बाबा नागार्जुन , हरिजन गाथा और दलित विमर्श / महेश चंद्र पुनेठा

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नागार्जुन जीवन से सीधे मुठभेड़ करने वाले विरले कवियों में से एक हैं। उनकी कोशिश हमेशा कवि या साहित्यकार बनना नहीं बल्कि एक आदमी बनना रही। उनकी प्रतिबद्धता शोषित-दलित -पीड़ित के प्रति रही। शोषित-उपेक्षित के दुःख-दर्द, हर्ष-उल्लास तथा आशा-आकांक्षाएं हमेशा उनके लेखन के केंद्र में रहे। जहाॅ भी शोषण-अत्याचार-उत्पीड़न देखते वहाॅ नागार्जुन पहुॅच जाते। अपने समकालीन यथार्थ से वे कभी आॅख मॅूद कर नहीं रहे। इसलिए उनकी कविता पर तात्कालिकता का आरोप भी लगता रहा। लेकिन कोई परवाह नहीं, क्योंकि वे तो कविता को प्रतिरोध के एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते थे। इसी के चलते उन्हें अनेक बार जेल की यात्रा भी करनी पड़ी। प्रेमचंद की 'साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है' वाली बात नगार्जुन के साहित्य को लेकर बहुत हद तक सही सिद्ध होती है। उनकी कविता अपने समकालीन राजनीति पर ज़रूरी हस्तक्षेप करने के साथ-साथ आगे की दिशा भी दिखाती है। उन्होंने समाज को जाति और वर्ग दोनों ही दृष्टियों से देखा। दलितों को लेकर भी उनकी दृष्टि एकदम साफ थी दलितों पर लिखा गया उनका साहित्य केवल सहानुभूति का साहित्य नहीं कहा जा सकता है, गहरी संवेदना, समझ और आक्रोश उनके यहाॅ दिखाई देता है। वे केवल स्थितियों का चित्रण नहीं बल्कि उन्हें बदलने की बात भी करते हैं।एक ऐसे समय जब दलित विमर्श की कोई अनुगॅूज हिन्दी साहित्य में नहीं थी उन्होंने 'बलचनमा' जैसा उपन्यास तथा 'हरिजन गाथा' जैसी कविता रची।

'हरिजन गाथा' जनसंहार की पृष्ठभूमि पर लिखी गई कविता है। सन् 1977 ई0 में 27 मई को पटना जिले के बेलछी गाॅव में कुर्मी भूस्वामियों ने 13 दलितों को आग में झोंककर जिंदा जला दिया। इस हृदयविदारक और नृशंस घटना की भयावहता को कवि कुछ इस तरह व्यक्त करता है-ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि / एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं- / तेरह के तेरह अभागे- / अकिंचन मनुपुत्र / जिंदा झोंक दिए गए हों / प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में / साधन-संपन्न ऊॅची जातियों वाले / सौ-सौ मनुपुूत्रों द्वारा! दुखद यह है कि यह घटना पुलिस प्रशासन के नाक के नीचे घटती है। घटना की सूचना उनके पास पहॅुच जाती है लेकिन फिर भी उसको रोकने के कोई प्रयास नहीं किए जाते। सचमुच कितनी बिडंबना है - महज दस मील दूर पड़ता हो थाना / और दरोगा जी तक बार-बार / खबरें पहॅुचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की। बावजूद इसके पुलिस प्रशासन घटना स्थल पर नहीं पहॅुचा। इससे पता चलता है कि देश का शासन-प्रशासन किस वर्ग और जाति के हितों के लिए काम करता आ रहा है। दलित उत्पीड़न के इतिहास में यह एक मात्र घटना नहीं थी जिसमें सूचना होने के बावजूद भी पुलिस प्रशासन समय पर घटना स्थल पर समय पर नहीं पहॅुची, इससे पहले भी ऐसा देखा गया है और उसके बाद भी। पिछले दिनों मिर्चपुर में हुई घटना में भी कुछ ऐसा ही हुआ। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि यह तो हमारे व्यवस्था की सामंती पुलिस का चरित्र ही है। भले ही शासन व्यवस्था कहने के लिए लोकतांत्रिक हो गई हो पर उसको संचालित करने वालों की मानसिकता अभी तक भी लोकतांत्रिक नहीं हो पाई है। यदि लोकतांत्रिक हो गई होती तो साधन-संपन्न ऊॅची जातियाॅ इस तरह के सुपर मौज में नहीं दिखती - खोदा गया हो गड्ढा हॅस-हॅसकर / और ऊॅची जातियोंवाली वह समूची आबादी / आ गई हो होली वाले 'सुपर मौज' के मूड में / और इस तरह जिंदा झोंक दिए गए हों / तेरह के तेरह अभागे मनुपुत्र / सौ-सौ भाग्यवान मनुपुत्रों द्वारा। कैसी हृदयहीनता है यह! अपने को श्रेष्ठ घोषित करने वाली जाति की संवेदनशीलता देखिए! किसी की मौत का सामान जुटाया जा रहा है वह भी 'हॅस-हॅसकर'। कविता में प्रयुक्त 'सुपर मौज' शब्द इस हृदयहीनता की पराकाष्ठा को बताता है। शब्दों का ऐसा सटीक चयन एक बड़ा कवि ही कर सकता है, ऐसा कवि जो हृदय से उत्पीड़ितों के साथ हो।

कवि नागार्जुन इस कविता में आगे एक दलित-सर्वहारा बच्चे के माध्यम से उनके भविष्य की अनिश्चितता तथा दलितों के अभावग्रस्त जीवन-स्थितियों को बारीकी से उजागर करते हैं -क्या करेगा भला आगे चलकर? ...कौन-सी माटी गोड़ेगा? / कौन-सा ढेला फोड़ेगा? / मग्गह का यह बदनाम इलाका / जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से / पैदा हुआ है बेचारा- / भूमिहीन बंधुआ मजदूरों के घर में / जीवन गुजारेगा हैवान की तरह / भटकेगा जहाॅ-तहाॅ बनमानुस-जैसा / अधलपेटा रहेगा अधनंगा डोलेगा। यह स्थिति केवल भोजपुर के मग्गह इलाके की नहीं है बल्कि देश के किसी भी इलाके में देख लें दलित-भूमिहीन-बंधुआ मजदूरों की यही स्थिति है। यही शोषण-उत्पीड़न और यातना है। यही अनिश्चितता है कि कल क्या खाएगा-क्या लगाएगा-क्या रोजगार करेगा? यही अनिश्चितता है जो उन्हें भाग्यवादिता की ओर धकेलती है-रामजी के आसरे जी गया अगर...रामजी ही करेंगे इसकी खैर। पर यह महत्त्वपूर्ण है कि इतने भगवान भरोसे रहने वाले लोगों के भीतर प्रतिरोध की प्रेरणा भरती है यह कविता। उनके माथे के अंदर हथियारों के नाम और आकार-प्रकार नाचने लगते हैं। उनको सब कुछ नया-नया लगने लगता है। यह इस कविता की ताकत कही जाएगी। एक बड़ी कविता यह काम करती भी है। इस कविता के संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणी बहुत सारगर्भित है, “इस कविता में भारतीय समाज-व्यवस्था के वर्तमान रूप का यथार्थ चित्र और उसके भावी विकास का संकेत है। भारत के गाॅवों में सामंतों द्वारा खेतिहर मजदूरों -हरिजनों के क्रूरतम शोषण और बर्बर दमन का जैसा प्रभावशाली चित्रण हरिजन गाथा में है, वैसा इस बीच की किसी दूसरी कविता में नहीं है। नागार्जुन इस भयानक यथार्थ का त्रासद चित्रण करके चुप नहीं हो गए हैं। उन्होंने इस यथार्थ के परिवर्तन का संकेत भी दिया है। कविता में एक बच्चे के माध्यम से इतिहास प्रक्रिया व्यक्त हुई है।वह बच्चा इतिहास का बेटा है और भावी इतिहास का निर्माता है।”

