा परमात्मा ने घनिष्ठ सम्बन्ध कर दिया है।' यही आत्मनिरोध का सच्चा तत्व है। न्या यपरायणता और सच्चाई ही बुध्दिमान पुरुष की धीर प्रकृति के अंग हैं। उनके साथ ही यदि हमारा हृदय भी उनके प्रति कोमल हो जिनका हमारा साथ परमात्मा ने कर दिया है, तो हमें परिवार के सच्चे सुख का अनुभव हो सकता है। हमें मानना और सहना चाहिए, एक दूसरे का ध्याेन रखना चाहिए, एक दूसरे के सम्बन्ध में सच्चाई और ईमानदारी का व्यवहार करना चाहिए और चित्त का कोमल होना चाहिए। हमें अपने भावों और मनोवेगों का शासनकर्ता होना चाहिए। युधिष्ठिर को जय और कीर्ति का लाभ अपूर्व आत्मनिरोध के बल में ही हुआ। दुर्योधन का नाश उध्दृत प्रकृति के कारण, आत्मशासन के अभाव के कारण हुआ। पिता पुत्र, भाई बहिन आदि का नाता निबाहने के लिए हमें आत्मनिरोध को धारण किए रहना चाहिए, जिसके सामने सब कठिनाइयाँ हवा हो जाती हैं। यह एक ऐसा रासायनिक तत्व है जो परस्पर भिन्न प्रकृति के पदार्थों को भी मिलाकर एक करता है। हर्बर्ट स्पेंसर ने कहा है-'अपने आपको वश में रखने से ही पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त होता है। मनुष्य उद्वेगशील न हो, प्रत्येक वासना से प्रेरित होकर इधर-उधर न भटकने लगे, बहुत से भावों को शान्तिपूर्वक तौलकर अपना एक भाव स्थिर करे, नैतिक शिक्षा इसी बात का प्रयत्न करती है।' प्रसिध्द उपन्यास लेखक स्काट में ये सब गुण थे, इसी से उसे परिवार का सच्चा सुख था। अपनी स्त्री्, अपने लड़कों और अपने मित्रों के साथ उसका व्यवहार सदैव कोमल रहता था। बाहर से चाहे वह कितना ही उद्विग्न और झुँझलाया हुआ आता था, पर घर की चौखट लाँघते ही वह मृदुल भाव धारण कर लेता था, जैसा कि प्राय: लोग करते हैं। वह बाहर का गुस्सा अपने घर के प्राणियों पर आकर नहीं निकालता था। उसके सुख का वह सबसे अधिक ध्या न रखता था। वह आदर्श भ्राता, आदर्श पुत्र, आदर्श पति और आदर्श पिता था। उसके चरितलेखक ने लिखा है-'उसके घर में स्मृतिचिद्द के रूप में उसकी माता के पुराने ढंग के पिटारे, उसके हाथ की लिखी चिट्ठियाँ, जिनमें स्कॉट के उन भाई-बहिनों के बाल रखे थे जो माता की मृत्यु के पहले ही मर चुके थे, उसके बाप की सुँघनीदानी तथा इसी प्रकार की और भी बहुत सी वस्तुएँ यत्नपूर्वक रखी थीं।' उसके जीवनचरित में इसी प्रकार की बहुत ही बातें मिलेंगी। उन सबसे उस गूढ़ स्नेह का पता लगेगा जिसके कारण उसमें उतना आत्मसंवरण था तथा उस त्याग का परिचय मिलेगा जो परिवार के सुख, शान्ति और स्नेह को बढ़ाता है।

उत्तम व्यवहार की वह पूर्णता भी, जिसे शिष्टता कहते हैं, आत्मनिग्रह से कम आवश्यक नहीं है। इस विषय में भी स्काट आदर्शस्वरूप था। एक महाशय उसके विषय में लिखते हैं-'लोगों के साथ व्यवहार करने में जो शिष्टता मैंने उसमें देखी है, वह किसी में नहीं देखी। उसका व्यवहार इतना सादा और स्वाभाविक होता था और उसके शील का लोगों पर इतना प्रभाव पड़ जाता था कि लोग अपने आपको भूल जाते थे और उसके इस गुण को लक्ष्य नहीं कर सकते थे।' शिष्टता पुरुषार्थ का चिद्द है। गरीब, अमीर, नौकर-चाकर, घर का प्राणी, कोई हो, सबका बराबर ध्याषन रखना चाहिए; सबके साथ प्रसन्नता, स्नेह और कोमलता का व्यवहार करना चाहिए।

