भाग - 9 / मेरे मुँह में ख़ाक / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

Gadya Kosh से
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चार महीने होने आए थे। शहर का कोई लायक डॉक्टर बचा होगा जिसने हमारी आर्थिक परेशानियों में अपनी योग्यता के हिसाब से बढ़ोत्तरी न की लेकिन बाईं कोहनी का दर्द किसी तरह कम होने का नाम नहीं लेता था। इलाज ने जब तेजी पकड़ी और बीमारी ने पेचीदा होकर गरीबी की शक्ल अपना ली तो लखनऊ के एक लायक हकीम से संपर्क किया जो सिर्फ मायूस और कब्र में पैर लटकाए रोगियों का इलाज करते थे। रोगी के अच्छा होने की जरा भी संभावना दिखाई पड़े तो बिगड़ जाते और दुत्कार कर निकलवा देते कि जाओ अभी कुछ और दिन डॉक्टर का इलाज करो। अल्लाह ने उनके हाथ में कुछ ऐसा करिश्मा दिया था कि एक बार उनसे इलाज कराके कोई बीमार, चाहे मौत के बिस्तर पर ही क्यों न हो, रोग से नहीं मर सकता था, दवा से मरता था। रोग के कीटाणु के लिए तो उनकी दवा गोया अमृत का दर्जा रखती थी। गरीबों का इलाज मुफ्त करते, मगर पैसे वालों को फीस लिए बगैर नहीं मारते थे। हकीम साहब ऊँचा सुनते ही नहीं, ऊँचा समझते भी थे यानी सिर्फ मतलब की बात। शायरी भी करते थे। हम इस पर एतराज करने वाले कौन? लेकिन मुसीबत यह थी कि शायरी में हकीमी और हकीमी में शायरी के हाथ दिखा जाते थे। मतलब यह कि दोनों में नियमों के पाबंद न थे। हकीमों में अपने अलावा उस्ताद इब्राहीम 'ज़ौक' को मानते थे। वह भी सिर्फ इस आधार पर कि बकौल 'आजाद', उस्ताद ने संगीत और ज्योतिष सीखने की कृतघ्न कोशिश के बाद कुछ दिन हकीमी की। मगर उसमें लगा कि लोग अकारण मर रहे हैं, इसलिए अपनी योग्यता की दिशा उर्दू शायरी की तरफ मोड़ दी। हकीम साहब किबला अपनी जात और डायरी पर पूरा भरोसा रखते थे, हाँ कभी अपनी ही खोज से बनाई माजून, जिसे खाकर आसमान की सैर की जा सकती थी, के असर से अगर दिल बड़ा और मिजाज शिष्ट हो जाए तो, शायरी समझने वाले मरीज के सामने यहाँ तक स्वीकार कर लेते थे कि एक लिहाज से 'ग़ालिब' उनसे बेहतर था। खत अच्छे-खासे लिख लेता था। मगर वह लोग कहाँ जिसे कोई ऐसे खत लिखे।

खानदानी हकीम थे। और खानदान भी ऐसा वैसा! उनके परदादा कस्बा संडीला के जालीनूस (प्रसिद्ध यूनानी हकीम) थे, बल्कि उससे भी बढ़कर। हकीम जालीनूस अंधे और कई बीबियों वाले न थे, यह थे। नब्ज देखने में संडीला के चारों खूँट उनका कोई मुकाबिल न था। रंगी-बयान कहानी सुनाने वाले कहते हैं कि उनकी खानदानी हवेली में चार बेगमें, जिनमें हर एक चौथी थी और हरम में दर्जनों लौडियाँ रूली फिरती थी। आधी रात की नमाज के समय वुजू कराने की हर एक की बारी तय थी मगर आधी रात गए आवाज देकर सबकी नींद खराब नहीं करते थे। हौले से नब्ज छूकर बारी वाली को जगा देते थे और ऐसा कभी नहीं हुआ कि गलत नब्ज पर हाथ पड़ा हो।

जालीनूस के पोते ने हमारी नब्ज, जुबान, जिगर, पेट, नाखून, पेशाब, पपोटे - सार-संक्षेप यह कि सिवाय कोहनी के हर चीज का मुआयना किया। फीस तय करने से पहले हमारी कार का इंजन भी स्टार्ट करवा के अपने चश्मे से देखा और फीस माफ कर दी। फिर भी एहतियातन पूछ लिया कि महीने की आखिरी तारीखों में आँखों के सामने तिरे-मिरे नाचते हैं? हमने सर हिलाकर स्वीकार कर लिया तो मरज और उर्दू जुबान के मजे लूटते हुए बोले कि हाथ ठीक है, कोहनी पर जो दर्द है, दर्द में जो चपक है, चपक में जो टीस है, और टीस में जो कसक रह-रह कर महसूस होती है, वह गैस की है। बकौल मिर्जा, यह जाँच न थी, हमारी बीमारी की तौहीन थी। हमारे अपने रोगाणुओं के मुँह पर तमाचा था। चुनांचे यूनानी हकीमी से रहा-सहा भरोसा चौबीस घंटे के लिए बिल्कुल उठ गया। इन चौबीस घंटों में हमने कोहनी का हर कोण से एक्सरे कराया लेकिन इससे मायूसी और बढ़ी। इसलिए कि कोहनी में कोई खराबी नहीं निकली।

पूरे दो महीने मरज में हिंदू योग आसन और मेथी के साग की बढ़ोत्तरी करने के बाद हमने मिर्जा से जाकर समस्या बताई। हमारा हाल सुनने के बाद दाईं कलाई पर दो उँगलियाँ रखकर उन्होंने नब्ज देखी। हमने हैरत से उनकी तरफ देखा तो बोले, 'चालीस साल बाद मर्द का दिल नीचे उतर आता है।' फिर बोले, 'तुम्हारा इलाज यह है कि फौरन बाइफोकल बनवा लो।' हमने कहा, 'मिर्जा! तुम तो शराब भी नहीं पीते। कोहनी का आँख से क्या संबंध?' बोले, 'चार पाँच महीने से देख रहा हूँ कि तुम्हारी पास की नजर भी खराब हो गई है। किताब नजदीक हो तो तुम पढ़ नहीं सकते। उम्र का तकाजा ही कहना चाहिए। तुम अखबार और किताब को आँख से तीन फिट दूर बाएँ हाथ में पकड़ कर पढ़ते हो। इसी लिए हाथ के पुट्ठे अकड़ गए हैं। चुनांचे कोहनी में जो दर्द है, दर्द में जो...'

