पुरुषों के प्रतिशोध, हार, कुंठा का नतीजा है बलात्कार / संतोष श्रीवास्तव

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पिछले कुछ समय से भारत के महानगरों, शहरों, गांवों और विदेशी महिला पर्यटकों के साथ बलात्कार की बढ़ती घटनाओं ने सबको हैरत में डाल दिया है। सामाजिक-आर्थिक विकास की तेज दौड़ के बीच इस बर्बर अपराध की भयावह मौजूदगी की अपने-अपने तरीके से व्याख्या कि जा रही है। कानून के रखवाले कहते हैं कि बलात्कार का यह आंकड़ा इसलिए ज़्यादा लग रहा है कि अब पीड़ित वर्ग जागरूक हुआ है और उसने कानून के दरवाजे खटखटाए हैं वरना बलात्कार पहले भी होते थे बल्कि जब से औरत जन्मी है तब से होते थे पर तब पीड़िता के होंठ सिले रहते थे या परिवार के द्वारा मामले दबा लिए जाते थे। स्त्री-पुरुष में काम भावना का होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। व्यभिचार न फैले इसलिए इसे धार्मिक रूप देकर विवाह सूत्र में परिणित किया गया। हिन्दू सभ्यता में तो देवी-देवताओं तक को विवाह सूत्र में बाँधा गया ताकि विवाह संस्था कि पवित्रता बनी रहे। लेकिन हिन्दू मिथकों में इंद्र और चंद्रमा जैसे अय्याश और लम्पट देवता भी हैं जिनके कारनामों से काम वासना को मर्यादा में बाँधे रखना शुरू से ही चुनौतीपूर्ण रहा है। महाभारत मर्यादाहीन सम्बंधों, स्त्रियों के अपहरण और शोषण की कथाओं से यदि भरा पड़ा है तो इसका अर्थ है कि इस वासना का धर्मशास्त्री भी दमन करने में असमर्थ रहे। अप्सराएँ, तपस्वियों की तपस्या भंग करने के लिए स्वर्ग और इंद्रलोक भेजी जाती थीं और तपस्वियों ऋषि, मुनियों का तप भी स्त्री देह के आकर्षण में डगमगा जाता था। काम को प्रमुखता देने वाले कामसूत्र ग्रंथों का लिखा जाना, गुफाओं, मंदिरों में नग्न स्त्री पुरुष, देवी-देवताओं द्वारा कामक्रीड़ा में रत मूर्तियाँ इस बात के प्रमाण हैं कि मानव स्वभाव की यह भावना, यह भूख कितनी उचित है। अजंता एलोरा कि गुफाएँ, कोणार्क मंदिर, खजुराहो का क्रामक्रीड़ा में रत मूर्तिशिल्प देख कान की लबें तक गर्म हो जाती हैं। इस आदिम वासना को बाँधने, ढीला छोड़ देने और क्रियान्वित करने के सारे मानवीय प्रयास अक्सर लीक करते रहते हैं। बलात्कार रोकना अशंभव जान पड़ता है।

बलात्कार हमेशा ताकतवर के द्वारा कमजोर पर किया जाता है। स्त्रियाँ शरीर से कोमल नाजुक होती हैं अत: पुरुष उन पर उनकी अनिच्छा के बावजूद बल आजमाते हैं। उन्हें न समाज का डर है न कानून का जबकि स्त्री की देह शीशे-सी होती है जो टूटती है और बस बिखर कर ही रह जाती है। दकियानूसी पुरुष प्रधान समाज स्त्री को ही दोषी ठहराता है। वह उनके पहनावे, पश्चिमी सभ्यता कि नकल और उनकी आजादी को दोषी ठहराता है। तब तो खाड़ी देशों में बलात्कार होना ही नहीं चाहिए। वहाँ की औरत सिर से पैर तक ढंकी रहती है। जब फ़िल्में नहीं थीं विज्ञापन नहीं थे, विज्ञापनों में मॉडल के अंगों की नुमाइस नहीं थी तब क्या बलात्कार नहीं होते थे? आज बीमार, असहाय, विकलांग, गूंगी, भिखारिन, मनोरोगी और वयस्क औरतों के साथ बलात्कार होने की घटनाओं से अखबार रंगे रहते हैं।

बलात्कार व औरतों पर होने वाले अत्याचार की जड़ में समाज की पुरुष प्रधान मानसिकता ही है जिसमें पुरुष, औरत से श्रेष्ठ माना जाता रहा है। पुरुष भी हमेशा औरत को भोग की वस्तु ही समझता रहा है। जितनी तेजी से आलीशान कोठियाँ, ब्रांडेड कपड़े, ऐशोआराम की ज़िन्दगी और आसपास खूबसूरत औरतों लड़कियों की भीड़ बढ़ी है, उतनी ही तेजी से पुरुष का मानसिक स्तर गिरता जा रहा है। वह कुंठित और भ्रमित होता जा रहा है कि कैसे इन सब चीजों को पाए। उसके भीतर हीनता कि ग्रंथि पनप रही है। अपनी इसी झुंझलाहट, हार और कुंठा को वह कमजोर शरीर पर बलात्कार करके निकालता है। वह इतना अमानुष हो जाता है कि घटना के वक्त न तो उसे औरत की चएक सुनाई पड़ती है और न डर से थर-थर कांपता उसका शरीर, न भयभीत आंखें... वह इन चएकों के बीच खुद को क्यों भुलाना चाहता है? वह मात्र शिकारी की भूमिका क्यों निभाता है। यह कैसी मानसिकता है जो न कानून से डरती न समाज से और अपराध करने से। मनोचिकित्सक डॉ. नागपाल का कहना है कि बलात्कारी को जेल के सींखचों में कैद कर लेना इस समस्या का निदान नहीं है। बहुत संभव है कि वह जेल में सजा काटने के दौरान एक मैच्योर अपराधी बन जाए इसलिए जेल में काउंसलिंग ज़रूरी है ताकि इन अपराधियों की मनोवृत्ति का अध्ययन किया जा सके।

