भाग 11 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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साहब कहाँ हैं - पूजा में, बाथरूम में, मीटिंग में या दौरे पर?

पूजा करना हमारी संस्कृति का अंग है और पूजा करने वाले व्यक्ति के सद्गुणों के प्रति जनसाधारण की आस्था स्वयं उमड़ पड़ती है। हिंदू लोग प्रातः स्नान-ध्यान के बाद पूजा करते हैं और सायंकाल आरती उतारते हैं, तो नेक मुस्लिम पाँच बार की नमाज अता करते हैं। सुबह लम्बे समय तक पूजा करने के कारण हिंदू कर्मचारियों का डेढ़-दो घंटे देरी से आफिस आना जायज एवं सर्वस्वीकार्य कारण समझा जाता है। इसी प्रकार जुमे के दिन मुस्लिम कर्मचारियों का 11 बजे कार्यालय छोड़ देना और नमाज, लंच और उसके बाद सेहत के लिए मुफीद दो घंटे आराम फरमाने के बाद ही वापस लौटना उनका धर्मसिद्ध अधिकार माना जाता है। अगर मियाँ जी हाजी हुए तो वह बाकायदा आफिस के किसी कोने में मुसल्ला बिछाकर हर नमाज के वक्त साष्टांग दण्डवत कर सकते हैं। कार्यालय के माहौल में उनकी इस अजूबा हरकत पर रोक-टोक करने की मजहबी मुमानियत है। प्रायः माथे पर टीका लगाकर आफिस आने वाले और पाँच वक्त नमाज पढने वाले लोग धर्मभीरु,सद्गुणी, सच्चे एवं दयालु प्रकृति के समझे जाते हैं। इस तरह पुजारी ख्याति वाले अधिकारी अप्रयत्न श्रद्धा के पात्र बनकर सेवापर्यंत सुख उठाते हैं।

इतना ही नहीं, अन्य प्रशासकीय दिनचर्या में भी पूजा अनेकों अवसरों पर बडा़ कारगर हथियार साबित होती है - 'साहब पूजा कर रहे हैं।' सुबह दस-ग्यारह बजे तक फोन करने वाले अनेकों लोग, जिनमें अब मैं भी शामिल हूँ, प्रतिदिन इस जवाब के शिकार होते रहते हैं। 1971-73 में जब मैं एस.पी., बस्ती था तो अपने बॉस को सुबह फोन मिलाने पर प्रायः यही जवाब मिलता था। एक दिन बॉस के अर्दली से टकरा जाने पर हनुमान जी की पूँछ की तरह खिंचती चली जाने वाली पूजा का रहस्य स्पष्ट हुआ। बॉस शंकर के दूतों यानी भूतों के भक्त थे। अतः रात को खूब चढ़ाकर पीछे के आँगन में बनाए गए मरणस्थल में ध्यानरत हुआ करते थे, अतः सुबह नौ-दस बजे तक निद्रालीन रहना उनकी सेहत के लिए मुफीद था और जरूरी भी। पूजा का झूठ बहाना बनाने का कोई धार्मिक व्यक्ति बुरा मान ही नहीं सकता है, अतः जनसाधारण को सत्य बात ज्ञात हो जाने के बाद भी मेरे बॉस सदैव उनकी श्रद्धा के पात्र बने रहे।

'ह्वाइल फ़ेसिंग ए सर्चाज्ड मॉब ए मजिस्ट्रेट शुड आइदर हैव दी प्रेज़ेंस ऑफ माइंड और ऐब्सेंस ऑफ बॉडी; ऐंड सिंस दी फ़ॉर्मर इज ए रेयर कमोडिटी ऐब्सेंस ऑफ बॉडी इज ए प्रिफरेबुल आप्शन' - पी.टी.सी., मुरादाबाद के वाइस-प्रिंसिपल ने प्रशिक्षण के दौरान हमें बताया था कि भीड़ द्वारा शांति-व्यवस्था भंग होने की सम्भावना के मौकों पर नियमानुसार पुलिस अधिकारी के साथ मजिस्ट्रेट भी उपस्थित रहना चाहिए, परंतु वे उपर्युक्त सीख सर्विस ज्वाइन करने के साथ ही प्राप्त करने लगते हैं और प्रायः ऐन फायरिंग की आवश्यकता के मौके पर कोई बहाना बनाकर खिसक लेते हैं। अतः ध्यान रखना कि ऐसे मौके पर मजिस्ट्रेट किसी बहाने से भागने न पाए। मेरे प्रारंभिक सेवा काल में ही वाइस-प्रिंसिपल साहब की टिप्पणी की सच्चाई का अनुभव मेरे एक बैचमेट को हो गया था। मोदीनगर मिल को सशस्त्र मजदूर घेरे हुए थे और भीड़ के हिंसक होने की सम्भावना थी। तभी मजिस्ट्रेट साहब यह कहकर खिसक लिए थे कि घर में कथा चल रही थी जो समाप्त हो गई होगी। वह प्रसाद लेकर एवं डी.एम. साहब को यहाँ की स्थिति से अवगत कराते हुए अभी आ रहे हैं। फिर वह मजिस्ट्रेट साहब तब तक प्रसाद प्राप्त करते रहे जब तक हिंसात्मक भीड़ हिंसक नहीं हो गई जिसके फलस्वरूप उस पर जमकर फायरिंग नहीं हो गई और एक दर्जन लाशें नहीं बिछ गई।

पूर्वकाल में कुछ ऐसे अधिकारी भी होते थे जो पुजारी के मोल्ड में फिट ही नहीं होते थे परंतु बड़ा साहब होने के कारण ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे से मिलना या फोन पर बात करना पसंद नहीं करते थे। टेलीफोन करने पर या मिलने का प्रयत्न करने पर वे पूजागृह के बजाय बाथरूम मे, मीटिंग में या दौरे पर पाए जाते थे।

पर जब से जमाना हाई-टेक हो गया है, साहब लोगों ने भी हाई-टेक तरीकों को अपना लिया है। अब किसी अधिकारी को फोन करने पर चपरासी या स्टेनो-बाबू से एक ही जवाब मिलता है, 'सर, साहब अभी हैं नहीं।'

'कहाँ गए हैं?'

'पता नहीं, पर आप अपना नाम व टेलीफोन नम्बर बता दीजिए। आने पर बात करा दूँगा।'

अब अगर आप उन साहब के मतलब की चीज हैं तब तो पाँच मिनट में ही आप को उनका फोन आ जाएगा क्योंकि साहब पहले से वहीं उपस्थित होते हैं, नहीं तो आप उनके फोन का इंतजा़र करते-करते सूख जाएँगे क्योंकि दूसरी-तीसरी बार आप द्वारा फोन करने पर भी वही जवाब मिलेगा।

और क्यों ऐसे-वैसों से मिलें हमारे साहब लोग, जब हमारी प्रशासकीय मान्यताओं के अनुसार अनअप्रोचेबल होना बड़प्पन की एवं प्रभावशाली होने की निशानी है। जब मैं प्रशिक्षण में था तब श्री एल.पी. सिंह दिल्ली में बड़े नामी गृह सचिव हुआ करते थे और उनकी तारीफ में मैंने पहली बात यही सुनी थी कि उनको उनके संयुक्त सचिव तक फोन करने की हिम्मत नहीं करते थे।