यह बात बिल्कुल सही है। इस कविता में समाज में दलितों की यातनामय स्थितियों का चित्रण मात्र नहीं है बल्कि उससे मुक्ति का मार्ग भी यह कविता बताती है। इस दृष्टि से दलित विमर्श की अन्य कविताओं से हटकर है यह कविता। कवि जब अपने पात्रों से पुछवाता है- तोतला होगा कि साफ-साफ बोलेगा / जाने क्या होगा / बहादुर होगा कि बेमौत मरेगा। इन पंक्तियों में कवि उस ओर संकेत कर देता है कि मुक्ति चाहिए तो प्रतिरोध करना होगा तोतला बोलकर काम नहीें चलेगा अन्यथा बेमौत मारा जाएगा। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। मुक्ति का एकमात्र रास्ता संघर्ष ही है किसी की सहानुभूति या कृपा नहीं।कोई अवतार मुक्ति नहीं दिला सकता है बल्कि सामूहिक और संगठित संघर्ष से ही मुक्ति संभव है।नागार्जुन मानते हैं - जुलुुम मिटाएंगे धरती से / इसके साथी और संघाती / यह उन सबका लीडर होगा। लीडर भी कैसा होगा? इस पर कवि बिल्कुल स्पष्ट है, जो लीडर होगा वह -सबके दुःख में दुःखी रहेगा / सबके सुख में सुख मानेगा / समझ-बूझकर ही समता का / असली मुद्दा पहचानेगा। वह कर्म वचन का पक्का होगा। वह अपने स्वार्थपूर्ति के लिए लीडर नहीं बनेगा। वह वोट की राजनीति करने वाला नेता नहीं होगा। शोषण समाप्त करने के इसके अपने तरीके होंगे। किन्ही बने बनाए नियमों -सिद्धांतों से नहीं बॅधा होगा- इस कलुए की तदबीरों से / शोषण की बुनियाद हिलेगी। इस कविता से यह बात भी निकलकर आती है कि दलितों का उद्धार कोई बाहर से आया नेता नहीं करेगा बल्कि उन्हीं के बीच से नेतृत्व उभर कर आएगा-श्याम सलोना यह अछूत शिशु / हम सब का उद्धार करेगा। एक बात और यह अकेला नहीं होगा- दलित माओं के / सब बच्चे अब बागी होंगे / अग्निपुत्र होंगे वे, अंतिम / विप्लव में सहभागी होंगे... होंगे इसके सौ-सहयोद्धा / लाख-लाख जन अनुचर होंगे... इस जैसे और भी होंगे- अभी जो भी शिशु / इस बस्ती में पैदा होंगे / सब के सब सूरमा बनेंगे / सब के सब ही शैदा होंगे...। इस रास्ते पर ही चलकर मुक्ति संभव है। यह मुक्ति संघर्ष वर्गीय और जातीय दोनों तरह का होगा। इस संघर्ष में शत्रु केवल उच्च जाति का ही नहीं बल्कि उच्च वर्ग का भी है। यहाॅ सवाल केवल सामाजिक नहीं आर्थिक भी है।ये दोनों लड़ाइयाॅ साथ-साथ लड़नी होंगी। केवल जाति मुक्ति से शोषण से मुक्ति नहीं होगी। नागार्जुन साफ-साफ बताते हैं कि लड़ाई किस-किस के बीच होगी-बड़े-बड़े इन भूमिधरों को / यदि इसका कुछ पता चल गया / दीन-हीन छोटे लोगों को / समझो फिर दुर्भाग्य छल गया। इस लड़ाई में 'जनबल धनबल सभी जुटेगा'। इसके लिए एक दल का होना उन्हें ज़रूरी लगता है- इसकी अपनी पार्टी होगी / इसका अपना ही दल होगा। 