भाग - 3 / मेरे मुँह में ख़ाक / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

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पुस्तक विक्रेता व प्रकाशक

यह उन उम्मीद भरे दिनों की बात है जब उन्हें किताबों की दुकान खोले और डेल कारनेगी पढ़े दो तीन महीने हुए होंगे और उनके होंठों पर हर समय वह धुली-मँझी मुस्कुराहट खेलती रहती थी जो आजकल सिर्फ टूथपेस्ट के विज्ञापनों में दिखाई पड़ती है। उस जमाने में उनकी बातों में वह उड़कर लगने वाला जोश और तूफान था, जो आम तौर पर अंजाम से बेखबर सट्टेबाजों और नए मुस्लिमों में होना बताया जाता है।

दुकान क्या थी किसी बिगड़े हुए रईस की लाइब्रेरी थी। मालूम होता था कि उन्होंने चुन-चुन कर वही किताबें दुकान में रखी हैं जो खुद उनको पसंद थीं और जिनके बारे में वो हर तरह से सुनिश्चित हो गए थे कि बाजार में उनकी न कोई माँग है न खपत। हमारे दोस्त मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग ने दुकान में कदम रखते ही अपनी तमाम नापसंदीदा किताबें इतने सलीके से इकट्ठा देखीं तो एक बार अपने पुराने चश्मे पर भरोसा नहीं हुआ और जब भरोसा हो गया तो उल्टा प्यार आने लगा। अपने विशिष्ट खटमिट्ठे लहजे में बोले, 'यार! अगर आम पसंद की भी दो चार किताबें रख लेते तो ग्राहक दुकान से इस तरह न जाते जैसे सिकंदर दुनिया से गया था - दोनों हाथ खाली।'

कारोबारी मुस्कुराहट के साथ बोले, 'मैं केवल स्तरीय किताबें बेचता हूँ।'

पूछा, 'स्तरीय की क्या पहचान?'

बोले, 'मेरे एक निकट के पड़ोसी हैं, प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस, चौबीस घंटे किताबों में जुटे रहते हैं। इसलिए मैंने किया यह कि दुकान खोलने से पहले उनसे उनकी पसंदीदा किताबों की संपूर्ण सूची बनवा ली। फिर उन किताबों को छोड़ कर उर्दू की शेष सारी किताबें खरीद कर दुकान में सजा दीं। अब इससे अच्छा चयन कोई करके दिखा दे।'

फिर एकाएकी व्यावसायिक लहजा बनाकर बहुवचन में हुंकारे, 'हमारी किताबें उर्दू साहित्य का गौरव हैं,'

'और हम यह बहुत सस्ती बेचते हैं।' मिर्जा ने उसी शैली में वाक्य पूरा किया।

मुसीबत यह थी कि हर लेखक के बारे में उनकी अपनी राय थी। बेलाग और अटल, जिसका प्रकटन बल्कि जोरदार उद्घोषणा वह मजहबी फर्ज के बराबर समझते थे। चुनांचे अनेकों बार ऐसा हुआ कि उन्होंने ग्राहक को किताब खरीदने से जबरदस्ती रोके रखा कि इससे उसकी साहित्यिक अभिरुचि के और खराब हो जाने का अंदेशा था। सच तो यह है कि वह कुतुबफरोश (पुस्तक विक्रेता) कम और कुतुबनुमा (पुस्तक की दिशा बताने वाले) अधिक थे। कभी कोई खरीदार हल्की-फुल्की किताब माँग बैठता तो बड़े प्यार से जवाब देते, 'यहाँ से दो गलियाँ छोड़ कर सीधे हाथ को मुड़ जाइए, परले नुक्कड़ पर चूड़ियों की दुकान के पास एक लेटर बक्स नजर आएगा। उसके ठीक सामने जो ऊँची-सी दुकान है, बच्चों की किताबें वहीं मिलती हैं।' एक बार की घटना अब तक याद है कि एक साहब मोमिन का संपूर्ण काव्य पूछते हुए आए और चंद मिनट बाद स्वर्गीय मौलवी मुहम्मद इस्माईल मेरठी की नज्मों का संकलन हाथ में लिए उनकी दुकान से निकले।

एक दिन मैंने पूछा, 'अख्तर शीरानी' (रोमांटिक शायर) की किताबें क्यों नहीं रखते?' मुस्कुराए। फरमाया, 'वह नाबालिग शायर है।' मैं समझा शायद (MINOR POET) का वह यही मतलब समझते हैं। मेरी हैरानी देखकर खुद ही स्पष्टीकरण दिया कि वह मिलन की इस ढंग से फरमायश करता है गोया कोई बच्चा टॉफी माँग रहा है। इस पर मैंने अपने एक प्रिय शायर का नाम लेकर कहा कि बेचारे होश खलीजाबादी (जोश मलीहाबादी को रगड़ रहे हैं) ने क्या खता की है? उनके संकलन भी नजर नहीं आते। फरमाया कि उस जालिम के मिलन के आग्रह में वह तेवर हैं गोया कोई काबुली पठान डाँट-डाँट कर डूबी हुई रकम वसूल कर रहा है। मैंने कहा, 'वह जुबान के बादशाह हैं।' बोले, 'ठीक कहते हो जुबान उनके घर की लौंडी है और वह उसके साथ वैसा ही सुलूक करते हैं।' तंग आकर मैंने कहा, 'अच्छा यूँ ही सही, मगर फानी बदायूनी क्यों गायब हैं?' फरमाया, 'हुश! वह निरे शोक के चितेरे हैं।' मैंने कहा, 'ठीक! मगर मेंहदी-अल-अफादी तो भरपूर निबंध लेखक हैं।' बोले, 'छोड़ो भी, फानी 'शोक के चितेरे' हैं तो मेंहदी औरतों के चितेरे हैं। वह निबंध नहीं, नारी-बंध लिखते हैं।' अंत में मैंने एक जाने-पहचाने आलोचक का नाम लिया मगर पता चला कि उन्होंने अपने कानों से इन योग्य प्रोफेसर के पिताश्री को लखनऊ को 'नखलऊ' और मिज़ाज शरीफ को मिजाज शरीफ कहते हुए सुना था। चुनांचे इस पैत्रिक-अयोग्यता के आधार पर उनके आलेख दुकान में कभी सम्मान न पा सके। यही नहीं स्वयं प्रोफेसर, जिनके गुणों का बखान हो रहा है, ने एक सभा में उनके सामने 'ग़ालिब' का एक शेर गलत पढ़ा और दोहरे हो हो कर 'दाद' वसूल की सो अलग। मैंने कहा, 'इस से क्या अंतर पड़ता है?' बोले, 'अंतर की एक ही रही। मीरन साहब (ग़ालिब के शिष्य) का किस्सा भूल गए? किसी ने उनके सामने ग़ालिब का शेर गलत पढ़ दिया। त्योरियाँ चढ़ा कर बोले, मियाँ यह कोई कुरआन-हदीस है, जैसे चाहा पढ़ दिया?'