मैंने जिस शिष्ट व्यवहार का ऊपर वर्णन किया है, वह प्रचलित अदब-कायदे से भिन्न है। बहुत से अदब कायदेवालों में सच्ची और उच्चकोटि की शिष्टता उतनी भी नहीं होती जितनी एक ग्रामीण किसान में होती है। सच्ची शिष्टता उसमें समझनी चाहिए जो दूसरों का खयाल करके तब अपना खयाल करता है, जो अपने पड़ोसी को आगे करता है और आप पीछे रहता है, जो दूसरों को बोलते देखकर आप चुप होकर सुनता है, जो धैर्य ऐसे अलौकिक गुण को धारण करता है। शिष्टता का सारा सिध्दान्त यह है कि हमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि हम चाहते हैं कि दूसरे हमारे साथ करें। पूर्ण शिष्टता धार्मिक पुरुषों में देखी जाती है। उनमें चित्त की उदारता और आत्मशासन की शक्ति बहुत कुछ पाई जाती है। शिष्टता का एक अत्यन्त आवश्यक अंग है विनय वा नम्रता। अपने आपको बड़ा लगाना शिष्ट व्यवहार का बाधक है। किसी किसी घर में देखा जाता है कि चार छ: महीने के समाजसंसर्ग से संसार की ऊपरी बातों का थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त करके पुत्र अपने को अपने माता पिता, भाई अपने को अपनी बहिन से बढ़कर लगाने लगता है। थोड़े ही दिन समाज की गन्दी हवा खाकर किसी किसी नवयुवक का मिजाज इतना बिगड़ जाता है कि वह अपनी बहिनों को “अन्धीव भेड़ें, और माता पिता को 'पुराने खूसट' समझने लगता है। इसीसे उसके व्यवहार में उग्रता आ जाती है और मान सम्मान तथा शिष्टता का अभाव दिखाई देने लगता है। वह समझता है कि ऐसे असाधारण लोगों के साथ बहुत शिष्टता दिखाने की आवश्यकता ही क्या? पर पुरुषार्थ वा वीर व्रत यह है कि हम स्त्रियों के साथ स्नेह और आदर का व्यवहार करें और धर्म यह है कि हम अपने माता पिता का सम्मान करें। धर्म इस बात का आग्रह करता है कि हम उनकी सारी उचित आज्ञाओं का पूर्ण तत्परता के साथ पालन करें; जब उनका और हमारा मत न मिले, तब हम उनके अधिक अनुभव को मान लें; और यह समझ लें कि उन्होंने जो बात कही है, वह अधिक सोच विचार के साथ कही है। नम्रता माता पिता के प्रति हमारे स्नेह की सारभूत वस्तु है और शिष्टता की भी। हमारे यहाँ गोस्वामी तुलसीदासजी कैसे धर्मपरायण और निर्मल चरित्र के महात्मा हो गए हैं। उन्होंने रामचरितमानस के आरम्भ में अपनी नम्रता और विनय का कैसा सुन्दर परिचय दिया है-

कबि न होउँ नहि चतुर कहावों [वऊँ]A

मतिअनुरूप रामगुन गावों [वऊँ] Ï

एक ईसाई महात्मा का नम्रता के विषय में इस प्रकार का उपदेश है-'नम्र मनुष्य अपनी बुध्दि पर भरोसा नहीं करता, बल्कि अपने गुरु और अपने मित्रों के निर्णय पर चलता है। वह हठपूर्वक अपनी ही इच्छा के अनुकूल नहीं चलता, बल्कि जिन बातों से अपने बड़ों का सम्बन्ध होता है, उन्हें उन्हीं के ऊपर छोड़ देता है। वह आज्ञापालन में चूँ-चकार नहीं करता। वह किसी आज्ञा के औचित्य की जिज्ञासा नहीं करता, उसे उचित ही समझता है। वह अपने आचरण, संकल्प और विचार से कभी सन्तुष्ट नहीं रहता। वह बातचीत संकोच के साथ करता है। जब उसे कोई अकारण वा किसी कारण से भला बुरा कहता है, तब वह उसका कड़घआ और तीखा उत्तर नहीं देता।' नम्रता का यह गुण ऐसा है जिसकी ओर आजकल के नवयुवक कुछ ध्याीन नहीं देते। इन चोखे नवयुवकों के निकट, जो भूमण्डल के प्रत्येक विषय के आचार्य आप बनते हैं, जो अपनी सम्मति ब्रह्मवाक्य के समान अटल निश्चित करके देते हैं और जो पुरानी बातों और पुराने निश्चयों का बड़ी घृणा के साथ तिरस्कार करते हैं, नम्रता एक अत्यन्त तुच्छ और भद्दा गुण है। वे अपने को इतना नहीं गिरा सकते कि नम्रता धारण करें। ऐसे लोग एक परम धार्मिक महात्मा की इन बातों पर कितना हँसेंगे-”मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी दृष्टि में अपने को अत्यन्त दीन और तुच्छ-कपोत की तरह दीन और तुच्छ-समझो। जब अवसर मिले तब अपने को नम्र करने से न चूको। बोलने में तेजी न करो, जहाँ तक बने अपना उत्तर धीरे में, विनय और नम्रता के साथ दो। अपने संकोचपूर्ण मौन ही को अपना बोलना समझो।' यह एक झूठी धारणा फैली हुई है कि कड़ककर बोलना, खूब हाथ पैर झटकना और 'विधिनिषेधा' का भाव प्रकट करना पुरुषार्थ के चिद्द हैं और 'सांसारिक अनुभव' के बाहरी लक्षण हैं। महाराजा रणजीतसिंह के समान अनुभवी और पराक्रमी कौन होगा? पर उनकी नम्रता के दृष्टान्त प्रसिध्द हैं। रहीम खानाखाना जैसे विद्वान् थे, वैसे ही वीर भी थे, पर उनकी रचनाओं से कितनी सिधाई और नम्रता टपकती है। सच तो यों है कि पुरुषार्थ और पराक्रम के साथ यदि नम्रता भी हो तो 'सोने में सुगन्ध' समझना चाहिए। पराक्रमी पुरुष विनीत होते हैं; क्योंकि नम्रता और उदारता से उनके पराक्रम की शोभा होतीहै।

