भाग - 7 / मेरे मुँह में ख़ाक / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

Gadya Kosh से
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अब तो नियम-सा बन गया है कि कहीं मातमपुर्सी या कफन-दफ्न में जाना पड़े तो मिर्जा को जुरूर साथ ले लेता हूँ। ऐसे अवसर पर हर शख्स सांत्वना के बतौर कुछ न कुछ कहता है मगर मुझे न जाने क्यों चुप लग जाती है। इससे कई बार न केवल उस घर वालों बल्कि मुझे भी स्वयं बड़ा दुख होता है लेकिन मिर्जा ने चुप होना सीखा ही नहीं, बल्कि यूँ कहना चाहिए कि सही बात को गलत मौके पर बेझिझक कहने की जो जन्मजात योग्यता उन्हें प्रदान की गई है, वह कुछ ऐसे ही अवसरों पर गुल खिलाती है। वह घुप्प अँधेरे में रास्ते के किनारे चिराग नहीं जलाते, फुलझड़ी छोड़ते हैं जिससे बस उनका अपना चेहरा रात के काले फ्रेम में जगमग करने लगता है और फुलझड़ी का शब्द तो यूँ ही लिहाज में कलम से निकल गया, वर्ना होता यह है कि -

जिस जगह बैठ गए आग लगाकर उठ्ठे

इसी गुण के कारण वह खुदा के उन हाजिर-नाजिर बंदों में से हैं जो मुहल्ले के हर छोटे-बड़े आयोजन में शादी हो या गमी मौजूद होते हैं। विशेष रूप से दावतों में सबसे पहले पहुँचते और सबके बाद उठते हैं। उस उठने-बैठने के अंदाज में एक खुला फायदा यह देखा कि वह बारी-बारी सब की बुराई कर डालते हैं। उनकी कोई नहीं कर पाता।

चुनांचे उस सनीचर की शाम को भी मेवाशाह कब्रिस्तान में वह मेरे साथ थे। सूरज इन खामोशियों को, जिसे खुदा के हजारों बंदों ने मर-मर के बसाया था, लाल अंगारा-सी आँख से देखता-देखता अंग्रेजों के प्रताप की तरह डूब रहा था। चारों तरफ मौत की हुकूमत थी और सारा कब्रिस्तान ऐसा उदास और उजाड़ था जैसे किसी बड़े शहर का बाजार इतवार को, सभी दुखी थे। (मिर्जा के कथनानुसार दफ्न के समय मुर्दे के सिवा सब दुखी होते है मगर मिर्जा सबसे अलग-थलग एक पुराने कतबे (मजार का शिलालेख) पर नजरें गाड़े मुस्कुरा रहे थे। चंद लम्हों बाद मेरे पास आए और मेरी पसलियों में अपनी कुहनी से अंकुश लगाते हुए उस कतबे तक ले गए जिस पर जन्मतिथि, पैंशन, जन्म-स्थान, आवास, वल्दियत, ओहदा (ऑनरेरी मजिस्ट्रेट, तीसरा दर्जा), कब्र में सुखी की तमाम डिगरियाँ मय डिवीजन और यूनिवर्सिटी के नाम के खुदी थीं और आखिर में निहायत साफ व बड़े अक्षरों में मुँह फेर कर जाने वाले को एक मुक्तक के माध्यम से यह पूर्व सुसमाचार दिया गया था कि अल्लाह ने चाहा तो बहुत जल्द उसका भी यही हश्र होने वाला है।

मैंने मिर्जा से कहा, 'यह मजार का शिलालेख है या नौकरी की दरख्वास्त? भला डिगरियाँ, ओहदा और वल्दियत आदि लिखने की क्या तुक थी?'

उन्होंने स्वभावानुसार बस एक शब्द पकड़ लिया। कहने लगे, 'ठीक कहते हो। जिस तरह आजकल किसी की आयु या वेतन पूछना बुरी बात समझी जाती है, इसी तरह, बिल्कुल इसी तरह बीस साल बाद किसी के पिता का नाम पूछना अशिष्टता समझी जाएगी।

