बागड़ी बाबा और इंसानियत का धर्म / अध्याय 7 / सत्य शील अग्रवाल

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आध्यात्मवाद को काल्पनिक माने जाने के कारण

अनेकों वैज्ञानिक एवं अवैज्ञानिक तर्कों ने यह पुष्ट किया है कि ईश्वर का अस्तित्व सिर्फ काल्पनिक है। प्रस्तुत हं अनेक ठोस तर्क जो ईश्वर के अस्तित्व को सन्देहास्पद बनाते हैं।”इस अध्याय के माध्यम से बाबा बागड़ी हमारे समाज में व्याप्त अनेकों अवधारणाओं, मान्यताओं एवं विश्वास को तर्क की कसौटी पर तौल कर‘आध्यात्मवाद को एक कल्पना’ के रूप में देख रहे हैं। मानव मन ने कभी जिन धारणाओं एवं मान्यताओं को जन्म दिया आज मानव मन ही उन्हें स्वीकार करने में सन्देह व्यक्त करता है और ईश्वरीय सत्ता को एक कल्पना मात्र मानता है।

ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता नहीं हिलता

बाबा बागड़ी: आज मैं चन्द ऐसे उदाहरण आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूँ जो हमें मजबूर करते हैं, ईश्वर एक काल्पनिक शक्ति अथवा काल्पनिक मान्यता के अतिरिक्त कुछ नहीं है अथवा कोरी आस्था का ही माध्यम हैं आध्यात्मवाद। सर्वप्रथम प्रचलित धारणा को लेते हैं जो धार्मिक आस्था वाले व्यक्ति कहते हुए सुने जाते हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान है, उसकी बिना इच्छा के दुनिया का पत्ता भी नहीं हिल सकता।’’ यदि दुनिया में उसकी बिना इच्छा के कुछ भी घटित होना सम्भव नहीं है, इसका अर्थ तो यही निकलता है आज दुनिया में हो रहे अत्याचार, भ्रष्टाचार, अन्याय, हिंसा आदि भी उसकी मर्जी से हो रहे हैं। अब या तो उसका ‘सर्वशक्तिमान’ होना मिथ्या है अथवा यदि यह सत्य है तो दुनिया में हो रहे अनाचारों को जानते हुए उसे उदार, दयालु एवं पालनहार कहना कहाँ तक उचित होगा?आज मानव ही मानव के खून का प्यासा हो रहा है, कुटिल बुद्धि अनाचारी, समाज विरोधी व्यक्ति फल फूल रहा है और न्यायवादी, सदाचारी, अहिंसक व्यक्ति अनेकों कष्टों को सहते हुए जीवन बिताने को मजबूर है यह कैसी ईश्वर की न्यायप्रियता है। यदि वह सर्व सम्पन्न, सर्वशक्तिमान, न्यायप्रिय है तो अन्याय, हिंसा, हत्या, बलात्कार आदि अनैतिक, अमानवीय घटनाएँ कैसे सम्भव हैं।

जय भगवान: कहते हैं इंसान को उसके कर्मों के अनुसार सजा मिलती है।

बाबा बागड़ी: पहले वह गलत कार्यों के लिए प्रेरित करे फिर कर्मों की सजा दे, तर्कसंगत नहीं लगता।

फारूख: बाबा, इंसान अपने कर्मों के लिए स्वतन्त्र है उस पर खुदा का अंकुश नहीं है।

बाबा बागड़ी: यदि इंसान अपने कर्मों के लिए स्वतन्त्र है तो यह धारणा ही गलत हो गयी कि ‘उसकी बिना मर्जी के पत्ता भी नहीं हिल सकता।’ सबकुछ उसकी मर्जी से हो रहा है, यह मान्यता पूर्णतया मिथ्या साबित होती है अथवा धार्मिक आस्था वाले स्वयं सन्देह से घिरे हुए हैं। उनकी मान्यता-धारणा में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। प्रत्येक संत-मौलवी-पादरी अपनी व्याख्या भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत करता है।

मानव जीवन दुर्लभ है

बाबा बागड़ी: हमारे समाज में किंवदंती है की मानव योनि दुर्लभ है, बहुत सारे पुण्य कार्य करने के उपरांत इंसान के रूप में जन्म प्राप्त होता है। अथवा मानव के रूप में जन्म चौरासी लाख योनियाँ भोगने के पश्चात प्राप्त होता है। सर्वप्रथम मानव के अतिरिक्त कोई भी जीव सोचने समझने की शक्ति नहीं रखता। पाप-पुण्य के रूप में कार्यों को सिर्फ सोच रखने वाला प्राणी ही नियन्त्रित कर सकता है। अतः मानव के अतिरिक्त अन्य जीवों से पुण्य कर्म करने की अपेक्षा करना कहाँ तक उचित है?क्या यह समझना उचित होगा विश्व में पुण्य कार्य करने वाले मानव एवं अन्य जीवों की संख्या बढ़ गयी है। सभी जीवों द्वारा किये जा रहे सद्कर्मों के कारण मानव योनि में जन्म अधिक हो रहे हैं और अन्य वन्य जीवों की प्रजातियाँ लुप्त होने लगी हैं। सिर्फ बीसवीं शताब्दी में ही विश्व की जनसंख्या डेढ़ अरब से छः अरब हो गयी। जो इस बात का सुबूत है, मानव सद्कर्म कितने बढ़ गये हैं?आज समाज में व्याप्त चरित्रहीनता, उद्दण्डता, हिंसा उपरोक्ता मान्यता की विरोधाभासी है।यदि यह कहा जाये कि मानव योनि सभी जीवों की योनियों में सर्वश्रेष्ठ है तो सर्वथा सत्य होगा, परन्तु बहुत सद्कर्मों का परिणाम मानव योनि है, समझ से परे है।