माना कि मिर्जा हमारे साथी और हमदर्द हैं लेकिन उनके सामने बीमारी को खोलते हुए हमें हौल आता है। इसलिए कि अपने फकीरी चुटकुलों से अस्ल मरज को तो जड़-बुनियाद से उखाड़ कर फेंक देते हैं, लेकिन तीन चार नए मरज गले पड़ जाते हैं, जिनके लिए फिर उन्हीं से सलाह लेना पड़ती है और वह हर बार अपने इलाज से हर मरज को चार से गुणा करते चले जाते हैं। इस ढंग से इलाज करने का फायदा यह है कि कुछ हिस्सा फायदे के बाद दिल फिर अस्ल बीमारी के रात-दिन ढूँढ़ता है और मरीज को अपनी उस बीमारी के स्वर्गीय रोगाणु बहुत याद आते हैं और वह उनकी मेहरबानियों को याद करके रोता है। कुछ दिनों की बात है। हमने कहा, 'मिर्जा! तीन-चार महीने से हमें तकिए पर सुबह दर्जनों सफेद बाल पड़े मिलते हैं।' पूछा, 'अपने तकिए पर?' निवेदन किया, 'हाँ!', शरलक होम्ज के विशिष्ट जासूसी अंदाज में चंद मिनट गहरी जाँच-पड़ताल के बाद बोले, 'संभवतः तुम्हारे होंगे।' हमने कहा, 'हमें भी यही शक था।' बोले, 'भाई मेरे! तुमने तमाम उम्र जब्त और एहतियात से काम लिया है। अपनी निजी भावनाओं को हमेशा नियंत्रण-सीमा में रखा है। इसलिए तुम अड़तीस साल की उम्र में गंजे हो गए हो।' इस खोज के बाद उन्होंने हमें एक तरल खिजाब का नाम बताया, जिससे बाल काले और मजबूत हो जाते हैं। चलते समय उन्होंने हमें कड़ाई से सावधान किया कि तेल ब्रश से लगाया जाए वरना हथेली पर भी बाल निकल आएँगे। जिसके लिए वह और दवा कंपनी हरगिज जिम्मेदार न होंगे। वापसी में हमने बड़ी आतुरता की हालत में सबसे बड़े साइज की शीशी खरीदी और दुकानदार से रेजगारी भी वापस न ली कि इसमें सरासर समय की बर्बादी थी। चालीस दिन के लगातार इस्तेमाल से यह असर हुआ कि सर पर जितने भी काले बाल थे, वह तो एक-एक करके झड़ गए, अलबत्ता जितने सफेद बाल थे वह बिल्कुल मजबूत हो गए, इसलिए नहीं गिरे। बल्कि जहाँ पहले एक सफेद बाल था, वहाँ अब तीन निकल आए हैं।

बाइफोकल का नाम आते ही हम सँभल कर बैठ गए। हमने कहा, 'मिर्जा! मगर हम तो अभी चालीस साल के नहीं हुए।' बोले, 'मरज के रोगाणु पढ़े-लिखे नहीं होते कि कैलेंडर देखकर हमला करें। जरा हाल देखो अपना। सेहत ऐसी कि बीमा कंपनियों के एजेंट नाम से भागते हैं। सूरत ऐसी जैसे, माफ करना, रेडियो फोटो और रंग भी अब गेहुआँ नहीं रहा। अल्लाह और बीवी के डर से पीला हो गया है। अगर कभी यारों की बात मान लेते तो जिंदगी सँवर जाती।' हमने कहा, 'हमारा जो हाल है वह तन्हा किसी एक आदमी के गलत फैसलों से हरगिज नहीं हो सकता। हमें तो इसमें पूरी कौम का हाथ नजर आता है।' बोले, 'जापान में बागबानी की कला के एक विशेष विभाग बोन्साई को बड़ी ऊँची निगाह से देखा जाता है। इसके माहिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी पेड़ों को इस चाव-चोंचले से उगाते और सींचते हैं और उनकी उठान को इस तरह काबू में रखते हैं कि तीन-तीन सौ साल पुराने पेड़ में फल-फूल भी आते हैं, पतझड़ भी होता है, मगर एक बालिश्त से ऊँचा नहीं हो पाता। तुमने अपने व्यक्तित्व को इसी तरह पाला-पोसा है।'

हमने आँखों में आँसू भर कर कहा, 'मिर्जा हम ऐसे न होते तो तुम नसीहत किसे करते?' कुछ नर्म पड़े। बोले, 'नसीहत कौन मसखरा करना चाहता है? मगर तुमने दिमाग से कभी काम नहीं लिया। खाली चाल-चलन के बिरते पर जीवन बिता दिया।' हमने कहा, 'मिर्जा तुम यह न कहो। हम सारा जीवन अपनी इच्छाओं से गुरिल्ला युद्ध करते रहे हैं। तुम हमारे दिल के खोट से परिचित हो, यह आग - पूरी बुझी नहीं, ये बुझाई हुई सी है'

'जहाँ तक हमारे किए-धरे का सवाल है, खुदा जानता है कि हमारा कोई काम, कोई काज गुनाह के घेरे में नहीं लेकिन स्वर्ग-नर्क का फैसला केवल नीयत के आधार पर हुआ तो हमारे नर्क में जाने में खुद हमें कोई संदेह नहीं।' मुस्कुरा दिए। बोले, 'जिन सुंदरियों ने अपनी सुंदरता से तुम्हारे ज्ञान-ध्यान में विघ्न डाला, उनकी संख्या, कुछ नहीं तो, कराची की आधी जनसंख्या के बराबर तो होगी?'

हमने मिर्जा को याद दिलाया कि लड़कपन से ही हम शांत जीवन बसर करने के विरोधी रहे हैं। मार-धाड़ से भरपूर जेम्स बांड जैसा जीवन जीने के लिए कैसे-कैसे जतन किए। उन्हें तो क्या याद होगा, काजी अब्दुल कुद्दूस उन दिनों हमें Bull Fighting की ट्रेंनिंग दिया करते थे और एक दाढ़ीदार बोक बकरे को सुर्ख तुर्की टोपी पहनाकर, हमें उसके खिलाफ भड़काते थे। मिडिल में 33 नंबर से हिसाब में फेल होने के बाद हमने धनार्जन के बारे में यह निर्णय किया कि अगर माँ इजाजत दें तो Pirate बन जाएँ। लेकिन जब समझदारी आई और अंग्रेज शासकों से नफरत के साथ-साथ अच्छाई-बुराई की समझ भी पैदा हुई तो जीवन के लक्ष्य में मिर्जा ही के मशवरे से इतना करेक्शन करना पड़ा कि सिर्फ अंग्रेजों के जहाजों को लूटेंगे मगर उनकी मेमों के साथ अत्याचार नहीं करेंगे। शादी करेंगे।

बोले, 'यह सब समस्याएँ मिडिल एज की हैं, जो तुम्हारे केस में जरा सवेरे ही आ गई हैं। एक रूसी एनारकिस्ट ने एक बार क्या अच्छा सुझाव दिया कि पच्चीस साल से अधिक आयु वालों को फाँसी दे दी जाए लेकिन फाँसी से अधिक कठोर यातना तुम जैसों के लिए यह होगी कि तुम्हें जीवित रहने दिया जाए। मिडिल एज का बुढ़ापे के सिवा कोई इलाज नहीं है। हाँ गरीबी और रूहानियत से थोड़ा बहुत आराम आता है। हमारे यहाँ अभाव के जीवन के, ले दे के, दो ही काम हैं। अय्याशी - और अगर इसका बूता न हो तो रूहानियत (दर्शन) और कव्वाली इन दोनों का निचोड़ है।

'और तुम्हारा इलाज है, एक अदद बाइफोकल और वृहस्पतिवार की वृहस्पतिवार कव्वाली। दो दिन से साईं गुलंबर शाह का उर्स हो रहा है। आज रात भी हमारे पीर साहब ने कव्वाली की महफिल रखी है। मटके वाले कव्वालों की चौकी के अलावा हैदराबाद की एक तवायफ भी काव्य प्रस्तुत करेंगी।' हमने पूछा, 'जिंदा तवायफ?' बोले, 'हाँ, सचमुच की। मरे क्यों जा रहे हो? उच्चारण के अलावा नख-शिख से भी अच्छी। हजरत से दीक्षित होने के बाद उसने शादी-ब्याह के मुजरों से तौबा कर ली है। अब सिर्फ मजारों पर गाती है या रेडियो पाकिस्तान से और साहब, ऐसा गाती है, ऐसा गाती है कि घंटों देखते रहो। हँसते क्या हो, एक नुक्ता आज बताए देते हैं - गाने वाली की सूरत अच्छी हो तो ऊटपटाँग शेर का मतलब भी समझ में आ जाता है।'