पीड़ित महिला द्वारा पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के बाद ही पुलिस हरकत में आती है और आरोपी के खिलाफ कार्यवाही करती है। कई बार घरेलू नौकर, ड्राइवर, सहकर्मी, दोस्त और रिश्तेदार और नजदीकी जानकार लंबे समय तक औरत को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। औरत विरोध नहीं कर पाती। समाज में बदनामी के डर से माता-पिता भी उसे चुप रहने पर मजबूर कर देते हैं। उनका सोचना है कि लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद चाहे दोषी को सजा मिल भी जाए पर इससे न तो परिवार की इज्जत लौटेगी न लड़की का कौमार्य।

राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष विभा पार्थसारथी का कहना है कि महिला आयोग में रहते हुए मैंने जाना कि इस तरह के मामलों में पुलिस की भूमिका अक्सर निगेटिव होती है। थाने में रिपोर्ट लिखाने जाने पर पुलिस वाले पीड़िता और उसके परिवार को बदनामी का डर दिलाते हैं, मजाक उड़ाते हैं। पूछताछ के नाम पर उलटे-सीधे सवाल पूछकर पीड़िता का मानसिक शोषण करते हैं। कई लोगों की मांग है कि बलात्कारियों को फांसी देनी चाहिए। अपने कार्यकाल के दौरान हमने सत्रह राज्यों में वर्कशॉप कराए। उनमें बड़े-बड़े डॉक्टरों, वकीलों, बुद्धिजीवियों और अनेक एनजीओं ने हिस्सा लिया। इनमें से अधिकांश की राय थी कि छोटी बच्चियों से बलात्कार करने वाले को मौत की सजा दी जानी चाहिए। एक मासूम जो किसी भी तरह इस वहशीपन का विरोध नहीं कर सकती, उसके साथ बलात्कार करने वाला भी समाज में जीने योग्य नहीं है। पिछले सात-आठ सालों में सरकार ने बार-बार उठाए महिला आयोग के कानून में संशोधन सम्बंधी मसलों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। लैटिन अमेरिका में बलात्कारी जिस इलाके का रहने वाला है वहाँ की सड़कों पर उसे झाड़ू लगाने से नालों की सफाई करने की सजा दी जाती है। सजा ऐसी हो जो दर्शकों के सामने उसे हीन महसूस कराए जिससे उसे हर वक्त अपनी गलती का अहसास हो। मीडिया भी इस विषय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। निंदनीय, शर्मनाक स्थिति तो पुलिस के लिए तब होती है जब बलात्कार के मामले में पुलिस वाले भी शामिल हों।