आपने देख लिया कि बहुत सी किताबें वह इसलिए नहीं रखते थे कि उनको सख्त नापसंद थीं और उनके लेखकों से वह किसी न किसी विषय पर निजी असहमति रखते थे, लेकिन कुछ एक लेखक जो इस दंड और गाज के अंतर्गत आने वाले घेरे से बाहर थे, उनकी किताबें दुकान में रखते जुरूर थे मगर कोशिश यही होती कि किसी तरह बिक न पाएँ, क्योंकि वह उन्हें बेहद पसंद थीं और उन्हें सुँघवा-सुँघवा कर रखने में एक अजीब आध्यात्मिक आनंद महसूस करते थे। पसंद और नापसंद की इस अव्यापारिक खींच-तान का नतीजा यह निकला कि किताबें अपनी जगह से नहीं खिसकीं।

सुनी-सुनाई नहीं कहता। मैंने अपनी आँखों से देखा कि दीवाने-ग़ालिब (सचित्र) दुकान में महीनों पड़ा रहा केवल इस कारण कि उनका विचार था कि दुकान उसके बिना सूनी-सूनी मालूम होगी। मिर्जा कहा करते थे कि उनकी मिसाल उस बदनसीब कसाई की-सी है, जिसे बकरों से प्यार हो जाए।

किताबों से प्यार का यह हाल था कि ठीक बिक्री और बोहनी के समय में भी अध्ययन में कमर-कमर डूबे रहते। यह कमर-कमर का प्रतिबंध इस लिए लगाना पड़ा कि हमने उन्हें आज तक कोई किताब पूरी पढ़ते नहीं देखा। मिर्जा इस बात को यूँ कहते हैं कि बहुत कम किताबें ऐसी है जो अपने को उनसे पढ़वा सकी हैं। यही नहीं, अपने अध्ययन की तकनीक के अनुसार रोमेंटिक और जासूसी नाविलों को हमेशा उल्टा यानी आखिर से पढ़ते ताकि हीरोइन का अंत और कातिल का नाम फौरन मालूम हो जाए (उनका कथन है कि स्तरीय उपन्यास वही है जो इस तरह पढ़ने पर भी यानी अंत से आदि तक रोचक हो)। हर कहीं से दो-तीन पन्ने उलट-पलट कर पूरी किताब के बारे में बिना झिझक राय बना लेना और फिर उसे मनवा लेना उनके बाएँ हाथ का खेल था। कभी-कभी तो लिखाई-छपाई देखकर ही सारी किताब की विषय-वस्तु भाँप 'पगले यह तो खुद एक किताब है', उन्होंने तर्जनी से उन शिक्षार्थियों की तरफ इशारा किया जो उसके पीछे-पीछे विषय-सूची का अध्ययन करते चले आ रहे थे।

देखा गया है कि वही पुस्तक विक्रेता कामयाब होते हैं जो किताब के नाम और मूल्य के अलावा और कुछ जानने की कोशिश नहीं करते। क्योंकि उनके साधारण अज्ञान में जितना फैलाव होगा, जितनी गहराई और रंग-बिरंगापन होगा, उतने ही आत्मविश्वास और भोले भटकाव के साथ वह बुरी किताबों को अच्छा करके बेच सकेंगे। उसके विपरीत किताबें पढ़ते (अधूरी ही सही) हमारे हीरो को इस्लामी नाविलों के जोशीले संवाद रट गए थे और बगदादी जिमखाने में कभी देशी व्हिस्की की अधिकता से श्रीमान पर जुनून में बोलने का मूड उभर आता तो इस्लाम के दुश्मनों पर घूँसे तान-तान कर तड़ाक-पड़ाक ऐसे डायलाग बोलते जिनसे शहीद हो जाने का शौक ऐसे टपका पड़ता था कि बैरों तक का मुसलमानपन ताजा हो जाता।

लगातार पन्ने उलटते रहने के कारण नई नवेली किताबें अपनी कुँवारी, करारी महक और जिल्द का कसाव खो चुकी थीं। अधिकतर पन्नों के कोने कुत्ते के कानों की तरह मुड़ गए थे और कई पसंदीदा पन्नों की हालत यह थी कि -

जाना जाता है कि इस राह से लश्कर गुजरा

और लश्कर भी वह जो खून की जगह पीक के छींटे उड़ाता हुआ गुजर जाए। एक बार उनको भरी दुकान में अपने ही आकार के एक इस्लामी नाविल का इत्र निकालते देखा तो मिर्जा ने टोका, 'लोग अगर किसी हलवाई को मिठाई चखते देख लें तो उससे मिठाई खरीदना छोड़ देते हैं और एक तुम हो कि हर आए गए के सामने किताब चाटते रहते हो।' मुझे याद है कि उन्होंने उर्दू की एक ताजा छपी हुई किताब का कागज और रोशनाई सूँघ कर न सिर्फ उसे पढ़ने बल्कि दुकान में रखने से भी इनकार कर दिया। उनके दुश्मनों ने उड़ा रखी थी कि वह किताब का टाइटिल पेज पढ़ते-पढ़ते ऊँघने लगते हैं और इस ईश्वरीय ज्ञान प्राप्ति की स्थिति में जो कुछ बुद्धि में आता है उसको लेखक से संबद्ध करके हमेशा-हमेशा के लिए बेजार हो जाते हैं।