शाम की नमाज के बाद हमने कव्वाली की तैयारियाँ शुरू की। ईद का कढ़ा हुआ कुर्ता पहना, जुमे की नमाज वाले खास जूते निकाले। (मस्जिद में हम कभी आम जूते पहन कर नहीं जाते। इसलिए कि जूते अगर साबित हों तो सजदे में भी दिल उन्हीं में पड़ा रहता है) मिर्जा हमें लेने आए तो नथुने फड़काते हुए पूछा कि आज तुममें से जनाजे की सी बू क्यों आ रही है? हमने घबरा कर अपनी नब्ज देखी। दिल तो अभी धड़क रहा था। कुछ देर बाद बात समझ में आई तो हमने स्वीकार किया कि गर्म शेरवानी दो साल बाद निकाली है। कपूरी गोलियों की गंध बुरी तरह बस गई थी। उसे दबाने के लिए थोड़ा-सा हिना का इत्र लगाया है। कहने लगे, 'जहाँ महफिल के नियमों का इतना ध्यान रखा है वहाँ इतना और करो कि एक-एक रुपए के नोट अंदर की जेब में डाल लो।' हमने पूछा, 'क्यों?' बोले, 'जो शेर तुम्हारी या मेरी समझ में आ जाए, उस पर एक नोट सम्मान के साथ पेश करना।' चुनांचे सारी रात हमारी यह ड्यूटी रही कि सुनने का जाल बिछाए बैठे रहें और उस रात के दौरान मिर्जा के चेहरे पर भी नजरें जमाए रहें कि ज्यों ही उनके नथुनों से जाहिर हो कि शेर समझ में आ गया है, अपनी हथेली पर नोट रखकर पीर साहब को पेश करें और वह उसे छूकर कव्वालों को बख्श दें।

अपने अस्तित्व से मायूस लोगों का इससे अधिक बड़ा जमघट हमने अपने चालीस साला अनुभव में नहीं देखा। शहर के चोटी के अधेड़ यहाँ मौजूद थे। जरा देर बाद पीर साहब पधारे। भारी बदन, नींद से भरी हुई आँखें। छाज-सी दाढ़ी। कतरवाँ लबें। टखनों तक गेरुआ कुर्ता। सर पर काले मखमल की चौकोनी टोपी जिसके नीचे रुपहले बालों की कगर। हाथों में हरी माला। साज मिलाए गए। यानी हारमोनियम को तालियों और तालियों को मटके से मिलाया गया और जब शायर के कलाम को इन सबसे ढेर कर लिया गया तो कव्वाली का रंग जमा। हमारा तो विचार है कि इस पाए के गायकों को तो मुगलों के जमाने में पैदा होना चाहिए था, ताकि कोई बादशाह उन्हें हाथी के पाँव तले रौंदवा डालता। उन्होंने मौलाना जामी के शेरों में मीरा बाई के दोहों को इस तरह मथ दिया कि फारसी भाषा सरासर मारवाड़ी बोली की बिगड़ी हुई शक्ल मालूम होने लगी और हम जैसे अज्ञानी को तो अस्ल पर नक्ल का धोखा होने लगा।

कव्वाली शुरू हुई तो हम पाँचवीं पंक्ति में वज्रासन में बैठे थे। नहीं, केवल वज्रासन में नहीं, उस तरह बैठे थे जैसे अलहैय्यात पढ़ते वक्त बैठते हैं लेकिन जैसे ही महफिल रंग पर आई, हम हाल (भावावेश में आकर नृत्य करना) खेलने वालों के धक्के खाते-खाते इतने आगे निकल गए कि रात भर टाँगें गुलेल की तरह फैलाए एक हारमोनियम को गोद में लिए बैठे रहे। एक नवागंतुक ने हमें एक रुपया भी दिया। हमारा अंत यानी चाय-पानी भी कव्वालों के साथ हुआ। धक्कों के रेले में हम कव्वालों की टोली को चीरते हुए दूसरे दरवाजे से कभी के बाहर निकल पड़े होते मगर खैरियत गुजरी कि एक क्लैरेनेट ने हमें मजबूती से रोके रखा। यह यंत्र कोई सवा गज लंबा होगा। इसका अहानिकारक सिरा तो वादक के मुँह में था लेकिन फन हमारे कान में ऐसा फिट हो गया था कि जोर के धक्कों के बावजूद हम एक इंच आगे नहीं बढ़ सकते थे।

रात के उतरते के समय पीर साहब ने खास तौर से फरमाइश करके तवाइफ से अपनी एक 'छंदहीन' गजल गवाई जिसे उस सितारों से भी ऊँची गायिका ने सुर-ताल से भी बाहर करके तिगुना-तीखा कर दिया। अपना काव्य सुनकर हजरत की आँखें ऐसी छलकीं कि छपा हुआ रूमाल (जिसके हाशिए पर कुछ शेर पकवानों के गुणगान के छपे थे) तर हो गया। अंतिम शेर जी तोड़ कर गया और 'खुदा-खुदा करके' शायर का नाम आया तो नाचते हुए जाकर सर सामने कर दिया। हजरत ने 'पालन-हारा' अंदाज में अस्ली छुहारे की हजार दाना माला अपने हाथ से उसके गले में डाल दी और अपनी चरण-धूलि और कक्ष-विशेष की झाड़ू भी अता की। चार बजे जब सबकी जेबें खाली हो गईं तो अधिकतर को उन्माद आ गया और ऐसा धमाल मचा कि तकिए के गुंबद की सारी चिमगादड़ें उड़ गईं। किसी के पाँव की मस्ताना ठोकर से पीर साहब के उत्तराधिकारी की घड़ी का शीशा चूर-चूर हो गया और अब वह भी अपनी पगड़ी, जुब्बा, बाइफोकल और चाँदी के बटन उतारकर मैदान में कूद पड़े, सिर्फ अँगूठी और मोजे नहीं उतारे। सो वह भी मस्ती की हालत में किसी ने उतार लिए। नोटों की बौछार बंद हुई और अब हर शेर पर जजाक-अल्लाह, जजाक-अल्लाह का शोर बुलंद होने लगा। उस भागभरी (तवायफ) ने जो देखा कि बंदों ने अपना हाथ खेंचकर मामला अब अल्लाह के सुपुर्द कर दिया है तो झट आखिरी गिलौरी कल्ले में दबा के कहरवे पर महफिल खत्म कर दी।

पाँच बजे सुबह हम कान सहलाते कानफोड़ महफिल से लौटे। कुछ बकवास कलाम का, कुछ रात के अपने में डूब जाने का खुमार, हमने ऐसी सुध-खोई कि सुबह दस बजे तक सन्नाटे रहे और बेगम हमारे पलंग के चारों तरफ मँडराते हुए बच्चों को समझाती रहीं, 'कमबख्तो! आहिस्ता-आहिस्ता शोर मचाओ, अब्बा सो रहे हैं। रात भर उस मनहूस मिर्जा की संगत की है। आज दफ्तर नहीं जाएँगे। अरी ओ नबीली की बच्ची। घड़ी-घड़ी दरवाजा मत खोल। मक्खियों के साथ उनके मुलाकाती भी घुस आएँगे।'