यह भी सम्भव है कि यह मान्यता सिर्फ इंसान को बुरे कर्मों एवं असामाजिक कार्यों से बचाये रखने के लिए निर्मित की गई हो। यही कारण था जो व्यक्ति धर्म को नहीं मानता था अपने धर्म के अनुसार आचरण नहीं करता था अथवा नास्तिक होता था। उसके प्रत्येक व्यवहार को शंका की दृष्टि से देखा जाता था और आज भी काफी कुछ इसी प्रकार शंकित नजरों से देखने की धारणा बनी हुई है। उनके विचारों के अनुसार नास्तिक व्यक्ति अनियंत्रित सांड की भांति है। भले ही वह पूर्णतया संवेदनशील, परोपकारी एवं इंसानियत का पालनकर्ता हो। उनके अनुसार वह धार्मिक व्यक्ति शायद शंकित नजरों से देखने योग्य नहीं है जो मन्दिरों में जोर-जोर से घंटे बजाकर, मस्जिद में पाँचों वक्त की नमाज अदा करता है परन्तु समाज को बेईमानी से ठगने का इरादा रखता हो, चोरी करता हो, डकैती डालता हो अथवा गुण्डागर्दी करता हो। किसी नास्तिक व्यक्ति को संदेह की दृष्टि से देखना प्राचीन काल की मजबूरी थी, जब अपराध नियन्त्रण के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं थे, शासन की पकड़ जनता पर मजबूत नहीं हो सकती थी। परन्तु आज शासक के पास इच्छा शक्ति है तो अपराध नियन्त्रण के लिए धर्म का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है। यह भी सत्य है प्रत्येक कालखंड में अपराध होते आये हैं, सो आज भी हैं और आगे भी होंगे। परन्तु कडे़ कानून आरै शासक की मजबूत इच्छा शक्ति के होने पर अपराधों पर अंकुश प्रभावकारी ढंग से लगाया जा सकता है। जो पहले संचार सुविधाओ,यातायात के साधनों और आधुनिक हथियारों के अभाव में संभव नहीं था।

बाबा बागड़ी: फारूख,जय भगवान तुम्हारा कोई प्रश्न अथवा कोई जिज्ञासा हो तो पूछ सकते हो।

दोनों दोस्त: दोनों ने एक सुर में कहा हमें सब कुछ स्पष्ट हो गया है अतः कोई प्रश्न बाकी नहीं है।

धार्मिक आयोजनों में दुर्घटनाएं

यद्यपि बाबा के मुख्य शिष्यों में फारूख एवं जय भगवान ही रहे हैं। परन्तु आश्रम के जो कार्यकर्ता जब तब खाली होते हैं, बाबा के प्रवचनों के साथ जुड़ जाते हैं, और बड़े चाव से बाबा बागड़ी को सुनते हैं। आज भी करीब दस कार्यकर्ता बाबा के समक्ष बैठे हुए हैं और उनके आज के विषय पर उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हैं।

बाबा बागड़ी: आज हम विभिन्न धार्मिक आयोजनों अथवा धार्मिक स्थलों पर घटित अनेकों दुर्घटनाओं का जिक्र करने जा रहे हं। किस प्रकार भक्तों के साथ मौत का ताण्डव का सामना होता है।

प्रसिद्ध फिल्म डायरेक्टर एवं प्रसिद्ध म्यूजिक कम्पनी के मालिक ‘गुलशन कुमार’ जिनका सारा जीवन दुर्गा मां को समर्पित था। मन्दिर से पूजा करने के पश्चात बाहर आते समय दुष्टों की गोली का निशाना बन गये और मौत हो गयी।

3 अगस्त 08 हाल ही में हिमाचल प्रदेश के विलासपुर जिले में नैना देवी मन्दिर की सीढ़ियों पर मौत का खेल देखा गया जिसमें 1150 व्यक्ति काल कलवित हो गये और अन्य सैकड़ों व्यक्ति घायल हो गये।

इन धार्मिक स्थलों पर दुर्घटनाओं का लम्बा इतिहास है जिनकी कुछ घटनाओं का जिक्र करना प्रासंगिक समझता हूँ-

सन् 1854 प्रयाग में कुंभ मेले के दौरान मची भगदड़ में लगभग 800 श्रद्धालुओं की मौत हो गयी।

सन् 1983 नयना देवी-हिमाचल प्रदेश मन्दिर में भगदड़ से करीब 55 भक्तों की जीवन लीला समाप्त हो गयी।

सन् 1884 हरिद्वार के एक मंदिर में दर्शन के दौरान भगदड़ में 200 श्रद्धालुओं के जीवन का अन्त हो गया।

सन् 1989 हरिद्वार के कुंभ मेले के दौरान भगदड़ ने 350 तीर्थयात्रियों की जान ले ली।

सन् 2005 महाराष्ट्र के सतारा जिले में मंदरा देवी मंदिर पर धार्मिक मेले के समय

शार्ट सर्किट के चलते भगदड़ में 300 से ज्यादा भक्त मौत का शिकार हुए और 200 से ज्यादा घायल हो गये।

स्पेशल इंतजाम के बावजूद बकरीद पर आयोजित मक्का में हज के दौरान अनेकों बार भगदड़ में सैकड़ों हज यात्रियों की मौत हो जाती है। यह भगदड़ अक्सर शैतान को पत्थर मारने की रस्म अदा करते वक्त होती है।

इसी प्रकार ईसाई धर्म के आयोजनों में भी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। पादरियों की हत्याएँ होना भी कम दर्दनाक उदाहरण नहीं है।

उपरोक्त सभी घटनाएँ किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की धार्मिक आस्था डगमगाने के लिए काफी हैं। एक घटना का विवरण देना यहाँ प्रासंगिक होगा-एक व्यक्ति श्री गणेश का सच्चा भक्त था। अक्सर गणेश जी की पूजा में काफी समय व्यतीत करता था। एक दिन उसके अपने घर में स्थापित गणेश मंदिर में गणेश जी की प्रतिमा के ऊपर चूहा को कूदते फांदते पाया। वह व्यक्ति उस चूहे को गणेश जी के ऊपर (प्रतिमा ही सही) चहलकदमी सहन नहीं कर सका उसे इसमें गणेश जी और अपना अपमान लगा और सोचने को मजबूर हुआ जो देवता एक चूहे से अपने को नहीं बचा सकते, मेरी क्या रक्षा कर सकेंगे। अतः वह उनकी तरफ से विरक्त हो गया।

स्पष्ट है यदि किसी देवी-देवता का अस्तित्व है तो अपने पूजा स्थलों पर अपने भक्तों को संरक्षण तो मिलना ही चाहिये। जब-जब धार्मिक स्थलों पर भक्तों की मौत होती है, दिव्य शक्ति की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगता है। साथ ही अदृश्य शक्ति पर विश्वास, एक काल्पनिक अस्तित्व मानने को मजबूर करते हैं।