और लेखक बेचारा किस गिनती में है। अपने साहित्यिक विचार या अंदाजे का जिक्र करते हुए एक दिन यहाँ तक डींग मारने लगे कि मैं आदमी की चाल से बता सकता हूँ कि वह किस किस्म की किताबें पढ़ता रहा है। इत्तफाक से उस वक्त एक भरे-भरे पिछाए वाली लड़की दुकान के सामने से गुजरी। चीनी कमीज उसके बदन पर एक सटीक फब्ती की तरह कसी हुई थी। सिर पर एक रिबन सलीके से ओढ़े हुए जिसे मैं ही क्या, कोई भी शरीफ आदमी दुपट्टा नहीं कह सकता - इसलिए कि दुपट्टा कभी इतना भला मालूम नहीं होता। तंग मोरी और उससे भी तंग घेर की शलवार की चाल अगरचे कड़ी कमान का तीर न थी, लेकिन कहीं अधिक जानलेवा। कमान कितनी भी उतरी हुई क्यों न हो, तीर हर हाल में सीधा ही आएगा। ठुमक-ठुमक नहीं, लेकिन वह संसार भर को कत्ल कर देने वाली, कदम आगे बढ़ाने से पहले एक बार जिस्म के बीच के हिस्से को घंटे के पेंडुलम की तरह दाएँ-बाएँ यूँ हिलाती कि बस छुरी-सी चल जाती। नतीजा यह कि जिस्म के संदर्भित भाग ने जितनी यात्रा उत्तर से दक्खिन को की उतना ही पूरब से पश्चिम तक। संक्षेप में यूँ समझिए कि हर पग पर एक आदमकद सलीब (?) बनाती हुई आगे बढ़ रही थी।

'अच्छा बताओ, इसकी चौमुखी चाल से क्या टपकता है?' मैंने पूछा।

'इसकी चाल से तो बस इसका चाल-चलन टपके है' मुझे आँख मार कर लहकते हुए बोले।

'फिर वही बात। चाल से बताओ, कैसी किताबें पढ़ती है?' मैंने भी पीछा नहीं छोड़ा। फिर क्या था पहले ही भरे बैठे थे। फट पड़े, 'किताब बेचना एक शास्त्र है, बरखुरदार हमारे यहाँ अर्धनिरक्षर किताबें लिख सकते हैं, मगर बेचने के लिए चौकन्ना होना जरूरी है। बिल्कुल इसी तरह जैसे एक अंधा सुर्मा बना सकता है मगर बीच बाजार में खड़े हो कर बेच नहीं सकता, मियाँ। तुम क्या जानो, कैसे निपट मूर्खों से पाला पड़ता है - (अपनी प्रिय पुस्तक की ओर इशारा करते हुए) जी में आता है, दीवाने-ग़ालिब (मौलाना इम्तियाज अली अर्शी के प्राक्कथन सहित) उनके सिर पर दे मारूँ। तुम्हें विश्वास नहीं होगा, दो सप्ताह होने को आए। एक दीन-हीन सूरत क्लर्क यहाँ आया और मुझे उस कोने में ले जाकर कुछ शरमाते, कुछ लजाते हुए कहने लगा किशन चंदर एम.ए. की वो किताब चाहिए जिस में 'तेरी माँ के दूध में हुक्म का इक्का' वाली गाली है। खैर उसे जाने दो कि उस बेचारे को देख कर वाकई महसूस होता था कि यह गाली सामने रखकर ही उस की सूरत बनाई गई है मगर उन साहब को क्या कहोगे जो नए नए उर्दू के लेक्चरर नियुक्त हुए हैं। मेरे जानकार हैं। इस महीने की पहली तारीख को कालेज से पहली तनख्वाह वसूल करके सीधे यहाँ आए और फूली हुई साँसों के साथ लगे पूछने, साहब! आपके हाँ मंटो की वह किताब भी है जिसमें, 'धड़नतख्ता' के मानी हों? और अभी परसों का जिक्र है, एक आदरणीया पधारीं। उम्र यही अट्ठारह-उन्नीस की, निकलता हुआ पला-पुसा बदन। अपनी गुड़िया की चोली पहने हुए थीं। दोनों हथेलियों की रेहल बनाकर उस पर अपना किताबी चेहरा रखा और लगीं किताबों को टुकर-टुकर देखने। इसी जगह जहाँ तुम खड़े हो? फिर पूछा, 'कोई नॉविल है?' मैंने रातों की नींद हराम करने वाला एक नॉविल पेश किया। रेहल पर से बोलीं, 'यह नहीं, कोई ऐसा दिलचस्प नॉविल दीजिए कि रात को पढ़ते ही नींद आ जाए', मैंने एक ऐसा ही बेहोश कर देने वाला नॉविल निकाल कर दिया मगर वह भी नहीं जँचा। दरअस्ल उन्हें किसी गहरे हरे कवर वाली किताब की तलाश थी जो उनके बैडरूम के लाल पर्दों से 'मैच' हो जाए। इस कठिन स्तर पर सिर्फ एक किताब पूरी उतरी - वह थी 'उस्ताद मोटर ड्राइवरी' (पद्य) जिसको दरअस्ल उर्दू जुबान में आत्महत्या की सरल विधियों का पहला कवितामय हिदायतनामा कहना चाहिए।

मैंने उस नवयौवना की हिमायत की, 'हमारे यहाँ उर्दू में ऐसी किताबें बहुत कम हैं जो डस्ट-कवर के बगैर भी अच्छी लगें। डस्ट-कवर तो ऐसा ही है जैसे औरत के लिए कपड़े।'

'मगर हॉलीवुड में आजकल अधिकतर ऐक्ट्रेसें ऐसी हैं जो अगर कपड़े पहन लें तो जरा भी अच्छी न लगें।' मिर्जा ने बात को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया।