'बलचनमा' उपन्यास के इस अंश के साथ इन पंक्तियों को पढ़ते हुए नागार्जुन की बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है- बाहरी लीडरों के भरोसे मत रहिए अपना नेता आप खुद बनिए... लीडर लोग तो आपकी कमाई का हलवा खाकर लेक्चर देने आते हैं और अपने दिमाग व पेट की बदहजमी मिटाते हैं...आप लोग सब कुछ पैदा करते हैं तो अपना लीडर भी अपने यहाॅ पैदा कीजिए। जो आपका आदमी होगा वही आपकी तकलीफों को समझेगा...आप अकेले नहीं हैं करोड़ों की तादाद है आपकी। आप जब उठ खड़े होंगे और एक कंठ हुंकार करेंगे तो जालिम जमींदारों का कलेजा दहकने लगेगा।वे हैं ही कितने दाल मंे नमक के बराबर। अपने बल पर नहीं सरकारी अफसरों के बल पर ही जुल्म करते हैं।

आगे वे कहते हैं- हिंसा और अहिेंसा दोनों / बहनें इसको प्यार करेंगी / इसके आगे आपस में वे / कभी नहीं तकरार करेंगी। यहाॅ नागार्जुन इस बात को बहस का विषय नहीं मानते कि संघर्ष हिंसक होगा कि अहिंसक बल्कि वे मानते हैं आंदोलन की आवश्यकता इसका निर्धारण करेगी। वक्त की ज़रूरत के अनुसार जनता अपना रास्ता स्वयं चुन लेती है। इस तरह दलित मुक्ति का यह एकदम अलग तरीका है। यही सही तरीका भी है। इसी से दलित मुक्ति सच्चे अर्थों में संभव है। यही होगी संपूर्ण क्रांति। यहाॅ यह सम्पूर्ण क्रान्ति, जयप्रकाश नारायण वाली संपूर्ण क्रांति नहीं है।उससे नागार्जुन का मोहभंग हो गया था। अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, “ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन के वर्ग-चरित्र को मैं अंध कांग्रेस विरोध के प्रभाव में रहने के कारण नहीं समझ पाया।'संपूर्ण क्रांति' की असलियत मैंने जेल में समझी। सीवान, छपरा और बक्सर की जेलों में 'संपूर्ण क्रांति' के जो कार्यकत्र्ता थे, उनमें अस्सी प्रतिशत जनसंघी और विद्यार्थी परिषद वाले थे।सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकत्र्ता दाल में नमक के बराबर थे और भालोद के कार्यकत्र्ता दाल में तैरते हुए जीरे के बराबर! औद्योगिक और खेत-मजदूर न के बराबर थे। हरिजन भी इक्के-दुक्के ही थे। यह सब देखकर मैं समझ गया कि यह आंदोलन किन लोगों का था।” इसके बाद से उसे वे झूठी क्रांति कहने लगे थे क्योकि वे मानते थे कि संपूर्ण क्राति के लिए समाज के सभी दमित-शोषित वर्गों और जातियों का प्रतिनिधित्व होना ज़रूरी है। यह बात उन्हें जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति में नहीं दिखाई दी। संपूर्ण क्राति के लिए नागार्जुन वर्गीय एकता और जातीय एकता ज़रूरी मानते हैं इस कविता में पहले वे कहते हैं - खान-खोदने वाले सौ-सौ / मजदूरों के बीच पलेगा / युग की आॅचों में फौलादी / साॅचे-सा वह वहीं ढलेगा। दूसरी जगह वे लिखते है- झरिया, फरिया, बोकारो / कहाॅ रखोगे छोकरे को? वहीं न? जहाॅ अपनी बिरादरी के / कुली-मजूर होंगे सौ-पचास? जातीय एकता से ही वर्गीय एकता का विस्तार संभव है, उक्त पंक्तियों से यही ध्वनि निकलती है।