एक आश्रमवासी: बाबा आपकी बात काफी सटीक लगती है, जैसे आपके आश्रम में आकर मेरे साथ कोई दुर्व्यवहार करता है अथवा झगड़ा करता है तो बाबा शांत नहीं रहेंगे वे तुरंत मुझे बचाने के उपाय करेंगे। मेरी जान-माल के रक्षक वे ही होंगे। मुझे आश्रम में बाबा पिता की भांति आश्रय प्रदान करते हैं। वे मेरे गुरू-अभिभावक एवं रक्षक सबकुछ हैं। धार्मिक स्थल भी ईश्वर का निवास है अतः ईश्वर के शरण आने वाले भक्तों को दुर्घटना का शिकार होना पड़े, समझ से परे की बात है।

दूसरा आश्रम निवासी: धार्मिक दंगों के समय धार्मिक स्थलों एवं धर्माधिकारियों पर हमले होते हैं अर्थात ईश्वर-अल्लाह-गौड के घरांे पर आघात होते हैं। जो ईश्वर की मान्यता को कठघरे में खड़ा करते हैं। ईश्वर के भक्त अर्थात आध्यात्म में विश्वास रखने वाले ही ईश्वर के निवास को अपमानित कर अपने को धन्य मानते हैं। जो सिद्ध करती है कि ईश्वर की मान्यता सिर्फ कल्पना मात्र है। सिर्फ अपनी-अपनी सोच एवं आस्था है।

बाबा बागड़ी: किसी भी संस्थान अथवा निवास स्थान पर घटित प्रत्येक घटना की जिम्मेदारी संस्थान एवं निवास स्वामी की होती है और यदि तथाकथित सर्वशक्तिमान के निवास पर उसके भक्त संकट में हों तो और भी विवादास्पद स्थिति हो जाती है।

अपनी धार्मिक मान्यता को दूसरों पर थोपने का प्रयास

धर्म कोई भी हो प्रत्येक धर्म के अस्तित्व का अर्थ है अज्ञात शक्ति के अस्तित्व में विश्वास अर्थात आध्यात्म में विश्वास। प्रत्येक धर्म के अधिकारी अपने धर्म एवं आस्था को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, यह मानव स्वभाव है। परन्तु अन्य धर्मों के अस्तित्व को झुठलाना-अपमान करना उन धर्मों के प्रति असहिष्णु होना, उनकी अपनी आस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देता है। अब या तो पृथक धर्म के इष्ट देव ही अलग-अलग हैं और वे अपने भक्तों की संख्या बढ़ाने का प्रयास करते हैं। अपने अनुयायियों के माध्यम से अपनी दुकानदारी बढ़ाने का प्रयास करते हैं। यदि ईश्वर एक ही है तो उसके पृथक नाम से और पृथक पूजा पद्धति से क्या फर्क पड़ता है। फिर अपने धर्म को अपनाने के लिए अन्य धर्म अनुयायियों पर दबाव डालना औचित्यहीन है। वैसे भी किसी व्यक्ति को धर्म चुनने का अधिकार नहीं मिलता वह अपने जन्म के अनुसार परिवार की धारणा को ही अपनाने को मजबूर होता है। जन्म से पूर्व उसे धर्म चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती।

किसी धर्माधिकारी से कोई जिज्ञासु उसकी आस्था के प्रति तर्क द्वारा विषय की जानकारी चाहता है तो वह क्रोधित होकर अपने पर हुए तार्किक हमले की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है और सामने वाले पर हावी होने की गरज से प्रश्नों की बौछार कर देता है। उसका प्रश्न होता है कभी तुमने हमारे इष्ट देव की पूजा की है?उस पर सच्चे मन से ध्यान लगाया है?जब ध्यान नहीं लगाया तो तुम धर्म की बात नहीं समझ सकते। अर्थात उसके धर्म और आस्था की जानकारी उसके अनुसार पूजा करने से ही सम्भव है। परन्तु धर्म का अपनाना तो आस्था पर ही निर्भर है। पहले धर्म अपनाया जाये फिर आस्था बनायी जाये, यह कोई तर्क नहीं हो सकता। अतः किसी व्यक्ति की जिज्ञासा शांत करने का यह तरीका उचित नहीं माना जा सकता। यदि आपके पास जिज्ञासू के तर्कों का जवाब नहीं है तो कुतर्क का सहारा लेना अनुचित है। इसी प्रकार यदि कोई धर्म अनुयायी अपने तर्कों से सामने वाले को प्रभावित कर सकता है तो ठीक है परन्तु अपनी आस्था थोपना अमानवीय कृत्य ही है। किसी धर्म का प्रचार करना धर्म की सेवा हो सकती है परन्तु अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु होना इंसानियत का अपमान है। सभी धर्म इंसान के कल्याण का माध्यम हैं, उसको सद्भाव, सुख-शांति प्रदान करने के लिए हैं। इंसान का जन्म किसी धर्म के कल्याण के लिए नहीं होता। सर्वशक्तिमान ईश्वर स्वयं धर्म के माध्यम से सद्बुद्धि देने में सक्षम माना जाना चाहिये, यदि आपकी आस्था में सत्यता मौजूद है।

फारूख: धार्मिक कट्टरता ही सारे फसादों की जड़ है। इतिहास गवाह है विश्व में अनेकों युद्ध धर्म के लिए धर्म के नाम पर लड़े गये हैं। आज का आतंकवाद भी धर्म (मुस्लिम) की आड़ लिये हुए है। जबकि मस्जिद पर हमले कर रहे आतंकवादी कैसे अपने को धर्म का रक्षक कह धर्म की लड़ाई की दुहाई दे सकते हैं।

जय भगवान: बाबा, धर्म तो आपसी भाईचारा और सभ्यता सिखाता है, कुछ अवांछनीय तत्व धार्मिक भावनाएँ भड़काकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं।

बाबा बागड़ी: कुछ धर्म के अनुयायी धर्म के वास्तविक उद्देश्य से भटक जाते हैं। वे लोग सही मायने में भटके हुए प्राणी हैं, उन्हें स्वयं किसी धारणा पर विश्वास नहीं होता, परन्तु धार्मिकता का ढोंग रचते हैं और असामाजिक कार्य करते हं। अमानवीय कार्य करने वाला धार्मिक व्यक्ति नहीं हो सकता। धर्म का उद्देश्य मानव मात्र का कल्याण होता है, जिसे अदृश्य शक्ति का सहारा देकर मजबूत किया गया, समाज को व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया।