घटना महानगर मुंबई की है। चेंबूर में रहने वाली एक नाबालिग लड़की के लिए कानून के रक्षक ही भक्षक बन गए। संभ्रांत घराने की यह लड़की पढ़ाई के अलावा पार्ट टाइम नौकरी भी करती थी और मेट्रो सिनेमा के पास सिविल डिफेंस का कोर्स भी कर रही थी। घटना के दिन कॉलेज के बाद वह अपने तीन दोस्तों के साथ मरीन ड्राइव के फुटपाथ पर घूम रही थी। हंसी-मजाक के साथ-साथ समुंदर के लुभावने दृश्य का मजा लेते ये विद्यार्थी बिल्कुल सहज मूड में थे कि शराब पी हुई हालत में पुलिस इंस्पेक्टर सुनील मोरे वहाँ आया और यह तर्क देकर कि तुम लोग पब्लिक प्लेस में अश्लील हरकतें कर रहे हो? हमें तुम्हारे मां-बाप से शिकायत करनी पड़ेगी और तुम्हारा स्टेटमेंट लेना पड़ेगा। चलो थाने और वह उन्हें पुलिस बीट चौकी ले गया। बीट चौकी में उसने लड़कों से 1200 रुपये मिलने पर उन्हें छोड़ देने का लालच दिया। लड़कों के पास इतने रुपये न थे इसलिए मोरे ने चालाकी से उन्हें रुपयों का इंतजाम करके लाने को कहा और स्टेटमेंट लेने के बहाने लड़की को अंदर ले गया और धमकी देकर उसके साथ बलात्कार किया। जब लड़की मदद के लिए चिल्लाई तो सड़क चलते लोग रुक गए और देखते ही देखते भीड़ जुट गई। भीड़ ने बीट चौकी पर हमला कर दिया। बलात्कारी रंगे हाथों पकड़ा गया। लेकिन उससे बरबाद हो चुकी लड़की की पीड़ा कम तो नहीं हुई। इस घटना ने मुंबई को हिलाकर रख दिया क्योंकि बलात्कारी पुलिस है। अत: नागरिक सुरक्षा को लेकर आम और खास वर्ग के लोगों के बीच कई सवाल खड़े हो गए हैं। यह बात दीगर है कि इस घटना से शर्मसार पुलिस महकमा सुनील मोरे को अदालत से कड़ी से कड़ी सजा दिलवाने और लड़की के इलाज के लिए आर्थिक मदद करने को तत्पर है किंतु इससे लड़की का कुंवारापन लौट तो नहीं आएगा? वैसे भी समाज में बलात्कार की शिकार लड़की तिरस्कृत है जबकि उसका कोई दोष नहीं होता। फिरभी ऐसी लड़की शादी के योग्य नहीं समझी जाती। लड़के वाले रिश्ता जोड़ने से पहले सौ बार सोचते हैं। मां-बाप भी तौहीन महसूस करते हैं और लड़की जीते-जी नर्क ढोती है... क्या किसी बलात्कारी के संग यह सब होता है बल्कि वह तो मूंछों पर ताव दिए घूमता है। अब औरतों का विश्वास पुलिस न्यायतंत्र और सरकार पर से उठता जा रहा है। कौन जाने सुनील मोरे जैसे दरिन्दे को उचित सजा मिलेगी ही। न जाने कितने बलात्कारी या तो छूट गए हैं या थोड़ी-सी सजा और जुर्माना भरकर खुलेआम घूम रहे हैं। भंवरी देवी, अरुणा शानबाग जैसे बहुचर्चित मामले में क्या हुआ? बलात्कारी छुट्टा सांड बने घूम रहे हैं और इन दोनों औरतों की ज़िन्दगी त्रासदी बनकर रह गई है। औरतों ने गुहार लगाई कि मोरे उनके सुपुर्द कर दिया जाए तो वे दिखा देंगी कि ऐसे दरिन्दे को क्या सजा मिलनी चाहिए। यह एक दरिन्दे का वहशीपन नहीं है बल्कि इस बात की पुष्टि भी है कि पुलिस जैसे महकमे का कोई क्या बिगाड़ लेगा?

यह कोई पहली घटना नहीं है। पुलिस द्वारा बलात्कार की घटनाएँ अखबारों में हर आड़े दूसरे दिन छपती ही रहती हैं। क्राइम अगेंस्ट वूमेन की कमिश्नर विमला मेहरा का कहना है कि पुलिस द्वारा बलात्कार के मामले में हम काफी सख्ती बरतते हैं। पिछले दिनों दिल्ली पुलिस के तीन कर्मियों को बलात्कार का दोषी पाकर बर्खास्त किया गया। ट्रेनिंग और सर्विस के दौरान आयोजित किए जाने वाले कोर्सों और कार्यशालाओं में पुलिस प्रशिक्षार्थियों को औरतों के प्रति आदर से पेश आने पर जोर दिया जाता है। दिल्ली पुलिस औरतों को यह विश्वास दिलाना चाहती है कि वे ऐसे किसी भी मामले की रिपोर्ट करने से न घबराएँ जिसके दोषी पुलिसकर्मी हों। वुमन हेल्पलाइन के जरिए पुलिस पीड़ित महिला के घर जाकर शिकायत दर्ज करती है। युवतियों, छात्राओं में आत्मबल बढ़ाने के लिए समय-समय पर आत्मरक्षा के गुर सिखाने के लिए कैंप भी लगाये जाते हैं। समाज में आया खुलापन और भड़कीला पहनावा बलात्कार का कारण नहीं हो सकते। पुलिस पीड़ित महिला के बयान पर मामला दर्ज कर आरोपी को गिरफ्तार करती है लेकिन लंबी कानूनी प्रक्रिया से महिला को काफी दिक्कतें आती हैं। कई बार पुख्ता सबूत न होने का लाभ अभियुक्त को मिल जाता है।

आज से कुछ साल पहले महाराष्ट्र के पुलिस निदेशक ने अपने पद से इस्तीफा देते हुए कहा था कि पुलिस की छवि इतनी उजली होनी चाहिए कि हर स्त्री को पुलिस थाना मायका लगना चाहिए। इसी मायके में जब सुनील मोरे ने बलात्कार किया तो शिवसेना के मुखपत्र सामना ने इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए छापा कि लड़कियाँ जींस और मिनी स्कर्ट जैसे भड़काऊ कपड़े पहनने के कारण ही बलात्कार का शिकार हो रही हैं इसलिए वे ऐसे कपड़े पहनना छोड़ दें जो पुरुष को उत्तेजित करते हैं। इस बयान से साफ जाहिर है कि शिवसेना पितृसत्तात्मक परंपरा कि पालक है। भारतीय संस्कृति के नाम पर मनुवादी मूल्यों को श्रेष्ठ मानता है इसीलिए महाराष्ट्र में दलित समाज और स्त्री स्वातंत्र्य पर प्रश्नचिह्न लगे हुए हैं। यौन आतंकवादियों के साथ है ये कट्टरपंथी संगठन। वे औरतों को पुरुष के अधीन देखना चाहते हैं। औरतों को वे अपनी सांस्कृतिक जेल में कैद रखना चाहते हैं। इसीलिए वे औरतों को ढंका मुंदा, घूंघट, बुर्के में छुपाकर एक तरह से अपना मानसिक दिवालियापन ही घोषित करते हैं। यह यौन आतंकवाद का तुष्टीकरण ही है और इस तरह वे औरतों के वजूद पर सवालिया निशान लगा देते हैं। जिस समाज में औरत स्वतंत्र नहीं उस समाज की सरकारी व्यवस्था अव्यवस्थित ही कहलायेगी और इसी सरकारी अव्यवस्था कि बहती गंगा में हाथ धो लिए पुलिसकर्मी ने।

