भाग 10 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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माता जी, मेम साहब, बेगम साहब एवं रानी साहब बनाम साहब, कुँवर साहब, माननीय एवं माई लार्ड

अधिकारियों की पत्नियों का रुतबा प्रायः उनके पतियों के पद के अनुपात में होता है, चाहे वे स्वयं काला अक्षर भैंस बराबर हों। कभी-कभी तो पत्नियाँ अपने पतियों से अधिक रुतबेवाली हो जातीं हैं बशर्ते साहब ने लेन-देन का विशेष महत्वपूर्ण प्रशासकीय कार्य उन पर छोड़ रखा हो अथवा पत्नी ने स्वयं यह पुनीत कार्य हथिया लिया हो। मैंने अधिकारियों की पत्नियों की इस विशेष योग्यता का अध्ययन करने पर पाया है कि प्रायः काला अक्षर भैंस बराबर पत्नियाँ लेन-देन का कार्य जल्दी हथिया लेती हैं और उसे बड़े रुआब से चलाती हैं। उदाहरणार्थ एक बार मैं बरेली गया हुआ था और पुलिस लाइन के गेस्ट हाउस में रुका हुआ था । उसके ठीक बगल में एक सी.ओ. महोदय का परिवार रहता था। शाम को मैं गेस्ट हाउस के बरामदे में बैठा बोर हो रहा था कि सी.ओ. साहब के मकान से एक दीवान जी बाहर आते दिखाई दिए और फिर उनके पीछे-पीछे सी.ओ. साहब की पत्नी दौड़ती आयीं जो जोर-जोर से कह रहीं थीं, 'अरे दीवान जी! सुनौ-सुनौ, दुइ किलो मुर्गा और दुइ दर्जन अंडा और चाही।' दीवान जी मुस्कराकर बोले, 'अच्छा माता जी।' और मोटर साइकिल स्टार्ट कर चल दिए।

वह पुराना जमाना था और सिपाही-दीवानों में अफसरों के प्रति पिता-सम भाव होता था। अतः उस समय सी.ओ. साहब की पत्नी की ड्योढ़ी उम्र के दीवान जी द्वारा उन्हें माता जी सम्बोधित करने पर न तो मुझे आश्चर्य हुआ और न वह उखड़ीं। पर आज की एज-कांशस महिलाओं को कोई अधीनस्थ कर्मचारी अपनी नौकरी जोखिम में डालकर ही माता जी सम्बोधित कर सकता है - आज की महिलाओं को तो बहिन जी कह देना भी खतरे से खाली नहीं है। बहरहाल, असल बात यह है कि अधिकारियों की पत्नियों को उस तरह सम्बोधित किया जाता है जिस तरह अधिकारी चाहते हैं। साधारणतः वे अँगरेजों की मेमों की भाँति मेम साहब कहलाती हैं, पर कतिपय अधिकारी अपनी पत्नियों को बेगम साहब या रानी साहब कहलाते हैं। ऐसा कहलाने के मूल में उद्देश्य अपने को नवाब अथवा राजा के खानदान का होना बताना होता है।

अपने को नवाब अथवा राजा के खानदान का होने का प्रचार करना शासकीय सेवा में बडा़ मुफीद पाया गया है। मेरे साथ के कई आई.ए..एस. और आई.पी.एस. अधिकारी, जो सेवा के प्रारम्भिक दिनों में मुझसे पैसे उधार लेकर मूँगफली खाया करते थे, कुछ वर्ष बाद अचानक राजाओं की औलाद बनकर 'कुँवर साहब' बन गए थे और कुँवरोचित ऐशोआराम की जिंदगी बसर करने लगे थे। जब मैं आई.जी., पी.ए.सी. के पद पर आफीशियेट कर रहा था तब एक ऐसे ही कुँवर साहब, जो डी.आई.जी., पी.ए.सी. नियुक्त थे, के विरुद्ध उनके बिहार के गृह जनपद से एक शिकायती पत्र मिला था कि उनकी पत्नी, जो एक बड़े ऊँचे खानदान की हैं, की तीन सौ एकड़ जमीन, जो हम लोग जोत-बो रहे थे, को वह आई.पी.एस. अधिकारी बेच रहे हैं और हम लोगों को बेदखल कर रहे हैं, इससे उन्हें रोका जाए। इस शिकायती पत्र को बिहार के प्रशासनिक अधिकारियों के पास न भेजकर मुझे भेजना मुझे बड़ा अजीब-सा लगा था, और चूँकि प्रकरण का संबंध मुझसे नहीं था, अतः मैंने उसे सीन-फाइल कर दिया था। पंद्रह दिन बाद उन कुँवर साहब का फोन मेरे पास आया कि सुना है, उनके खिलाफ कोई शिकायती पत्र आया है। मैंने कहा, आया तो है पर बिहार का प्रकरण होने के कारण मैंने उसे सीन-फाइल कर दिया है। इस पर 'कुँवर साहब' ने जो बात कही वह अपने आप में अनूठी थी, 'अब शिकायत आई है तो प्लीज जाँच आर्डर कर ही दीजिए।'

बाद में मुझे पता चला कि 'कुँवर साहब' के विरुद्ध घूस से तमाम रकम कमाने के आरोप में विजिलेंस की जाँच आर्डर हो गई थी और अब अपने विरुद्ध इस जाँच का आर्डर कराके वह विजिलेंस को यह भ्रम पैदा करना चाहते थे कि उन्होंने बिहार में अपनी रईस धर्मपत्नी की जमीन बेचकर तमाम सम्पत्ति अर्जित की है।

भारतीय प्रशासनिक संस्कृति के विषय में मेरी एक कविता है :

भारत में या तो आदमी के हैं विशेषाधिकार ,

नहीं तो वह आदमी होता है बिल्कुल बेकार

यथार्थ यह है कि हमने या तो अपने रोबदाब से अथवा विधि-विधान में प्रावधान कर अपने को जनसाधारण से भिन्न एवं उसके ऊपर का बना रखा है - कोई साहब है, कोई माननीय है, कोई महामहिम है और कोई माई लार्ड। इनमें महामहिम एवं माननीय तो सम्बोधित व्यक्ति की महानता के द्योतक हैं, परंतु माई लार्ड तो सम्बोधक को दास की श्रेणी में ला बिठाता है।

पर चूँकि मेरा भारत महान है, इसलिए यहाँ जनसाधारण की स्थिति को दास से ऊपर कर देने की हिमाकत करने की न किसी को फुरसत है और न चाह।