बागड़ी बाबा और इंसानियत का धर्म / अध्याय 11 / सत्य शील अग्रवाल

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क्या है इंसानियत

इंसानियत अथवा इंसानियत धर्म क्या है, एक मानव के व्यवहार में किन गुणों की आवश्यकता है जो उसे इंसान बना सके।

जियो और जीने दो

अध्याय संख्या ग्यारह होते ही बागड़ी बाबा की विगत चर्चाएँ समाप्त होकर प्रवचन का रूप ले रही हैं। अब हमारे बागड़ी बाबा हमें दुनिया में इंसानियत से जीने की जानकारी दे रहे हैं जिससे हमें सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा तो मिलती ही हैं हमें सतत् विकास के रास्ते पर चलने का अवसर प्राप्त होता है अर्थात हमें अपने जीवन को अधिक सुविधा सम्पन्न बनाने में सहायता मिलती है। शान्त और वैभवपूर्ण जीवन ही मानव का उद्देश्य है।

बाबा बागड़ी: जब मानव ने सभी जीवों पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया तो अपने समाज में रहने के लिए भी कुछ अधिकार-कुछ कर्त्तव्य निर्धारित करने आवश्यक हो गये। उनमें सर्वप्रथम अधिकार माना गया ‘जियो और जीने दो’। प्रत्येक मानव को जीने का पूर्ण अधिकार दिया गया। व्यक्ति अधिक गुणवान है अथवा कम, अधिक धनवान है अथवा गरीब, बलशाली हैं अथवा निर्बल सबका जीवन उतना ही महत्वपूर्ण है। जीने के हक मिलने के साथ ही उसे जीवन निर्वाह के लिए मूल आवश्यकताओं को पाने का भी अधिकार प्राप्त हो जाता है। उसे रोजगार पाने का हक भी आवश्यक हो जाता है। अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी को वंचित रखना भी अमानवीय कृत्य है।‘इंसानियत’ तो अपराधी से भी पूर्ण सहानुभूति रखती है अतः उसे उसके किये की सजा अवश्य मिलनी चाहिये परन्तु बर्बर और अमानवीय तरीके से नहीं। इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग फांसी की सजा को भी बर्बरता मानता है और विरोध करता है। उसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदंड देना आवश्यक हो तो किसी कम कष्टदायक तरीके से मृत्युदंड दिया जाये। मृत्युदंड का कारण उस व्यक्ति द्वारा किया गया हत्या अर्थात हत्याएँ जैसे जघन्य अपराध ही होता है। जो किसी से जीने का अधिकार छीन लेता है तो उसे भी जीने का अधिकार नहीं दिया जा सकता अन्यथा ‘जियो और जीने दो’ का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। अतः अपने स्वार्थ, अपनी तुच्छ इच्छाओं की पूर्ति हेतू, अपना वर्चस्व बनाये रखने की चाह अथवा अपने से विपरीत विचारधारा के व्यक्ति को रास्ते से हटाने के लिए आतंक, अत्याचार और हिंसा का सहारा लेने वाला व्यक्ति ‘जियो और जीने दो’ के अन्तर्गत जीने का अधिकार नहीं पा सकता। ऐसे लोग स्वयं मानवता के दुश्मन हैं। उन्हें निरुत्साहित करना मानव समाज के हितों के लिए आवश्यक है।

फारूख: ‘जियो और जीने दो’ की व्यवस्था सिर्फ मानव समुदाय के लिए ही क्यों?अन्य जीव जन्तुओं के लिए क्यों नहीं।

बाबा बागड़ी: फारूख बेटा, तुम्हारा प्रश्न बहुत उचित है परन्तु हम यहाँ पर सिर्फ ‘इंसानियत’ का ही विषय ले रहे हैं अर्थात इंसान को इंसान के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिये। यद्यपि हिंसा किसी भी प्रकार की हो इंसानियत के दायरे में नहीं आती। अतः किसी जानवर को बिना किसी मकसद के मारना अथवा तड़पा-तड़पाकर मारना भी अमानवीयता के दायरे में आती है। हमारे देश में कुछ विलुप्त हो रही जातियों पर हत्या प्रतिबन्ध भी लगाया हुआ है। कसाई खाने में किसी जानवर को बर्बर रूप से मारना भी अवैध है। इंसान को समाज में रहने के लिए और विकास की गति बनाये रखने के लिए एक-दूसरे के प्रति व्यवहार पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक है।

इंसान ने अपने अस्तित्व बचाने के लिए अपनी बुद्धि, बल से सभी जीवों से लम्बी लड़ाई लड़ी है, अतः अब अपनी मानव जाति से ही मानव को अपनी लड़ाई करनी पड़े तो पूर्व के सारे प्रयासों का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

अहिंसा अपनाएँ

इंसानियत में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। अहिंसा का महत्व बता रहे हैं हमारे प्रिय बागड़ी बाबा।

बागड़ी बाबा: किसी भी व्यक्ति के लिए किसी भी धर्म को अपनाने से भी अधिक महत्वपूर्ण है अहिंसा को अपनाना अर्थात हिंसात्मक कार्यों से अपने को अलग रखना। हिंसा का अर्थ सिर्फ शारीरिक यातना से नहीं है मानसिक यातना और आर्थिक हानि पहुंचाना भी हिंसा में ही आता है। किसी व्यक्ति को धोखे से, बहका-फुसलाकर धन हानि पहुंचाना अथवा आतंकित कर उसका सुख चैन लूट लेना उसे आर्थिक हानि देना हिंसा की श्रेणी में ही आता है। अतः इंसानियत की श्रेणी में आने के लिए व्यक्ति को हिंसा से दूर रहना चाहिये। हिंसा से न तो वह स्वयं का भला कर सकता है और न किसी अन्य व्यक्ति का। क्योंकि हिंसा की प्रतिक्रिया में हुई हिंसा से उसे भी नुकसान हो सकता है, देश के कानून उसे सजा देंगे वह अलग। अतः स्वयं सुखी जीवन जीने के लिए अहिंसक जीवन जीना होगा।

बौद्ध धर्म और जैन धर्म में अहिंसा पर विशेष रूप से जोर दिया गया है। इन धर्मों में तो छोटे से छोटे जीव की हत्या को निषेध बताया गया है। बौद्ध धर्म ने अपने विचारों से विश्व के अनेक देशों को प्रभावित किया है। आज भी दक्षिण एशियाई देशों में इस धर्म के अनुयायी बहुतायत में हैं। जैन धर्म का मुख्य आधार अहिंसा को लेकर ही है। वे तो भोजन को दिन ढलने पर करना वर्जित मानते हैं। कारण रोशनी के अभाव में सूक्ष्म जीवांे का भोजन के साथ चले जाने की आशंका। दिन में भी जैन मुनि नाक व मुंह को कपड़े से ढके रहते हैं ताकि सांस के द्वारा किसी जीव की हत्या न हो जाये। जैन धर्म में मांसाहार करने वालों का विशेष तौर पर विरोध किया जाता है। यही कारण है पूरे विश्व में उत्तर भारत के कुछ प्रान्तों मंे शुद्ध शाकाहारी व्यक्ति पाये जाते हैं, जो कि विश्व में कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं। यद्यपि वैज्ञानिक शोधांे ने सिद्ध कर दिया है कि शुद्ध शाकाहारी रहकर मानव अनेक रोगांे से बचा रह सकता है अर्थात् मानव स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक सुरक्षित आहार है। यही कारण है कि पश्चिमी देशों मंे भी लोग शाकाहार पर ध्यान देने लगे हैं।यह भी सत्य है शुद्ध शाकाहारी व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक दयालू, उदारवादी होता हैअर्थात इंसानियत के करीब होता है। इसीलिए हमारे देश की उदारता, पंचशील सिद्धान्त एवं गैर साम्राज्यवादी प्रवृत्ति विश्व विख्यात है।

जय भगवान: बाबा साहब, आजकल अंडे को शाकाहार में माना जाता है, क्या यह धारणा उचित है?