अब मुझे मिर्जा की चौंचाल तबीयत में खतरा महसूस होने लगा। इसलिए उन्हें वल्दियत के भविष्य पर मुस्कुराता छोड़ कर मैं आठ-दस कब्र दूर एक टुकड़ी में शामिल हो गया जहाँ एक साहब स्वर्गीय के जीवन का मजे ले ले कर बयान कर रहे थे। वह कह रहे थे कि खुदा उन्हें अपने कृपा सागर में डुबोए, स्वर्गीय ने इतनी लंबी उम्र पाई कि उनके निकटवर्ती परिजन दस पंद्रह साल के उनकी इंश्योरेंस पॉलिसी की आस में जी रहे थे। उन उम्मीदवारों में अधिकतर को स्वर्गीय खुद अपने हाथ से मिट्टी दे चुके थे। शेष को यकीन हो गया था कि स्वर्गीय ने अमृत न केवल चखा है बल्कि डगडगा के पी चुके हैं। साक्षी ने तो यहाँ तक विवरण दिया कि चूँकि स्वर्गीय शुरू से रखरखाव के बेहद कायल थे, अतः अंत तक इस स्वास्थ्यवर्धक मान्यता पर कायम रहे कि छोटों को सम्मान प्रदर्शन के लिए पहले मरना चाहिए। अलबत्ता इन चंद बरसों से इनको सितारों की टेढ़ी चाल से यह शिकायत हो चली थी कि अफसोस अब कोई दुश्मन ऐसा बाकी नहीं रहा, जिसे वह मरने की बद्दुआ दे सकें।

उनसे कट कर मैं दूसरी टोली में जा मिला। यहाँ स्वर्गीय के एक परिचित और मेरे पड़ोसी उनके कलहड़ (वह लड़का जो अपनी माँ की दूसरी शादी में नए पिता को मिले) लड़के को सब्र की नसीहत और गोल-मोल शब्दों में उसके स्थानापन्न की दुआ देते हुए कह रहे थे कि बेटे यह स्वर्गीय के मरने के दिन नहीं थे। हालाँकि पाँच मिनट पहले यही साहब, जी हाँ, यही साहब मुझसे कह रहे थे कि स्वर्गीय ने पाँच साल पहले दोनों बीवियों को अपनी तीसरी शादी की बहारें दिखाई थीं और यह उनके मरने के नहीं, डूब मरने के दिन थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि उन्होंने उँगलियों पर हिसाब लगाकर कानाफूसी के अंदाज में यह तक बताया कि तीसरी बीवी की उम्र स्वर्गीय की पेंशन के बराबर है। मगर है बिल्कुल सीधी और बेजुबान। उस अल्लाह की बंदी ने कभी पलट कर नहीं पूछा कि तुम्हारे मुँह में कितने दाँत नहीं हैं। मगर स्वर्गीय इस खुशफहमी में थे कि उन्होंने केवल अपनी प्रार्थनाओं के जोर से सुघड़ महिला का चाल-चलन काबू में कर रखा है। अलबत्ता ब्याहता बीवी से उनकी कभी नहीं बनीं। भरी जवानी में भी मियाँ बीवी 36 के अंक की तरह एक-दूसरे से मुँह फेरे रहे और जब तक जिए, एक दूसरे के स्नायुओं पर हावी रहे। उक्त श्रद्धेया ने मशहूर कर रखा था कि (खुदा उनकी रूह को शर्मिंदा न करे) स्वर्गीय शुरू से ही ऐसे जालिम थे कि शादी के प्रीतिभोज का खाना भी मुझ नई-नवेली दुल्हन से पकवाया।

मैंने बात का रुख मोड़ने की खातिर घने कब्रिस्तान की तरफ इशारा करते हुए कहा कि देखते ही देखते चप्पा-चप्पा आबाद हो गया। मिर्जा स्वभावानुसार फिर बीच में कूद पड़े। कहने लगे, 'देख लेना, वह दिन जियादा दूर नहीं जब कराची में मुर्दे को खड़ा गाड़ना पड़ेगा और नायलौन के रेडीमेड कफन में ऊपर जिप लगेगी ताकि मुँह देखने-दिखाने में आसानी रहे।'

मेरी तबीयत इन बातों से ऊबने लगी तो एक दूसरे झुंड में चला गया जहाँ दो नौजवान सितार के गिलाफ जैसी पतलून चढ़ाये चहक रहे थे। पहले टेडीब्वाय की पीली कमीज पर लड़कियों की ऐसी तस्वीरें बनी थीं कि नजर पड़ते ही नेक आदमी लानत भेजने लगे और हमने देखा कि हर नेक आदमी बार-बार लाहौल पढ़ रहा है। दूसरे नौजवान को स्वर्गीय की असमय मौत से वाकई दिली सदमा पहुँचा था क्योंकि उसका सारा 'वीक-एंड' चौपट हो गया था।

चोंचलों और चुहलों का यह सिलसिला शायद कुछ देर और जारी रहता कि इतने में एक साहब ने हिम्मत करके स्वर्गीय के संबंध में पहली भली बात कही और मेरी जान में जान आई। उन्होंने सही फरमाया, 'यूँ आँख बंद होने के बाद लोग कीड़े निकालने लगें, यह और बात है, मगर खुदा उनकी कब्र को खुशबुओं से भर दे, स्वर्गीय निस्संदेह दिल के साफ, नेक नीयत इनसान थे और नेकनाम भी। यह बड़ी बात है।'