जिस प्रकार नम्रता शिष्टता का एक अंग है, उसी प्रकार उदारता भी। दोनों भलेमानुस के गुण हैं। पाठक यह न समझें कि उदारता से मेरा अभिप्राय खूब हाथ खोलकर खर्च करने से है। खुली मुट्ठीवालों का स्वभाव भी कभी-कभी बड़ा ओछा होता है। उदारता उन्हीं लोगों में होती है जिनके हृदय का संस्कार अच्छा होता है। ऐसी उदारतावाला मनुष्य कभी किसी की बुराई नहीं सोचता, दुर्बल और अत्याचार पीड़ित प्राणियों की रक्षा करता है, किसी के विषय में झूठे अपवाद की ओर ध्यारन नहीं देता, दूसरे के कार्यों और वचनों को अच्छे भाव में लेता है, दूसरों पर खोटे सन्देह नहीं करता। भद्र पुरुषों का मिलना उतना सहज नहीं है जितना लोग समझते हैं; क्योंकि उदारता का गुण इस संसार में दुर्लभ है। भद्र पुरुष होने के लिए मनुष्य को क्या-क्या होना चाहिए? भद्र पुरुष होने के लिए मनुष्य को ईमानदार और खरा होना चाहिए, कोमल होना चाहिए, उदार होना चाहिए, साहसी होना चाहिए, बुध्दिमान होना चाहिए तथा इन सब गुणों को धारण करते हुए उनका सुन्दर उपयोग करना चाहिए।

मैं चाहता हूँ कि वह शिष्टता जिसे मैंने नम्रता और उदारता के आधार पर स्थित और धर्मबल का एक अंग बतलाया है, घर में भी बत्तीध जाय। मैं चाहता हूँ कि उसका प्रकाश परिवार में भी फैले और सब प्राणियों को सुखी और प्रफुल्लित करे। बाहर संसार में बड़े बड़े कार्य करने को उद्यत होने के पहले मनुष्य अपना पराक्रम और अपनी धीरता घर में क्यों न दिखा ले? बहुत से नवयुवक केवल सामाजिक शिष्टता धारण किए रहते हैं। वे जब बाहरी लोगों से मिलते जुलते हैं, तब बड़े शील संकोच और नम्रता का व्यवहार करते हैं; पर ज्योंही वे अपने घर की चौखट लाँघते हैं वे अपना रूप बदल देते हैं। तब वही मुँह जो कुछ घड़ी पहले सँभलकर और धीमे स्वर से बोलता था, कर्कश और ऊँचे स्वर से बोलने लगता है। वही भाव जो कुछ क्षण पहले विनीत और नम्र था, कठोर और उग्र हो जाता है। प्राय: यह समझा जाता है कि अपने घर के बीच शिष्टाचार बर्तने की आवश्यकता नहीं; अपने कुटुम्बियों के सामने बहुत शिष्ट और परिष्कृत व्यवहार व्यर्थ का एक आडम्बर है और दूसरों के माता पिता के प्रति जैसा आदर-सम्मान दिखाया जाता है, वैसा अपने माता पिता के सामने दिखाना मूर्खता है। इसका मतलब यही हुआ कि अपने माता पिता, भाई आदि के साथ वैसा व्यवहार करना आवश्यक नहीं जैसा भलेमानुसों के साथ किया जाता है। इससे बढ़कर भूल और क्या हो सकती है? शिष्टता के व्यवहार से परिवार में शान्ति और मेल ही नहीं रहता, बल्कि हम उदार आचरण करने में अभ्यस्त होते हैं तथा सोच विचारकर और धैर्य के साथ कार्य करना सीखते हैं। यह उस नीति शिक्षा की दूसरी सीढ़ी है जिसके विषय में हम ऊपर कह आए हैं। अस्तु, यह एक बात निश्चित हुई कि आत्मदमन और शिष्टता के द्वारा परिवार के सुख की वृध्दि हो सकती है।

