बोरसी की आग की तरह जल रहा है मेरा दिल / संतोष श्रीवास्तव

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आर्य भारत में जिस जनजाति के रूप में आए थे उसका स्वरूप ग्रामीण था। केवल पुरुषों के इस समूह में एक भी स्त्री नहीं थी। नदी किनारे, जंगलों, पर्वतों, घाटियों में अपने पशुओं सहित ये निवास करने लगे और इन्होंने वहाँ की आदिवासी लड़कियों से शादी करके परिवार बसाए। उन्होंने आदिवासी पुरुषों को अपना गुलाम बनाया और पितृसत्तात्मक परंपरा का निर्वाह करने लगे। आदिवासी समाज बदलता चला गया।

भारत की पूरी आबादी का आठवां हिस्सा आदिवासी है। हर आठ भारतीय में एक व्यक्ति आदिवासी है। आदिवासी महिलाओं का सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामयिक परिवेश में महत्त्व कहीं अधिक है। फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में इनका प्रतिशत शून्य है। ये जागरूक हों तो कैसे? आज पूरे भारत में खासकर मध्य प्रदेश में आदिवासी स्त्रियों की स्वायत्तता और संसाधनों पर अधिकार की बात उठ रही है। आदिवासी महिला प्रतिनिधि समय-समय पर आदिवासी औरतों के हित के लिए आंदोलन करती रही हैं और अब तो इनकी दस्तक न्यूयार्क तक पहुँच गई है। यह बात दीगर है कि अपने ही देश में ऐसे आंदोलन इनकी रक्षा के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के पांचवें महिला विश्व सम्मेलन के दरवाजे पर इनकी दस्तक ने हलचल तो मचा दी है। सप्ताह भर चले इस सम्मेलन को ये आदिवासी महिला प्रतिनिधि सम्बोधित नहीं कर पाईं लेकिन उन्हें इस बात की पूरी उम्मीद है कि अब दुनिया उनकी दिक्कतों और मुद्दों पर अवश्य ध्यान देगी। पचास देशों से आई ये सौ आदिवासी स्त्रियाँ न्यूयार्क में एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय आदिवासी महिला संगठन के गठन के लिए जमा हुईं जो उन्हें महिलाओं की सामान्य समस्याओं से निपटने और उनकी आवाज को मजबूती प्रदान करने के लिए एकजुट होकर काम करेगा।

क्या है आदिवासी महिलाओं की समस्याएँ? औरत चाहे महानगर या नगर की सभ्य, पढ़ी-लिखी जागरुक औरत हो या जंगलों में बसी, कबीलों में बंटी निरक्षर आदिवासी औरत... पुरुष की सोच में कोई फर्क नहीं है। वहाँ भी कन्या भ्रूण की जांच करा गर्भ गिरा देने की परंपरा चल पड़ी है। अरुणाचल प्रदेश राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष जरंजुल एते ने हाल ही में प्रकाशित स्टेट्स आॅफ वुमेन इन ट्राइबल अरुणाचल नामक रिपोर्ट में कहा है कि राज्य में आज भी आदिवासी बाल विवाह, बलात्कार की शिकार महिला को कैद में रखते हुए गर्भवती करना और बहुविवाह के मामले सामने आ रहे हैं। अगर आज भी कोई महिला घरेलू हिंसा या अन्य कारण से परेशान हो जाती है तो भी वह तलाक नहीं लेती... शायद उसकी सुरक्षा के लिए कोई ठौर बाकी ही नहीं बचा है। पैतृक संपत्ति में कहीं भी उसका हिस्सा नहीं तो जाएँ कहाँ? उसके अपराधों के लिए आदिवासी समाज में सजा का तरीका भी लोमहर्षक है। बतौर दंड उसके साथ बलात्कार करने की सजा दी जाती है चाहे औरत विवाहित ही क्यों न हो। उसके घर वाले विरोध भी नहीं करते क्योंकि यह तो उनकी परंपरा है।