'नेकनामी में कोई शक नहीं, स्वर्गीय अगर यूँ ही हाथ धोने जाते तो सब यही समझते कि नमाज के लिए वजू कर रहे हैं...' वाक्य पूरा होने से पहले प्रशंसक की चमकती चंदिया अचानक एक धँसी हुई कब्र में अस्त हो गई।

इस मोड़ पर एक तीसरे साहब ने (जिनसे मैं परिचित नहीं), किसी पर छींटाकशी करूँ तो मुँह काला हो वाले लहजे में नेकनीयती और साफदिली की व्याख्या करते हुए फरमाया कि कई लोग अपनी पैदायशी कायरता के कारण तमाम उम्र पापों से बचे रहते हैं। इसके उलट कई के दिल दिमाग वाकई आईने की तरह साफ होते हैं - यानी नेक विचार आते हैं और गुजर जाते हैं।

मेरी शामत आई थी कि मेरे मुँह से निकल गया कि, 'नीयत का हाल सिर्फ खुदा पर रोशन है मगर अपनी जगह यही क्या कम है कि स्वर्गीय सबके दुख-सुख में शरीक और छोटे-से-छोटे पड़ोसी से भी झुककर मिलते थे।'

अरे साहब! यह सुनते ही वह साहब तो लाल-भभूका हो गए। बोले, 'माननीयो! मुझे खुदाई का दावा तो नहीं। फिर भी इतना तो जानता हूँ कि अक्सर बूढ़े खुर्राट अपने पड़ोसियों से केवल इसलिए झुक कर मिलते हैं कि अगर वह खफा हो गए तो कंधा कौन देगा।'

खुशकिस्मती से एक खुदा-तरस ने मेरा पक्ष लिया। मेरा मतलब है स्वर्गीय का पक्ष लिया। उन्होंने कहा कि स्वर्गीय ने माशाअल्लाह इतनी लंबी उम्र पाई मगर सूरत पर जरा नहीं बरसती थी। चुनांचे सिवाय कनपटियों के और बाल सफेद नहीं हुए। चाहते तो खिजाब लगाकर छोटों में शामिल हो जाते मगर तबीयत ऐसी मस्त पाई थी कि खिजाब का कभी झूठों ध्यान नहीं आया।

वह साहब सचमुच फट पड़े, 'आप को खबर भी है? स्वर्गीय का सारा सर पहली शादी के बाद ही सफेद गाला हो गया था मगर कनपटियों को वह जानबूझकर सफेद रहने देते थे ताकि किसी को शक न हो कि खिजाब लगाते हैं। सिल्वर ग्रे कलमें, यह तो उनके मेकअप में एक नेचुरल टच था।'

'अरे साहब! इसी कारण से तो उन्होंने अपना एक नकली दाँत तोड़ रखा था।' एक दूसरे निंदक ने ताबूत में अंतिम कील ठोकी।

'कुछ भी सही, वह उन खूसटों से हजार दर्जे अच्छे थे जो अपने पोपले मुँह और सफेद बालों की दाद छोटों से यूँ माँगते फिरते हैं जैसे यह उनकी निजी संघर्ष का फल है।' मिर्जा ने बिगड़ी बात बनाई।

उनसे पीछा छुड़ा कर कच्ची-पक्की कब्रें फाँदता मैं मुंशी सनाउल्ला के पास जा पहुँचा जो एक कब्र के शिलालेख से टेक लगाए, बेरी के हरे-हरे पत्ते कचर-कचर चबा रहे थे और इस बात पर बार-बार आश्चर्य प्रकट कर रहे थे कि अभी परसों तक तो स्वर्गीय बातें कर रहे थे। गोया इनकी अपनी मरण-नियमावली के अनुसार स्वर्गीय को मरने से तीन-चार साल पहले चुप हो जाना चाहिए था।

भला मिर्जा ऐसा मौका कहाँ खाली जाने देते थे। मुझे संबोधित करके कहने लगे, 'याद रखो मर्द की आँख और औरत की जुबान का दम सबसे अंत में निकलता है।'

यूँ तो मिर्जा के बयान से असंबोधित स्वर्गीय की विधवाएँ भी एक दूसरे की छाती पर दोहत्थड़ मारकर बैन कर रही थी, लेकिन स्वर्गीय के बड़े धवेते ने जो पाँच साल से बेरोजगार था, चीख-चीख कर अपना गला बैठा लिया था। मुंशी जी बेरी के पत्तों का रस चूस-चूसकर जितना उसे समझाते पुचकारते, उतना ही वह स्वर्गीय की पेंशन को याद करके दहाड़ें मारकर रोता। अगर उसे एक तरफ यमदूतों से शिकायत थी कि उन्होंने तीस तारीख तक इंतजार क्यों न किया तो दूसरी तरफ खुद स्वर्गीय से भी सख्त शिकायत थी।

क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और?