पूर्वजन्मों के कर्मों का फल

किसी दुखी व्यक्ति को पूर्वजन्मों के फल अथवा सजा के रूप में प्रस्तुत करना तर्कसंगत नहीं हो सकता’ ऐसा मानना है बाबा बागड़ी का।

बाबा बागड़ी: प्रायः सभी धर्मों में मान्यता है इंसान इस जीवन में पुराने जन्म के कर्मों के हिसाब से सुख-दुख उठाता है। किसी व्यक्ति के साथ हो रहे कष्टों को उसके पूर्व जन्म में किये पापों का फल माना जाता है। यदि इस मान्यता को मान लिया जाये तो क्या यह उचित है, जिस सजा को हम भुगत रहे हैं हमें पता ही नहीं है, कौन-कौन से गलत कार्यों की सजा हमें मिल रही है। किसी भी सजा का उद्देश्य होता है, व्यक्ति को गलत अथवा असामाजिक कार्यों को करने से रोकना। परन्तु वह जब ही सम्भव है जब सजा याफता को यह पता हो उसे इस गलत कार्य की सजा दी जा रही है, ताकि अन्य व्यक्ति भी खौफ खाकर दुष्कार्यों से बचे। अगले जन्म में जब हम पिछले जन्म के बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं तो सजा का मतलब। ऐसी सजा से क्या लाभ। अतः पूर्वजन्म के कर्मों का फल बताना सिर्फ काल्पनिक उड़ान है। हो सकता है इंसान को अत्यधिक दुखी अवसादग्रस्त स्थिति से बाहर लाने के लिए इस प्रकार सांत्वना देने का उपाय ढूँढा गया हो, जिस प्रकार अत्याचार-अनाचार की बाढ़ आ रही है। उपरोक्त मान्यता अपने आप खारिज हो जाती है। सजा देने का मकसद ही खत्म हो जाता है। अतः उपरोक्त मान्यता तर्कसंगत नहीं है।

बाबा का एक शिष्य: बाबा एक व्यक्ति राजघराने में पैदा होता है और जीवन भर मस्त जीवन बिताता है परन्तु दूसरी तरफ एक मजदूर का बेटा जिन्दगी भर कड़ी मेहनत कर भी बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता। ऐसा क्यों होता है?

बाबा बागड़ी: इंसान भी एक जीव है जो अन्य वन्य प्राणियों के समान है। परन्तु दिमाग के कारण वह सुख दुख का अनुभव करता है। वन्य जीवों में जो ताकतवर होता है वह अपना और अपने बच्चों का अच्छे से परवरिस करता है। कमजोर जीव परेशान होकर मर भी जाते हैं। गरीब और अमीर मानव समाज की ही देन हैं। अमीर को ताकतवर व गरीब को कमजोर प्राणी कहा जाये तो गलत न होगा। अब आगे ऐसे भी देख सकते हैं, मुहल्ले में गली के कुत्ते घर-घर जूठन खाकर गुजारा करते हैं और समय समय पर लात घूसे भी खाते हैं परन्तु एक पालतू कुत्ता इंसानों की भांति उत्तम आहार लेता है और कारों में सैर करने जाता है।

इसी प्रकार पालतू गाय, भैंस, बकरी, ऊँट, घोड़े अथवा चिड़ियाघर में बसे जानवरों को खाद्य पदार्थ की समस्या से नहीं जूझना पड़ता अन्यथा जीवों का अधिकांश समय भूख मिटाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। क्या अब यह कहा जाये पालतू जानवरों ने पहले जन्म में अच्छे कार्य किये थे। गलत-सही कार्यों का निर्णय सिर्फ दिमागी प्राणी कर सकता है अर्थात मानव के अतिरिक्त कोई जीव इस स्थिति में नहीं है जो अपने कार्यों का आंकलन कर सके।

शिष्य: बाबा जी अब आपकी बात पूरी तरह समझ आ गयी। वास्तव में पूर्वजन्म की धारणा काल्पनिक ही जान पड़ती है।

जय भगवान: मुझे तो पुर्वजन्म की बात में भी विश्वास नहीं होता। पूर्वजन्म के कर्मों की बात तो बहुत दूर की बात है। इसके साथ ही बाबा बागड़ी ने अपनी चर्चा समाप्त कर दी।

ईश्वर के अवतार की अवधारणा

लगभग सभी धर्मों के संस्थापक ईश्वर के अवतार माने जाते हैं जैसे हिन्दू धर्म में राम और कृष्ण, मुस्लिम धर्म के मौहम्मद सिखों के गुरु नानक, ईसाईयों के ईसा मसीह इत्यादि। इसी प्रकार जब पृथ्वी पर अन्याय, अत्याचार, अनाचार बढ़ता है, ईश्वर पृथ्वी पर अवतार लेते हैं और यह भी मान्यता है वे ही अवतार लेकर दुनिया में सत्य और धर्म का राज स्थापित करते हैं। अब देखते हैं बाबा बागड़ी इस विषय पर क्या विचार व्यक्त करते हैं?

बाबा बागड़ी: ईश्वर के अवतार की धारणा स्वयं अनेक सर्वशक्तिमान होने की धारणा खारिज करती है। जो सर्वशक्तिमान है उसे अवतार लेकर अपने उद्देश्यों को पूरा करने की क्या आवश्यकता है? जिसके इशारों से कार्य पूरे होते हों तो इतना बड़ा अध्यवसाय करने के पीछे क्या कारण है? यदि उनका यही तरीका है जनता के कष्टों के निवारण का, तो आज क्या जनता कम कष्ट में है? आज दुनिया में राक्षसों , गुण्डों बदमाशों की कमी है जो वे इस समय अवतार लेना उचित नहीं मानते। जिन्हें भी हमारा समाज ईश्वर का अवतार मानता है। वास्तव में वे सभी आदरणीय, सम्माननीय महापुरुष थे। वे सभी समाज के सच्चे सेवक थे। उन्होंने समाज को एक दिशा प्रदान की उसे कष्टों से लड़ने का मार्ग दिखाया। अतः वे सभी सम्मान के पात्र हैं। प्रत्येक व्यक्ति को उनकी सेवाओं का कृतज्ञ होना चाहिये। परन्तु यह मानव जाति की खूबी है कि वह जिसके प्रति कृतज्ञ होती है उसकी पूजा करती है। पांच या सात सौ साल पश्चात भारत में महात्मा गांधी द० अफ्रीका में नेल्सन मण्डेला और अमेरिका में अब्राहम लिंकन भी ईश्वर के अवतार माने जायेंगे, पूजे जायेंगे।

फारूख: बाबा क्या रामायण, महाभारत, कुरान, बाइबिल आदि ईश्वर की रचनाएँ नहीं है?