आदिवासियों में और कई जनजातियों में आज भी मातृसत्ता ही है। पूर्वोत्तर के पर्वतीय अंचलों में खासी, गारो और जयंतिया जनजाति तथा इंफाल मणिपुर आदि में स्त्री ही अनइसासन को चलाती है। सामाजिक सत्ता स्त्री के हाथों में ही है। इनका गोत्र भी माँ के नाम से ही चलता है। कमोबेश यह स्थिति पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी है। स्त्रियों का यहाँ वर्चस्व है और सारी संपत्ति पर बेटियों का अधिकार है फिर भी फैसलों के मामलों में परिवार मामा और पिता पर निर्भर रहते हैं। बाज़ार पर स्त्रियों का ही अधिपत्य रहता है। बाज़ार को माइती बाज़ार यानी माँ का बाज़ार कहते हैं। सुबह होते ही स्त्रियाँ सिर पर सब्जी, कपड़े या अन्य सामान के टोकरे रखे बाज़ार जा पहुँचती हैं। अमीर और गरीब घरों की औरतें माइती बाज़ार में सौदा सुलुफ करने आती हैं।

देश के अन्य राज्यों की जनजातियों या आदिवासियों में पितृप्रधान सत्ता ही है। लड़कियों को इस बात की आजादी है कि वे जब तक चाहें पिता के घर रह सकती हैं। विधवा स्त्री का भरण-पोषण पिता या भाई ही करता है। इनके अपने कानून हैं, अपनी परंपराएँ हैं। संथाली, मुंडा, उरांव, खड़िया जनजाति में पिता कि संपत्ति पर बेटी का कोई अधिकार नहीं रहता। स्त्री पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कानून सख्त किए गए हैं जैसे कि आदिवासी स्त्री घर का छप्पर नहीं छा सकती, खेतों में हल नहीं चला सकती। यदि कोई स्त्री ऐसा करती है तो उसे अपने कंधों पर हल रखकर जमीन जोतनी पड़ती है और पशुओं की नांद में से भूसा खाना पड़ता है।

संथाल, परगना के आदिवासियों में जो कि संथाली जनजाति कहलाते हैं, भी ऐसा ही रिवाज है। उनका मानना है कि यदि स्त्री हल जोतती है तो उस साल अकाल पड़ जाता है। छप्पर छाती है तो मकान की छत पर पवित्र आत्मा बोंगा का निवास है, अत: वे शाप भी दे सकते हैं जिससे फसल नष्ट हो सकती है। साथ ही छप्पर पर सांप-बिच्छू भी बसेरा कर सकते हैं। औरतों को जाहरें नामक वृक्ष की डालियाँ तोड़ना या उस पर चढ़ना मना है। संथालों की मान्यता है कि इस वृक्ष पर भी बोंगा का निवास है। औरतों के चढ़ने से वह अपवित्र हो जाता है और बोंगा नाराज होकर वर्षा रोक देते हैं, अकाल पड़ जाता है। औरतें पंचायत में नहीं बैठ सकतीं। उनका मंदिर में प्रवेश भी कई शर्तों पर आधारित है। उनकी निगाह में ये सारे नियम कानून परंपरा और धर्म की रक्षा के लिए ही बनाए गए हैं। औरतें धनुष्य-बाण का स्पर्श तक नहीं कर सकतीं। धनुष बाण शादी के समय केवल एक बार लग्नमंडप में बतौर नेग उन्हें स्पर्श कराया जाता है। पहली और अंतिम बार। शायद उन्हें भय है कि औरतें कहीं उनके ही अत्याचारों के खिलाफ इसका इस्तेमाल न कर लें। मुंडन संस्कार के समय भी औरतें उस्तरे को हाथ नहीं लगातीं। यदि किसी औरत ने उस्तरा छू लिया तो उसे मुखिया को पश्चाताप के रूप में भेंट देनी पड़ती है।

संथाल जनजाति में औरत दुबारा शादी तो कर सकती है पर बेहद सादे तरीके से जबकि पुरुष चाहे जितनी शादी करे धूमधाम से ही करता है। औरत के दुबारा शादी करने पर कुछ रीतिरिवाज बदल जाते हैं। पुरुषों के साथ ऐसा नहीं है। औरतों का अपने पिता कि संपत्ति पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है। उसके पैदा होते ही जमीन का एक टुकड़ा उसके नाम कर दिया जाता है। उसी से उसका भरण-पोषण और विवाह का खर्चा निकलता है। विवाह के बाद वह जमीन भाइयों के नाम कर दी जाती है। अगर भाई नहीं है तो रिश्ते के भाई वह जमीन ले लेते हैं।

