बिहार की किसान जाँच कमिटी / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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फैजपुर के बाद जो असेंबलियों का चुनाव हुआ उसका उल्लेख करने के पहले, जैसा कि पूर्व में जिक्र किया गया है,बिहार की किसान जाँच कमिटी का हाल देना जरूरी है। क्योंकि उसकासंबंधफैजपुर के प्रोग्राम से है। और भी अनेक बातें हैं। पहले कह चुका हूँ कि लखनऊ कांग्रेस के समय हमारी कोशिशों के फलस्वरूप जाँच का प्रस्ताव पास हुआ था। वहाँ हमने वर्किंग कमिटी की कई बातों का खासाविरोधकिया था और हम खूब लड़े थे। मुझे याद है, लाहौर में ज्यादा सर्दी के कारण गरीब दर्शकों और प्रतिनिधियों को बड़ा कष्ट हुआ था। इसलिएगाँधीजी के जोर देने पर वहीं तय पाया कि फरवरी-मार्च में ही गर्मियों के शुरू में ही कांग्रेस हुआ करे। पाँच रुपए से एक रुपया प्रतिनिधि शुल्क भी उन्होंने ही किया और कहा कि गरीबों की कांग्रेस है। गरीब पाँच रुपए कहाँ से देंगे? मगर लखनऊ में फिर दिसंबर में कांग्रेस करने का प्रस्ताव नेताओं ने ही किया। सो भीगाँधीजी की राय से ही! प्रतिनिधि शुल्क भी पाँच रुपया कर दिया और कांग्रेस के चुने मेंबरों एवं पदाधिकारियों को खद्दर पहनना भी जरूरी किया गया।

इस पर मैंने कहा कि ठीक ही है। अब तो कांग्रेस को गरीबों से काम हई नहीं। इसीलिए तो फिर दिसंबर में होने की बात है। अब तो कौंसिल की गद्दी तोड़नेवालों का जमाना है और फरवरी, मार्च में उन्हें फुर्सत नहीं रहती! पाँच रुपए भी वही दे सकते हैं। खद्दर तो महँगा होने से गरीब पहन ही नहीं सकते! फलत: कांग्रेस धनियों और महाजनों के हाथ में जाएगी! सो भी गाँधी जी की राय से! वे अच्छे दरिद्रनारायण के पुजारी निकले! इस पर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने मुझसे धीरे से कहा कि आप भयंकर स्वामी हैं "You are a terrible swami"!

खैर, लखनऊ के बाद पटने में बिहार कांग्रेस की कार्यकारिणी की मीटिंग हुई और लखनऊ के प्रस्ताव के अनुसार किसानों के संबंध में जाँच कमिटी बनाने का प्रस्ताव तय पाया। कमिटी में कौन-कौन मेंबर रहें, जब यह बात आई तो स्वभावत: किसानों के दृष्टिकोण से मैं ही रह सकता था। मैं कार्यकारिणी का मेंबर तो था ही। मगर मेंबर होना तो जरूरी था भी नहीं। इस पर राजेंद्र बाबू ने कहा और बाकी लोगों ने उसी की हामी भरी कि आपके रहने से हो सकता है कमिटी की रिपोर्ट सर्वसम्मत न हो और हम चाहते हैं कि वह हो सर्वसम्मत। ताकि उसकी कीमत हो, उसका वजन हो। एक बात और। आपके रहने से जमींदारों की और सरकार की भी चिल्लाहट होगी कि यह रिपोर्ट तो किसान-सभा की है! अत: आप न रहें तो अच्छा हो।

मगर मुझे यह दलील समझ में न आई। रिपोर्ट सर्वसम्मत हो, यह अजीब चीज थी! ऐसा तो कहीं देखा नहीं। शायद बिहार की 'बैनामी' वाली बीमारी यहाँ भी काम कर रही हो! लेकिन मेरे अकेले ही के करते सारी रिपोर्ट किसान-सभा की कही जाएगी,यह भी निराली दलील थी! क्या मैं इतना खतरनाक और प्रभावशाली था कि बिहार कांग्रेस के आठ बड़े नेता मेरे असर में आ जाते और नौ मेंबरों की लिखी रिपोर्ट किसान-सभा की बन जाती? फिर भी देखा कि इस बात पर बहुत जोर दिया जा रहा है और अगर नहीं मानता तो शायद सारा काम ही रुक जाए।

लेकिन मुझे पता भी न चले और कांग्रेस कमिटी की रिपोर्ट छप जाए खास किसानों के बारे में, यह भी असह्य बात थी। यह कैसे होगा? न जानें क्या ऊलजलूल लिख मारा जाए? गारंटी क्या?मैंने यह भय बताया। इस पर कहा गया कि रिपोर्ट लिखने के पूर्व आपको कमिटी मौका देगी कि सारी बातों पर उसके साथ बहस कर लें। रिपोर्ट प्रकाशित होने के पूर्व भी आपको देखने तथा उसमें संशोधान सुझाने का मौका दिया जाएगा। इस पर मैंने स्वीकार कर लिया और राजेंद्र बाबू की अध्यक्षता में नौ सज्जनों की जाँच कमिटी बनी। मगर पटना,गया का कोई जरूर रहे,इसलिए हमारे सोशलिस्ट दोस्त श्री गंगा शरण भी उसके एक मेंबर बनाएगए। यह भी बात निराली थी कि एक सोशलिस्ट किसान-सभावादी के रहने पर भी अब जो रिपोर्ट तैयार होगी वह किसान-सभा की न कही जाएगी।