शाम को मिर्जा चलते-फिरते इधर आ निकले और वह आध्यात्मिक तेज और जगमगाहट देखकर, जो दफ्तरी काम न करने से हमारे मुँह पर आ जाती है; कहने लगे, 'देखा! हम न कहते थे, एक ही सुहबत में रंग निखर आया। रात हजरत ने ध्यान दिया? दिल पर कोई असर पड़ा हुआ? रोया हुआ? हमने कहा, 'रोया-वोया तो हम जानते नहीं। अलबत्ता सुबह एक अजीबो-गरीब सपना देखा कि बगदाद में सफेद संगेमरमर का एक आलीशान महल है जिसके मुख्य द्वार पर राष्ट्रीय झंडे की जगह 'बिकनी' लहरा रही है। छत वीनस डी मैलो की मूर्तियों पर रुकी हुई है। हम्माम की दीवारें साफ काँच की हैं। बीच में कालीन के चारों तरफ असुरक्षित दूरी से मखमली गाव-तकियों की जगह कम कपड़े पहने दासियाँ आड़ी लेटी हैं और शेख उनकी मुलायम टेक लगाए, एक दूसरे के गाव-तकियों को आँख मार रहे हैं। सामने एक नर्तकी नक्कारों पर, अपनी आँखें अंजीर से पत्ते से ढाँपे, नग्न नृत्य कर रही है और पाँव से नक्कारों पर ताल देती जाती हैं। दिल भी उसी ताल के मुताबिक धड़क रहे हैं। गरज कि एक आलम है, अमीरों के आजू-बाजू दासियों और सेवकों के झुंड के झुंड की प्रतीक्षा में हैं कि इच्छा-पलक के संकेत पर अपने सारे रस उस पर लुटा दें। यह थोड़े-थोड़े से अंतराल पर शराब, कबाब और अपने-आप को पेश करती हैं। इसी कालीन के काले किनारे पर चालीस गुलाम हाथ बांधे नजरें झुकाए खड़े हैं और मैं उनमें से एक हूँ।'

इतने में क्या देखता हूँ कि एक बुजुर्ग भारी बदन, नींद में भरी हुई आँखें, दाढ़ी इतनी लंबी कि अगर टाई लगाएँ तो नजर न आए, हरी माला टेकते चले आ रहे हैं। हमने अपनी हथेली पर सौ रुपए का नोट रखकर पेश किया। हजरत ने नोट उठाकर वो जगह चूमी जहाँ नोट रखा था और भविष्यवाणी कि बारह बरस बाद तेरे भी दिन फिर जाएँगे। तू बावन साल की उम्र में एक भरे-पूरे हरम का मालिक...'

मिर्जा का चेहरा लाल अंगारा हो गया। बात काटते हुए बोले, 'तुम जिस्म शायर का मगर भावनाएँ घोड़े की रखते हो।'

फिर उन्होंने तिरस्कार और उलाहने का ऐसा द्वारा खोला कि इस असहाय ने (मैंने) खड़े-खड़े सारे वासियों को मय कम कपड़ों के हरम से निकाल बाहर किया।

तीन आगंतुक गीशाएँ (बहुत महँगी जापानी वेश्या) थीं जिनके वीजे का अभी आधा समय भी खत्म नहीं हुआ था, कैसे कहूँ कि उन्हें भी इस हड़बोंग में यात्राभत्ता दिए बिना निकाल दिया।

और उनके साथ-साथ तसव्वुफ (दर्शन) का विचार भी हमेशा-हमेशा के लिए दिल से निकाल दिया।

हमारे काले दिल पर कव्वालों के प्रभाव आपने देख लिए। अब बाइफोकल का हाल सुनिए। चश्मा हमारे लिए नई चीज नहीं। इसलिए कि पाँचवीं क्लास में कदम रखने से पहले हमारे चश्मे का नंबर सात हो गया था। जो पाठक naked eye (अंग्रेजी जोड़ा है मगर बढ़िया है) से देखने के आदी हैं उन्हें शायद अनुमान न लगे कि सात नंबर चश्मा क्या अर्थ रखता है। उनकी सेवा में निवेदन है कि अंधा-भैंसा खेलते समय बच्चे हमारी आँख पर पट्टी नहीं बाँधते थे। हमारी मान्यता थी अल्लाह ने नाक केवल इसलिए बनाई है कि चश्मा टिक सके और जो बेचारे चश्मे से वंचित हैं उनकी नाक बस जुकाम के लिए है। ...दादाजान का मानना था कि अरबी न पढ़ने के कारण हम आधे दृष्टिहीन हो गए हैं। वरना इस प्रतिष्ठित परिवार, जिसकी पितावलि डेढ़-दो लाख संबंधों से आदम से जा मिलती है, के इतिहास में डेढ़ सौ साल से किसी बुजुर्ग ने चश्मा नहीं लगाया। अल्लाह! अल्लाह, कैसा सस्ता समाँ और कैसे सीधे बुजुर्ग थे कि गर्ल्स प्राइमरी स्कूल की बस का रास्ता काटने को ताक-झाँक में गिनते थे। आज हमें इसका मलाल नहीं कि वह ऐसा क्यों समझते थे बल्कि इसका है कि हम खुद यही समझ कर जाया करते थे और जब हम चोरी की चवन्नी से बाइस्कोप देखकर रात के दस बजे पंजों के बल घर में घुसते तो ड्योढ़ी में हमें खानदान के तमाम बुड्ढे न केवल खुद गार्ड ऑफ ऑनर देते बल्कि अपनी सहायक-टुकड़ी के रूप में बाहरी बुड्ढों को भी बुला लेते थे कि सामना हमारे पापों और दुष्कर्मों से था।

चश्मे पर व्यंग्य सुनते-सुनते हमारा कमसिन कलेजा छलनी हो गया था। इसलिए दो साल बाद जब दादाजान का मोतियाबिंद का ऑप्रेशन हुआ तो हमने इस खुशी में बच्चों को लेमन-ड्राप्स बाँटीं। दरअस्ल हम सब बच्चे उन्हें 'प्रॉब्लम बुजुर्ग' समझा करते थे। वहम के मरीज थे। ऑप्रेशन से पहले नकली बत्तीसी के एक अगले दाँत में दर्द महसूस कर रहे थे जिसका इलाज एक होम्योपैथिक डॉक्टर से कराने के बाद उन्होंने वह दाँत ही उखड़वा दिया और अब उसकी खुड्डी में हुक्के की चाँदी की महनाल फिट करके घंटों हमारे अँधेरे भविष्य के बारे में सोचा करते थे। हाँ! तो हम कह यह रहे थे कि ऑप्रेशन के बाद वह आधे इंच मोटे शीशे का चश्मा लगाने लगे थे जिससे उनकी गुस्सैली आँखें हम बच्चों को तिगुनी बड़ी दिखाई देती थीं। अल्लाह जाने खुद उन्हें भी उससे कुछ दिखाई देता था या नहीं। उसका कुछ अंदाजा इससे होता था कि उसी जमाने में अब्बाजान चौकीदारी के लिए एक सुनहरे रंग का बूढ़ा कुत्ता ले आए थे जिसे कम नजर आता था। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि दादाजान को कुत्ता और कुत्ते को वह नजर नहीं आते थे। हमारी यह ड्यूटी लगी हुई थी कि हम दोनों पक्षों को एक दूसरे के हानिकर-क्षेत्र से दूर रखें। विशेषकर साँयकालीन नमाज के समय कभी-कभार ऐसा भी होता कि हमारी चूक से वह हाथ-पैर धोकर हिरन की खाल के बजाय कुत्ते पर बैठ जाते और उत्तरोक्त पूर्वोक्त पर भौंकने लगता तो वह लेखक पर चीखते कि अंधा हो गया है क्या। चश्मा लगा के भी इतना बड़ा कुत्ता नजर नहीं आता।

दावा तो मिर्जा और चश्मा बनाने वाले ने यही किया था कि ऊपरी हिस्से से दूर की और निचले से पास की चीजें साफ नजर आ जाएँगी। प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस ने तो यहाँ तक उम्मीद बंधाई कि दूर के शीशे से अपनी बीवी और पास के शीशे से दूसरे की बीवी का चेहरा निहायत भला मालूम होगा।