उड़ीसा के गंगम जिले में गोडापट्टी जाति में औरतों को बेचने की प्रथा है। भूख, लाचारी और आर्थिक संकट के समय आदिवासी अपनी औरतों को या तो बेच देते हैं या गिरवी रख देते हैं। उड़ीसा के अंदरूनी इलाकों जैसे फूलबनी आदि में बसे आदिवासी आज भी मुट्ठीभर चावल के लिए मोहताज हैं। आदिवासियों में पति की मृत्यु के पश्चात औरत अपने देवर से शादी कर सकती है। यदि देवर अविवाहित है तो उसे पहले किसी अन्य स्त्री से विवाह करना होता है तब वह अपनी विधवा भाभी से विवाह कर सकता है। दापुर के आदिवासी सरपंच की चौदह बीवियाँ हैं। मुसीबत के समय वह अपनी पत्नी को बेच देता है। आदिवासी अपनी लड़कियों को रुपये के लालच में कभी-कभी ऐसे दलालों के हाथ बेच देते हैं जो उन्हें वेश्याचल तक पहुँचा देते हैं। कई लड़कियाँ योगिनी बनाकर मंदिरों में रखी जाती हैं यानी धार्मिक वेश्याएँ बन जाती हैं। आदिवासी समाज में स्त्रियों को लांछित करना, उनका अपमान करना आम बात है। उन्हें डायन, बिसाही जैसे शब्दों से लांछित किया जाता है। पहले इसे महज आदिम परंपरा, अंधविश्वास या अज्ञान की संज्ञा दी गई थी लेकिन अब मामला कुछ और नजर आता है। झारखंड में डायन बताकर आदिवासी स्त्रियों की हत्या का सिलसिला बेरोकटोक जारी है। इस मामले में राजनैतिक, सामाजिक संगठनों की संवेदनहीन चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। डान कहकर उन्हें नीचा दिखाने वालों की मंश उनकी संपत्ति हड़पना, बलात्कार, यौन शोषण ही सिद्ध करती है। मर्द अपने कार्यों की असफलता जैसे कि बीमारी, नौकरी, तरक्की में रुकावट, क्लेश आदि का दोषी डायन को बताकर हाथ झाड़ लेता है। जैसे किसी स्त्री पर देवी आती है वैसे ही डायन भी किसी निरपराध स्त्री पर आ गई है, ऐसा ऐलान गाँव के ओझा तांत्रिक कर देते हैं और लोग उसे पत्थर, लोहे की छड़ों से मार-मारकर उस स्त्री की जान ले लेते हैं। हालांकि रांची में डायन प्रथा को बंद करने के लिए एक सेमिनार आयोजित किया गया था। इस आयोजन में बुद्धिजीवियों, मानवशास्त्रियों और पुलिस अधिकारियों ने एक स्वर से डायन हत्या के सामाजिक, आर्थिक कारणों की पड़ताल कर ओझा, तांत्रिकों को ही दोषी बताया और प्रशासन से कड़े कदम उठाने की मांग की पर यह मात्र कागजी दौड़ ही सिद्ध हुई।

यूं आदिवासी समाज में कुछ परंपराएँ औरतों के हित में भी हैं। उन्हें दहेज के लिए प्रताड़ित नहीं किया जाता। शादी और तलाक को लेकर भी उनके अपने अधिकार हैं। वे मर्दों के साथ खेती, जंगल, पशुपालन आदि कामों में बराबरी का हिस्सा लेती है। लक्षद्वीप की जनजातियों में संपत्ति की स्वामी स्त्रियाँ ही होती हैं। इनका समाज महिला प्रधान समाज है और वंश माता के नाम से चलता है। विवाह के बाद कन्या ससुराल नहीं जाती, पति उसके घर विदा होकर आता है। पत्नी के गर्भवती होने पर पति को नौकरी, धंधे से अवकाश लेकर उसकी सेवा टहल करनी पड़ती है।