बाबा बागड़ी: मेरे अपने विचार से तो दूध भी शाकाहार की श्रेणी में नहीं आता। अंडा जिसमें कोई जीव का अस्तित्व नहीं है अतः हिंसा के दायरे में नहीं आता और पशु से दूध लेते समय भी कोई हिंसा नहीं की जाती अतः हिंसा की श्रेणी में दोनांे आहार का सेवन अहिंसक तो है परन्तु शाकाहार नहीं। शाकाहार का अर्थ है जो हमें पेड़-पौधों से भोज्य पदार्थ प्राप्त होते हैं सिर्फ उनका सेवन करें। जो वस्तु जानवर से प्राप्त होते हैं जैसे दूध, अंडा, मांस इत्यादि सब गैर शाकाहारी श्रेणी में ही आते हैं।

भारतीय समाज में दूध को भी शाकाहारी श्रेणी में माना गया है, अतः दूध के साथ शाकाहार लेने वाले शुद्ध शाकाहारी माने जाते हैं। शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दिया जाये तो दुनिया में कोई व्यक्ति शुद्ध शाकाहारी हो ही नहीं सकता। क्योंकि हम अपनी सांस द्वारा अनेकों सूक्ष्म जीव ग्रहण करते रहते हैं, जल द्वारा अनेकों बैक्टीरिया उदरस्थ होते रहते हैं। दही, खमीर, सिरका के अस्तित्व बिना बैक्टिरिया के सम्भव नहीं हैं। हमारे अपने शरीर में लाखों करोड़ों सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते रहते हैं, मरते रहते हैं। आज हमारी जीवन शैली में अनेकों जानवरों से उत्पादित वस्तुओं का प्रयोग अनजाने में होने लगा है। एलोपैथिक होम्योपैथिक दवाआं में अनेकों जीव तत्वों का प्रयोग किया जाता है जिसे हम मजबूरन अथवा अनजाने में ग्रहण करते रहते हैं।

हमारा उद्देश्य ‘मांसाहार से बचने का मुख्य कारण’ अपने को हिंसा से दूर रखने का है ताकि हम कठोर, कुटिल, कट्टर स्वभाव से मुक्त होकर मानव विकास पथ पर चलते रहें।

बाबा बागड़ी: जो व्यवहार हमारी सामर्थ्य से बाहर है, हमारी मजबूरी है, नवीनतम जीवन शैली में रच बस चुका है, उसके लिए अपने मन को कष्ट में डालना भी स्व हिंसा में आ जाता है।

नर सेवा ही नारायण सेवा है

बाबा बागड़ी ने नर सेवा को सभी धर्म अनुयायियों के लिए उनके इष्ट देव की साक्षात सेवा से जोड़ा है जो इंसानियत के लिए मुख्य आवश्यक तत्व है।

बाबा बागड़ी: प्रत्येक धर्म का अनुसरण एवं पूजा अर्चना, इबादत, प्रेयर का तात्पर्य होता है अपने अदृश्य इष्ट देव को याद करना, उसकी सेवा करना, उसके बताये दिशा-निर्देशों का पालन करना। प्रत्येक धर्म में मनुष्य को ईश्वर का अंश, ईश्वर पुत्र के रूप में माना गया है। आध्यात्मिक परिपेक्ष्य में मानव आत्मा परमात्मा का सूक्ष्म रूप हैं अतः यदि मनुष्य की सेवा कोई भक्त करता है, अवश्य ही वह ईश्वर के अंश की सेवा का भागीदार हो गया और अनेक मनुष्यों अथवा समाज की सेवा परमात्मा की सेवा हो गयी। ‘इंसानियत’ का मुख्य उद्देश्य भी यही है कि मानव, मानव समाज अर्थात सम्पूर्ण मानव जाति के हित में कार्य किया जाना चाहिये। प्रत्येक पीड़ित, गरीब, आपदाग्रस्त व्यक्ति की सेवा इंसानियत का सर्वोच्च आदर्श है। सभी धर्मों का सार भी यही है कि मानव मात्र की सेवा की जाये। संकट में उदारतापूर्वक मदद की जाये, मानव पीड़ा का हरण किया जाये। यह भी पूजा का ही एक मार्ग है। भूखे को रोटी खिलाना, प्यासे को पानी पिलाना, बीमार को उचित चिकित्सा प्रबन्ध कराना, बुजुर्ग को असहाय अवस्था में उसका सहारा बनना, पीड़ित, आपदाग्रस्त व्यक्ति को उसकी समस्या से बाहर निकालना, किसी व्यक्ति, समूह को शोषण से बचाना, महिला के साथ अभद्र व्यवहार होने पर उसे मानसिक पीड़ा से उबारना एवं उसकी रक्षा करना, अनाथ बच्चों को जीवन की आवश्यकताएँ उपलब्ध करना, विकलांग व्यक्ति को सहानुभूति एवं समानुभूति देकर यथाशक्ति सहायता देना और उसे जीवन को सामान्य रूप से जीने में सहायक होना सभी इंसानियत के अन्तर्गत आते हैं और ईश्वर की आराधना, पूजा-अर्चना से भी अधिक कल्याणकारी कार्य हैं।

फारूख: आपके कहने का तात्पर्य है नास्तिक जो ‘इंसानियत के धर्म’ के अन्तर्गत कार्य करता है आध्यात्मिक लाभ का हकदार स्वयं ही हो जाता है।

बाबा बागड़ी: बेटा, यह प्रवचन, चर्चा जो मैंने महीनों से तुम लोगों से की, उसका भाव यही है। इंसानियत का धर्म सभी धर्मों से बढ़कर है जो सभी आध्यात्मिक उद्देश्यें को भी पूरा करता है।

स्वयं असहनीय व्यव्हार दूसरों से न करें

प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति को अपने व्यव्हार का समय समय पर विश्लेषण करते रहना चाहिये। कहीं ऐसा तो नहीं जो व्यवहार हमको अच्छा नहीं लगता अथवा कष्टदायक लगता है, वही व्यवहार हम भी दूसरों के साथ कर रहे हैं।

बाबा बागड़ी: अक्सर जो व्यवहार , हमें अपने बुजुर्गों का अच्छा नहीं लगता था परन्तु उनको सम्मान देने के नाते चुपचाप सहन कर लेते थे, यदि हम आज बुजुर्ग की श्रेणी में आते हैं, हमें अपने असहनीय व्यवहार अपनी संतान से नहीं करना चाहिये। ऐसा सोचना उचित नहीं कि मैंने भी अपने पिता से बहुत कटु व्यवहार सहन किया था अब मेरी सन्तान की बारी है। इसी प्रकार से बहू के घर मंे कदम रखते ही सास अपने हाथ खड़े कर देती है, यह कहकर मेरी सास ने भी तो ऐसे ही किया था। अब मेरे आराम के दिन हैं। मैं भी अपनी बहू को खरी-खोटी सुनाने मंे पीछे क्यों रहूँ। अथवा मेरे जीजा ने बहुत नाक में दम किया था मैं भी अपने साले को नहीं छोड़ूँगा मैं भी गिन-गिन के बदले लूँगा। कालेजों में रैगिंग पर अंकुश न लग पाने के पीछे भी यही भावना कार्य करती आ रही है, मेरे सीनियर ने भी तो मेरा मानसिक एवं शारीरिक उत्पीड़न किया था तो मैं क्यों न अपने जूनियर से बदले लूँ। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही दुश्मनी निरंतर हत्याओं का सिलसिला बनाये रखती है, कारण एक परिवार के किसी सदस्य की हत्या का बदला हत्यारे के परिवार से चुकाने की भावना। ऐसी दुश्मनी निरंतर हत्याओं का कारण बनती रहती हैं और समाज अशान्ति, असुरक्षा का शिकार होता रहता है। हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा। यदि उपरोक्त व्यवहार निरंतर चलते रहेंगे तो समाज में शांति एवं सुरक्षा कैसे आ सकेगी। समाज में व्याप्त कुरीतियों, दुष्कर्मों का अन्त कैसे होगा? बदले की भावना से किये गये व्यवहार पर अंकुश लगाये बिना एक सभ्य सुव्यवस्थित समाज की कल्पना असम्भव है। अपने व्यवहार में उदारता, सौम्यता, अहिंसा, समाज सेवा का भाव ही हमें इंसानियत की श्रेणी में ला सकता है और हमें सभ्य समाज का सम्मानीय व्यक्ति होने का गौरव प्राप्त हो सकता है।

जय भगवान: बाबा जी, क्या गाँधी जी द्वारा बताये गये व्यवहार का आप समर्थन करते हैं कि यदि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल उसके सामने कर देना चाहिये। स्वयं प्रतिक्रिया दिखाकर थप्पड़ मारना क्या इंसानियत के खिलाफ होगा। कृपया बातयें क्या उचित होगा?

बाबा बागड़ी: जय भगवान तुम काफी बुद्धिमान हो गये हो, तुमने वास्तव में समयोचित प्रश्न किया है। मैं गाँधी जी के विचार से सहमत हूँ परन्तु कुछ संशोधन के साथ, दुष्ट व्यक्ति के साथ उदार व्यवहार करना उसे प्रभावित नहीं कर सकता अतः कुटिल व्यक्ति को डंडे की भाषा से जवाब देना चाहिये। गाँधीगिरी का व्यवहार शालीन लोगों के साथ ही करना उचित हो सकता है। हाँ चेतावनी एवं समझाने का प्रयास कुटिल व्यक्ति से भी किया जा सकता है। शायद वह अपना व्यवहार बदल दे, उसे अपनी गलती का अहसास हो सके। गाँधी जी ने भी कहा है हिंसक व्यक्ति के साथ अहिंसक व्यवहार करना भी बुझदिली है। यही कारण है ‘इंसानियत’ अपराधी को सजा देने के खिलाफ नहीं है। बल्कि समाज में व्यवस्था बनाने के लिए आवश्यक भी है।इंसानियत भी इंसान के (सभ्य इंसान) साथ ही उचित है।

मौत को न भूलें

आज बाबा बागड़ी की चर्चा अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ पर पहुँच गयी है ,मौत को याद रखना एक ऐसा पहलू है जिसको याद करने के पश्चात् इंसन काफी हद तक जीवन की कड़वी सच्चाई से वाकिफ हो जाता है।