नव शिशु का सिर सूॅघ रहा था / विह्वल होकर बार-बार वो। इन पंक्तियों में आने वाले नए समाज के संकेत दिए गए हैं जिसके बारे में सोच-सोचकर गुरु महाराज खुश हुए जा रहे हैं। वे आने वाले समाज की कल्पना करते हंै कि उस समाज में सारी धरती पर दलित-मजदूरों का राज होगा। इस समाज के नए नियम-कानून होंगे जिससे -शोषण की बुनियाद हिलेगी। इसमें दलितों को न केवल राजनीतिक वर्चस्व बल्कि सांस्कृतिक वर्चस्व का नायक भी बताया गया है- दिल ने कहा -अरे यह बालक / निम्न वर्ग का नायक होगा / नई ऋचाओं का निर्माता / नये वेद का गायक होगा। ये पंक्तियाॅ उस ज़रूरत की ओर भी संकेत करती हैं कि दलित मुक्ति के लिए कहीं न कहीं सांस्कृतिक परिवर्तन की भी आवश्यकता होगी। वर्णव्यवस्था का अंत करना होगा, तभी भारतीय समाज में ढाॅचागत परिवर्तन आएगा। एक ऐसे ढाॅचे का निर्माण होगा जिसमें प्रत्येक मनुष्य को मनुष्य समझा जाएगा हैवान नहीं। यह किसी से छुपा नहीं है कि दलितों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। इसलिए भरतमुनि ने इस वर्ग के लिए पाॅचवे वेद की बात की। उक्त पंक्तियों को लिखते हुए नागार्जुन के मन में यह बात रही होगी। यहाॅ कवि एक ऐसे नए वेद की रचना की बात करता है जो वर्णव्यवस्था जैसी अमानवीय एवं अवैज्ञानिक व्यवस्था को नकारता हो, उसके स्थान पर समतावादी तथा भेदभाव रहित समाज की सृष्टि करता हो और मानव मात्र को एक इकाई मानता हो। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही दलित-मुक्ति को लेकर दो धाराएं सक्रिय रही हैं पहली धारा खुद को वर्ग-संघर्ष और वर्ग ईष्र्या से अलग रखती है। उनका उद्देश्य अपने समाज को सुधारना और पुनर्गठित करना रहा। वे सवर्ण हिंदुओं से दलितों का केवल सामाजिक-आर्थिक मतभेद मानते थे सांस्कृतिक नहीं। दूसरी धारा इसके विपरीत थी। नागार्जुन इस दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।वे मानते हैं कि सवर्णों की बहुजन समाज के प्रति कभी भी नियत साफ नहीं रही वे संस्कृति और कला में अपना वर्चस्व कभी नहीं छोड़ना चाहते। इसलिए नए वेद और नई ऋचाओं की सृष्टि ज़रूरी है। यही मनता नागार्जुन की प्रस्तुत कविता में व्यक्त हुई है।

इस कविता में कथा-सी रोचकता तथा भरपूर नाटकीयता है। मिथकों का कवि ने बहुत ही सुंदर प्रयोग किया है। गर्भावस्था में प्रभाव ग्र्रहण करने वाली अभिमन्यु की कथा, वारह अवतार द्वारा पृथ्वी के उद्धार की कथा तथा वासुदेव द्वारा कृष्ण को कंस के हाथों बचाने के लिए मथुरा ले जाने की कथा संबंधी मिथकों का प्रयोग करते हुए कविता के फलक को विस्तृत कर दिया गया है। एक दलित बालक को कृष्ण, अभिमन्यु तथा वाराह से जोड़कर कवि ने दलितों के प्रति अपने सम्मान को व्यक्त