लेकिन नया-नया शौक था और अभी यह नौबत नहीं आई थी कि ऐसी घटनाओं से इनकी अभिरुचि मैली हो जाती। डेल कारनेगी की सलाह के अनुसार वह हर समय मुस्कुराते रहते और हमने सोते में भी उनकी बाँछें सद्भावना के तौर पर खिली हुई ही देखीं। उस काल में मिर्जा के कथनानुसार, वह छोटा देखते न बड़ा हर व्यक्ति के साथ 'डेल कारनेगी' किया करते थे। हद यह कि डाकिया अगर बैरंग चिट्ठी भी लाता तो उसे इनाम-इकराम देकर भेजते। ग्राहकों को तो निजी मेहमान समझ कर बिछ-बिछ जाते और अक्सर काव्य-पूँजी के साथ और कभी इसके बिना ही खुद भी बिक जाते। सच है सदव्यवहार कभी बेकार नहीं जाता। चुनांचे चंद ही दिनों में दुकान चल निकली, मगर दुकानदारी ठप्प हो गई, यह विरोधाभास इस तरह पैदा हुआ कि दुकान पर अब उनके कद्रदानों की रेल-पेल रहने लगी जो अस्ल में उनसे कोकाकोला पीने या फोन करने आते और मुँहदिखाई में एक आध किताब माँग कर लेने के बाद ही टलते। जिस जिस ग्राहक से विशेष व्यवहार करते, उसकी अगवानी को बेतहाशा दौड़ते हुए सड़क के उस पार जाते। फिर उसे अपने ऊँचे से स्टूल पर बिठा कर फौरन दूसरे ग्राहक को चालीस कदम तक छोड़ने चले जाते। इन दोनों परिपाटियों की शिष्ट अदायगी के दौरान दुकान किसी एक ग्राहक या गिरोह के सामुदायिक तौर पर हवाले रहती, नतीजा? किताबों की कतारों में जगह-जगह खांचे पड़ गए, जैसे दाँत टूट गए हों। उनके अपने बयान के मुताबिक एक नए ग्राहक को, जिसने अभी-अभी गुबारे-खातिर (मौलाना आजाद की किताब, जिन्हें चाय बना कर पीने का बेहद शौक था) की एक प्रति उधार खरीदी थी, पास वाले रेस्टोरेंट में लेखक की मनभाती चीनी चाय पिलाने ले गए। कसम खा कर कहते थे कि मुश्किल से एक घंटा वहाँ बैठा हूँगा, मगर वापस आकर देखा तो नूरूल्लुगात (शब्दकोष) के चौथे खंड की जगह खाली थी। स्पष्ट कि किसी बेईमान ने अवसर पाते ही हाथ साफ कर दिया। उन्हें उस की जगह फसाना-ए-आजाद का चौथा खंड रखना पड़ा और आखिर को यही सैट चाकसू कालेज लाइब्रेरी को वी.पी. के द्वारा सप्लाई किया।

चोरियाँ बढ़ती देख कर एक बुजुर्गवार ने, जो उद्घाटन के दिन से दुकान पर उठते-बैठते थे बल्कि यह कहना चाहिए कि सिर्फ बैठते थे; इसलिए कि हमने कभी उनको उठते नहीं देखा, माल की अनुचित निकासी रोकने के लिए एक प्रस्ताव पेश किया कि एक शिक्षित लेकिन ईमानदार मैनेजर रख लिया जाए। हालाँकि उनका इशारा अपनी ही ओर था लेकिन एक दूसरे साहब ने जो साहिबे-दीवान थे और रोजाना अपने दीवान की बिक्री का हाल पूछने आते और उर्दू के भविष्य से मायूस होकर लौटते थे, खुद को इस पद के लिए पेश ही नहीं किया बल्कि शाम को अपने घर जाने से इनकार भी कर दिया, यही साहब दूसरे दिन से खजांची जी कहलाए जाने लगे। सूरत से सजा भुगते हुए मालूम होते थे और अगर वाकई सजा भुगते हुए नहीं थे तो यह पुलिस की ही भलमनसाहत थी। बहरहाल इनकी तरफ से आपराधिक बेईमानी का कोई संशय नहीं था क्योंकि दुकान की सारी बिक्री मुद्दतों से उधार पर हो रही थी। यूँ तो दुकान में पहले ही दिन से 'आज नकद कल उधार' की एक छोड़ तीन-तीन तख्तियाँ लगी थीं, मगर हम देखते चले आए थे कि वह कल का काम आज ही कर डालने के कायल हैं। फिर यह कि कर्ज पर किताबें बेचने पर ही रहते तो सब्र आ जाता लेकिन आखिर में यहाँ तक सुनने में आया कि कई ग्राहक उनसे नकद रुपए कर्ज लेकर पास वाली दुकान से किताबें खरीदने लगे हैं।

मैं अवसर की खोज में था, इसलिए एक दिन अकेला पाकर उन्हें समझाया कि खुदा के बंदे, कर्ज ही देना है तो बड़ी रकम कर्ज दो ताकि लेने वाले को याद रहे और तुम्हें तकाजा करने में शर्म न आए। यह छोटे-छोटे कर्ज देकर ईश्वर के बनाए लोगों के ईमान और अपनी शालीनता की परीक्षा काहे को करते हो? मेरी बात उनके दिल को लगी दूसरे ही दिन खजांची जी से न देने वाले खरीदारों की पूरी सूची अक्षरों के आधार पर बनवाई और फिर उसी क्रम से उधार वसूल करने की पाँच-दिनी योजना बना डाली लेकिन अलिफ (अ) की ही सूची में एक ऐसा नालायक आन पड़ा कि छह महीने तक बे (ब) से शुरू होने वाले नामों की बारी नहीं आई। मैंने यह नक्शा देखा तो फिर समझाया कि जब यह लोग तुम्हारे पास ककहरे के अनुसार से कर्ज लेने नहीं आए तो तुम इस क्रम से वसूल करने पर क्यों अड़े हो। सीधी-सी बात थी मगर वह तर्क पर उतर आए। कहने लगे, 'अगर दूसरे बेउसूल हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि मैं भी बेउसूल हो जाऊँ। देखते नहीं कि स्कूल में उपस्थिति के समय बच्चों के नाम बारह-खड़ी के हिसाब से पुकारे जाते हैं मगर बच्चों को उसी क्रम से पैदा या पास होने पर विवश नहीं किया जा सकता। बोलते क्यों नहीं?'

इसके बावजूद मेरे निवेदन का इतना प्रभाव अवश्य पड़ा कि अब किताब उधार नहीं बेचते थे, भेंट कर दिया करते थे। कहते थे कि जब पैसा डूबना ही है तो पुण्य से भी क्यों वंचित रहूँ। इधर कुछ अर्से से उन्होंने खाते लिखना भी छोड़ दिया था जिसका यह उचित औचित्य पेश करते थे कि मैं धन की हानि में जान की हानि की बढ़ोत्तरी नहीं करना चाहता। मिर्जा ने यह लुट्टस मची देखी तो एक दिन पूछा!

'आज कल तुम राज्य के कर्तव्य क्यों निभा रहे हो?'

'क्या मतलब?'