मस्त ने इधर देखा, ज्ञानी ने उधर देखा लेकिन पग-पग पर ठोकरें खाने के बाद खुला कि बाइफोकल से न दूर का दृश्य दिखाई पड़ता है, न पास का। अलबत्ता सब्र आ जाता है। यहाँ तक तो पर्याप्त गनीमत है कि हम बंदूक का घोड़ा निचले शीशे और मक्खी ऊपर वाले शीशे से देखें और अगर तीतर बंदूक की नाल में चोंच डाले कारतूस का निरीक्षण कर रहा है तो फिर बच के नहीं जा सकता। खैर शिकार को जाने दीजिए कि यूँ भी हम जीव-हत्या के खिलाफ हो गए हैं (बौद्ध मत और अहिंसा के उपदेशों से दिल ऐसा मुलायम हुआ है कि जान से मारे बगैर उसका गोश्त न खा सकें) लेकिन जीने से उतरते समय -

आँख पड़ती है कहीं पाँव कहीं पड़ता है

और जहाँ पाँव पड़ता है वहाँ सीढ़ी नहीं होती। मिर्जा से इस स्थिति-विशेष का उल्लेख किया तो कहने लगे कि चश्मा हर समय लगाए रखो लेकिन जहाँ नजर का काम हो वहाँ एक सुंदर-सी छड़ी हाथ में रखा करो। लाहौर में हर जगह मिलती हैं। हमने कहा, 'लाहौर में जो खूबसूरत छड़ियाँ आम मिलती हैं, वह हमारे कंधे तक आती हैं। हम उन्हें हाथ में नहीं रख सकते, बगल में बैसाखी की तरह दबाए फिर सकते हैं मगर लाहौर की सुंदरियाँ अपने दिल में क्या कहेंगी।' बोले, 'तो फिर एक कुत्ता साथ रखा करो। तुम्हारी तरह वफादार न हो तो कोई हरज नहीं लेकिन सूरदास न हो।'

हम तो अब इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि अतीत के बादशाह विशेषकर कई मुगल शासक अपने उद्दंड सूबेदारों, अवज्ञाकारी शहजादों और तख्तो-ताज के दावेदारों, भाइयों की जल्लाद से आँखें निकलवा कर स्वयं को भारत का इतिहास, ईश्वरी प्रसाद लिखित, में खुद को अकारण बदनाम कर गए। उन सबको (ईश्वरी प्रसाद सहित) बाइफोकल लगवा देते तो औरों को सबक मिल जाता और यह दुखियारे भीख माँगने के लायक भी न रहते। हमारा विचार है कि न देखने का इससे अधिक साइंटिफिक यंत्र आज तक नहीं खोजा गया। जरा खुलकर बात करने की अनुमति हो तो हम यहाँ तक कह दें कि बाइफोकल पावन दृष्टि की गारंटी है। मसलन चश्मे के ऊपरी हिस्से से सामने बैठी हुई सुंदरी के सरताज की धाँसू मूँछ का एक-एक बाल गिना जा सकता है लेकिन जब रेशमी साड़ी हमारी ही तरफ से सरक कर पिंडली से ऊपर यूँ चढ़ जाए कि -

न देखे अब तो न देखे कभी तो देखेगा

तो साहब! इस बेहयाई का अवलोकन एकाग्रता से न ऊपर के शीशे से किया जा सकता है, न नीचे के शीशे से और यूँ गृहस्थ आदमी एक गुनाह से बच जाता है -

वो इक गुनह जो बजाहिर गुनाह से कम है

इतना जुरूर है कि इसे लगाने के बाद और तीन चश्मों की व्यवस्था करनी अनिवार्य हो जाती है। एक दूर की, दूसरी पास की और तीसरी बगैर शीशों वाली - देखने के लिए। यह विलासिता के यंत्र इसलिए भी जुरूरी हैं कि यूँ दिखाने को अधेड़ आदमी के मुँह पर आँख, आँख में पुतली, पुतली में तिल और तिल में शायद दृष्टि भी होती है लेकिन तीन से पाँच फिट दूर की चीज किसी तरह बाइफोकल के फोकस में नहीं आती। एक दुर्घटना हो तो बयान करें। परसों रात शादी की दावत में जिस चीज को डोंगा समझकर हमने झपाझप उसमें से पुलाव की सारी बोटियाँ गिरा लीं, वह एक मौलवी साहब की प्लेट निकली जो खुद उस वक्त खीर की कश्ती पर बुरी नजर डाल रहे थे या कल रात घुप्प अँधेरे सिनेमाहाल में इंटरवल (जिसे मिर्जा मध्यांतर ताक-झाँक कहते हैं) के बाद कंधे पर हाथ रखे जिस सीट तक पहुँचने की कोशिश की, वह सीट हमारी नहीं निकली और न वह कंधा हमारी श्रीमती जी का। इनसान का कोई अभाव अकारण नहीं। जैसे-जैसे कुछ दर्द हमारी सहनशीलता और धैर्य के सामर्थ्यानुसार हमें प्रदान किया जाता है, मन अंतर्दृष्टि से निर्मल होते चले जाते हैं। इनसान जब आँख-कान का मुहताज न रहे और उसे अटकल से जीवन बिताने का हुनर आ जाए तो सही अर्थों में अनुशासन और व्यवस्था का प्रारंभ होता है। मिर्जा के अलावा भला यह किसका कथन हो सकता है कि काया का सुख चाहो तो जवानी में बहरे बन जाओ और बुढ़ापे में अंधे। सैर-तमाशे की हवस तो खैर पुरानी बात हुई। हमको तो अब दृष्टि का भी हुड़का नहीं। हो हो, न हो न हो। अब तो हर चीज को अपनी जगह रखने की आदत पड़ गई है। अलमारी में दाईं तरफ पतलूनें, बाईं तरफ पुरानी कमीजें जिन्हें अब हम सिर्फ बंद गले के स्वेटर के नीचे पहन सकते हैं। दूसरे खाने में सलीके से तह किया हुआ बंद गले का स्वेटर, जो अब सिर्फ बंद गले के कोट के नीचे पहना जा सकता है। आँख बंद करके जो चाहो निकाल लो। गरज कि हर चीज की अपनी जगह बन जाती है। नमाज की चटाई की जगह नमाज की चटाई, रुलाने वाले नाविल की जगह आँसुओं से भीगी चैकबुक, महबूबा की जगह बीवी, तकिए की जगह गाव-तकिया।

जरा क्रम बिगड़ा और नजर रखने वालों के कर्म का मान गया लेकिन जिस घर में खुदा के करम से बच्चे हों वहाँ यह रखरखाव मुमकिन नहीं और रखरखाव तो हमने शिष्टतावश कह दिया वरना सच पूछिए, कुछ भी मुमकिन नहीं।