एक तीसरा गुण जो इनमें और जोड़ा जा सकता है, वह प्रफुल्लता है। 'घरेलू शिक्षा' नाम की अपनी पुस्तक में ऐजक टेलर नामक एक ऍंगरेज लेखक ने इस बात पर जोर दिया है कि परिवार की सुखवृध्दि के लिए माता पिता में कुछ प्रफुल्लता और क्रीड़ा कौतुक भी चाहिए। वह कहता है-जिस प्रकार माता अपने बच्चों के प्रेम को उनके साथ विनोद और लाड़ प्यार करके चमकाती और सुरक्षित रखती है, उसी प्रकार पिता भी मर्यादापूर्वक थोड़े बहुत खेलकूद द्वारा उनके उत्साह को बढ़ाकर अपने शासन को प्रिय बना सकता है। वह पिता जिसमें यह गुण हो, अवकाश वा भोजन के समय अथवा बगीचे में टहलते हुए अपने लड़कों के साथ, भद्देपन को बचाता हुआ, विनोद वा खिलवाड़ के ढंग की बातचीत छेड़े और चुटकुलों, कहानियों आदि से उनका मन बहलावे। पर बहुत कम माता पिता ऐसे होते हैं जो अपने परिवार के मनोरंजन के लिए ऐसी मनोहर युक्ति काम में लाना जानते हैं; और बहुत कम परिवार ऐसे हैं जो इसके आनन्द का अनुभव कर सकते हैं। पर परिवार में प्रफुल्लता उत्पन्न करने के लिए यह युक्ति बड़े काम की है और इससे परिवार का सुख बढ़ सकता है। हर्बर्ट कहता है-'मीठे वचन बोलने में कुछ लगता नहीं, पर उनका मोल बड़ा होता है।' प्रफुल्लित वचन ही अच्छे वचन हैं, क्योंकि उनसे आशा उत्ते जित होती है और धैर्य पुष्ट होता है। पर यह नहीं कि केवल माता पिता ही अच्छे और मीठे वचन बोलें, पुत्र को भी मीठे वचन बोलकर स्नेह और कर्तव्य् की दृष्टि से अपने माता पिता को उनकी अवस्था की उतरानी में सहारा देना चाहिए। क्या वह अपने अवकाश का थोड़ा बहुत समय अपने परिवार की प्रसन्नता के लिए नहीं लगा सकता? मान लीजिए कि घर में कोई बीमार है या कोई विपत्ति आई है। ऐसी दशा में धीरचित्त, प्रसन्नमुख, आशाभरी दृष्टि और उत्साहपूर्ण मुसकराहट के साथ घर में आवे। फिर देखिए कि निर्बल को कितना सहारा हो जाता है, मरा हुआ मन कैसा हो जाता है, और बुङ्ढों में कितनी शक्ति आ जाती है। यदि परिवार में किसी प्रकार की विघ्नबाधा नहीं है, तो भी उसकी प्रफुल्लता से परिवार के आनन्द की वृध्दि होगी; यदि हँसी में वह योग दे देगा, तो हँसी और जी खोलकर होगी; यदि आमोद प्रमोद में वह सहायता दे देगा तो वह और भी धूमधाम से होगा। ऐसा न करो कि अपने निज के आमोद प्रमोद वा लिखाई पढ़ाई के आगे तुम अपने परिवार के आमोद प्रमोद में कभी सम्मिलित ही न हो। जब तक तुम घर से बहुत दूर नहीं हो; तब तक अपने घर को घर समझो और ऐसा करो कि उसके निर्दोष आमोद प्रमोद में तुम्हारी प्रफुल्लता का भी कुछ भाग रहे। यूरोप के प्रसिध्द धर्मप्रवर्तक लूथर ने कहा है-'विनोद और साहस, अर्थात् विचारपूर्ण विनोद, मर्यादापूर्ण साहस, बुङ्ढे और जवान सबके लिए उदासी की अच्छी दवा है।' यदि कोई युवा पुरुष यह जानना चाहे कि क्या उसके आमोद प्रमोद निर्दोष और आशय उदार हैं, क्या उसका हृदय वैसा ही पवित्र है जैसा लड़कपन के भोलेपन में था, तो उसे यह सोचकर देखना चाहिए कि 'क्या उसका प्रेम घर से पहले ही का सा है और क्या उसका मन घर के कामों में, उसके आमोद प्रमोद में, उसी प्रफुल्लता के साथ लगता है जिस प्रफुल्लता के साथ पहले लगता था?' जब किसी नवयुवक का चित्त घर से ऊब जाय, जब घर के व्यवहार में उसे आनन्द न मिलने लगे, तब उसे निश्चय समझ लेना चाहिए कि उसमें बुराई आ गई है और उसका चित्त चंचल हो गया है। फिर तो उसे शान्ति और पवित्रता के लिए तरसना होगा जो उसे फिर नहीं मिलने की।