बिहार, मध्य प्रदेश के इलाकों में आदिवासी घोटुल की तर्ज पर एक प्रथा का पालन करते हैं वह है दावा बूंदी। घोटुल एक ऐसा आदिवासी क्लब है जिसमें युवक-युवतियाँ अपना मनपसंद जीवनसाथी चुनते हैं और बुजुर्गों से अनुमति लेते हैं। शादी के बाद वे मिलजुलकर कमाते हुए सूखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हैं। स्त्रियों को तलाक देने, दूसरी शादी करने का पूरा हक है। वहाँ सती प्रथा जैसी कोई प्रथा नहीं है। घोटुल जैसी ही प्रथा है दावा बूंदी जिसमें पत्नी द्वारा किसी अन्य पुरुष को अपना लेने से पूर्व पति को विवाह में खर्च होने वाली रकम की भरपाई की जाती है। यह रकम उसका होने वाला पति उपलब्ध कराता है। गोंड जाति के आदिवासियों में इस प्रथा से आज भी पति-पत्नी के बीच सम्बंध-विच्छेद होते हैं। मामली बातों को लेकर पत्नी अपने पति को अलविदा कह देती है। बस उसे दावा बूंदी प्रथा के अनुसार अपना फैसला पंचों को बताना होता है। पंच पूर्व पति को विवाह में आए खर्च का भुगतान करवाकर एक बैठक में किसी फलदार वृक्ष की लकड़ी को दोनों पक्षों से तुड़वा देते हैं और मान लिया जाता है कि अब इनके बीच तिनके के बराबर भी रिश्ता नहीं रहा।

पूरे विश्व में आदिवासियों के साथ करीब-करीब एक जैसा व्यवहार किया जाता है। अमेरिका में रेड इंडियन आदिवासियों में बेवफा पत्नी को पानी में डुबोकर मार दिया जाता है। पाकिस्तान के मुल्तान जिले के दूरदराज इलाके में मास्तोई जाति की आदिवासी महिला के साथ एक ग्यारह वर्षीय आदिवासी युवक को धूमते देख आदिवासी परिषद ने दिल दहला देने वाला दंड सुनाया। उसने उस युवक की अठारह वर्षीय बहन के साथ चार व्यक्तियों को बलात्कार करने की आज्ञा दी। दोनों भाई-बहन गुर्जर जाति के थे। दंड सुनाए जाने के बाद युवती को एक झोपड़े में ले जाकर उसके साथ बलात्कार किया गया जबकि झोपड़े के बाहर मास्तोई जाति के सैकड़ों लोग हंसते हुए प्रसन्नता जाहिर करते रहे। पाकिस्तान में आदिवासी जातियों के बीच न्याय की ऐसी ही क्रूर परंपराएँ हैं। आदिवासी कबीलों में जानवरों की चोरी, कबाइली रंजिशों, हत्याओं और अवैध सम्बंधों के खिलाफ दंड का यही प्रावधान है। निर्दोष औरत दंड देने के लिए मोहरे की तरह इस्तेमाल की जाती है। आॅस्ट्रेलिया के मौरी आदिवासियों में कई साल पहले बूढ़ी औरतों की हत्या कर दी जाती थी। उनका मानना था कि अशक्त बूढ़ी औरतें किसी काम की नहीं होती। आदिवासी पूरी तरह शिकार पर निर्भर थे। जिस दिन उन्हें शिकार नहीं मिलता वे इस बर्बर प्रथा का निर्वाह करते हुए बूढ़ी औरत को मारकर खा जाते थे। कैलीफोर्निया में हवाई द्वीप समूह में पोलिनिशियन आदिवासी रहते हैं। आदिवासी मुखिया बहुविवाह करता है। उसकी आठ से दस की संख्या में पत्नियाँ जमीन पर सोती हैं और वह खुद खाट पर सोता है। रात्रि में उसका जिस स्त्री पर मन आता है उससे संभोग करता है और बाकी की पत्नियाँ उसे संभोग के लिए उत्तेजित करती हैं।