दिल साहिबे-औलाद से इंसाफ तलब है

एक दिन हमने झुँझलाकर बेगम से कहा, यह क्या अंधेर है; तुम्हारे लाड़ले हर चीज जगह से बेजगह कर देते हैं। कल से चाकू गायब था। अभी भेद खुला कि उससे गुड़िया का अपेंडिक्स निकाला गया था। तुनक कर बोलीं, 'और क्या कुल्हाड़ी से गुड़िया का पेट चीरा जाता?' हमने झट उनके मत से सहमत होते हुए कहा, 'हाँ! यह कैसे मुमकिन है। इसलिए कि कुल्हाड़ी के डंडे से तो इस घर में कपड़े धोए जाते हैं। तुम ही बताओ, सुबह नए लेख की नाव बल्कि पूरा बेड़ा टब में पन्नेवार नहीं चल रहा था? तुम्हारे घर में हर चीज का एक नया उपयोग, एक नए फायदे की खोज होती है - सिवाय मेरे। तुम्हारे सामने की बात है, कह दो यह भी झूठ है। परसों दोपहर अखबार पढ़ते-पढ़ते जरा देर को आँख लग गई। खुली तो चश्मा गायब। तुमसे पूछा तो उल्टी डाँट पड़ी कि अभी से काहे को उठ बैठे, कुछ देर और सो रहो। अभी तो गुड्डू मियाँ तुम्हारा बाइफोकल लगाए अंधा-भैंसा खेल रहे हैं। बिल्कुल अपने बाप पर पड़े हैं। बच्चे तो सभी के होते हैं मगर घर का घरवाया कहीं नहीं होता। सुबह देखो तो सिगरेट लाइटर की लौ पर हंडकुलिया पकाई जा रही है। शाम को स्वयं बेगम साहब, गीले बाल बिखेरे, पंद्रह गज घेर की शलवार में हमारी पेन्सिल से सटासट कमरबंद डाल रही हैं।'

सुर्ख चूड़ियाँ छनका कर सुहाग राग छेड़ते हुए बोलीं, 'हाय अल्लाह। दफ्तर का गुस्सा घर वालों पर क्यों उतार रहे हो? किसी ने तुम्हारी पेन्सिल से कमरबंद डाला हो तो उसके हाथ टूटें। मैंने तो तुम्हारे 'पारकर' से डाला था। चाहे जिसकी कसम ले लो। रहे बच्चे, तो उनके नसीब में तुम्हारी प्रयोग की हुई चीजें ही लिखी है, फिर भी आज तक ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने चीजें वापस वहीं न रखी हों।' हमने कहा, 'यकीन न हो तो खुद जाकर अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देख लो। सेफ्टी-रेजर का ब्लेड गायब है।' बोलीं, 'कम से कम खुदा से तो डरो। अभी-अभी नबीला ने मेरे सामने पेन्सिल छीलकर वापस रेजर में लगाया है। वो बेचारी खुद ध्यान रखती है।'

मिर्जा ने गाँव चाकसू (छोटे-बड़े दोनों) के अधेड़ों की संस्था की दागबेल डाली तो हफ्तों इस ऊहापोह में रहे कि नाम क्या रखा जाए। प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस, एम.ए. (गोल्ड मेडलिस्ट) ने 'संस्था - उदास मन, चाकसू, रजिस्टर्ड' प्रस्तावित किया जो इस कारण रद्द कर दिया गया कि अगर सदस्यता का आधार सिर्फ उदास मन होने को रखा तो चाकसू के सारे शायर अनछपे दीवान समेत घुस आएँगे। अच्छे-खासे वाद-विवाद के बाद तय पाया कि इस अधेड़ों के झुंड का नाम 'बाइफोकल-क्लब' सर्वोचित रहेगा क्योंकि बाइफोकल एक लिहाज से दुनिया के सारे अधेड़ों का राष्ट्रीय झंडा है।

मानव प्रकृति भी एक अजीब तमाशा है। बूढ़ा हो या बच्चा, नौजवान हो या अधेड़, आदमी हर स्तर पर अपने वय के विषय में झूठ ही को प्राथमिकता देता है। लड़के अपनी उम्र के दो-चार साल जियादा बताकर रौब जमाते हैं। जब यही लड़के खुदा की मेहरबानी से जवान हो जाते हैं तो नौजवान कहलाना पसंद करते हैं। जो अधेड़-वय के थोड़ा सच बोलने वाले होते हैं, वह अपनी उम्र दस बरस कम बताते हैं। औरतें अलबत्ता हमेशा सच बोलती हैं - वह एक-दूसरे की उम्र हमेशा सही बताती हैं। वास्तविकता यह है कि खून, खुशबू, इश्क और नाजायज दौलत छुपाए नहीं छुपती। बाइफोकल, अल्सर, बुरी नजर, गोल्फ, नई नस्ल से बेजारी, जल्दी दिल भर आना और आर्थिक समृद्धि - यह अधेड़-उम्र की जानी-पहचानी निशानियाँ हैं। इन सात विशेषताओं में से छह के आधार पर (यानी समृद्धि को छोड़ कर) जो हमारे व्यक्तित्व की गागर में समा गई थीं, हमें बगैर चुनाव लड़े, बाइफोकल क्लब का जनरल सेक्रेट्री चुन लिया गया।

क्लब की सदस्यता की आधारभूत शर्त यह है कि आदमी चालीस साल का हो और अगर खुद को इस से भी जियादा महसूस करता हो तो क्या कहना। हजरत हफीज जालंधरी के शब्दों में यह उम्र की वह स्थिति है कि आदमी को - हर बुरी बात, बुरी बात नजर आती है!

यह वह शांति का युग है कि आदमी चाहे भी तो पुण्य के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। इंडोनेशिया के भूतपूर्व राष्ट्रपति सुकर्णों का कथन है कि तीस बहारों के बाद रबर का पेड़ और पार्वती-पुत्री (औरत) किसी उपयोग के नहीं रहते। जब कि मर्द किसी उम्र में सौंदर्य से सुरक्षित नहीं। ऐसे लोक-कथन मानना या दरकिनार करना हमारे बस की बात नहीं, सुकर्णों तो मर्दों को बरते हुए, नारी-दंशित और राष्ट्रायक्षी का कष्ट भोगे हुए हैं। हम तो इनसे भी वंचित हैं। फिर यह कि छोटे मुँह पर बुरी बात नहीं फबती। रबर के बारे में हम अभी इतना ही जान पाए हैं कि गलतियों को मिटाने की काफी काम की चीज है। रहीं महिलाएँ, सो अपने सावधानीपूर्ण और सीमित अध्ययन के आधार पर हम कोई सुंदर झूठ नहीं बोल सकते। शेरनी को कछार में कुलेलें भरते देखना और बात है और सर्कस के पिंजरे में बैंड की धुन पर लोटें लगाते देखना और बात।

अलबत्ता, हम अपने जैसों के बारे में बहुत से बहुत कह सकते हैं तो यह कह सकते हैं कि साँय-साँय करता मरुस्थल, जो रातों-रात जीती-जागती धरती को निगलता चला जाता है, वह विस्तृत-विशाल रेत का महाद्वीप जो बूढ़े सीनों में दमादम फैलता रहता है वह किसी भी क्षण प्रकट हो सकता है कि दिल आँख से पहले भी बूढ़े हो जाया करते हैं। इस निर्जन रेगिस्तान में गूँज के सिवा कोई आवाज, कोई पुकार नहीं सुनाई देती और कैक्टस के सिवा कुछ नहीं उगता। मिर्जा इस बंजर, बे-रस, बे-रंग, बे-उमंग धरती को No Woman's Land कहते हैं जिसकी मिली-जुली सीमाएँ सिर्फ बाइफोकल से देखी जा सकती हैं। यह फैलती हुई छायाओं और भीनी-भीनी यादों की धरती है जिसके वासी प्यास को तरसते हैं और बिना प्यास पीते हैं कि उन्हें -

इसका भी मजा याद है उसका भी मजा याद

एक दिन हमें ऊपर के शीशे से पृष्ठ संख्या और निचले से फुटनोट पढ़ते देखकर मिर्जा मुँह ऊपर-नीचे करके हमारी नक्ल उतारने लगे। उपस्थितजन को हमारे हाल पर खूब हँसा चुके तो हमने जलकर कहा, 'अच्छा, हम तो सिर्फ नेकचलनी के कारण समय से पहले अंधे हो गए लेकिन तुम किस खुशी में यह बोतल के पेंदे जितना मोटा चश्मा चढ़ाए फिरते हो?' फरमाया, 'मगर यह बाइफोकल नहीं है।' हमने कहा, 'तो क्या हुआ? जिस चश्मे से तुम हिल-हिल कर कुरआन का पाठ करते हो, उसी से रात ढले आँखें फाड़-फाड़ कर निर्वस्त्र होने वाली कैबरेडांसर को देखते हो!' बोले, 'बरखुरदार! इसी लिए हमारा दिल आज तक साबित है।'