बाबा बागड़ी: प्रत्येक जीव जन्तु एवं प्राणी जिसने जीवन पाया है अर्थात् इस संसार में उत्पन्न हुआ है तो उसका अन्त भी निश्चित है। प्रत्येक प्राणी की मौत अवश्य होगी, अन्त में उसे मिट्टी में मिलना ही है। इतिहास गवाह है कोई प्राणी ऐसा उत्पन्न नहीं हुआ जिसकी मौत न हुई हो। बड़े से बड़े राजा, महाराजा, विद्वान, वैज्ञानिक, लुटेरा, डकैत, अत्यचारी सभी ही अपनी एक उम्र पश्चात् काल के गाल में समा गये। विभिन्न धर्मों में अमरत्व की मान्यता मात्र काल्पनिक ही है। शरीर ऐसे पदार्थों से निर्मित है जिनका स्थिर बने रहना असम्भव है। ऑर्गेनिक तत्व नष्ट अवश्य होते हैं। किसी व्यक्ति अथवा जीव जन्तु की उम्र कम अथवा अधिक हो सकती है। रोगी शरीर शीघ्र समाप्त हो जाता है परन्तु रोगमुक्त शरीर भी धीरे-धीरे क्षीण होता है और अन्त में जीवन क्रिया रूक जाती है। कुछ धर्म शरीर को नश्वर कहकर आत्मा के अमरत्व की बात कहते हैं। आत्मा अर्थात शरीर बिना प्राणी यदि इस कल्पना को सत्य मान भी लिया जाये तो जब हमारे सोचने, समझने का माध्यम अर्थात शरीर ही नहीं रहा तो सूक्ष्म प्राणी के अमर होने का क्या अर्थ हो सकता है? एक प्रकार से शून्य में अस्तित्व की कल्पना करना सिर्फ आध्यात्मवाद की कल्पना ही हो सकती है, हकीकत नहीं। ऐसे काल्पनिक अमरत्व का क्या फायदा, जब हम किसी क्षण को याद नहीं कर सकते, सुख-दुख का अनुभव नहीं कर सकते, अपने प्रियजन के काम नहीं आ सकते। समाज के हित साधन नहीं बन सकते। उस आत्मा की अमरत्व की बात सोचकर संतोष अनुभव करना स्वयं को धोखे में रखने के समान है।

हम इस संसार में कुछ समय के लिए आये हैं, अर्थात् जीवन यात्रा पर आये हुए हैं और यात्रा का अन्त भी निश्चित है। अतः जब हम यहाँ यात्री रूप में विद्यमान हैं तो लोभ, दुराचार, अत्याचार, हिंसा द्वारा अपने स्वार्थ के लिए दूसरे के जीवन को कष्ट क्यों दें?भ्रष्ट साधनों के व्यवहार से धन एकत्र करना, साधन जुटाना क्या उचित है?बड़े-बड़े अत्याचारी राजा, महाराजा अनेकों अत्याचार कर, बड़े पैमाने पर नरसंहार कर दुनिया को जीत लेने के बावजूद अपनी मौत से न बच सके। उनके द्वारा लूटा गया धन, सम्पत्ति सबकुछ यहीं पर रह गया। वे लोग स्वयं भी जीवन भर लड़ते रहे और दुनिया को भी व्यथित करते रहे। दुनिया में अपने झण्डे गाड़कर भी परिणाम सिर्फ खाक ही रहा। जीवन है तो जीने के लिए संघर्ष भी करना पड़ता है, जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए प्रयास भी अवश्य ही करने पड़ते हैं। परन्तु भोग विलास एवं सुख-सुविधाएँ जुटाने के लिए स्वयं मानसिक कष्ट और शारीरिक कष्ट सहना और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बाधक बन रहे अन्य व्यक्तियों को नष्ट कर देना अथवा उनके जीवन को कष्टप्रद बना देना निश्चित ही सामाजिक अपराध है। यदि व्यक्ति अपने अन्तिम लक्ष्य को समझ ले (मौत) तो किसी सुविधा सम्पन्न व्यक्ति को देखकर होने वाली ईर्ष्या स्वयं गायब हो जायेंगी। अधिक सुविधा सम्पन्न व्यक्ति जो महलों में रहता है उम्दा कारों में अथवा हवाई जहाज में घूमता है, नौकरों की फौज है, वह भी सबकी भांति मिट्टी में मिल जायेगा, शून्य हो जायेगा, वह भी सदैव सारी सुविधाओं का उपयोग न कर सकेगा, बड़े से बड़े डॉक्टर और उच्च श्रेणी के चिकित्सालय भी उसे मौत से नहीं बचा सकते। अतः उसकी सम्पन्नता को देख बेचैनी बेमानी है।

प्रत्येक व्यक्ति सम्पन्न एवं निर्धन, अपने जीवन से दूसरे व्यक्तियों को कष्ट में डालें,‘‘सिर्फ अपने क्षणिक जीवन के लिए’’ कितना औचित्यपूर्ण है। यदि प्रत्येक व्यक्ति मौत को याद रखे तो वह स्वयं ही अपनी अवांछनीय गतिविधियों पर अंकुश लगा सकता है। अपने सीमित जीवन को अपने मन की शांति एवं अन्य सभी प्राणियों के हितों में कार्य कर समाज का उत्थान कर सकता है। किसी को मानसिक एवं शारीरिक कष्ट पहुंचाने का प्रयास नहीं करेगा। अपने हित के लिए किसी का हक छीनने का प्रयत्न नहीं करेगा। मौत को याद कर अपने सुख-दुखों की गहराई को भूल जायेगा वह एक प्रकार से निर्विकार हो जायेगा। क्योंकि दुख उसे व्यथित कर रहे हैं, मौत के रूप में महान शांति की कल्पना कर उसके मन की उद्धिग्नता को कम कर देते हैं। इसी प्रकार सुखी सम्पन्न व्यक्ति अपना घमण्ड, अपना रौब भूल जायेगा अपने को प्रमुख व्यक्ति मानने की ललक समाप्त हो जायेगी।

जय भगवान: बाबा यह जीवन-मरण की पहेली समझ नहीं आती। क्यों पैदा होकर इंसान मरता है।

बाबा बागड़ी: यह एक अबूझ पहेली है, इसी अबूझ पहेली ने ही ईश्वर की कल्पना करने को मजबूर किया परन्तु ‘ईश्वर का निर्माता कौन’ का प्रश्न फिर अबूझ पहेली को जन्म देता है। सबने अपने-अपने कल्पना के घोड़े दौड़ाए और जो समझा उसे ही सत्य मानने और मनवाने का प्रयास किया गया। अन्त में मैं यह कह सकता हूँ कि जिस प्रकार जन्म सत्य है, मौत भी सत्य है, वहाँ कोई कल्पना का सागर नहीं है।

देश और समाज के विकास में योगदान दें

प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह अपने देश अपने समाज की उन्नति के लिए कार्य करे। कुछ ऐसे ही विचार बाबा ने यहाँ पर अपने शिष्यों के सामने रखे।

बाबा बागड़ी: प्रत्येक मानव प्राथमिकता से अपने देश और समाज के हित के बारे में सोचे और यथा सम्भव अपना योगदान करे, सहायक बने जिस देश में उसने जन्म लिया जिस समाज में पला-बढ़ा, उसे एक पहचान दी, मानव समाज की उन्नति, सुख-सुविधाओं का लाभ मिला, उस समाज की उन्नति निरन्तर बनी रहे, उसके कष्टों का निवारण हो, उस समाज में व्याप्त कुरीतियों, अज्ञानताओं को मिटाने का प्रयास उसके द्वारा होना चाहिये। प्रत्येक इंसान को देश के सम्मान एवं सुरक्षा एवं आर्थिक आवश्यकताओं के लिए यथाशक्ति कार्य करना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति अपने समाज और देश के प्रति वफादार न हो सका, वह इंसान कहलाने का हक नहीं रखता। देश समाज को विकृत करने वाला, उसे क्षति पहुँचाने वाला अथवा देश के दुश्मनों का साथ देने वाला इंसानियत का सबसे बड़ा दुश्मन है। उसका जीवन देश और समाज पर बोझ है। ऐसे व्यक्ति देश को, समाज को दीमक की भांति नष्ट करते रहते हैं। वे लोग समाज में स्वतन्त्र रूप से घूमने-फिरने के अयोग्य हैं, उनकी जगह जेलों में ही होनी चाहिये। क्योंकि ऐसे लोग न तो स्वयं को जीवन की मुख्य धारा में शामिल कर समाज के लिए उत्पादक साबित हो सकते हैं, न ही अपने जीवन को महिमामय बना सकते हैं। अपने तुच्छ स्वार्थ एवम् चन्द नोटों के लिए किसी हद तक किसी भी व्यक्ति को नुकसान पहुंचा सकते हैं। उनके लिए अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन होते हैं,

धोखाधड़ी एवं अनैतिक कार्य, अवैध कार्य। ऐसे लोगों को इंसान कहना ही मानव समाज का बहुत बड़ा अहित होगा।

मुख्य आशय यह है कि ‘इंसानियत’ धर्म का मुख्य कर्त्तव्य है प्रत्येक व्यक्ति देशहित, समाज हित के लिए सोचे उसे अपना योगदान करे, देश के नैतिक, वैधानिक नियमांे, कानूनों का पालन करे एवं देश विरूद्ध कार्य करने वाले देशी-विदेशी लोगों के विरूद्ध अपना संघर्ष करें, उन्हें हतोत्साहित करें।

जय भगवान: बाबा एक आम आदमी देश के लिए क्या योगदान कर सकता है। हमारे जैसे दुकानदार देश के लिए क्या कर सकते हैं। देश की रक्षा तो सैनिक कर सकते हैं, समाज की रक्षा के लिए पुलिस का कार्य होता है, देश को सही दिशा देना तो नेताओं का कार्य है अथवा सरकारी मशीनरी का योगदान द्वारा सम्भव है फिर हमारे जैसा व्यक्ति देशके लिए क्या करे?