किया है। उनके प्रति रागात्मकता रखने वाला कवि ही ऐसा कर सकता है। उनकी रागात्मकता ही कही जाएगी कि वे साॅवले रंग के शिशु मुख की छटा को सलोनी और निराली देखते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि 'हरिजन गाथा' जातिवादी और सामंती बर्बरता के विरुद्ध उस कवि की उत्कट आकांक्षा का बखान है जो सदियों से शोषित-पीड़ित-वंचित जन को गौरवपूर्ण सुखी मानवीय जीवन जीते हुए देखने के लिए निरंतर बेचैन रहा है। (नंद किशोर नवल) पर कविता की एक पंक्ति 'ऐसा तो कभी नहीं हुआ था...' बार-बार हंट करती है। यह पंक्ति घटना की भयावहता, विकरालता और बेचैनी की तीव्रता को व्यक्त करने में तो सहायक है, मगर नागार्जुन के इतिहासबोध पर प्रश्न चिह्न भी लगाती है। इस पंक्ति से लगता है कि नागार्जुन दलितों की यातना-उत्पीड़न -बर्बबरता के पूरे इतिहास की ओर आॅखें बंद कर लेते हैं। जबकि सत्यता तो यह है कि सवर्ण जातियाॅ सदियों से दलितों का उत्पीड़न करते आ रहे हैं। बहुत पीछे भी न जाकर बिहार की ही बात करें तो सन् 1971ई के आसपास पूर्णिया में एक साथ 14 आदिवासियों को जिंदा आग में झोंक दिया गया। रूपसमुर-चंदवा कांड के नाम से उसे आज भी लोग जानते हैं। हम इतिहास की बात भले न करें हमें काव्य परम्परा के रूप में भी यह दिखाई देता है जब निराला लिखते हैं- श्रुति निगमागम शब्द शूद्र के सीसा कानों में भरते / मंत्रोचार किया तो उसका सर उतार सब दुख हरते। तब यह समझ में नहीं आता है कि नागार्जुन ऐसा क्यों कहते हैं -'ऐसा तो कभी नहीं हुआ था...' या फिर प्रबल वर्ग ने निम्न वर्ग पर / पहले नहीं किया था ऐसा।

नागार्जुन के पूरे जीवन-वृत्त को जानते हुए उनकी नीयत पर बिल्कुल शक नहीं किया जा सकता है, निःसंदेह वे दलितों के प्रखर पक्षधर तथा ब्राह्मणवादी व्यवस्था के कटु आलोचक रहे लेकिन न जाने क्यों वे ब्राह्मणवादी प्रतीकों के प्रयोग से मुक्त नहीं हो पाए? नागार्जुन ऐसे प्रतीकों को कविता में इस्तेमाल करते हैं जो द्विज संस्कृति की पहचान है। यह कविता दलितों पर हो रहे अत्याचार-उत्पीड़न का विरोध तो करती है पर ब्राह्मणवादी तदवीरों से परहेज नहीं करती। गुरूजी से हाथ दिखवाने वाला प्रकरण रोचक तो है पर हस्तरेखा देख कर भाग्य बताने का तरीका बहुत पुराना है जिसने लोगों में अंधविश्वास को बढ़ाया है। यह शोषण का भी तरीका रहा है। भाग्यफल द्विज संस्कृति का हिस्सा है। यह पूर्वजन्म से भी चीजों को जोड़ता है।यह वह औजार रहा है जिसके माध्यम से ब्राह्मणों ने दलितों को बहुत पहले से ठगा तथा यथास्थिति को कायम रखा। प्रस्तुत कविता में इस प्रतीक का जिस तरह से उपयोग किया गया है वह कहीं न कहीं एक अंधविश्वास को मान्यता देना है। यह भूलना नहीं चाहिए कि यदि ब्राह्मणवादी व्यवस्था से लड़ना है तो उसके प्रतीकों, कर्मकांडों, नियम-कानूनों को नकारे बिना यह लड़ाई आगे नहीं बढ़ सकती है। जबकि नागार्जुन स्वयं यह बात मानते