इधर मुंशीजी का सारा जोर इस फिलासफी पर था कि बेटे यह सब नजर का धोखा है। वास्तव में जिंदगी और मौत में कोई फर्क नहीं, कम-से-कम एशिया में। साथ ही स्वर्गीय बड़े भाग्यशाली थे कि दुनिया के बखेड़ों से इतनी जल्दी आजाद हो गए मगर तुम हो कि नाहक अपनी जवान जान को परेशान किए जा रहे हो। यूनानी कहावत है कि - वही मरता है जो महबूबे-खुदा होता है

दर्शक अभी दिल ही दिल में ईर्ष्या से जले जा रहे थे कि हाय स्वर्गीय की आई हमें क्यों न आ गई कि दम भर को बादल के एक फालसई टुकड़े ने सूरज को ढक लिया और हल्की-हल्की फुहार पड़ने लगी। मुंशी जी ने एक बार में ही बेरी के पत्तों का रस निगलते हुए इस को स्वर्गीय के स्वर्ग के योग्य होने का शगुन करार दिया लेकिन मिर्जा ने भरे मजमे में सर हिला-हिलाकर इस वक्तव्य से विरोध किया। मैंने अलग ले जाकर कारण पूछा तो बोले :

'मरने के लिए सनीचर का दिन बहुत मनहूस होता है।'

लेकिन सबसे अधिक पतला हाल स्वर्गीय के एक दोस्त का था, जिनके आँसू किसी तरह थमने का नाम न लेते थे कि उन्हें स्वर्गीय से पुराने साथ व संबंधों का दावा था। इस आत्मिक एकता के सुबूत में अक्सर इस घटना का जिक्र करते कि कायदा खत्म होने से एक दिन पहले हम दोनों ने एक साथ सिगरेट पीना सीखा। चुनांचे उस वक्त भी उक्त सज्जन के बैन से साफ टपकता था कि स्वर्गीय किसी सोची समझी योजना के तहत दाग बल्कि दगा दे गए और बगैर कहे सुने पीछा छुड़ा चुपचुपाते स्वर्ग को रवाना हो गए - अकेले ही अकेले।

बाद में मिर्जा ने विवरण सहित बताया कि आपसी प्रेम और एके का यह हाल था कि स्वर्गीय ने तीन माह पहले महोदय से दस हजार रुपए नकद बतौर कर्ज लिए और वह तो कहिए कि उसी रकम से तीसरी बीवी का महर भुगता कर गए वरना कयामत में अपने सास-ससुर को क्या मुँह दिखाते।

2

आपने अक्सर देखा होगा कि घने मुहल्लों में विभिन्न बल्कि विपरीत एक दूसरे में बड़ी खूबी से घुल-मिल जाते हैं जैसे दोनों वक्त मिल रहे हों। चुनांचे अक्सर हजरात शादी की दावत में हाथ धोते वक्त चालीसवें (मृतक भोज) की बिरयानी की डकार लेते, या मृत्यु के तीसरे दिन के खाने में सुहागरात की विजय की आनंददायक दास्तान सुनाते पकड़े जाते हैं। पड़ोसी होने के मजे का यह नक्शा भी देखने में आया कि एक किवाड़ में हनीमून मनाया जा रहा है तो रतजगा दीवार के उस पार हो रहा है और यूँ भी होता है कि दाईं तरफ वाले घर में आधी रात को कव्वाल बिल्लियाँ लड़ा रहे हैं तो मस्ती बाईं तरफ वाले घर में आ रही है। आमदनी पड़ौसी की बढ़ती है तो उस खुशी में अनुचित खर्च हमारे घर का बढ़ता है और यह हादसा भी कई बार हुआ कि मछली बाँकी पड़ोसन ने पकाई और -

मुद्दतों अपने बदन से तिरी खुश्बू आई

इन आयोजनों के घपले का सही अंदाजा मुझे दूसरे दिन हुआ जब एक शादी की दावत में तमाम वक्त स्वर्गीय की मौत की चर्चा होती रही। एक बुजुर्ग ने, जो कि सूरत से खुद जाने को तैयार मालूम होते थे, घबराये हुए लहजे में पूछा, 'आखिर हुआ क्या?' जवाब में स्वर्गीय के एक सहपाठी ने इशारों में बताया कि स्वर्गीय जवानी में विज्ञापनों वाली बीमारियों का शिकार हो गए थे। अधेड़ उम्र में शारीरिक संबंधों में लगे रहे लेकिन आखिरी दिनों में बुराइयों से बचने की बीमारी हो गई थी।

'फिर भी आखिर हुआ क्या?' उस पार जाने को तैयार वृद्ध महोदय ने अपना सवाल दोहराया।

'भले-चंगे थे। अचानक एक हिचकी आई और जान दे दी।' दूसरे बुजुर्ग ने अँगोछे से एक फर्जी आँसू पोंछते हुए फरमाया।

'सुना है चालीस बरस से मरण-रोग से ग्रसित थे।' एक साहब ने सूखे से मुँह से कहा।

'क्या मतलब?'