'तुमने राष्ट्र की मुफ्त शिक्षा का भार क्यों उठा रखा है?'

अब उनके चेहरे पर ज्ञान की वह आभा फूटने लगी जो आम तौर पर दिवाला निकलने के बाद उदित होती है। मिर्जा का विचार है कि जब तक दो-तीन बार दिवाला न निकले आदमी को दुकानदारी का सलीका नहीं आता। चुनांचे इस शुभ-बरबादी के बाद वह बुझ से गए और हर वस्तु में अपनी कमी महसूस करने लगे। वह चिर-मुस्कान (BUILT-IN) भी गायब हो गई और अब वह भूल कर भी किसी ग्राहक से सीधे मुँह बात नहीं करते थे कि कहीं वह उधार न माँग बैठे। अक्सर देखा कि ज्यों ही किसी ग्राहक ने दुकान में पैर रखा और उन्होंने घुड़क कर पूछा, 'क्या चाहिए?' एक दिन मैंने दड़बड़ाया, 'अंधे को भी दिखाई देता है कि किताबों की दुकान है। फिर तुम क्यों पूछते हो, क्या चाहिए?' बोले, 'क्या करूँ कइयों की सूरत ही ऐसी होती है कि यह पूछना पड़ता है।' किताबें रखने के गुनहगार जुरूर थे। मजबूरन बेच भी लेते थे।

'उनके नकचढ़ेपन का अंदाजा इस बात से हो सकता है कि एक बार एक शख्स पूछता हुआ आया, लुगत है।' लुगत (शब्दकोष) का उच्चारण उसने लुत्फ के वज्न पर (यानी लुग्त) किया। उन्होंने नथुने फुलाकर जवाब दिया, 'स्टाक में नहीं है।' वह चला गया तो मैंने कहा 'यह सामने रखी तो है, तुमने इनकार क्यों कर दिया?' कहने लगे, 'यह? यह तो लुगत है। फिर यह भी कि उस बेचारे का काम एक लुगत से थोड़ा ही चलेगा।' हाँ, उच्चारण पर याद आया कि इस मुसीबत के दौर में उन्होंने दुकान में एक पुराने जमाने का रेडियो रख लिया था। इसी को गोद में लिए घंटों गड़गड़ाहट सुना करते थे, जिसे वह विभिन्न देशों के मौसम का हाल कहा करते थे। बाद में मिर्जा की जुबानी इस शोर मचाने का कारण यह मालूम हुआ कि इस रेडियाई दमे की बदौलत कम-से-कम ग्राहकों की गलत उर्दू तो सुनाई नहीं देती।

यह कोई छुपी बात नहीं कि पुस्तक विक्रेताओं को हर किताब पर बिना किसी मेहनत या परेशानी के औसतन तीस-चालीस प्रतिशत कमीशन मिलता है। जिस पेशे में लाभ की यह दर सामान्य हो उसमें दिवाला निकालने के लिए असाधारण दिल और दिमाग चाहिए और वो ऐसे ही दिलो-दिमाग के मालिक निकले। अपनी गणितीय योग्यता का लिखित सुबूत वह उस जमाने में ही दे चुके थे। तिमाही इम्तिहान की कॉपी में वह अपना नाम 'सिबगतुल्लाह' लिखते और गैर सरकारी तौर पर केवल 'सिबगे' कहलाते थे। उसी जमाने से वह अपनी इस मान्यता पर दृढ़ता से कायम हैं कि गणित का आविष्कार किसी पूर्वाग्रही काफिर ने मुसलमानों को कष्ट पहुँचाने के लिए किया था। चुनांचे एक दिन यह खबर सुनकर बड़ी हैरत हुई कि रात इन पर गणित के ही किसी नियम के अनुसार यह बात खुली कि अगर वह किताबें न बेचें (दुकान ही में पड़ी सड़ने दें) तो नब्बे प्रतिशत लाभ होगा। फायदे की यह अंधाधुंध दर सुनकर मिर्जा के मुँह में पानी भर आया, इसलिए निकटतम गली से सिबगे के पास वह गुर मालूम करने पहुँचे जिसकी मदद से वह भी अपनी पुराने कोटों की दुकान में ताला ठोक कर तुरंत अपनी दरिद्रता दूर कर लें।

सिबगे ने कान में लगी हुई पेंसिल की मदद से अपने फार्मूले की जो व्याख्या की, उसका निचोड़ आसान भाषा में यह है कि अब तक इनका सामान्य कार्य, आचार यह रहा कि जिस दिन नई किताबें खरीद कर दुकान में लगाते, उसी दिन उन पर मिलने वाले चालीस प्रतिशत लाभ का हिसाब निकटतम पाई तक लगाकर खर्च कर डालते लेकिन जब यह किताबें साल भर तक दुकान में पड़ी भिनकती रहतीं तो 'क्रिसमस सेल' में इस कीमती खजाने को पचास प्रतिशत छूट पर बेच डालते और इस तरह अपने हिसाब से हर किताब पर नब्बे प्रतिशत अनुचित हानि उठाते लेकिन नया फार्मूला खोज लिए जाने पर अब वह किताबें एक सिरे से बेचेंगे ही नहीं। इसलिए अपने समझदारी भरे अनाचरण से नब्बे प्रतिशत हानि से साफ बच जाएँगे और यह लाभ नहीं तो और क्या है।

पुस्तक विक्रय के इस दौर में जब उन पर परीक्षा का युग पड़ा तो हर एक ग्राहक को अपना आर्थिक शत्रु समझते और दुकान से उसके खाली हाथ जाने को अपने हित में कल्याणकारी मानते। शनिवार को मेरा कार्यालय एक बजे बंद हो जाता है। वापसी में यूँ ही सूझा चलो आज सिबगे की दुकान में झाँकता चलूँ। देखा कि वह एक ऊँचे स्टूल पर पैर लटकाए अपने कर्जदारों की सूचियों से टेक लगाए सो रहे हैं। मैंने खखार कर कहा, 'झपकी?'

