बेचैनियों से भरे अंनंत इंतजार का गीत- तुम पुकार लो / नवल किशोर व्यास

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बेचैनियों से भरे अंनंत इंतजार का गीत- तुम पुकार लो


1969 के साल संगीतकार और गायक हेमंत कुमार की फिल्म कम्पनी गीतांजलि द्वारा असित सेन के निर्देशन में फिल्म खामोशी परदें पर आई। खामोशी हर मानक पर अपने समय से बहुत आगे की फिल्म थी। संगीत से लेकर अपने कंटेट तक, रूपक से लेकर किरदार की डिजाइन, हर बात में अपने जमाने का बहुत मॉडर्न सिनेमा था और "तुम पुकार लो" इस प्यारे चितेरे प्रोजेक्ट का एक बेहद खास "मिदास" टच। वो रंग, जिसके बिना खामोशी की हर बात बेमानी है, बेनूर है। वो रंग, जिससे ही शायद सबसे ज्यादा हमें खामोशी याद आती है। 


खामोशी बंगाली उपन्यासकार आशुतोश मुखर्जी के लिखे उपन्यास "नर्स मित्र' पर बनाई फिल्म थी। फिल्म में वहीदा रहमान एक नर्स है जो प्यार की चोट से डिप्रेशन में गए मरीजो के लिये बने हाॅस्पिटल में काम करती है। हाॅस्पिटल के मालिक के कहने पर वो देव नाम के आदमी जिसका किरदार धर्मेंद्र ने निभाया, से प्यार का अभिनय कर उसे डिप्रेशन से बाहर लाती है और बाद में प्रेम का नाटक करते करते उसे सच में देव से प्यार हो जाता है। कालिदास की मेघदूत की किताब पर अपने "प्यार" को अपना "प्रणय" बताने उसके घर गई है जहां उसे पता लगता है कि वो वापिस उसी लड़की से शादी कर रहा है जिसके कारण वो डिप्रेशन में गया था। दिल में उठी हुक के साथ इसी उदास और मायूसी भरी सिचुवेशन में ये गाना बजना शुरू होता है। सिचुवेशन की खूबसूरती यह भी है कि नायिका के दर्द की आवाज नायक बनता हैै माने जो कुछ नायिका के भीतर चल रहा है उसे स्वर नायक देता है जबकि फिल्म में नायक की जिंदगी में फिलहाल ऐसा कोई रंज या अफसोस है नही जिसके लिए वो ऐसा गा रहा है। ब्लैक एण्ड व्हाईट धर्मेंद्र चैक का बुशर्ट पहने कैमरे की और पीठ किये हेमंत दा की मदहोश करती नशीली हमिंग में एक उदास पर रुहानी अहसास जगा रहे है। हिन्दी सिनेमा के फाॅल्स बहुत बार खूबसूरती बनकर भी सामने आते है जैसे इस टैक्नीकल फाॅल्स को अपने आभा में चमत्कृत किये हेमंत दा और धर्मेंद्र। ब्लैक एण्ड व्हाईट धर्मेंद्र। सुशील, सुसंस्कृत और पौराणिक से। अनपढ, अनुपमा, बंदिनी, दिल ने फिर याद किया वाले ब्लैक एण्ड व्हाईट धर्मेंद्र। तकनीक से हिन्दी सिनेमा में रंग क्या आयें, चितेरे धर्मेन्द बेरंग हो गयें। उनकी गंभीरता और रोमांस जाता रहा और ढिशुम ढिशुम परवान चढ़ता गया। खैर, गाने की सिग्नेचर ओपनिंग ट्यून के साथ हेमंत दा की गुनगुनाहट वाली हमिंग से गाने की टोन सैट होती है जिसका जादू पूरे आगे तक कायम रहता है। 

तुम पुकार लो/ तुम्हारा इंतजार है/ तुम पुकार लो

ख्वाब चुन रही है रात/ बेकरार है / तुम्हारा इंतजार है 

होंठ पे लिए हुए दिल की बात हम/ जागते रहे और कितनी रात हम/ रात बेकरार थी, बेकरार है/ तुम्हारा इंतजार है।