'चालीस बरस से खाँसी चल रही थी और अंत में इसी में जान दे दी।'

'साहब! जन्नती थे कि किसी अजनबी मरज में नहीं मरे। वरना अब तो मेडिकल साइंस की तरक्की का यह हाल है कि रोज एक नया मरज आविष्कार होता है।'

'आपने गांधी गार्डन में उस बोहरी सेठ को चहलकदमी करते नहीं देखा जो कहता है कि मैं सारी उम्र दमे पर इतनी लागत लगा चुका हूँ कि अब अगर किसी और बीमारी में मरना पड़ा तो खुदा की कसम खुदकुशी कर लूँगा।' मिर्जा चुटकुलों पर उतर आए।

'वल्लाह! मौत हो तो ऐसी हो। (सिसकी) स्वर्गीय के होंटों पर आखिरी बेहोशी में भी मुस्कुराहट खेल रही थी।'

'अपने कर्ज देने वालों का ध्यान आ रहा होगा।'

मिर्जा मेरे काम में फुसफुसाए।

'गुनहगारों का मुँह मरते वक्त सूअर जैसा हो जाता है, मगर बुरी नजर न लगे, स्वर्गीय का चेहरा गुलाब की तरह खिला हुआ था।'

'साहब! सिलेटी रंग का गुलाब हमने आज तक नहीं देखा।' मिर्जा की ठंडी-ठंडी नाक मेरे कान को छूने लगी और उनके मुँह से कुछ ऐसी आवाजें निकलने लगीं जैसे कोई बच्चा चमकीले फर्नीचर पर गीली उँगली रगड़ रहा हो।

मूल शब्द तो ध्यान से उतर गए, लेकिन इतना अब भी याद है कि अँगोछे वाले बुजुर्ग ने एक दार्शनिक भाषण दे डाला, जिसका अर्थ कुछ ऐसा था कि जीने का क्या है। जीने को तो जानवर भी जी लेते हैं लेकिन जिसने मरना नहीं सीखा वह जीना क्या जाने? एक मुस्कान भरा समर्पण, एक बेताब आतुरता के साथ मरने के लिए एक उम्र का अभ्यास चाहिए है। यह बड़े जिगरे, बड़े हौसले का काम है बंदानवाज।

फिर उन्होंने बेमौत मरने के खानदानी नुस्खे और हँसते-खेलते निकलने के पैंतरे कुछ ऐसे उस्तादाना तेवर से बयान किए कि हमें सामान्य मरने वालों से हमेशा के लिए नफरत हो गई।

बातचीत इस पर खत्म हुई कि स्वर्गीय ने किसी रूहानी तरीके से सुन-गुनवा ली थी कि मैं सनीचर को मर जाऊँगा।

'हर मरने वाले के संबंध में यही कहा जाता है', सचित्र कमीज वाला टेडीब्वाय बोला।

'कि वह सनीचर को मर जाएगा?' मिर्जा ने उस बेलगाम का मुँह बंद किया।

अँगोछे वाले बुजुर्ग ने पहले अँगोछे से अपने नरी के जूते की गर्द झाड़ी फिर माथे से पसीना पोंछते हुए स्वर्गीय के मृत्यु-आभास की गवाही दी कि स्वर्गीय ने ईश्वर-मिलन से ठीक चालीस दिल पहले मुझसे कहा था कि मरना है।