हैं कि निम्न वर्ग का नायक, नई ऋचाओं का निर्माता तथा नए वेद का गायक होगा अर्थात पुराने वेदों को नहीं मानेगा। उन्हें अस्वीकार करेगा। यह कुछ उसी तरह से है जैसे निम्न जाति के लोग जातिवादी व्यवस्था की आलोचना और विरोध तो करते हैं पर ब्राह्मणवादी व्यवस्था के उन कर्मकांडों को अपनाते हैं जो इस जातिवादी व्यवस्था के मूल में हैं। यहाॅ तक कि वे जातीय पदसोपान क्रम से भी मुक्त नहीं हो पाते हैं। अपने से छोटी कही जाने वाले जातियों के साथ वे वही व्यवहार करते हैं जो उनसे उच्च जातियाॅ उनके साथ। आज बहुत सारे दलित आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद ब्राह्मणवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। कहना होगा कि वे ब्राह्मण बनने की चाह में इसकी और अधिक गिरफ्त में आ गए हैं। वे उन सारे कर्मकांडों को अपनाने लगे हैं जो द्विज संस्कृति के परिचायक हैं।इनको यह भ्रम है कि ऐसा करने से वे सवर्णों की जमात में शामिल हो जाएंगे। वे भूल जाते हैं कि जाति का आधार कर्म नहीं जन्म को माना गया है जिससे मुक्ति जाति विहीन समाज के बनने से ही मिल सकती है। मेरी समझ से सच्चे अर्थों में दलित मुक्ति तभी संभव है जब दलितों की लड़ाई सवर्णो से नहीं बल्कि सवर्णवादी मानसिकता से हो।क्या भविष्य के संकेत देने के लिए नागार्जुन किसी और प्रतीक का प्रयोग नहीं कर सकते थे? जैसा कि इसी कविता में आगे 'दिल ने कहा' पंक्ति के द्वारा किया भी गया है। यह प्रश्न बार-बार कचोटता है।

कविता का शिल्प बहुत मजबूत है। कविता मुक्त छंद में होते हुए भी लयविहीन नहीं है। एक सतत प्रवाह कविता में है। मनुपुत्रों शब्द का भी कवि ने बहुत सुंदर प्रयोग किया है दो जगह यह शब्द आया है और दोनों स्थानों पर अलग-अलग अर्थों को व्यंजित करता है जहाॅ पहले मनुपुत्रों का आशय मनुष्य के पुत्रों से है तो दूसरे का मनुवादी सोच के सवर्णों से। पहले अभागे हैं तो दूसरे सौभाग्यशाली। यहाॅ व्यंग्य भी है। कविता की भाषा सहज संप्रेषणीय है।कविता में चाक्षुष बिंब बहुत सुंदर हैं। पूरे-पूरे चित्र आॅखों के सामने उतर आते हैं, उदाहरण के लिए संत गरीबदास का यह बिंब- बकरी वाली गंगा-जमनी दाड़ी थी / लटक रहा था गले से / अंगूठानुमा ज़रा -सा टुकड़ा तुलसी काठ का / कद था नाटा, सूरत थी साॅवली / कपार पर, बाई तरफ घोडे़ के खुर का / निशान था / चेहरा था गोल-मटोल, आॅखें थी घुच्ची / बदन कठमस्त था।

यहाॅ एक बात और कहना चाहुॅगा- दलित साहित्यकार, दलित साहित्य का उद्देश्य दलित्व की मुक्ति, शूद्रत्व से मुक्ति, ऊॅच-नीच के पदानुक्रम से मुक्ति, शोषण से मुक्ति और समतावादी समाज की सृष्टि और स्थापना मानते हैं। हम पाते हैं कि 'हरिजन गाथा' कविता इन सभी उद्देश्यों से युक्त है। कुछ सीमाओं को छोड़ दें तो यह इस बात का खंडन करती है कि दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकता है या दलित साहित्य दलितों का