और यह बड़ी बात है। इसलिए कि मिर्जा (चौबीस साल से खुद को स्वर्गीय लिखते और कहते आए हैं) अब तक छोटे-बड़े मिलाकर 37 प्रेम संबंध बना चुके हैं। हर प्रेयसी की याद को लेबिल लगाकर इस तरह रख छोड़ा है जैसे फुटपाथ पर मजमा लगाकर दवाएँ बेचने वाले जहरीले साँपों और बिच्छुओं को स्प्रिट की बोतलों में लिए फिरते हैं। इन प्रेम संबंधों का अंत वही हुआ जो होना चाहिए, यानी नाकामी और यह अल्लाह ने बड़ी कृपा की, क्योंकि खुदा-न-ख्वास्ता वह कामयाब हो जाते तो आज मिर्जा के फ्लैट में 37 अदद दुल्हनें बैठीं बल्कि खड़ी होतीं लेकिन एक के बाद एक नाकामियों से मिर्जा का मूर्खतापूर्ण संकल्प नहीं डिगा। दो-चार टाँगें टूटने से कहीं कनखजूरा लंगड़ा होता है? 32वीं नाकामी का अलबत्ता मन ने बड़ा असर लिया। उन्होंने निर्णय किया कि रावी के रेलवे पुल से छलाँग लगाकर आत्महत्या कर लें लेकिन उसमें यह आशंका थी कि कहीं पहले ही ट्रेन से न कट जाएँ। लगातार तीन-चार रात दूसरा सिनेमा शो भी इसी सोचे-समझे मंसूबे के तहत देखने गए कि वापसी में मालरोड पर कोई बेदर्दी से कत्ल कर दे लेकिन किसी गुंडे ने जागती-जगमगाती सड़क पर उनके खराब खून से अपने हाथ नहीं रंगे। अन्याय यह कि किसी ने वह जेब तक न काटी जिसमें वह सुरक्षा के लिए पिस्तौल छुपा कर ले जाते थे। सब तरफ से निराश होकर उन्होंने हजरत दाता गंजबख्श की दरगाह को कूच किया कि उसी का मीनार सब से ऊँचा और पास पड़ता था मगर वहाँ देखा कि उर्स हो रहा है आदमियों पर आदमी टूटे पड़ते हैं। मौसम भी कुछ प्रतिकूल-सा है, चुनांचे दृढ़ संकल्प टाल दिया और बानो बाजार से चाट खाकर वापस आ गए।

जरा इत्तिफाक तो देखिए कि दो दिन बाद वह मीनार ही गिर गई। मिर्जा ने अखबार में यह खबर देखी तो सिर पकड़ कर बैठ गए। बड़ी हसरत से कहने लगे, 'अजीब इत्तिफाक है कि मैं उस वक्त मीनार पर नहीं था।' बरसों इसी का दुख रहा।

अपनी-अपनी सोच और अपनी-अपनी हिम्मत की बात है। एक हम हैं कि जो रातें गुनाहों से तौबा में बीतनी चाहिए थीं, वह अब उल्टी उनकी हसरत में तरसते, फड़कते गुजर रही हैं। नैन-कमल खिले भी तो बीतती रात की चाँदनी में और एक मिर्जा हैं कि नजर हमेशा नीची रखते हैं लेकिन नगर की सुंदरियों में से आज भी कोई व्यवहार करे तो उससे इनकार नहीं। उन्हीं का कथन है कि अगर आदमी कामना करने में कमजोरी या काहिली दिखाए तो मात्र आशिकी रह जाती है। हमने देखा कि स्थितियाँ कैसी ही प्रतिकूल हों, बल्कि अगर बिल्कुल कुछ न हो लेकिन मूड है तो मिर्जा पथरीली चट्टानों से दूध की नहर ही नहीं, स्वयं शीरी को प्रकट करा लेने का सलीका रखते हैं। बल्कि एक आध बार तो यह चोट भी हुई कि पहाड़ काटा - पहाड़ निकला। 1958 की घटना है। हमारे अनुरोध पर एक बेबी-शो (दूध पीते बच्चों की प्रदर्शनी) में जज बनना स्वीकार किया और वहाँ एक माँ पर आशिक हो गए। पहला पुरस्कार उसी को दिया।

4 अगस्त, 66 - दोपहर का वक्त - दिन पहले प्यार की तरह गर्म। बदन कोरी सुराही की तरह रिस रहा था। हम धूल उड़ाते, मिट्टी फाँकते, मिर्जा को इकतालीसवीं सालगिरह की बधाई देने गुलबर्ग पहुँचे। मिर्जा कराची से नए-नए लाहौर आए थे और स्थानीय कलर स्कीम से इतने असहमत थे कि सफेदे के तनों को नीला पेंट करवा दिया था। उनके बेयरे ने बरामदे से ही हाँक लगाई कि साहिब जी! वह जो मोटर-साइकिल-रिक्शा के आगे एक चीज लगी हुई है, सिर्फ उस पे बैठ के एक साहिब मिलने आए हैं लेकिन मिर्जा ने न यह ऐलान सुना और न हमारी मोटरसाइकिल की फटफट। इसलिए कि वह सालगिरह के भारी लंच के बाद आराम कुर्सी पर आँखें बंद किए, केस नंबर 29 को अपने ध्यान-अंक में लिए बैठे थे। हमने कंधा झिंझोड़ कर आवश्यक हस्तक्षेप करते हुए कहा, 'मिर्जा! अजीब बात है। हर सालगिरह हमारे चश्मे के नंबर और बेदिली में बढ़ोत्तरी कर जाती है और हमें हर चीज में एक ताजा दरार पड़ी नजर आती है मगर तुम हो कि आज भी सितारों पर कमंद डालने का हौसला रखते हो।' बोले, 'शुक्रिया! नीत्शे की कृपा है।' हमने कहा, 'मगर हमारा मतलब फिल्मी सितारों से था।' फौरन शुक्रिया वापस लेते हुए फरमाया, 'ET TU BRUTUS?'

