बाढ़ की संभावनाएं हैं सामने दरख्तों के नाज़ुक तने हैं / जयप्रकाश चौकसे

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बाढ़ की संभावनाएं हैं सामने दरख्तों के नाज़ुक तने हैं
प्रकाशन तिथि : 10 फरवरी 2021


आज गुलशेर शानी की मृत्यु को 26 वर्ष पूरे हो रहे हैं। उनके पुत्र फारूखी ने जूम पर एक वार्ता आयोजित की थी। विषय था ‘शानी साहित्य में धरती, जंगल और जल का महत्व रेखांकित करने वाले प्रसंग।’ खाकसार भी इसी कार्यक्रम में शामिल था। शानी के उपन्यास ‘सांप और सीढ़ी’ के फिल्म अधिकार शानी ने खाकसार को दिए थे। मुंबई के कलाकारों को कथा पसंद आई परंतु वे बस्तर जाकर शूटिंग नहीं करना चाहते थे। उनका परामर्श था कि मुंबई के निकट खंडाला में शूटिंग करें। खाकसार उन्हें कैसे समझाता कि बस्तर के जंगल अलग हैं और उनका अपना जादुई सौंदर्य है। बहरहाल फिल्म नहीं बन पाई। फिल्म बनाने के सपने उतने हैं जितने आसमान में तारे। हर दर्शक में एक फ़िल्मकार छुपा होता है। वर्तमान में मोबाइल कैमरे से भी फिल्म बनाई जा सकती है। दार्शनिक बर्गसन ने 1896 में ही कहा था कि फिल्म कैमरा व मानव दिमाग की कार्यशैली में कुछ समानता है। मनुष्य की आंख कैमरे के लेंस के समान है और असंपादित रीलें उसके अवचेतन की प्रयोगशाला में डेवेलप और एनलार्ज की जाती हैं।

बहरहाल गुलशेर शानी की एक कमसिन पात्र अपनी जांघ पर गोदना करा लेती है। मान्यता है इससे अच्छा वर शीघ्र ही मिल जाता है। जनजातियों का गोदना अब महानगर में लोकप्रिय हो चुका है। इस तरह जनजातियों के रिवाज महानगर में और महानगरों की लंपटता और दहशत जंगल में घुसपैठ करती है। इस तरह अतिक्रमण जारी रहता है।

ऊंचे बांध जमीन पर खंजर की तरह आक्रमण करते हैं। एक बड़ा बांध बनाने के लिए अनेक गांव वालों के घर उजाड़ दिए गए। इन विस्थापितों ने शहरों में शरण ली और झोपड़पट्टियों का निर्माण हुआ। उन्हें विस्थापन के एवज में दिए जाने वाली रकम कोरा वादा ही रही। बेचारी मेघा पाटकर इनको उनका अधिकार दिलाने के लिए अकेले ही लड़ती रही। नेता उतना लोकप्रिय होता है जितने वादे तोड़ता है।

‘आधा गांव’ के लिए प्रसिद्ध डॉ. राही मासूम रजा ने कुछ फिल्में भी लिखी हैं। एक अमीर व्यक्ति ने उन्हें बड़े गर्व से अपनी व्यक्तिगत लाइब्रेरी दिखाई। सारी किताबों पर नजर डालकर डॉक्टर राही मासूम रजा अली ने कहा कि आपके वाचनालय में शानी का ‘काला जल’ उपन्यास नहीं है अतः यह आधी अधूरी मानी जाएगी। गुलशेर शानी मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के आला अफसर रहे। फिर कुछ समय तक वे दिल्ली के साहित्य परिषद में काम करते रहे जहां उनकी मुलाकात विष्णु खरे से हुई जिनका जन्म 9 फरवरी 1940 को हुआ था।

फिल्म ‘एमराल्ड ग्रीन’ का सार यूं है कि एक प्रांत में बांध बनाया जाना है। जनजाति के लोग महसूस करते हैं वे विस्थापित किए जाएंगे। वे लोग प्रमुख इंजीनियर के 5 वर्षीय पुत्र का अपहरण कर लेते हैं। उसी समय सरकार पलट जाती है। बांध योजना ठप्प पड़ जाती है। 15 वर्ष पश्चात राजनीति करवट लेती और बांध योजना पुनः प्रारंभ की जाती है। वही इंजीनियर अब बांध टीम का प्रमुख है। जंगल में पिता-पुत्र की मुलाकात होती है। पिता, पुत्र को अपने साथ ले आता है। कुछ ही दिनों में पिता महसूस करता है कि उनका पुत्र जंगल में प्रकृति की गोद में ही खुश रह सकता है। अत: वे पुत्र को लौटने की इजाज़त देता है। इंजीनियर अपनी सरकार को विश्वास दिलाने में सफल होता है कि छोटे-छोटे बांध बनाने से जल, जंगल और धरती की रक्षा करते हुए मनुष्य का अस्तित्व कायम रखा जा सकता है। ग़ौरतलब है कि उत्तर पूर्व में विनाश हुआ है। किसान आंदोलन की तरह उत्तर पूर्व दुर्घटना में कुछ लोग लापता हो गए हैं। क्या यह संभव है कि अलग-अलग दुर्घटनाओं के कारण लापता लोग ही कहीं मिलकर धरती,जल, जंगल को बचाए रखने वाली सभ्यता का विकास करें।

दुष्यंत कुमार की पंक्तियां हैं, बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं, और नदियों के किनारे घर बने हैं। चीड़-वन में आंधियों की बात मत कर, इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं।