भाग - 1 / मेरे मुँह में ख़ाक / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

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किताबें पढ़ने का मेरा अपना तरीका है।

मैं बहुत अच्छी और बहुत खराब, दोनों तरह की किताबें उतनी ही रुचि और आनंद से पढ़ता हूँ (इनमें धर्म की परीक्षा लेने वाली भयंकर बोर किताबें शामिल नहीं है।) मेरे इस तरीके या आदत, या कह लें कि फिलॉसफी के पीछे जायज कारण हैं। कारण यह कि एक लेखक के तौर पर कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना - हर विधा की किताब अंततः मुझे व्यंग्य लिखने में मदद करती है, पहले से बेहतर रचनाकार बनाती है। खराब किताब यह सिखाती है कि किस तरह का मत लिखना। हर खराब किताब को मैं बेहद गहराई से यह समझने के लिए पढ़ता हूँ कि कोई खराब चीज लिख कैसे लेता है? वे गड़बड़ियाँ मेरे लेखन में तो नहीं? हैं तो कैसे ठीक करूँ? ...और अच्छी किताब तो ईश्वर की कृपा की तरह ली जानी चाहिए। एक छोटी-सी अच्छी रचना ही अपनी विधा का सारा सौंदर्यशास्त्र समेटे रहती है। इसे पढ़कर न जाने कितना सीखने को मिलता है। परंतु दुर्भाग्य की बात यही है कि अच्छी रचनाएँ और अच्छी किताबें इतनी दुर्लभ होती हैं कि कभी-कभार ही साहित्य के आकाश पर क्षणिक कौंध की तरह प्रकट होती हैं। यह किताब उस दुर्लभ कौंध की तरह ही है।

मुश्ताक़ साहब की 'खोया पानी' किताब के विमोचन के समय का वाकया है। दिल्ली में विमोचन था। मुझे भी बोलने को बुलाया था 'तुफ़ैल' ने। मैंने अपनी समझ से एक जाना माना, बेहद मासूम सा सत्य अपने भाषण में कह दिया कि हिंदी में हास्य की वैसी मजबूत और अद्भुत परंपरा नहीं है जैसी कि उर्दू में है। इस बात को सुनकर, उसी कार्यक्रम में अन्य कारण से उपस्थित एक स्वनामधन्य वरिष्ठ व्यंग्यकार नाराज हो गए और बाद में कहते रहे कि हिंदी में हास्य की जो सशक्त परंपरा है, उसको नजरअंदाज करने की भूल कर ऐसी बातें कहना कहाँ तक उचित है? वे इसे हिंदी-उर्दू भाषा का दंगल बना बैठे। उन्हें कतई मंजूर नहीं था कि उर्दू इस प्रकार हिंदी को किसी भी क्षेत्र में चित्त कर दे। भाषा को सांप्रदायिक सीमाओं पर जाकर बाँधने और साधने का यह खेल वे ही समझें, जिन्हें इसकी समझ है। हम तो हर अच्छी रचना के प्रेमी हैं - वह हिंदी में हो, उर्दू में, किसी अन्य भाषा में। वैसे मैं तो उसी दिन के बाद से हिंदी में हास्य की इस सशक्त परंपरा को सब जगह, खोजता फिर रहा हूँ जिसका जिक्र उन्होंने किया था। मिली ही नहीं क्योंकि है ही नहीं और यह बात इतनी ही सत्य है जितनी यह बात कि हिंदी में सशक्त व्यंग्य की जो परंपरा शरद जोशी, परसाई, श्रीलाल शुक्ल, रवींद्रनाथ त्यागी, लतीफ घोंघी आदि ने डाली है, वैसी अजस्र तथा शुभ्र तंज की धारा उर्दू में नहीं है। वहाँ हास्य पर जोर है और कमाल का है। विशुद्ध व्यंग्य उतना नहीं है, व्यंग्य है भी तो हास्य के जरिये ही। पर यह भी झगड़े की बात नहीं। मेरा कहना तो मात्र इतना था और इतना ही है कि यदि उर्दू में हास्य की इतनी समृद्ध परंपरा है तो क्यों न हम हिंदी के लेखक इसे पढ़-गुनकर इसके सौंदर्यशास्त्र को समझें और अपने लेखन को समृद्ध करें। यूसुफ़ी साहब की यह किताब पढ़ते हुए मुझे बार-बार यही खयाल आता रहा है और यह बात इसीलिए मैंने यहाँ दोहराव का खतरा उठते हुए भी फिर से की है।

इस किताब में युसूफी साहब के लेखक जीवन की शुरूआती रचनाएँ हैं। पाँच लंबी हास्य कथाएँ हैं ये। इन रचनाओं को पढ़ना कई मायनों में जुरूरी है। खासकर उनकी भूमिका को, जिसे आप पहले पढ़कर ही फिर इन रचनाओं की तरफ जाएँ। 'जुलेखा का हाथ' नाम से यह भूमिका लिखते हुए वे सबसे पहले तो यह कहते हैं कि स्वयं ही भूमिका लिखो तो यह आत्महत्या की तरह आसान होती है क्योंकि इसमें सब कुछ आपको ही तय करना है। वे अपने अद्वितीय अंदाज में हास्य लिखने की शर्तें भी बताते हैं। वे हास्य को इनसान की छटी इंद्रिय मानते हैं। हास्य लिखने की पहली शर्त वे यह रखते हैं कि आपमें गुस्सा, बेजारी, ईर्ष्या या कमीनापन न हो। वे शर्त रखते हैं कि हास्य वही लिख सकता है जो इस दुनिया और दुनिया वालों से बेइंतिहा प्यार करता हो। ये यह भी बताते हैं कि ये रचनाएँ पहले 1965 में संकलित की गईं, फिर रचनाओं में कमजोर हिस्सों को अलग करने की सोची तो करते-करते यह नौबत आ गई कि रचनाएँ बची ही नहीं - बस किताब की भूमिका ही शेष रह गई, वो भी इसलिए कि तब तक लिखी ही नहीं गई थी। रचनाओं को संपादित करके ठीक-ठाक करके बाद में जो चीज 1969 में पूरी हुई वही किताब यह है जो आपके हाथ में है।

तय है कि शुरूआती रचनाओं में युसूफी साहब में वे तेवर अपने पूरे शबाब पर नहीं हैं जो उनकी 'खोया पानी' में मिलते हैं। जो सन 1990 में लिखी गई। अलबत्ता युसूफी साहब की वो सारी विशेषताएँ जो उनको उर्दू के भी अन्य सभी हास्य-व्यंग्यकारों से अलग करती हैं - वे सब बातें इन पाँच लंबी रचनाओं में हैं। उनकी जुम्लेबाजी की कला का जिक्र हम पहले अन्यत्र भी कर चुके हैं। युसूफी साहब पैदायशी जुम्लेबाज हैं। तात्पर्य यह है कि वे इसके लिए कोई कोशिश नहीं करते। जुम्लेबाजी उनके लेखकीय व्यक्त्वि का सहज सा हिस्सा है। वे इतनी सहजता से ऐसे जुम्ले लिख जाते हैं कि पाठक बेसाख्ता वाह-वाह कर बैठता है। वे इसके उस्ताद हैं। 'खोया पानी' में जो जुम्लेबाजी पाठक को बार-बार हास्य रस के गोते खिलवाती थी, वही, वैसी ही और उसी हद तक दिलकश इन रचनाओं में भी है। ये रचनाएँ मात्र इन जुम्लों के लिए भी बार-बार पढ़ी जाएँगी। मैं तो इन्हें यूँ बार-बार पढ़ता हूँ कि आखिर यह जुम्ला इतना चमत्कारी बना कैसे? युसूफी साहब में यह प्रतिभा नासर्गिक है तो हम जैसे, जिनमें यह इस तरह नहीं है शायद उन्हें पढ़कर ही कुछ सीख सकें।

जुम्लेबाजी के अलावा एक बात जो आपको उनकी रचनाओं में बार-बार आकृष्ट करती है वह है उनका अध्ययन का दायरा। वे उर्दू शायरी के जबरदस्त पाठक रहे हैं और शायरी को सटीक तौर पर हास्य पैदा करने में इस्तेमाल करने में माहिर हैं। उन्होंने इतिहास, फिलॉसफी, धर्म तथा अन्य क्षेत्रों में भी इतना अध्ययन किया है कि इनकी रचनाएँ इस अध्ययन से उपजी सोच से जगमग हो उठती हैं। वे अपने ज्ञान द्वारा रचना को बोझिल नहीं बनाते बल्कि इस ज्ञान द्वारा हास्य को उस जगह पहुँचाते हैं जो वह अन्यथा न पहुँच पाता। उन्हें अपनी परंपराओं का ज्ञान है और देश और समाज में व्याप्त जीवन को बेहद संवेदनशील नजर से देखने की अलभ्य संवेदना भी उनके पास है। वे विदेशों में भी लंबे समय तक रहे हैं। उन्होंने दुनिया देखी है और दुनिया के तमाशे को हस्तामवलक देखने की जो क्षमता उनमें है वही उनके हास्य को महान बनाती है। 'सिबगे एंड सन्स' तथा 'जरा आलू का कुछ बयाँ हो जाए' को पढ़ेंगे तो आपको मेरे इस कथन का मतलब समझ में आ जाएगा।

युसूफी साहब के चरित्र बेलौस, बेखौफ, दुनियादारी से परे रहकर जीने वाले जिंदादिल इनसान होते हैं। वे कमीने भी हों तो भी मानवीयता का एक तार उनके व्यक्तित्व में अवश्य होगा। औलिया मानसिकता वाले चरित्र जो दुनिया और दुनियादारी को हँसी उड़ाने की चीज मानते हैं। सारे खिलंदड़े चरित्र हैं परंतु फिर भी जीवन को बेहद गंभीरता से निभाने वाले। यह बात अलग है कि वे यह गंभीर काम हँसते-हँसते ही करते हैं। ऐसे चरित्रों की रचना करना कितना कठिन है, यह बात या तो युसूफी साहब बता सकते हैं या फिर खुदा। क्योंकि ऐसे चरित्र तो स्वयं खुदा भी इने-गिने ही पैदा कर पाता है। इन पाँच कथाओं में भी ऐसे ही चरित्रों से साक्षात्कार होता है। युसूफी साहब उनके चरित्र की गहराई में जाकर जिस तरह उन्हें स्थापित करते हैं वह पढ़ने, गुनने और आत्मसात करने की चीज है। वस्तुतः ये हास्य कथाएँ, किसी भी बहाने से अद्भुत चरित्रों को पाठकों से मिलाने का उनका उपक्रम है क्योंकि इन सभी कथाओं में ऐसी कोई कथा सूत्र जैसी चीज नहीं है। 'सिबगे एंड सन्स' के नायक किताब की दुकान के मालिक सिबगे एक ऐसा ही चरित्र है। जिक्र किताब की दुकान का है। पूरी रचना में यह किताब की दुकान है और सिबगे साहब हैं - और कोई कहानी या तो घट ही नहीं रही या टुकड़ों-टुकड़ों में एक धुँधली सी कथा खड़ी हो रही है - परंतु, फिर भी, पाठक सिबगे के अद्भुत चरित्र के साथ बँधा और बिंधा रह जाता है। कहानी पढ़ो तो छूटती ही नहीं। सिबगे ऐसे शख्स हैं जो अपनी पसंद की किताबें अपनी दुकान पर रखते हैं, बाजार में चलने वाली पॉपुलर किताबें कतई नहीं रखते - इस कारण 'ग्राहक दुकान से इस तरह जाते हैं जैसे सिकंदर दुनिया से गया था - दोनों हाथ खाली।' वे ऐसे भले हैं कि 'हर व्यक्ति के साथ डेल कारनेगी' किया करते हैं।

उन्हें किताबों से इस कदर प्यार है कि किताबों की दुकान खोले हैं परंतु किताबें बेचना नहीं चाहते क्योंकि इतनी अच्छी किताबें वे दूसरों को कैसे दे सकते हैं? 'उनकी मिसाल उस बदनसीब कसाई की-सी है, जिसे बकरों से प्यार हो जाए।' 'उनकी नीयत बुरी नहीं। यह बात और है कि हालात ने उनकी नेकनीयती को उभरने नहीं दिया।' सिबगे को इस तरह की दुकानदारी से घाटा होना ही था, हुआ भी। परंतु सिबगे का मानना है कि 'अगर कोई शख्स व्यापार में बहुत जल्द नाकाम न हो तो समझ लो कि उसके वंशवृक्ष में खोट है। यहाँ तक कि उन्होंने तमाम उम्र कष्ट ही कष्ट उठाए - इसी कारण से उन्हें विश्वास हो चला था कि ये सही रास्ते पर हैं।'

सिबगे के चरित्र की रचना युसूफी साहब जैसे लेखक की ही बस की बात है क्योंकि उनमें 'इंप्रोवाइजेशन' की अद्भुत प्रतिभा है।

'सीजर, माताहरी और मिर्जा' तथा 'जरा आलू का कुछ बयाँ हो जाए' में उनकी इंप्रोवाइजेशन की यह कला शिखर पर है। 'सीजर...' में वे एक सीजर नाम के कुत्ते का ऐसा चरित्र खड़ा करते हैं जो अंततः मनुष्य से भी बड़ा हो जाता है - इतना बड़ा कि वह जगह बच्चों के लिए भी पवित्र हो जाती है, वहाँ सीजर नाम का यह कुत्ता दफ्न है। कुत्ते के बहाने युसूफी साहब पूरे जमाने को अपने इंप्रोवाइजेशन में लपेट लेते हैं। 'यह कुत्ता... उर्दू में भौंकता या यानी भौंकता ही चला जाता था। वे कहते हैं कि कुत्ता अपवित्र नहीं है गो कि वह पवित्र भी नहीं - और यह कुत्ते के हक में ही हैं क्योंकि युसूफी साहब बताते हैं कि 'हर वह जानवर जिसे मुसलमान खा सकते हैं, पाक है' और 'इस कारण मुस्लिम देशों में बकरों को अपनी पवित्रता की वज्ह से खास नुकसान पहुँचा है।' वे कुत्ते की तारीफ करते हुए यह भी बताते हैं कि 'कुत्ते में से अगर जबड़ा निकाल दिया जाए खासा अच्छा और शालीन जानवर है।' कुत्ते के बारे में ऐसे पवित्र विचार रखने वाले युसूफी साहब सीजर नाम के इस कुत्ते को घर लाते हैं जो हर एतबार से 'इनकी उम्मीदों से बढ़कर' निकलता है। तेरह महीने का यह अल्सेशियन कुत्ता नई पौध के मुँहजोर कुत्तों के साथ उठना-बैठना तो अलग वह उनके नए दौलतमंद मालिकों पर भौंकना भी अपने रुतबे के खिलाफ समझता है। ...और इस अद्भुत कुत्ते की सड़क दुर्घटना में मौत का वर्णन करते हुए तो युसूफी साहब करुणा का ऐसा चित्र अपने काव्यात्मक विवरण से खड़ा करते हैं कि सीजर की मौत पर पाठक का हृदय भी भर आता है। कविता को जहाँ भी युसूफी साहब अपनी रचनाओं में लाते हैं, कमाल कर देते हैं। वे बहुत बड़े कवि भी हैं, यह तय है। ऐसे करुणामय हृदय वाला रचनाकार ही ऐसा निर्मल हास्य रच सकता है।

'आलू...' वाली हास्य कथा में युसूफी साहब ने आलू तक को एक चरित्र में बदल डाला है गो कि कथा मिर्जा साहब के अचानक उपजे आलू प्रेम के आस-पास घूमती लगती है। आलू के बारे में इतना 'होम-वर्क' करके उन्होंने यह रचना लिखी है कि आश्चर्य होता है। मिर्जा की नजर में आलू 'स्कैंडल की तरह स्वादिष्ट और शीघ्र पच जाने वाला है।' इसकी 'साधुई रंगत' और 'छिलका नारी के वसन यानी नाम भर 'साफ इधर से नजर आता है उधर का पहलू।'

मिर्जा के इस आलू प्रसंग के बहाने युसूफी साहब विषय को इतना इंप्रोवाइज करते हैं कि चमत्कृत रह जाना पड़ता है।

'प्रोफेसर' और 'हुए हम जो मर के रुसवा' भी कमावेश इन्हीं तेवरों की रचनाएँ हैं।

हास्य लेखन और हास्य को पढ़ने वालों - दोनों के लिए यह किताब एक टेक्स्ट बुक की तरह हो सकती है बशर्ते कुंजी तथा गैस पेपरों वाले गुटके पढ़-पढ़कर पहले ही उस लेखक या पाठक का मेदा बिगड़ न चुका हो क्योंकि ऐसों का इलाज तो युसूफी साहब के पास भी नहीं है।