बाबा बागड़ी: देश का प्रत्येक नागरिक देश का सिपाही है भले ही वह मोर्चे पर सिपाही हो, थाने में हवलदार हो, खेत में किसान हो, फैक्ट्री में मजदूर हो या इंजीनियर-मैनेजर हो। सबके अपने-अपने क्षेत्र हैं। सैनिक देश की विदेशी हमले से रक्षा करता है, देश को सुरक्षा प्रदान करता है। हवलदार समाज में व्याप्त अपराधियों से निपटता है अर्थात समाज की सुरक्षा करता है, किसान खेतों में अन्न पैदाकर खाद्य सुरक्षा निश्चित करता है, कारखानों में उत्पान कर मजदूर-इंजीनियर देश को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है, जीवन को सुविधा सम्पन्न बनाने में योगदान करता है इसी प्रकार एक दुकानदार प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्कतानुसार खाद्य वस्तुएं एवं कारखाने मे उत्पादित वस्तुओं को उपलब्ध कराकर उसे समय-समय पर नई वस्तुओं की जानकारी देकर समाज की सेवा करता है। आप लोग टी.वी., साउंड सिस्टम आदि अनेक वस्तुएँ उपलब्ध कराकर समाज की सेवा करते हैं और इन वस्तुओं की रिपेयर कर एक प्रकार से उन वस्तुओं का उत्पादन करते हैं अर्थात आप लोग भी उत्पादन में सहायक होते हैं। किसी वस्तु को नष्ट होने से बचाना भी उत्पादन ही है। किसी उत्पादन को जनता में वितरित करना भी उत्पादन में भागीदारी है। अतः आप लोग भी समाज हित में सहायक हुए परन्तु अपने ग्राहक से न्यूनतम मार्जिन पर कीमत वसूल करना, रिपेयर में ईमानदारी से बिल बनाना, ग्राहक की आवश्यकताओं को नम्रता और समाज सेवा समझ पूरा करना ‘इंसानियत का धर्म’ के अन्तर्गत आता है। जिस शहर, जिस मुहल्ले में आप रहते हैं उसमें व्याप्त अपराधियों पर नजर रखना न्याय प्रक्रिया में अपना योगदान करना, शासन द्वारा लगाये गये टैक्स का ईमानदारी से भुगतान करना, कानूनों का यथाशक्ति पालन करना प्रत्येक इंसान का परम कर्त्तव्य है, उसके लिए यही देश सेवा है, समाज सेवा है।

इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य को सम्पूर्ण समर्पण भाव से, ईमानदारी से, सकारात्मक दिशा में अंजाम देकर देश के विकास में भागीदार बन सकता है और इंसानियत के दायरे में रहने का आत्म सुख पा सकता है।

फारूख: बाबा एक बात मरे समझ नहीं आई यह सकारात्मक कार्य क्या हो सकता है?

बाबा बागड़ी: बहुत अच्छा प्रश्न किया, सकारात्मक कार्य वह होता है जिससे समाज का लाभ जुड़ा होता है, देश के विकास में अंशदान होता है। जिस कार्य को करने से किसी व्यक्ति, समूह, देश का आर्थिक, शारीरिक अहित न होता हो वह सकारात्मक कार्यों की श्रेणी में आता है। एक लुटेरा, एक चोर, एक अपराधी, एक आतंकवादी भी अपने कार्य को करने में बहुत मेहनत, लगन और जोखिम उठाकर कार्य करता है परन्तु वह समाज के अहित में कार्य करता है, वह किसी व्यक्ति अथवा समाज को जानमाल का नुकसान पहुंचाता है अतः उसका अध्यवसाय नकारात्मक दिशा में है, उसे इंसानियत के दायरे में नहीं रखा जाता।

आपदा ग्रस्त व्यक्तियों की सहायता करें

मानव के रूप में प्राणी ही आपदा ग्रस्त व्यक्ति अथवा व्यक्तियों की सहायता करने की योग्यता रखता है। अतः इंसानियत का परम धर्म है कि वह अपनी इस योग्यता का लाभ उठाते हुए किसी आपत्ति में फंसे व्यक्तियों की यथा शक्ति सहायता करे।

बाबा बागड़ी: मानव जीवन में यों तो अनेक उतार-चढ़ाव आते-जाते रहते हैं। कभी वह सुखी होता है तो कभी अनेक आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक परेशानियों के कारण दुखी होता है। अपनी सामाजिक संरचना के अन्तर्गत उसकी समस्याओं का हल निकलता रहता है अर्थात वह सब सामान्य सामाजिक गतिविधियों का हिस्सा है।

इस सबके अतिरिक्त अनेकों बार कुछ अस्वाभाविक घटनाओं से एक व्यक्ति अथवा समूह को सामना करना पड़ता है जैसे किसी व्यक्ति अथवा परिवार को भयंकर आर्थिक नुकसान, बीमारी विशेष तौर पर संक्रामक बीमारी, विभिन्न प्रकार की दुर्घटनाएं अर्थात सड़क दुर्घटना, औद्योगिक दुर्घटना, रेल दुर्घटना, आग दुर्घटना आदि किसी विध्वंसकारी जीव का मानव बस्ती पर हमला, इन सबके अतिरिक्त प्राकृतिक आपदाएँ मानव समाज को व्यथित करती हैं जैसे भूकम्प, बाढ़, समुद्री तूफान, वायू चक्रवात, अल्पवृष्टि एंव अतिवृष्टि से जनित विपत्तियाँ। उपरोक्त सभी आपदाओं से कोई भी व्यक्ति अथवा समाज स्थानीय तौर पर शिकार हो सकता है जब उसके स्वयं के साधन या तो अपर्याप्त होते हैं अथवा नष्ट हो चुके होते हैं। अनेकों व्यक्ति मौत के मुंह में चले जाते हैं, घायल हो जाते हैं अथवा ऐसी स्थिति मंे होते हैं कि वे चाहते हुए भी स्वयं को बचा पाने में असमर्थ होते हैं। ऐसे समय उन्हें बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है। प्रत्येक मानव को इंसानियत के नाते ऐसे कष्टों से घिरे व्यक्तियों की त्वरित सहायता करनी चाहिये। तन-मन-धन लगाकर उनके कष्टों को कम करने का प्रयास करना चाहिये। कोई भी मानव कभी भी ऐसी विकट स्थिति में फंस सकता है। अतः इंसान को इंसान के काम आना इंसानियत का पहला धर्म है।

अक्सर आम व्यक्ति शासन की जिम्मेदारी समझकर स्वयं निष्क्रिय हो जाता है। यह किसी हद तक उचित भी है, शासक के पास असीमित साधन होते हैं। अतः वह प्रभावकारी उपाय से आपदाओं से निपट सकता है परन्तु भ्रष्ट नौकरशाही और संवेदनहीन नेताओं के रहते विश्वसनीय कारगर उपायों का लाभ जनता को नहीं मिल पाता अथवा बहुत देर से प्राप्त होता है। अतः प्रत्येक नागरिक को व्यक्तिगत तौर पर अथवा सामूहिक तौर पर राहत कार्य में जुट जाना चाहिये और शासन के कार्य में स्वयं भी भागीदार बनना चाहिये। हमारे देश में सरकार की ओर से आपदा प्रबंधन संगठन तैयार किया गया है परन्तु इच्छा शक्ति के अभाव में किये जाने वाले उपाय अपर्याप्त रह जाते हैं। स्वयंसेवी संगठन ही सही मायने में ऐसी आपदाओं में अपने कार्य को उचित अंजाम दे पाती हैं। परन्तु उनकी सीमित क्षमताओं के कारण सभी आपदाग्रस्त व्यक्तियों की आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं कर पाती। कभी-कभी महामारी, भूख से मौतों का सैलाब आ जाता है, इंसानियत रोती रह जाती है, तड़पती रहती है। मानवता और सभ्यता शर्मसार होती है। अन्त में मेरा प्रत्येक व्यक्ति, समाज से आग्रह है, ऐसी प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक आपदाओं के समय तन-मन-धन के साथ सामने आयें, सरकारी मशीनरी में इंसानियत का भाव जगाएं और आपदाग्रस्त व्यक्तियों की आवश्यकताएँ पूर्ति करें ताकि मानव समाज अपने को गर्व से सभ्य समाज कह सके। इंसानियत अपना कर्त्तव्य पूरा कर सके।

जय भगवान: बाबा अब तो दुनिया के सभी देश आपसी मतभेद भूलकर प्राकृतिक आपदाग्रस्त देश की सहायता करते हैं। अपनी सामर्थ्य के अनुसार राहत सामग्री एवं चिकित्सा सेवा, पुनर्वास सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं।