भारत में आदिवासियों के त्यौहार और धार्मिक परंपराएँ हिन्दू धर्म से अलहदा हैं। आदिवासी विवाह में साल वृक्ष से बनाया गया स्तंभ मंडप के द्वार पर सजाया जाता है। साल और मोहा वृक्षों की वेदी पर ही दूल्हा बैठता है। यह आवश्यक माना जाता है। कई आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपना लिया है। उनका विवाह चर्च में होता है। विवाह के समय नृत्य और शराब का आयोजन वे नहीं करते।

आदिवासियों के समाज में औरतों की जो स्थिति पहले थी अब वह नहीं रह गई है। उन्हें नीची दृष्टि से देखा जाता है। संपत्ति पर उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। धार्मिक मामलों में उन्हें बाहर रखा जाता है। निर्णय लेने में भी उनकी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं है। आदिवासी आंदोलनों में औरतों की काफी सक्रिय भूमिका रही है लेकिन इसके बावजूद आदिवासी महिलाओं का कोई विशेष नेतृत्व नहीं रहा। हालांकि दण्डकारण्य में तेंदू पत्ते के व्यवसाय को लेकर, बांस के व्यवसाय को लेकर श्रमिक महिलाओं ने शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की। ऐसे व्यवसायों में श्रम शोषण के साथ-साथ वनकर्मियों और पुलिस द्वारा उनका यौन शोषण भी हुआ। औरतों के प्रयत्न से ऐसे शोषण में अब कमी आई है। शोषण, दमन के खिलाफ मालवा मध्य प्रदेश के कुक्षी इलाके की आदिवासी औरतों ने भी विद्रोह किया। प्रशासन ने इन औरतों पर आतंकवादी होने का इल्जाम लगाकर उन्हें कुक्षी छोड़ने पर विवश किया... अब इन आदिवासी औरतों के साथ कई समाज सेविकाएँ भी जुड़ गई हैं और मामला जोर पकड़ रहा है। शोषण अपनी हद से गुजर रहा है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके में वनकर्मियों ने तेरह आदिवासी महिलाओं को निर्वस्त्र कर उनकी पिटाई की। इनका अपराध था कि इनके परिवारों ने वनभूमि पर अतिक्रमण कर अपने झोपड़े बना लिए थे। जब वनकर्मी इस अतिक्रमण को हटाने गए तो इन स्त्रियों ने उनका विरोध किया था। बया कोसमसरा गाँव की इन अशिइक्षत और निर्बल आदिवासी स्त्रियों की निर्वस्त्र कर पिटाई करना वनकर्मियों की कुंठा का एक शर्मनाक उदाहरण है। ऐसे कामों में क्या प्रशासन... नेताओं का सहयोग नहीं? ये दंडित क्यों नहीं किए जाते? अपराध के बावजूद इन पर कोई कार्यवाही नहीं? शाहपुर में 500 लोगों की मौजूदगी में आदिवासी महिला इसलिए नीलामी पर चढ़ा दी गई क्योंकि उसने 551 रुपए का पंचायत द्वारा लगाया गया जुर्माना नहीं भरा था। एक आदिवासी गर्भवती स्त्री को कपड़े फट जाने की हद तक बल्कि करीब-करीब निर्वस्त्र कर इसलिए पीटा गया, पेट पर लातें मारी गईं क्योंकि न तो उसने जुर्माना भरा था और न नीलामी पर चढ़ने को तैयार थी। मध्य प्रदेश के ही खंडवा जिले के मांडव गाँव में हुए भील आदिवासी सम्मेलन में तीस आदिवासी औरतों की नीलामी की गई। इन्हें जबरदस्ती इनके घरों से उठवा कर इसलिए नीलामी पर चढ़ाया गया क्योंकि इन्होंने अपनी जाति के बाहर विवाह किया था। इन महिलाओं में से एक डिप्टी रेंजर की पत्नी भी थी। इन भील महिलाओं की खरीद-फरोख्त समाज के रहनुमाओं के सामने बाकायदा पांच से ग्यारह हजार रुपयों तक हुई।