बाबा बागड़ी: ये सभी ग्रन्थ श्रद्धालुओं ने उनके जीवन इतिहास, उनके उपदेशों को संग्रहित कर तैयार किया होगा। ताकि आने वाली पीढ़ियाँ उनके उपदेशों, उनके संस्कारों से लाभान्वित होती रहे और उनकी सेवाओं को याद रखे और समाज में व्यवस्था बनी रहे.

स्वर्ग-नरक की अवधारणा

बाबा स्वर्ग नरक की अवधारणा पर अपनी चर्चा शुरू करने वाले ही थे,, डॉक्टर एण्टोनी बाबा के आश्रम में पधारे, वे अपने दोनों मित्रों से मुलाकात करना चाहते थे, और बाबा से अपने मित्रों की रुचि के बारे में जानकारी लेना चाहते थे। वे चुपचाप आकर अपने मित्रों के पास बैठ गये परन्तु जब बाबा ने उन्हें देखा तो वे चौंक गये। डॉक्टर साहब ने बाबा को अभिवादन किया। बाबा ने उन्हें बुलाकर अपने करीब बैठने का आग्रह किया। डॉक्टर के हालचाल पूछकर आने का मकसद जानना चाहता तो डॉक्टर एण्टोनी बोले मैं आपके शिष्यों के बारे में जानना चाहता हूँ। आप मेरे आग्रह पर जो इन लोगों की जिज्ञासाओं को शांत करने का सराहनीय कार्य कर रहे हैं, मैं आपका सदैव आभारी रहूँगा। कृपया बतायें ये दोनों मेरे मित्र आपके द्वारा बताये गये तथ्यों को समझ पा रहे हैं और रुचि ले रहे हैं?

बाबा बागड़ी: तुम्हारे दोनों मित्र मेरे अब तक के सबसे योग्य शिष्यों में से हैं। नियमित रूप से मेरे साथ बैठक कर रहे हैं और हर विषय में रुचि ले रहे हैं।

डा० एण्टोनी: आज का क्या विषय है? मैं भी आज आपके साथ चर्चा में शामिल रहूँगा।

बाबा बागड़ी: डॉक्टर साहब आपका स्वागत है। हमारी चर्चा में शामिल होने के लिए। आज हमारा विषय है-स्वर्ग नर्क अर्थात हैल-हैविन की अवधारणा पर विचार करना। अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है जैसे हिन्दू धर्म में स्वर्ग-नरक, मुस्लिम धर्म में जन्नत-दोजख, ईसाई धर्म में हैविन-हैल परन्तु धारणा एक समान ही है। अर्थात इंसान मरणोपरांत अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग-नर्क लोक का भागीदार बनता है। यानि कि सद्कर्म करके इंसान को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और दुष्कर्म अथवा पाप कर्म करके नरक की प्राप्ति होती है। स्वर्ग पाने वाला सुखपूर्वक रहता है और नर्क का भागीदार अनेक प्रकार के दंडों का भागीदार होता है जैसे हिन्दू धर्म के अनुसार उबले तेल में डाला जाता है, कभी छुरियों से, कुल्हाड़ी से काटा जाता है और कभी बर्फ की सिल्ली पर लिटाकर ठिठुरने के लिए छोड़ दिया जाता है, कभी भयानक जानवरों के बीच छोड़ा जाता है तो कभी कोड़ों से मारा जाता है आदि-आदि।

अब सुनिये, जब मानव मर जाता है तो उसका शरीर नष्ट हो जाता है अतः बिना शरीर के वह स्वर्ग या नर्क जाता होगा जिसे आत्मा रूपी माना गया है। आत्मा अर्थात जिसका कोई भौतिक शरीर नहीं होता। शरीर के बाद आत्मा को अपने शरीर द्वारा किये कर्म याद रहते होंगे, पता नहीं। आत्मा जो सिर्फ हवा के रूप में अर्थात निराकार है उस पर खौलते तेल, कुल्हाड़ी, भयानक जानवर जैसे भौतिक तत्व क्या असर डालते होंगे? समझ से परे है और स्वर्ग-नर्क में उपरोक्त भौतिक वस्तुओं का होना स्वयं एक प्रश्न खड़ा करते है?फिर क्या फर्क है पृथ्वीलोक और यमलोक में। सारे तथ्य परस्पर विरोधाभासी हो जाते हैं।

मेरा यहाँ पर उपरोक्त विश्लेषण करने का अर्थ कदापि यह नहीं है कि अपने धर्म संस्थापकों पर संशय व्यक्त किया जाये। सभी मान्यताएँ एक अच्छे उद्देश्य को लेकर बनायी गयी थी। जिस समय संसार में संचार व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था पूरी विकसित नहीं थी ऐसी धारणाएं बनाकर ही इंसान के दुष्कृत्यों को नियन्त्रित करने का प्रयास किया गया होगा। इंसान को समाज विरोधी कार्यों को रोकने का एकमात्र रास्ता यही था। परन्तु वर्तमान समय में जब पूरा विश्व सिमट कर गांव बन गया है। संचार क्रान्ति, अपराध नियन्त्रण, उच्च तकनीक विकसित हो गयी है, विभिन्न आधुनिक हथियारों का विकास हो चुका है। अधिकतर देशों में जनता अपना शासन स्वयं अपने प्रतिनिधि चुनकर चलाती है और अपनी आवश्यकतानुसार अपराध नियन्त्रण के लिए कागर कानून बनाकर सामाजिक व्यवस्था को देखा जा सकता है। सरकार की इच्छा शक्ति मजबूत है तो अपराध नियन्त्रण कोई समस्या नहीं हो सकती। अतः अब मिथ्या स्वर्ग नर्क की अवधारणा पालने का औचित्य भी नहीं रह गया है। यह भी सत्य है, कुछ न कुछ अपराध हर युग में होते आये हैं और आगे भी पूरा अपराध निवारण करना असम्भव ही है। तर्कहीन धारणा को पालकर इंसान को दुष्कर्मों से बचाये रखना सम्भव नहीं है।