इनसान के बारे में यह ताजा खबर सुन कर मिर्जा मुझे अकेले में ले गए। दरअस्ल अकेले का शब्द उन्होंने प्रयोग किया था, वरना जिस जगह वह मुझे धकेलते हुए ले गए थे, वह जनाने और मर्दाने की सरहद पर एक चबूतरा था, जहाँ एक मिरासन घूँघट निकाले ढोलक पर गालियाँ गा रही थी। वहाँ उन्होंने उस प्यार की तरफ इशारा करते हुए, जो स्वर्गीय को अपनी मौत से था, मुझे आगाह किया कि यह ड्रामा तो स्वर्गीय अक्सर खेला करते थे। आधी रात में अपनी होने वाली विधवाओं को जगाकर धमकियाँ देते थे कि मैं अचानक अपना साया तुम्हारे सर से उठा लूँगा। पलक झपकते ही माँग उजाड़ दूँगा। अपने बेतकल्लुफ दोस्तों से भी कहा करते कि वल्लाह अगर आत्महत्या जुर्म न होती तो कभी का अपने गले में फंदा डाल लेता। कभी यूँ भी होता कि अपने-आप को मुर्दा सोच कर डकराने लगते और कल्पना की आँख से मँझली के सोंटा से हाथ देख कर कहते, कसम खुदा की मैं तुम्हारा रँडापा नहीं देख सकता। मरने वाले की एक-एक खूबी बयान करके सूखी सिसकियाँ भरते और सिसकियों के बीच में सिगरेट के कश लगाते और जब इस कार्य से अपने ऊपर रुलाई चढ़ा लेते तो रूमाल से बार-बार आँख के बजाय अपनी डबडबाई हुई नाक पोंछते जाते। फिर जब रोने की अधिकता से नाक लाल हो जाती तो थोड़ा सब्र आता और वह कल्पना की हालत में अपने कँपकँपाते हुए हाथ से तीनों विधवाओं की माँग में एक के बाद एक ढेरों अफशाँ (कुछ मुस्लिम सिंदूर की जगह इसे प्रयोग करते हैं) भरते। इस से निवृत्त होकर हर एक को कुहनियों तक महीन-महीन, फँसी-फँसी चूड़ियाँ पहनाते (नई ब्याहता को चार चूड़ियाँ कम पहनाते थे।)

हालाँकि इससे पहले भी मिर्जा को कई बार टोक चुका था कि उस्ताद ज़ौक (बहादुर शाह जफर के उस्ताद) हर कसीदे के बाद मुँह भर-भर के कुल्लियाँ किया करते थे। जो तुम पर हर वाक्य, हर पंक्ति के बाद जुरूरी हैं लेकिन इस वक्त स्वर्गीय के बारे में यह ऊल-जलूल बातें और ऐसे खुले लहजे में सुनकर मेरी तबीयत को जियादा ही घिन चढ़ गई। मैंने दूसरों पर ढालकर मिर्जा को सुनाई, 'यह कैसे मुसलमान हैं मिर्जा। निजात की दुआ नहीं करते, न करें। मगर ऐसी बातें क्यों बनाते हैं यह लोग?'

'जनता की जुबान किसने पकड़ी है। लोगों का मुँह तो चालीसवें के खाने से ही बंद होता है।'

3

मुझे चालीसवें में भी सम्मिलित होने का अवसर मिला लेकिन सिवाय एक शांत स्वभाव मौलवी साहब के जो पुलाव के चावलों की लंबाई और गलावट को स्वर्गीय के स्वर्ग में जगह मिलने की निशानी करार दे रहे थे, शेष लोगों की बातचीत का अंदाज वही था। वही जगजगे थे वही चहचहे।

एक बुजुर्गवार जो नान कोरमे के हर गर्मागर्म निवाले के बाद आधा-आधा गिलास पानी पीकर वक्त से पहले संतुष्ट बल्कि तृप्त हो गए थे, मुँह लाल करके बोले कि स्वर्गीय की औलाद बड़ी नालायक निकली। स्वर्गीय जोरदार वसीयत कर गए थे कि मेरी मिट्टी बगदाद ले जाई जाए लेकिन अवज्ञाकारी औलाद ने उनकी अंतिम इच्छा का थोड़ा भी ध्यान न किया।

इस पर एक मुँहफट पड़ोसी बोल उठे, 'साहब! यह स्वर्गीय की सरासर जियादती थी कि उन्होंने खुद तो मौत आने तक म्यूनिसिपल सीमा से बाहर कदम नहीं निकाला। हद यह कि पासपोर्ट तक नहीं बनवाया और...'

एक वकील साहब ने कानूनी नुक्ता निकाला, 'अंतर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि से पासपोर्ट की शर्त सिर्फ जिंदों के लिए है। मुर्दे पासपोर्ट के बगैर भी जहाँ चाहें जा सकते हैं।'

'ले जाए जा सकते हैं।' मिर्जा ने लुकमा दिया।

मैं कह यह रहा था कि यूँ तो हर मरने वाले के सीने में यह ख्वाहिश सुलगती रहती है कि मेरी काँसे की मूर्ति (जिसे आदमकद बनाने के लिए कभी-कभी अपनी तरफ से पूरे एक फुट की बढ़ोत्तरी करनी पड़ती है) म्यूनिसिपल पार्क के बीचों-बीच लगाई जाए और...'