सीमा सुरक्षा बल के जवानों का भी दामन बलात्कार के जुर्म से दागदार है। देश के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में आतंकवाद के फैलते शिकंजे से निपटने के लिए इन राज्यों में सीमा सुरक्षा बल के सैनिक तैनात किए जाते हैं किन्तु इन राज्यों में बलात्कार की बढ़ती घटनाएँ ये साबित करती हैं कि दोषी केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, असम राइफल्स, भारतीय थल सेना के सैनिक ही हैं। अप्रैल, 1998 में असम में घटी घटना में जम्मू-कश्मीर राइफल्स के एक सैनिक ने बंदूक की नोक पर 27 वर्षीया गर्भवती प्रेमो देवी की अस्मिता उसी के घर में कुचल डाली। भुक्तभोगी प्रेमोदेवी की आहों से बेखबर सैनिक न्यायालय ने इसे बलात्कार मानने से इंकार कर दिया। असंवेदनशीलता और अवसरवादिता कि बानगी कुछ यूं कि न्यायालय ने इसे हल्की-फुल्की झड़प कहकर रफा-दफा कर दिया। सरेआम ऐलान कर दिया कि इन अपराधी रक्षकों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही नहीं की जाएगी। यदा-कदा न्यायालय में मामला पहुँच भी जाए तो अपराधी साफ बच निकलता है। आर्मी कानूनों के अनुसार किसी भी सैनिक पर कानूनी कार्यवाही सैनिक न्यायालय में ही की जाती है। नतीजा, मुकदमा पक्षपात रहित नहीं रह जाता। उत्तर पूर्व के लगभग सभी राज्यों में सुरक्षा बल के जवानों द्वारा वहशीपन का यह नाच खुले आम जारी है। वे घर के पुरुषों को बंदूक की नोक पर कुछ भी आरोप लगाकर गिरफ्तार करके ले जाते हैं। घर की औरतों, लड़कियों और बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार करते हैं। सैन्य बलों की लूटपाट को आर्म्ड फोर्सेस एक्ट 1958 की शह प्राप्त है। इससे पहले कि मामला तूल पकड़े, सेना के उच्च पदासीन अधिकारी घटना को दबा देते हैं, शायद ही कभी किसी अपराधी को सजा मिली हो।

14 जनवरी, 1999 की सुबह केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के सिपाहियों ने पुरवाओ जिले की दो बहनों लेशराम बिमोला देवी और लेशराम मनीषांग को अगवा कर लिया। उन पर अंडरवर्ल्ड की सरगर्मियों में शामिल होने का आरोप भी मढ़ दिया और इस मनगढ़ंत आरोप के तहत पहले तो सिपाहियों ने मिलकर दोनों के साथ बलात्कार किया और फिर उनके पैर, जांघ, कमर और गुप्तांगों को लोहे की छड़ों से लहूलुहान कर दिया। बाद में अधमरी हालत में उन्हें यह कहकर छोड़ दिया कि उनके खिलाफ फिलहाल कोई ठोस सबूत नहीं हैं। दोनों बहनें महीनों अस्पताल में पड़ी रहीं जबकि इस घटना के उत्तरदायी सिपाहियों के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं हुआ। अगर होता भी तो कौन-सी अपराधियों को सजा मिलती क्योंकि इसके पीछे शईर्षस्थ राजनेताओं का हाथ होता है जो स्वयं ऐसे कुकृत्यों में लिप्त रहते हैं। असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत की रखैल का मुद्दा और जगजीवन राम के सुपुत्र सुरेश की किसी औरत के साथ खिंची नंगी तस्वीरें इस कड़वे सच की मात्र एक झलक हैं। क्षेत्रीय आतंकवाद के दौरान बलात्कार, मारपीट, अपहरण आदि जुल्मों की शिकार औरत क्षेत्र में शांति बहाल होने के बाद पुलिस और सेना के जवानों द्वारा कुचली, मसली जाती हैं। पंचायत राज का शिकार भी औरतें होती हैं।

हरियाणा के एक गाँव में एक दलित वर्ग के युवक के साथ उच्च वर्ग की युवती का प्रेमसम्बंध दोनों को तबाह कर गया। पंचायत जुटी और पंचों ने फैसला सुनाया कि इस अछूत जाति के युवक का उसकी जाति से बहिष्कार कर दिया जाए। किसी भी गाँव टोले में उसका बैठना न हो, उसका हुक्का-पानी बंद, वह किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग न ले और उसे पेड़ से बाँधकर उस पर जूते-चप्पल फेंके जाएँ और युवती। पंचों का फैसला था कि गाय के शरीर में जब गर्मी भर जाती है तो उसे सांड़ के पास ले जाया जाता है। वही इस लड़की के साथ किया जाए और लड़की को उसके मां-बाप के सामने ही कोठरी में पटककर पंचों ने एक-एक कर उसके साथ बलात्कार किया। लड़की की चएकों ने भीड़ के रूप में जुटे गांववालों के होश उड़ा दिए और जब अंतिम पंच कोठरी में गया तब तक चएकें शांत हो चुकी थीं। लड़की मर चुकी थी।

