पेरिस के सपने दिखाने वालों को आंक रहा है मस्त बनारस / देवेंद्र

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बनारस। दुनिया का सबसे पुराना और जीवित शहर। जिन लोगों ने कचौड़ी गली और ठठेरी बाजार की घुमावदार तंग गलियों से गुजरते हुए पंचगंगा घाट और माधौदास के धौरहरा पर खड़ा होकर बनारस को देखा, बरबस ही उनके मुंह से फूट पड़ा-सुबहे-बनारस।

सुबह-सबेरे गंगा की लहरों में डुबकी लगाता, लंगोट और अंगोछे में लिपटा बनारस। मंदिरों में बजते घंटे। सुरंगनुमा दूर-दूर तक चली जाती गहरी और संकरी गलियों में कचौड़ी और जलेबी की सुगंध। बीच सड़क पर इत्मीनान से बैठे सांड़। चौक के इर्द-गिर्द और पक्का महाल के भीतर अंधेरी गलियों में बसा यह एक खांटी बनारस है। पंडों, पुरोहितों, ठगों और गंुडों का बनारस। एक बड़े गांव की तरह बेतरतीब बसा बनारस, जहां सब एक-दूसरे को पहचानते भी हैं और बहुत अच्छी तरह जानते भी हैं।

चाय और पान की डेढ़ फुटी दुकान पर पूरे-पूरे दिन बैठकर गप्पे हांकते हुए लोगों ने यहां जिन्दगियां गुजार दी हैं। निठल्लेपन का सुकून भरा इत्मीनान यहां लोगों में जगह-जगह दिखाई देता है। पर निंदा का स्थायी भाव लिए मौलिक सूचनाओं और गपोड़ कल्पनाओं का जैसा निर्बाध संचार आम तौर पर बनारस में पाया जाता है शायद वह कहीं भी असंभव है। इस प्रकृति का विशुद्ध अपना चिर-परिचित छन्द है-बनारसी। अनेक अर्थों में इसकी व्यंजना दूर-दूर तक जाती है।

काशी नरेश तो गंगापार रामनगर में रहते हैं और इस पार लम्बी-लम्बी गलियों में गुंथा बनारस। हर गली के अपने-अपने बादशाह। मुगलों की बादशाहत गयी। अंग्रेज आये और चले गए। जमींदारी चली गयी। लेकिन इन बादशाहों को चुनौती देने वाला कोई नहीं। दालमण्डी की सलोनी बाई का कोठा हो या मंडुवाडीह की किसी पतुरिया की बदबूदार कोठरी। हर गली के वीर बादशाह। कोई किसी को कुछ नहीं समझता। बिना एक लाइन कहीं लिखे या छपे यहां जगह-जगह आपको राष्ट्रकवि मिल जायेंगे। समीक्षकों और आलोचकों की भी कुछ ऐसी ही बानगी है। रोज-रोज, दिन में कई-कई बार अपनी ही पीठ ठोकते रहने के कारण बनारस में लोगों के हाथ लम्बे होते हैं। गलियों और गालियों का शहर बनारस।

शिव की त्रिशूल पर सुरक्षित बसे होने का दंभ। कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। अक्सर बनारस इसी रूप में प्रचारित है। बनारस पर बातें करते हुए लोगों का ध्यान शायद ही कभी इस तरफ भी जाता है कि इसी नगर के दर्जनों मुहल्ले गन्दी और बजबजाती नालियों पर तैर रहे हैं। वहां घरों के भीतर रात-दिन परम्परागत हथकरघे और कुटीर उद्योगों की खटर-पटर है। आज जहां गांव के मजदूर भी सौ-डेढ़ सौ रुपया दिन भर में कमा लेते हैं वहीं इन घरों की हुनरमंद औरतें सुई की जगह आंखें टांकते हुए बमुश्किल पूरे दिन में बीस रुपये कमा पाती हैं। बीस-बीस लाख में बिकने वाली बनारसी साड़ियों के विश्वविख्यात कारीगर शायद ही दिन भर में 80 रुपये से ज्यादा कमा पाते हों। ये उसी कबीर के वंशज हैं जिसने कभी कहा था-जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ। और ये अनन्त काल से न सिर्फ अपना घर बल्कि जीवन की एक-एक सांस को फूंकते चले आ रहे हैं। और इस तरह दुनिया के सबसे पुराने और एक मात्र जीवित शहर में लोग लावारिस की तरह रोज-रोज तिल-तिल कर मर रहे हैं। विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानव्यापी की मस्जिद के नाम पर पक्ष और विपक्ष की राजनीति करने वाली किसी पार्टी के एजेंडे में ये मुसलमान कारीगर और लगातार बेआबरू! बदहाल होते जा रहे उनके धंधे कतई कहीं नहीं हैं। किसी मल्टीनेशनल की हरम में यह बनारस फिट नहीं बैठता! लिहाजा वे समान रूप से गंगा की आरती का उत्सव और दीपदान करते हैं।

मुम्बई के दलाल पथ को तो सब जानते हैं लेकिन टीवी और फेफड़े की तरह-तरह की बीमारियों से भरी इन बदबूदार गलियों में दलालों की समद्ध होती जाती जमात पर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता। समीपवर्ती कस्बों-मऊ, मुबारकपुर और भदोही तक चुपचाप फैली इन अंधेरी सुरंगों में खांसते-मरते कारोबार की चीख अक्सर बनारस की पहचान से नजरअंदाज कर दी जाती है। जबकि शंकर के त्रिशूल, विश्वनाथ मंदिर और पंचगंगाघाट की सीढ़ियों जितना ही वाजिब और पुरातन हैं ये बनारस की सुरंगें। कांपते, थरथराते जिस्म की आखिरी चीख, असमय बेजान, बूढ़ी और अंधी होती जाती औरतें। यहां रात भर खटर-पटर बजता रहता है।