जो लोग परिवार के सुख की वृध्दि किया चाहते हैं, उन्हें सहानुभूति भी रखनी चाहिए। एक धार्मिक कवि की माता के विषय में कहा जाता है कि वह अपने परिवार का शासन मृदुलता से करती थी और लड़कों के मनबहलाव का इतना प्रबन्ध रखती थी कि वे अपना बहुत सा समय प्रसन्नतापूर्वक उसी के साथ बिताते थे। वे उसकी सहानुभूति देखकर उसकी ओर आकर्षित रहते थे। यही सहानुभूति का गुण है जिसके कारण बच्चे पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों से अधिक हिले मिले रहते हैं। यह सहानुभूति उनकी प्रत्येक भावना, रुचि और आकांक्षा के प्रति होती है। यही सहानुभूति का मन्त्रबल है जिससे बच्चे मोहित रहते हैं। यदि युवा पुरुष भी अपने पारिवारिक सम्बन्ध में इस सहानुभूति का संचार करें, जैसा कि बड़े और अच्छे लोग करते थे, तो वे थोड़े ही दिनों में देखेंगे कि उनके नित्यप्रति के जीवन पर कैसी सुहावनी रंगत चढ़ गई है। आधो क्या, आधो से अधिक मनमोटाव, जिनके कारण परिवार की शान्ति भंग होती है, आधो से अधिक सन्देह, जिनके कारण परस्पर का विश्वास उठ जाता है, सहानुभूति के अभाव से उत्पन्न होते हैं। कुछ गर्व और कुछ संकोच में पड़कर पुत्र पिता से किनारा खींचे रहता है, भाई बहिन से तटस्थ रहता है। इस प्रकार अन्तर बढ़ता जाता है और पारिवारिक स्नेहरूपी अमूल्य धन का नाश हो जाता है। पर एक परिवार के प्राणियों का हानि लाभ एक दूसरे से पृथक् नहीं होना चाहिए। उनके आमोद प्रमोद, उनकी आशाएँ, उनके हौसले, जहाँ तक हो सके, सम्मिलित रूप में हों। उन्हें एक दूसरे के हृदय के आन्तरिक सौरभ का भागी होना चाहिए।

सहानुभूति की इस शक्ति के विषय में, जिसके प्रभाव से अन्त:करण में और घर में स्नेह की ज्योति जगती है, जरमी टेलर ने क्या अच्छा कहा है-'प्रत्येक मनुष्य का आनन्द उस समय दूना हो जाता है जब उस आनन्द का भागी कोई और मिल जाता है। मेरा मित्र मेरे दु:ख को तो बाँटकर आधा कर देता है, पर सुख को दूना कर देता है; दो निकास एक नदी की धारा को कम कर देते हैं, पर दो बत्तियाँ एक दीपक की ज्योति को बढ़ा देती हैं। मेरी ऑंखों के ऑंसू करुणा के सहारे मेरे मित्र की ऑंखों की राह से भी निकलकर जल्दी सूख जाते हैं; पर मेरे आनन्द की ज्योति के साथ मेरे मित्र के आनन्द की ज्योति मिलकर प्रकाश को बढ़ा देती हैं, क्योंकि दोनों ज्योतियाँ मिलकर चमकती हैं।' अपने परिवार के साथ व्यवहार करने में सहानुभूति की शक्ति का उपयोग करके युवा पुरुष अपने आनन्द को दूना कर सकते हैं और अपनी चिन्ताओं को कम कर सकते हैं। यदि वे अपने छोटे भाइयों की पढ़ाई-लिखाई, बड़े भाइयों के कामकाज और माता पिता के उद्योग यत्न की ओर भी ध्यावन दें और मन लगावें तो उनके लिए आनन्द का एक नया मार्ग खुल जाय, और पारिवारिक जीवन में एक नया रंग ढंग दिखाई दे। ऐसा करने से उनका हृदय भी परिष्कृत होगा और उनकी बुध्दि भी बढ़ेगी। पढ़ाई लिखाई वा कामकाज से जो अवकाश मिले, उसमें इस प्रकार की नई तत्परता पुष्टई का काम देगी जिससे अपने नियमित कार्य के सम्पादन के लिए शरीर में अधिक बल और फुर्ती आवेगी। करुणा, सहानुभूति आदि हृदय के उत्तम गुणों के निरन्तर अभ्यास से स्नेह शिथिल और धीमा नहीं पड़ने पावेगा, और वह कठोर स्वार्थपरता नहीं आने पावेगी जिससे सैकड़ों युवा पुरुषों का जीवन कड़घआ हो जाता है।