दो चार बरस की बात नहीं, हमने मिर्जा का वह जमाना भी देखा है जब -

घनघोर घटा तुली खड़ी थी

पर बूँद अभी नहीं पड़ी थी

अभी वह इस लायक भी नहीं थे कि अपने टुइयाँ तोते की देखरेख कर सकें लेकिन बेसब्रे दिल का यह रंग था कि अलजेबरा के घंटे में बड़े ध्यान से अपने हाथ की रेखाओं का अध्ययन करते रहते। आयुरेखा उनकी निजी आवश्यकता से कुछ लंबी ही थी मगर शादी की सिर्फ एक ही लाइन थी जिसे रगड़-रगड़ कर देखते थे कि शायद पिछले चौबीस घंटे में कोई शाख फूटी हो। उनकी आयु के लंबे समय तक बहुत से खानदानी बुजुर्ग उनकी जवानी पर छाया डालते रहे और जब अंतर से उनके घने-घने साये सर से उठे तो पता चला कि दुनिया इतनी बुरी जगह नहीं, लेकिन एक मुद्दत तक आर्थिक परिस्थितियों ने आवारगी का अवकाश नहीं दिया। मन मसोस कर रह गए, वरना उनका बस चलता तो बची-खुची आयु-संपत्ति को इस तरह ठिकाने लगा देते, जैसे दिल्ली के बादशाह लदे-फदे बाग लौंडियों से लुटवा दिया करते थे। मिर्जा 1948 तक मिर्जायाना जीवन जीते रहे यानी मिजाज रईसाना और आमदनी फकीराना रखते थे। शादी की हिम्मत नहीं पड़ती थी। खुदा भला करे प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस का जिन्होंने एक दिन अपनी हथेली पर कलम से गुणा-भाग करके संख्यात्मक रूप से कायल कर दिया कि जितनी रकम वह सिगरेटों पर फूँक चुके हैं, उससे सुघड़ शौहर चार बार मेहर की रकम अदा कर सकता था। आखिर हम सबने लग-लिपट कर उनकी शादी करवा दी। दो-चार दिन तो मेहर की रकम के आतंक से सहमे-सहमे फिरे और जैसे-तैसे अपने आप को सँभाले रखा लेकिन हनीमून का सप्ताह पूरा होने से पहले इस हद तक नार्मल हो गए कि बेतकुल्लफ दोस्तों को छोड़िए, खुद नई नवेली दुल्हन की जुबान पर भी यूँ ही कोई जनाना नाम आ गया तो मिर्जा तड़प कर साक्षात प्रश्नपत्र बन गए - कहाँ है? किस तरफ को है? किधर है?

उन्हीं के एक साले से सुनी किंवदंती है कि ठीक आरसी-मुसहफ (एक रस्म) के समय भी आईने में अपनी दुल्हन का मुँह देखने के बजाय मिर्जा की निगाहें उसकी एक सहेली के चेहरे पर जमी हुई थीं। दुनिया गवाह है (दुनिया का अर्थ यहाँ वही है जो मिर्जा का यानी नारी-जगत) कि मिर्जा ने जिस पर नजर डाली, बुरी डाली, सिवाय अपनी बीवी के। स्वयं उन्हीं का बयान है 'बंदा दुधमुँहेपन की आयु में भी बीस साल से जियादा उम्र की आया की गोद में नहीं जाता था। कभी-कभी अपनी लालच भरी आँखों से खुद भी पनाह माँगने लगते हैं, जुकाम के तिमाही हमले के दौरान हमारा हाथ अपने हाथ में लेकर कई बार यह वसीयत कर चुके हैं कि मैं मरने लगूँ तो लिल्लाह एक घंटे पहले मेरा चश्मा उतार देना वरना मेरा दम नहीं निकलेगा। हमने एक बार पूछा, 'मिर्जा, हमें यह कैसे पता चलेगा कि तुम्हारे दुश्मनों के मरने में अब एक घंटा रह गया है?' बोले, 'जब मैं नर्स से ड्यूटी के बाद का फोन नंबर पूछने के बजाय अपना टेंप्रेचर पूछने लगूँ तो समझ लेना कि तुम्हारे यारे-जानी का वक्त आन लगा है।'

मगर मिर्जा की बातें ही बातें हैं। वरना कौन नहीं जानता कि उनके सीने में जो बाँका-सजीला डॉन जुवान धूमें मचाया करता था, वह अब पिछले पहर दोहरा हो-हो कर खाँसने लगा है। अब वह अतिशदान के सामने कंबल का घूँघट निकाले, कँपकँपाती आवाज में अपने पास बैठने वालों को उस सुंदर युग की दास्तानें सुनाते हैं जब वह तड़के जमे हुए पानी से नहाया करते थे। वह तो यहाँ तक शेखी मारते हैं कि आज कल के मुकाबले में उस जमाने की तवायफें कहीं अधिक बदचलन हुआ करती थीं।

मिर्जा का जिक्र और फिर हमारा अंदाज! समझ में नहीं आता किस दिल से खत्म करें लेकिन क्लब के वरिष्ठतम संरक्षक फहीमुल्ला खाँ का परिचय रहा जाता है। यह उन्हीं के व्यक्तित्व बल्कि जेब का प्रताप है जिसने चाकसू (छोटा-बड़ा) के तमाम अधेड़ों को निरूद्देश्य एक प्लेटफार्म पर जमा कर दिया। खाँ साहब हर नस्ल की अमरीकी कार और घोड़ों के प्रेमी हैं। बाद वालों की गति और चरित्र से इतने प्रभावित हैं कि किसी सुंदरी की बहुत तारीफ करनी हो तो उसे घोड़ी की उपमा देते हैं और लोगों पर बहुत हुआ तो खुदा जीवन का एक द्वार खोल देता है, उन पर तो पूरी बारहदरी खुली हुई है और वह भी पहले दिन से वरना होने को तो समृद्धि हमें भी नसीब हुई मगर जैसा कि एक शायर ने कहा है -

अब मिरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो

हम जब चौथी क्लास में पहुँचे तो उनके बड़े सुपुत्र मैट्रिक में दूसरी बार फेल हो चुके थे लेकिन बुढ़ापे का अहसास तो दूर, जब से हमने बाइफोकल लगाया है, हमें अपनी नवीनतम, चालू माह की प्रेयसी से 'अंकल' कहलवा कर हसीनों की निगाह में हमारी इज्जत और उम्र बढ़ाते रहते हैं। जिस जगह पर अब हम लाहौल पढ़ने लग गए हैं, वहाँ उनकी जुबान सुब्हान-अल्लाह, सुब्हान-अल्लाह कहते सूखी जाती है। हमने उनकी जवानी की गर्मियाँ नहीं देखीं। हाँ, बड़े बूढ़ों से सुना है कि जब खाँ साहब की जवानी मुहल्ले की नवयौवनाओं के माँ-बाप पर बोझ बनने लगी तो उन्होंने पड़ोसियों के दरो-दीवार पर हसरत से नजर करके चाकसू खुर्द को अलविदा कहा और बंबई कूच कर गए, जहाँ ऊन की आढ़त के साथ-साथ 1947 तक कई ऊँचे घरानों के आधुनिक विचारों से लाभ उठाते रहे। मिर्जा का कहना है कि उनका दिल शुरू से ही बहुत बड़ा था। उनका मतलब है कि उसमें एक ही समय में कई महिलाओं की समाई हो सकती थी। सुंदर से सुंदरतर की तलाश उन्हें कई बार काजी के सामने भी ले गई और हर निकाह पर फिर-फिर के जवानी आई कि यह -

असा है पीर को और सैफ है जवाँ के लिए

उनके अट्टहास में जो गूँज और गमक है वह सिंध क्लब के अंग्रेजों की संगत और वहीं की व्हिस्की से खींची गई है। रहने-सहने का बढ़िया ढंग, सुंदर परिधान, शाहखर्ची। नाजायज आमदनी को उन्होंने हमेशा नाजायज मद में खर्च किया। तबीअत धूपघड़ी की तरह जो सिर्फ चमकीले पलों की गिनती रखती है। सुदृढ़ डील-डौल, चौड़ी छाती, खड़ी कमर, कंधे जैसे खरबूजे की फाँक, खुलती बरसती जवानी और आँखें? इधर दो-तीन साल से चश्मा लगाने लगे हैं मगर धूप का। वह भी उस वक्त जब सैंड्ज-पिट के परिधान-बैरी किनारे पर सूर्य-स्नान के दृश्य से उनकी गँदली-गँदली आँखों में एक हजार 'स्कैंडल पावर' की चमक पैदा हो जाती है और वह घंटों किसी को आँखों से नहलाते रहते हैं। पास की नजर ऐसी कि अब तक अपनी जवान-जहान पोतियों के नाम खत खोल कर बगैर चश्मे के पढ़ लेते हैं। रही दूर की नजर, सो जितनी दूर नार्मल आदमी की नजर जा सकती है उतनी दूर बुरी नजर से देखते हैं।

(1965 - 1968)