बाबा बागड़ी: जो आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वैचारिक स्तर तैयार हुआ है, वह प्रत्येक व्यक्ति को समझने-अपनाने की आवश्यकता है। ऐसे लोगों की अब भी कमी नहीं, जो विदेशी सहायता को मुसीबत के मारे लोगों तक पहुंचाने में बाधक बनते हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो विपत्ति में फंसे व्यक्ति से लूट खसोट करते हैं, उनकी सहायता के स्थान पर उनके गहने पार करते हैं, जेबें साफ करते हैं, उनका सामान गायब कर देते हैं। ऐसे घिनौनी प्रवृत्ति के लोग इंसानियत के दुश्मन हैं, वे इंसान के रूप में जानवर हैं। उनमें सम्वेदना जगाने की आवश्यकता है, उन्हें इंसान बनाने की जरूरत है। प्रत्येक इंसान का यह भी फर्ज है आपदाग्रस्त व्यक्ति को ऐसे हैवानों के शिकार होने से बचायें। विदेशों से प्राप्त सहायता एवं सरकार से उपलब्ध सुविधाओं को नौकरशाही और अवांछनीय तत्वों के प्रकोप से बचाकर आवश्यक व्यक्ति तक मदद पहुंचाने में प्रयास करें।

सर्व धर्म समभाव की धारणा

मानव को दुनिया में यथाचित सभी धर्मों और मान्यताओं का सम्मान करना चाहिये। प्रस्तुत है बाबा बागड़ी के विचार-

बाबा बागड़ी: प्रत्येक मानव को विश्व में मौजूद सभी धर्मों अर्थात आस्थाओं का सम्मान करना चाहिये। वह किसी धर्म में विश्वास करता हो अथवा नास्तिक हो परन्तु सभी धर्मों का सम्मान करना ‘इंसानियत’ के अन्तर्गत आता है। सम्मान करने का अर्थ यह नहीं है कि आप उस धर्म में निहित आस्थाओं को स्वीकार करते हैं, उसका भावार्थ है आप सभी धर्म अनुयायियों का सम्मान करते हैं, उनकी भावनाओं को सम्मान देते हैं। आप अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु हैं। किसी धर्म का निरादर करना ‘इंसानियत’ का अपमान करना है। इसी प्रकार अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अन्य धर्मों का, धर्मावलम्बियों का अपमान करना स्वयं अपने धर्म का अपमान करना है और इंसानियत के विरूद्ध तो है ही। सबको अपनी आस्था, मान्यता, विचारों से लगाव होता है और पूर्ण अधिकार भी है, वह अपनी आस्था के साथ जिये, परन्तु किसी व्यक्ति या समाज का अपमान, तिरस्कार कर के नहीं।

आपकी आस्था, मान्यता, रीति रिवाजों से समाज के अन्य वर्ग की खुशियों, स्वच्छन्दता, उन्नति पर कुठाराघात नहीं होना चाहिये साथ ही किसी धर्म में व्याप्त कुरीतियों, तर्कहीन मान्यताओं, रूढ़ियों के प्रति जनता को सजग करना उसे तर्कसंगत व्यवस्थाओं के पक्ष में करना भी इंसानियत का परम धर्म हैं ऐसे रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, असंगत मान्यताओं जिससे मानव समाज व्यथित होता है, उसका अहित होता है, उसके विकास में रूकावट डालता हो, का, समाज हित में विरोध करना भी आवश्यक है। प्रत्येकधर्म का उद्देश्य समाज का कल्याण उसकी खुशहाली उसकी उन्नति होनी चाहिये। यदि कोई धर्म इंसान को विकास की सीढ़ियों पर चढ़ने से रोकता है तो उस धर्म को अपनी मान्यताओं में समय के साथ परिवर्तन लाना चाहिये। वर्तमान विकसित समाज में भी यदि मानव सिर्फ धर्म भीरू बनकर जिए अथवा आशंकाओं से घिरा रहकर कलंकित जीवन जिए तो यह ‘इंसानियत’ का अपमान है। प्रत्येक आस्था, परम्परा, व्यवहार, संस्कार को मानव उपयोगी सिद्ध होने पर ही अपनाया जाना चाहिये।

फारूख: हमारा राष्ट्र धर्म निरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है परन्तु प्रत्येक व्यक्ति इसकी परिभाषा अलग-अलग करता है। कैसा स्वरूप होना चाहिये एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र का?

बाबा बागड़ी: फारूख तुम्हारा प्रश्न बहुत ही प्रासंगिक है। मेरे विचार से धर्म निरपेक्ष राष्ट्र का अर्थ होना चाहिये एक ऐसा राष्ट्र जो धर्म के नाम पर पूर्णतया तटस्थ है अर्थात शासन स्तर पर किसी धर्म का उल्लेख किया जाना वर्जित होना चाहिये। उसकी निगाह में सभी धर्म समान होने चाहियें। किसी प्रकार का धार्मिक भेदभाव किसी भी स्तर पर असहनीय होना चाहिये। सभी सरकारी नियम सभी भारतीयों के लिए समान होने चाहियें। यहाँ तक जाति आधारित अथवा धर्म आधारित आरक्षण भी धर्म निरपेक्ष छवि को धूमिल करते हैं। पिछड़ी जातियों निर्धन श्रेणी के समूहों को विशेष सुविधाएँ देकर उन्हें देश की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए प्रोत्साहन देना चहिये परन्तु आरक्षण से समाज का हित नहीं हो सकता। हिन्दू विवाह अधिनियम, अविभक्त हिन्दू परिवार, मुस्लिम पर्सनल लॉ जैसे कानून देश की धर्म निरपेक्ष छवि पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। अल्पसंख्यक आयोग का उद्देश्य बहुसंख्यक समाज द्वारा किये जाने वाले अन्यायपूर्ण व्यवहार से रक्षा होना चाहिये न कि उन्हें देश में विशेष स्थान दिलाने का प्रयास। अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, अनाचार, अन्याय से रक्षा करना प्रत्येक शासक का उद्देश्य होना चाहिये न कि उन्हें वीआईपी मानकर विशेष सुविधाएँ दिलायी जायें और बहुसंख्यक समाज की उपेक्षा की जाये उसे अपमानित किया जाये। बहुसंख्यक समाज का पक्ष लेने वाले को धर्म निरपेक्ष के विरूद्ध माना जाये, यह अपने देश के सभी नेताओं की नियति बन गयी है और असंगत तरीके से अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं। प्रत्येक नेता ‘धर्म निरपेक्ष’ शब्द का अर्थ अपने स्वार्थ के अनुसार परिभाषित करता है।

जय भगवान: हमारे नेताओं का उद्देश्य रहता है जनता में धार्मिक उन्माद पैदाकर अधिक से अधिक वोट अपने पक्ष में कर लिये जायें। आम आदमी की धर्म परायणता का लाभ उठाने का प्रयास करते रहते हैं जबकि स्वयं किसी धार्मिक दीवारों में नहीं बंधते, वे स्वयं सभी धर्मों के लिएएक ही रूख रखते हैं अर्थात मानवता का रूख। यही कारण है उच्चतम स्तरों पर पुराने समय से ही अन्तर्जातीय विवाह होते आये हैं परन्तु आम जनता उनके भाषणों से भ्रमित होती रहती है। अनेकों बार धार्मिक दंगों को झेलने पर मजबूर होती है।

बाबा बागड़ी: मैं तुम्हारी बात से पूरी तरह सहमत हूँ, इसके साथ ही आज का कार्यक्रम समाप्त करता हूँ। अगला कार्यक्रम एक सोमवार छोड़कर होगा।

सादा जीवन-उच्च विचार

सादा जीवनउच्च विचार एक आदर्श कहावत है, हमारे महापुरुषों ने इस कहावत को अंगीकार भी किया परन्तु आज के भौतिकवादी युग में आज इंसान भोग विलास की अन्धी दौड़ में शामिल हो चुका है जिससे मानव समाज का चारित्रिक पतन शुरू हो गया है। इसीलिए बागड़ी बाबा ने इस कहावत को अपनाने के लिए जोर दिया है और ‘इंसानियत’ का हिस्सा माना है।

बाबा बागड़ी: प्राचीन काल से हमारे महापुरुष ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ पर जोर देते आये हैं जो आज के प्रगतिशील-भौतिकवादी युग में अधिक प्रासंगिक हो गया है। आज प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक सुविधाएँ जुटा लेना चाहता है, वह अपने पड़ोसी, अपने मित्र, अपने रिश्तेदार सबसे श्रेष्ठ दिखना चाहता है अथवा उनके समकक्ष होना चाहता है। इसी प्रतिस्पर्द्धा के लिए वह अपना सुख चैन गंवा देता है। दिन-रात अधिक अर्थोपार्जन के लिए समय व्यय करता है।