ये गीत बेचैनियों से भरे अंनंत इंतजार का गीत है। हेमंत कुमार की आवाज में लंबी उदासियों की अनसुनी प्रार्थनाये दर्ज है। नैराश्य में डूबने को तैयार हो चुके मन की छटपटाहट है। अधूरे रतजगों का आलाप है। ये उस अवस्था का गीत है जब आप अपना सब कुछ किसी को सौपने की तैयार हो और बस उसकी एक हां की जगमगाहट को सुनने को बेकरार हो। इधर उसकी एक हां हो और आपको सांस मिलें। लंबे जीवन के बीच किसी एक निश्चित पल पर रूकने की इच्छा लियें उम्मीदों भरा ऐसा मन है जो अनंत यात्रा से भटक आने से आनिंद है और अब उसे वाजिब एक ठौर की तलाश है। मिले न मिले, ये दीगर बात। 


हेमंत कुमार की आवाज हिन्दी सिनेमा की सबसे अलग आवाज होगी। इतनी अलग कि किशोर, मुकेश, मन्ना डे और रफी की अद्भूत प्रतिभा और लोकस्वीकार्यता के बावजूद अपने वजूद और क्लास के साथ कायम रही। जिन गानो को हेमंत दा ने अपने कंठ दिये, वो उन्ही के लिये बने थे। उनके बिना वो गीत अधूरे रहते। उनका गला पवित्रता लिए था। गायकी का नोट इतना मंद पर सधा हुआ था कि आपको यकीन हो जायें कि अगर हाड मांस के इस शरीर में बसी अंतरआत्मा का स्वर कोई होता होगा तो शायद वो ऐसा ही होता होगा। रवीन्द्र संगीत से सराबोर गुनगुनाहटो से भरा स्वर। ऐसा स्वर जो ना पूरा खुले और ना दबे। प्यार के मानिंद। शायद पूरा प्यार ही। 

खामोशी की कहानी और मूल कंटेट बहुत धाकड था। राधा बनी वहीदा रहमान को जब देव के बाद राजेश खन्ना को डिप्रेशन से बाहर लाने के लिये फिर से कहा जाता है तो वो चीख चीख कर मना कर देती है कि वो अब प्यार की एक्टिंग नही कर सकती। प्यार का अभिनय करना और फिर प्यार के अभिनय को करते करते ही अचानक प्यार का उपजना, फिर इस असली और नकली, अभिनय और हकीकत के बीच भावनात्मक रूप से जूझना काफी साहसिक विषय था। प्यार का अभिनय और हकीकत के बीच की कश्मकश को लेकर लाभशंकर ठक्कर ने एक बहुत मनौवैज्ञानिक नाटक लिखा था- पीला गुलाब और मैं। एक अभिनेत्री की कहानी जो बहुत छोटी उम्र से मंच पर प्रेम का अभिनय कर रही है। उस समय से, जब उसे प्रेम का ककहरा भी नही पता होता है फिर भी लोग कहते है कि वाह, क्या गजब नेचुरल एक्टिंग की है और जब वो सचमुच में किसी के प्रेम में होती है तो उसे लगता है कि ये सब तो वो ही है जो कि वो अभिनय में कर रही थी। इसमें नया क्या है। ये भाव तो वो मंच पर तब भी जी रही थी जब वो इसके बारे में नही जानती थी, एकदम फीलिंगलैस थी, तो अब जो वास्तव में कर रही है वो क्या है। अभिनय या हकीकत। खामोशी का मूल कंटेट यही था। बाद बाकी इसके आस-पास। वैसे तो रिश्तों में प्यार की हकीकत या प्यार का अभिनय हमेशा का ही विषय है पर अभी की काल और परिस्थितियों में ये और ज्यादा प्रासंगिक है। प्रेम जटिल विषय है। इस पर लंबे आख्यान लिखे जा सकते है।