कमिटी ने सारे सूबे में घूम-घूम कर पूरी जाँच की। पटने में तो मैं भी कई जगह रहा। उसकी जाँच की बातें अखबारों में भी छपती रहीं। कई जगहों में बहनों और लड़कियों को बेच कर जमींदार का लगान देने के बयान किसानों ने दिए, जो अखबारों में भी छपे थे। दरभंगे में तो एक औरत ने यहाँ तक कहा कि महाराजा दरभंगा के तहसीलदार ने मुझे और मेरे ससुर को बुलाकर लगान माँगा। न दे सकने पर हुक्म दिया कि इसके कपड़े छीनकर इसे नंगी करो और ससुर की टाँग में इसकी टाँग बाँध दो! पीछे जो लोग मिनिस्टर बने उन्हीं के सामने यह बयान दिया गया! सारांश यह कि, जमींदारी जुल्म का कच्चा चिट्ठा सामने आ गया। किसानों की जो माँगें थीं वह भी साफ हो गईं।

पीछे कमिटी के मंत्री ने मुझे पत्र लिखा कि रिपोर्ट तैयार हो रही है। उसकी एक प्रति आपके पास जाएगी। मुझे आश्चर्य हुआ कि तैयार होने के पूर्व मुझे मौका क्यों न दिया गया, जैसा कि बात तय पाई थी। फिर भी दूसरे मौके को भी मैंने गनीमत समझा। लेकिन आज तक उस रिपोर्ट का दर्शन न हुआ और मैं ताकता ही रह गया! सुना है कि रिपोर्ट लिखी गई और उसकी प्रतियाँ मेंबरों के पास भेजी भी गईं! मगर मैं वंचित ही रहा! तकाजे भी किए। मगर अब तब की बात होती रही। आखिर नहीं ही छपी। इसीलिए तो मैंने फैजपुर में साफ-साफ सुना दिया था। क्योंकि जला-भुना तो था ही। और इसीलिए दो-एक हजरत ने झल्ला कर कुछ कहना भी चाहा। मगर कहते क्या? कांग्रेस के प्रस्ताव, बिहार की कार्यकारिणी के प्रस्ताव एवं अपने वचनों पर पानी फेरने और बार-बार वादाखिलाफी करनेवालों को मुँह था ही क्या कि बोलें? यदि फैजपुर की कांग्रेस के प्रस्ताव के बाद भी वह रिपोर्ट छाप देते तो भी एक बात थी। मगर सो भी न कर सके। इस प्रकार लगातार दो कांग्रेसों के प्रस्तावों को पाँव तले बेमुरव्वती से रौंदा। फिर भी गैरों को कांग्रेस के बागी कहने की हिम्मत करते हैं।

बात असल यह है कि उन लोगों ने एक बार सन 1931 ई. में भी तो जाँच की थी। मगर रिपोर्ट न छापी। क्यों? कहा गया कि सत्याग्रह छिड़ गया और रिपोर्ट छापने का मौका ही न लगा! क्योंकि बीच में ही पुलिस सब कागज पत्र उठा ले गई जो फिर वापस न मिली। और जब दोबारा कांग्रेस के प्रस्तावों के अनुसार जाँच हुई तब? तब तो पुलिस का बहाना था नहीं। फिर क्या बात थी? बात तो बहुत बड़ी थी और है। बिहार के कांग्रेसी लीडर जमींदार और जमींदारों के पक्के आदमी हैं। एक-एक के बारे में गिन-गिन के कहा जा सकता है। और वे आखिर रिपोर्ट लिखते भी क्या? जमींदारी प्रथा के चलते जमींदारों ने इतने पाप और अत्याचार किसानों पर किए हैं और अभी भी करते हैं कि इन्सान का कलेजा थर्रा जाता और मनुष्यता पनाह माँगती है। अब अगर वे सारी बातें लिखी जातीं तो अपनी, अपने संबंधियों की और अपने दोस्तों की ही छीछालेदर करनी पड़ती। फलत: अपने ही मुँह में कालिख पोतना होता! अगर ये बातें न लिखते तो किसानों में और बाहरी दुनियाँ में मुँह दिखाना असंभव हो जाता! साथ ही, असेंबली के चुनाव में कांग्रेस के वोट भी किसान नहीं ही देते। फिर मंत्रिमंडल कैसे बनता? यही दोनों ओर की आफत थी जिसने उनकी कलई खोल दी।

एक बात और भी थी। गो कांग्रेस ने निश्चय नहीं किया था। फिर भी भीतर-ही-भीतर मंत्रिमंडल बनाने की सारी तैयारी हो चुकी थी। ऐसी दशा में यदि उस रिपोर्ट में यह साफ सिफारिश होती कि किसानों के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए तो वे लोग बंधन में पड़ जाते। क्योंकि अगर केवल छोटी-मोटी सिफारिशें रखते तो किसान लोग उस रिपोर्ट को उठा कर लीडरों के मुँह पर ही बेमुरव्वती से फेंक देते। और अगर किसानों की मनचाही सिफारिशें करते तो किसान तो खुश होते और वोट भी देते। मगर पहले से ही भावी मंत्रियों का हाथ बँध जाता। फिर तो वह सभी बातें पूरा किए बिना गुजर न होती।

लेकिन ऐसी दशा में 'किसान-जमींदार' समझौता के नाम से जमींदारों से इन नेताओं की गुटबंदी और गँठजोड़ा कैसे होता?इसीलिए सोचा गया कि कुछ मत लिखो। सारी चीजें गोलमटोल रखो। चुनाव की घोषणा में राजबंदियों की रिहाई की बात साफ लिखने के कारण ही तो इस्तीफे की नौबत आ गई! किसानों की बातों को लेकर तो प्रलय ही मच जाती! किसानों से जो वोट लेना था। सो तो काम चुनाव के पहले जाँच करने से होई गया। अब रिपोर्ट छाप कर नादानी क्यों की जाती?