अपनी सामर्थ्य कम होने पर अनेकों अनैतिक, असामाजिक और गैर कानूनी कार्य करने लगता है जिससे समाज में विकृति आने लगती है। प्रतिस्पर्द्धा में शामिल व्यक्ति दुराचार, दुष्कर्म, असभ्यता, अहंकार, असत्य, हिंसा, क्रोध जैसे अवगुणों को अपनाने से भी नहीं हिचकता अर्थात अधिक महत्वाकांक्षा व्यक्ति को पतन की ओर ले जाती है परन्तु ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ पर विश्वास करने वाला व्यक्ति स्वार्थपरता के भंवर में न फंसकर, समाज में सुख शांति और विकास में सहायक होता है, स्वयं अपना जीवन भी तनाव रहित और सुखद बनाये रखता है। सादा जीवन का अर्थ यह कदापि नहीं है जो सुविधा आपके पास उपलब्ध है उसे भी इस्तेमाल न करें और पुराने जीवन स्तर को अपनाये रहें। मानव प्रगति करता है तो नित नई सुविधाएँ भी मिलती जाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी क्षमता, अपनी सीमाएँ होती हैं, उन्हीं सीमाओं को पहचान कर सामान्य रूप से शारीरिक क्षमताओं का उपयोग कर सकारात्मक रूप से धन अर्जन करना और उसका उपभोग करना चाहिये और उसी सीमा में स्वयं को सन्तुष्ट रखना चाहिये।

अति महत्वाकांक्षा इंसान को गलत कार्य करने को मजबूर करती है। अतः इससे बचना आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति को यह याद रखना चाहिये, इस संसार में सम्पन्नता की कोई सीमा नहीं है, विद्वता की कोई सीमा नहीं है, शक्तिशाली अथवा ताकतवर की कोई सीमा नहीं है। अतः अपनी क्षमता सीमा को पहचानकर, अपने कार्य को पूर्ण लगन और श्रम से अर्जित धन से सन्तुष्ट रहना आवश्यक है। यही एक इंसान का इंसानियत का धर्म है। अपनी इच्छाओं की सीमा तय न करने वाला व्यक्ति अपने लिए अपने परिवार के लिए और समाज के लिए समस्याएँ पैदा कर देता है। उच्च विचारांे को अपनाते हुए समाज के विकास का सहयोगी बनना ही इंसानियत है।

आज का उन्नत समाज हमारे पूर्वजों के द्वारा अपनाये गये ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के कारण ही सम्भव हुआ। उनकी मेहनत-लगन और संयमित जीवन के कारण मानव समाज सुख सुविधाओं से सम्पन्न हो सका। हमारा ध्येय भी इस विकास रथ को आगे बढ़ाकर ले जाने का होना चाहिये, जो सकारात्मक कार्यों एवं परिश्रम, ईमानदारी, सच्चाई, अहिंसक जैसे गुणों को अपनाकर ही सम्भव है और इंसानियत का तकाजा भी। अतः सादा जीवन अर्थात मर्यादित जीवन एवं सद्विचार अर्थात उच्च विचार ही मानवता को प्रगति के उच्च शिखर पर ले जाने में सक्षम हैं।

भाग्यवादी नहीं कर्मवादी बनिए

भाग्यवादी बनने से संसार का कोई कार्य संभव नहीं है अतः प्रत्येक इन्सान को अपने कर्म पर भरोसा करना चाहिये। ऐसा ही कुछ बाबा बागड़ी अपने प्रवचन द्वारा समझा रहे हैं।

बाबा बागड़ी: अक्सर देखा जाता है धार्मिक व्यक्ति भाग्यवादी बन जाता है। वह अपने द्वारा कार्य किये जाने को महत्व नहीं देता बल्कि भाग्य के भरोसे उम्मीद लगाये बैठे रहना पसन्द करता है। कारण भी स्पष्ट है करीब-करीब सभी धर्मों में विचार दिया जाता है कि अदृश्य शक्ति के रूप में इष्ट देव द्वारा पूरा संसार संचालित है उसकी बिना इच्छा के कुछ भी सम्भव नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को जो कुछ मिलना है उसके जन्म के पहले ही लिख दिया गया है। जब सब कुछ लिखा हुआ है जो उसके भाग्य में लिखा है, वही मिलना है तो कोई भी व्यक्ति मेहनत क्यों करे?

किसी व्यक्ति का उपरोक्त धारणा का अनुसरण कितना उचित है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। यदि सभी व्यक्ति भाग्य के भरोसे बैठकर निष्क्रिय हो जाये तो क्या खेतों में अनाज स्वयं उत्पन्न हो जायेगा? फक्ट्रियों में बिना श्रम किये कपड़ा, साबुन, तेल, सीमेन्ट, खाद आदि सैकड़ों आम इंसान की वस्तुएँ स्वयं मशीनों से तैयार हो जायेंगी। बड़े-बड़े कारखाने भी स्वयं ही बन जायेंगे। देश पर हमला करने वाला दुश्मन भाग्य के भरोसे बैठकर युद्ध में परास्त हो जायेगा। क्योंकि देश के भाग्य मंे गुलाम बनना नहीं लिखा हुआ है। क्या भाग्य के भरोसे ही सम्भव था जो मानव आज पाषाण युग से जैट युग में पहुँच गया। क्या बिना अथक परिश्रम, बिना त्याग के मानव का विकास स्वतः सम्भव था? कुछ धर्म भीरू व्यक्ति, आलसी व्यक्ति, निकम्मे व्यक्ति, धर्म की आड़ लेकर भाग्यवाद को बढ़ावा देते रहते हैं, और अपनी निष्क्रियता को युक्तिसंगत ठहराने का प्रयास करते रहते हैं। इंसानियत के धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को यथासम्भव कार्य करते रहना चाहिये। यथाशक्ति कार्य करते रहना चाहिये, अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण करना चाहिये। हर सम्भव प्रयास करने के पश्चात् प्राप्त फल को सन्तोषपूर्वक उपभोग करना चाहिये। कर्म करने से ही भाग्य का निर्माण किया जा सकता है न कि भाग्य के भरोसे रहकर कोई कार्य किया जा सकता है।

जय भगवान: बाबा, गीता में भगवान कृष्ण ने स्वयं कर्म वाद पर जोर दिया है और यहाँ तक कहा है कर्म करने के पश्चात् फल की इच्छा भी न कर परन्तु आम व्यक्ति भाग्य से फिर भी उम्मीद लगाये बैठा रहता है।

बाबा बागड़ी: भाग्य के भरोसे बैठकर निष्क्रिय हो जाना पूर्णतया धर्म विरूद्ध है और इंसानियत के विरूद्ध भी। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से सुरक्षित है तो समाज की सेवा करना सर्वोत्तम कर्म है। मैं चाहता हूँ शीघ्र ही अपने प्रवचनों का समापन करूँ ताकि आश्रम के कार्यों के लिए अधिक समय दे सकूँ। अतः अगले सोमवार से अधिक समय देना होगा ताकि शीघ्र ही विचार संगम समाप्त हो सके। अगले सोमवार से तुम लोग अधिक समय की व्यवस्था कर आश्रम में आओगे।

सहानुभूति से समानुभूति श्रेयस्कर

बाबा बागड़ी: मानव सभ्यता के लिए ‘सहानुभूति’ एवं ‘समानुभूति’ दोनों ही आचरण महत्वपूर्ण हैं और इंसानियत के लिए आवश्यक गुण भी। परन्तु दोनों भावों में बहुत अंतर है। आइये देखते हैं कैसे?प्रत्येक मानव का एक विशेष गुण है किसी पीड़ित व्यक्ति के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने का एवं यथासम्भव उसकी सहायता करने का प्रयास करने का। पीड़ित व्यक्ति किसी भी रूप में हो सकता है, यथा विकलांग व्यक्ति, आपदाग्रस्त व्यक्ति, बीमार व्यक्ति, निर्धन व्यक्ति आदि-आदि। परन्तु समानुभूति रखने वाला व्यक्ति उस पीड़ित व्यक्ति से सहानुभूति नहीं रखता अथवा सहानुभूतिपूर्वक उसकी सहायता नहीं करता (सहानुभूतिवश किये कार्यों में अहसान का भाव होता है) बल्कि उसकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझकर दुःख प्रकट करता है और उस पीड़ा से निकलने में स्व अर्थात अपना दुःख का भाव होता है। निश्चित तौर पर अपने लिए किया कार्य किसी प्रशंसा, किसी अहसान का मोहताज नहीं होता। अपने लिए किया गया कार्य अधिक तन्मयता से किया जाता है।

पीड़ित को अधिक लाभ होने की सम्भावना होती है। समानुभूति रखने वाले व्यक्ति अपनी तकलीफ समझ कर कष्टों के निवारण का प्रयास करते हैं। वे दया की दृष्टि नहीं रखते बल्कि अपनेपन का अनुभव रखते हैं और अपने कष्टों से निकलने के लिए किया गया प्रयास अपेक्षाकृत अधिक सार्थक होता है। ऐसे इंसान दुनिया को कष्टों और पीड़ाओं से मुक्त करने में अधिक क्षमतावान होते हैं। इंसानियत के बहुत बड़े सहायक होते हैं। मानव जीवन को विकास की सर्वोच्च ऊँचाइयों पर ले जाकर खुशहाल बना सकते हैं।

अतः सहानुभूति एक अच्छा गुण है, परन्तु समानुभूति उससे भी श्रेष्ठ गुण है और इंसानियत की आवश्यकता।

फारूख: आज तो इंसान इतना स्वार्थी हो गया है कि वह सहानुभूति दिखाने में भी कंजूसी से काम लेता है। शायद वह त्याग की भावना से दूर हो रहा है।