पाकिस्तान की बहुचर्चित मुख्तारन माई भी पंचों की हवस का शिकार बनी। वह सीधी-सादी धार्मिक महिला थी जो पति से तलाक पाकर अपनी संतानों के साथ कुरान का पालन करते हुए सिलाई-कढ़ाई सिखाकर अपना पेट पाल रही थी। उसका नाबालिग भाई किसी से प्यार कर बैठा। पाकिस्तान में प्यार करने की सजा मौत है लेकिन वह तो नाबालिग था। अत: सजा उसकी बहन मुख्तारन माई को दी गई। मौत से भी बदतर सजा। पंचों ने उशसे सामूहिक बलात्कार की सजा सुनाई। एक घंटे से भी अधिक समय तक उसके साथ बलात्कार किया गया। इस हादसे के बाद अट्ठाईस वर्षीया मुख्तारन माई ने खुदकुशी करनी चाही पर उसे लगा कि ऐसा करके वह अपराध को बढ़ावा देगी। उसने फैसला किया कि वह दोषियों को सजा दिलवाएगी। तमाम मुश्किलों और देश के भीतर तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद उसे न सिर्फ़ न्याय मिला बल्कि दुनियाभर के मीडिया का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ। देश-विदेश से मिली मदद से मुख्तारन ने अपने गाँव में लड़कियों के लिए एक विद्यालय खोला जिसमें वह खुद तो मुख्य अध्यापिका है ही लड़कियों के हौसले और चुनौती से जीने की शिक्षा भी दे रही हैं। वह औरतों के शोषण और अन्याय के खिलाफ पूरे जोश के साथ जुटी है। न केवल पाकिस्तान बल्कि पूरी दुनिया में मानवाधिकार और महिला आंदोलन का जुझारू चेहरा बन चुकी है मुख्तारन माई। इतना ही नहीं वह दबी-कुचली महिलाओं के लिए शेल्टर हाउस बनवाने में भी कामयाब रही। इस बीच वह कई बार अमेरिका कि यात्रा भी कर आई है। सभी औरतें मुख्तारन माई जैसा हौसला दिखाएँ तो समाज का रूप ही बदल सकता है पर...

बलात्कार औरत को मानसिक रूप से उम्र भर के लिए विक्षिप्त-सा कर देता है। वह यह मान लेती है कि उसके जीवन में अब कुछ बचा ही नहीं। उसकी संपूर्ण अभिलाषाएँ और जिजीविषा अपराध बोध की अग्नि में जल कर भस्म हो जाती हैं। जो अपराध उसने किया ही नहीं उशका खामियाजा उसे जीवनभर भुगतना पड़ता है। कौमार्य भंग होने की पीड़ा, विवाह टूट जाने या न हो पाने की शर्मिंदगी झेलती वह समाज में भी धिक्कारी जाती है। यदि वह बलात्कार से गर्भवती हो गई या तो उशे गर्भपात कराने के लिए मजबूर होना पड़ता है जो एक माँ के लिए बहुत पीड़ादायक है। अगर बच्चे ने जन्म ले लिया तो उसे पिता का नाम न मिलने की वजह से माता का उसे पालना त्रासदी बन जाता है। नेपाल का कानून तो औरतों के इतने खिलाफ है कि वहाँ औरत के गर्भवती होने की कोई भी वजह हो गर्भपात कराना कानूनी अपराध है और ऐसे औरत के लिए जेल के अतिरिक्त और कोई जगह नहीं बचती। नेपाल के एक सरकारी संगठन सेंटर फॉर रिसर्च आॅन इनवायरमेंट हेल्थ एण्ड पापुलेशन एक्टिविटिज के एक सर्वे के अनुसार नेपाली जेलों में बंद कुल महिलाओं में से 20 प्रतिशत गर्भपात और भ्रूण हत्या के अपराध की सजा काट रही हैं। बलात्कार से गर्भवती औरत गर्भपात कराने की सजा काट रही है और बलात्कारी छुट्टा सांड-सा घूम रहा है। विश्व के इस एकमात्र हिंदू राष्ट्र के रहनुमाओं की नजर में यह कतई नागवार नहीं गुजरता कि यह सबसे बड़ा आश्चर्य है। अपनी इस दुखद स्थिति से निजात पाने का औरत के पास कोई उपाय नहीं रह जाता क्योंकि वहाँ का कानून की औरत के प्रति बेरहम है। गर्भपात के विरुद्ध कठोर न्याय के कारण नेपाली औरतों को दोहरी मार झेलनी पड़ती है। इस समस्या से निपटने के लिए नीम हकीमों की शरण में जाने के कारण ऊंची फीस और स्वास्थ्य दोनों नष्ट हो जाते हैं। कभी-कभी तो अधिक गर्म तासीर की दवाइयों के कारण वे माँ बनने के काबिल ही नहीं रह जातीं।