'स्टाक में नहीं है!' आँखें बंद किए-किए बोले।

यह कह कर जरा गरदन उठाई-चुंधियाई हुई आँखों से अपनी दाईं हथेली देखी और फिर सो गए।

दाईं हथेली देखना उनकी बड़ी पुरानी आदत है जिसे छात्र-जीवन की यादगार कहना चाहिए। होता यह था कि दिन भर जलील और थके-माँदे होने के बाद वह रात को हॉस्टल में किसी के सर हो जाते कि सुबह तुम्हारा मुँह देखा था। चुनांचे उनके कमरे के साथी अपनी बदनामी के डर से सुबह दस बजे तक लिहाफ ओढ़े पड़े रहते और कछुए की तरह गरदन निकाल-निकाल कर देखते रहते कि सिबगे दफा हुए कि नहीं। जब अपने बेगाने सब आए दिन की मनहूसियत की जिम्मेदारी लेने से यूँ मुँह छुपाने लगे तो सिबगे ने एक हिंदू ज्योतिषी के मशवरे से यह आदत डाली कि सुबह आँख खुलते ही सगुन के लिए अपनी दाईं हथेली देखते और दिन भर अपने आप पर लानत भेजते रहते। फिर तो यह आदत-सी हो गई कि नाजुक और फैसले की घड़ियों में, जैसे अखबार में अपना रोल नंबर तलाश करते समय, ताश फेंटने के बाद और क्रिकेट की गेंद पर हिट लगाने से पहले एक बार अपनी दाईं हथेली जुरूर देख लेते थे। जिस काल की यह चर्चा है, उन दिनों उनको अपनी हथेली में एक हसीना साफ नजर आ रही थी जिसका दहेज मुश्किल से उनकी हथेली में समा सकता था।

अलमारियों के अनगिनत खाने जो कभी ठसाठस भरे रहते थे, अब खाली हो चुके थे - जैसे किसी ने भुट्टे के दाने निकाल लिए हों। मगर सिबगे हाथ पर हाथ धर कर बैठने वाले नहीं थे। चुनांचे अक्सर यह देखा कि जुहर (दोपहर की नमाज) से अस्र (शाम की नमाज) तक शीशे के शो केस की फर्जी ओट में अपने मौसेरे, चचेरे भाइयों के साथ सर जोड़े फ्लैश खेलते रहते। उनका विचार था कि जुआ अगर करीबी रिश्तेदारों के साथ खेला जाए तो कम गुनाह होता है। रही दुकानदारी तो वह इन हालों को पहुँच गई थी कि ताश के पत्तों के सिवा अब दुकान में कागज की कोई चीज नहीं बची थी। ग्राहकों की तादाद हालाँकि तिगनी-चौगुनी हो गई थी, मगर मोल-तोल की प्रकृति थोड़ी भिन्न होते हुए जब यह नौबत आ गई कि राह चलने वाले भी भाव-ताव करने लगे तो खजांची ने खाकी गत्ते पर एक नोटिस निहायत सुंदर लेख में सुशोभित कर दिया।

'यह फर्नीचर की दुकान नहीं है।'

याद रहे उनकी आधी जिंदगी उन लोगों ने कड़वी कर दी जो कर्ज पर किताबें ले जाते थे और बाकी आधी उन महानुभावों ने कड़वी कर रखी थी जिनसे वह खुद कर्ज लिए बैठे थे। इसमें शक नहीं कि उनकी तबाही में कुछ झलक सौभाग्य की भी थी। कुदरत ने उनके हाथ में कुछ ऐसा यश दिया था कि सोने को हाथ लगाएँ तो मिट्टी हो जाए लेकिन इंसाफ से देखा जाए तो उनकी बरबादी का सेहरा कुदरत के अलावा उन मेहरबानों के सर था जो इंतहाई मुहब्बत और ठहराव वाली प्रकृति के साथ उनको दाने, दिरमे, कदमे, सुखने (धन-धान्य, चाल और भाषा) हानि पहुँचाते रहे। दूसरी वज्ह जैसा कि ऊपर इशारा कर चुका हूँ, यह थी कि वह अपने खास दोस्तों से अपनी आवश्यकता और उनकी क्षमता के अनुसार कर्जा लेते रहे और कर्जे को मुनाफा समझ कर खा गए। मिर्जा के अनुसार उनका दिल बड़ा था और कर्ज लेने में उन्होंने कभी कंजूसी से काम नहीं लिया। कर्ज पर लेन-देन उनके स्वभाव में इस हद तक रच बस चुका था कि मिर्जा का विचार था कि सिबगे दरअस्ल शासन को सक्षम न करने की गरज से अपनी आमदनी नहीं बढ़ाते। इस लिए कि आमदनी बढ़ेगी तो कंगाल इन्कमटैक्स भी बढ़ेगा। अब तो उनकी यह तमन्ना है कि बाकी प्यारा जीवन 'बैंक ओवरड्राफ्ट' पर बदनामी में गुजार दें। लेकिन उनकी नीयत बुरी नहीं थी। यह और बात है कि हालात ने उनकी नेकनीयती को उभरने नहीं दिया। पिछले रमजान में मुलाकात हुई तो बहुत उदास और चिंतित पाया। बार-बार पतलून की जेब से प्रकाशित हाथ निकाल कर देख रहे थे। पूछा, 'सिबगे! क्या बात है?' बोले, 'कुछ नहीं। प्रोफेसर अब्दुल कुद्दूस से कर्ज लिए तेरह साल होने को आए। आज यूँ ही बैठे-बैठे ध्यान आया कि अब वापसी का उपाय करना चाहिए, वरना वह भी दिल में सोचेंगे के शायद मैं रकम मारने वाला हूँ।'

जवानी में खुदा को नहीं मानते थे मगर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, विश्वास दृढ़ होता गया। यहाँ तक कि वह अपनी तमाम नालायकियों को अल्लाह के हुक्म से की गई समझने लगे थे। तबीअत ही ऐसी पाई थी कि जब तक छोटी-से-छोटी बात पर बड़ी-से-बड़ी कुरबानी न दे देते, उन्हें चैन न पड़ता था। बकौल मिर्जा, वह अनलहक (अहम् ब्रह्मस्मि) कहे बगैर सूली पर चढ़ना चाहते थे। व्यापार को उन्होंने रोजी का माध्यम नहीं जिहाद का माध्यम समझा और बहुत जल्दी शहीद का दर्जा पाया।

दुकान की दीवार का प्लास्टर एक जगह से उखड़ गया था। इस स्थान पर जो लगभग दो वर्ग गज था, उन्होंने एक लाल तख्ती जिस पर उनका जीवन-दर्शन स्तरीय लिपि में लिखा हुआ था, टाँग दी - बातिल (झूठ) से दबने वाले ऐ आस्मां नहीं हम