डॉक्टर एण्टोनी: आपकी बातों में तो बहुत ही आनन्द आया, चाहता हूँ मैं भी अपने मित्रों के साथ आपके विचार सुनूँ पर कार्य की व्यस्तता के कारण ऐसा करना सम्भव नहीं है। परन्तु जब कभी सोमवार को समय मिलेगा तो अवश्य आपको सुनने की कोशिश करूँगा।

बाबा बागड़ी: डॉक्टर साहब यदि चाहें तो समय निकालने की व्यवस्था कर सकते हैं। अब आप आतंकवाद पर सुनिये.

आतंकवाद और धर्म

बाबा: आज धर्म की आड़ में आतकं वाद फलने फूलने लगा है। समाज के दुश्मन अपने दुष्कर्मों को धार्मिक कटट्ररवाद का सहारा लेकर अपने अपराधों को अंजाम देने में लगे हैं। धामिर्क कटटरवादी लोग उनके बहकावे में आ जाते हैं और मुस्लिम आतकंवाद को जिहाद का नाम दे दिया जाता है आरै धर्म की सेवा समझकर आतकंवादियों का साथ देने लगते हैं। आतकं वादी अपने प्रभाव क्षेत्र में शरियत काननू लागू कर जनता को अटठ्रहवी सदी के बबर्र काननू के अनुसार जीने को मजबूर करते हैं। प्रस्तुत है उनके अमानवीय काननू के कछु उदाहरण- पुरुषों को दाढी़ रखना अनिवार्य है, महिलाओं को शिक्षा वजिर्त है उन्हें घर से बाहर पति अथवा पिता के अतिरिक्त किसी के साथ निकलने की इजाजत नहीं है, किसी विवाद का निपटारा अदालत न करके आतकं वादी ही करेंगे।रेडियो टी वी देखना वर्जित है गाने सुनना वर्जित है सी दी नहीं देख सकते इत्यादि इत्यादि।

उपरोक्त नियमों का उल्ल्नाघन करने पर मौत की सजा या कोड़े खाने पड़ते हैं।

अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों में ऐसे कानून आज भी लागू हैं और स्थानीय जनता कट्टरवाद को भुगतने को मजबूर है। मुस्लिम आतंकवाद ने मुस्लिमों के लिए पूरे विश्व में संदेह के बीज बो दिये हैं। आम मुस्लिम का जीवन अनेकों कठिनाइयों भरा होता जा रहा है। क्या यह धर्म की दुर्गति नहीं है?जिसने समाज को शांति प्रदान करने के स्थान पर जीवन को ही संकट में डाल दिया है। क्योंकि धर्म के असली मकसद को पीछे छोड़ दिया गया है। इस प्रकार धर्म के द्वारा समाज की सेवा के स्थान पर असामाजिक तत्वों को बढ़वा दिया जा रहा है। आतंकवाद एक धार्मिक बहकावा है। इस बात से भी समझा जा सकता है, वे अपने लक्ष्य सिर्फ अन्य धर्मों के मठों पर ही नहीं मस्जिदों पर भी निशाना बनाते हैं।

अपने देश में भी हमले करते हैं, विस्फोट करते हैं जिसमें मुस्लिम समुदाय के लोग भी हलकान होते हैं। पुलिस टेªनिंग सेन्टर पर हमला कर अपने धर्म अनुयायियों को बंधक बनाने का प्रयास करते हैं और अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाकर अनेक मुस्लिमों की जान ले लेते हैं। सही मायने में आतंकी और अपराधी, गुंडे का कोई धर्म ही नहीं होता। वे तो सिर्फ मानवता के दुश्मन हैं, इंसानियत का खून करना ही उनका धर्म है। समाज के विकास के दुश्मन हैं।

फारूख: बाबा मेरे मित्र को अमेरिका जाने के लिए वीजा ही नहीं मिल रहा। सुना है वे मुस्लिमों को आतंकवादी के रूप में देखने लगे हैं। अब तो यूरोपीय देशों में जाना भी असम्भव हो गया है। पता नहीं ये आतंकवादी कौन से धर्म की सेवा कर रहे हैं और वे लोग दुनिया को क्या देना चाहते हैं। उनका एक ही मकसद है न स्वयं जिओ और न जीने दो। आत्मघाती हमला क्या दिखाता है स्वयं मरकर औरों से जीने का अधिकार छीन लो, यही उनकी धार्मिक सेवा है।

जय भगवान: अब तो मुस्लिम बनाम आतंकवादियों ने जेहाद के नाम पर पूरी दुनिया को लपेट लिया है।

बाबा बागड़ी: जब कोई भी धर्म इंसानियत को छोड़ देगा तो दुनिया के लिए तांडव ही सिद्ध होगा जिसमें भला किसी का भी नहीं हो सकता।

डॉक्टर एण्टोनी: बाबा साहब अब मुझे मेरे मित्रों के साथ प्रस्थान करने की इजाजत दें। प्रणाम और सभी लोग अपने गंतव्य को चल दिये।

सामाजिक दुर्बलता बनाम अध्यात्मवाद

सामाजिक दुर्बलता को अध्यात्मवाद फलने फूलने का कारण मानते हैं बागड़ी बाबा. उन्होंने इस विषय पर गहरा विश्लेषण किया है और अपने तर्कों से सिद्ध करने का प्रयास किया है कि, अज्ञानता, दुर्बलता, निर्धनता आध्यात्मवाद के मुख्य पोषक रहे हैं।