'...और शहर की सारी हसीनाएँ चार महीने दस दिन तक मेरी मैय्यत को गोद में लिए बाल बिखराए बैठी रहें।' मिर्जा ने दूसरी पंक्ति लगाई।

'मगर साहब! वसीयतों की भी एक हद होती है। हमारे छुटपन का एक किस्सा है। पीपल वाली हवेली के पास एक झोंपड़ी में सन 1939 ई. तक एक अफीमची रहता था। हमारे संकोचग्रस्त अनुमान के अनुसार उम्र 66 साल से किसी तरह कम न रही होगी। इसलिए कि खुद कहता था कि पैंसठ साल से तो अफीम खा रहा हूँ। चौबीसों घंटे अंटा गफील रहता था। जरा नशा टूटता तो उदास हो जाता - गम यह था कि दुनिया से बेऔलाद जा रहा हूँ। अल्लाह ने कोई बेटा नहीं दिया जो उसकी बान की चारपाई का जायज वारिस बन सके। इसके बारे में मुहल्ले में मशहूर था कि पहले विश्वयुद्ध के बाद से नहाया नहीं है। उसको इतना तो हमने भी कहते सुना कि खुदा ने पानी सिर्फ पीने के लिए बनाया था मगर इनसान बड़ा जालिम है - राहतें और भी हैं गुस्ल की राहत के सिवा

'हाँ तो साहब! जब उसकी आखिरी घड़ी आई तो मुहल्ले की मस्जिद के इमाम का हाथ अपने डूबते दिल पर रखकर यह करार किया कि मेरी मैय्यत को नहलाया न जाए। बस, पोले-पोले हाथों से मिट्टी से साफ करके दफना दिया जाए वरना कयामत में दामन पकड़ेगा।'

वकील साहब ने अनुमोदन करते हुए कहा, 'अक्सर मरने वाले अपने करने के काम अपने परिजनों पर छोड़कर ठंडे-ठंडे सिधार जाते हैं। पिछली गर्मियों में दीवानी अदालतें बंद होने से कुछ दिन पहले एक स्थानीय शायर का देहांत हुआ। सच्चाई है कि उनके जीते जी किसी फिल्मी रिसाले ने भी उनकी अश्लील नज्मों को छपने से शर्मिंदा न किया लेकिन आप को हैरत होगी कि मृतक अपने भतीजे को पुण्य प्राप्ति का यह मार्ग समझा गए कि मेरी मौत के बाद मेरा कलाम कत्थई कागज पर छपवा कर साल के साल मेरी बरसी पर भिखारियों और संपादकों को बुलाकर मुफ्त बाँट दिया जाए।

पड़ोसी की हिम्मत और बढ़ी, 'अब स्वर्गीय ही को देखिए। जिंदगी में ही जमीन का एक टुकड़ा अपनी कब्र के लिए बड़े अरमानों से रजिस्ट्री करा लिया था। यूँ तो बेचारे उस पर कब्जा पूरे बारह साल बाद ले पाए। नसीहतों और वसीयतों का यह हाल था कि मौत से दस साल पहले एक सूची अपने धवेतों के हवाले की जिसमें नाम लिखे थे कि फलाँ वल्द फलाँ को मेरा मुँह न दिखाया जाए।' (जिनसे जियादा नाराज थे उनके नाम के आगे वल्दियत नहीं लिखी थी। तीसरी शादी के बाद उन्हें इसका विराट एडीशन बनाना पड़ा, जिसमें तमाम जवान पड़ोसियों के नाम शामिल थे।)

'हमने तो यहाँ तक सुना है कि स्वर्गीय न सिर्फ अपने जनाजे में शरीक होने वालों की संख्या तय कर गए थे, बल्कि आज के चालीसवें का मेन्यू भी खुद ही तय कर गए थे।' वकील ने रेखाचित्र में चटख रंग भरा।

इस नाजुक मोड़ पर खशखशी दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने पुलाव से तृप्त होकर अपने पेट पर हाथ फेरा, मेन्यू के अनुमोदन और प्रशंसा में एक लंबी डकार दागी, जिसके आखिर में एक मासूम इच्छा प्रकट की कि काश आज स्वर्गीय जिंदा होते तो यह व्यवस्था देखकर बहुत खुश होते।

अब पड़ोसी ने अपनी जुबान की तलवार म्यान से निकाली, 'स्वर्गीय सदा से संग्रहणी के मरीज थे। खाना तो खाना बेचारे के पेट में बात तक नहीं ठहरती थी। चटपटी चीजों को तरसते ही मरे। मेरे घर में बता रही थीं कि एक बार मलेरिया में सरसाम हो गया और लगे बहकने। बार-बार अपना सर मँझली की रान पर पटकते और सुहाग की कसम दिला कर यह वसीयत करते थे कि हर जुमेरात मेरी फातिहा चाट और कुँवारी बकरी की सिरी पर दिलवायी जाए।'