बाबा बागड़ी: जैसा कि तुमने कहा उपरोक्त सहानुभूति की भावना का अभाव बढ़ती भौतिक प्रतिस्पर्द्धा का परिणाम है। जब व्यक्ति इंसानियत की दृष्टि से सोचेगा तो वह सहानुभूति और समानुभूति दोनों भावनाओं को अनुभव कर पायेगा। बिना सहानुभूति और समानुभूति की भावना के इंसान और जानवर में अंतर कर पाना मुश्किल हो जायेगा।

मानव विकास की रीढ़ है शिक्षा

शिक्षा के बिना मानव विकास के बारे में सोचना भी व्यर्थ है, शिक्षा अर्थात पढ़ना-लिखना मानव विकास की प्रथम सीढ़ी है। यही कुछ समझाने का प्रयास किया है बाबा बागड़ी ने।

बाबा बागड़ी: शिक्षा का मूल अर्थ है इंसान द्वारा अर्जित अनुभवों और विचारों का संग्रह कर आने वाली पीढ़ी को स्थानान्तरित कर देना। यही संग्रह और फिर शिक्षा द्वारा स्थानान्तरण ही सतत् उन्नति का कारण बनता है। एक उदाहरण के रूप में मान लें हमें दस हजार किलो मीटर की यात्रा पैदल करनी है यदि वह यात्रा के जीवन पूर्ण होने तक पूर्ण नहीं होती तो हम अपनी संतान से दिशा बताकर अपने जीवन के बाद जीवन यात्रा जारी रखने को कहें ताकि आपके द्वारा शुरू किया कार्य आपके द्वारा सम्भव न होने पर आपकी संतान अर्थात संतान की संतान आपके बनाये लक्ष्य पर पहुंच सके अथवा उससे भी आगे का लक्ष्य पूरा करे। यदि आपके द्वारा सम्भव न होने पर आपकी सन्तान अर्थात सन्तान की सन्तान आपके बनाये लक्ष्य पर पहुंच सके अथवा उससे भी आगे का लक्ष्य पूरा करे। यदि आपके द्वारा किये गये कार्य को संतान को दोबारा करना पड़े तो दीर्घ लक्ष्य को कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में पूरा न कर सकेगा।

शिक्षा एक माध्यम है अपने शोधों, अनुभवों, अध्ययनों को अगली मानव पीढ़ी को स्थानान्तरित करने का। ताकि नई पीढ़ी नये शोधों को नये आयाम दे सके। मैं एक उदाहरण द्वारा शिक्षा के महत्व और विकास में शिक्षा का योगदान को समझाने का प्रयास करता हूँ। अब से हजार वर्ष पूर्व जब मानव ने जंगलों से विभिन्न जातियों के पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियों का संग्रह कर अध्ययन किया होगा। प्रत्येक पौधे की जानकारी किवंदतीद्वारा संग्रहित की होगी उनके लाभ हानि एवं मानव स्वास्थ्य के लिए किस प्रकार प्रयोग किया जाये का ज्ञान अर्जित कर अपनी सन्तान, अपने शिष्यों को बताया होगा। क्यांेकि कागज उपलब्ध नहीं था अतः पत्तों आदि पर लिखने का प्रयास हुआ होगा।

हजारों-लाखों जड़ी बूटियों का अध्ययन कोई एक दिन, एक वर्ष अथवा एक जिन्दगी में सम्भव नहीं है। इसी प्रकार विभिन्न जानवरों की प्रजातियों का मानव स्वास्थ्य के लिए उपयोग का अध्ययन हुआ होगा। जो जड़ी बूटियों के बारे में सर्वश्रेष्ठ जानकारी रखता था और उनके उपयोग से इंसान की बीमारियों का इलाज कर सकता था हकीम कहलाया। जब भी किसी इंसान को शारीरिक परेशानी होती हकीम जी उसका इलाज करते थे। बाद में जब कागज का उत्पादन हो गया जिसे विद्यालय अथवा गुरुकुल में शिक्षा द्वारा बच्चों को प्रशिक्षित किया गया और शिक्षा पूर्ण कर आयुर्वेदाचार्य कहलाये। अब वे प्रशिक्षित हकीम जी हो गये क्योंकि उनको ज्ञान काफी था अतः अच्छे हकीम साबित हुए और उन्होंने अपने अनुभव संग्रहित कर पुस्तकों में छाप दिये। जब ज्ञान का भण्डार बढ़ता गया चिकित्सा पद्धति भी परिवर्तित हुई। अब आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के साथ यूनानी, होम्योपैथी, ऐलोपैथी आदि अन्य अनेकों पद्धति विकसित हुईं। सभी ने अपनी पद्धति पर बच्चांे को प्रशिक्षित कर उपाधियाँ बाँटनी शुरू की। एलोपैथी में सर्जरी की सम्भावनाएँ अधिक थी और इलाज का असर शीघ्र होता है। अतः सबसे अधिक लोकप्रिय साबित हुई एलोपैथी और सर्वाधिक विकास हुआ। इसमें सैकड़ों अन्य शाखाएँ बन गईं।

प्रत्येक शाखा के विशेषज्ञ तैयार किये गये जिन्हें ऐलोपैथी की साधारण डिग्री एम. बी.बी.एस. के पश्चात कोर्स उपलब्ध कराये गये। प्रत्येक विशेषज्ञ को मास्टर डिग्री अर्थात एम.एस.-एम.डी.-एम. पैथ से विभूषित किया जो अपनी लाइन के विशेषज्ञ होने के नाते मानव के सभी दुख दर्दों का प्रभावकारी ढंग से इलाज कर पाते हैं। अब नाक, कान, गला हड्डी रोग, पेट रोग, आँखों, सर्जरी, मानसिक, प्रसूति, कैंसर, टी.बी., हृदय इत्यादि शरीर के प्रत्येक अंग का विशेषज्ञ उपलब्ध है और अब तो इनकी अतिरिक्त शाखाएँ बन रही हैं। अब चिकित्सा क्षेत्र में क्रांति आ चुकी है। मानव स्वास्थ्य एवं आयु अब से सौ वर्ष पूर्व से कई गुना बेहतर है। यह क्रांति सम्भव हुई शिक्षा के माध्यम से अर्थात हजारों वर्षों के अनुभवों और जानकारियों के संग्रहण से, नई पीढ़ी को स्थानान्तरित कर पाने के कारण। इसी प्रकार इंजीनियरिंग, विज्ञान क्षेत्र में उपलब्धियाँ प्राप्त हुईं। अब आपको शिक्षा की महत्ता समझ आ गयी होगी।

शिक्षा का दूसरा लाभ है मानवीय सोच का विकसित होना, उसको सोचने समझने, तर्क करने की योग्यता प्राप्त होती है। शिक्षा के अभाव में इंसान सिर्फ कुएँ का मेढक बना रहता है। उसे उचित अनुचित परम्पराओं का ज्ञान नहीं होता। अप्रासंगिक हो चुके रीति-रिवाज, तर्कहीन परम्पराओं को निभाता रहता है। अपना समय और धन का अपव्यय करता रहता है। अतः मानव जाति को रूढ़ियों और आडम्बरों से मुक्त करने के लिए शिक्षा का होना अत्यधिक महत्वपूर्ण है। आज के युग में तो घर में विद्यमान अनेकों उपकरणों का उपयोग करने के लिए भी शिक्षा की आवश्यकता है। दफ्तर, बाजार, स्टेशन अन्य सार्वजनिक स्थानों पर बिना शिक्षा के स्वयं को खड़ा रख पाना भी मुश्किल है। मानव विकास का मूल मंत्र है शिक्षा का प्रसार। अतः इंसानियत को जारी रखने उसे विकसित करने के लिए शिक्षा का होना आवश्यक है।

फारूख: बाबा जी, यदि मैं कहूँ “हमारी सभ्यता का विकास का मुख्य जिम्मेदार हमारी भाषा (जो विचारों के आदान प्रदान का माध्यम है) फिर जानकारी संग्रहण का माध्यम पुस्तकें हैं तथा भावी विकास के लिए जिम्मेदार कम्प्यूटर होगा“ क्या गलत होगा?