घर में भी युवा पुरुषों को बातचीत करने का ढंग सीखना चाहिए। यह एक ऐसा गुण है जिसे कोई सिखाता भी नहीं और जिसे बहुत लोग अर्जित भी नहीं करते। इस गुण के बिना लोग न्योते और उत्सव आदि में जाते हैं, रेल पर यात्रा करते हैं, पर एक दूसरे का मुँह ताकते रहते हैं। संयोगवश कोई चतुर मनुष्य बोल उठा तो बोल उठा और कोई ऐसी चर्चा छेड़ सका जिसमें सबका मन लगे और बातचीत कुछ देर तक उत्साह और धूम के साथ चले। पर ऐसे लोग कम मिलते हैं और इस कमी का फल यह होता है कि लोग बहुधा उत्सव आदि में जाते हैं, पर न तो कोई नई बात जान सकते हैं और न किसी पुरानी बात पर तर्क वितर्क करने का अवसर पा सकते हैं। पर जो मनुष्य विचारपूर्वक-नोकझोंक के साथ न सही-बातचीत करना जानता है, वह सर्वत्रा सर्वप्रिय रहता है। बातचीत करने का गुण प्राप्त करना कुछ कठिन नहीं है। जिस प्रकार अभ्यास के बिना तुम अच्छा लिख नहीं सकते, उसी प्रकार अभ्यास के बिना अच्छे ढंग से बातचीत भी नहीं कर सकते। अत: उसका अभ्यास घर ही में परिवार के बीच से आरम्भ कर दो। जब जाड़े के दिनों में घर के सब किवाड़ बन्द करके एक स्थान पर आग जलाकर परिवार के छोटे बड़े सब कुछ काल के लिए इकट्ठे होकर बैठते हैं, तब तुम भी उनके बीच बैठकर मनोरंजन, बुध्दिमानी और विनोद से भरी बातचीत चलाने का प्रयत्न करो। कविशिरोमणि शेक्सपियर ने अच्छी बातचीत का लक्षण इस प्रकार कहा है-'बातचीत प्रिय हो पर ओछी न हो, चुहल की हो पर बनावट लिए न हो, स्वच्छन्द हो पर अश्लील न हो, विद्वत्तापूर्ण हो पर दम्भयुक्त न हो, अनोखी हो पर असत्य न हो।' सर विलियम टेंपल ने वार्तालाप के जो अंग निर्धारित किए हैं, वे ये हैं-'पहली बात तो सच्चाई है, दूसरी बात समझदारी, तीसरी शील और चौथी चतुराई है। उक्ति और चतुराई के साथ बातचीत करना चाहे तुम्हें न आवे; पर तुम शीलसंकोच और समझदारी के साथ बातचीत कर सकते हो। जिसमें बातचीत की चतुराई स्वाभाविक नहीं है; उसका बनावटी चतुराई दिखाना बहुत बुरा लगता है। बातचीत केवल अपने को कुछ प्रकट करने के लिए नहीं करनी चाहिए। बातचीत का अर्थ यह है कि अपनी अपनी ओर से सब लोग कुछ कहें। अच्छा बातचीत करनेवाला जिस तरह अपनी कहना जानता है, उसी तरह दूसरों की सुनना भी जानता है; जिस तरह आप बातचीत में लगना जानता है, उसी तरह दूसरों को भी बातचीत में लगाना जानता है; जिस तरह आप बोलना जानता है, उसी तरह दूसरों को भी बुलाना जानता है।' एक अनुभवी कवि का वचन है-'दूसरों की सुनना भी एक बड़ा भारी काम है। इसी में बातचीत का गुण देखा जाता है और इसी से नम्रता और बुध्दिमानी आती है।'

आजकल जबकि संवादपत्रों की अधिकता हो रही है, तुम यह बहाना नहीं कर सकते कि हमें बातचीत करने को कोई विषय ही नहीं मिलता। किसी ग्रन्थकार की नव प्रकाशित पुस्तक, किसी राजनीतिज्ञ का व्याख्यान, समाजसंशोधन का कोई उद्योग, विज्ञान का कोई आविष्कार, देश की उन्नति का उपाय-ये सब ऐसे प्रसंग हैं जो अवकाश के समय के लिए बहुत हैं और जिन पर तर्क-वितर्क करने से तुम्हें और तुम्हारे परिवार के लोगों को भी लाभ पहुँच सकता है।