राजधानी दिल्ली में बलात्कार की घटनाएँ होना आम बात हो गई है। महिला राष्ट्रपति, महिला मुख्यमंत्री और तमाम महकमों में पदासीन महिला अधिकारियों के बावजूद कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जब बलात्कार की घटना न घटे। विदेशी महिला पर्यटकों को चलती कार में अपनी हवस का शिकार बनाना हमारी गौरवशाली भारतीय संस्कृति का मुंह काला करने जैसा अपराध है। ऐसा लगता है कि दिल्ली खूंखार इरादों वाले अपराधियों से घिर चुकी है। जिन्हें न पुलिस का डर है और न समाज का। दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्रा को रात में अगुवा कर कार में बलात्कार करने वाले अपराधी पहचान लिए गए हैं। पुलिस रिकार्ड बताता है कि वे इससे पहले भी संगीन अपराधों में नामजद हैं। जाहिर है, ऐसे अपराधियों को उनकी करतूतों के बावजूद कानून पहले बख्श चुका है और समाज ने भी ऐसा कोई ऐतराज नहीं जताया कि आइंदा वे ऐसी हरकत दुबारा करने से बाज आते। अपराधियों के प्रति ऐसा रवैया ही उन्हें कुत्सित मार्ग में आगे बढ़ाता है। दिल्ली में कई मामले तो दर्ज हो जाते हैं पर कई मामलों में पीड़ित औरत चुप रह जाती है। लचर कानून की वजह से अपराधियाों के हौसले बुलंद हैं। कुछ हाई प्रोफाइल मामले मीडिया में उछाले जाते हैं और ऐसे केस अदालत में आनन-फानन में निपटा दिए जाते हैं। दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा के दस्तावेजों के मुताबिक बलात्कार के 90 प्रतिशत मामलों में गिरफ्तारी के बावजूद 80 प्रतिशत आरोपी बाइज्जत बरी हो जाते हैं जो बच जाते हैं यानी 20 प्रतिशत उन पर मुकदमे चलते, फैसला होने में दो से पंद्रह साल तक लग जाना मामूली बात है। आंकड़ों के अनुसार देश भर की अदालतों की ताजा रिपोर्ट है कि 56 हजार बलात्कार के केस अब भी फैसले की बाट जोह रहे हैं। इन सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है कानून की जटिलता, जिसमें अक्सर आरोपी बच निकलने का मौका पा लेता है। ठोस साक्ष्यों के अभाव में पीड़ित औरत के बयान और बलात्कारी की शिनाख्त के बावजूद आरोपियों के छूटने के कारण ही अपराधियों को बार-बार बलात्कार करने की शह मिलती है। ज्यादातर बलात्कारी सोलह से पैंतीस साल की आयु वर्ग के होते हैं। हमारा समाज संपन्नता से अघाई एक ऐसी बेसब्र, गुस्सैल और कुछ अर्थों में अपराधी पीढ़ी को जवान होते देख रहा है जो विलासिता का रोगी है। यह पीढ़ी कुछ भी कर सकती है। इसी पीढ़ी का था तेइस वर्षीय सलीम खान जिसने आजादी की पूर्वसंध्या 14 अगस्त की रात को मुंबई की लोकल ट्रेन के मरदाने डिब्बे में बोरीवली से मालाड स्टेशनों के बीच एक नाबालिग, मंदबुद्धि लड़की के साथ बलात्कार किया और यह घटना डिब्बे में बैठे पांच मर्द देखते रहे। सलीम ने पहले लड़की के साथ छेड़छाड़ की, गंदी हरकतें की, फ़िल्मी गाने गाए और फिर लड़की के कपड़े फाड़कर उसके साथ बलात्कार किया। उन पांच प्रत्यक्षदर्शियों में से एक ुजुर्ग से दिखते यात्री ने जब सलीम को रोकने की कोशिश की तो सलीम ने यात्री का अपमान करते हुए धमकी दी कि ज़्यादा चीं चपड़ की तो एक-एक को उठाकर ट्रेन के नीचे फेंक दूंगा। इस धमकी से डरकर पांचों यात्री मूक बने बलात्कार होता देखते रहे। लड़की चएकती, चिल्लाती, रोती, गिड़गिड़ाती रही। वह केवल बारह वर्ष की थी। शराब के नशे में डूबे उस बलात्कारी को ट्रेन रुकते ही स्टेशन पर कूद कर भागते देख रेलवे पुलिस ने दबोच लिया और घटना कि जानकारी मिलने पर बच्ची को बाल सुधार गृह के अस्पताल में भेज दिया। तब से महानगर की औरतें भयभीत हैं। हर एक की जबान पर उन पांच मर्दों की नामर्दी के किस्से हैं। अममून होता यह है कि रात अधिक होने पर महिलाओं के डिब्बे से उतरकर महिला यात्री सुरक्षा कि दृष्टि से मर्दाने डिब्बे में चली जाती हैं। लेकिन इस घटना के बाद अब सुरक्षा कि दृष्टि से शायद ही कोई महिला पुरुषों के डिब्बों में यात्रा करे। स्त्री, मानव सभ्यता के आखिरी उपनिवेश के रूप में परिभाषित की गई है लेकिन बलात्कार की इस घटना ने साबित कर दिया है कि यह परिभाषा ग़लत है। महानगरों की आधुनिक कल्चर में भी महिलाएँ उतनी ही असुरक्षित हैं और आर्थिक विकास ने उनके साथ एक उपनिवेश जैसा शोषण और दमन का रिश्ता ही बनाया है। लुटती हर बार औरत की ही इज्जत है।