मिर्जा फड़क ही तो गए। होंठ पर जुबान फेरते हुए बोले, 'साहब वसीयतों की कोई हद नहीं। हमारे मुहल्ले में डेढ़ पौने दो साल पहले एक स्कूल मास्टर का देहांत हुआ जिन्हें मैंने ईद बकरीद पर भी पूरा और साबुत पाजामा पहने नहीं देखा मगर मरने से पहले वह भी अपने लड़के को हिदायत कर गए कि -

पुल बना, कुआँ बना, मस्जिदो-तालाब बना

लेकिन अब्बा हुजूर की अंतिम वसीयत के अनुसार पुण्य का रास्ता बनाने में गरीबी के अलावा देश का कानून भी रोड़ा बना।'

'यानी क्या?', वकील साहब के कान खड़े हुए।

'यानी यह कि आजकल पुल बनाने की अनुमति सिर्फ पी.डब्ल्यू.डी. को है और अगर कठिन कल्पना करें कि कराची में चार फीट गहरा कुआँ खोद भी लिया तो पुलिस इस खारा कीचड़ पीने वालों का चालान खुदकुशी का कदम उठाने में कर देगी। यूँ भी फटीचर से फटीचर कस्बे में आजकल कुएँ सिर्फ ऐसे वैसे मौकों पर डूब मरने के लिए काम आते हैं। रहे तालाब तो हुजूर! ले देकर इनका सिर्फ यह उद्देश्य रह गया है कि दिन भर गाँव की भैंसें इनमें नहाएँ और सुबह जैसी आई थीं, उससे कहीं अधिक गंदी होकर दिया-जले बाड़े में पहुँचें।'

खुदा-खुदा करके यह डायलॉग खत्म हुआ तो पटाखों का सिलसिला शुरू हो गया :

'स्वर्गीय ने कुछ छोड़ा भी?'

'बच्चे छोड़े हैं।'

'मगर दूसरा मकान भी तो है।'

'उसके किराये को अपने मजार की सालाना मरम्मत-सफेदी के लिए निर्देश दे कर गए हैं।'

'पड़ोसियों का कहना है कि ब्याहता बीवी के लिए एक अँगूठी भी छोड़ी है। अगर उसका नगीना अस्ली होता तो किसी तरह बीस हजार से कम की नहीं थी।'

'तो क्या नगीना झूठा है?'

'जी नहीं। अस्ली इमीटेशन है।'

'और वह पचास हजार की इंश्योरेंस पॉलिसी क्या हुई?'

'वह पहले ही मँझली के मेहर में लिख चुके थे।'

'इसके बारे में यार लोगों ने लतीफा गढ़ रखा है कि मँझली बेवा कहती है कि सरताज के बगैर जिंदगी अजीरन है। अगर कोई जिंदा कर दे तो मैं खुशी-खुशी दस हजार लौटाने को तैयार हूँ।

'हमने घर वालों से सुना है कि अल्लाह उन्हें करवट-करवट जन्नत नसीब करे, स्वर्गीय मँझली पर ऐसे लहालोट थे कि अब भी रात-बिरात, सपनों में आकर डराते हैं।'

'स्वर्गीय अगर ऐसा करते हैं तो बिल्कुल ठीक करते हैं। अभी तो उनका कफन भी मैला नहीं हुआ होगा मगर सुनने में आया है कि मँझली ने रंगे-चुने दुपट्टे ओढ़ने शुरू कर दिए हैं।

'अगर मँझली ऐसा करती है तो बिल्कुल ठीक करती है। आप ने सुना होगा कि एक जमाने में लखनऊ के निचले तबके में यह रिवाज था कि चालीसवें पर न सिर्फ किस्म-किस्म के खाने परोसे जाते थे, बल्कि विधवा भी सिंगार करके बैठती थीं ताकि स्वर्गीय की तरसी हुई रूह किसी हद तक फायदा उठा सके।' मिर्जा ने आखिरी कोड़ा लगाया।

वापसी पर रास्ते में मैंने मिर्जा को आड़े हाथों लिया, 'जुमे को तुमने प्रवचन नहीं सुना? मौलवी साहब ने कहा था कि मरे हुओं का जिक्र करो तो अच्छाई के साथ। मौत को न भूलो कि एक न एक दिन सबको आनी है।'

सड़क पार करते-करते एकदम बीच में अकड़कर खड़े हो गए। फरमाया, 'अगर कोई मौलवी यह जिम्मा ले ले कि मरने के बाद मेरे नाम के आगे रहमतुल्लाह लिखा जाएगा तो आज ही - इसी वक्त, इसी जगह मरने को तैयार हूँ। तुम्हारी जान की कसम।'

अंतिम वाक्य मिर्जा ने एक बेसब्री कार के बंपर पर लगभग उकड़ूँ बैठ कर जाते हुए बोला।