कई बड़े लोगों का कथन है कि सौ में से निन्नानबे बातों की जानकारी हमें बातचीत से प्राप्त हुई। अकबर, शिवाजी, रणजीतसिंह आदि कई बड़े बड़े राजा और बादशाह कुछ पढ़े लिखे न थे, पर अपने समय के बड़े बड़े धुरंधर विद्वानों और बुध्दिमानों के सत्संग से उनकी जानकारी बहुत बढ़ी चढ़ी थी। लार्ड बेकन कहता है-'सत्संग वा बातचीत से मनुष्य उद्यत बुध्दि का होता है; क्योंकि उसके लिए मनुष्य को अपनी जानकारी इस प्रकार उपस्थित रखनी पड़ती है जिसमें जब अवसर पड़े, तब वह उसे काम में ला सके, बेकन ने बातचीत के लिए बहुत से विषय बतलाये हैं जो जानकारी के अधीन हैं। वह कहता है-'बातचीत का अच्छा ढंग यह है कि प्राप्त प्रसंग के साथ कुछ तर्क भी मिला रहे, दृष्टान्तों और कथाओं के साथ युक्ति भी रहे, प्रश्नों के साथ मत भी प्रकाशित किया जाय और हँसी-दिल्लगी के साथ कुछ काम की बात भी रहे, क्योंकि एक ही बात को लेकर बहुत बढ़ाना, जिससे लोगों का जी ऊबे, बुरा लगता है।' आत्मसंस्कार के लिए बातचीत किस प्रकार उपयोगी हो सकती है, यह भी बेकन ने बतलाया है। जैसे-'वह जो पूछता बहुत है, बहुत जानेगा और बहुत सन्तुष्ट होगा, विशेषकर जब वह अपने प्रश्नों को इस ढंग से पूछता है कि जिनसे पूछता है, उनका गुण उत्तेकजित होता है। यह उन्हें बोलने का, आनन्द उठाने का अवसर देता है और आप ज्ञान संचित करता जाता है।' बातचीत से एक लाभ और होता है। इससे ज्ञान बढ़ाने की उत्तेतजना मिलती है। जब कि तुम चाहते हो कि दूसरे लोग बोलकर तुम्हें आनन्दित करें और तुम्हारी जानकारी बढ़ावें तब तुम्हें भी यह ध्याचन अवश्य होगा कि तुम भी बोलकर उन्हें आनन्दित करो और उनकी जानकारी बढ़ाओ। इसके लिए तुम्हें सामग्री एकत्र करने का प्रयत्न करना पड़ेगा। बातचीत एक ऐसी बाजी है जिसमें सबको कुछ न कुछ लगाना पड़ता है, क्योंकि उसमें सबका स्वार्थ रहता है।

घर ही एक ऐसा स्थान है जहाँ तुम सौन्दर्यभावना का विकास कर सकते हो, कलाकौशल की रुचि सम्पादित कर सकते हो। स्कूल में तुमने थोड़ी बहुत ड्राइंग वा चित्रकारी सीखी होगी और तुम वस्तुओं के भद्दे ढाँचे बनाना जानते होगे, अथवा संगीत ही में कुछ स्वर, ग्राम आदि तुमने सीखा होगा। अपनी उस अल्प शिक्षा को तुम घर में अभ्यास द्वारा बढ़ा सकते हो। सम्भव है कि तुम्हारे घर का कोई प्राणी तुम्हें उसमें सहायता दे सके, नहीं तो आप अभ्यास करो। अभ्यास ही से मनुष्य पूर्णता प्राप्त करता है। तुम्हें इस अभ्यास में सहायता देने के लिए आजकल थोड़े ही खर्च में बहुत से साधन उपलब्ध हो सकते हैं। मैं इस बात को आग्रह के साथ कहता हूँ कि प्रत्येक युवा पुरुष को कोई न कोई कला अवश्य सीखनी चाहिए। इससे केवल अलौकिक और पवित्र आनन्द ही नहीं प्राप्त होगा, बल्कि भारी कामों से अवकाश पाने पर पूरा विश्राम मिलेगा, मन बहलेगा। सच्चा विश्राम हाथ पर हाथ रखकर बैठने में नहीं है, बल्कि कार्यों को बदलते रहने में है। वैज्ञानिक छानबीन, नित्य के व्यवसाय, अथवा विदेशी भाषा में अध्यंयन में लगे रहने के उपरान्त चित्त को स्वस्थ और सशक्त करने का मेरी समझ में इससे बढ़कर और कोई उपाय नहीं है कि वीणा वा हारमोनियम लेकर बैठ जाय अथवा किसी बड़े चित्रकार के चित्र को सामने रखकर उसकी छाया उतारने लगे। यदि कल्पना और मनोवेगों के पोषण और परिष्कार की ओर ध्याान न दिया जायेगा तो बुध्दि अवश्य अपूर्ण और अपरिष्कृत रहेगी। कला के अध्यययन से अन्त:करण की सारी शक्तियाँ खुल पड़ती हैं। क्या हम बड़े बड़े संगीताचार्यों की उन शिक्षाओं की ओर कान न दें जो उनके मधुर अलाप और जटिल स्वरों से मिलती हैं? क्या हम उन सुन्दर, उदार और महत्तवपूर्ण वस्तुओं को ऑंख उठाकर न देखें जो बड़े बड़े चित्रकारों के भावपूर्ण पटों पर अंकित रहती हैं? कला की रुचि हमारे गूढ़ से गूढ़ मनोवेगों में-हमारी प्रकृति के पवित्र और सुन्दर अंशों में-ऐसी प्रेरणा उत्पन्न करती है और विवेक को दृढ़ करती हुई कल्पना को इतना सन्तुष्ट करती है तथा चिन्तन शक्ति को इस प्रकार उत्तेहजित और आलोचना शक्ति को इस प्रकार तीव्र करती है कि उसे पुष्ट और परिष्कृत करना हमारा परम कर्तव्यइ है। हर्बर्ट स्पेंसर ने मनुष्य जीवन को पाँच प्रकार के कामों में इस प्रकार बाँटा है-'पहले वे कर्म जिनसे आत्मरक्षा होती है; दूसरे वे कर्म जो जीवननिर्वाह की सामग्री सम्पादित करके आत्मरक्षा के निमित्त किए जाते हैं; तीसरे वे कर्म जो सन्तान के पालन और शिक्षा के निमित्त किए जाते हैं; चौथे वे कर्म जो सामाजिक और राजनीतिक सम्बन्धों के निर्माण के हेतु किए जाते हैं; और पाँचवें वे फुटकर कर्म जो अवकाश के अवसरों पर किए जाते हैं और जिनसे रुचि और भावनाओं की तुष्टि होती है।' इस प्रकार कला का सम्पादन वा अध्येयन पाँचवीं कोटि में आता है। पर यद्यपि उसका स्थान गौण रक्खा गया है, तथापि मैं उसके महत्तव पर बहुत जोर देता हूँ। मनुष्य रोटी ही पर नहीं रह सकता। उसकी कल्पना उत्ते जित होनी चाहिए, उसके भाव जाग्रत होने चाहिए। सौन्दर्य का भाव पवित्रता और सत्यता के भाव से अलग नहीं है। यदि कलावान् के चरित्र अच्छे नहीं हैं, तो उसकी कला को अवश्य क्षति पहुँचेगी। उत्कृष्ट कला सदा सत्य और पवित्रता लिए होगी। अत: नैतिक और मानसिक शिक्षा के लिए तथा अधिक अध्य्यन वा कामकाज की चिन्ता से थके हुए मस्तिष्क के विश्राम के लिए कला का सम्पादन अत्यन्त आवश्यक है।