अब सवाल ये उठता है कि बलात्कार की वारदात से क्या औरत की इज्जत वाकई तार-तार हो जाती है? आखिर क्यों? क्या पुरुष और औरत की इज्जत के मापदंड अलग-अलग होते हैं? बलात्कार करने वाला वहशी होता है, दरिंदा होता है... शायद इस घटना को अंजाम देते हुए वह भी भूल जाता होगा कि वह इंसान की योनि पाकर इस धरती पर आया है। ऐसे विवेकहीन अमानुष के कारनामे से औरत की इज्जत कैसे जुड़ गई? अगर वह दरिन्दा समलैंगिक हुआ तो निश्चय ही उसका शिकार पुरुष होगा। तब क्या हम कहेंगे कि फलां पुरुष की इज्जत लूट ली गई? पुरुष वर्चस्व वाला यह समाज कतई ऐसा नहीं करेगा? बल्कि वह इस दरिंदगी को अप्राकृतिक यौनाचार का नाम देगा।

समाज में मर्दों को पीढ़ी दर पीढ़ी से यही सएक मिलती रही है कि औरत पर किसी न किसी पुरुष का अधिकार होता है। यह अलग बात है कि मर्द के चेहरे बदलते रहते हैं वक्त के साथ-साथ... शादी से पहले वह पिता के अधिकार क्षेत्र में होती है और शादी के बाद पति के अधिकार क्षेत्र में सत्ता हस्तांतरित हो जाती है। बुढ़ापे में बेटा सत्तासीन हो जाता है। इस सत्ता के मद में चूर पुरुष बलात्कार को इज्जत के साथ जोड़कर इसलिए भी देखता है कि उसे लगता है बलात्कार की घटना उसके अधिकार क्षेत्र में किसी दूसरे पुरुष द्वारा किया गया हमला है। वह यह भूल जाता है कि इस दुर्घटना ने स्त्री का कितना मनोबल तोड़ा है? उसे कितनी मानसिक और शारीरिक पीड़ा पहुँचाई है। वह सिर्फ़ इस पर विचार करता है कि उसकी प्रतिष्ठा को कितना धक्का लगा है, उसे पराजय का बोध होता है। सांप्रदायिक दंगों के दौरान औरतों के साथ बलात्कार की घटनाएँ इसी मनोवृत्ति को बल देती हैं। दंगाई मर्दों की निगाह में कौम विशेष को पराजय बोध कराने का सबसे सरल तरीका शायद यही है।

औरत भी खुद को किसी की थाती मानकर बढ़ने देती है। घर में ही उसे शोषण सहने और मुंह न खोलने की सएक दी जाती है। उसे सिखाया जाता है कि तेज मत दौड़ो, जोर से मत बोलो, पलटकर जवाब मत दो, तर्क मत करो, ठहाका मारकर मत हंसो। यह सब औरत जाकि को शोभा नहीं देता। इन सारी नसीहतों को घुट्टी की तरह पीकर संकोच, दब्बूपन और कायरता के सांचे में ढलते हुए वह जीती जागती मूर्ति बनती है। पुरुष इस गढ़ी हुई मूर्ति के लिए गर्व से कहता है-बड़ी संस्कारी औरत है। लज्जाशील और सहनशीलता कि साक्षात देवी।

औरत पर पुरुष के अधिकार की धारणा ने ही उसके पैरों में बेड़ियाँ डाली हैं। वह खुलकर नहीं जी पाती। खुलकर जीने का मतलब उच्छृंखलता नहीं है। खुलकर जीने का अर्थ है कि औरत मान ले और समाज स्वीकार कर ले कि जिस तरह पुरुष निडर और नि: संकोच घूम सकता है, औरत भी घूम सकती है। लूट की घटनाएँ अपनी जगह हैं। लूटने वाला तो कभी भी कुछ भी लूट सकता है, तो क्या इस डर से औरत अपना कार्यक्षेत्र सीमित कर ले? क्यों पुरुष को ही एक से अधिक औरत से शारीरिक सम्बंध बनाने की स्वतंत्रता है, एक से अधिक विवाह करने की स्वतंत्रता है? बुढ़ापे में अफने से आधी उम्र की युवती को (बचे खुचे) जीवन की संगिनी बनाने की छूट है? क्यों यह कहकर पुरुष की हर खुराफात पर परदा डाला जाता है कि पुरुष तो होते ही ऐसे स्वभाव के हैं? क्यों औरत ऐसे स्वभाव की नहीं हो सकती है? क्यों सारी आचार संहिताएँ औरत तक ही सीमित हैं? क्यों पुरुष की काम संतुष्टि के लिए बाज़ार खुले हैं... अब तो ऐसे बाजारों की औरतों को सेक्स वर्कर कहा जाने लगा है। बांग्लादेश की लेखिका तस्लीमा नसरीन ने पुरुष के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर लिखा है-मैंने उस दिन रमना में देखा एक लड़का / लड़की खरीद रहा है। मेरी भी वही इच्छा होती है / दस पांच रुपयों में / एक लड़का खरीद लाऊँ / पेट गर्दन में गुदगुदी देकर हसांऊ / घर ले आऊँ और हील वाली जूती से / ताबड़तोड़ पीट कर छोड़ दूं / जा साले / मेरी बड़ी इच्छा होती है लड़का खरीदने की / जवान-जवान लड़के / छाती पर उगे घने बाल / उन्हें खरीदकर, पूरी तरह रौंदकर / सिकुड़े अंडकोश पर जोर से लात मारकर कहूं / भाग स्साले /