इस में कतई कोई अतिशयोक्ति नहीं थी। बल्कि देखा जाए तो उन्होंने विनम्रता से ही काम लिया क्योंकि झूठ तो क्या वह सच से भी दबने वाले नहीं थे। मिर्जा अक्सर नसीहत करते कि मियाँ! कामयाबी चाहते हो तो कामयाब किताब बेचने वालों की तरह जुरूरत के हिसाब सच बोलो और हर किताब की अच्छाई-बुराई पर जिद्दम-जिद्द करने के बजाय ग्राहकों को उन्हीं की पसंद की किताबों से बरबाद होने दो। जो बेचारा तरबूज से बहल जाए उसे जबरदस्ती अंगूर क्यों खिलाते हो। हालाँकि सिबगे का कहना था कि बीसवीं सदी में जीत उन्हीं की है जिनके एक हाथ में दीन (धर्म) है और दूसरे में दुनिया और दाएँ हाथ को खबर नहीं कि बाएँ में क्या है। व्यापार और शुद्धता में संयोग मुमकिन नहीं। व्यापार में तुरंत नाकामी उनके हिसाब से शराफत का तराजू थी। उन्हीं का कथन है कि अगर कोई शख्स व्यापार में बहुत जल्द नाकाम न हो सके तो समझ लो उसके वंशवृक्ष में खोट है। इस ऐतबार से उन्होंने कदम-कदम पर बल्कि हर सौदे में अपनी वंशगत शराफत का भरपूर सुबूत दिया।

भावुक आदमी थे। उस पर बदकिस्मती यह कि एक नाकाम किताब बेचने वाले की हैसियत से उन्हें इनसानों के स्वभाव का बहुत निकटता से अध्ययन करने का मौका मिला। इसलिए बहुत जल्दी इनसानियत से मायूस हो गए। उन्होंने तमाम उम्र कष्ट ही कष्ट उठाए। शायद इसी कारण से उन्हें विश्वास हो चला था वह सही रास्ते पर हैं। जीवन से कब के बेजार हो चुके थे और उनकी बातों से ऐसा लगता था कि जैसे अब सिर्फ अपने कर्ज देने वालों का दिल मजबूत रखने के लिए जी रहे हैं। अब हम नीचे वह प्रभाव और पूर्वाग्रह संक्षेप में बयान करते हैं जो उनके चालीस बरस के गलत अनुभवों का निचोड़ हैं :

दुकान खोलने से चार-पाँच महीने पहले वह एक सद्भावना मिशन के साथ श्रीलंका, जिसे जलने वाले लंका के नाम से याद करते हैं, गए। इस द्वीप की तीन दिन की सैर के बाद उठते-बैठते प्रगतिशील देशों में साहित्य के सम्मान और ज्ञानपिपासा के चर्चे रहने लगे। एक बार देशवासियों की असाहित्यिकता के दुखड़े रोते हुए फरमाया, 'आपके यहाँ तो अभी तक अज्ञान की खराबी दूर करने पर किताबें लिखी जा रही हैं जिनका उद्देश्य उन खराबियों को दूर करना है जो केवल अज्ञानता दूर होने से पैदा हो गई हैं। साहब! किताब बेचना, किताब खरीदना, हद यह कि किताब चुराना भी पुण्य कार्य हैं। विश्वास कीजिए, प्रगतिसंपन्न देश में तो जाहिल आदमी ठीक से जुर्म भी नहीं कर सकता।' मेरी शामत आई कि मेरे मुँह से निकल गया, वह सब कहने की बातें हैं। प्रगतिसंपन्न देश में कोई किताब उस वक्त तक अच्छी नहीं मानी जाती जब तक कि उसकी फिल्म न बन जाए और फिल्म बनने के बाद किताब पढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता, तो उन्हें गुस्सा आ गया। 'तीन पैसे की छोकरी' का कोना मोड़ कर वापस अलमारी में रखा और मेरे कहने की हूबहू नकल उतारते हुए बोले, 'और आप के यहाँ यह हालत है कि नौजवान उस वक्त तक उर्दू की कोई किताब पढ़ने की आवश्यकता महसूस नहीं करते जब तक पुलिस उसे अश्लील करार न दे दे और अश्लील करार दे देने के बाद उसे बेचने का सवाल ही पैदा नहीं होता। उनके व्यंग्य में उलाहने का रंग आ चला था, इसलिए मैंने झट से हामी भर ली कि पुलिस अगर दिल से चाहे तो तमाम अच्छी-अच्छी किताबों को अश्लील करार देकर नौजवानों में उर्दू अदब से गहरी दिलचस्पी पैदा करा सकती है।

मेरे लहजे का नोटिस न लेते हुए उल्टे मुझी से उलझने लगे कि आप बात की तह तक नहीं पहुँचे। आप धड़ाधड़ किताबें छाप सकते हैं, मगर जबरदस्ती पढ़वा नहीं सकते। मैंने कहा 'क्यों नहीं? उठा के पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर दीजिए।' वह भला हार मानने वाले थे। कहने लगे, 'अगर एक पूरी-की-पूरी पीढ़ी को हमेशा के लिए किसी अच्छी किताब से विमुख करना हो तो सीधी तरकीब यह है कि उसे पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर दीजिए।' किताबें बेचने के कारण सिबगे का पाला ऐसे-ऐसे पढ़ने और न पढ़ने वालों से पड़ा।

हजारों साल नरगिस जिनकी बेनूरी पे रोती है

उमर खय्याम के वह ऐसे चाहने वालों में थे जो अस्ल रुबाइयों में अनुवाद के गुण की तलाश करते फिरते थे। इनमें वह साल पुराने पाठक भी थे जो कजलाए हुए कोयलों को दहकाने के लिए बकौल मिर्जा, नग्न नाविलों से मुँह काला करते और समझते कि उर्दू की अश्लील किताब में दीमक नहीं लग सकती क्योंकि दीमक ऐसा कागज खाकर अपनी नस्ल को बढ़ावा देने के योग्य नहीं रहती। उनमें वे भाग्यशाली भी थे, जिनके लिए किताब बेहतरीन साथी है और वे अभागे भी थे, जिनके लिए अकेली साथी।