यदि तुम्हें संगीत न आवे तो चित्रकारी ही लो। यदि वह भी अरुचिकर वा असम्भव हो तो मिट्टी के खिलौने बनाओ, फूल पत्तेी सजाओ-सारांश यह कि ऐसी बातें करो जिनसे सौन्दर्य का प्रेम तुम्हारे चित्त में बना रहे। मेरी दृष्टि में तो संगीत से बढ़कर आह्लाददायिनी और आशय को उच्च करनेवाली दूसरी कला नहीं है। इससे तन और मन दोनों को विश्राम मिलता है। ज्यों ज्यों बाजे पर उँगलियाँ फिरती हैं, त्यों त्यों हृदय भी आनन्द से उछलता है। संगीत उत्साह बढ़ाता है, विचारों को ठिकाने करता है, श्रवणों को सुख देता है, चित्त को विश्राम देता है। वह हमें आगे आनेवाले कामों के करने के उपयुक्त ही नहीं करता, बल्कि प्राप्त काल में भी हमारे हृदय को पवित्र और उत्तम भावों से पूर्ण करता है। अत: जितना ही संगीत का स्वर मेरे कानों में मधुर होता जाता है, उतना ही सत्य का प्रवाह मेरे हृदय में उमड़ता आता है। बड़े-बड़े विद्वानों, वीरों और नीतिज्ञों को संगीत से अपार आनन्द मिलता था। इसी संगीत के आनन्द से मुग्ध होने के लिए अकबर तानसेन के पीछे पीछे स्वामी हरिदास की कुटी पर गया। सूरदास के भगवत्प्रेम का प्रवाह संगीत के रूप में बहा। ऍंगरेज कवि मिल्टन सांसारिक झंझटों और लोगों के मिथ्या अपवादों से खिन्न होकर अपने श्रान्त चित्त का आरगन बाजे से बहलाता था। उसने औरों को यही करने का उपदेश दिया है। वह कहता है-”विश्राम का समय यदि श्रान्त चित्त को संगीत के मधुर अलाप द्वारा स्थिर और शान्त करने में लगाया जाय, तो बहुत लाभ और आनन्द प्राप्त हो सकता है। बाजे के बीच बीच में जो गीत कानों में पड़ते हैं, उनमें स्वभाव और चेष्टा को कोमल करने की बड़ी शक्ति होती है।' संगीत का कुछ अभ्यास अवश्य करना चाहिए। संसार के बहुत से अच्छे कवि और ग्रन्थकार संगीत से पूरा आनन्द उठाते थे।

लोगों में एक सिध्दान्त प्रचलित हो गया है जिससे साधारण शिक्षा और संस्कार को बड़ी हानि पहुँचती है। वह सिध्दान्त यह है कि एक से अधिक बातों में प्रवीणता प्राप्त करना असम्भव है। बहुत से दुनियादार बाप अपने बेटों से कहा करते हैं-'रागरंग से दूर रहो, कोई कला आदि न सीखो, अपने काम को छोड़ और किसी काम में प्रवीण होने का यत्न न करो।' इस प्रकार उनके स्वभाव को संकीर्ण और लोभी बनाकर वे उन्हें उस आनन्द और उन्नति से वंचित करते हैं जो केवल एक कार्य में निपुण होने से नहीं प्राप्त हो सकती। इसी से मैं कहता हूँ कि घर पर के मनबहलाव के लिए तुम कोई न कोई कला अवश्य सीखो।