बाबा बागड़ी: तुम्हारा कहना बिल्कुल सही है जब तक हम अपने विचारों को स्थानान्तरित नहीं कर सकते, ज्ञान का अर्जन, स्रग्रहण सबकुछ असम्भव है। जब तक ज्ञान को संचित न किया जा सके तो उन्नति नहीं हो सकती। यही कारण है अब हमें सूचनाएँ, जानकारियाँ, फोटो, एकत्र करने का माध्यम कम्प्यूटर के रूप में प्राप्त हो गया है। अधिक से अधिक शिक्षा का प्रसार सम्भव हो गया है। अब कागज अर्थात पुस्तकों का स्थान कम्प्यूटर का मैमोरी कार्ड ले रहा है। एक टन कागज पर लिखित जानकारी आधा किलो के मैमोरी कार्ड-सीडी, डीवीडी में एकत्र की जा सकती है। अतः विकास की गति भी तीव्र हो जायेगी। पूरी दुनिया में आसान और बहुत सस्ता, जानकारियाँ पहुंचाने का माध्यम जो उपलब्ध हो गया है। विकास क्रांति भी शुरू हो गयी है। यह सब शिक्षा द्वारा ही सम्भव हुआ।

देश के कानूनों का पालन प्रत्येक इंसान का कर्त्तव्य

बाबा बागड़ी: प्रत्येक देश के अपने कानून होते हैं जो लोकतान्त्रिक सरकार में जनता के प्रतिनिधि जनता की भावना के अनुरूप बनाते हैं। तानाशाही सरकार में एकाधिपति की सहमति से उसके सहयोगी तैयार करते हैं परन्तु कानून जनता को अनुशासित रखने का माध्यम होते हैं। समाज के हित और सुख शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिए कानूनों का होना आवश्यक है। प्रत्येक देशवासी का प्रथम कर्त्तव्य है कि वह कानूनों का पालन करे। तुच्छ स्वार्थपूर्ति के लिए कानून का उल्लंघन करना समाज को विकृत करने का कारण बनता है। अतः कानूनों का यथासम्भव पालन करना इंसानियत की आवश्यकता है।

कानूनों के पालन के लिए दरोगा की आवश्यकता जानवरों को हो सकती है, हैवानों को हो सकती है इंसान को नहीं। आज मानवीय नैतिक मूल्य गिरते जा रहे हैं। प्रशासनिक सख्ती होने पर ही कानून के पालन की सम्भावना बढ़ती है अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति स्वछन्द होकर बिना किसी कष्ट के जीवन यापन करना चाहता है। अपने स्वार्थपूर्ति के लिए किसी अन्य का हक छीनने से परहेज नहीं करता। हमारे देश का प्रशासन इतना भ्रष्ट हो चुका है कि जनता से कानून तोड़ने की कीमत लेकर कानून उल्लंघन की स्वतन्त्रता दे देता है। यही कारण है देश में अराजकता का माहौल बनता जा रहा है। नैतिक मूल्य बिखरते जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त धार्मिक स्थलों जहाँ पर मनुष्य अपने आचरण को संयमित करने की इच्छा रखता है वहाँ भी अनेक कानूनों का उल्लंघन होता है, अपराध होते हैं। क्या धार्मिक व्यक्ति भी इंसानियत भूल रहे हैं। इंसानियत के बिना धर्म लाभ की उम्मीद बेमानी है। कानून का पालन किये बिना इंसानियत का अस्तित्व नहीं है। प्रत्येक देश के शासक वर्ग को अन्तर्राष्ट्रीय कानून और आचार संहिता का पालन करना चाहिये। अपने देश में कानून भी अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुसार बनाये जाने चाहियें उसी में देश की जनता का कल्याण है, मानवता का कल्याण है।

फारूख: पाकिस्तान के कुछ इलाकों में शरियत के कठोर कानून लागू किये गये हैं, क्या उनका पालन करना उचित है?क्या शासकों द्वारा थोपे जा रहे क्रूर कानून और मानव विकास विरूद्ध फरमानों को माना जाना भी इंसानियत है?

बाबा बागड़ी: मैंने अभी-अभी कहा है शासक को भी कानून बनाते समय विश्व आचार संहिता का ध्यान रखना आवश्यक है। जब देश पर हैवानों का कब्जा हो तो इंसानियत की उम्मीद करना व्यर्थ है। उस समय प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है वह अपने देश को अवांछित लोगों से छुड़ाने का प्रयास करें।

अपने व्यवसाय में ईमानदारी और पारदर्शिता अपनाएँ

ईमानदारी और पारदर्शिता इंसानियत का अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है जिसके बारे में बाबा के स्पष्ट विचार हैं-

बाबा बागड़ी: प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यवसाय चाहे वह व्यापार हो, उद्योग हो, नौकरी हो अथवा सेवा क्षेत्र अपने कार्य के प्रति ईमानदार होना, अपने कार्य में पारदर्शी होना व्यक्ति के लिए आवश्यक है। व्यापार दूध का हो सकता है, या दुकानदारी किसी भी वस्तु की, यदि दूध बेचने वाला दूध में मिलावट कर ग्राहकों के साथ धोखा करता है, पंसारी अपने मसालों में मिलावट कर बिक्री करता है, मैडिकल स्टोर व अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्रेता नकली ब्रांड की वस्तुएँ बेचता है, सभी स्थिति में ग्राहक के साथ अन्याय होता है, किसी वस्तु की अधिक कीमत वसूलना भी अन्याय है, न्यूनतम लाभांश पर, वस्तुओं की गुणवत्ता का ध्यान रखते हुए ही बिक्री करना इंसानियत का दायित्व है।

उद्योगपति को अपनी फैक्ट्री में वस्तुओं की गुणवत्ता का ध्यान रखते हुए उत्पादन करना चाहिये ताकि उपभोक्ता को उसकी दी गई कीमत का पूरा लाभ प्राप्त हो सके। अपने उत्पादन की कीमत ऐसी हो जो प्रत्येक व्यक्ति की पहुंच में आ सके।

नौकरी पेशा व्यक्तियों को अपनी मासिक वेतन को ध्यान में रखते हुए मालिक को अधिक से अधिक कार्य करके देना चाहिये ताकि आपका वेतन युक्तिसंगत हो सके एवं मालिक का हित साधन भी होता रहे। आलस, कार्यक्षमता का अधूरा उपयोग, रिश्वतखोरी, चोरी जैसे कार्य इंसानियत के विरूद्ध जाते हैं। आज सरकारी विभागों में बढ़ते भ्रष्टाचार ने आम मानव जीवन कष्टकारी बना दिया है। प्राइवेट फर्मों में भी कार्यों की शिथिलता, हेराफेरी, अकर्मण्यता बढ़ने लगी है। सेवा कार्यों से जुड़े व्यक्तियों को अपने कार्यों में पारदर्शिता की अत्यन्त आवश्यकता है। एक डॉक्टर यदि किसी मरीज से उसके रोग को बढ़ाकर अपना बिल बढ़ाता है या मरीज को डराकर अनेक पैथोलोजी टेस्ट कराता है और अपना कमीशन कमाता है यह उसकी अपने पेशे से और इंसानियत के साथ बेईमानी है।

एक् रिपेयरकतार्त्ता अर्थात मिस्त्री स्क्ूटर, कार, मोबाईल, इलेक्ट्रोनिक वस्तुएँ की मरम्मत करते समय नाजायज बिल बनाता है, गैर आवश्यक पार्ट्स डालकर ग्राहक के साथ अन्याय करता है और अपनी तिजोरी भरता है, इंसानियत के दायरे में नहीं आती। ग्राहक को सही मार्गदर्शन देकर उसकी समस्या का समाधान न्यूनतम मूल्यों पर करना इंसान का फर्ज है। इसी प्रकार आर्किटेक्ट, मकानों के ठेकेदार अन्य प्रकार की सेवाओं में भी उपभोक्ता के साथ ईमानदारी एवं पारदर्शिता का व्यवहार रखना आवश्यकता है। बेईमानी और अपारदर्शिता भी हिंसा का ही एक रूप है। जो इंसानियत के विरूद्ध है।

जय भगवान एवं फारूख तुम दोनों इलेक्ट्रोनिक्स का काम करते हो। क्या तुम भी रिपेयर के बिल अनाप-शनाप बनाते हो?यदि बनाते हो तो आज से प्रण करो कि कदापि ग्राहक के साथ धोखाधड़ी नहीं करोगे?

दोनों दोस्त एक सुर में बोले: हम स्वयं अपने व्यवहार की तारीफ स्वयं नहीं करना चाहते परन्तु आप स्वयं हमारे ग्राहकों से पता कर सकते हैं। शायद ईमानदारी और पारदर्शिता ने ही हमें अपने शहर में अधिक लोकप्रिय बना दिया है। हमारे पास शहर में सबसे अधिक ग्राहक होने के बावजूद हम अपने साधारण खर्चे ही निकाल पाते हैं परन्तु पूर्णतया दोनों दोस्त सन्तुष्ट हैं और रात्रि में शान्तिपूर्वक नींद ले पाते हैं।

बाबा बागड़ी: वास्तव में तुमने इंसानियत की मिसाल कायम कर दी है। काश दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति की सोच ऐसी ही हो जाये तो इंसान अधिक सुख शान्ति से रह सकेगा।

इस अध्याय के समापन के साथ ही हमने जो आप लोगों के साथ वार्ताक्रम प्रारम्भ किया था पूर्ण होता है। मुझे आप दोनों पर गर्व है जिन्होंने मुझे सुना और समझा और मेरे उद्देश्यों से अवगत हुए। मैंने अगले सोमवार को आश्रम में एक गोष्ठी का आयोजन किया है जिसमें तुम अपने शोरूम के सभी कर्मियों, मित्रों, सम्बन्धियों के साथ आमन्त्रित हो। उस उस दिन जो भी “इंसनियत का धर्म“ से सम्बन्धित प्रश्न पूछना चाहेगा पूछकर अपनी जिज्ञासा शांत कर सकेगा। तुम्हारे मन में भी कोई जिज्ञासा हो तो अवश्य तैयार होकर आना। सभी को यथासम्भव सन्तुष्ट करने का प्रयास किया जायेगा। आज का कार्यक्रम यहीं तक।