और इस बेनाम कबीले में वह आधुनिकता में रुचि रखने वाले भी शामिल थे, जो हर पल ताजा और नए के इच्छुक थे। हालाँकि उन जैसों को मालूम होना चाहिए कि केवल डिक्शनरी ही ऐसी किताब है जिसे वह जब भी देखें नई मालूम होगी, लेकिन एक हद तक सिबगे की भी ज़्यादती थी कि नई उर्दू किताबों को अपने दिल और दुकान में जगह देना तो बड़ी बात है, चिमटे से पकड़कर भी बेचने को तैयार न थे। एक दिन 'खाकानी-ए-हिंद' उस्ताद ज़ौक (बहादुरशाह जफर के उस्ताद) के कसीदों की धूल साप्ताहिक टाइम से झाड़ते हुए किटकिटा कर कहने लगे कि आज कल लोग यह चाहते हैं कि साहित्य एक कैप्स्यूल में बंद करके उनके हवाले कर दिया जाए जिसे वह कोका-कोला के घूँट के साथ झट से गले में उतार लें। मानव सभ्यता पत्थर और भोजपत्र के युग से गुजर कर अब रीडर्स डाइजैस्ट के दौर तक आ गई है। समझे? यह लेखकों का दौर नहीं, पत्रकारों का दौर है! पत्रकारों का।

मैंने डरते-डरते पूछा, 'मगर पत्रकारिता में क्या परेशानी है?'

बोले, 'कुछ नहीं। बड़ा लेखक अपनी आवाज पब्लिक तक पहुँचाता है और बड़ा पत्रकार पब्लिक की आवाज पब्लिक तक पहुँचाता है।'

लेखकों का जिक्र छिड़ गया तो एक वारदात और सुनते चलिए। सात-आठ महीने तक वह उर्दू लेखों का एक संकलन बेचते रहे, जिसके टाइटिल पर लेखक ने स्वयं हस्ताक्षर किए हुए थे और ऊपर यह आलेख, 'जिस किताब पर लेखक के हस्ताक्षर न हों वह जाली समझी जाए।' एक दिन उन्हें रजिस्ट्री से लेखक के वकील के द्वारा नोटिस मिला कि हमें विश्वस्त सूत्रों से मालूम हुआ है कि आप हमारे मुवक्किल की किताब का एक प्रामाणिक एडीशन अर्सा आठ माह से कथित रूप से बेच रहे हैं जिस पर संदर्भित लेखक के हस्ताक्षर तारीख के साथ छपे हैं। आपको नोटिस के द्वारा सूचित और आगाह किया जाता है संदर्भित किताब और हस्ताक्षर दोनों बिल्कुल जाली हैं। अस्ल एडीशन में लेखक के हस्ताक्षर सिरे से हैं ही नहीं। इस घटना से उन्होंने ऐसी सीख ली कि आइंदा ऐसी कोई किताब दुकान में नहीं रखी, जिस पर किसी के भी हस्ताक्षर हों। बल्कि जहाँ तक बन पड़ता उन्हीं किताबों को प्रमुखता देते, जिन पर लेखक का नाम तक दर्ज नहीं होता जैसे अलिफ लैला, जाब्ता फौजदारी, रेलवे टाइम-टेबल, बाइबिल।

तबाही की जो पगडंडी उन्होंने चुनी बल्कि जो राजपथ उन्होंने अपने लिए बनाया, उस पर वह तो क्या कोई भी अधिक देर नहीं चल सकता था, क्योंकि मंजिल बहुत दूर नहीं थी। आखिर वह दिन आ गया जिसकी दुश्मनों को प्रतीक्षा थी और दोस्तों को डर। दुकान बंद हो गई। खजांची जी की तनख्वाह ढाई महीनों से चढ़ी हुई थी। लिहाजा खाली अलमारियाँ, एक अदद लकड़ी की गुल्लक जो कर्ज न देने वालों की लिस्टों से मुँह तक भरी थी, चाँदी का खूबसूरत सिगरेटकेस जिसे खोलते ही महसूस होता था जैसे बीड़ी का बंडल खुल गया, सीढ़ी जिसके ऊपर के सिर्फ तीन डंडे बाकी रह गए थे, नींद लाने वाली गोलियों की शीशी, कराची रेस में दौड़ने वाले घोड़ों की वंशावलियाँ, नवम्बर से दिसंबर तक का पूरा कलैंडर कील सहित यह सब खजांची जी ने सिबगे की पहली बेध्यानी में हथिया लिए और रातों-रात अपनी तनख्वाह की एक-एक पाई गधागाड़ी में ढो-ढोकर ले गए। दूसरे दिन दुकान का मालिक बकाया किराये की मद में जो जायदाद लिखित-अलिखित मिली, उठा कर या उखाड़ कर ले गया। उसके विस्तार की यहाँ न गुंजाइश है और न जुरूरत, हमारे पढ़ने वालों को बस इतना इशारा काफी होगा कि इनमें सबसे कीमती चीज बिना चाबी के बंद होने वाला एक फौलादी ताला-जर्मनी का बना था, पुराना जुरूर था मगर एक गुण उसमें ऐसा पैदा हो गया था जो हमने नए से नए जर्मन तालों में भी नहीं देखा। यानी बिना चाबी के बंद होना और इसी तरह खुलना।

सिबगे गरीब के हिस्से में सिर्फ अपने नाम का साइन बोर्ड (फर्जी पुत्रगण सहित) आया जिसको सात रुपए मजदूरी देकर उठवा लाए और दूसरे दिन सवा रुपए में कबाड़ी के हाथ बेच डाला मगर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और दो महीने तक अपनी हथेली का दिन-रात अध्ययन करने के बाद एक ट्रेनिंग कालेज में मास्टरों को पढ़ाना शुरू कर दिया। मिर्जा के शब्दों में सिबगे ने किताब बेचने के जीवन के अध्याय का अंत कथाओं जैसा किया। जिस कथा की तरफ यहाँ मिर्जा का इशारा है वह दरअस्ल काई लिंग की एक मशहूर चीनी कहानी है, जिसका हीरो एक आर्टिस्ट है। एक दिन वह अपनी मॉडल लड़की की खूबसूरती से इतना प्रभावित हुआ कि उसी वक्त अपने सारे ब्रश और कैनवस जला डाले और एक सर्कस में हाथियों को सधाने का काम करने लगा।

जनवरी 1962