दलितों के बारे में लिखा साहित्य है। वैसे भी ऐसा कहना उन सभी रचनाकारों को दलित मुक्ति आंदोलन से दूर कर देता है जो खुद को डिकास्ट करके इस आंदोलन में शामिल होना चाहते हैं। यह आंदोलन की मजबूती की दृष्टि से सही समझ नहीं कही जा सकती है। यह कविता दलितों के प्रति सवर्णों के व्यवहार पर चोट करने या प्रश्न उठाने तक सीमित नहीं है बल्कि उसको बदलने की दिशा भी बताती है। जबकि इससे पूर्व की दलित चेतना की कविताओं में हम पाते हैं कि उनमें वर्णव्यवस्था, अश्यपृश्यता या दलितों की दयनीय स्थिति पर केवल प्रश्न खड़े किए गए हैं। ये चाहे हीरा डोम या स्वामी अछूतानंद की कविताएं रही हों या किसी और की। इस प्रकार यह कविता एक कदम आगे की कविता है। इसमें वर्गीय और जातीय संघर्ष एक साथ चलाने की बात की गई है। एक ओर वे जहाॅ मजदूरों की एक जुटता की बात करते हैं तो दूसरी ओर जाति विरादरी की। यह कविता एक बड़े समुदाय को चेतना युक्त करके अपने स्वाभिमान और अधिकारों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। भूमिहीन मजदूरों के भीतर एक ताकत पैदा करती है। एक स्वाभिमान जगाती है। नया जोश देती है। दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचाती है। नई ऊर्जा का संचार करती है। पाठक के हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील बनाती है। इस कविता में कवि की आकांक्षा है कि दलित उठ खड़े होंगे और अपने साथ हो रहे अत्याचार-उत्पीड़न का संगठित होकर विरोध करेंगे। अंततः समता का मुद्दा समझते हुए एक समतावादी व शोषण विहीन समाज की स्थापना करेंगे। इसके लिए मौजूदा पीढ़ी को अपनी तैयारी करनी होंगी। बूद्धू, खदेरन, सुखिया, संत गरीबदास आदि को अपना-अपना योगदान देना होगा। 'अंतिम विप्लव' अपने समय पर होगा लेकिन उसकी तैयारी अभी से करनी होगी। ऐसे में दलित चेतना की कविताओं में इस कविता का जिक्र न होना थोड़ा खलता है। जबकि इसमें दलित जीवन की पीड़ा सिद्दत से व्यक्त हुई है। यह दूसरी बात है कि यह भोगी हुई पीड़ा नहीं है।

अंत में प्रसंगानुकूल एक बात और जोड़ना चाहुॅगा कि इस बात पर विचार होना चाहिए कि क्या दलित साहित्य वही होगा जो दलितों द्वारा लिखा गया हो जैसा कि अनेक दलित चिंतकों द्वारा कहा जाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि श्रेष्ठ साहित्य के लिए केवल जीवनानुभव का होना ही पर्याप्त नहीं है साहित्य के लिए विश्व-दृष्टि का होना भी ज़रूरी है।जब तक हम स्थितियों का द्वंद्वात्मक तरीके से विश्लेषण नहीं करेंगे तो हम भावुकता के शिकार हो जाएंगे। कोरी भावुकता किसी रचना को कालजयी नहीं बना सकती है। हाॅ यह अवश्य स्वीकार किया जा सकता है कि एक दलित साहित्यकार जिसके पास जीवनानुभव के साथ-साथ गहरी विश्वदृष्टि भी है तो दलित जीवन के बारे में लिखा गया उसका साहित्य गैर-दलित साहित्यकार के द्वारा लिखे गए साहित्य की अपेक्षा अधिक प्रमाणिक होगा।