बाबा बागड़ी: अक्सर देखने में आता है कि साधु-संन्यासी, तान्त्रिक, पीर बाबा, ज्योतिषी, पादरी, समाज की दुर्बलता का फायदा उठाते हुए अन्धविश्वास और भय दिखाकर अपने आर्थिक स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं। उनके चंगुल में फंसने वाले अधिकतर अशिक्षित, अल्पशिक्षित और निर्धन वर्ग के लोग होते हैं। आध्यात्मवाद का मूलाधार भय है। भय को दिखाकर (काल्पनिक) समाज को धार्मिक कर्मकाण्डों अथवा अनुष्ठानों के लिए मजबूर किया जाता है। आधुनिक युग में इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी यही नुस्खा अपनाने लगी है। कभी एक माह में दो ग्रहण बताकर अनिष्ठ की आशंका बताई जाती है, तो कभी शनि का प्रकोप दिखाकर दर्शको को भयभीत किया जाता है या फिर प्रलय की आशंका दिखाकर अधिक से अधिक दर्शकों को आकर्षित कर अपनी टी.आर. पी. बढ़ाते हैं। जिससे ज्योतिषियें की जेबें भरती हैं और दुर्बल समाज के व्यक्ति भयभीत होकर पण्डितों और पीर बाबाओं से उपाय बताने के लिए मिन्नते करते हैं। फिर उनके द्वारा दिये सुझावों से धर्माधिकारियों को आर्थिक लाभ मिलता है। पीड़ित व्यक्ति को और अधिक डराकर अपनी आर्थिक आवश्यकताएं पूर्ण करना ही उनका ध्येय है। मैंने अपने जीवन में अनेकों भविष्यवाणियाँ सुनी हैं। बात 1963 की है जब अष्टग्रह का प्रकोप दिखाया गया और जनता इतनी भयभीत हो गयी थी उन दिनों प्रत्येक मौहल्ले में अनेकों रामायण पाठ और गीता पाठ, भगवती जागरण आदि कराये गये सभी लोग धार्मिक हो चुके थे। 1975 में कलयुग की समाप्ति और सतयुग का आगमन बताया गया। साथ ही कहा गया सिर्फ भक्त अथवा आध्यात्मिक लोग सतयुग देख पायेंगे। इसी प्रकार अन्य प्रकार के भय समय-समय पर दिखाये गये, कभी पूर्ण सूर्यग्रहण, कभी स्काई लैब टकरा जाने की आशंका, अन्य ग्रहों के पृथ्वी के करीब आकर टकराने का भय, सन् 2000 में एक बार फिर सतयुग के आगमन की कल्पना, आम जनता को भयभीत और उद्वेलित करते रहे हैं। मन्दिरों, मस्जिदों में दुआ मांगने (अपनी सलामती की) के लिए जनता पंक्तिबद्ध खड़ी रही। हर बार आम व्यक्ति शंकित भाव से जीता रहा परन्तु सभी आशंकाएँ निर्मूल साबित हुईं। जो यह सिद्ध करती हैं कि जनता को आध्यात्मवाद का रास्ता दिखाने का माध्यम भय है और यह कटु सत्य है।

उपरोक्त सभी भविष्यवाणियाँ अविकसित अथवा कम विकसित देशों से ही होती रही हैं जो इस कथन की पुष्टि भी करता है। पूरे विश्व में समृद्धता और सक्षमता आने पर धर्म भी प्रभावहीन हो जायेगा। अतः अज्ञानता, दबुर्लता, निधर्नता आध्यात्मवाद को फलने फूलने के लिए संजीवनी है. इसी लिए अल्पविकसित समाज धामिर्क क्रिया कलापों में अधिक जकड़े हुए पाए जाते हैं

जय भगवान: तो क्या बाबा विकसित देशों में धर्म का महत्व कम हो गया है?

बाबा बागड़ी: तुमने अच्छा प्रश्न किया, विकसित देशों में जिनमें यूरोपीय देश और खाड़ी देश जैसे यू.ए.ई. औमान, बहरीन, कतर आदि शामिल हैं, सब में धर्म विद्यमान हैं यथा समय पूजा, इबादत करते हैं परन्तु धर्म के नाम पर पागलपन नहीं है। जो वास्तव में मानव विकास को ही अवरूद्ध कर देता है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांगलादेश, ईरान, अफ्रीकी देश ऐसे ही उदाहरण हैं जो धर्म पर चलने की कट्टरता के कारण अपनी उन्नति पर लगाम लगाये बैठे हैं।आज मेरे पास समय का अभाव है अतः मैं अपनी वाणी को यहीं विराम देता हूँ।बाबा के उठने के पश्चात् अनेक दर्शक आश्रमवासी और फारूख एवं जयभगवान आपस में चर्चा करते रहे, उनके लिए आज की चर्चा हिला देने वाली थी। उन्हें एहसास हुआ किसी भी चीज की अति लाभ के स्थान पर हानि देने लगती है। अतः धार्मिक होना कोई गलत नहीं है परन्तु अपने धार्मिक कृत्य के कारण अपने जीवन को दांव पर लगा देना अर्थात अन्य प्राणियों को कष्ट देना उचित नहीं है।

क्या भक्त जन सदैव मुसीबतों से मुक्त रहते हैं?

अक्सर कहा जाता है ईश्वर की उपासना करने से सब दुखों का खत्म किया जा सकता है।जीवन में ख़ुशीयां लायी जा सकती हैं।बाबा ने इस उक्ति को प्रश्न बनाया है।

बाबा बागड़ी: जैसा कि कहा जाता है जीवन में कष्टों से दूर रहने और सुखी जीवन जीने के लिए ईश्वर उपासना करनी चाहिये। परन्तु क्या जो अपने इष्ट देव के परम भक्त हैं उनके मन में घनिष्ठ आस्था है, वे लोग अपने जीवन में कष्ट नहीं उठाते, क्या गरीबी उनका पीछा छोड़ देती है?क्या वे जीवन भर सम्पन्न-खुशहाल जीवन बिता पाते हैं? हकीकत यह है दुख और सुख आस्तिक और नास्तिक देखकर नहीं आता। दुर्घटना में दोनों समान रूप से मौत का शिकार होते हैं अथवा घायल होते हैं। सुनामी, जलजला, भूकम्प आदि प्राकृतिक विपदाएँ सभी को समान रूप से व्यथित करती हैं।