विकास के जिस मॉडल को अपना कर आज देश के अधिकांश शहर अपनी शक्ल बदल चुके हैं। वह कभी बनारस को भाया नहीं। बावजूद इसके कि यहां भी इक्के-दुक्के माल खुलने लगे हैं, नई कालोनियों के आजू-बाजू शॉपिंग काम्प्लेक्स दिखाई देने लगे हैं, तब भी यह शहर गोदौलिया, चौक, लहुराबीर और मैदागिन की दुकानों के भीतर ही अपनी पुरानी नींद ओढ़े हुए है। यहीं कभी गामा के पान की दुकान हुआ करती थी। प्रसाद जी ने बहुत पहले एक कहानी लिखी थी गुण्डा। लोग पुराने दिनों को याद करते हुए किसी लल्लू सिंह की कहानियां सुनाते हैं। जबकि आज यहां हर गली में गामा को मात देती पान की दुकानें हैं और ए. के. 47 मार्का सड़क छाप सूरमाओं के सामने सहमी सिकुड़ी लल्लू सिंह की कहानियां।

आज पूरी दुनिया बदल रही है। सभ्यताएं और संस्कृतियां बदल रही हैं लेकिन बनारस उन सबसे बेअसर है। शिव प्रसाद सिंह ने इस नगर को गंगा के कटि प्रदेश पर संस्कृति का कंुभ कहा है। आज इस कुंभ के भीतर सड़न है। यहां सड़कों पर बेइंतहा भीड़ है। आपस में उलझे पड़े रिक्शों, साइकिलों और मोटर गाड़ियों में हजारों लोग जगह-जगह फंसकर छटपटा रहे हैं। कोई पुरसाहाल नहीं। दाएं-बाएं जिधर बन पड़े, निकलो और भागो, फिर भी पड़ोसी जिलों और बिहार के गांवों से खेत बेचकर लोग में बनारस में चले आ रहे हैं। अस्पताल और स्कूल की उम्मीद में लोग यहां घर खरीद रहे हैं। देश की किसी भी राजधानी से महंगी हैं बनारस की जमीनें।

बनारस के जिस स्वभाव और संस्कृति को दुनिया में जाना जाता है उसकी रीढ़ धर्म है। यही कारण है कि उपभोक्तावाद और बाजार की संस्कृति यहां माल कल्चर से नहीं, घाटों और घाटों के किनारे बने मंदिरों के रास्ते शहर में प्रवेश कर रही है। सुबहे-बनारस में तो इस बाजार के लिए विशेष गुंजाइश कभी नहीं रही। अब बनारस की शाम गंगा की आरती में सज संवर कर बिकने को बेताब खड़ी है। हरिश्चन्द्र घाट से लेकर दशाश्वमेघ तक गंगा की सीढ़ियों पर हर शाम दीवाली जैसा उत्सव, आज बनारस का सबसे बड़ा बाजार है। दूर-दूर से सैलानी, देशी-विदेशी पर्यटक देव दीपावली के दिन बनारस का श्रृंगार देखने आते हैं। कुछ दिन पहले तक बनारस के लोग इसे जानते तक नहीं थे।

विकास के वर्तमान स्वरूप को समृद्ध और विकसित होने के लिए जिस तेज रफतार भागती सड़कों की दरकार होती है वह बनारस के हिस्से मयस्सर नहीं है। बेतरतीब भीड़ में हाफता जख्मी शहर, भुखमरी से तार-तार होती बुनकरों की बदहाली, माफियाओं की आपसी गैंगवार, हफ्ता वसूली से भागते उद्योग ये सब बनारस के फेफड़े में लाइलाज घाव हैं। बनारस धीरे-धीरे मर रहा है। कभी शंकर के त्रिशूल पर सुरक्षित संरक्षित बसा बनारस आज किसी माफिया की रायफल के निशाने पर अटका पड़ा है। नई दिल्ली, नवी मुम्बई ये सब जाने कबके हकीकत बन गये लेकिन नई काशी कागजों में अटकी पड़ी एक सरकारी परियोजना है। जीवित होने की उम्मीद में शायद यह एक बनारस का सपना है। इस मासूम सपने के धागों से प्रधानमंत्री पद का जाल बुनने के लिए संघ ने गुजरात से नरेंद्र मोदी को भेजा है। एक तरफ पूरे संघ की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है दूसरी तरफ बनारस का बनारसी ठाट है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा? बनारस की गलियों में आजकल यही कयास लगाया जा रहा है।

काशीनाथ सिंह ने लिखा है-जो मजा बनारस में, पेरिस में न फ्रांस में।...फिर भी संघ विकास की बातें कर इसे पेरिस का सपना दिखा रहा है और ज्ञानवापी के चबूतरे पर मंद-मंद मुस्कराता बनारस इस सपने की असलियत देख रहा है। तंग गलियों में एक मदमस्त सांड़ चला आ रहा है। एक बुढ़िया अपनी डोलची संभाले उसके लिए रास्ता छोड़ रही है। दाह संस्कार से लौट रहे कुछ लोग कचौड़ी की एक दुकान पर भोजन पर टूट पड़े हैं। जिसे जाना है वो जा चुका, जिसे जीना है, उसके लिए ये दुकाने हैं। चुनाव बीत जायेगा और तब यहां कोई नहीं दिखेगा। अपनी मस्त बदहाली के साथ बचा रह जाएगा बनारस। बनारस जो दुनिया का सबसे पुराना जीवित शहर है। गंगा की असंख्य लहरों का गवाह अब छोटी-छोटी लहरों में शायद ही बहे।