बलात्कार को एक जघन्य कृत्य मानने में मुख्य चिंता औरत का पर पुरुष से शारीरिक सम्बंध या वर्जिन लड़की का कौमार्य भंग हो जाना है। यह माना जाता है कि वर्जिन लड़की ही विवाह योग्य होती है। पुरुष के लिए कौमार्य की बाध्यता नहीं है। कहीं न कहीं लड़की और उसकी यौन शुचिता के प्रति हमारी यह एकांगी दृष्टि बलात्कार को जघन्य कृत्य बना देती है। इस दुष्कर्म को रोकने के लिए औरत आखिर चएक-पुकार, हाथ-पैर चलाना से अधिक कर भी क्या सकती है? उसके मन में बचपन से इस दुष्कर्म के लिए यह भावना कूट-कूटकर भरी जाती है कि अगर उसके जीवन में यह घटना घट गई तो समझो उसका जीवन व्यर्थ है। शायद यही वजह है कि कई बार वह आत्महत्या कर लेती है या आत्महत्या का प्रयास करती है। क्या सचमुच इस जघन्य कृत्य के घटने पर औरत को जान की बाजी लगा देनी चाहिए? क्यों समाज का ऐसा नजरिया है? क्यों हमारी संस्कृति में स्त्री को असूर्यपश्या के रूप में जड़ दिया गया है, जड़ता कि यह स्थिति कब टूटेगी? जिस समाज में बलात्कार की शिकार औरत के लिए ऐसी भावनाएँ हैं, जहाँ का कानून इतना लचर है कि पंद्रह... पंद्रह साल तक बलात्कार के मुकदमे लंबित पड़े रहते हैं वहाँ न्याय मांगने के लिए इंग्लैंड से फोस्टर दंपति आते हैं तो अवाक हो जाना पड़ता है। इंग्लैंड के साउथमपटन में फोस्टर दंपत्ति अपनी इकलौती पुत्री हन्ना कि जो कि पंद्रह वर्ष की स्कूली विद्यार्थी थी परवरिश् करते हुए चैन की ज़िन्दगी गुजार रहे थे। एक दिन हन्ना स्कूल के लिए घर से निकली तो लौटी ही नहीं। पुलिस ने दूसरे दिन उसका शव सड़क से बरामद किया। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पता चला कि हन्ना का पहले बलात्कार हुआ है और फिर हत्या। इसी समय पुलिस की गिरफ्त में आए मनिंदर पाल सिंह नामक भारतीय युवक ने बड़ी बेबाकी से यह बयान दिया कि उसी ने हन्ना के साथ बलात्कार करके उशकी हत्या कि है। 28 मार्च, 2003 को जब हन्ना स्कूल के लिए निकली तो मनिंदर पाल सिंह ने उसका अपहरण करके दिनभर, रातभर उसके साथ बलात्कार किया और अधमरी हन्ना का गला घोंटकर उसका शव सड़क पर फेंक दिया। हन्ना के साथ किए गए दुष्कर्म और हत्या के आरोपी की गिरफ्तारी पर हन्ना के माता पिता ने पचास लाख रुपये का इनाम घोषित किया और स्वयं इस आरोपी को ढूंढ़ते हुए भारत आए। उन्होंने राजधानी दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन में अपनी बेटी के हत्यारे को पकड़वाने में उनकी मदद करने की मार्मिक अपील की है। बोलते हुए वे कई बार रो पड़े और रूंधे गले से कहने लगे कि-पुलिस को चकमा देकर भगौड़ा मनिंदर पाल सिंह भारत में ही कहीं छुपा है। वे चार हजार मील की दूरी तय करके यहाँ इसलिए आए हैं क्योंकि वे भारत की नैतिकता कि भावना और न्याय प्रणाली में उनके गहरे विश्वास से वाकिफ हैं।

शायद फोस्टर दंपत्ति यह नहीं जानते कि भारत की औरतें इस दुष्कर्म से कैसे छुटकारा पाएँ इसका उफाय अभी तक भारत के हाथ नहीं लगा है। हालांकि लचर कानून को परे ढकेलते हुए कई जगह औरतों ने इससे निपटने के लिए कमर कस ली है। लुधियाना के पास लोहाखेड़ा गाँव में छेड़छाड़ से तंग आकर एक युवती द्वारा शरारती युवक के घर जाकर हवाई फायरिंग करके सबक सिखाने की घटना ने उस गाँव की बढ़ती गुंडागर्दी को रोकने की दिशा में संघर्ष का बिगुल बजाया है। उसके साथ कारवां जुट रहा है और राहें खुल रही हैं।