नास्तिक लोग भी खुशहाल जीवन जीते हैं। सुख और दुःख किसी वर्ग विशेष से प्रभावित नहीं होते। अतः ईश्वर की आराधना सुख पाने अथवा दुखों से बचने का आधार है प्रासंगिक नहीं लगता। मानसिक शांति का कुछ स्तर बढ़ जाये यह अवश्य सम्भव है परन्तु यह भी कटु सत्य है अपने समाज हितों के खिलाफ जाने वाला, अपने देश की खुशहाली के विरूद्ध जाने वाला व्यक्ति विशेष रूप से कष्टों का, सजा का भागीदार बनता है। अतः इंसान का इंसानियत के दायरे में रहकर अपने क्रियाकलाप द्वारा अपनी जीवन यात्रा करना, धार्मिक होने से भी अधिक आवश्यक है।दुर्घटना, कष्ट, असफलता, बीमारी सब जीवन के भाग हैं परन्तु इंसानियत के दायरे में रहकर समाज सेवा का भाव लेकर जीने से दुःखों की तीव्रता कम अवश्य हो जाती है और दुष्प्रवृतियों पर अंकुश भी लगता है। अनाड़ी भाषा में कहा जा सकता है जिस कार्य को करने के लिए समाज से छिपना पड़े, बचना पड़े वह गलत है, दोष है, धार्मिक भाषा में पाप है।

जय भगवान: जब भक्त और भक्तिहीन दोनों के साथ जीवन एक ही प्रकार से चलता है तो भक्ति को भ्रम मात्र माना जाये तो क्या अनुचित है?

बाबा बागड़ी: मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि भक्ति सिर्फ आस्था का प्रश्न है, किसी व्यक्ति को अपनी आस्था से भक्ति से मानसिक शान्ति मिलती है, तो कुछ भी गलत नहीं है।

परिकल्पनाएं एवं स्वप्न

स्वप्न में ईश्वर के दर्शन को लेकर बाबा बागड़ी बाबा ने बहुत ही रोचक तर्क द्वारा प्रस्तुत किया है. आइये देखते हैं क्या कह रहे हैं बागड़ी बाबा आज की चर्चा में;

बाबा बागड़ी: अक्सर आप लोगों ने सुना होगा कि आपके मित्र अथवा पड़ोसी को कोई स्वप्न दिखा जिसमें उसके इष्ट देव ने दर्शन दिये उससे बातें की, उसे आशीर्वाद दिया अथवा भावी जीवन के बारे में संकेत दिया। दर्शन प्राप्त कर आपका मित्र अत्यधिक प्रफुल्लित होता है और अपनी भक्ति को सफल मानता है। अपने को सौभाग्यशाली अनुभव करता है। आश्चर्य की बात है शिव के भक्त को शिवजी दर्शन देते हैं, हनुमान भक्त को हनुमान जी, मुस्लिम को अल्लाह मियाँ और ईसाई को पैगम्बर ईसा मसीह से वार्तालाप करने का अवसर मिलता है जिसे चमत्कार की संज्ञा दी जाती है। सबसे मजेदार बात यह है कि उनके इष्ट देव उन्हीं की भाषा में उनसे बातें करते हैं। अंग्रेज को अंग्रेजी भाषा में, बंगाली को बंगाली भाषा में, मुस्लिम को उर्दू अथवा अरबी भाषा में जबकि मूल रूप से इंसान कोई भाषा लेकर पैदा नहीं हुआ और न ही होता है। भाषा का विकास इंसान ने अपने विचारों के आदान-प्रदान करने के लिए किया। इसीलिए स्थानीय तौर पर पृथक-पृथक भाषाओं का विकास हुआ। आदिम युग में इंसान अन्य जीवांे की भांति रोना, चीखना आदि हाव-भाव ही जानता था। यदि इष्ट देव आपकी अपनी भाषा में आपसे बातें कर रहे हैं, उससे स्पष्ट है आपके अचेतन मन में सुप्त पड़े विचार स्वप्न के माध्यम से उजागर होते हैं। स्वप्न में इष्ट देव का दिखना चमत्कार नहीं माना जा सकता।

कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घटती हैं, कोई व्यक्ति मरने के कुछ समय पश्चात् जी उठता है। मैडिकली शायद उसे मृत मान लेने में कहीं त्रुटि रह गयी होती है। यदि उस पुनर्जीवित व्यक्ति से पूछा जाये अपनी बेहोशी की हालत में क्या देखा तो वह अपनी मान्यता अनुसार अपने घटनाक्रम सुनायेगा, ‘‘वह यमदूतों के चंगुल में था अचानक एक

यमदूत बोला हमने गलत व्यक्ति को उठा लिया है अतः जब उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ तो मुझे वापस छोड़ गये और मेरी बेहोशी खत्म हो गयी।’’ ऐसा वाकया सिर्फ हिन्दू धर्म के अनुयायी सुनाते हैं, किसी ईसाई या मुस्लिम ने कभी ऐसी घटना नहीं सुनाई। क्या उन्हें मरने के बाद यमदूत लेने नहीं आते? क्या यमदूत हिन्दुओं को ही लेने आते हैं?

क्या भगवान, अल्लाह, गौड ने अपने सेक्टर बाँटे हुए हैं। अतः अपने अनुयायियों के लिए अलग-अलग नियम बना रखे हैं। क्या वास्तव में ऐसा सम्भव है।

उपरोक्त सभी घटनाएँ उसकी मान्यता, सोच के अनुसार घटित होती हैं, उनमें सत्यता का नितान्त अभाव प्रतीत होता है।

फारूख: हमारे यहाँ मान्यता है एक बार जब कयामत आयेगी सब मृत जी उठेंगे और उनके कर्मों के अनुसार उन्हें दण्ड मिलेगा। यह कयामत कब आयेगी यह समझ से बाहर है। जब हम कब्रिस्तान में दो-चार साल बाद पिछले कब्र को खोदकर अन्य कब्र बना देते हैं, यानि पूर्व मृतव्यक्ति खाक में मिल चुका होता है तो फिर कयामत में कैसे वह कब्र से उठ खड़ा होगा।

बाबा बागड़ी: सब मान्यता पर आधारित बातें हैं, अब उन्हें कितना सत्य मानते हैं यह आपकी आस्था पर निर्भर है। आस्था है तो सब सत्य है जब आस्था न हो तो कुछ नहीं। तर्क और आस्था में कोई सम्बन्ध नहीं है।

जय भगवान: हमारे स्वप्न हमारी सोच का ही प्रतिबिम्ब मात्र हैं और सच्चाई से, यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं होता।