आदिवासी क्षेत्रों में सैनिकों एँ पुलिस बल का दमन और आतंक दिनोंदिन बढ़ रहा है। अर्ध-सैनिक बल के जवान छापे मारने के नाम पर नादान बच्चियों तक के गालों को जलती हुई सिगरेट से दाग देते हैं। उन्हें भद्दी गालियाँ देते हैं। उनके यौनागों से छेड़छाड़ करते हैं, बलात्कार की कोशिश करते हैं। ऐसे दमन और आतंक के क्षेत्रों की लड़कियाँ, औरतें जंगल जाने से घबराती हैं।

आदिवासियों में औरतों को लेकर कुछ ऐसी कहावतें मशहूर हैं जिनमें पुरुषों का उनके प्रति हीन दृष्टिकोण प्रगट होता है। जैसे-औरत पुरानी बाड़ की तरह बदल देने के योग्य है, कुत्तों और औरतों के भोंकने से क्या फर्क पड़ता है, औरतों की अक्ल गाँव के पनघट से आगे नहीं जाती, औरतों और केकड़ों का कोई धर्म नहीं होता वगैरह... मिजोरम की आदिवासी मिजो कवयित्री पिहमुअकी को इसलिए जिंदा दफना दिया गया कि अगर यह स्त्री इस तरह सुंदर गीतों, कविताओं की रचना करती रहेगी तो उनके लिए क्या बचेगा? एक अन्य मिजो कवयित्री ललथेरी का प्रेम चलथंगा नाम के गैर आदिवासी से हो गया। ललथेरी के भाइयों ने चलथंगा का सिर कलम कर दिया। आहत ललथेरी ने मुखिया के घर के सामने अपने दु: ख का बयान किया। सुनवाई न होने पर वह पागलों की तरह अपने कपड़ों को फाड़ने लगी। गले की माला तोड़ डाली। आंगन में लेटकर वह विलाप करने लगी अपने संग हुए अत्याचार का-मैं कपड़े नहीं पहनूंगी मां / मेरा प्रिय ठंडा होकर गहरे नीचे लेटा है / कितने विचारहीन हो तुम बाबा, मां / अपने आंगन में चलथंगा का सिर स्थापित किया।

दारपोंगी भी कवयित्री थी। उसके रचे दोहों में विद्रोहियों के स्वर मुखर होते हैं।

तेजी से उभरी झारखंड की आदिवासी संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल की कविताओं में सचमुच नगाड़े पर पड़ती चोट का आर्तनाद है। उसकी कविता बिटिया मुर्म के लिए शंखनाद है जैसे-उठो कि अपने अंधेरे के खिलाफ उठो / उठो, अपने पीछे चल रही साजिश के खिलाफ / उठो कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो / जैसे तूफान से बवंडर उठता है / सोचो, तुम्हारे पसीने से पुष्ट हुए दाने एक दिन लौटते हैं। तुम्हारा मुंह चिढ़ाते तुम्हारी ही बस्ती की दुकानों पर / कैसा लगता है तुम्हें जब / तुम्हारी ही चीजें तुम्हारी ही पहुँच से दूर होती दिखती हैं?

वैसे तो आदिवासी स्त्रियाँ सदियों से अपने प्रति हो रहे शोषण के खिलाफ लड़ रही हैं। अब गैर-सरकारी संस्थाएँ भी इन्हें सहयोग दे रही हैं। नारी जागरुकता आंचलिक इलाकों तक पहुँच गई है और इसका शंखनाद करने में वे पीछे नहीं हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में आदिवासी महिला कॉमरेड बुचक्का आदिवासी महिलाओं के हित की संस्था महिला संघम की अध्यक्षा हैं। उसने कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा है जो धीरे-धीरे जंगल, पहाड़ तक पहुँचकर आदिवासियों के द्वार खटखटा रहा है। नई सोच और संस्कृति के प्रति आवाहन कर रहा है। दण्डकारण्य में कई स्त्रियाँ अपनी जान हथेली पर लेकर आदिवासी महिलाओं को संगठित कर उनका मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों के जवानों के अत्याचार के विरुद्ध कमर कस ली है आदिवासी महिलाओं ने। ये सूरज की वे किरणें हैं जो शबनम की बूंदों को मोती-सा चमकाने की जिद्द ठाने हैं।